मंगलवार, 16 मई 2023

रिप्ड जीन्स - कुछ नेक विचार


रिप्ड जीन्स के बारे में पता तो यही कोई १०-१५ बरस पहले लग गया था ...इस पहने हुए जवान लोग दिखने लगे थे ...लेकिन एक बार मैं दंग रह गया था ...यही कोई आठ दस बरस पहले की बात है ...एक ५-६ साल का बच्चा आया अपनी मां के साथ ....बच्चों को सजने-संवरने का शौक होता ही है ...हम भी उस उम्र में अपने ज़माने में बीस पैसे की वो मोमजामे वाली ऐनक लगा कर पता नहीं खुद को क्या समझने लगते थे ..समझें भी क्यों ने ....वक्त ही ऐसा होता है वो... हां, तो उस छोटे लड़के ने बड़े गॉगल-शॉगल लगाए हुए थे, जीन और टीशर्ट , कैप भी पहनी थी और पूरी फार्म में था ...अचानक मेरी नज़र उस की जीन्स की तरफ़ गई जो मुझे एक दो जगह से फटी दिखी...

यह तुम्हारी जीन्स कैसे फट गई -मैंने उसे पूछा.

डा.साहब, यह फटी नहीं है, इस डैमेज जीन्स को खुद इस की फरमाईश पर खरीदा गया है , उस की मां ने राज़ खोल दिया। 

मुझे उस दिन बड़ी हैरानी हुई कि पांच छः साल का बच्चा भी डैमेज जीन्स पहन रहा है ...और इतने सालों में वाट्सएप पर भी बहुत से वीडियो आते जाते रहते हैं कि बुज़ुर्ग दादी अपने पोते को कुछ पैसे दे कर कहती है कि लाडले, जा, जा के अच्छी से पतलून ले ले ...यह देख कैसे फट चुकी है...। फिर वह दादी को समझाता है कि बेबे, यह फटी नहीं है, इसे पहनने का रिवाज़ है...

वक्त के साथ युवाओं के रोल-मॉडल भी बदल रहे हैं...जो तस्वीर दो दिन पहले अखबार में थी ...उसमें तो पूरी थी, लेकिन यहां इतनी ही लगाना मुनासिब जान पड़ा....

इन रिप्ड जीन्स का लफड़ा एक और भी है.....इन्हें पहन कर अमीर तो और भी रईस दिखने लगता है, लेकिन एक औसत आदमी बेचारा मांगने वाला कोई फरियादी टाइप दिखने लगता है ...अमीर, रईस लोगों का तो पहनना सब की समझ में आ जाता है कि यह कूल, हॉट, मॉड...जो भी कोई समझ ले, वह दिखने के लिए पहनते हैं..और जीन्स जितनी ज़्यादा रिप्ड होगी पहनने वाले का रूआब, रुतबा, ईज्ज़त समाज में, मीडिया में उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है ..है कि नहीं...अब देखिए दो दिन पहले एक सिने-तारिका की फोटो मैंने अखबार में जब देखी तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा, क्योंकि अकसर मुंबई के लोकल स्टेशनों पर, और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे फेशनेबुल कपड़े पहने मॉड लोग दिख जाते हैं.....दिख जाते हैं तो भई दिख जाते हैं, क्या करे कोई आंखों पर पट्टी थोड़े न बांध ले...

फैशन के लिए हम कुछ भी करेगा....शौक की कोई कीमत नहीं होती...

लेकिन कईं बार कुछ ऐसे लोग भी रिप्ड जीन्स पहने दिख जाते हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इन्होंने फेशन के लिए पहनी है या मजबूरी में .....बस, लफड़ा इन केसों में ही होता है जब समझ नहीं आती, लेकिन वही बात है कुछ लोगों को बेकार में सिरदर्दी मोल लेने की आदत होती है, क्या करना बेकार के इस हिसाब-किताब के चक्कर में पड कर ...तुम्हारी राह चलो, वह उस की ज़िदगी है, उसे जी लेने दो ...

यही कोई पांच छः साल पहले की बात है, मैं एक दिन ज़ारा के शो रूम में गया बेटों के साथ...वहां मैं एक फटी-पुरानी टी-शर्ट देख कर हैरान रह गया...उसे देख कर हैरानगी की बात उस का कटा-फटा होना न था, बल्कि उस पर ३५०० रूपये को टैग लगा हुआ था...जिस तरह की वह टी-शर्ट थी अकसर उस तरह की टी-शर्ट लोग घर में फटका लगाने के लिए भी इस्तेमाल न करें....ऐसा मैं समझता हूं तो समझता फिरूं ...लेकिन शौक की कोई कीमत नहीं होती ...मैं भी तो सौ साल पुरानी विंटेज किताबे, डेढ़ सौ साल पुरानी डिक्शनरीयां, ६० साल पुराने मैगज़ीन और नावल ढूंढता रहता हूं ..कुछ तो चीथड़े हो चुके होते हैं लेकिन खरीदता हूं न मुंह मांगे दामों पर क्योंकि वे मेरे काम की चीज़े ंहैं ...इसी तरह ये चीथड़े दिखने वाले कपड़े भी किसी के कितने काम के होंगे, मैं क्यों इस सब के चक्कर में पढ़ कर अपना सिर दुःखाने का जुगाड़ कर रहा हूं ....और वह भी सुबह-सवेरे।

जान-बूझ कर अच्छी भली पतलून को फड़वा लिया बंदे ने फैशन के चक्कर में......दो दिन पहले दिखा बांदरा स्टेशन पर ...

रिप्ड जीन्स के बारे में यह टुकड़ा लिखने से पहले मैंने सोचा चलो गूगल करता हूं .....मुझे कुछ गलती लगी मैंने लिखा रिग्ड - Rigged jeans - लेकिन गूगल बहुत समझदार है, उसने बराबर मुझे रिप्ड जीन्स का पन्ना खोल कर दे दिया ..कुछ सवाल जवाब भी थे ...एक दो ही पढ़े, बाकी न पढ़ पाया, अगर वे भी पढ़ने लग जाता तो मुमकिन था यह पीस लिखने से रह जाता या फिर आज ड़यूटी पर बेटे की कोई रिप्ड जीन्स पहन कर ही निकल पड़ता ...वैसे एक बार मैंने उसे पहना था घर ही में...सच में उस दिन समझ आई कि ये सब जवानों के काम हैं, बूढ़ी टांगों और घिसे-पिटे घुटनों पर तो ये रिप्ड जीन्स बहुत भद्दी दिखती हैं, कूल-हॉट तो क्या, बंदा सदियों का बीमार दिखने लगता है, मैंने उसी वक्त उसे उतार के परे रख दिया....मैं उस दिन बच्चो ं से मज़ाक कर रहा था कि अब मैं भी यह पहन कर जाया करूंगा ....और वो जैसे हैं ..हां, हां, डैड, पहनो ज़रूर पहनो, यू लुक कूल इन दिस....😎..... i know their satire!!

क्या करें, अंकल, वक्त के साथ कदम के साथ कदम मिला कर चलना पड़ता है ...

अच्छा, गूगल पर जो दो सवाल जवाब देखे, उसमें लिखा था कि लोग इन्हें पहनते क्यों है, जवाब लिखा था, कूल दिखने के लिए और दुनिया को यह बताने के लिए कि वह कैसे दिखते हैं, उन्हें इस की परवाह नहीं है....लेकिन पता नहीं मुझे लगता है कि कुछ और दिखने के लिए भी लोग इसे पहनते होंगे ...कूल, हॉट, अल्ट्रा-मॉड, हिप दिखने के लिए ....इन सब का एक ही मतलब होगा.....आज के दौर की स्लैंग ...


फेशन, शौक से मुझे याद आया हमारे परिवार का नन्हा सा सदस्य (जिस की फोटो यह है) इन दिनों मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमा रहा है ....इसे देखते ही लगता है ..."इन परिदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं..."

पोस्ट को बंद करते वक्त यह है मेरा आज का विचार ...जो मन करे पहनिए...फैशन करिए, कूल दिखिए और इस गर्मी उमस के मौसम में कूल बने भी रहिए...ज़िंदगी ने मिेलेगी दोबारा.....मुझे नहीं पता वह पंजाबी कहावत कैसे बनी ...पाईये जग भांदा ते खाईए मन भांदा....(पहनिए वह जो दुनिया को अच्छा लगे, खाइए वह जो आप को अच्छा लगे).....कोई क्यों न पहने वह सब जो उसे खुशी दे, उसे आराम दे, उस के मूड को अच्छा रखे .....खुश रहिए, मस्त रहिए ..रईसी के जलवे अलग हैं, लेकिन आम बंदे के लिए मेरी सलाह यही है कि दूसरे की रिप्ड देख कर अपनी अच्छी भली पतलून को कटवा-फड़वा लेना ठीक नहीं जान पड़ता ....इस से ईश्वर नाराज़ होता है, उस से वह समझता है हम नाशुक्रे हैं.....जैसे जिन लोगों के पास खाने को सब कुछ है, वे छरहरे दिखने के लिए क्या क्या नहीं करते ताकि भूख न लगे, उस के लिए दवाईयां तक ले लेते हैं ,  भूख अगर लगे भी तो कम ..ताकि वज़न न बढ़े......उन सब के लिए मैं इतना ही कहूंगा कि भूख लगना भी ईश्वर की सब से बड़ी नेहमत है ....जब कभी परिवार में किसी की भूख गायब हो जाती है न तो सारे कुनबे की भूख मर जाती है ...तब इस की क़ीमत पता चलती है......मैंने भी अपने परिवार में दो लोगों की भूख मरती देखी है ...तीन महीने नहीं टिक पाए थे उस के बाद  ....उन को देख हमारी भी भूख मरने लगती थी ...इसलिए हमें ज़रूरत है हर वक्त शुकराने में रहने की ......जो मिल रहा है, खाने को पहनने को ..उसे खुशी खुशी पहनें ...सब से ज़्यादा ज़रूरी सांसे हैं, टांगे हैं .....उन को कैसे ढक रहे हैं या नहीं भी ढक पा रहे हैं, यह कुछ मायने नहीं रखता ....ज़िंदगी का जश्न उन सब चीज़ों के साथ मनाना हमें सीखना होगा जो हमें वरदान के रूप में मिली हुई हैं...आंखें, दिल, चलना-फिरना ......और भूख ....

इस रिप्ड जीन्स की बातों को दिल पर मत लेना यार, जो पहनना है पहनो, मैं भी वही पहनता हूं जो मुझे खुशी देता है, आज सुबह कुछ लिखने के लिए नहीं था, इसलिए यह सब लिख दिया....बस, यूं ही ....

सोमवार, 15 मई 2023

शकरकंदी में भी कीड़े ...


हम लोग बचपन से जो खाते पीते रहते हैं हमें उन चीज़ों की आदत पड़ जाती है...है कि नहीं....इसलिए अकसर डाक्टर लोग छोटे-बच्चों के मां-बाप को यही मशविरा हमेशा देते हैं कि इन को सभी प्रकार की दालें एवं साग-सब्जियों और फलों की आदत डालो अभी से ...अगर बचपन में इन की इस तरफ़ रूचि न हुई तो ये उम्र भर इन पौष्टिक चीज़ों से बचते रहेंगे, दूर भागते रहेंगे....हम जिस दौर के हैं, उन दिनों बच्चों को अकसर एक-आध दाल या सब्जी नहीं भाती थी, लेकिन आज बच्चों को, युवाओं को कोई सी भी एक दाल या एक ही सब्जी चाहिए ...हर दिन ...अमूमन दाल मक्खनी या शाही पनीर ....स्विग्गी से या ज़ोमेटो से ....। चलिए, अब जो है सो है, यह आज एक बहुत बड़ा मसला है...मैंने भी बचपन से ही करेला कभी नहीं खाया और आज तक नहीं खा सका। बचपन में खाने-पीने की सही ट्रेनिंग की यह अहमियत है ...

शकरकंदी और सिंघाडे़ 

खैर, बात तो शकरकंदी की करने वाला था ...यह हमें बचपन से बहुत पसंद रही है...पंजाब में जिस जिले में मैं 30 बरस तक रहा -अमृतसर में- वहां हमें शकरकंदी और सिंघाड़े (water chestnut) सिर्फ ठंडी़ के मौसम में कुछ ही दिनों के लिए बाज़ार में दिखते थे ...और बस हमें इन को उन दिनों कुछ ही बार खाने का मौका मिल पाता था...लेकिन मज़ा आ जाता था उबली हुई शकरकंदी के साथ सिंघाड़े खाते वक्त जब हम लोग साथ में थोड़ा गुड़ ले लेते थे ...

एक पुरानी कहावत है ....भूख में चने बादाम....या ज़रूरत आविष्कार की जननी है ....जहां मैं काम करता हूं पास ही देखा पिछले साल कि ये बाल गोपाल इत्मीनान से शकरकंदी को भून रहे हैं... 🙏

अभी भी ये दोनों चीज़ें बहुत पसंद हैं....लेकिन अब इन चीज़ों में वह पुराने वाला स्वाद नहीं रहा, क्या करें, फिर भी खाना तो है ही ..इसलिए अब शकरकंदी को उबालते वक्त उस में गुड़ डालना पड़ता है ताकि वह खाई तो जा सके। और यहां बंबई में यह शकरकंदी लगभग सारा साल ही दिखती है ...हां, उस के रंग शायद दो तरह के होते हैं...एक तो यह है जो मैंने यहां तस्वीर लगाई है थोड़े लाल से रंग में और दूसरी होती है जो भूरे से रंग वाली ....जो अकसर हम लोग पहले खाते रहे हैं...मुझे नहीं पता इन में फ़र्क क्या है...

शकरकंदी में कीड़े 

कल मैं उबली हुई शकरकंदी से जैसे ही छिलका उतार रहा था तो मुझे कुछ सख्त सा महसूस हुआ ....मैंने थोड़ा जोर से दबाया तो अंदर से काला सड़ा हुआ हिस्सा दिखा ...और थोड़ा और ध्यान से देखा तो पता चला कि उस में तो इतने कीड़े हैं....और एक ही शकरकंदी में ही नहीं, कईं टुकडो़ं में ये कीड़े दिखे....

देखिए, शकरकंदी में कीड़े दिख रहे हैं...मैंने पहली बार देखा इन्हें शकरकंदी में 

खाने पीने की चीज़ों में कीड़े देख कर हम लोग आज भी डर जाते हैं, सहम जाते हैं....जैसे मां जब भिंडी या बेंगन काट रही होती और उसमें से कोई कीड़ा निकलता तो हमें दिखाती और समझाती कि इसलिए मैं तुम लोगों को कहती हूं कि सब्जी कच्ची मत खाया करो...हम लोगों की उन दिनों आदत सी कच्ची सब्जी जैसे भिंड़ी, फुल गोभी आदि का एक आध टुकडा़ उठा कर खाने की ....हमें उन सब्जियों में कीड़ा देख कर इतना ़डर लगता जैसे किसी आतंकवादी को देख लिया हो...

बिना काटे आम खाने वाले भी ख्याल रखें

खाने पीने की चीज़ों में मुझे कुछ भी ऐसा-वैसा नज़र आता है तो मैं ब्लॉग में ज़रूर शेयर करता हूं ताकि सभी पढ़ने वालों को इस की जानकारी हासिल हो ..ऐसे ही आज से 8-10 बरस पहले जब हमें आम को चूस कर खाने की आदत थी ...चूसने के बाद जब उस के छिलके को भी दांतों से कुरेदने लगे तो पता चला कि अंदर तो कीड़े ही कीड़े हैं ....बस उस दिन के बाद फिर कभी आम को काटे बिना खाया नहीं ....अगर कभी ऐसे ही बिना काटे खा भी लेते हैं तो वह घटना बराबर याद आ जाती है, ़डर डर खाते हैं...

लगभग दस बरस पहले मैंने जब आम का यह रूप देखा तो उसे इस ब्लॉग में दर्ज कर दिया था....और मैं अमूमन एक बार लिखने के बाद अपनी पोस्ट पढ़ता नहीं हूं, उसे एडिट करना तो दूर की बात है ....मुझे उसे फिर से पढ़ना कुछ कारण वश असहज कर देता है ....एक रवानगी में जो लिख दिया, उसे क्या बार बार देखना...जो कह दिया सो कह दिया....😎 यह रहा मेरी उस ब्लॉग-पोस्ट का लिंक, देखिएगा....कैसे उन दिनों लखनऊ मेंं आमों की ऐश किया करते थे ...

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा...

हां, तो यह पोस्ट सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि हमें अपने खाने पीने के बारे में सचेत रहना चाहिए...मुझे अभी लिखते हुए याद आ रहा था कि शकरकंदी को आज तक हम ने कभी काट कर खाया ही नहीं, छिलका उतारा और खाने लगे ...और हां, बहुत बार अंदर से कुछ सख्त महसूस होता, और कडवाहट सी भी लगती तो हम खा लेते चुपचाप ....यही सोच कर कि कईं बार बादाम भी तो होते हैं कड़वे ...लेकिन अब सोच रहा हूं कि वो सब शकरकंदी अंदर से सड़ी हुई कीडे़ वाली होती होगी ....खैर, अब चिडि़या खेत चुग चुकी है ...अब तो आगे की ही सुध ले सकते हैं....

खाने पीने की चीज़ों से जितना डर कर रहा जाए उतना ही ठीक है...अच्छे से काट कर , देख कर और उस का स्वाद भी अगर बदला दिखे तो फैंक दीजिए,मत खाईए...सेहत से बढ़ कर तो कुछ है नहीं। कड़वेपन से याद आया कि लौकी का जूस पीते वक्त भी ख्याल रखिए....हमारे एक साथी अधिकारी की पिछले बरस लौकी का कड़वा जूस पीने से जान जाती रही ....ध्यान रखिए, और इस नीचे दिए हुए लेख के लिंक को भी देखिएगा...उसमें बहुत उपयोगी जानकारी है इन कड़वी सब्जियों के बारे में ...अपना ख्याल रखिए...बाती छोटी छोटी हैं, लेकिन कईं बार बहुत महंगी साबत होती हैं....

लौकी का रस और वह भी कड़वा  (इस लेख को भी ज़रूर देखिए, कभी फुर्सत में) 

PS... ये जो आज कल हर मौसम में हर सब्जी और फल बाज़ार में दिखते हैं न, यह भी लफड़े की बात ही है ...हम लोग देखा करते थे गर्मी सर्दी की सब्जियां और फल अलग होती थीं....वे उसी मौसम में उगती थी, दिखती थीं और बिकती थीं. अब किसी भी मौसम में कुछ भी खरीद लो...यह क़ुदरत के साथ पंगे लेने वाली बात लगती है मुझे अकसर ...बिन मौसम के सब्जी फल उगाने के लिए बहुत से कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है एक बात, और उन को कोल्ड-स्टोरेज़ आदि मेंं रखने के लिए भी बहुत से प्रिज़र्वेटिव इस्तेमाल होते हैं....सब कैमीकल लोचा है, और क्या....इसलिए ताज़ा खाएं, सुथरा खाएं, मौसम के मुताबिक ही सब्जियों एवं फलो का सेवन करें। मुफ्त की एक और नसीहत....आदत से मजबूर, क्या करें।

छोटी सी सीख यही है शकरकंदी भी 😎खाइए ज़रूर, लेकिन काट कर ....अच्छे से देख कर, मैं भी आज के बाद कभी इसे काटे बिना नहीं खाऊंगा...

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

डालडे पर पलने वाली पीढ़ी के भी अपने मज़े थे...

मुझे बार बार पूछा जाता है कि तुम्हारी किताब कब आ रही है...क्यों इतनी देर कर रहे हो ...मैं कैसे भी इस तरह के सवालों को टाल जाता हूं कि बस, आलस की बीमारी है ...जी हां, टालने के लिए कह तो देता हूं और फिर जब अपने आप से कहता हूं कि असल बात यह तो नहीं है...दरअसल मैं अपनी पुरानी यादों की गठरीयों को संभालने में ही इतना मसरूफ़ रहता हूं कि यह किताब विताब लिखने के चक्कर में कौन पड़े ....जब कि मैं बड़ी हलीमी से यह लिख रहा हूं कि कोई किताब लिखना भी अब मुश्किल नहीं लगता...एक हफ़्ते भर का काम है, छुट्टी लेकर इत्मीनान से बैठ जाऊं तो लिख लूं एक किताब भी, उतार दूं लोगों के उलाहने भी ... ..लेकिन पिछले बीस बरसों में ऐसा मौका मिला ही नहीं, पता नहीं क्यूं.

मार्च 1963 के फिल्मफेयर में दिखा यह डालडे का डिब्बा जिसने यह पोस्ट लिखने के लिए उकसाया मुझे - स्लोगन देखिए ...माएं जो बच्चों की केयर करती हैं, वे डालडा इस्तेमाल करती हैं .....कुछ सुना सुना नहीं लग रहा ...जैसे वे हाकिंग्ज़ कुकर वाले कहते थे ....जो पत्नी से करते प्यार, वे हॉकिंग से कैसे करें इंकार .... हा हा हा हा 😎

खैर, आज डालडे का ख्याल कहां से आ गया है...लेकिन ख्याल तो उस का आता है जिसे हम कहीं भूल गए हों....जब डालडा बचपन ही से अपनी यादों में बसा हुआ है तो उसे कैसे भूल सकते हैं...लेकिन उस के बारे में लिखने का ख्याल इस लिए आया कि दो दिन पहले मैं 60 बरस पुरानी फिल्मफेयर के पन्ने (मार्च 1963) उलट-पलट रहा था....इसे खरीदा सा कुछ महीने पहले ...तो अचानक मेरी नज़र डालडे के इस इश्तिहार पर टिकी की टिकी रह गईं।  लिखने का मेरा मक़सद एक यह भी होता है कि इसी बहाने आज से 50-60 पुराने दौर की यादें एक पैकेज की तरह इक्ट्ठा हो जाती हैं ..एक ब्लॉग पोस्ट की शक्ल के रूप में ...और कोई पढ़े न पढ़े, ख़ुद की डॉयरी पढ़ने से सुख मिलता ही है...😎

डालडे का नाम सुनते ही, इस का पुराना इश्तिहार किसी मेगज़ीन में देखते ही हमें याद आती है मां के चूल्हे-चौके की ...आग धधक रही अंगीठी की, उस पर रखे तवे पर डालडे घी में तैर रहे नमक-अजवायन के लज़ीज़ परांठों की ...जो बिना किसी हिसाब किताब के सिंकते रहते थे....जब तक जब का पेट न भर जाए और जब तक स्कूल-कॉेलेज के लिए भी वे बन कर डिब्बे में बंद न हो जाते ..। हमें याद है कि यही हमारा नाश्ता होता था ..डालडे में तैयार हुए दो परांठे- कभी आलू के, गोभी, मूली के भी, लेकिन डालडे में गडुच्च, साथ होता था आम का अचार और एक दम कड़क और खूब शक्कर वाली चाय....सच में पेट भरने के साथ साथ, नज़रें भी संतुष्ट हो जाती थीं और आत्मा को भी परम सुख की अनुभूति होती थी ...कभी कभी बेसन का पूड़ा (जिसे शायद कहीं कहीं चिल्ला भी कहते हैं), बेसन वाली रोटी (मिस्सी रोटी), दाल वाली रोटी, परांठे के साथ आलू-प्याज़ के पकौड़े भी अकसर होते थे ....और महीने में कभी एक आध बार ब्रेड भी खा लेते थे ...अच्छे से सिकी हुई मलाई और चीनी लगा कर (हमें तो तब यही भी नहीं पता था उसे मलाई सेंडविच कहते हैं😀)....

कुछ बातें सारी पोस्ट लिखने के बाद याद आती हैं जैसे मुझे यह याद आया कि मुझे चीनी के परांठे भी बहुत भाते थे...डालडे में तले ही परांठों की तो बात ही क्या करें....क्या गज़ब महक आती थी। अच्छा, एक मज़ेदार बात और ...मुझे याद है जब मैं छोटा बच्चा था (बड़ी शरारत करता था..), जब अपनी नानी के यहां गया होता तो देर रात में उठ के बैठ जाता ..रोने लगता कि मुझे चीनी के परांठे खाने हैं...नानी तो ठहरी नानी, बेचारी उसी वक्त स्टोव जला कर लग जाती काम और मुझे भी 1-2 चीनी के परांठे खा कर आराम की नींद आती। 

हां, कहां मैं भी नाश्ते का पिटारा खोल के बैठ गया....अच्छी भली डालडे और मां के चूल्हे में सिक रहे परांठों की हो रही थीं...एक बात मुझे और बहुत याद आती है ...हमारा एक दोस्त था, अब तो उस का नाम भी नहीं याद ...लेकिन छु्टी वाली दिन मैं अकसर सुबह-सुबह उस के घर चला जाता क्योंकि वहां से हमें ग्रांउड में गिल्ली-डंडा, कंचे, पिट्ठू-सेका ...कुछ भी खेलने जाना होता था ...जब मैं उस के घर में पहुंचता सवेरे तो मैं देखता कि उस के घर में भी डालडे के परांठों बनाने का बदसतूर जारी है ...लेकिन हमारे घर के मुकाबले में बड़े स्तर पर...क्योंकि उन के घर में आठ-दस लोग थे....मंज़र याद करता हूं तो मज़ा आ जाता है ...उन के आंगन में आठ-दस चारपाईयां बिछी हुई हैं....उस दोस्त की झाई (मां) बार बार बच्चों को आवाज़ें लगा रही है कि उठो, नाश्ता कर लो..अंगीठी पर  तले जा रहे गर्मागर्म परांठों से जो धुआं निकलता है ना उस खुशनुमा जानलेवा महक को ब्यां कर पाना मेरे बस में नहीं है, यह तो वही समझ सकता है जो उस दौर का साक्षी रहा है....हां, उस दोस्त के घर में जा कर मुझे यह बड़ा अजीब भी लगता और अच्छा भी लगता कि उस दोस्त के भाई-बहन आंखें मलते हुए बिस्तर से उठ रहे हैं और सीधा मां के पास आकर अपनी थाली में परांठे रखते हैं, साथ में चाय का गिलास उठाते हैं और चारपाई पर जा कर इत्मीनान से नाश्ता करने लगते हैं....मैं वहां बैठा बैठा सोच में पड़ जाता कि हमारे घर में तो नियम है कि बिना मुंह हाथ धोए, बिना दांत साफ किए हुए क्यों हम लोग परांठों तक पहुंच नहीं पाते ....

खैर, इसी तरह से डालडे पर हमारी पूरी पीढ़ी पल रही थी ...हम से पिछली पीढ़ी के देशी घी के किस्से सुनते सुनते कि इस डालडे का तो उन्होंने नाम तक न सुना था, सब कुछ ख़ालिस देशी घी में ही बनता था हमारे मां-पिता जी के यहां तो ...देशी घी वेरका तो हमारे यहां भी आता था लेकिन इस्तेमाल कम ही किया जाता था...दाल की कटोरी में डालने के लिए, कभी देशी घी के परांठे बन जाते थे, मक्की की रोटी पर रखे गुड़ को नरम करने के लिए देशी घी लगता था और हलवा बनाने के लिए भी कईं बार वही इस्तेमाल होता था ...कहने का मतलब मेरा यही है कि देशी घी की घर में डिमांड ज़्यादा थी और सप्लाई बहुत कम ...इसलिए बरसों बाद जब मैंने रोटी फिल्म में मुमताज का अपने ढाबे पर वह देशी घी का डॉयलाग सुना तो मुझे बहुत हंसी आई....


डालडा घी को याद करता हूं तो उस डालडे घी से बड़ी मस्ती से चम्मच भर भर के डालडे को निकालती और परांठों पर चुपड़ती मां याद आ जाती है ...ऐसे लगता है जैसे अभी फिर से कहीं से प्रकट हो जाएगी...लेकिन जाने वाले कहां आते हैं, उन की तो यही यादें ही हैं जिन के ज़रिए हम उन खुशनुमा लम्हों को फिर से जी लेते हैं...

डालडे के डिब्बे से जुड़ी कुछ यादें ये हैं कि उस के नए दो किलो या चार किलो के डिब्बे को खोलना भी इतना आसान काम न होता था...उस के ढक्कन के नीचे टीन की सील लगी होती थी। हमारे घर में तो उसे खोलने के लिए एक ओप्नर था....लेकिन फिर भी कभी जिसने भी उस ओप्नर का इस्तेमाल किए बिना उसे खोलना चाहा उसने हाथों पर घाव ही किया ...अच्छा, अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि दो और चार किलो के डालडे के डिब्बे हुआ करते थे ...मुझे अब याद नहीं कि क्या एक किलो का भी होता था कि नहीं...शायद इसलिए नहीं याद कि हमने उसे अपने यहां कभी देखा ही नहीं, क्योंकि उन दिनों घरों में जब डालडे की खपत ही इतनी हो रही थी तो क्यों आएगा एक किलो वाला डिब्बा घरों में....

नवीं कक्षा की बात है...हमारे साईंस के अध्यापक श्री सतीश वर्मा जी हमें विज्ञान बड़ी मस्ती से पढ़ाते थे ...उन दिनों मेरे 40 में से 38 अंक आते थे विज्ञान में और कक्षा में मेरी उत्तर-पुस्तिका को घुमाया जाता था ...नवीं कक्षा में जब उन्होंने हमें वनस्पति घी को तैयार करने की विधि समझाई ...Hydogenation of Vegetable Oils ..तो डालडा खाने का और भी मज़ा आने लगा ...वह और भी अपना ही लगने लगा ....ऐसे लगने लगा कि वाह, अब तो हम इसे तैयार करने की विधि भी जानते हैं ...हां, वह सब ट्राई करने के चक्कर में नहीं पड़े, यही गनीमत है लेकिन उस प्रक्रिया को जानना भी कम रोमांचक न था...

डालडे का टीन वाला डिब्बा जो अभी आप ने ऊपर इश्तिहार में देखा वह जब खाली हो जाता तो उस का क्या अंजाम होता था ...वह अकसर तो कबाड़ी को बेच दिया जाता....जैसा कि अभी मैं आप को उस दौर के गीत के ज़रिए दिखाऊंगा जिस में हास्य कलाकार महमूद ने गले में डालडे का खाली डिब्बा डाला हुआ है ... कईं बार उस खाली डिब्बे में चावल-चीनी जैसी खाने पीने के पदार्थ स्टोर किए जाते थे। बहुत बार तो मैं ही अपने कंचे को संभालने के लिए एक दो डिब्बे हथिया लेता था ...एक में पुराने कंचे और दूसरे में नए कंचे....कंचों का मैं किसी ज़माने में चेंपियन था ...क्या निशाना था....शाम को जब कंचों के खेल खत्म हो जाते तो कंचों को उस डालडे के डिब्बे मे ंडाल कर धोना और फिर उन को गिनना, इसी तरह के मेरे शुगल थे ...

एक बात और डालडा डालडा किए जा रहा हूं ....उसी की रट लगा रखी है मैंने ....मैं रथ को कैसे भूल गया ...एक रथ वनस्पति घी भी होता था ...शायद कंपनी ही अलग थी ..कुछ कुछ याद आ रहा है कि घर में कभी डालडे की तारीफ़ करने लग जाते, कभी रथ की ...अच्छा, हम 1975 के आसपास (जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है) ये डालडा और रथ प्लास्टिक के डिब्बों में आने लगे...ये प्लास्टिक के डालडा-रथ के डिब्बे एक किलो के साइज़ के ही आते थे ....मुझे अपने कंचे रखने के लिए वे एक किलो वाले खाली डिब्बे ज़्यादा सुविधाजनक लगते थे ..

अभी हम लोग कालेज जाने लगे थे शायद कि पोस्टमेन घी शुरू हो गया ....यह एक बड़े चोकोर से टीन के आकर्षक डिब्बे में मिलता था ...यह लिक्विड तेल होता था ...मूंगफली का तेल ... इस तेल की घरों में बड़ी इज़्ज़त थी....लेकिन इसे भी कम ही इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि यह महंगा था ...शायद दाल-सब्जी के लिए ही ...और हमारे प्रिय परांठों पर अभी भी रथ और डालडा ही चुपड़ा जा रहा था ...😃

यादें भी बारात की तरह होती हैं, हर याद इस बारात में शामिल होना चाहती हैं लेकिन कोई लिखे भी तो कितना लिखे ...कितना डालडा और रथ खाया, बेहिसाब ...कितना जम गया होगा कितना घुल के बह गया होगा...ये तो ईश्वर ही जानता है लेकिन जो मुझे लगता है कि जितना परिश्रम उस दौर में लोग करते थे अधिकतर तो इस्तेमाल ही हो जाता होगा, यह मेरा कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है....बस मुझे ऐसा लगता है ...क्या है न, जैसे जैसे देश-समाज में सम्पन्नता आई घी और तेल का भी एक बड़ा बाज़ार बन गया ....यह खाओ, यह मत खाओ......कोई विदेशी तेल के लिए कह रहा है ...कोई देशी ...कोई कुछ कोई कुछ ...कोई  किसी तेल की तारीफ़ में लगा हुआ है तो कोई किसी मक्खन, घी या किसी दूसरे तेल की ....डाक्टरी पढ़ कर भी हम जैसे लोग भी अगर सच में कंफ्यूज़ ही हैं तो फिर जनसाधारण की तो बात ही क्या करें, उन्हें  ताकतवर मार्कीट शक्तियां जो सबक पढ़ाना चाहती हैं, वे देर सवेर उन को अपनी चपेट में ले ही लेती हैं ..कोई भी हथकंडा अपना लेती हैं, डाक्टरों से कहलवा कर, शॉपिंग प्लॉज़ा में एक से साथ एक मुफ्त दे कर ....या और भी बहुत कुछ कर करा के ...सीधे सादे लोगों को झांसे में लेना कोई मुश्किल काम नहीं है ....इश्तिहार बाज़ी का ज़माना है ...सब कुछ मुमकिन है ...ऊपर डालडे के विज्ञापन में ही आपने देखा क्या क्या फ़ायदे गिनवा गए हैं........

खैर, हम लोगों के पास तो कोई विकल्प ही न था, अब परांठे खाने हैं, देशी घी के कनस्तर पहुंच से बाहर हैं तो डालडे-रथ के ही तो खाने पड़ेंगे.....सरसों के तेल के परांठे तो नही न बन सकते....लेकिन यादें तो हैं न हमारी उस से भी जुड़ी हुई ....हमारी मां को कईं चीज़ें सरसों के तेल में भी बनाना अच्छा लगता था ...और उन का ज़ायका भी बहुत अच्छा होता था ...वैसे हमने इतनी उम्र होते होते देखा है कि बहुत से घरों में सरसों का तेल ही इस्तेमाल होता रहा है ...हमारे बड़े-बुज़ुर्ग भी इस की हिमायत करते थे ...क्या था न पहले शुद्धता का कोई इतना मुद्दा भी तो न था...लेकिन सीधे सादे थे अमूमन ...कुछ चीज़ें मुझे याद है हम लोग सरसों के तेल में ही बनी पसंद करते थे ...जैसे कि मेथी आलू...सरसों के तेल में छोंके  हुए आंवले, भिंडी इत्यादि ....

ऊब गया हूं इस डालडे के बारे में लिखते लिखते ...चलिए, विषय को थोड़ा बदलते हैं....मैं जब इस 60 साल पुराने फिल्मफेयर के पन्ने उलट-पलट रहा था तो मुझे बहुत से इश्तिहार और भी दिखे जिन को देख कर भी कुछ कुछ याद तो आता रहा ...चलिए, उनमें से कुछ को यहां पेस्ट करता हूं ...आप भी गुज़रे दौर का मज़ा लीजिए...
तर

मुझे आज पता चला कि वाटरबरी के नाम से ठंडी लगने की भी कोई दवा आती थी....मुझे तो इस के बारे में तब पता चला जब नवीं दसवीं क्लास में जब एक बार डा. साहब हमारी सेहत की जांच करने आए...उन को सब ठीक ही लगा लेकिन मैंने बाद में उन से जा कर कहा कि मुझे कमज़ोरी महसूस होती है ...उन्होंने एक पर्ची पर वाटरबरी टॉनिक लिख दिया....पिता जी बाज़ार से लाए और मैं खुद को पहलवान समझने लग गया 😇

आज हम इस तरह के विज्ञापन का तसव्वुर भी नहीं कर सकते ...पढ़िए ज़रा इसे पूरा ...इस तस्वीर पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ पाएंगे ...

फिल्मफेयर के आखिरी पन्ने पर उस दौर के सुपरहिट हीरो बिश्वाजीत की फोटो 

अच्छा तो सिने स्टार्ज़ के बारे में जानने के लिए भी किताबें छपती थीं ... नीचे देखिए... फिल्म स्टारों के पोस्टर बेचने की बात लिखी है ...1963 में भी ढाई रुपल्ली में ...😁

मुझे यह समझ नहीं आया कि यह 16 एमएम की फिल्म का क्या फंड़ा था आज से 60 साल पहले ...अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई पाठक इस पर रोशनी डाल सके तो अच्छा होगा...

फिनिक्स मॉल है अब मुंबई में ....वहां जाते हैं ...लेकिन 60 बरस पहले वहां पर फिनिक्स मिल हुआ करती थी, जहां फिनिक्स फैबरिक्स नाम का कपड़ा तैयार होता था ...यह मेरा अनुमान है ...नाम से मैं ऐसा समझ रहा हूं..

वाह .... फिल्मफेयर के पन्ने पर व्ही.शांताराम जैसे महानायक के दीदार भी हो गए....उस ग्रेट फिल्म डा कोटनीस के एक सीन के के ज़रिए ...

क्या कहें अब इस विज्ञापन के बारे में ....यह तो बीते ज़माने की एक बात हो के रह गई है ...

महान अभिनेत्री  ललिता पवार जो अपने अभिनय से अपनी भूमिका में जान फूंक देती थी ....क्या गजब का फ़न था इन के पास, ये खलनायक शाकाल, गब्बर वब्बर तो बाद में आए....इन की फिल्म देख कर सच में बच्चे तो डर जाते थे ..ये वो लोग थे जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी हिंदी सिनेमा को समर्पित कर दी....इन की पुण्य याद को सादर नमन...अभी जो मैं नीचे नील कमल फिल्म का गीत एम्बेड करूंगा उस में भी ललिता पवार ने कमाल का अभिनय किया है ...

लो... कर लो बात ....ज्यादा मीठा खाने की सलाह दे रहा यह विज्ञापन 

छुट्टी सब को अच्छी लगती है, इन सिने-तारिकाओं की एक दिन शूटिंग कैंसल हो गई तो ये पिकनिक पर निकल गईं ....और फिल्मफेयर ने उन लम्हों को भी कवर कर लिया ....(पढ़िएगा इसे फोटो पर क्लिक कर के ....आसानी से पढ़ पाएंगे) 


इस टीनोपाल की डिब्बी ने भी सफेदपोशों की नाक में दम किए रखा ....खास कर के गृहिणियों को तो उलझाए रखा इस तरह के विज्ञापनों ने ....उस की शर्ट या साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाली प्रतिस्पर्धा ... हा हा हा हा ....

लीजिए, डालडे की इतनी बातें सुनने के बाद नील कमल फिल्म का यह गीत भी सुनिए...खाली डिब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार, खाली से मत नफ़रत करना खाली सब संसार.....यह रहा इस का लिंक ...वैसे तो नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेड डिसएबल हो जाता है ....और ब्लॉग लिखने वाले को पता ही नहीं चलता...इसी फिल्म का वह सुपर-डुपर गीत था ..बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले....अभी मेरी बहन की शादी नहीं हुई थी जब यह फिल्म आई थी....मेरे पिता जी अकसर यह गीत सुनते सुनते रो पड़ते थे ...भावुक थे ... लेकिन आप इन चक्करों में मत पडिए, अगर इतनी मशक्कत कर के यह डालडे की पोथी पढ़ कर आप यहां तक पहुंच ही गए हैं तो महमूद साहब की बेहतरीन अदाकारी के साथ फिल्माया गया यह गीत ज़रूर सुनिए...गले में डालडे का डिब्बा लटका रखा है उन्होंने ...ग्रेट कॉमेडियन ऑफ ऑल टाइम्स ....🙏

जल्दी ही फिर किसी किस्से कहानी के साथ मिलते हैं....मुझे खुद पता नहीं इस का टॉपिक क्या होगा, अगर आप के ख्याल में ऐसा कोई विषय है जिस पर लिखा जाना चाहिए...तो नीचे कमेंट में लिखिए...कोशिश करेंगे....अच्छा, अपना ख़्याल रखिए...


PS... इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर रहा था तो मैंने पूछा कि इन डालडायुक्त बातों में आप भी अपनी यादें जोडिए...आप तो मेरे से 10 बरस बड़ी हैं....उन्होंने जब एक बात सुनाई तो मुझे भी कुछ कुछ याद आ गया ....उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हें भी याद होगा कि हम लोग एक बार किराने की दुकान पर थे तो एक बंदे ने चार किलो का डिब्बा उठाया हुआ था ...टीन वाला ..जिस के ऊपर एक हुक सा लगा रहता था ...मुझे भी याद आया कि अचानक वह हुक टूट गया और वह भारी भरकम डिब्बा उस के पांव के ऊपर गया, उस के पैर का अंगूठा भयंकर रूप से कट गया था ....कुछ यादें हमेशा के लिए दिल में कैद हो जाती हैं जैसे...

बहन ने यह भी बताया कि बीजी (हमारी मां) के हाथ के परांठे तो सारे खानदान में मशहूर थे ...जब भी हम लोग ननिहाल जाते तो सभी लोग कहते कि परांंठे तो संतोष ही बनाएगी....और हमारी मौसी तो खास कर के बीजी के परांठों की दीवानी थी...

ऐसे ही है, जब कोई बात पुरानी छिडती है तो सब को अपने दिन याद आते हैं ..और इसी से लेख में ज़िंदगी आती है ...क्या ख्याल है आपका....!

शनिवार, 22 अप्रैल 2023

आज फिर दे दिया न धोखा कैमरे ने ...


अपने ऊपर ही गुस्सा आता है जब कभी कैमरा धोखा दे देता है ...अकसर हम लोगों को कोई लम्हा ही कैद करना होता है ...अगर ऐन उसी वक्त कैमरा ही नाटक कर जाए तो खुद पर गुस्सा तो आएगा ही ...क्यों नहीं मैंने मोबाईल की यादाश्त का ख्याल रखा..

आज ईद है ...बंबई के बाज़ारों में, स्टेशनों पर खूब रौनकें लगी हुई हैं...लोग नए नए कपड़े पहने बाहर निकले हुए हैं....मुझे अकसर ईद के दिन लखनऊ की होली याद आ जाती है जब लोग वहां पर नए कपड़े होली खेलने के लिए ही सिलवाते हैं...नए नए कपड़े पहन पर होली खेलते हैं....

आज जब मैंने बहुत से लोगों को नए कपड़े पहने देखा तो अच्छा लगा...लेकिन अचानक नज़र पड़ गई दो बंदों पर जिन्होंने पैंट-शर्ट एक ही कपड़े से तैयार हुई पहनी थी...मुझे नहीं याद आज यह नज़ारा मैंने कितने बरसों बाद देखा होगा...मैं थोड़ा सा पीछे हटा...और मोबाईल का कैमरा ऑन करने लगा तो स्क्रीन पर आ गया कि स्टोरेज फुल है, मैनेज करो...क्या मैनेज करो यार, बीच रास्ते में इतनी गर्मी के मौसम में क्या डिलीट करो, क्या रखे रहो...और यह सब भी बीच रास्ते में खड़े होकर ...अपने ऊपर ही खीज गया....वे दोनों तो फ़ौरन आंखों से ओझल हो गए...

मेरे चेहरे पर एक मुस्कान ज़रूर बिखेर गए लेकिन ....

अपने ऊपर आये गुस्से का वक्त जब निकल गया तो यह जो मुस्कान मेेरे चेहरे पर आ गई उस का कारण था....मुझे बीते दौर की कुछ बातें याद आ गईं....बचपन में देखा करते थे कभी कभी मां-बाप थोड़ी बचत करने के लिए दो बेटों को एक ही तरह की निक्कर और शर्ट सिलवा देते थे...एक जैसा कपड़ा....उन्हें देख कर बड़ा मज़ा आता था, शरारतें सूझने लगती थीं, लोग हंसने लगते थे ......एक बात साफ़ कर दूं कि पहले हम लोगों की हंसी में वह मक्कारी नहीं थी जो आज अकसर देखने को मिलती है ...हम अगर ऐसे दो छोटे बच्चों पर हंसते भी थे या कोई फि़करा कस देते थे तो उसमें कुछ भी नहीं होता था...हल्के फुल्के मज़ाक के सिवा.....लेकिन अब हम लोगों की खिल्ली उड़ाने लगे हैं....हमें लगता है कि बस हम ही हम हैं, और कुछ नहीं....उस दिन मैं कालोनी में किसी महिला को किसी अन्य कामकाजी महिला (गृह-सेविका) से ऊंची आवाज़ में बातें करता देख रहा था तो मैंने सुना वह उसे कह रही थी ....तुम्हें पता नहीं तुम बात किस से कर रही हो.....बड़ा अजीब लगा उस दिन। खैर, हम मज़ाक की बात कर रहे थे ....मज़ाक उसे करने का हक है जो दूसरों का मज़ाक सह भी ले ..हमारे ज़माने में यह जज़्बा था ही ...हम भी मज़ाक की बातों को हंसते खेलते हंसी हंसी में उडा़ दिया करते थे ...शायद इसलिए लोगों के चेहरे भी खिले रहते थे ...

अच्छा, एक बात और ....कईं बार ज़रुरी नहीं कि किसी घर के दो बेटे ही दिखते थे एक तरह के कपड़े के ....कईं बार तो भाई ने जिस कपड़े की शर्ट पहनी होती थी, उस की बहन ने उसी कपड़े का फ्रॉक पहना होता था ...कईं बार बड़े लड़के भी एक ही तरह के कपड़े की शर्ट में दिख जाते थे ...लेकिन आज तो 45-50 बरस के दो बंदों को एक ही कपड़े की शर्ट और पतलून में देख कर मज़ा आ गया....कैमरे में कैद करना चाह रहा था क्योंकि ऐसा संयोग बीसियों बरसों में एक बार होता है इस तरह का मंज़र दिखता है ...खैर, कोई बात नहीं, फोटो न सही लेकिन इस पोस्ट के ज़रिए तो मैंने उस लम्हे को अपनी यादों में संजोने की कोशिश कर ली....

मैं फुटपाथ पर चलता चलता यह भी सोच रहा था जब छोेटे छोटे बच्चों को नए नए कपड़ों में आते जाते देख रहा था कि हमारे महान लेखकों ने भी क्या क्या लिख दिया है हमारे लिए ...उस महान लेखक मुंशी प्रेम चंद की कहानी ईदगाह याद आ गई ....वाह, क्या कहानी थी, एक बार सुन तो कभी दिल से न निकले ....इकबाल था शायद उस छोटे का नाम, अपनी बुज़ुर्ग दादी के साथ रहता था...दादी ने ईद के दिन उसे कुछ पैसे दिए कि दोस्तों के साथ ईद के मेले पर जा रहे हो, कुछ खा पी लेना, कुछ खरीद लेना....उस बालक ने अपने ऊपर बड़ा कंट्रोल रखा ...कुछ न खाया, कुछ न पिया, न ही कुछ खरीदा....एक चिमटा खरीद लाया अपनी दादी के लिए ....और मेले से लौट कर उसे कहता है कि दादी, यह इसलिए लाया हूं क्योंकि चूल्हे पर रोटी सेंकते हुए तुम्हारे हाथ अकसर जल जाते हैं....दादी ने उसे गले से लगा लिया.....

एक बात और यह भी मुझे रास्ते में याद आ रही थी कि 12-15 बरस पहले जब मैं ऑन-लाइन कंटैंट तैयार करने के बारे में एक वर्कशाप में भाग ले रहा था तो एक साथी ने एक्सपर्ट से पूछा कि कैमरा कौन सा अच्छा है, उस के बारे में बता दीजिए....उसने कहा कि जो भी जिस वक्त आपने फोटो खींंचनी है, उस वक्त आप के पास जो भी कैमरा है, वह सब से बढ़िया कैमरा होता है। 

यह बात समझते समझते हमे ंबरस लग गए...हम लोग लाखों रूपये के कैमरे खरीदते रहे ....हज़ारों रूपयों के लैंस खरीदते रहे ....पता नहीं कहां धूल चाट रहे होगे .......लेकिन हमेशा साथ निभाया हमारी जेब में पड़े मोबाईल के कैमरे ने .......चूंकि हम चलते फिरते फोटोग्राफर हैॆ, हमें स्टिल फोटोग्राफी तो करनी नही, हमें तो कुछ लम्हों को कैद करना होता है जो अपने आप में एक दास्तां ब्यां कर रहे होते हैं....बस एक दो पलों का हेर फेर होता है, कुछ प्लॉनिंग का वक्त नहीं मिलता....कुछ सोचने विचारने का वक्त नहीं होता, ...टार्गेट हमारे सामने होता है और हमें केवल एक बटन दबाना होता है जल्दी से भी जल्दी ...फ़ौरन ....बहुत बार ऐसा होता है कि जेब से फोन निकालते निकालते वह शॉट गुम हो जाता है, मलाल तो होता ही है, क्या करें, इंसान ही तो हैं ....अच्छा, कईं बार ऐसा भी होता है कि मोबाइल तो हाथ में था, लेकिन उसे ऑन करने के चक्कर में वह तस्वीर न ली पाए ....कईं बार कैमरा आन भी हो जाता है और उसे साईलेंट मोड करते करते बहुत देर हो जाती है .......और बहुत बार तो यही होता है जो आज हुआ....स्टोरेज नहीं है...इसलिए, मैं हमेशा कहता हूं कि मोबाइल हाथ में भी हो और कैमरा भी ऑन हो, और फुर्ती से जिसे आप कैमरे में कैद करना चाहते हैं, कर लीजिए...चुपचाप...बिना किसी तरह का भी शोर किए हुए...

लिखते लिखते बातें खुद-ब-खुद सामने आने लगती हैं....याद आ रहा है कि शायद बचपन में कभी जुड़वा बच्चे दिखते थे तो उन को भी मां-बाप एक जैसे कपड़े पहनाया करते थे...और कईं बार बाप-बेटे या मां-बेटी के कपड़े भी एक जैसे होते थे...अभी मुझे उत्सुकता हुई कि देखूं तो सही कि नेट पर ही कोई ऐसी तस्वीर दिख जाए ...मैंने 'kids with same clothes' लिख कर गूगल सर्च किया तो बहुत सी तस्वीरें दिख गईँ लेकिन जो मैं आप को दिखाता अगर आज दोपहर में मेरा कैमरा ऐन वक्त पर मुझे धोखा न दे जाता ....वह तो अलग ही तस्वीर होती....हां, यह कारण भी हो सकता है कि जो गूगल पर मुझे सर्च-रिज़ल्ट मिले वे सब खाते-पीते अमीर लोगों के थे लेकिन मैंने इस पोस्ट में उन लोगों के बारे में ही लिखा जिन को मैंने देखा कि कुछ बचत करने के लिए दो बेटों के कपड़े एक साथ एक ही जैसे कपड़े के सिलवा दिए ...इत्यादि इत्यादि ....अगर बाप ने शर्ट सिलवाई और कपड़ा बच गया तो छोटे बच्चे की कमीज़ उस में से ही निकलवा ली....जो रईस लोग इस तरह के शौक पालते हैं शौकिया, वह अलग बात है ...बि्लकुल वैसे ही जिस तरह की कटी-फटी जीनें हम लोग रईस लोगों को पहने देखते हैं तो लोग समझते हैं कि यही रिवाज़ है, यही ट्रेंड है.. ..लेकिन किसी भिखारी के असली फटे हुए कपड़ों से हम नाम-मुंह सिकोड़ कर अपना रास्ता लेते हैं...

खैर, ये हुई कैमरे की बातें, यादें....लम्हों को कैद कर लेने की फ़िराक में रहना, उन का रिकार्ड रख लेना ...लेकिन ऐसा लगता है कि दुनिया में बहुत से अहम् फ़ैसले तो ऐसे ही चलते चलते हो जाते हैं....किसी रिकार्ड में उन का ज़िक्र तक नहीं होता (ऑफ दा रिकार्ड)....किसने पेड़ कटवाने का हुक्म दिया, किसने खिड़कियों को हमेशा के लिए दीवार बना कर बंद कर देने का फ़रमान जारी किया, कौन किस के हिस्से की धूप छांव हरियाली हड़प गया, किसी को अंदाज़ा हो ही नहीं सकता...बस, चलते चलते फ़ैसले हुए और तुरंत लागू हो गए....जिन को धूप-छांव-हरियाली, रोशनी से फ़र्क पड़ने वाला है, वे किस के आगे दुखडा रोएं, हर कोई हड़बड़ी में है ..पता नहीं कहां जाना है, कहां पहुंचना है ....क्या हो जाएगा अगर कहीं पहुंच भी गए....क्या न पहुंचेंगे तो क्या रह जाएगा.......कुछ पता नहीं......लेकिन हम दौड़े जा रहे हैं ...आखिर इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है...

दादर स्टेशन के लोकल प्लेटफार्म से बाहर का ऐसा मंज़र दिख जाए, बहुत कम ही ऐसा होता है ....दोपहर के दो बजे थे और गर्मी बहुत ज़्यादा होने की वजह से दादर की मार्कीट में लोग ज़्यादा न रहे होंगे या ईद मनाने के लिए उन्होंने कहीं और का रुख किया होगा....इस जगह पर हवा के तूफ़ानी झोंके आ रहे थे ...😎

कुछ वक्त के बाद जब मैं दादर पहुंचा तो प्लेटफार्म नंबर एक पर हवा का ऐसा झोंका आया कि मज़ा आ गया....समंदर एक डेढ़ किलोमीटर ही होगा वहां से ....मैंने फोन हाथ में लिया, वाटसएप से बहुत कुछ उड़ाया, मोबाईल को जगह मिल गई कुछ और फोटो ठूंसने के लिए .....और मैंने दादर स्टेशन पर खड़े खड़े बाहर की तस्वीर खींची.....इस की वजह से मुझे एक गाड़ी भी मिस करनी पड़ी , लेकिन इस की परवाह कौन करे जब फोटो लेने का भूत सवार हुआ हो ... हा हा हा हा ...

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

निकल बेवजह ....

हम लोगों ने कहीं भी जाना होता है तो हम लोग कितनी प्लॉनिंग करते हैं...सब कुछ तय हो जाता है तभी चलते हैं, है कि नहीं...मुझे आज याद आ रहा था कि बचपन में स्कूल आते जाते वक्त भी मुझे एक ही रास्ते से जाना पसंद न था...तब तो कुछ पता नहीं था कि यह नये रास्तों को नापने की इतनी खुजली क्यों है, लेकिन अब इस उम्र में भी जब यह शौक बरकरार है तो सोच में पड़ जाता हूं कि ऐसा इसलिए होता होगा कि मुझे नए रास्तों से गुज़रना भाता है, नये लोग नये मंज़र देखने अच्छे लगते हैं इसीलिए होगा यह शौक भी ....

उस दिन भी हमारे एक दोस्त जब भायखला से निकलने लगे तो मेरा भी मन हुआ कि चलिए, आज नया रास्ता ही देख लेते हैं...उन की गाड़ी में बैठ गया, यही सोचा कि रास्ते में कहीं उतर कर ..वापिस दादर की तरफ़ आ जाऊंगा...उन्हें तो रास्ते का पता था कि चेम्बूर से पहले तो कोई ऐसी जगह नहीं है जहां किसी को ऐसे छोड़ा जा सकता है। 



इस्टर्न एक्सप्रैस हाईवे पर --- चेम्बूर की तरफ़ आते हुए 

खैर, हम लोग भायखला स्टेशन से होते हुए, सेंट मेरी स्कूल, मझगांव से होते हुए मझगांव डॉक्स की तरफ से निकल कर ईस्ट्रन एक्सप्रे हाइवे पर चढ़ गए। उन्होंने कहा कि अभी पंद्रह बीस मिनट में आ जाएगा चेम्बूर ....हम लोग चेम्बूर के एक चौक पर जब पहुंच गए तो मुझे याद आ गया कि यहां से तो मानखुर्द का रास्ता निकलता है ...वहीं मैंने उतरना था...

वहां उतर कर पुलिस कांस्टेबल से पूछा कि पास में स्टेशन कौन सा है, अगर दो मिनट मैं सोच लेता तो मुझे भी याद आ जाता लेकिन इस तेज़-तर्रार ज़माने में इतना सब्र किस के पास है। उस के बताए अनुसार मैं रिक्शा लेकर गोवंडी लोकल स्टेशन पहुंच गया....उस रिक्शे में बैठे बैठे उन 10 मिनटों में आज से 30 बरस पहले के दिन याद आ गए ...जब मैं इसी इलाके में रोज़ाना शाम के वक्त पांच बजे से नौ बजे तक टीआईएसएस में क्लासें अटैंड करने आता था .... चार बजे बंबई सेंट्रल से चलता था....एक डेढ़ घंटे के बाद देवनार में टीआईएसएस पहुंचता था.... गोवंड़ी स्टेशन से आटो में आ जाता था...कभी पैदल चलने की इच्छा होती थी और वक्त होता था तो पैदल मार्च कर लेता था ...ज़्यादा दूर नहीं है गोवंडी से टीआईएसएस ...मैंने वहां एक बरस के लिए हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा किया था....बहुत कुछ सीखा था उन दिनों वहां से ....

खैर, मुझे गोवंडी स्टेशन की सीढ़ियां चढ़़ते चढ़ते यही लग रहा था कि शायद मैं इन पर 30 बरसों के बाद चढ़ रहा हूं ..लेकिन वह स्टेशन नहीं बदला....वहां से कुछ स्नेक्स का पैकेट लिया, और सीएसटी जाने वाली गाडी़ में बैठ गया। आठ दस मिनट में कुर्ला स्टेशन आ गया...

जानवरों को भी जहां अपनापन दिखता है वही अड्डा बना लेते हैं....फूलों को सजाने की तैयारी चल रही थी स्टेशन पर...मुंबई में हर जगह मुझे तो संघर्ष ही दिखता है ....अच्छा खासा संघर्ष ...मुझे यह हर जगह, हर गली-नुक्कड़ पर दिखता है यहां 

वहां से मुझे दादर जाने के लिए लोकल ट्रेन लेनी थी .. फॉस्ट ट्रेन ..जो सीधा दादर ही रुकती है ...एसी लोकल मिल गई ...लेकिन अंदर तो स्पेशल चैकिंग चल रही थी .... खूब रसीदें काटी जा रही थीं दो महिला टिकट चैकर थीं...लेकिन मेरे पास मेरी आई.डी तक नहीं थी....जब एक टीटी मेरे पास आईं तो मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा कि सर, कोई आई.डी दिखा दीजिए। इतने में मेरा ध्यान मेरे एक मरीज़ की तरफ़ गया जिसने दूर से मेरा अभिवादन किया था सीट पर बैठते ही ...मैं भी पहचान गया था...मैंने उस टीटीई को कहा कि यह जेंटलमेन मुझे जानते हैं ...(वह शायद किसी स्टेशन के स्टेशन अधीक्षक हैं)...मुझे इतना कहते जब उन्होंने सुना तो उन्होंने तुंरत टीटीई को मेरी पहचान बता दी....


सोच रहा हूं कि कभी भी कहीं भी जाने से पहले जेब में आई डी तो लेकर ही चलना चाहिए....चलिए, इसी बहाने तीस बरस पुरानी यादें कुछ कालेज की और कुछ व्यक्तिगत यादें ताज़ा हो गईं ..चेम्बूर में भी हमारा उन दिनों अकसर आना जाना होता था ....उस के लिए हम कुर्ला स्टेशन पर ही उतरते थे...वहां से कभी बस मिल जाती थी, कभी रिक्शा ले लेते थे ...

यादें भी क्या हैं, इंसान के साथ रहती हैं हमेशा ....यादों से जुड़े लोग कहां से कहां चले जाते हैं लेकिन यादें हम लोग अपने सीने से लगाए रहते हैं ....मैं अकसर कहता हूं कि किसी भी शहर के हरेक गली-कूचे, बाज़ारों, दुकानों, मंदिरों-गुरूदारों के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं ....और बड़ी मीठी और गूढ़ी यादें अमूमन, एक दो खट्टी याद को मारो गोली....इसलिए भी कभी कभी बेवजह उन रास्तों पर निकल जाना चाहिए ....इतनी गारंटी मैं देता हूं कि हर बार जब आप घर से बाहर निकलेंगे, पैदल चलेंगे तो ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा अपनी आंखों में कैद कर के लौटेंगे जिसे आपने पहली बार देखा उस दिन टहलते हुए ....

निकल बेवजह का टाइटल इसलिए कि हमारे एक ब्लॉगर मित्र के बेटे ने यह गीत लिखा है...कुछ दिन पहले उन्होंने शेयर किया था, हमें अच्छा लगा था ...


मैं तो चला जिधर चले रस्ता ......

रविवार, 26 मार्च 2023

टीनोपाल, नील, स्टार्च .....और आगे इस्त्री की सिरदर्दी


कल मुझे ४७ बरस पहले की फैमिना का एक अंक मिला ...उस के ऊपर उस का दाम ५५ पैसे लिखा हुआ है। इस तरह के मैगज़ीन एक तरह से प्राप्स हैं जो मुझे लिखने में मदद करते हैं...इन में जो विज्ञापन होते हैं उन पर एक ब्लॉग तो क्या पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। कोई कोई विज्ञापन आप को उठा कर गुज़रे दौर के दिनों की यादों की बारात में ले जाता है....अच्छा, इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि फैमिना के इस अंक में ८०-९० विज्ञापन होंगे और हर विज्ञापन में महिला माडल ही दिखीं....एक दो विज्ञापनों में ही पुरूष माडल दिखे ..खैर, मैं तो टीनोपाल के इश्तिहार को देख कर रुक गया....

कईं दिनों से राइटर ब्लॉक से जूझ रहे को जैसे एक बहाना मिल गया ....फिर से लिखने का ...मेरे साथ ऐसा ही है, मुझे ये सब बहुत कुछ याद दिलाते हैं और लिखने के तैयार करते हैं। टीनोपाल ....वाह .....मुझे अच्छे से याद है उस छोटी सी एल्यूमीनियम की टीनोपाल की डिब्बी का हमारे गुसलखाने की शेल्फ पर क्या स्थान था। टीनोपाल हो या नील (इंडिगो) ...इंडिगो तो कार्डबोर्ड की डिब्बी में ही पड़ा होता ...लेेकिन इन दोनों चीज़ों को बड़ी एहतियात से रखा जाता। 

टीनोपाल की यादें यह हैं कि इस को मेरे पिताजी की सूती पतलून और शर्ट और मां की सूती साडि़यों और ब्लाउज़ में अच्छी चमक पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था....कपडे़ धुलने के बाद उन को फिर से एक बाल्टी में डाला जाता था जिसमें थोड़ा से टीनोपाल का घोल पहले से रहता था। कईं बार अगर घर में टीनोपाल या नील खत्म होता और मां को कपड़े धोते हुए याद आ जाता तो मैं हमें एक-दो रूपये थमा कर पास ही के एक खोखे से उसे लाने का फ़रमान जारी कर देतीं..और हम पांच मिनट में ये सब चीज़ें लेकर हाज़िर हो जाते....हां, कईं बार ५० या १०० ग्राम की रेड-लेबल चाय, एक पाव किलो चीनी और दो सेरीडॉन की गोलियां भी उस लिस्ट में शामिल हो जाती थीं...टीनोपाल की डिब्बी तो एक रूपये से कम ही में आती थी...मुझे कल रात में याद आ रहा था कि ये घर में बार बार सेरीडॉन की गोलियां क्यों आती थीं...फिर यही ख्याल आया कि महीने के आखिरी दिनों में जब वैसे ही कड़की के बादल छाने लगें और ऊपर से यह सब टीनोपाल, नील, मांड और इस्त्री की सिरदर्दी और ऊपर से हम जैसे खुराफाती बच्चे हों तो सेरीडॉन के बिना उन का काम कैसे चलता...मां तो इन सब से फ़ारिग हो कर सिर पर दुपट्टा कस के लेट जाती ..चाय की एक प्याली पी कर। 

अच्छा, टीनोपाल तो लग गया....एक नील लगाने की प्रोसैस भी होती थी.....अब भी वह होती है पसीने से खराब हो रहे कपड़ों को सफेद करने के लिए....लेकिन यह भी एक फ़न होता है दोस्तो, नील लगाना भी ....कईं बार नील के धब्बे इतने पड़ जाते हैं कि फिर उन को छुड़ाने के लिए भी एक सेरीडॉन की गोली की ज़रूरत पड़ सकती है। और, अब आती है बारी माया की ...जिसे स्टार्च कहते हैं....मुझे अभी यह लिखते हुए याद आ रहा है कि पहले यह स्टार्च-वार्च कोई खरीदता नहीं था (शायद हम ही न खरीदते होंगे ...या टीनोपाल नील तक ही बजट जवाब दे देता होगा...) ...धुंधली धुंधली याद तो है कि कभी एक पैकेट में स्टार्च आती तो थी घर में ...लेकिन कईं बार देखा कि जब स्टार्च चाहिए होती तो उस दिन साथ में अंगीठी पर चावल भी पक रहे होते....उस में से मांड (पंजाबी हमें उसे कहते हैं चावल की पिच्छ) निकाल कर धुले हुए लेकिन गीले सूती कपड़ों को उस में चंद मिनटों के लिए भिगो दिया जाता ..बस स्टार्च लग गई और बस अब सुखाने का काम रह जाता। 

सूखने के बाद उस इस्त्रीकरने वाले भैय्ये की सिरदर्दी शुरु हो जाती ..यह भी याद है कि स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने का रेट डबल होता ...क्या करे...मुझे तो उस कोयले वाली प्रैस से कपड़े प्रैस होते देखना ही इतना अच्छा लगता कि मैं कईं बार और कुछ करने को न होता तो यही देखने लग जाता ...और फिर कुछ कुछ वक्त के बाद उस का उस बड़ी लोहे की प्रैस से राख को निकालना, इधर उधर देख कर मुंह में रखने पान को बदलना, उस से पहले एक दो हंसी मज़ाक की बात करना, मुझे उस की भाषा अच्छी लगती, क्योंकि उस के और हमारे हिंदी के मास्टर के अलावा अमृतसर शहर में हमारा हिंदी से कोई दूर-दराज़ का नाता न था ....यह सब भी कितना रोमांचक लगता था उम्र के उस दौर में ..

खैर, मैं देखता कि उन स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने में उस के पसीने छूट जाते ...वे कपड़े --जैसे कि साड़ी ही हो, वह आपस में स्टार्च की वजह से इतनी ज्यादा चिपकी होती ...उलझी होती कि पहले तो वह इत्मीनान से उस उलझन को सुलझाता ...फिर उस के ऊपर पानी छिड़क कर दो मिनट के लिए छोड़ देता...फिर इस्त्री करने की बारी आती ....मुझे यह बड़ी सिरदर्दी लगती। 

लेकिन साठ सत्तर बरस पुरानी मां और पिता जी की जो तस्वीरें देखता हूं तो मज़ा आ जाता है ...मैं बड़े फ़ख्र से बताया करती कि तुम्हारे पापा को उन दिनों इसी तरह से कपड़ों को पहनने का शौक था...साथ में कभी कभी कह देती हल्के से कि फिर आगे जैसे जैसे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं ......(कुछ बातें बिना कहे ही समझने वाली होती हैं...ज़रूरी नहीं हर बार को पूरा कहा जाए) ...

बीस पच्चीस साल पहले हमें भी यह स्टार्च लगवा कर कपड़े पहनने का शौक सवार हो गया...तब तक एक रिवाईव नाम का पावडर आ गया था ...उस में भिगोने से धुले हुए सूती कपड़े एक दम कड़क हो जाते थे ....कड़क ही तो चाहिए थे तो न कपड़े, कड़क चाय की तरह ...लेकिन कुछ ही अरसे के बाद हमें अपने लिए तो यह ज्ञान हो गया कि यार, इतनी सिरदर्दी क्यों ....क्या हो जाएगा कड़क दिखने से, कड़क कपड़े पहनने से ....(हां, कडक चाय से मूड सही हो जाता है, वह पक्का है) ..इसलिए हमने तो मना कर दिया कि हमारे कपड़ों को कड़क मत किया जाए.....(लिखते लिखते याद आ रहा है कि गुज़रे हुए कड़की के दौर में लोगों ने कपड़े कड़क पहनने का शौक जारी रखा, हिम्मत की बात है ..) 

अब मैं लोकल स्टेशनों पर युवा वर्ग के लोगों को - युवकों को, महिलाओं को बिना इस्त्री किए हुए कपडे़ पहने देखता हूं तो मुझे अच्छा लगता है ...क्योंकि मैं भी यही करना चाहता हूं ...अभी नौकरी कर रहा हूं, एक ढंग से कपडे़ पहनना मजबूरी है ...उस से फ़ारिग होते ही अपने मोबाइल से और इस्त्री किए हुए कपड़ों से परहेज़ रखूंगा ...मिल गए तो ठीक नहीं, न मिले तो भी ठीक..वैसे भी जिस तरह के कपड़े पहनना मेरे दिल के बहुत करीब है ..केज़ुएल वियर ...उन में इस्त्री चाहिए नहीं होती..

इस्त्री करने से एक बात याद आ गई और ...चलिए, लिखते हैं उसे भी ...मेरी बड़ी बहन को भी अच्छे कपडे़, प्रैस किए ही पहनने अच्छे लगते थे...अच्छा, होते सब के पास यही चार पांच जोड़े ही थे, जोडे़ का मतलब सलवार-कमीज़, पतलून-कमीज़ या निक्कर-बुशर्ट ...किसी शादी-ब्याह में जाने से पहले एक जोड़ा सिलवा लेते थे ...हां, तो जब छुट्टियों में या वैसे किसी पारिवारिक समारोह में बाहर कहीं जाना होता तो बहन तो अपने तीन चार जोड़े अच्छे से इस्त्री कर के उन्हें अपने लोहे के ट्रंक में करीने से रख लेती ....और हम भी जैसे जैसे .....हां, हमारे पास भी लोहे की एक छोटी सी प्रैस थी और बहन को कपड़े इस्त्री करने का आलस कभी न था....मैं बहन को ये सब बातें याद दिलाता हूं तो हम बहुत हंसते हैं...

अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि एक मित्र का वाट्सएप मैसेज आया कि क्या हुआ, तुम्हारे ब्लॉग सूख गये हैं....और ऐसे तो मेरी पढ़ने की आदत भी छूट जाएगी...😂😎...अच्छा लगता है जब ऐसे संदेश आते हैं....मैंने लिखा कि लिख रहा हूं, अभी भिजवाता हूं ...मुझे पता है कि मेरे अनुभवों से मिलते जुलते और बहुत मुमकिन हैं इन से भी कभी लज़ीज़ अनुभव आप के पास हैं...लेकिन बहुत से लोग लिखते हुए झिझकते हैंं, पता नहीं क्या हो जाएगा....कुछ नहीं होगा, दोस्तो, इत्मीनान रखिए...बस लिखते लिखते लिखने वाला हल्का जरूर हो जाएगा....और कुछ हो न हो....इसलिए जो भी मन में हो, लिखने की आदत डालिए....ब्लॉग लिखते हुए अभी झिझक रहे हैं तो कोई बात नहीं, कुछ दिन डॉयरी लिखिए...उसे पढ़िए, मज़ा आएगा....वह झिझक भी दूर हो जाएगी...

रविवार, 19 मार्च 2023

सच कहूं तो ......नीना गुप्ता की आत्मकथा


कल छुट्टी तो ली थी किसी और काम के लिए ..कहीं जाना था, जा नहीं पाए और सारा दिन नीना गुप्ता की ३०० पन्नों की आत्मकथा पढ़ने में लग गया....परसों देर रात पढ़ना शुरू किया था...अभी अभी ही उस पाठ का समापन हुआ है ...

मुझे पढ़ रहा था और मुझे कहा गया कि मैं तो ऐसे पढ़ रहा हूं जैसे कॉलेज के कोर्स की कोई किताब हो...लेकिन मुझे तो पढ़ते पढ़ते लग रहा था कि इतनी लगन से मैंने अपने स्कूल-कॉलेज के दौर में किसी किताब को नहीं पढ़ा....ऐसा क्या था इस में। इतना ही कहना चाहूंगा कि बहुत ईमानदारी से लिखी हुई आत्मकथा है यह ...वरना, मैं तो एक किताब के थोड़े पन्ने उलट-पलट कर, थोड़ा बहुत उसे पढ़ कर दूसरी किताब या मैगज़ीन उठा लेता हूं ...मैं इंगलिश, हिंदी और पंजाबी और उर्दू में लिखा पढ़ता हूं ...उर्दू में बहुत कम क्योंकि अभी उसे पढ़ने में वह रवानी नहीं है, जो किसी भी ज़बान को पढ़ने के लिए ज़रूरी होती है ...

आज सुबह हमारे डाइनिंग पर बिखरी कुछ किताबें-रसाले 

नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते पढ़ते मैं यह सोच कर मन ही मन हंस भी रहा था कि जिन किताबों को हमने पूरा पढ़ा उन के नाम मुझे याद हैं...मेरे से नहीं पढ़ी जाती कोई भी किताब पूरी ...स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी बीच बीच में, पुराने सालों के प्रश्न-पत्र देख कर अनुमान लगा लिया करता था ..गलत या सही जो भी होता...उतना ही पढ़ कर जाता। लेकिन हां, मुझे बचपन में किराए पर लाए हुए नंदन, चंदामामा और राजन-इकबाल के जासूसी नावल पढ़ना बहुत पंसद थे ...मां को अपने पाठ की किताब को और रामायण को पूरा पढ़ते देखता था ...देर रात तक कईं बार पढ़ती रहती ...सब की मंगल-कामना करतीं। 

दो चार बरस पहले मैं एक आत्मकथा और पढ़ी थी ....सुरेंद्रमोहन पाठक ...जिन्होंने ४०० से ज़्यादा नावल लिखे हैं....उन का नावल तो नहीं पढ़ा कोई लेकिन आत्मकथा इतनी रोचक थी - दो भागों में थी....कि दो तीन दिन लगा कर पढ़ लिया था....और एक बार जब किसी साहित्यिक उत्सव में मिले तो उन को यह बताया भी था..

३०० पन्नों में नीना गुप्ता ने क्या लिखा है, मेरे लिए बताना कठिन है, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखी है किताब....मैं पढ़ रहा था तो किसी ने कहा कि पता नहीं खुद लिखते हैं या लिखवाते हैं...खैर, यह माने ही नहीं रखता, पढ़ते हुए पाठक को समझ आ जाता है कि कितनी ईमानदारी से लिखा गया है ...हम खामखां जज बन बैठते हैं...जिस की ज़िंदगी है उसने जो लिखा उस के बारे में आराम से उसे पढ़ो, समझो ...और जो भी तुम सोचना चाहो सोचो ....कौन रोक रहा है...

किताबें बहुत सी देखता हूं ..कुछ छूता हूं, कुछ के पन्ने उलट-पलट लेता हूं और बहुत कम को ही पढ़ने का सब्र रखता हूं लेकिन किताबों के बारे में बहुत सी कहावतें याद हैं ..किसी की लिखी किताब को पढ़ना उसे मिलने जैसा है ..पुरानी किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के महान लोगों को मिलने के बराबर है. मैं इसे बिल्कुल सही मानता हूं...

और किसी भी लेखक को , किसी शायर को एक जज की नज़र से देखना बड़ा आसान है......लखनऊ में एक बार किसी प्रोग्राम में था, वहां पर जावेद अख्तर के सामने उन के मामा मजाज लखनवी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में किसी ने कोई टिप्पणी की। उस का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि देखिए, हर इंसान या हर कलाकार एक पैकेज होता है, उस में बहुत सी चीज़ें शामिल होती हैं.....वह पैकेज ही तभी तैयार हो पाता है क्योंकि उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे समाज सही ठहराता है, कुछ चीज़े समाज को ठीक नहीं लगतीं....लेकिन जब आप उस शख्स का काम देखते हैं तो उसमें वह अपनी छाप छोड़ जाता है और आने वाली पीढ़ियां उस को पढ़ती हैं, और उस को समझने की कोशिश करती हैं और सीख लेती हैं....

नीना गुप्ता की आत्मकथा को पढ़ते हुए भी मुझे ऐसा लग रहा था कि इतना संघर्ष किया इस फ़नकार ने, सारी ज़िंदगी ही जद्दोजहद से भरी पड़ी, इतने तरह के अलग अलग अनुभव हुए....अलग अलग लोग मिले अलग अलग जगहों पर ..और सब से कुछ न कुछ सीखा....कोई भी हो जो इतना तप जाएगा, ज़िंदगी के इतने सार सबक समेट लेगा तो फिर उन का करेगा क्या.........सब कुछ हमें अपने फ़न के या अपनी कलम के ज़रिए लौटा देगा.....ताकि बहुत से लोग उन से सीख ले सकें, प्रेरित हो सकें.......लेकिन एक बात तो है कि लोग दूसरों के तजुर्बों से कम ही सीखते हैं....

बहरहाल, नीना गुप्ता की आत्मकथा ..सच कहूं तो ....मुझे बहुत पसंद आई ....उत्ति उतम ..... बधाई हो ...

शनिवार, 11 मार्च 2023

व्यंग्य लेख .....काटने वाले जूते...

यह तो एक कोना है ....

जी हां, कुछ दिन पहले शादी में जाना था...नये शूज़ लेने ज़रूरी थे ...हश-पप्पी के लिए....५-६ हज़ार खर्च दिए...वहां शो-रूम में अच्छे से टहल कर भी देख लिया...खुशी हुई कि कहीं काट नहीं रहा, बड़ा नरम नरम है ...बढ़िया है ....

चलिए, ले गए शादी में उसे भी सामान में लाद कर ....क्या है, आज कल वैसे तो हम लोग स्पोर्ट्स शूज़ में ही आराम महसूस करते हैं....एक तो फ्लैट-फुट और ऊपर से अब घुटने भी काम करते वक्त कहा-सुनी करने लगे हैं...कर तो कईं बरसों से रहे हैं ..लेकिन अब कुछ ज़्यादा ही करने लगे हैं ...इसलिए सोच समझ कर पांव रखने पड़ते हैं...जी हां, शादी के तीनों फंक्शनों में पहन लिए हम ने भी नए नए चमकीले शूज़ ...वहां कोई काम तो होता नहीं ज़्यादा चलने फिरने वाला...चाट-पकौड़ी खाओ, दाल-मक्खनी चावल और मूंग के दाल के हलवे की मौज उड़ाओ....रौनक-मेला देखो और वापिस अपने रूम में आ कर पसर जाओ...

हां, हरेक ......को मुड़ बोहड़ के नीचे तो आना ही होता है ....हम भी वापिस पहुंच गए....नए नए शूज़ का शौक तो होता ही है, मुझे भी लगा तो चलिए अब ड्यूटी पर इन को अच्छे से चमका कर पहन कर जाया करेंगे...एक दो दिन पहन गया ..लेकिन यह देखा कि एक दो घंटे के बाद एक पैर का आगे का हिस्सा दब जाता है ...दुःखने लगता है...चलिए, मैंने इस तरह इतना गौर नहीं किया...यही लगा कि १० नंबर है और १० नंबर का जूता लिया है, और शो-रुम में पूरी तसल्ली भी कर ली थी ...तो फिर यह सब मेरा वहम होगा...

लेकिन आज फिर मैंने उसे पहना हुआ था...लौटते वक्त लोकल ट्रेन में खड़े खड़े एक पांव उस शूज़ में दबा जा रहा था ...बस, उसी वक्त मुझे यह सब ख्याल आया कि अगर जूता भी आरामदायक न हो तो इंसान परेशान हो जाता है ...

फिर मुझे १५-२० बरस पहले कहीं पर पढ़ी एक बात याद आ गई कि अगर अपनी ज़िंदगी की परेशानीयां को भूलना चाहते हैं तो तंग जूते पहन लीजिए ...आप दिन भर उन इन तंग, काटने वाले जूतों की वजह से ही इतने परेशान रहेंगे कि आप को कुछ और सोचने की फ़ुर्सत ही न मिलेगी। मैंने उस के साथ यह भी जोड़ दिया कि यही नहीं अगर हम लोग अंडर गार्मैंटस भी तंग डाल लें तो भी हमें ज़िंदगी की दूसरी तकलीफ़ें कुछ भी नहीं लगतीं....यह सब सुनी-सुनाई बातें नही,  आपबीती ज़्यादा हैं....दरअसल, खरीदते वक्त नाप का ज़रा ध्यान न रहे, हरेक को खुशफ़हमी रहती है कि उस के अंडरगार्मेंट्स का साईज भी पिछले कईं बरसों से वहीं पर टिका होगा....घर आते हैं, पहन कर देखते हैं, तंग लगता है तो फिर दुकानदार के करिंदों की बातें याद आने लगती हैं कि पहनते, पहनते खुलेगा भी तो ....लेकिन कमबख्त वह नहीं खुलता....और हम सिरदर्द जैसे खरीद लेते हैं...एक बात और, हम लोग कुछ पैसे बचाने के चक्कर में या ऐसे ही बिना किसी कारण के कोई दूसरा ब्रांड ले लें तो उस का इलास्टिक इतना लाइट होता है कि शाम तक ऐसा निशान छोड़ देता है जैसे चाबुक का निशान है ...और मेरी तो एक और परेशानी हो गई है कि अगर अंडरगार्मेंटस तंग हों तो सिर दुखने लगता है ....और अगर अपने साइज़ से ज़्यादा खुले हों तो कोई भी बंदा अपने आप को बीमार समझने लगता है... साफ साफ बात यह है कि मुझे अभी तक यह सब खरीदने की समझ ही नहीं आई....दिक्कत और भी है कि अगर दो-तीन एक बार ले आते हैं तो यही सोच कर लौटाने नहीं जाते कि कौन खामखां मगजमारी करे...और आनलाईन शॉपिंग में दो-तीन किताबों के सिवा अभी तक कुछ खरीदा ही नहीं...बस आलस, हठ, झिझक या बिना किसी वजह से ...

एक बात और भी तो लिखनी है, मैंने एक कारनामा और किया दो चार बरस पहले ...लखनऊ में एक बार चार पांच जंघी (बनियान) ले आया...अच्छे ब्रांड की ...क्या कहते हैं ....याद नहीं आ रहा नाम.....याद आएगा तो लिख देंगे....लेकिन उस से मेरी बेवकूफी कम न हो जाएगी....दरअसल जब वह बनियान ले कर आया और घर आकर पहन कर देखी तो खुली तो इतनी ज़्यादा न थी, थी खुली लेकिन चल सकती थी लेकिन लंबी ज़रुरत से भी कुछ ज़्यादा ही थी...बस, वही आलस की बीमारी, अब कौन जाए इन्हें बदलने...देखते हैं, पहनते पहनते ठीक हो जाएंगी.....यह कैसा तर्क हुआ ...लंबाई कैसे ठीक होगी भाई......हार कर उन सभी बनियानों के पहनने लायक करने के लिए नीचे से कटवा कर हाथ से सिलवाई करवानी पड़ी.......लेकिन फिर भी वे अजीब सी ही लगती हैं....जिस दिन पहनो, उस दिन सारा दिन अजीब सी फीलिंग घेरे रहती है....लेकिन ये बनियान भी ऐसी हैं, पीछे ही नहीं छोड़ रहीं...अगली बार भी साइज ठीक ही आएगा इस का भरोसा नहीं ..... यह भी कोई बड़ी बात नहीं है मुझ जैसे इंसान को इन टेंडर-वेंडर की रती भर भी समझ नहीं है...हो भी कैसे सकती है, जो बंदा साठ साल की उम्र तक कभी ढंग से अपने अंडरगार्मेंटस और जूते ही नहीं खरीद पाया, वह टेंडर क्या खाक समझेगा....

अच्छा, फिर खरीदने की बात याद आई ... जूते खरीदने की बात पर वापिस लौटते हैं क्योंकि कमबख्त ये ही मुझे काटने को दौड़ते हैं...खरीदते हैं जूते, बहुत बार बेटे ऑन-लाइन मंगवा देते हैं ...लेकिन वे अकसर बड़े साइज़ के होते हैं या पहन कर काटने लगते हैं तो दो चार दिन में लौटा दिेए जाते हैं...लेकिन तरह तरह के शूज़, सैंडिल, गुरगाबी, चप्पलें, स्पोर्ट्स शूज़ और चप्पलें फिर भी घर में ऐसे इक्ट्ठे हो रहे हैं जैसे कोई शू-स्टोर हो...डिब्बों का एक अंबार लगा हुआ है ..मेरे ही नहीं हैं, उसमें ....शूज़ की अलमारी खोलते डर लगता है, खोलते ही यह समझ नहीं आती कि इन आराम फरमा रहे जोड़ों को कष्ट दें या छोड़े पुराने जूते ही पहन कर निकल पड़ें.....क्योंकि जूते निकालते वक्त एक दो ऐसे जूतों से भी वास्ता पड़ता है जो गिरने का बहाना ढूंढ रहे होते हैं.....क्या करें, वे भी। 

अच्छा, एक बात है, बीसियों शूज़ होने के बावजूद, हम लोग अकसर पहनते अकसर वही एक दो हैं, जो आरामदायक से लगते हैं, जिन्हें पहन कर सुकून मिलता है ......अच्छा, पहले यह जो हम लोग, हम लोग कह कर बात करने की मेरी प्रवृति है न, मुझे उस पर काबू पाना होगा....क्या हम लोग, हम लोग.....मैं अपनी बात कर रहा हूं, क्यों दूसरों को भी साथ मिला लेता हूं ...उन की वे जानें.....क्या मालूम बाकी लोग कितने सलीके से दो चार फुटवियर में ही खुश रह लेते हों....

जब किसी मौज़ू पर लिखने लगते हैं तो पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं, घेर लेती हैं एक दम ....पिछले साल की बात है हम लोग मेट्रो शूज़ के शो-रुम में घुस गए..वहां सेल लगी हुई थी ...धड़ाधड़ जूते बिक रहे थे ...इतनी तेज़ी से बिक रहे थे जितनी तेज़ी से पंजाब में भटूरे-छोले की दुकान पर कडाही से भटूरे भी न निकलते होंगे.....मुझे एक रईस दिखने वाली महिला --हां, दिखने वाली, क्योंकि आज कल किसी की असलियत का पता लगता नहीं, अगर ढंग से कोई ड्रेस अप हो, भारी भरकम मेक-अप टिका ले और अपनी भाव-भंगिमा पर थोड़ा काम कर ले, तो सब रईस ही लगेंगे ...हां, उस महिला ने उस दुकान से मेरे ख्याल में बीस-पच्चीस जूते खरीद लिए ....झट से उसने पेमेंट किया और दोनों बड़े बड़े कैरी-बैग उठा कर बाहर निकल कर टैक्सी का इंतज़ार करने लगी ...

एक झलक शू-रैक की....बहुत से जूते सोफों के नीचे, बालकनी में, बेड के नीचे भी धरे-पड़े हैं....मैं कईं बार बहुत हंसता है कि ये सब रईस होने की अलामतें हैं...मतलब निशानीयां हैं... 😎😂

हम लोगों ने भी पांच पांच छः छः जोड़े तो ले ही लिए होंगे ज़रुर ......लेकिन मैंने तो उनमें से पहना एक भी नहीं ...ये सब चीज़ें खरीदना भी एक ओबसेशन जैसा हो जाता है ....शायद आज का बाज़ार बना देता है ऐसा हमें .....शूज़ इतने ज़्यादा हो जाते हैं कि वे पड़े पड़े खराब होते रहते हैं डिब्बों में , अल्मारियों में ...कभी महानों बाद जब उन पर नज़रें इनायत होंगी और अगर ऊपर से चमड़ा भुरता दिखेगा तो उन को डिस्कार्ड कर दिया जाएगा....मां कहती थीं किसी को पुरानी चीज़ नहीं देनी चाहिए...बाहर कहीं कोने में ऱख आती थीं, जिसे ज़रूरत होगी, उठा ले जाएगा......मां का फंडा भी काफी हद तक नेकी की दीवार जैसा ही था...

कल जब लोकल ट्रेन में मुझे मेरे जूते काट रहे थे ..और घुटने भी दुख रहे थे तो मुझे यही विचार आ रहा था कि दुनिया के मेले में करोड़ों लोग हैं, ऐसे कैसे कि यही कोई १०-१२ साईज़ सब को फिट आ जाएं...कहीं तो चुभेगा, कहीं तो कटेगा....यह तो वही बात हुई कि पहले फुटपाथ पर नकली दातों के नए-पुराने सैट बिक रहे होते थे ...अभी भी होते होंगे.....लेकिन वह मंज़र तो हमने अपनी आंखों से देखा है....चश्मे भी इसी तरह से बिकते दिखते हैं, देख ले यार, जिससे तेरे को साफ दिखे, चल पहन ले, ऐश कर...लेकिन, जूता खरीदना भी एक टेढ़ा काम लगा अभी तक तो ...बचपन में जब मां के साथ शूज़ लेने जाते तो उस बेचारी की कोशिश यही होती कि साइज़ से थोड़ा बड़ा ही होना चाहिए ....बच्चा वाधे पिया होया ए (बच्चा बड़ा हो रहा है)......यह न हो कि जल्दी ही छोटे हो जाएँ ....हां, अगर शूज़ थोड़े बड़े आ जाते तो उस में इंसोल (पंजाबी में पतावे कहते हैं) डलवा कर काम चल जाता ....

अमृतसर शहर के पुतलीघर चौक में एक दिन पांचवी-छठी कक्षा के दिनों में मैं मां के साथ गया शूज़ लेने....जिस दुकान पर गया वहां पर मैं मास्टर बलदेव राज को देख कर हैरान हो गया...यह उन की दुकान थी ..वह हमें इंगलिश और रेखा-गणित पढ़ाते थे ... और डिप-पैन (होल्डर) से लिखने की प्रैक्टिस करवाते थे ...ले लिया शूज़, लेेकिन घर आ कर देखा तो इतना तंग कि चलने में जान निकले....मां कहें कि कोई बात नहीं बदलवा लेंगे, मेरी यह सोच कर जान निकले की मास्टर की दुकान पर यह जा कर कहूंगा कि यह काटता है ....खैर, मां ले गईँ अपने साथ अगले दिन ...और मास्टर जी ने आराम से बदल दिए शूज़...

बचपन, जवानी की बातें याद करते हैं तो बहुत कुछ ऐसा है जो हमेशा के लिए याद रह जाता है ....एक बात तो यह कि यही कोई पांचवी छठी की बात होगी, उन दिनों हम लोग सेंडिल पहनते थे ...और अगर नीचे से घिस जाते तो उन के सोल (तलवा) बदलवा लिया जाता था...मुझे अच्छे से याद है एक बार मेरे सेंडिल का तलवा भी बदलवा कर मेरे पिता जी लाए थे ...मैं अकसर उन दिनों को याद करता हूं, बच्चों के साथ शेयर करता हूं उन बातों को तो यह ज़रूर कहता हूं कि जितनी खुशी मुझे उस दिन उन सेंडिलों के नए रूप को देख कर हुई थी, उतनी मुझे कभी हज़ारों रूपये के जूते खरीद कर भी नहीं मिली .... 

दूसरी बात ...मैं ग्याहरवी में पढ़ता था, मेरी बड़ी बहन मेरे से १० साल बड़ी है, उन दिनों वह कालेज में लेक्चरार हो गई थीं, मैं उन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने जिद्द की मुझे जूते दिलाने की ....नार्थ स्टार के शूज़ थे, १२५ रूपये के आए थे ....और शायद चार पांच साल तक मैंने उन्हें इतना पहना ....इतना पहना ..कि उन को घिस कर ही दम लिया.....आज भी जब मैं बहन को मिलता हूं तो उन जूतों को ज़रूर याद करता हूं ...हम लोग खूब हंसते हैं ...पहले हम लोगों के पास चीज़े ंकम थीं, लेकिन हम लोग उन की कद्र करते थे ...अब हम चीज़ों की तो क्या, लोगों की कद्र नहीं करते ....हम बहुत आगे आ चुके हैं...

एक याद और ...ज़्यादा से ज़्यादा हमारे पास दो शूज़ होते थे...एक काले रंग के, एक कोई कैन्वस के ...और एक हवाई चप्पल ...वह भी ज़्यादातर बाटा की ही होती....और सुबह टहलते वक्त अधिकतर लोगों ने फांटां वाला पायजामा, पैर में बाटा की या कोरोना की हवाई चप्पल - चलते वक्त ठप्प ठप्प करने वाली ....वह भी अकसर नीचे से घिसी होती, नहीं तो उस के स्ट्रैप इतनी ढीले हो जाते कि बिना वजह नाराज़ हो कर बाहर निकले रहते ......फिर उन को बीच सड़क पे अंदर डालते फिरो ....कईं बार तो मोची छोटी सी टाकी लगा कर उस की बीमारी का इलाज कर देता .....लेेकिन फिर एक वक्त यह भी आ जाता कि स्ट्रैप बदलवाने की नौबत आ जाती ....और यह एक मेजर डिसीज़न हुआ करता था कि स्ट्रैप बदलवाने हैं या चप्पल ही नईँ ले ली जाए.....नया स्ट्रैप दो-तीन रूपये में आ जाता था जहां तक मुझे याद है, और चप्पल १०-१२ रूपये की...खैर, नया स्ट्रैप लगवा कर भी मज़ा आ जाता था, एकदम कसा हुआ...हमारी तो चाल ही बदल जाती थी ... 😎😎😎😎😎

अच्छा, एक और मज़ेदार बात ....उन दिनों हम एक दूसरे के पहने हुए शूज़ पहन भी लेते थे ...हमें उसमें कोई शर्म नहीं महसूस होती थी ...जब मैं बडा़ हो गया तो मेरे जूतों का साइज मेरे चाचा जितना हो गया...तो जब हम मिलते तो चाची बड़े प्यार से हमारे सामने चाचा के कुछ बहुत अच्छे शूज़ रख देतीं कि देखो, जो तुम्हें पसंद हो, पहन लो ...और हम पहन लेते...हमें बहुत अच्छा भी लगता। 

अब, न तो कैंची, हवाई चप्पलों में वह ताकत और न ही जूतों में ..कमबख्त ऐसे घिसते हैं जैसे दो कौड़ी की पैंसिल ...चलिए, घिसें ..कोई बात नहीं ..लेकिन जब कभी अचानक आदमी इन घिसी-पिसी चप्पलों की वजह से फिसलते फिसलते बचता है तो बड़ी राहत महसूस करता है ... अब चप्पलें शुरूआत से ही घिसी पिटी लगती हैं मुझे ...पहले ऐसा न था, बहुत लंबे अरसे तक पहनने पर ही वह घिसने लगती थीं, जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में दूसरे पहले डिल्यूट हुए हैं, यह भी होना ही था, जूतों की वजह से स्लिप होना भी एक आम सी बात हो गई है....

पहले जब बूट खरीद कर लाते तो घर आ कर पैरों मे छाले हो जाते.....फिर उस पर सरसों का तेल लगाया जाता, अंदर रूईं रखी जाती ...बाद में ये जो बैंड-एड आ गईं उन को लगाना पड़ता ....बडे प्रपंच करने पड़ते भाई..फिर भी वह कहां काटना बंद करता ...फितरत हो जिस की काटने की ...फिर कभी कभी कोई कील चुभने लगती तो मोची के पास जा कर उस की ठुकाई करवानी पड़ती ... अभी लिखते लिखते यह भी याद आया कि पहले हम लोग शूज़ के नीचे बडे़ बड़े मोटे कील भी ठुकवा लिया करते थे ताकि जूते कम घिसें ...और कुछ जूतों पर तो अलग से चमड़े या रबर का सोल भी लगवा लेते ताकि जूते हिफ़ाज़त से रहे ...

कभी कभी बच्चे कहते हैं दिखाओ, जो शूज़ पहने हैं, दिखाओ.....नीचे से कैसे हैं, देखते हैं, फिर नाराज़ होते हैं ....फिर कहते हैं कि कितना बार कहते हैं कि मत पहना करो इन को अब....लेकिन आप को क्या है, आप तो रेंबो हो....फिर नये शूज़ आ जाते हैं शाम को ...लेकिन वह हमें पसंद नहीं आते या उन का साईज ठीक नहीं होता ..फिर वापिस हो जाते हैं....बस ऐसे ही ज़िंदगी चलती रहती है ...लेकिन मैंने एक बात ऊपर लिखी है न कि पहले जो मज़ा जूतों के तलवे (सोल) बदलवा कर आता था वह अब हज़ारों रुपयों के जूते खरीद कर भी नहीं आता....पहले घर में एक चप्पल भी आती थी तो सब को पता चलता था ...जैसे एक ख़त घर में आता था तो वह सब के लिए होता था, सब पढ़ते थे उसे बार बार ......अब हज़ारों रूपये के जूते आ भी जाएं तो जिस के लिए आए हों, उसे ही अकसर खोलने की फ़ुर्सत नहीं होती, तो वह आगे किस को दिखाए ......

हां, पहले एक शूज़ होता था ....उसे पालिश किया जाता था, मेरे पिता जी अपने जूते रोज़ सुबह खुद पालिश किया करते थे और हमें कहते कहते परलोक सिधार गए कि जूते रोज़ाना पालिश किए पहनने चाहिए क्योंकि जो तुम लोगों का दुश्मन होता है वह पहले तुम्हारे जूतों की तरफ़ देखता है ....पिता जी की यह बात तो कुछ खास समझ आई नहीं अब तक, लेकिन इतनी बात पक्की है जब शूज़ को अच्छे से पालिश किया हो तो बंदा सारा दिन सातवें आसमां पर टिका रहता है ...ज़रूरी नहीं तो किसी के पास दस शूज़ ही हों, लेेकिन बहुत से लोगों को मैने देखा है कि शूज़ चाहे एक हो लेकिन उसे अच्छे से रोज़ पालिश कर के पहनते हैं ....मस्त रहते हैं....समझदार लोग...

लिखते लिखते बातें याद आती रहेंगी....मेरा क्या है, लिखता रहूंगा ... लेकिन दुनिया में दूसरे काम भी तो हैं....चलिए, सुबह सुबह यह सुंदर गीत सुनिए....मुझे बहुत पसंद है यह गीत, इस की संगीत और इस के बोल ....