शनिवार, 16 मार्च 2024

मराठी नाटकों की लोकप्रियता .....

इतना तो मैं जानता था कि यहां मुंबई में मराठी नाटक देखना लोग खूब पसंद करते हैं...और मुझे इतना ही पता था कि कुछ जगहों पर जैसे की रविन्द्रालय, व्हाई बी चव्हान, वीर सावरकर भवन इत्यादि पर मराठी नाटकों का मंचन किया जाता है ...कुछ ज़्यादा मुझे इस के बारे में पता नहीं था ..

लेकिन दो चार दिन पहले एक रिटायर बंधु आए तो उन के हाथ में महाराष्ट्र टाइम्स समाचार-पत्र था.....बात जब चली कि अब रिटायर होने पर टाइम कैसे पास होता है तो उन्होंने झटपट अपना बढ़िया रुटीन बता दिया ...साथ में यह भी बताया कि मराठी नाटक देखने भी जाता हूं ...मुझे पता था कि वह भी गुज़रे दौर में मराठी रंगमंच पर काम करते रहे हैं....मैंने पूछा तो कहने लगे कि हां, उस शौक को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में लगा हूं...

इस के साथ ही उन्होंने मेरे सामने महाराष्ट्र टाइम्स में मराठी रंगमंच के विज्ञापनों का वह पन्ना सामने रख दिया....मैं उस पन्ने पर इतने सारे विज्ञापन देख कर हैरान था....कहने लगे कि वीकएंड पर अगर आप महाराष्ट्र टाइम्स या लोकमत खरीदेंगे तो आप को पता चलेगा कि किस तरह से दो पेज़ इन मराठी नाटकों  के विज्ञापनों से भरे रहते हैं....

महाराष्ट्र टाइम्स - मुंबई ...दिनांक 16 मार्च 2024 

आज शनिवार था, रेलवे स्टेशन के अंदर घुसने से पहले उन की बात याद आ गई ...महाराष्ट्र टाइम्स की एक कापी खरीद ली...सारे पन्ने उलटे ...थोड़ा बहुत समझ में आ भी गया....क्योंकि सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ी थी ...यह भी उन का ही मराठी पेपर है ...और विशेष तौर पर मैं मराठी नाटकों वाला पन्ना देख कर सच में दंग रह गया....


उस दिन जो साथी मराठी नाटकों के संसार की बातें कर रहे थे उन्होंने कहा कि ये जितने भी नाटकों  के विज्ञापन आप देख रहे हैं ये सब हाउस फुल होते हैं.....अगर आपने कभी चलना हो तो मुझे पहले बता देना....मैंने कहा कि मैं तो म्यूज़िक कंसर्ट्स की बुकिंग बुक-मॉय-शो पर करवा लेता हूं ...यह सुविधा भी तो होगी ...कहने लगे कि है तो लेकिन पहली कुछ चार पंक्तियों की बुकिंग उस हाल में ही होती है ....उसे बुक-मॉय- शो पर नहीं किया जाता....और जिस दिन से यह शो की बुकिंग उस हाल में शुरू होनी होती है उस के बारे में अखबार से ही पता चलता है और लोग उस दिन सुबह ही उस हाल में पहुंच जाते हैं ..बुकिंग के लिए। 

मुझे उन की यह बात सुन कर अपने बचपन-जवानी के दिन याद आ गए ...जब किसी नई पिक्चर रिलीज़ होने से कुछ दिन पहले उस की एडवांस बुकिंग शुरु हो जाती थी ...और हम लोगों को अकसर उस टिकट खरीदने के लिए सिनेमा हाल के चक्कर काटने पड़ते थे ...बहुत घपलेबाजी थी तब भी ....कुछ ही टिकटें वे लोग एडवांस बुकिंग में देते थे ...नहीं तो टिकटों की काला बाज़ारी कैसे हो पाती...

खैर, अच्छा लगा कि मराठी नाटकों की लोकप्रियता के बारे में जान कर ....और लोग टिकट खर्च कर जाते हैं मराठी नाटक देखने और इतने व्यापक स्तर पर ....यह एक बहुत सुखद जानकारी थी ...वैसे तो हिंदी के भी जो नाटक होते हैं मुंबई में ...उन की भी टिकट लेनी ही होती है ....

मुंबई के बाहर मेरा अनुभव कुछ अलग रहा ....18 साल की उम्र में अमृतसर में अपने कॉलेज में ज़िंदगी का पहला नाटक देखा ..पंजाबी भाषा में .....टोबा टेक सिंह ...इस के लेखक और निर्देशक थे पंजाब के एक बहुत बड़े लेखक, नाटककार, निर्देशक ...गुरशरण सिंह जी .....उम्र के उस पड़ाव में इस नाटक ने हम सब के एहसासों को झंकृत किया ...

फिर शायद अगले तीस साल तक छुट्टी ...कहीं कोई नाटक नहीं देखा ...न ही कुछ रूचि-रूझान था इन सब में....फिर जब पचास बरस की उम्र के आस पास लखनऊ में रहने लगे तो वहां भी हिंदी नाटकों की दुनिया बहुत निराली है ....बहुत से नाट्य-गृह भी हैं...आए दिन किसी न किसी नाटक का मंचन होता ही रहता है ....नाटकों से जुड़े हुए बहुत बड़े बड़े संस्थान हैं....अधिकतर तो ये सब हिंदी भाषा में ही होते थे, और कभी कभी अवधी भाषा में भी नाटक देखने को मिल जाते थे ....

लखनऊ में जो सात-आठ साल रहे वहां पर बहुत से नाटक देखने को मिले ...नाटकों में काम करने वाले कलाकारों को देखने और उन को अलग अलग प्रोग्रामों में सुनने का मौका मिला ....वहां यह भी जाना कि मुंबई में जो लोग हिंदी फिल्मजगत में स्थापित हैं उन में से बहुत से कलाकार लखनऊ रंग मंच द्वारा ही तैयार किए गये हैं....कलाकार ही नहीं, बॉलीवुड के बहुत से लेखक भी लखनऊ द्वारा तैयार किए गए हैं.....

लखनऊ में जितने हिंदी के नाटक देखे उन के नाम याद करना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम है ....शायद 2013 में जब नए नए लखनऊ में गए तो वहां पर असगर वज़ाहत के नाटक - जिस लाहौर नहीं वेख्या, ओ जम्मेया ही नहीं....। यह बहुत अच्छा नाटक है, आप यू-ट्यूब पर इसे देख सकते हैं। बहुत से नाटक और भी देखे ..लेकिन वहां पर टिकट नहीं लगती थी, सब कुछ मुफ्त देखने को मिलता था ...दर्शकों के लिए तो बढ़िया है लेकिन नाटकों के लिए, नाटकों की सेहत के लिए, कलाकारों के लिए तो ठीक नहीं है ....तब भी बातें चल तो रही थीं कि नाटक देखने के लिए टिकट होनी चाहिए....

लखनऊ में रहते हुए ही नादिरा बब्बर के कुछ नाटक देखने को मिले ...जो उन्होंंने लिखे भी थे, और निर्देशन भी उन का ही था....क्या बेहतरीन नाटक लिखे थे....जूही बब्बर ने भी उन में काम किया था....मैं तो हिंदी नाटकों को देख कर दंग रह जाता था कि इतने इतने लंबे  ़डॉयलाग याद करने .....और पूरी परफेक्शन के साथ उन को निभाना ...वाह वाह .....👍

रंग मंच एक अद्भुत विधा है ...मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी के साथ साथ अपनी मातृ-भाषा में नाटक पढ़ने-देखने चाहिए...बहुत कुछ होता है इन से सीखने के लिए ....हमारे अंदर तक ये अपना प्रभाव छोड़ते हैं ....शिक्षित करते हैं.....देखने चाहिएं जब भी मौका मिले ....मराठी और हिदी के बारे में तो मैं कह सकता हूं ....इंगलिश नाटकों के बारे में मुझे कुछ इतना ज्ञान नहीं है....जिन को मैं देखने गया वह मेरी समझ से ऊपर के थे, शेक्सपियर के या गेलिलियो इत्यादि.....कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा ...और जो इंगलिश के नाटक मेरी समझ में आ जाएं, उन की देखने की मेरी कभी इच्छा हुई नहीं ..वैसे ही ....टाइम्स ऑफ इंडिया में आते हैं इन के भी विज्ञापन अकसर ...लेकिन कभी नहीं गया देखना.....शायद कभी कभी हिंदी नाटक के विज्ञापन भी मुंबई की टाइम्स आफ इंडिया में आते हैं....

मैने उन सज्जन को कहा कि इसे ज़रा पकड़िए मुझे एक फोटो खींचनी है ...

यह पोस्ट किस लिए.....सिर्फ एक सलाह देने के लिए कि अगर आप नाटक देखने नहीं जाते तो जाना चाहिए ...जिस भी भाषा में आप को पसंद हो, जाइए....और हां, नाटकों की किताबें भी पढ़िए.....और हां, किताबों से याद आया.....कल ट्रेन के जिस डिब्बे में चढ़ा उस में एक सज्जन एक किताब के पन्ने उलट पलट रहे थे ...जिज्ञासा हुई ...क्योंकि यह जो प्रजाति (मैं भी उसी एन्डेंजर्ड स्पीशिस से ही हूं)  में अखबार हाथ में लेकर चढ़ती है या अपने थैले में से कोई किताब निकाल कर पढ़ने लगती है यह भी लुप्त होने की कगार पर ही है .....और जो लिखने वाले हैं उन को तो हरेक से बात करनी होती है, बर्फ तोड़ने में कोई शर्म नहीं महसूस होती उन को ....मैंने भी उनसे ऐसे ही पूछ लिया कि क्या पढ़ रहे हैं, उस सज्जन ने बताया कि गीता प्रैस गोरखपुर की उपयोगी कहानियां पढ़ रहा हूं....कहने लगे कि मैंने तो पढ़ ली है, आप ले लीजिए, पढ़िएगा.....मैंने कहा, नहीं, आप पढ़िए....मैं भी ऐसी किताबों का संचय करता रहता हूं , पढ़ता भी हूं। फिर हम की बात गीता प्रैस गोरखपुर के बारे में होने लगीं कि किस तरह से वे सस्ते दामों पर श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध करवा रहे हैं....बस, दो मिनट में हमारा स्टेशन आ गया....जाते जाते बता कर गए कि प्रिंसेस स्ट्रीट पर गीता प्रैस गोरखपुर की दुकान है....मैंने भी कभी किसी ज़माने में गीता प्रैस की बीसियों किताबें खरीदी थीं, याद नहीं कितनी पढ़ी, कितनी ऐसे ही यहां वहां पड़ी अल्मारियों से झांक रही होंगी कहीं पड़ी, कितनी किताबों को तो दीमाक ही चाट गईँ....कोई बात नहीं, यह सब भी साथ साथ चलता है...

हां तो बात आज मराठी नाटकों की हो रही थी ....मराठी रंग मंच ने हमें एक से एक बेहतरीन कलाकार दिए हैं ....हिंदी सिनेजगत में ..किस किस का नाम लें, किस को ऐसे कैसे भूल जाए...इसलिए नाम किसी का भी नहीं लिख रहे हैं.....बस, इतनी गुज़ारिश है कि नाटक देखा करिए, पढ़ा करिए, अन्य भाषाएं पढ़ते हैं, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखिए, पढ़िए, बोलिए .....और अपनी मातृ-भाषा में छपने वाले किसी अखबार को भी देखना अच्छा लगता है...ज़मीन से जुड़ी बातें और आम आदमी की खबरें उस में भी भरी पड़ी होती हैं ....वैसे मुझे मराठी में हो रही बातचीत सुनने में बड़ा मज़ा आता है ....लोगों में चल रही उस बातचीत मैं नए लफ्ज़ चुनने लगता हूं ....कुछ शब्दों के अर्थ के कयास लगा लेता हूं, कुछ के अर्थ बाद में किसी से पूछ लेता हूं ....और सब से खुशी मुझे लोगों के चेहरों को देख कर होती है जब वे अपनी मातृ-भाषा में बतिया रहे होते हैं ...

बुधवार, 13 मार्च 2024

पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....

आज से पचास बरस पहले जब रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म आई तो उस का यह गीत ...महंगाई मार गई जो प्रेमनाथ पर फिल्माया गया था, हमें बहुत पसंद था, रेडियो पर बजता था, गली मोहल्ले में जब कोई जश्न या ब्याह-शादी होती तो बड़े बडे़ स्पीकरों पर बहुत से गीत बजते थे ..उनमें से यह भी बहुत बजता था...उस में एक लाइन यह भी है ..पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....

हमें उन दिनों पता ही नहीं था कि यह पावडर वाला दुध होता क्या है, उस के दो चार बरसों बाद जब हमारी बड़ी बहन अपनी बेटी को दूध की बोतल में पावडर घोल कर पिलाया करती थी ..लोक्टोजेन शायद ...मैंने पहली बार उस दूध वाले पावडर के दर्शन किए थे ...१५ बरस की उम्र में ....बस, मुझे यही लगता था कि यही पावडर वाला दूध है जिसे मेैं बडे़ चाव से खाता रहता था जितने दिन भी वह हमारे पास होतीं...उन्होंने कभी टोका नहीं, रोका नहीं ....अभी भी याद करता हूं तो हंसती हैं....




आज से ५०-६० बरस पहले की दूध की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि मलाई का ज़िक्र होना लाज़िम है ....मुझे आज लिखने का यह ख्याल इस वक्त इसलिए आया कि मैंने अभी चाय बनाने के लिेए जैसे ही दूध का पतीला फ्रिज में से निकाला उसमें जिस मलाई के दर्शन हुए, उसे देख कर मैं डर गया...यह कोई सनसनी फैलाने वाली बात नहीं है, हो सकता है कि आज कल पैकेट का दूध इतना बढ़िया क्वालिटी का आने लगा हो कि उस एक किलो में मलाई के ऐसे अंबार लग जाते होंगे ...मुझे इस का कुछ इल्म नहीं है, बस लिख रहा हूं ....क्योंकि मैं इस तरह की मोटी मलाई के बारे में पिछले लगभग २५-३० बरसों से सोच रहा हूं ....लोगों से बात भी करता हूं लेकिन इस का राज़ नहीं जान पा रहा ......लेकिन दूध एवं दूध से बनी सभी चीज़ें मैंने कई सालों से बंद कर रखी हैं ...दूध को तो पिए शायद १० साल ही हो गए होंगे ...(यह कोई मशविरा नहीं है किसी को, ध्यान दें, यह केवल एक आपबीती है अपनी ही डॉयरी में लिखने के लिए)....चाय मुझे हरी, पीली, हर्बल, फर्बल कभी भाई नहीं, झूठी तारीफ़ होती नहीं, आखिर करें भी क्यों, लेकिन जो हिंदोस्तान की साधारण चाय है उसमें थोड़ा बहुत दूध तो जाएगा ही न ...बस, दूध से मेरा उतना ही वास्ता है....दही या रायते के दो चम्मच कईं बार किसी सब्जी के साथ मजबूरी वश लेने पड़ते  हैं.....दिली इच्छा होती है कि दूध से बनी कोई मिठाई, या देसी घी से तैयार कुछ भी न खाऊं....कोई थमा देता है तो परेशान हो जाता हूं ...क्या करूं इस का ....मजबूरी वश चख लेता हूं...लेकिन किसी पार्टी वार्टी में मूंग  के दाल के हलवे, गाजर के हलवे पर जैसे टूट पड़ता हूं ....फिर अपराध बोध से परेशान होता हूं ...इसलिए मुझे कहीं भी आना जाना भी पसंद नहीं हैं, क्योंकि उस वक्त मैं अपने खान-पान पर कंट्रोल नहीं कर पाता ...

हां, तो बात चल रही थी मलाई की .....अभी लिखते लिखते सोच रहा हूं कि इतनी मोटी मोटी मलाई का रोना रोने मैं इसलिए बैठ गया कि हम ने ५०-५५ बरस पहले मलाई को उस के सही रूप में देखा हुआ है ....बिल्कुल पतली सी मीठी मीठी मलाई को परत हुआ करती थी दूध पर ...जिसे हम लोग शक्कर के साथ खा जाते, या टोस्ट पर लगा कर खा जाते ...और वह मलाई खाने के लिए भी एक दो दिन इंतज़ार करना पड़ता था ...क्योंकि उस मीठी मलाई पर हाथ साफ करने वाले हम ही तो न थे, भाई बहन भी थे.....😂 

अब कोई इस पोस्ट को पढ़ने वाला यह कहे कि भाई मैंने मलाई का सही रूप देखा नहीं होगा....मलाई अगर तुम्हारे यहां पतली होती थी तो ज़रूर तुम लोग जहां से दूध लाते थे उन की भैंसे कमज़ोर होंगी.....इस तर्क के आगे मैं कुछ न कहूंगा...केवल नतमस्तक हो सकता हूं क्योंकि मैें तो सिर्फ और सिर्फ आंखों देखी ब्यां कर रहा हूं...

दूध लेने उन दिनों हम लोग डोलू ले कर जाते थे ...कभी पैदल कभी साईकिल पर ..साईकिल पर जाते वक्त थोड़ा ध्यान रखना पड़ता था क्योंकि साईकिल पर डोलू टांगने से वह छलक जाता था अकसर और एक हाथ में डोलू पकड़े पकड़े साईकिल चलाना कईं बार थोड़ा मुश्किल भी होता था...एक तो अचानक ब्रेक वेक लगाने का चक्कर और दूसरा छोटी छोटी कोमल उंगलियां थक जाती थीं यार 😎....

जैसे ही हम घर में दूध पहुंचाते, मां को डोलू पकड़ाते ...तो मां का कवांटिटी एवं क्वालिटी चैक शुरु हो जाता ....मां कहती कि ये लोग नहीं सुधरेंगे ...आज भी इतनी झाग डाल दी....मां कहती कि उस को कहा करो कि दूध मापने से पहले झाग तो मार लिया करे....हम सुन लेते लेकिन दूध वाले को कुछ नहीं कहते ...क्या करें हम ऐसे ही थे बचपन से ही .....चुपचाप, सहने वाले ...

अच्छा जी दूध चढ़ गया अंगीठी पर ....और कुछ ही वक्त के बाद उस की मलाई का जायजा लिया जाता ....अगर तो मलाई मोटी होती (नहीं, बि्लकुल ऐसी नहीं जैसी आप इस फोटो में देख रहे हैं.....) सब ठीक, अगर मलाई हुई पतली तो फिर मां को लगता आज फिर डेयरी वाले ने पानी ठेला लगता है ....पहले ग्राहकों की आंख चुरा के यह काम पूरे ज़ोरों पर था ...हर रोज़ डेयरी वालों के पास दो चार ग्राहकों की यही शिकायत सुनने को मिलती कि दूध पर मलाई ही नहीं आ रही .....लोग यह तो कह नहीं पाते कि दूध पतला है, या कुछ और लफड़ा है, लेकिन इतना तो कह ही देते ....एक दो दिन डेयरी वाला सुधरा रहता और मलाई मोटी आने लगती (उतनी तो कभी नहीं जो आप ऊपर फोटो में देख रहे हैं....😁...तीसरे दिन से फिर वही पतली मलाई....पतला दूध ....फिर एक वक्त वह भी आया कि लोगों ने यह तो मान लिया कि दूध में पानी तो मिलाते ही हैं ये लोग, लेकिन पानी तो कम से कम साफ मिलाया करें....) 

मलाई वलाई भी जो उन दिनों मां के प्यारे हाथों से खा ली, खा ली.....उस के बाद तो मलाई की तरफ़ कभी देखने की इच्छा नहीं हुई....इतनी इतनी मोटी मलाईयां.....क्या होगा इन में, क्या न होगा.....डर लगता है ..लखनऊ में रहते थे तो वहां पर मक्खन खूब बिकता है दुकानों पर, खोमचों पर .....देख कर डर ही लगता रहा हमेशा कि यार, क्या बेच रहे होंगे ये मक्खन के नाम पर.....किस दूध से तैयार होता होगा यह मलाई-मक्खन ...एक आध ट्राई करने के लिए खा भी लिया होगा...

आज से ५०-६० बरस पहले जो हम लोग दूध अपने सामने गाय-भैंस से दुहलवा कर लाते थे उस मलाई की तो बात ही क्या थी, जब कभी उस का मक्खन, घी तैयार होता तो जैसे सारा घर महक जाता एक बहुत अच्छी खूशबू .......और अब जब कभी इस तरह की मोटी मलाई से मक्खन और घी तैयार होता है तो पूरे घर में बास फैल जाती है ...लेकिन फिर भी हम लोग वह घी खाते हैं ....मैं भी ले लेता हूं ...जिस तरह से शहर की एक दो १००-१५० साल पुरानी मशहूर दुकानों से खरीदी हुई मिठाई भी खा लेता हूं ....अपनी मूर्खतावश यह सोच कर कि इन का देशी घी तो ठीक ही होगा........लेकिन, नहीं, अब बहुत कम हो गया है ...अब तो एक दो दुकाने हैं ....जहां पर लड्डू और दूसरी मिठाईयों में देसी घी इस्तेमाल नहीं होता, वहीं से कभी कुछ खरीद लेते हैं ....क्या करें, ये लड्डू, इमरती की आदतें कहां छूटती हैं....

मलाई से याद आया ....जैसे आज महिलाएं नेटफ्लिक और विमेन-लिब की बातें करती हैं ....उन दिनों ऐसा कुछ न था, एक साथ बैठ कर स्वैटर बुनना, गपशप करना, अखबार-मैगज़ीन पढ़ना और उस में से स्वैटर के नए नमूने ढूंढना.....और अपने घर में आने वाले दूध की गुणवत्ता की बातें करना ....यही कुछ था हमारी माताओं और बड़ी बहनों की ज़िंदगी में ....और दूध की गुणवत्ता का एक ही पैमाना....मलाई की मोटाई .....😎😂 और उस से तैयार होने वाले देशी घी की मात्रा....

मज़े तो तब मक्खन के भी थे.....बॉसी रोटी के ऊपर लगा कर ऊपर से गुड़ की शक्कर उस पर उंडेल कर मज़ा आ जाता था....और आलू के परांठे पर, दाल में वह मक्खन डालते ही तुरंत महक छोड़ कर गायब हो जाता था ...लेकिन एक बात तो फिर भी है कि उन दिनों भी गाय भैंस को पसमाने के लिए (उसे दूध देने के लिए तैयार करने के लिए) अक्सर बछड़े को उस का स्तनपान करने के लिए छोड़ना कम तो हो गया ...और लोग उसे पसमाने की बजाए उसे ऑक्सीटोसिन का टीका ठोंकने लगे थे....अजीब तो लगता था, लेकिन हमें कुछ समझ नहीं थी, लेकिन जब मां के साथ होते तो मां भी और कुछ लोग और भी टोक ही देते उस टीका लगाने वाले को कि यह मत किया करो........लेकिन उन का अपना तर्क था कि यह ...और वह .....। खैर, उस टीके पर अपना कंट्रोल नहीं था, बहुत अरसा बाद हमें पता चला पढ़ाई लिखाई करने के बाद कि इस ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन का मतलब क्या है, क्या नुकसान हैं....एक ही सूई से सभी गाय -भैंसो को टीका लगाते रहते थे ....और टीका लगाना तो गलत लफ्ज है, वे तो सिरिंज को दूध से ला कर जैसे गाय भैंस को टीका ठोक देते थे ....मोटी सी स्टील की सूई ....मुझे तो कईं बार डर भी लगता कि कहीं सूईं टूट गई तो ...वैसे भी जानवर को उस टीके की ठुकाई से कितना दर्द होता होगा....हम सोच सकते हैं ...

आज की मलाईदार बातें यही खत्म ....मुझे तैयार हो कर काम पर निकलना है ...देर हो जाएगी...लिखने का क्या है, बातें याद आती जाएंगी और लिखते चले जाएंगे. वैसे यह बात तो पक्की है कि हमारे वक्त की मलाईयां हमें लुभाती थीं, अब डराती हैं....वैसे अगर कहीं शुद्ध भी मिल जाए तो डाकटर लोग ही डरा देंगे ....इस पोस्ट को बंद करते ख्याल आया कि जब भी मक्खन मलाई की बातें करते हैं तो वह माखनचोर, यशोदा का नंदलाला का याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है....तो फिर इसे सुनिए.....यशोदा का नंद लाला    और इसे भी ज़रूर सुनिए ... बडा़ नटखट है ...

(Disclaimer- Obviously, these are my personal views in my blog, may be some problem with the brand that we use....may be! --- everyone is free to explore his own truth and act as per his/her doctor's advice while making decisions about their diet) 

शनिवार, 2 मार्च 2024

पनीर के बारे में हम पहले ही से थे फ़िक्रमंद

इसी फ़िक्र के चलते ही हम ने पिछले 20-25 बरसों से बाज़ार से कभी पनीर खरीदा नहीं ....2002 के आसपास की बात है हम लोग जहां रहते थे वहां दूध-दही की नदियां बहा करती थीं किस्सों में ....इसलिए हम भी वहां पहुंचते पनीर, और मिठाईयों (विशेषकर बर्फी, छैना ...) पर टूट पड़े ...फिर नकली दूध, नकली और मिलावटी पनीर, नकली दूध से बनी मिठाईयों की खबरों ने ऐसा हिला कर रख दिया कि यह सब खाना बहुत कम हो गया....और पनीर तो बाज़ार से खरीदना बंद ही हो गया...लेकिन सोचने वाली बात है कि घर में जो पनीर बनेगा वह भी दूध तो उसी से बनेगा जो बाज़ार में मिल रहा है ....अब घर में कभी एक दो अच्छी ब्रांडेड कंपनियों के पनीर के पैकेट दिख जाते हैं...(सोचने वाली बात यह है कि जिस फूड-चेन के प्रोडक्ट्स में एनॉलॉग पनीर की बात पिछले दिनों हम लोगों ने पढ़ी-देखीं, वे भी तो अच्छी ही हैं....बुरा कुछ भी तो नहीं यहां 😂

बातें ऐसी सिर दुखाने वाली हैं सच में ....लेकिन अपने अनुभव लिख देने चाहिए, शायद किसी को कोई रास्ता दिखे या हमारे रास्ते में जो गलतियां हैं कोई हमें उस के बारे में ही बता दे, लेकिन अगर लिखेंगे नहीं तो बात कैसे बनेगी....बचपन से पनीर बहुत पसंद रहा है, इस के पकोड़े, इस की भुर्जी और आलू-मनीर और मटर पनीर की सब्जी जिस के लिए पहले पनीर को अच्छे से फ्रॉई किया जाता था पहले....ज़िंदगी की उस अवस्था में किसी फ़ुर्सत होती है यह देखने की जो वह खा रहा है, वह क्या है ....बस स्वाद ही सर्वोपरि होता है ....लेकिन जैसे ही कुछ 20-25 बरसों से इस नकली और मिलावटी पनीर की खबरें पढ़ीं तो बस बाहर से पनीर खरीदना लगभग बंद ही हो गया....

हां, लिखते लिखते याद आ रहा है यह कोई 20 साल पहले की बात है ...वही दूध-दही की नदियों वाले इलाकों की ....जब अखबारों में यह आने लगा कि पनीर बनाने के लिए जो दूध फाड़ते हैं डेयरी वाले उसमें किसी एसिड का इस्तेमाल किया जाता है ....मुझे याद है कि मां की टिप्पणी यह होती थी कि अब अगर वे दूध के फाड़ने के लिए नींबू का इस्तेमाल करने लगें तो हो चुका उन का धंधा......लेकिन फिर भी ये सब पढ़ कर बाहर के पनीर से बेरुखी सी हो गई ....यहां तक कि किसी भी ब्याह-शादी-पार्टी में पनीर खाना बंद दिया...

बाहर से पनीर खरीदना ही नहींं, कहीं भी बाहर ---किसी पार्टी में, किसी शादी-ब्याह में, बड़े से बड़े रेस्ट्रां में खाते वक्त भी पनीर कभी चखते तक नहीं, कभी उस पीली दाल के साथ मजबूरी वश एक दो चम्मच शाही पनीर की ग्रेवी लेनी पड़ जाती है ....यही कारण है मुझे कहीं भी खाने वाने के लिए बाहर जाना पसंद नहीं है ...दारू पीनी नहीं, नॉन-वेज भी नहीं, पनीर भी नहीं, कोई मिल्क प्रोडक्ट भी नहीं तो फिर बाहर खाने जाना ही क्यों है.....(हां, जो बात आप के मन में आ रही है वह मैं भी सोचता हूं कि फिर जी ही क्यों रहे हैं ...😎...यह जीना भी कोई जीना है लल्लू)....दाल-रोटी में तो न तो दाल अपने स्वाद की मिलती है और रोटियां भी कच्ची पक्की ....बाहर कभी खाना मेरे लिए किसी सज़ा भुगतने जैसा है ....वही जाता हूं जहां जाने से बचा नहीं जा सकता....😎....खाने पीने के बारे में और भी बता दूं कि शायद दस साल तो कम से कम हो गए होंगे दूध नहीं पीता हूं, दही भी एक दो चम्मच मजबूरी में कभी लेने पड़ते हैं ....लेकिन यह जो मैं ब्लॉग में लिख रहा हूं यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, इस को फॉलो मत करिए, पढ़ने वाले अपनी सेहत के खुद जिम्मेदार हैं ....मेरी लिखी हुई बातों के भरोसे मत रहिए....लेखकों का काम कईं बार इशारे इशारे में अपनी बात कहनी होती है .....अपनी सेहत, अपने खान-पान के सभी फैसले खुद और अपने चिकित्सक की सलाह के मुताबिक करिए.....जहां तक मेरी बात है, मैं भी वही करता हूं जो मुझे मुनासिब जान पड़ता है, सदियों से चली आ रही खाने-पीने की धारणाओं के बहाव के विरूद्ध चलना मुश्किल होता है ....लेकिन हर इंसान के फ़ैसले अपने होते हैं ....होने भी चाहिए...क्योंकि सही गलत के लिए वह खुद जिम्मेदार होता है ...

कुछ दिन पहले उस बड़ी सी फूड-चेन में अनॉलॉग पनीर के बारे में चिंता हुई ....मैं तो वहां से एक बर्गर के अलावा कभी कुछ खाता नहीं था (वह भी साल में एक दो बार) .....लेकिन जिस तरह से आज के जवान पनीर के दीवाने हैं, बड़े ब्रांड के पनीर वाले बडे़ पकवानों के दीवाने हैं, यह चिंता का विषय़ तो है ही ...

यही साहसी पत्रकारिता है ...मुंबई वासी क्यों टाइम्स ऑफ इंडिया के दीवाने हैं, यह तो इसे पढ़ने वाले ही जानते हैं ...किसी भी तस्वीर के सभी रूख दिखाने में अव्वल है टॉइम्स, इस का पाठक कभी भी ठगा हुआ सा महसूस नहीं करता ...(टाइम्स आफ इंडिया की रिपोर्ट ...दिनांक 1 मार्च 2024) 

 इस विषय़ पर मेरा कुछ लिखने का मन तो नहीं था, क्या हर वक्त अपनी ही हांकते रहें, लेकिन जब से उस फूड-चेन की इस तरह की खबरें पढ़ी थीं, मन में बड़ी उथल-पुथल सी मची हुई है.....आज सुबह जल्दी उठ गया....पहले तो सत्यजीत रे की कहानी Fritz पढ़ी, नेट पर नहीं, किताब में .....मुझे उन को पढ़ना अच्छा लगता है, फिर सामने कल की अखबार पर नज़र पड़ गई ....कल पढ़ी तो थी, कैसे छूट गया इस रिपोर्ट को पढ़ना.....हैरानी भी हुई ...इसे आराम से पढ़ा और फिऱ अपनी बात लिखने बैठ गया.....😂

मिलावट वैसे तो हमारे बचपन के दिनों से ही खाने-पीने की चीज़ों मे शुरू हो चुकी थी .....लेकिन इस का पता हमें रोटी-कपड़ा-मकान के इस गीत से ही चला था ....पावडर वाले दूध की मलाई मार गई ....(यह फिल्म छठी सातवीं जमात के दिनों में अमृतसर में देखी थी)  फिर भी लगता है मिलावट आटे मे नमक के बराबर रही होगी उस दौर में ....अब तो दाल में कंकड़ ही कंकड़ हैं....ऐसे लगता है, हर चीज़ खाते वक्त सोच विचार करना पड़ता है ....

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

६० साल पुराना एफिडेविट - दारु परमिट के लिए

 


दो दिन पहले मुझे अपने हाथ से एक ६० साल पुराने एफिडेविट को छूने का और अच्छे से पढ़ने का मौका मिला...तब से मैं बहुत हैरान हुआ....

यह एफिडेविट पचास नए पैसे के स्टांप पेपर पर लिखा हुआ था- जी हां, हाथ से लिखा हुआ था...जिस पर १ रूपए की कोर्ट फीस की टिकट भी लगी हुई थी....और इस शपथ-पत्र में लिखा यह था ..... 

मैं .......(नाम) , उम्र लगभग ५५ साल, (पूरा पता) बम्बई का रहने वाला हूं - do hereby state on solemn affirmation as under - 

१. मेरी पैदाइश बंबई की है ...तारीख लिखी थी ...और मैं तभी से बंबई का नागरिक हूं।  

२. मुझे लिकर-परमिट की ज़रूरत है, डाक्टरी प्रमाण पत्र (नाम एवं इलाके सहित) दिनांक .......(१९६४) के अनुसार मेरी सेहत ठीक नहीं है। 

Whatever is stated above is true to my knowledge and belief. 

 

                प्रार्थी के हस्ताक्षर  

 

किसी वकील ने भी उस की शिनाख्त करते हुए हस्ताक्षर किए हैं। 

और उस पर बंबई के रजिस्ट्रार और प्रेज़ीडेंसी मैजिस्ट्रेट के भी हस्ताक्षर हैं। 

 

यह सारा एफिडेविट इंगलिश में हाथ से फाउंटेन पेन या होल्डर से लिखा हुआ है, केवल प्रार्थी के हस्ताक्षर ही हिंदी में हैं। 

यह १९६४ का है, पूरे ६० साल पुराना एफिडेविट ....मैं अपनी हैरानी को बहुत से लोगों के साथ बांट चुका हूं कि दारू पीने के लिए भी ऐसा परमिट लगता था ...

उत्सुकतावश मैंने फिर गूगल सर्च किया ....यह लिख कर के महाराष्ट्र लिकर परमिट १९६४ शपथ-पत्र, एफिडेविट ....इंगलिश में लिख कर सर्च किया....बहुत से रिजल्ट आए लेकिन ऐसा एफिडेविट कहीं दिखा नहीं ....परमिट तो होते ही होंगे ....उस दौर को परमिट राज भी कहते थे ....हर जगह परमिट, कोटा बंधा हुआ होता था ...राशन की दुकान में मिट्टी के तेल, शक्कर, आटे, चावल का और सीमेंट की दुकान में सिमेंट का, शायद कोयले का भी ...कोयले का तो मुझे अच्छे से पता नहीं ...लेकिन कोयले की दलाली करने वालों - 😎(दुकानदारों) को तो परमिट लगता ही था, मुझे किसी पुराने कोयले के डिपो का एक लड़का एक बार बता रहा था....

हम लोग बचपन में देखा करते थे, और बाद में भी कि कईं जगह पर किसी दारु की दुकान के साथ थोड़ी-बहुत जगह का जुगाड़ कर के उसके अंदर बैंच लगे होते, बाहर एक टॉट का टुकड़ा लटका होता और उस के बाहर बोर्ड लगा होता ....देसी दारु का मंज़ूरशुदा अहाता .....पंजाब ही में नहीं, हरियाणा में भी देखा ....ड्राई राज्यों को छोड़ कर सभी जगह होते ही होंगे ....अब देसी के साथ अंग्रेज़ी भी लिखा होता है ....

आज कल वैसे भी शराब की बिक्री को एक तरुह से बढ़ावा दिया जा रहा है ....गाड़ी कमाई हो रही है, एक्साईज़ टैक्स ही होता है न, इस की बिक्री से खूब कमाई होती है ...अब दारु ठेकों पर ही नहीं, दूसरी दुकानों या मॉल-वॉल में भी मिलने लगी है ....

लिखते वक्त भी उस ६० साल पुराने एक एफिडेविट का ख्याल आ रहा है कि इतने से काम के लिए भी लोग कैसे कानून का पालन करते थे ...और सरकारों को भी दारू की बिक्री से हासिल होने वाले टैक्स की ज़्यादा परवाह न थी....अब तो एक तथाकथित दारु घोटाले ने नेताओं की नींद उड़ा रखी है, कुछ तो नप चुके हैं कब के ....कुछ पर कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है ...

खैर, क्या वह पुराना दौर ही लाईसैंस, परमिट का था....आप को याद ही होगा िक पहले घर में रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस बनता था डाकखाने में और रेडियो की क्वालिटी के मुताबिक (इंडियन है, या इंपोर्टेड या कितने बैंड का है, बैटरी वाला है या बिजली से चलता है) उस की लाईसेंस फीस तय होती थी.....मैंने एक बार उस लाईसैंस की फोटो भी साझा की थी, फिर कभी कर देंगे....१५ रूपये साल के लगते थे बढ़िया रेडियो को घर में रखने के लिए, और मैं जिस दौर की बात कर रहा हूं ....१९७० के आस पास की, उन दिनों मैंने भी डाकखाने में रेडियो के लिए ३-४ या पांच रूपए की लाईसैंस फीस भरी हुई है  ........

सही बात है हमने दूरी तो काफी तय की है ....बड़े चेलेंज रहे हैं हमारे लोगों के सामने, खैर, वे तो हैं अभी भी, रहेंगे भी....बस, उन की टाईप बदल गई है....और जब कभी देसी दारु की बात चलती है या खुद ही याद आते हैं वे देसी दारु के अहाते, आम के अचार या उस के मसाले के ही साथ, तली हुई नमकीन दाल, या फिर सादे नमक को ही दारु के साथ थोड़ा चाट लेने वाले मंज़र याद आते हैं, अखबारों में देसी दारु से अचानक बीसियों लोगों का अपनी जान खो देना और अपनी आंखें खो देना याद आता है .....तो उसी वक्त एक अहाते में ही फिल्माया गया यह सुपर-डुपर ...सुपर-सुपर -डुपर गीत भी याद आए बिना नहीं रहता ...

अपने घर में दारु पीने के लिए भी परमिट की ज़रुरत वाली बात तो कभी भूलने वाली नहीं मुझे.....


शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

आज गले का कॉलर देख कर नानी याद आ गई


आज फुटपाथ पर एक बंदा दिखा गले में इस तरह का कॉलर पहने हुए तो मुझे नानी याद आ गई ... कहावत वाली नहीं, असल वाली नानी.....क्योंकि इस तरह का कॉलर हमने सब से पहले इस कायनात में अपनी नानी के गले में जब देखा तो हम सहम से गये थे...

1970 के आसपास की बात है...पिता जी की तबीयत ठीक न थी, नानी बस से अंबाला से अमृतसर आई थीं, पिता जी की तबीयत का हाल चाल पूछने ...उन दिनों भी पांच घंटे ही लगते थे ...आज भी शायद उतने ही लगते हैं इतना विकास होने के बाद भी ...हम ठहरे पक्के रेलों के दीवाने, हमने नानी को कहा कि गाड़ी में आया करो, तो वह झट से हमें समझाया करती ...गाड़ी तो अपने वक्त पर जाती है, बस का क्या है, जब अड़्डे पर जाओ, बस मिल जाती है ....उन्होंने अधिकार यात्राएं बस में कीं और हम लोगों ने गाडि़यों में....चाहे गाड़ी के इंतज़ार में एक दो घंटे स्टेशन पर ही क्यों ने बैठना पड़ता...

खैर, नानी आई तो उस के गले में एक कड़क सा कॉलर देख कर मैं तो भई डर गया....मैं तो बहुत छोटा था, लेकिन मुझे मन ही मन चिंता तो हो ही रही थी कि पता नहीं नानी के साथ क्या लफड़ा हो गया है ...कभी वह उसे उतार देती, कभी लगा लेती ...लेकिन मेरा डर तो लगातार बना हुआ था कि नानी के गले में यह फंदा सा आखिर है क्या!! हमें पता चला कि नानी के गले की हड़्डी बढ़ गई है ...न हमें उस का क ख ग ही पता था, बस हम फ़िक्र कर कर के आधे हुए जा रहे थे ...

खैर, फिर जब मैं बीस तीस बरस का हुआ तो अकसर लोग इस तरह के कॉलर लगाए दिखने लगे ...लेकिन अभी हाल फिलहाल में देखते हैं कि ये कॉलर बडे़ ट्रेंडी से हो गए हैं....छोटे साइज़ के और बिल्कुल नर्म, स्पंज जैसे ......लेकिन वह नानी वाला कालर तो ऐसा था कि वह तो फंदे जैसा दिखता था ...उसे देख कर तो मेरा सिर घूमने लगता था, डर से ....वैसे भी वह इतना सख्त था कि उससे नानी को क्या पता कितना फर्क पड़ा होगा या नहीं.......और वह कॉलर नानी के कमरे की शेल्फ पर अकसर टिका रहता था आगे कईं बरसों तक ...हम जब भी अंबाला जाते तो उसे देख कर थोड़ा उदास तो ज़रुर हो जाते ....यह तो मुझे याद है ...

मेरे भी गलत पोश्चर की वजह से मुझे अकसर सिरदर्द होता ही रहा है ....बिल्कुल यह भी उस का एक कारण है ...क्योंकि मुझे पता नहीं मुझे कंधे झुका कर चलने की आदत कहां से पड़ गई....मुझे बहुत टोका जाता है ....लेकिन शायद मेरे अंदर कहीं यह बात घर कर चुकी है कि अकड़ कर बिल्कुल सीधा तन के चलने वाले लोग घमंडी, गुरूर वाले होते हैं ...और किसी भी बात का घमंड करने के लिए मेरे पास कोई वजह है नहीं, इसलिए मैं हमेशा से झुक कर ही चलता हूं ......लेकिन मुझे इतने बरसों बाद इस बात का अहसास ऐसा हुआ है कि मैं अपनी इस आदत से नफ़रत करता हूं ...नहीं आत्म-विश्वास-वास का कोई चक्कर नहीं है, ईश्वरीय अनुकंपा है....बस ऐसे ही कईं आदतें बेकार में पीछे पड़ जाती हैं, यह झुक कर चलने वाली आदत भी कुछ ऐसी ही है ...

हां, मुुझे भी कुछ बरस पहले कॉलर पहनने का विशेषज्ञ ने मशवरा दिया था....लेकिन मैंने तो दो-तीन दिन पहन कर ही उसे किसी ज़रुरतमंद को दे दिया था...वैसे सिर में दर्द हो, सिर में ऐंठन सी रहे, मतली जैसा लगता हो, चक्कर आने लगें, बार बार उल्टी होने लगे तो आम भाषा में कोई भी बंदा इसे सरवाईकल की बीमारी कह के अपना ज्ञान बघार देता है ...और कुछ लोग तो इलाज भी बता देते हैं....मुझे भी कुछ ज़्यादा पता नहीं इस के बारे में सिवाए इस के कि इस तरह के जब लक्षण हों तो बंदे को तीन विशेषज्ञों के पल्ले पड़ना है, एक तो हड़्डी रोग विशेषज्ञ, एक ईएऩटी स्पेशलिस्ट और बहुत बार एक एमडी फ़िज़िशियन से भी परामर्श लेना भी पड़ता है ...जब किसी को कुछ नहीं मिलता, तो फिर कहा जाता है कि डिप्रेशन (अवसाद) लगता है, चिंता का मर्ज़ है, मनोरोग विशेषज्ञ से मिल लीजिए....

मुझे लगता है ये सब इस तरह की तकलीफ़ें हमारी जीवनशैली से जुड़ी हुई हैं.....न सोने का टाइम, न जागने का, सारा दिन सिर झुकाए किसी न किसी स्क्रीन में अपनी आंखें गड़ाए रहते हैं, खाने-पीने के बारे में तो कहें ही क्या, जंक-फूड़, फॉस्ट-फूड, अजीबोगरीब फूड सप्लीमेंट .......इन सब के बावजूद भी क्या गर्दन में दर्द न होगा ...

मैंने सोचा कवर उतार कर ही सरवाईकल पिल्लो के दीदार करवाए जाएं पढ़ने वालों को ....

पांच छः साल पहले मेरी भी गर्दन में दर्द रहने लगा तो मुझे एक फ़िजि़योथेरेपिस्ट ने कहा कि आप तो एक सरवाईकल पिल्लो ले लो ....जब मैं उसे लेने गया तो पता चला कि वह तो करीब चार हज़ार का था ...कड़वा घूंट भर कर ले तो लिया..लेकिन मुझे उस से बहुत फायदा हुआ है ...अच्छा, सब तरफ से तकिये के बारे में ही तरह तरह के मशवरे सुन सुन कर तंग आ चुके थे, तुम तकिया लिया ही न करो, तुम एक पतली सी चादर रख लिया करो, सिर के नीचे.....और भी कुछ न कुछ हिदायतें ..........लेकिन जब से यह सरवाईकल पिल्लो लिया है, बहुत आराम सुकून महसूस कर रहा हूं ...अब सच में यह पता नहीं कि यह चार हज़ार रूपये जो खर्च किये हैं उस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव है या कुछ और ......क्योंकि कोई ज्ञानी हड्डी रोग विशेषज्ञ ही एक बार कह रहा था कि इन सरवाईकल पिल्लो से कोई फ़र्क नहीं पड़ता .......लेकिन मुझे तो फ़र्क पड़ा दिक्खे है ...मैं क्यों झूठ ही कह दूं कि कुछ फ़र्क नहीं हुआ मुझे ...रात में उसे जब सिर के नीचे रखते हैं तो पता ही नहीं चलता कि उसे ले भी रखा है या नहीं.....दिक्कत यह है कि अब बाहर कहीं जाते वक्त उसे उठा कर साथ रखने की इच्छा होती है लेकिन यह सब कहां प्रेक्टीकल है, अब कोई लोहे के ट्रंक लेकर चलने वाले दिन थोड़े न हैं, हो्लडाल वाले दिन भी लद गए .......अब तो अगर हमारे पास स्मार्ट-लगेज नहीं है तो हम अपने आप को पिछड़ा महसूस करते हैं......पिछले बरस ही मैं एक शादी में अपनी एक व्ही-आई-पी की अटैची ले गया....वही जो तीस चालीस बरस पहले नईं नई आई थीं....जिसे पहिये न होते थे ....एक तो स्टेशन पर लोग उस अटैची को ऐसे देख रहे थे जैसे किसी अजायब घर की किसी शै को देख रहे हों और दूसरा,यह कि उसे स्टेशन पर उठाते वक्त मुझे उस दिन भी नानी याद आ गई थी .......छोटी थी अटैची, लेकिन ठूंंसने से हम कहां बाज़ आते हैं....जब तक उस का ताला ही न टूट जाए .....😎😂

पोस्ट लिखने के बाद यू-ट्यूब पर सिरदर्द के ऊपर गीत ढूंढने की थोड़ी सिरदर्दी मोल ली तो यही दिख गया ...जॉन्ही वॉकर साहब का यह हिट गीत ... यह उन दिनों की बात है जब न कोई सरवाईकल के कॉलर था, न सरवाईकल पिल्लो और न ही किसी विशेषज्ञ का मशवरा ही इतनी आसानी से मिल पाता था, लेकिन चंपी सब कुछ ठीक कर देती थी ....

बुधवार, 29 नवंबर 2023

नमक स्वाद अनुसार .....


एक बार टाइम्स ऑफ इंडिया में एक ख़बर दिखी थी -अमेरिका में कुछ रिसर्च हुई है कि अगर लोग जितना नमक खाते हैं, उस में से एक ग्राम नमक खाना कम कर दें तो अमेरिका में करोड़ों-खरबों डालरों की बचत हो जाएगी ...जो पैसा वैसे ज़्यादा नमक खाने से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च होता है ...मुझे हैरानी नहीं हुई बिल्कुल यह पढ़ कर ...क्योंकि ज़्यादा नमक एक बहुत बड़ा विलेन तो है ही ...पोस्ट लिखने के बाद देखा तो मुझे मेरी एक दस वर्ष पुरानी पोस्ट याद आ गई ....इस के बारे में यह रहा उस का लिंक.

बचपन में हम लोग देखा करते थे कि हर घर में खाने की मेज पर या तो एक छोटी नमकदानी सजी रहती थी ...नहीं तो घर में कहीं भी खाना खाते वक्त कोई न कोई आवाज़ दे ही देता था कि ज़रा नमकदानी तो इधर भेजो....मुझे मेरी बड़ी बहन का ही ज़्यादा नमक खाना याद है ...वह तो ज़रूर ही दाल की कटोरी में एक्सट्रा नमक डालती और फिर उसे अकसर उंगली ही से झट से मिला भी देती दाल में ...बडा़ होेने पर मैं उस के पीछे अकसर पड़ा रहता हूं कि नमक कम खाना चाहिए....कहती हैं कि अब कम खाती हूं ...

मैं यह जो पोस्ट लिखने इस वक्त बैठ गया हूं उस का कारण यह है कि कल की टाइम्स में एक बड़ी अहम् खबर छपी थी कि कम नमक खाने का दर्जा एक तरह से उच्च रक्तचाप की दवाईयां खाने के बराबर है ....और उसमें मेडीकल रिसर्च की भी बात की गई थी ...मुझे उसमें लिखी हर बात मुनासिब लिखी ....दिल्ली के बहुत बड़े हृदय विशेषज्ञ ने भी इस बात की पुष्टि की है ...अगर आप उस खबर को देखना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं...

Reducing Salt Intake as Beneficial as BP First-line drugs: Study 

(Times of India, Mumbai ....28th Nov, 2023) 

साधारण खाने से जितना नमक हम लोग दाल-सब्जी में खाते हैं उस की कोई खास बात नहीं है ....समस्या यही है कि खाने के अलावा हम लोग दिन भर यहां वहां जंक-फूक खाते रहते हैं वह तो नमक से लैस होता ही है ....हम लोगों की और भी बहुत सी आदते ैहं जो हमारे अंदर ज़्यादा नमक (सोडियम) डंप करती रहती हैं ...

छाछ, लस्सी, गन्ने का रस, अधिकतर फल हमें नमक के बिना काटने को दौड़ते हैं .....यही लगता है क्योंकि हम उन को बिना नमक लेते ही नहीं हैं....दही में भी नमक डालते हैं...शिकंजी में भी नमक जो चुटकी भर डालना होता है, हम उसमें भी मनमर्ज़ी करते हैं....

लिखते 2 ख्याल आया कि बचपन में हम लोग कच्चा आम, ईमली खाते वक्त भी एक हाथ में नमक रखते थे, उस के बिना नहीं खाते थे तरबूज, जामुन, फालसा, छोटे छोटे लाल रंग के बेर भी बिना नमक के नहीं खाते थे ..। लखनऊ में आप कहीं से भी जब मूंगफली लेते हैं तो वह खोमचे वाला उस में तीन चार नमक की पुड़िया ज़रूर रख देता है,  साथ में हरी मिर्च की चटनी भी ....और हां, शकरकंदी लीजिेए भुनी हुई कहीं से ...वह भी हम कहां बिना नमक के खाते हैं, ....नमक और नींबू के बिना शकरकंदी का क्या मज़ा...। 

लखनऊ की बात तो मैंने लिख दी ...लेकिन पंजाब, हरियाणा, दिल्ली विल्ली में हम लोग कहीं भी खड़े हो कर केले खाते हैं तो वह उन को काट कर उन में नमक ठेल देता है क्योंकि घर के बाहर कोई भी केला नमक के बिना खाता ही नहीं ....और वह नमक भी उसमें ऐसे ठूंस देता है जैसे कोई समाज कल्याण कर रहा हो ....केला हो गया, लईया-चना भी हमें नमकीन ही चाहिए, भुजिये मेें तो नमक भरा ही रहता है ....

अभी लिखते लिखते मुझे खुद डर लगने लग गया है कि हमारी खाने-पीने की आदतें भी कितनी खौफनाक हैं ....हम किसी की नहीं सुनते, सेहत से कोई लफड़ा हो जाता है तो हम समझते हैं कि विशेषज्ञ बचा लेगा, वह भगवान है ........ठीक है, छोटा मोटा भगवान तो वह है ही बेशक, एक बार तो मौत के मुंह से बाहर निकाल लेगा .......लेकिन हम कहां अपने खान-पान में कुछ सुधार करने को राज़ी होते हैं इतनी आसानी से ...

खीरा, ककड़ी भी खाएंगे तो भी नमक के साथ, सलाद में भी नमक...शराबी बंधु महफिल में भी कईं बार नमक ही रख लेते हैं अपने साथ (मैंने कई बार देखा कि शराबी बंधु जो काजू-चने न रख पाएं, वे कोई भी आचार ही रख लेते हैं ....और कईं बार तो देसी दारू पीते वक्त कुछ बंधुओं को साथ में चुटकी भर नमक चाटते देखा है .....यह किसी का मज़ाक नहीं बना रहा हूं ....क्योंकि वह काम मैंने कभी नहीं किया.....बस, कुछ बातें सच् सच अपनी पोस्ट में दर्ज करने के लिए लिख रहा हूं....

भुजिया खाने का तो मैं भी बड़ा शौकीन हूं ....लोकल स्टेशन पर बिना सोच विचार किए सेव-मुरमुरा, कुरमुरा, तली हुई मूंगफली, नमकीन दाल.....और भी बहुत कुछ --बस ऐसे ही ट्रेन की इंतज़ार करते करते खरीद लेता हूं ....पहले तो रोजाना ही ऐसा करता था, अब डरने लगा हूं ....महीने में शायद एक दो बार ...और घर में भी बीकानेरी भुजिया इत्यादि खाता ही हूं .........लेकिन यह पोस्ट लिखने भर से मेरी यह खराब आदत सही नहीं ठहराई जा सकती .....अपने पैर पर खुद कुल्हाडी़ मारने वाली बात है .....किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ....

समोसे, वडा-पाव, भजिया-पाव.....चाइनीज़, हाका, मोमोज़......सच में बाहर जाते हैं तो लगता है जनता रब की बारात में आई हुई है ....(यह एक पंजाबी कहावत है ...इंज लगदै जिवें ओह रब दी जंजे आया होवे)....

काजू भी खाने हैं तो नमक वाले, पिस्ता भी नमक वाला ...भुने हुए चने भी नमकीन.....

कितनी लंबी लिस्ट लिखूंगा .....बस, यही मानिए की दाल-रोटी-सब्जी के अलावा हम जितना कुछ भी नमक वाला खा रहे हैं, वह हम अपने आप से धोखा कर रहे हैं......कुछ लिस्ट तो ऊपर दी है....और एक बात, ये जो आज की नईं जेनरेशन प्रोसैसेड फूड की दीवानी है न, यह सारे का सारा सोडियम से लैस होता है ....हम खुश होते हैं कि टिक्की आधे मिनट में तैयार हो गई, रेडीमेड दाल, चने, पनीर ...गर्म पानी में डालते ही खाने लायक हो गया ....इन के बारे में कभी अपने डाक्टर से बात करिए.....मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं , सीधी सपाट बातें लिखता हू्ं ......लेकिन मुझे इन सब चीज़ों से बेहद नफरत है....यही वजह है कि मुझे कहीं भी बाहर जा कर खाना पसंद ही नहीं है .......कोई भी हो, कहीं भी है, कुछ भी हो.....बाहर जा कर कंट्रोल नहीं होता, तला-मला, फ्राई आने दो, और उस के बाद जलेबी, आईसक्रीम और गुलाब जामुन जब खाता हूं तो अपने आप से दिल ही दिल में क्या कहता हूं, वह तो मैं लिख भी नहीं सकता...

इस पोस्ट में तो नमक की ही बात कर रहे हैं, लेकिन अकसर जो चीज़ें हमारे खाने पीने की नमक से लैस होती हैं...वे अच्छे-बुरे घी, तेल, मसाले भी लैस होती हैं ...जैसे मटन,मुर्गा, मछली .....कोई भी नॉन-वैज हो...इसलिए उन्हें खाने से होने वाली पेचीदगी और भी ज़्यादा है ...

कहीं किसी पढ़ने वाले को यह नहीं लग रहा कि इतना डराया क्यों जा रहा है.......नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, वैसे भी कौन किस की सुनता है...हम चिकित्सक हैं, हम ही नहीं किसी की सुनते ....मैंने बताया न कि कैसे भुजिया खाते हैं, कैसे मीठा खाते हैं ....और फिर सिर पकड़ कर एसिडिटी से परेशान हो कर घंटो पड़े रहते हैं.... 

दरसल, नमक -सोडियम क्लोराईड में सोडियम ही विलेन है ....इस का मतलब यह हुआ कि जिन जिन चीज़ों के बनाने में मीठा सोड़ा, बेकिंग पावडर आदि इत्यादि इस्तेमाल होता है उन में भी सोडियम तो है ही ....जो अधिक मात्रा में हमारी सेहत से कैसा खिलवाड़ करता है, यह हम सब जानते हैं....बार बार डाक्टर लोग बताते रहते हैं .....अखबारों में लिखा दिखता है, रेडियो-टीवी पर भी सुनते हैं ....

कभी ख्याल किया हो तो जब कोई दस्त से परेशान हो तो उस के लिए जो ओआरएस (जीवन रक्षक घोल) घर में बनाया जाता है उसमें भी एक लिटर पानी में चीनी, नींबू  के साथ साथ एक चुटकी

 नमक ही डाला जाता है ...

बेकरी के जितने भी उत्पाद हैं, बिस्कुट हो, या पेटीज़ हों या कुछ और, सब कुछ कॉमन-साल्ट से .....और अगर उस से नहीं भी तो किसी न किसी रूप में सोडियम तत्व उसमें मिला ही रहता है ...

यह पोस्ट भी ऐसी है, जो मन में आ  रहा है, लिखते जा रहा हूं...क्या करें, डॉयरी हो या हो ख़त ..हम इसी तरह से लिखते रहे हैं ....

बातें तो बहुत हो गईं ...लेकिन पते की बात इतनी है जो मुझे समझ में आई है कि खाने में ...दाल, रोटी, साग, सब्जी में जितना नमक हम खा लेते हैं बस उतना ही काफी है, उतनी ही ज़रूरी है ....बाकी जो हम यहां वहां से ठूंसते फिरते हैं, वह तो बाद में उत्पात ही मचाता है ...किसी का आज, किसी का कल.......लेकिन तंग तो इस की बहुतायत से लोग रहते ही हैं ....डाक्टर भी क्या करें, कह ही तो सकते हैं.....

मेज़ के ऊपर छोटी नमकदानी रखनी ही नहीं चाहिए.....नमक मांगने के लिए कोई आलस ही करेगा....वरना, दाल, भाजी, सलाद, अमरूद ...छाछ सब में छिड़कने लगेगा....

सीख........आज के पाठ की वही घिसी-पिटी दशकोंं पुरानी सीख है कि नमक का कम इस्तेमाल करें ...जितना कम हो सके .....सब्जियों, फलों के माध्यम से भी हमें नमक (सोडियम) हासिल हो जाता है ...इस की कमी के बारे में इतना चिंता न करें...

हां, लिफाफा बंद करते करते एक बात याद आ गई ...वैसे भी मैं बीपी वीपी का कोई विेशेषज्ञ तो हूं कि मेरी इन बातों पर अंध-श्रद्धा करें और उन्हें पत्थर की लकीर की तरह मान लें, नहीं, आप अपने चिकित्सक से बात करें ....अपने फैसले खुद करें., अपने डाक्टर से बात करने के बाद ....और हां, मुझे कुछ महीने पहले किसी ने पूछा कि शरीर में हमेशा के लिए किसी के नमक कम भी हो सकता है क्या.....मुझे नहीं पता था, मुझे तो बस डी-हाईड्रेशन का ही पता था जिसमें किसी को कुछ दिनों के लिए नींबू-पानी, ओआरएस इत्यादि लेने की सलाह देते हैं....लेकिन उसने बताया कि डाक्टर ने उसे कहा है कि तुम ने हमेशा ही ज़्यादा नमक लेना है ....बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी, मैंने साफ साफ कहा कि मुझे ऩहीं पता इस के बारे में ....

पोस्ट पढ़ने के बाद आप क्या सोचेंगे...क्या कुछ असर पड़ेगा भी या नहीं, लेेकिन जैसा कि मैं अकसर सोचता हूं कि इसे लिखना मेरे खुद के लिए एक रिमांइडर का काम करेगा....वैसे तो मैं नमक कम ही लेता हूं ...दही में, छाछ में, नहीं, जूस में नहीं, फ्रूट में नहीं, सलाद में नहीं.....जितना हो सके, ख्याल कर लेता हूं ...जंक भी न के बराबर, महीनों बीत जाते हैं एक वड़ा-पाव, समोसा खाए...बस, मुझे भुजिये इत्यादि खाते वक्त सोच विचार करना होगा .....

केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ... (पंद्रह बरस पुरानी मेरी एक पोस्ट....मुझे उसे पढ़ते पढ़ते हंसी आ रही थी....मैं ही नहीं बदला इतने बरसों में तो पढ़ने वालों से ऐसी उम्मीद क्यों करें, भई..) 😂😎

10 साल पहले भी कुछ लिखा था नमक के बारे में ...अगर देखना चाहें तो यहां देखिए....ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है!!

वैसे नमक हो, तेल हो, मीठा हो, तीखा हो...जितनी गड़बड़ी हम लोग अपने खानेपीने में कर रहे हैं, उस के बारे में आज की टाइम्स आफ इंडिया में भी एक बहुत बड़े डाक्टर ठक्कर का एक लेख आया है....देखिए, उन्होंने सब कुछ कितना सच सच लिख दिया है, और वह भी इतनी सहजता के साथ ...उस लेख को भी देख लीजिए लगे हाथों.......क्या पता, मेरी बात का नहीं, उन की बात का ही असर हो जाए.....

times of India 29.11.23 (click on pic to read it) 

नमक स्वाद अनुसार....शीर्षक इस लिया रखा क्योंकि उस वक्त इसी का ख्याल आया क्योंकि इसी नाम से एक किताब आई थी 2-3 बरस पहले ...साहित्यिक कृति थी ...कोई डाक्टरी नहीं झाडी़ थी उसमें लेखक ने .....और जो ऊपर बहुत पहले मैंने कल की खबर का लिंक दिया है कि कम नमक को ब्लड-प्रेशर की दवाई जैसी अहमियत दी गई है ....उस का मतलब यह नहीं कि आप जो दवाईयां ले रहे हैं, उन्हें बंद कर दें और नमक खाना कम कर दें.......ऐसा नहीं, दवाईं अपने डाक्टर की सलाह अनुसार लेते रहें, मेरे कहे मुताबिक यह देखें हर वक्त खाते समय कि क्या नमक का यह इस्तेमाल ज़रुरी है या मेरी जान ज़्यादा ज़रूरी है........जो भी जवाब मिले, उसी मुताबिक आगे की रणनीति तय करिए .....😂.....

लेकिन मैं इतने लिखने के बाद अब कल से नमक के इस्तेमाल के बारे में और भी ज़्यादा सचेत रहने की कोशिश करूंगा....एहतियात बरतूंगा....

एक बात और सता रही है ....नमक स्वादानुसार ....यह अकसर पत्रिकाओं में जो रेसिपी लिखी होती हैं उन के नीचे लिखा रहता था....था इसलिए कि अब कहां ये सब इतना छपता है मैगजीन में ...और एक बात, हिंदोस्तानी घरों में अगर कभी दाल या सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ जाए तो घर की गृहिणी को ऐसे लगता है मानो उसने कोई संगीन ज़ुल्म कर दिया हो ....इस तरह की दकियानूसी बातें हैं भाई जो कचोटती हैं....नमक ज़्यादा पड़ भी गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.....हमारे मोहल्ले में एक सिपाही रहता था ....जब उस कबख्त की दाल में सिपाहिन से कभी नमक ज़्यादा पड़ जाता था तो रोटी की थाली दूर फैंक देता था.....और सारा घर सहम जाता था....अरे, भई पकी पकाई मिल रही है....खा ले ....नमक ज़्यादा है तो दो चम्मच दही डाल ले...

लिखते लिखते सिर भारी हो गया है खामखां ....चलिए, सुनयना फिल्म की गीत सुनता हूं भारीपन को दूर भगाने के लिए....1979 की फिल्म ...मैंने कालेज में नये नये पैर रखे थे, रात में कभी कभी विविध भारती लग जाता था तो उस में यह गीत बजता था ...सुन कर मज़ा आता था ....परसों इसे बहुत अरसे बाद विविध भारती पर सुना ....


गुरुवार, 23 नवंबर 2023

मुक़द्दर तो उन का भी होता है जिन के हाथ नहीं होते ....

आते जाते रस्तों पर कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो दिलोदिमाग में जैसे सेव हो जाते हैं..सेव ही नहीं हो जाते....लेकिन बार बार उन की फाइल ख़द-ब-ख़ुद खुलती रहती है दिन में कईं बार ...

आज सुबह जब मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ आई इक्नॉमिक टाइम्स खोली तो मुझे दो पन्नों पर पसरा हुआ एक इश्तिहार नज़र आया....इश्तिहार किसी बहुत बड़े प्राईव्हेट बैंक का था...जिसमें एक बाप अपने बेटे को एक टॉय-मोटर कार में बिठा कर घुमा रहा है ....दोनों इस मस्ती का भरपूर आनंद लेते नज़र आए...

इस इश्तिहार को देखने के बाद मुझे दो दिन पुराना मुंबई सीएसटी स्टेशन का एक मंज़र याद आ गया....याद क्या आ गया, वह दृश्य तो मेरे साथ ही रह गया तब से....

दो दिन पहले मैं बाद दोपहर में मुंबई सीएसटी लोकल स्टेशन पर लोकल-ट्रेन से उतरा और मैं प्लेटफार्म पर चल रहा था तो अचानक मैंने एक खड़खड़ाहट की आवाज़ सुनी....देखते ही देखते लोकल ट्रेन के साथ वाले डिब्बे से एक दिव्यांग युवक ने प्लेटफार्म पर लकड़ी से बना एक जुगाड़ सा निकाला जिस के नीचे पहिए लगे हुए थे ...उसे प्लेटफार्म पर रखते ही, वह भी डिब्बे से बाहर कूदा और झट से उस के ऊपर बैठ कर अपने परिवार के साथ बाहर की तरफ़ चलने लगा...

मैं यह देख रहा था कि उस की भुजाओं में अच्छी शक्ति थी जितने बल से वह उस जुगाड़ को चलाने में उन को इस्तेमाल कर रहा था ...मैं यही सोच रहा था कि सब ईश्वर के रंग हैं, अगर किसी चीज़ की कमी रह जाती है तो दूसरे तरीके से उस की भरपाई करने की कोशिश करता है ....

खैर, अभी दस बीस कदम ही चले होंगे कि मैंने देखा कि उस के साथ चलने वाली महिला (संभवत उस की बीवी ही होगी) उस को कुछ पकड़ाने की कोशिश कर रही थी ...मैं उस तरफ़ ठीक से देख नहीं रहा था, इसलिए मुझे लगा कि थैला, बैग इत्यादि उस को थमा रही होगी....

लेकिन नहीं, मुझे उसी वक्त पता चल गया कि उस ने जो छोटा बालक उठाया हुआ था उसे उसने उस की गोद में दिया है ...मुझे इस बात ने छू लिया....

और मैंने थोड़ा आगे चल कर देखा कि वह अबोध बालक अपने बाप की गोद में भरपूर खुश था ....होता भी क्यों न, बाप की गोद मेंं था ....वह इधर उधर के नज़ारे देखते ही उछल रहा था ...

हर बच्चे के लिए उस के सुपर-डुपर हीरो उस के मां-बाप ही होते हैं जिन की गोद ही काफी है ....मनवा बेपरवाह 

मंज़र तो कुछ ज़्यादा ही दिल को छू लेने वाला था कि एक दिव्यांग बाप जिस की दोनों टांगे कटी हुई हैं, वह एक लकड़े के जुगाड़ की मदद से प्लेटफार्म पर चल रहा है, और साथ में अपने नन्हे बालक को भी उस की सवारी करवा रहा है ...

जैसे ही मैंने इस परिवार को देखा तो मुझे भारतीय रेल की महानता का ख्याल भी आया कि इस भारतीय रेल के कारण ही यह पूरा परिवार इस तरह से सफर करते हुए मुंबई सीएसटी तक पहुंच भी गया और जो भी इन का उस दिन का प्रोग्राम रहेगा, उस के बाद इसी तरह से ये लोग अपने आशियाने में भी सकुशल लौट जाएंगे....जय हो भारतीय रेल मैया की...निःसंदेह यह मां की तरह अपने सभी यात्रियों का ख्याल रखती है..

कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो बस उम्र भर याद रह जाते हैं...जून 2007 की बात है, हम लोग कुल्लू-मनाली की यात्रा पर निकले थे...चंडीगढ़ से एक गाड़ी ले ली थी ...उस का ड्राईवर भी छोटी उम्र का ही था...यही कोई 20-22 बरस का रहा होगा....कुल्लू से चले तो मनाली पहुंचने से पहले मनीकरण में एक बहुत ऐतिहासिक गुरूद्वारा है ...कुल्लू से यही कोई एक घंटे का रास्ता होगा....पहाड़ों की सड़कों के बारे में तो आप जानते ही हैं...ऊपर से उस सड़क की मुरम्मत का काम चल रहा था ...जिस की वजह से किनारे एकदम कमज़ोर से ...भुरते हुए ....एकदम शिथिल ...सड़क इतनी संकरी की क्या कहें, लिख नहीं पा रहा हूं ....और सड़क के एक किनारे पर पहाड़ और दूसरी तरफ़ नीचे ब्यास नदी जो पूरे उफान पर थी ...जो पूरे शोर के साथ अपने गन्तव्य की तरफ़ भाग रही थी ....उस रोड़ पर जाते वक्त इतना डर लगा उस दिन कि आज 16-17 बरस हो गए हैं इस बात को ..लेकिन उस के बाद कभी भी किसी रोड़ से डर नहीं लगा....यही लगता है कि अगर उस दिन इतनी जोखिम वाली रोड़ पर ड्राईवर ने गाड़ी चला ली तो दूसरी सड़कों की तो ऐसी की तैसी....यह हुई एक बात...

दूसरी बात यह है कि मैं जिन 7-8 बरसों में लखनऊ में रहा ...वहां के बहुत बड़े बड़े खूबसूरत बाग़ देखने का, उन में सुबह शाम टहलने के बहुत मौके मिले....किसी महिला को वॉकर के साथ सुबह टहलते देखता, किसी को उस की बिल्कुल झुकी हुई रीढ़ की हड्डी के बावजूद भी टहलते देखता तो मैं अचंभित हुए बिना न रह पाता....एक बार तो इतने बुज़ुर्ग को देखा जो चींटी की चाल से चल रहे थे ...85-90 बरस के रहे होंगे ..लेकिन जब मैंने उन से बात की तो उन्होंने बताया कि वे रोज़ाना आते हैं और पूरे बाग का चक्कर काटते हैं....मैं यही सोचता रह गया कि बढ़िया है यह घर से बाहर तो निकलते हैं ..लेकिन कब चक्कर शुरु करते होंगे और कब उसे मुकम्मल कर पाते होंगे...खैर, इस के अलावा भी मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा जो शायद घुटनों के हालात की वजह से मुश्किल ही से चल पा रहे होते....लेकिन उन का निश्चय पक्का होता.... सुबह की सैर के इन सब किस्सों पर मैंने इस ब्लॉग में दर्जनों पोस्टें भी लिख दीं...केवल इसलिए कि इन यादगार लम्हों को सहेज लिया जाए कैसे भी ...

बंबई में भी लोकल ट्रेनों में 80 बरस से भी ऊपर के बुज़ुर्गों को ट्रेन में आते जाते और खास कर चढ़ते उतरते देख कर अब मुझे हैरानी नहीं होती....क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में आ चुकी है कि ये लोग शायद पिछले 60-70 बरस से इन्हीं ट्रेनों पर सफर कर रहे हैं...इन को कौन सेफ्टी समझाएगा...वे इन ट्रेनों के वक्त के बारे में, जिस वक्त इन में भीड़ नहीं रहती, कौन सा लेडीज़, जेंट्स, बुज़ुर्ग डिब्बा किस जगह आएगा और किस में चढ़ना है और कहां से आसानी से बाहर निकलना है, इस पर ये बुज़ुर्ग शोध किए हुए हैं...शारीरिक तौर पर थोडे़ कमज़ोर लगते होेंगे, लेकिन बौद्धिक एवं आत्मिक तौर पर एकदम टनाटन हैं....और कईं वयोवृद्ध महिलाओं पुरूषों ने तो अपनी लाठी के साथ कुछ सामान भी उठाया होता है ....

यह सब मैं क्या लिख रहा हूं...इसलिए लिख रहा हूं कि हम सब इन लोगों से प्रेरणा ले सकें....हम सुबह शाम टहलने न जाना पड़े, इस के लिए नए नए बहाने अपने आप ही से करते हैं अकसर .....लेकिन ऊपर आपने उस दिव्यांग बंदे की चुस्ती-फुर्ती देखी ...अभी उस की फोटो भी लगाऊंगा....सिर्फ इसलिए कि बिना फोटो के आप लोग बात मानते नहीं हो, और अगर फोटो लगी होगी तो सब को प्रेरणा भी मिलेगी कि अगर यह बंदा दुनिया को जीने का अंदाज़ सिखा रहा है, तो हमें तो कुछ भी नहीं हुआ, लेकिन फिर भी हम कभी खुश नहीं रहते ....कभी ईश्वर को कोसते हैं, कभी किसी दूसरे को, कभी तीसरे को ....हर वक्त यही चलता रहता है ....

पल पल हर वक्त हंसते हुए इस ईश्वर का शुक्राना करने के अलावा जीने का कोई तरीका ही नहीं ....कुछ भी तो हमारे नियंत्रण नहीं है, इसलिए ईश्वर जिस भी हालात में रखे, उस का शुक्रिया तो करना बनता ही है ....सांसें चल रही हैं....बाहर गई सांस वापिस लौट कर आ रही है, इस से बड़ी अद्भुत बात क्या होगी....प्रकृति के रहस्य क्या जानेंगे, क्या करेंगे....आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ जाए, चैट जीपीटी आ जाए ...मानवीय संवेदनाएं हमेशा से सर्वोपरि हैं, रहेंगी ...इन की पैमाईश कौन करने बैठेगा ...जब तक सांसों की डोर चल रही है, सब कुछ संभव है....

ओ हो ...यह पोस्ट तो बड़ी भारी भरकम लग रही है ....हां, बार बार उस दिव्यांग का ही ख्याल आ रहा है कि उसने हार नहीं मानी, किसी से गिला-शिकवा नहीं किया, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा, अपने नन्हे-मुन्ने को अपनी गोद में लेकर मुंबई दिखाने निकल पड़ा ....जब कि हम अक्सर देखते हैं जो लोग हर तरह से सक्षम होते हैं, साधन-संपन्न होते हैं कईं बार इस तरह के सैर-सपाटे में उन के नौकर-चाकरों ने बाबू को उठाया होता है ....

 और इस इश्तिहार की टैग-लाइन पर गौर फरमाईए.... दौलत के सफर की शुरूआत ...

और हां, यह तस्वीर भी देख लीजिए जो अखबार में दिखी ....ठीक हैं, ये बाप बेटा भी खुश हैं लेकिन जो प्लेटफार्म पर बाप-बेटा एक लकड़ी के पटडे़ पर निकल पडे़ हैं, उन की खुशी..खास कर उस नन्हे बालक की खुशी मुझे किसी तरह से कम न दिखी ...आप को क्या लगता है? कहीं यह मेरी नज़र का धोखा तो नहीं या मुझ से कुछ देखने में छूट रहा है ....

रविवार, 1 अक्तूबर 2023

आज अचानक स्टोव याद आ गया...

15.9.23


आज शाम मैं पैदल स्टेशन की तरफ़ जा रहा था तो मेरी निगाह अचानक मेरे आगे चल रहे एक शख्स पर पडी जिसने स्टोव उठा रखा था....मुझे याद नहीं इस तरह से स्टोव को हाथ में उठाए मैंने आखिरी बार कब देखा था...वह भी स्कूल और कभी कालेज के दिनों में ही ...मैंने झट से इस मंज़र की एक-दो तस्वीरें खींच लीं....क्योंकि एक दो पिछले साल एक एंटीक शॉप में ही देखा था इस तरह का स्टोव...बाकी तो यह सब अब कहां दिखता है...

इंसान भी कितना जिज्ञासु जीव है ...फोटो खींच लेने के बाद मुझे यह चाह होने लगी कि किसी तरह इस शख्स से दो बातें भी हो जाएं...बस फिर क्या था, मैं दो चार कदम तेज़ चला और उस के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए कहने लगा कि आज मुद्दतों के बाद इस स्टोव के दर्शन हुए ....मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगा ...बस, फिर बात चल निकली। 

उस ने बताया कि यह स्टोव उस के पड़ोस में अकेले रहने वाली एक बुढ़िया काकी का है ....उन का पति सरकारी नौकरी करता था, रिटायर होने के बाद अब वह परलोक सिधार चुके हैं, महिला को पेंशन आती है, आराम से बैठ कर खाती है...फ्लैट अपना है उस काकी का ...दो बेड-रूम वाला ....एक लड़की है जिस की शादी हो चुकी है और वह इंगलैड में रहती है। काकी कहीं आती जाती नहीं, और अगर कहीं जाना भी हुआ तो टैक्सी में ही जाती है, मैं उस की मदद के लिए साथ चला जाता हूं। 

वह अपने आप ही कहने लगा कि घर का सामान, सब्जी-फल सब वह ही लाता है..दस बीस रूपये दे देती है ..चाय पिला देती है ...वह कहने लगा कि वैसे तो मदद करने के एवज़ में किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए...मैंने कहा, ऐसी क्या बात है, वह खुशी से ही तो देती है तु्म्हें अपना समझ कर। हां. हां --वह कहने लगा कि यह तो है और अगर कभी उस की चाय न पियो तो नाराज़ हो जाती है, गुस्सा करती है कि तुम मेरी चाय भी नहीं पीते। कहने लगा कि आधार कार्ड दिखा रही थी मुझे कुछ दिन पहले 1931 का जन्म है उस काकी है। 

1.10.23

मैंने अभी देखा मैंने इस पोस्ट को लिखना तो दो सप्ताह पहले शुरू किया था ...लेकिन याद है कि अचानक लिखते लिखते नींद आ गई...सो गया...और फिर कभी इसे पूरा करने की इच्छा ही न हुई। 

अब देखता हूं लिखते लिखते क्या बातें उस दिन की याद हैं ..बची खुची। लिखना ज़रुरी है ...कुछ भी जो मन में आए लिखते रहा करें...कुछ भी ...बरसों बाद यही साहित्य कहा जाएगा..। हां, मैंने पूछा कि कहां से इस स्टोव को मुरम्मत करवा लाए। उसने जगह का नाम बताया ....और यह भी बताया कि मुरम्मत पर 50 रूपए खर्च हुए हैं...

चलते चलते मुझे ख्याल आया कि मिट्टी का तेल (घासलेट, केरोसीन) तो आज कल मिलता नहीं है....उसने बताया कि सब मिलता है ..लेकिन अब सफेद रंग में मिलता है और 100 रुपए लिटर मिलता है। वह उस काकी के लिए खरीद के लाता है। रास्ता अभी पड़ा था...और मैंने उस से यह भी पूछ ही लिया कि जैसे एक स्टोव खराब हो गया तो जब तक वह ठीक नहीं हो जाता तब तक उस वृद्धा का खाने-पकाने का काम कैसे चलता है। उसने बताया कि काकी बहुत होशियार है, उसने दो स्टोव रखे हुए हैं, चकाचक हालात में हैं दोनों...एक खराब हुआ तो दूसरे स्टोव से उस का काम चल जाता है। 

मैंने उस से कहा कि आज के ज़माने में भी स्टोव का इस्तेमाल करना ...कुछ हैरान सा करता है। कुकिंग गैस का कनेक्शन क्यों नहीं ले लेतीं वह ...यह सुन कर उसने बताया कि ले सकती हैं, ज़रूर ले सकती हैं लेकिन उसे गैस के चूल्हे से आग लग जाने का डर लगता है ....

मुझे उस की यह बात सुन कर यह ख्याल आया कि यह जलने-जलाने का सिलसिला तो स्टोव के दिनों में भी होता रहा ....मुझे याद है हम छोटे छोटे थे, मां जब स्टोव को जलाने के लिए संघर्ष कर रही होती बार बार पिन मार मार कर और अगर हम साथ ही बैठे होते तो हमें झट से परे कर देती कि दूर रहो, यह अचानक कईं बार धधक पड़ता है ....हम दूर हो जाते ..वह लगी रहती। 

मुझे याद है वर्ष 1972 दिसंबर के आखरी हफ्ते में हमारे यहां अमृतसर में कुकिंग गैस आई थी, कुल खर्च दो सौ रुपए से कम आया था ...सिलेंडर उन दिनों 21 रूपये का होता था.(इस की रसीद बरसों पहले मुझे मेरे पिता जी की लोहे की संदूकची में पड़ी मिली थीं जिस में वह ज़रूरी कागज़ रखते थे) ....दूसरा सिलेंडर उन दिनों नहीं मिलता तो, कईं कईं दिन बुकिंग करवाने के बाद इंतज़ार करना होता था, वेटिंग लिस्ट हुआ करती थी, काला बाज़ारी ज़रूर होती होगी, सुनते थे ...लेकिन अपने पास ये सब साधन नहीं थे, इसलिए इत्मीनान से मां अपनी पुरानी अंगीठी और स्टोव का रुख कर लेती। 

जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है ....गैस सिलेंडर खत्म होने पर या घर में कुकिंग गैस आने से पहले घर में अंगीठी का ही ज़्यादा इस्तेमाल होता था... स्टोव कभी कभी एमरजेंसी में जलाया जाता था क्योंकि मिट्टी का तेल भी उन दिनों राशन की दुकान से ही मिलता था ...यही कोई पांच लिटर महीने का ...और वह राशन की दुकान वाला बड़ा धूर्त था ...कितने चक्कर लगवाता था, बड़ी बहन के लेडी-साईकिल के कैरियर के पीछे पांच लिटर की पीपी लेकर वहां जाना याद है ....और पांच लिटर की उस की क्षमता होते हुए भी वह उसमें पांच लिटर तेल जब डाल देता तो भी वह ऊपर तक न दिखता ....घर आने पर जब मां देखती कि कितना कम है, तो वह भी उसे कोसने लगती....खैर, दिन बढ़िया चल रहे थे ....मिट्टी का तेल तो शायद दूसरी दुकानों से भी मिल ही जाता होगा और कभी हम लोग ले भी आते होंगे ...एमरजैेंसी में ....लेकिन यह सब ब्लैक में कैरोसीन हो या सिनेमा की टिकटें खरीदना ....यह अपने लिए कभी सिरदर्दी न रहा क्योंकि हम लोग हैंथ टू माउथ जीने वाले लोगों की श्रेणी में आते थे ...अब तो कईं फेशुनेबल लफ़्ज़ आ गए हैं ...शू-स्ट्रिंग बजट पर जीना .....इत्यादि इत्यादि ....सही मायने वही लोग जानते हैं जो उस वक्त के साक्षी रहे हैं...

हां, तो अंगीठी तो तभी जलाई जाती थी जब सारा खाना उस पर पकाया जाना होता...लेकिन ऐसे ही चाय वाय उबालने के लिए, दूध गर्म करने के लिए स्टोव ही जला लिया जाता...गैस आने के बाद अंगीठी और चूल्हा दूर होते गए, लेकिन तब भी बढ़िया सी दाल और सरसों का साग इस की आंच पर ही पकता....गैस पर पके हुए सरसों का साग हमे बकबका लगता, दाल भी फीकी लगती ....हा हा हा हा हा ......यह तो हम थे, उन दिनों लोग यह भी शिकायत करने लगे थे अड़ोस-पड़ोस में कि जब से गैस आई है उन के तो पेट मे गैस बनने लगती है ...😎😀 ...वैसे तो जब नए नए स्टील के बर्तन 1970 के आस पास चलने लगे तो यह अफवाह आम थी कि इन के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है ...😇

पीतल का स्टोव मुझे अच्छे से याद है जिस को बार बार मुरम्मत के लिए ले जाना पड़ता था कभी उस का कुछ खराब हो जाता तो कभी कुछ ...लिखते लिखते बातें याद आ जाती है...उन दिनों हमने यह भी सुना था कि कईं बार कोई स्टोव फट गया ....किसी का चेहरा जल गया...मां को इसलिए भी स्टोव से बड़ा खौफ़ लगता था ....उसे एकदम चालू हालत में रखती थीं...मुझे इतना याद है कि जब बहुत छोटे थे तो हमें पांच पैसे की स्टोव की पिन लेकर आनी होती थी ...पांच पैसे की पांच ...जिस से स्टोव को जलाने में मदद मिल जाती थी ...कईं बार दो तीन पिन बार बार स्टोव के सुराख में जब वह न जलता तो मैं परेशान हो जाती ....थक भी जाती होंगी, झुंझलाती भी होंगी ...लेकिन नहीं खाना तो पकना ही होती, चाय और परांठे भी तैयार होने होते  ...इसलिए झट से अंगीठी जलाने की तैयारी करने लगती ....कईं बार सोचता हूं तो लगता है कि मेरी उम्र के अधिकतर लोगों ने भी बहुत से दौर देखे हैं, हम बदलते वक्त के गवाह रहे हैं...और हां, स्टोव जलाने के लिेए एक कॉक भी तो हुआ करता था जिसे मिट्टी के तेल के छोटे से डिब्बे में डुबो कर रखा जाता था ...यह भी स्टोव जलाने में मददगार होता था ...

हां, जब गैस आ गई तो धीरे धीरे जागरूकता के चलते अंगीठी तो रसोई के बाहर ही रखी जाती और स्टोव भी ....उन दिनों हम लोग बहुत डरते थे गैस से ...दिन में जितनी बार गैस को जलाना, उतनी बार बुझा कर, नीचे से उस की नॉब को घुमा कर बंद भी करना ...कस कर ....इतना कस कर कईं बार कि अगली बार मां से वह खुल ही न पाए या कईं बार तो उस गैस की नॉब की चूड़ीयां ही घिल जाती होंगी ....(एक आध बार ऐसा हुआ भी ....पता नहीं क्यों)....

घर में 1972 के आखरी दिनों में गैस आने की बात याद आती है तो उस दिन पहली बार बनी चाय की भी याद आती है ....दो मिनट में चाय तैयार ....करिश्मा लग रहा था। गैस घर में पहुंचने के कुछ दिन पहले पता चल जाता था ...गैस एजैंसी के चक्कर काट काट के जूते घिसवाने के बाद, फिर रसोई में सीमेंट की एक स्लैब का प्रबंध किया गया....उस सरकारी मिस्तरी के लिए भी यह काम नया था ....उसने तो पक्की मजबूत स्लैब जब तैयार कर दी बिल्कुल लेंटर जैसी ....लेकिन जब तक गैस आ गई और उसे उस स्लैब पर रखा गया तो पता चला कि वह तो बहुत ऊची बन गई है ...उस पर काम करने के लिए मां को नीचे दो तीन ईंटे रखनी पड़तीं... परेशान हो गई मां ....फिर उस सरकारी मिस्तरी ने एक दूसरी स्लैब बनाई ....दूसरी दीवार पर ....पहले वाली से एक फुट के करीब नीचे ....फिर वह गैस की जगह बदल गई और पहली स्लैब पर बर्तन सजाए जाने लगे ....हा हा हा ....कुछ दिन पहले मैं और मेरी बड़ी बहन ये सब बातें याद कर खूब हंस रहे थे ....कुछ यादें होती ही ऐसी हैं....

लगता है बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बहुत हो गया....गैस की लंबी प्रतीक्षा सूची और कनेक्शन मिल जाने के बाद भी किल्लत, मिट्टी के तेल की काला बाज़ारी.....ये सब बातें मेरी उम्र के लोग भुगत ही चुके होंगे ...लेकिन एक बार की बात है बचपन में जब गैस नहीं आई थी, तेल भी नहीं मिल रहा था और कोयला भी न मिल रहा था ...मुझे एक ही ऐसा वाक्या याद है कि मां ने चूल्हे पर रोटी बनाने के लिए लकड़ी के टॉल (लकड़ी की आरा मशीन) से लकड़ी के डक्क (पंजाबी लफ़्ज़ है लकड़ी के छोटे टुकड़ों के लिए) मंगवाए थे ...मुझे याद है मेरा बडा़ भाई उन को बोरे में ला रहा था ....मैं उस के साथ कुछ दूरी पर पैदल चल रहा हूं....

हम बहुत आधुनिक हो गए हैं....अब ज़माना है दाल सब्जी रोटी परांठे (रेडीमेड) का, रेडी़ टू इट, रेडी टू कुक ....गर्म करने का झंंझट नहीं, एक मिनट दाल को गर्म करने पर माइक्रोवेव में वह मुंह जला देती है ....लेकिन हम भी क्या करें, हमें अंधी दौड़ में पीछे न रह जाने की फ़िक्र है ....हम भाग रहे हैं....हमें अपने खाने-पीने से अब कुछ खास मतलब नहीं रहा ....पेट भर लेते हैं....और उस के नतीजे जो देश समाज के सामने आ रहे हैं, उस के बारे में भी हम सब जानते हैं.....

उस स्टोव वाले बंदे ने आज मेरी यादों के मकड़जाल को छेड़ दिया हो जैसे.....कुछ फिल्मी गाने भी अपने से लगते हैं, गुज़रे ज़माने के परिवेश से मिलते जुलते हैं.....याद दिलाते हैं उन्हीं दिनों की ....मां की भी .... 



शनिवार, 8 जुलाई 2023

चूहेदानी से आप को भी कुछ तो याद आएगा....


कुछ दिनों पहले की बात है घर से कबाड़ निकाला जा रहा था ...मुझे तो ऐसे लगने लगा है कि जिन घरों में भी ज़रुरत से ज़्यादा सामान होता है वे कबाड़ी की दुकान जैसे ही लगने लगते हैं ..लेकिन यह भी एक तरह की बीमारी है जो बस लग जाती है , समय रहते इसका इलाज भी ज़रूरी है...खैर, जैसे ही मुझे यह चूहेदानी दिखी तो मुझे तो गुज़रा ज़माना याद आ गया और मैंने इस की फोटो खींच ली...

मैं यही सोचने लगा कि पहले दिनों में कैसे चूहों से निजात पाई जाती थी ...सब से पहले तो मुझे मेरे स्कूल के पांचवी कक्षा के गुरुजी याद आए ...जिन्होंने हमें उन दिनों यह बताया कि अनाज के भंडारण को कैसे किया जाए कि उसके अंदर चूहे दाखिल न हो पाएं...सच में मुझे उन की एक ही बात याद रह गई ...अनाज के भंडारण के लिए वह भड़ोली आदि की बातें कर रहे थे ...यह एक पंजाबी लफ़्ज़ है मेरे ख्याल है ...दरअसल आज से 50-55 बरस पहले क्या होता था कि गांव-कसबे में अनाज के भंडारण के लिए घरों में मिट्टी की बनी भड़ोली का इस्तेमाल होता था ...फिर धीरे धीरे लोहे की बड़ी बड़ी 5-6-8-10 फुट (ज़रूरत के मुताबिक) पेटियों में घरेलू इस्तेमाल के लिए अनाज रखा जाने लगा....

हां, मुद्दा तो आज का चूहेदानी है ....बचपन की याद है मुझे बस इतनी कि पूरे गली-मोहल्ले में दो तीन घरों में ही लकड़ी की चूहेदानी होती थी, वह कभी खराब न होती थी, कभी धोखा न देती थी ...यह भी एक स्टेटस-सिंबल से कम बात न थी कि सोढी के घर में या कपूर के घर में चूहेदानी है। पहले हम लोग घरों में तरह तरह का कबाड़ खाने-पीने-पहनने का .....इक्ट्ठा ही कहां होने देते थे ...साफ़ सफ़ाई टनाटन हुआ करती थी ...और अगर कभी रसोई में चूहा दिख गया तो बस, फिर किसी के घर से वह लकड़ी की चूहेदानी लानी होती थी। और रात में खाने के वक्त चूहा पकड़ने की साज़िश होती थी कि आज चूहेदानी में रोटी लगा के सोना है ...और मां सोने से पहले रोटी का एक टुकड़ा उस के अंदर किल्ली में फँसा कर ही सोती ...सुबह उठते ही अगर तो चूहा उसमें फंसा हुआ मिलता तो सब की खुशी का पारावार कुछ इस तरह का होता जैसा किसी बहुत बड़े पहाड़ पर विजय हासिल कर ली हो...और अगर उसमें रोटी गायब होती और लेकिन चूहेदानी का मुंह खुले का खुला होता तो ऐसे लगता जैसे पता नहीं कौन सी जंग हार गए हैं, पल भर की मायूसी और फिर ठहाकों का दौर ...कि चूहा पिंजरे से भी बच कर निकल गया....रोटी उड़ा कर ले गया....देखा जाए तो उस दौर के सीखे हुए ये सबक थे ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए....

कल मुंबई की बरसात में भी यह साईकिल सवार दिखा ..एक हाथ से साईकिल चला रहा था, दूसरे से छाता थामे हुए था ...

और जिस घर में चूहा चूहेदानी में फंसा मिलता तो आसपास दो चार लोगों को (खासकर हमारे जैसे शरारती बच्चों को) तो यह पता चल ही जाता और हम आगे की प्रक्रिया सोच कर रोमांचित होते ....मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमारे घर से चार पांच घर छोड़ कर ही एक शाम लाल नाम के अंकल जी रहते थे ..उन के घर में हर सप्ताह महिलाओं का कीर्तन हुआ करता था दोपहर में ...और एक बात उन के बड़े बेटे को मैंने इतनी बार साईकिल पर चूहेदान को पीछे कैरियर पर रख कर जाते देखा कि मुझे जब भी वह बंदा दिखता तो मुझे यही लगता जैसे वह इसी काम के लिए जा रहा है ....अब हर किसी के साईकिल के पीछे कैरियर तो नहीं होता था ..इसलिए कुछ जां बाज़ लोग एक हाथ में चूहेदानी और एक हाथ से साईकिल चलाते हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ निकल पड़ते।

हां, तो यह मंज़िल क्या होती थी, हम को अच्छे से पता होता था ...इसलिए जो भी बच्चे किसी को इस तरह चूहेदानी को थामे या साईकिल के पीछे रखे हुए देख लेते, अपने सभी खेल, कंचे, गुल्ली-डंडा .....सब कुछ छोड़-छाड़ कर हम उस साईकिल वाले के पीछे हो लेते ...कोई ज़्यादा दूर नहीं जाना होता था चूहे को उस की मंज़िल तक पहुंचाने के लिए .....यही कोई चार पांच सौ मीटर पर ही उस की मंज़िल होती थी ...यह दो तरह की होती थी ..एक तो कोई खुला सा बड़ा सा नाला ...या पास में ही मौजूद कोई बडा़ सा खेल का मैदान ...यह उस साईकिल सवार की डिस्क्रिशन होती थी ....अपने आसपास पांच सात बच्चों का जमावड़ा देख कर वह भी अपने आप पर, अपनी बहादुरी पर अंदर ही अंदर इतराता तो ज़रूर होगा...

हमारे लिए वह पल रोमांच से भरा होता था जब चूहेदानी का किवाड़ खुलते ही जनाब चूहा जी फुदक कर बाहर निकलते ...लेकिन अकसर नाली में गिरने की बजाए वह उस के किनारे पर लैंड कर के सरपट दौड कर देखते ही देखते आंखों से ओझिल हो जाता.(हम लोगों के बिंदास ठहाके शुरु हो जाते) ..और उस साईकिल वाले बहादुर का मुंह उतर सा जाता कि अगर फिर से यह उसी के घर में आ गया तो ....लेकिन नाले में गिरने से कौन सा गारंटी होती कि वह वापिस न आएगा....आज सोचता हूं तो यही लगता है कि यह सारी प्रक्रिया बस उतने तक महदूद थी कि इस बला को अपने घर से तो निकालो....वापिस लौट कर कहीं भी जाए....

अभी लिखते लिखते याद आया कि कईं बार ऐसा होता था कि घर में कोई चूहेदानी के साथ साईकिल या पैदल यात्रा करने के लिए राज़ी न होता तो उस चूहेदानी के घर के दरवाजे के बाहर ही खोल दिया जाता ....वह नज़ारा हमें इतना रोमांचक न लगता ..लेकिन कभी कभी उस में भी रोमांच का तड़का लग ही जाता जब चूहा पिंजरे से निकल कर मोहल्ले में किसी दूसरे के घर में घुस जाता और अगर उस घर का कोई सदस्य भी यह देख रहा होता तो खामखां एक तकरार सी हो जाती कि यह क्या बात हुई ....अपने घर से निकाल कर इधर भेज दिया...खैर, वह भी बस थोड़े वक्त के लिए ...(कईं बार तो चूहा वापिस अपने पैतृक घर में ही वापिस लौट जाता) ...

बाद में चूहेदानीयां लोहे से तैयार हुई भी मिलने लगीं  और कईं बार तो चूहा रोटी ले कर निकल जाता लेकिन उसमें फंस न पाता ...लेकिन कईं बार बहुत मोटा चूहा अगर उस में फंस जाता तो यह साजिश रचने वाले को उतनी ही ज़्यादा खुशी मिलती। फिर कुछ चूहे मारने की दवाई तो आने लगी जिसे रोटी की जगह उस पिजरे में रखा जाने लगा, जिससे वह मर कर उसी में कैद हो जाता  ...हमेें यह देख कर बहुत बुरा लगता कि यह मारने वारने का क्या चक्कर हुआ ...यह तो बहुत बुरी बात है ...हर किसी को जीने का हक है...


बस, पुरानी यादें तो यहीं तक थीं ....फिर धीरे धीरे पता नहीं चूहे के ज़हर के नाम पर क्या क्या आने लगा ....बेचारे चूहों को शर्तिया मारने की बातें होने लगीं.. ....अब तो बाज़ार में आते जाते देखते हैं कि कुछ ऐसे उत्पाद भी आ गये हैं इसी काम के लिए जिनसे हर्बल गैस निकलती है और वह इन चूहों का सफाया कर देती है ...अकसर बाज़ार में ड़ों आते जाते इस तरह के व्यापारी दिख जाते हैं ....लेकिन मैं इन सब खतरनाक जुगाड़ों का हिमायती नहीं हूं बिल्कुल भी ....

आज दोपहर की बात है ...बंबई के फुटपाथ पर एक बंदा आठ दस छोटे छोटे पाउच रखे बैठा था ..उन पर लिखा था ...रैट-प्वाईज़न ....100% प्वाईज़न---फोटो ले लेता अगर उस वक्त मैं बंबई की उमस की वजह से पसीने से लथपथ न होता ...मैं उसे देख कर यह सोचते हुए आगे बढ़ गया कि क्या ज़माना आ गया, ज़हर के लिए भी सौ-फ़ीसदी की शुद्धता की गारंटी देनी पड़ती है ....व्यापारी भी क्या करें, हर तरफ़ मिलावटखोरी का बोलबाला जो है ....

चलिए, मेरा एक काम तो पूरा हुआ....मैं कईं बार लिखता हूं न कि कुछ पुरानी आइट्म, बातें, यादें मुझे लिखने के लिए प्रॉप्स का काम करती हैं, जैसे डॉंसर प्रॉप्स इस्तेमाल करते हैं, कुछ कुछ शायद उसी तरह से ...वैसे चूहेदानी की पुरानी बातों से आप को कुछ तो अपने दिन भी याद आए ही होंगे, अगर ऐसा है तो लिख दीजिए इस ब्लॉग के नीचे कमैंट्स में ...अगर अनानीमस (बेनामी) टिप्पणी भी लिखना चाहें तो लिख दीजिए....दिल को हल्का कर लीजिए...

बुधवार, 24 मई 2023

बिनाका गीत माला - कुछ यादें , कुछ बातें !

अभी मैं अपने रूम की थोड़ी साफ़ सफ़ाई कर रहा था तो अल्मारी के एक कोने में एक छोटी सी किताब दिख गई ...करीब ५० साल पुरानी है ...नाम है हिट फिल्मी गीत -बिनाका गीतमाला-३ (१९७०-१९७६)- मेरे पास तो यह दो तीन बरसों से ही है, यही बंबई से इसे खरीदा था ...उस दिन यह लग रहा था कि काश, इस के सभी अंक कहीं से भी मिल जाएं तो ले लूं...अमीन सयानी की जादुई आवाज़ भी याद है हम सब को ...

खैर, मुझे उन दिनों की याद करने के लिए ऐसी पुरानी चीज़ें लगती हैं...यह उन दिनों की बात है जब बिनाका गीत माला ही दिसंबर महीने की हमारी सब से बड़ी दिल्लगी हुआ करती थी ...हमें बस यही फ़िक्र रहती थी कि ईश्वर कृपा करें शाम को इस प्रोग्राम के दौरान हमारा रेडियो चलता रहे ....रेडियो भी उन दिनों बड़े नखरे करता था ....कईं पापड़ बेलने पड़ते थे उस की स्पष्ट आवाज़ सुनने के लिए...खैर, कभी आप को अपने रेडियो से जुड़े ब्लॉग का लिंक दूंगा ..जिसमें मैंने रेडियो के बारे में सभी बातें लिख डाली हैं....रेडियो लाईसैंस फीस देने वाले दिनों की बातें भी ..

खैर, मैं इस वक्त जब यह लिख रहा हूं सच में मुझे याद नहीं आ रहा कि क्या मनोरंजन के नाम पर हमारी ज़िंदगी मेे उन दिनों बिनाका गीतमाला के अलावा कुछ था ....अपने आप से पूछता हूं तो पक्का जवाब मिलता है ...नहीं, बिल्कुल नहींं। यह हमारे लिए ऐसे था जैसे आज की पीढ़ी के लिए बिग-बॉस...या कुछ और ...मुझे तो आज के टीवी के प्रोग्रामों के नाम भी नहीं आते ...आठ दस साल से देखा ही नहीं, ऑउट ऑफ टच....😂

हमारे बचपन का सच्चा साथी...मरफी का यह रेडियो ...आज भी देश के किसी कोने में यह हिफ़ाज़त से रखा हुआ है ...धरोहर है अपनी..

और जो इकलौता रेडियो घर में होता था हम उस के रहमोकरम पर रहते थे ...मेरे भाई को भी रेडियो सुनने का बड़ा शौक था...वह तो उस की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनने के लिए थपथपाता ऱहता था उस को ...यह जो मैं तस्वीर यहां लगा रहा हूं यह हमारे घर के मरफी रेडियो की तस्वीर है जिस के साथ अनेकों यादें जुड़ी हुई हैं, दबी पड़ी हैं....उन में से कुछ लिख कर हल्कापन महसूस कर लेते हैं...


यह भी इसी किताब का ही एक पन्ना है ...

दिक्कत उन दिनों की यह भी थी कि रेडियो सुनना भी लगभग एक ऐब ही माना जाता था ....पढ़ाई के वक्त तो रेडियो डर डर के सुनते थे और हमारी कोशिश होती थी कि शाम के वक्त पिता जी के दफ्तर से लौटने से पहले सब गाने वाले सुन सना के उसे बंद कर दें और अपनी कोई कापी किताब उठा लें..(आठवीं क्लास में किताब में रख कर एक नावल भी पढ़ा था, बस एक बात ..उस के बाद पढ़ाई से ही कभी फुर्सत न मिली...लेकिन वह अपराध बोध उम्र भर के लिए साथ रह गया) ...रात के वक्त भी सुनने की इतना छूट न थी ...हमारा रेडियो पहले तो गर्म होने में वक्त लेता था ....ये सब बातें १९७० के दशक के शुरूआती बरसों की हैं...फिर तो १९७५ में हमने बुश का एक ट्रांजिस्टर ले लिया था ..बंबई आए हुए थे ...हमारे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बड़े ओहदे पर था ...उसने छूट दिलवा दी थी ....और मुझे याद है हम लोग उस ट्रांजिस्टर को शुरू शुरू में बहुत संभाल कर रखते थे ..अभी भी याद है शाम के वक्त आंगन में चारपाईयां बिछी हुई हैं, पंखे लगे हुए हैं, दो तीन अड़ोसी-पड़ोसी बैठे हुए हैं.....उस पर गीत बज रहे हैं, खबरें आ रही हैं, बीबीसी से भी...वह सैलों से भी चलता था और बिजली से भी ...जहां तक मुझे ख्याल है हम उसे बिजली पर ही चलाते थे ...

अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो इस इमेज पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ सकते हैं..


कहां यार मैं भी किधर निकल गया ....बिनाका गीतमाला की किताब है सामने और मैं कहां चारपाईयों पर उछल कूद करने लगा (उन दिनों हमें यह काम भी करना बहुत पसंद था, चारपाई के टूटने पर अपनी हड्डियों के टूटने की रती भर भी फिक्र न होती थी) ...डायमंड कामिक्स की इस किताब का दाम ३ रूपये लिखा हुआ है जो मुझे लगभग १०० गुणा दाम चुकाने पर मिली ....खरीदने की कोई जबरदस्ती नहीं थी...लेकिन मुझे चाहिए थी...इसे देखते ही मज़ा आ गया था ..

 आज की पीढ़ी को यकीं दिलाने के लिए कि रेडियो सुनने के लिए सालाना १५ रूपये की फीस डाकखाने में जा कर भरनी होती थी ...मैंने भी भरी हुई है ..(यह भी खरीदी हुई कॉपी है)..

ऊपर वाली रेडियो लाईसेंस बुक का एक पन्ना ....

१९७० से १९७६ के दिन अपने भी इन गीतों में डूबे रहने वाले दिन थे ...इस किताब में भी इन सात सालों की लिस्ट लंबी है ..जो बिनाका गीत माला की हिट परेड में शामिल किए गए ..इतनी लंबी लिस्ट कहां लिखता फिरूं....हर साल के पहले नंबर पर आने वाले गीत का नाम यहां लिखता हूं ...

१९७०- बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी...

१९७१- ज़िंदगी इक सफर है सुहाना 

१९७२- दम मारो दम, मिट जाए गम 

१९७३-यारी है इमान मेरा यार, मेरी ज़िदगी 

१९७४- मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया...

१९७५- बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ..

१९७६- कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...

अभी मैंने यह सोचा कि अगर मुझे इस पोस्ट के नीचे इन सात बरसों में जो गीत पहले नंबर पर रहे....उन में से एक चुनना होगा तो मैं किसे चुनूंगा ....तो मेरी पसंद बिल्कुल स्पष्ट थी ....और उस वक्त १९७१ में मेरी उम्र थी महज़ ९ साल की ...इतना सुना इस गीत को रेडियो पर, मोहल्ले में लगने वाले लाउड-स्पीकरों पर, सर्कस के मैदानों में.....कि ९-१० साल की उम्र में भी इस गीत का फलसफा शोखी की वजह से हमारे दिलो-दिमाग में कैद तो हो गया, .लेकिन इस की समझ बहुत बरसों बाद आई...😎😁


एक तरफ़ देखिए हमारी पीढ़ी को इन गीतों को सुनने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी और दूसरी तरफ़ आज ही की मुंबई की तस्वीर देखिए...मोबाइल पर कुछ भी सुनने का जुगाड़ फुटपाथ पर बैठे बैठे भी हो जाता है....👍 

मुंबई - २४.५.२३