इतना तो मैं जानता था कि यहां मुंबई में मराठी नाटक देखना लोग खूब पसंद करते हैं...और मुझे इतना ही पता था कि कुछ जगहों पर जैसे की रविन्द्रालय, व्हाई बी चव्हान, वीर सावरकर भवन इत्यादि पर मराठी नाटकों का मंचन किया जाता है ...कुछ ज़्यादा मुझे इस के बारे में पता नहीं था ..
लेकिन दो चार दिन पहले एक रिटायर बंधु आए तो उन के हाथ में महाराष्ट्र टाइम्स समाचार-पत्र था.....बात जब चली कि अब रिटायर होने पर टाइम कैसे पास होता है तो उन्होंने झटपट अपना बढ़िया रुटीन बता दिया ...साथ में यह भी बताया कि मराठी नाटक देखने भी जाता हूं ...मुझे पता था कि वह भी गुज़रे दौर में मराठी रंगमंच पर काम करते रहे हैं....मैंने पूछा तो कहने लगे कि हां, उस शौक को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में लगा हूं...
इस के साथ ही उन्होंने मेरे सामने महाराष्ट्र टाइम्स में मराठी रंगमंच के विज्ञापनों का वह पन्ना सामने रख दिया....मैं उस पन्ने पर इतने सारे विज्ञापन देख कर हैरान था....कहने लगे कि वीकएंड पर अगर आप महाराष्ट्र टाइम्स या लोकमत खरीदेंगे तो आप को पता चलेगा कि किस तरह से दो पेज़ इन मराठी नाटकों के विज्ञापनों से भरे रहते हैं....
महाराष्ट्र टाइम्स - मुंबई ...दिनांक 16 मार्च 2024 |
आज शनिवार था, रेलवे स्टेशन के अंदर घुसने से पहले उन की बात याद आ गई ...महाराष्ट्र टाइम्स की एक कापी खरीद ली...सारे पन्ने उलटे ...थोड़ा बहुत समझ में आ भी गया....क्योंकि सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ी थी ...यह भी उन का ही मराठी पेपर है ...और विशेष तौर पर मैं मराठी नाटकों वाला पन्ना देख कर सच में दंग रह गया....
उस दिन जो साथी मराठी नाटकों के संसार की बातें कर रहे थे उन्होंने कहा कि ये जितने भी नाटकों के विज्ञापन आप देख रहे हैं ये सब हाउस फुल होते हैं.....अगर आपने कभी चलना हो तो मुझे पहले बता देना....मैंने कहा कि मैं तो म्यूज़िक कंसर्ट्स की बुकिंग बुक-मॉय-शो पर करवा लेता हूं ...यह सुविधा भी तो होगी ...कहने लगे कि है तो लेकिन पहली कुछ चार पंक्तियों की बुकिंग उस हाल में ही होती है ....उसे बुक-मॉय- शो पर नहीं किया जाता....और जिस दिन से यह शो की बुकिंग उस हाल में शुरू होनी होती है उस के बारे में अखबार से ही पता चलता है और लोग उस दिन सुबह ही उस हाल में पहुंच जाते हैं ..बुकिंग के लिए।
मुझे उन की यह बात सुन कर अपने बचपन-जवानी के दिन याद आ गए ...जब किसी नई पिक्चर रिलीज़ होने से कुछ दिन पहले उस की एडवांस बुकिंग शुरु हो जाती थी ...और हम लोगों को अकसर उस टिकट खरीदने के लिए सिनेमा हाल के चक्कर काटने पड़ते थे ...बहुत घपलेबाजी थी तब भी ....कुछ ही टिकटें वे लोग एडवांस बुकिंग में देते थे ...नहीं तो टिकटों की काला बाज़ारी कैसे हो पाती...
खैर, अच्छा लगा कि मराठी नाटकों की लोकप्रियता के बारे में जान कर ....और लोग टिकट खर्च कर जाते हैं मराठी नाटक देखने और इतने व्यापक स्तर पर ....यह एक बहुत सुखद जानकारी थी ...वैसे तो हिंदी के भी जो नाटक होते हैं मुंबई में ...उन की भी टिकट लेनी ही होती है ....
मुंबई के बाहर मेरा अनुभव कुछ अलग रहा ....18 साल की उम्र में अमृतसर में अपने कॉलेज में ज़िंदगी का पहला नाटक देखा ..पंजाबी भाषा में .....टोबा टेक सिंह ...इस के लेखक और निर्देशक थे पंजाब के एक बहुत बड़े लेखक, नाटककार, निर्देशक ...गुरशरण सिंह जी .....उम्र के उस पड़ाव में इस नाटक ने हम सब के एहसासों को झंकृत किया ...
फिर शायद अगले तीस साल तक छुट्टी ...कहीं कोई नाटक नहीं देखा ...न ही कुछ रूचि-रूझान था इन सब में....फिर जब पचास बरस की उम्र के आस पास लखनऊ में रहने लगे तो वहां भी हिंदी नाटकों की दुनिया बहुत निराली है ....बहुत से नाट्य-गृह भी हैं...आए दिन किसी न किसी नाटक का मंचन होता ही रहता है ....नाटकों से जुड़े हुए बहुत बड़े बड़े संस्थान हैं....अधिकतर तो ये सब हिंदी भाषा में ही होते थे, और कभी कभी अवधी भाषा में भी नाटक देखने को मिल जाते थे ....
लखनऊ में जो सात-आठ साल रहे वहां पर बहुत से नाटक देखने को मिले ...नाटकों में काम करने वाले कलाकारों को देखने और उन को अलग अलग प्रोग्रामों में सुनने का मौका मिला ....वहां यह भी जाना कि मुंबई में जो लोग हिंदी फिल्मजगत में स्थापित हैं उन में से बहुत से कलाकार लखनऊ रंग मंच द्वारा ही तैयार किए गये हैं....कलाकार ही नहीं, बॉलीवुड के बहुत से लेखक भी लखनऊ द्वारा तैयार किए गए हैं.....
लखनऊ में जितने हिंदी के नाटक देखे उन के नाम याद करना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम है ....शायद 2013 में जब नए नए लखनऊ में गए तो वहां पर असगर वज़ाहत के नाटक - जिस लाहौर नहीं वेख्या, ओ जम्मेया ही नहीं....। यह बहुत अच्छा नाटक है, आप यू-ट्यूब पर इसे देख सकते हैं। बहुत से नाटक और भी देखे ..लेकिन वहां पर टिकट नहीं लगती थी, सब कुछ मुफ्त देखने को मिलता था ...दर्शकों के लिए तो बढ़िया है लेकिन नाटकों के लिए, नाटकों की सेहत के लिए, कलाकारों के लिए तो ठीक नहीं है ....तब भी बातें चल तो रही थीं कि नाटक देखने के लिए टिकट होनी चाहिए....
लखनऊ में रहते हुए ही नादिरा बब्बर के कुछ नाटक देखने को मिले ...जो उन्होंंने लिखे भी थे, और निर्देशन भी उन का ही था....क्या बेहतरीन नाटक लिखे थे....जूही बब्बर ने भी उन में काम किया था....मैं तो हिंदी नाटकों को देख कर दंग रह जाता था कि इतने इतने लंबे ़डॉयलाग याद करने .....और पूरी परफेक्शन के साथ उन को निभाना ...वाह वाह .....👍
रंग मंच एक अद्भुत विधा है ...मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी के साथ साथ अपनी मातृ-भाषा में नाटक पढ़ने-देखने चाहिए...बहुत कुछ होता है इन से सीखने के लिए ....हमारे अंदर तक ये अपना प्रभाव छोड़ते हैं ....शिक्षित करते हैं.....देखने चाहिएं जब भी मौका मिले ....मराठी और हिदी के बारे में तो मैं कह सकता हूं ....इंगलिश नाटकों के बारे में मुझे कुछ इतना ज्ञान नहीं है....जिन को मैं देखने गया वह मेरी समझ से ऊपर के थे, शेक्सपियर के या गेलिलियो इत्यादि.....कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा ...और जो इंगलिश के नाटक मेरी समझ में आ जाएं, उन की देखने की मेरी कभी इच्छा हुई नहीं ..वैसे ही ....टाइम्स ऑफ इंडिया में आते हैं इन के भी विज्ञापन अकसर ...लेकिन कभी नहीं गया देखना.....शायद कभी कभी हिंदी नाटक के विज्ञापन भी मुंबई की टाइम्स आफ इंडिया में आते हैं....
मैने उन सज्जन को कहा कि इसे ज़रा पकड़िए मुझे एक फोटो खींचनी है ... |
यह पोस्ट किस लिए.....सिर्फ एक सलाह देने के लिए कि अगर आप नाटक देखने नहीं जाते तो जाना चाहिए ...जिस भी भाषा में आप को पसंद हो, जाइए....और हां, नाटकों की किताबें भी पढ़िए.....और हां, किताबों से याद आया.....कल ट्रेन के जिस डिब्बे में चढ़ा उस में एक सज्जन एक किताब के पन्ने उलट पलट रहे थे ...जिज्ञासा हुई ...क्योंकि यह जो प्रजाति (मैं भी उसी एन्डेंजर्ड स्पीशिस से ही हूं) में अखबार हाथ में लेकर चढ़ती है या अपने थैले में से कोई किताब निकाल कर पढ़ने लगती है यह भी लुप्त होने की कगार पर ही है .....और जो लिखने वाले हैं उन को तो हरेक से बात करनी होती है, बर्फ तोड़ने में कोई शर्म नहीं महसूस होती उन को ....मैंने भी उनसे ऐसे ही पूछ लिया कि क्या पढ़ रहे हैं, उस सज्जन ने बताया कि गीता प्रैस गोरखपुर की उपयोगी कहानियां पढ़ रहा हूं....कहने लगे कि मैंने तो पढ़ ली है, आप ले लीजिए, पढ़िएगा.....मैंने कहा, नहीं, आप पढ़िए....मैं भी ऐसी किताबों का संचय करता रहता हूं , पढ़ता भी हूं। फिर हम की बात गीता प्रैस गोरखपुर के बारे में होने लगीं कि किस तरह से वे सस्ते दामों पर श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध करवा रहे हैं....बस, दो मिनट में हमारा स्टेशन आ गया....जाते जाते बता कर गए कि प्रिंसेस स्ट्रीट पर गीता प्रैस गोरखपुर की दुकान है....मैंने भी कभी किसी ज़माने में गीता प्रैस की बीसियों किताबें खरीदी थीं, याद नहीं कितनी पढ़ी, कितनी ऐसे ही यहां वहां पड़ी अल्मारियों से झांक रही होंगी कहीं पड़ी, कितनी किताबों को तो दीमाक ही चाट गईँ....कोई बात नहीं, यह सब भी साथ साथ चलता है...
हां तो बात आज मराठी नाटकों की हो रही थी ....मराठी रंग मंच ने हमें एक से एक बेहतरीन कलाकार दिए हैं ....हिंदी सिनेजगत में ..किस किस का नाम लें, किस को ऐसे कैसे भूल जाए...इसलिए नाम किसी का भी नहीं लिख रहे हैं.....बस, इतनी गुज़ारिश है कि नाटक देखा करिए, पढ़ा करिए, अन्य भाषाएं पढ़ते हैं, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखिए, पढ़िए, बोलिए .....और अपनी मातृ-भाषा में छपने वाले किसी अखबार को भी देखना अच्छा लगता है...ज़मीन से जुड़ी बातें और आम आदमी की खबरें उस में भी भरी पड़ी होती हैं ....वैसे मुझे मराठी में हो रही बातचीत सुनने में बड़ा मज़ा आता है ....लोगों में चल रही उस बातचीत मैं नए लफ्ज़ चुनने लगता हूं ....कुछ शब्दों के अर्थ के कयास लगा लेता हूं, कुछ के अर्थ बाद में किसी से पूछ लेता हूं ....और सब से खुशी मुझे लोगों के चेहरों को देख कर होती है जब वे अपनी मातृ-भाषा में बतिया रहे होते हैं ...