शनिवार, 11 मार्च 2023

व्यंग्य लेख .....काटने वाले जूते...

यह तो एक कोना है ....

जी हां, कुछ दिन पहले शादी में जाना था...नये शूज़ लेने ज़रूरी थे ...हश-पप्पी के लिए....५-६ हज़ार खर्च दिए...वहां शो-रूम में अच्छे से टहल कर भी देख लिया...खुशी हुई कि कहीं काट नहीं रहा, बड़ा नरम नरम है ...बढ़िया है ....

चलिए, ले गए शादी में उसे भी सामान में लाद कर ....क्या है, आज कल वैसे तो हम लोग स्पोर्ट्स शूज़ में ही आराम महसूस करते हैं....एक तो फ्लैट-फुट और ऊपर से अब घुटने भी काम करते वक्त कहा-सुनी करने लगे हैं...कर तो कईं बरसों से रहे हैं ..लेकिन अब कुछ ज़्यादा ही करने लगे हैं ...इसलिए सोच समझ कर पांव रखने पड़ते हैं...जी हां, शादी के तीनों फंक्शनों में पहन लिए हम ने भी नए नए चमकीले शूज़ ...वहां कोई काम तो होता नहीं ज़्यादा चलने फिरने वाला...चाट-पकौड़ी खाओ, दाल-मक्खनी चावल और मूंग के दाल के हलवे की मौज उड़ाओ....रौनक-मेला देखो और वापिस अपने रूम में आ कर पसर जाओ...

हां, हरेक ......को मुड़ बोहड़ के नीचे तो आना ही होता है ....हम भी वापिस पहुंच गए....नए नए शूज़ का शौक तो होता ही है, मुझे भी लगा तो चलिए अब ड्यूटी पर इन को अच्छे से चमका कर पहन कर जाया करेंगे...एक दो दिन पहन गया ..लेकिन यह देखा कि एक दो घंटे के बाद एक पैर का आगे का हिस्सा दब जाता है ...दुःखने लगता है...चलिए, मैंने इस तरह इतना गौर नहीं किया...यही लगा कि १० नंबर है और १० नंबर का जूता लिया है, और शो-रुम में पूरी तसल्ली भी कर ली थी ...तो फिर यह सब मेरा वहम होगा...

लेकिन आज फिर मैंने उसे पहना हुआ था...लौटते वक्त लोकल ट्रेन में खड़े खड़े एक पांव उस शूज़ में दबा जा रहा था ...बस, उसी वक्त मुझे यह सब ख्याल आया कि अगर जूता भी आरामदायक न हो तो इंसान परेशान हो जाता है ...

फिर मुझे १५-२० बरस पहले कहीं पर पढ़ी एक बात याद आ गई कि अगर अपनी ज़िंदगी की परेशानीयां को भूलना चाहते हैं तो तंग जूते पहन लीजिए ...आप दिन भर उन इन तंग, काटने वाले जूतों की वजह से ही इतने परेशान रहेंगे कि आप को कुछ और सोचने की फ़ुर्सत ही न मिलेगी। मैंने उस के साथ यह भी जोड़ दिया कि यही नहीं अगर हम लोग अंडर गार्मैंटस भी तंग डाल लें तो भी हमें ज़िंदगी की दूसरी तकलीफ़ें कुछ भी नहीं लगतीं....यह सब सुनी-सुनाई बातें नही,  आपबीती ज़्यादा हैं....दरअसल, खरीदते वक्त नाप का ज़रा ध्यान न रहे, हरेक को खुशफ़हमी रहती है कि उस के अंडरगार्मेंट्स का साईज भी पिछले कईं बरसों से वहीं पर टिका होगा....घर आते हैं, पहन कर देखते हैं, तंग लगता है तो फिर दुकानदार के करिंदों की बातें याद आने लगती हैं कि पहनते, पहनते खुलेगा भी तो ....लेकिन कमबख्त वह नहीं खुलता....और हम सिरदर्द जैसे खरीद लेते हैं...एक बात और, हम लोग कुछ पैसे बचाने के चक्कर में या ऐसे ही बिना किसी कारण के कोई दूसरा ब्रांड ले लें तो उस का इलास्टिक इतना लाइट होता है कि शाम तक ऐसा निशान छोड़ देता है जैसे चाबुक का निशान है ...और मेरी तो एक और परेशानी हो गई है कि अगर अंडरगार्मेंटस तंग हों तो सिर दुखने लगता है ....और अगर अपने साइज़ से ज़्यादा खुले हों तो कोई भी बंदा अपने आप को बीमार समझने लगता है... साफ साफ बात यह है कि मुझे अभी तक यह सब खरीदने की समझ ही नहीं आई....दिक्कत और भी है कि अगर दो-तीन एक बार ले आते हैं तो यही सोच कर लौटाने नहीं जाते कि कौन खामखां मगजमारी करे...और आनलाईन शॉपिंग में दो-तीन किताबों के सिवा अभी तक कुछ खरीदा ही नहीं...बस आलस, हठ, झिझक या बिना किसी वजह से ...

एक बात और भी तो लिखनी है, मैंने एक कारनामा और किया दो चार बरस पहले ...लखनऊ में एक बार चार पांच जंघी (बनियान) ले आया...अच्छे ब्रांड की ...क्या कहते हैं ....याद नहीं आ रहा नाम.....याद आएगा तो लिख देंगे....लेकिन उस से मेरी बेवकूफी कम न हो जाएगी....दरअसल जब वह बनियान ले कर आया और घर आकर पहन कर देखी तो खुली तो इतनी ज़्यादा न थी, थी खुली लेकिन चल सकती थी लेकिन लंबी ज़रुरत से भी कुछ ज़्यादा ही थी...बस, वही आलस की बीमारी, अब कौन जाए इन्हें बदलने...देखते हैं, पहनते पहनते ठीक हो जाएंगी.....यह कैसा तर्क हुआ ...लंबाई कैसे ठीक होगी भाई......हार कर उन सभी बनियानों के पहनने लायक करने के लिए नीचे से कटवा कर हाथ से सिलवाई करवानी पड़ी.......लेकिन फिर भी वे अजीब सी ही लगती हैं....जिस दिन पहनो, उस दिन सारा दिन अजीब सी फीलिंग घेरे रहती है....लेकिन ये बनियान भी ऐसी हैं, पीछे ही नहीं छोड़ रहीं...अगली बार भी साइज ठीक ही आएगा इस का भरोसा नहीं ..... यह भी कोई बड़ी बात नहीं है मुझ जैसे इंसान को इन टेंडर-वेंडर की रती भर भी समझ नहीं है...हो भी कैसे सकती है, जो बंदा साठ साल की उम्र तक कभी ढंग से अपने अंडरगार्मेंटस और जूते ही नहीं खरीद पाया, वह टेंडर क्या खाक समझेगा....

अच्छा, फिर खरीदने की बात याद आई ... जूते खरीदने की बात पर वापिस लौटते हैं क्योंकि कमबख्त ये ही मुझे काटने को दौड़ते हैं...खरीदते हैं जूते, बहुत बार बेटे ऑन-लाइन मंगवा देते हैं ...लेकिन वे अकसर बड़े साइज़ के होते हैं या पहन कर काटने लगते हैं तो दो चार दिन में लौटा दिेए जाते हैं...लेकिन तरह तरह के शूज़, सैंडिल, गुरगाबी, चप्पलें, स्पोर्ट्स शूज़ और चप्पलें फिर भी घर में ऐसे इक्ट्ठे हो रहे हैं जैसे कोई शू-स्टोर हो...डिब्बों का एक अंबार लगा हुआ है ..मेरे ही नहीं हैं, उसमें ....शूज़ की अलमारी खोलते डर लगता है, खोलते ही यह समझ नहीं आती कि इन आराम फरमा रहे जोड़ों को कष्ट दें या छोड़े पुराने जूते ही पहन कर निकल पड़ें.....क्योंकि जूते निकालते वक्त एक दो ऐसे जूतों से भी वास्ता पड़ता है जो गिरने का बहाना ढूंढ रहे होते हैं.....क्या करें, वे भी। 

अच्छा, एक बात है, बीसियों शूज़ होने के बावजूद, हम लोग अकसर पहनते अकसर वही एक दो हैं, जो आरामदायक से लगते हैं, जिन्हें पहन कर सुकून मिलता है ......अच्छा, पहले यह जो हम लोग, हम लोग कह कर बात करने की मेरी प्रवृति है न, मुझे उस पर काबू पाना होगा....क्या हम लोग, हम लोग.....मैं अपनी बात कर रहा हूं, क्यों दूसरों को भी साथ मिला लेता हूं ...उन की वे जानें.....क्या मालूम बाकी लोग कितने सलीके से दो चार फुटवियर में ही खुश रह लेते हों....

जब किसी मौज़ू पर लिखने लगते हैं तो पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं, घेर लेती हैं एक दम ....पिछले साल की बात है हम लोग मेट्रो शूज़ के शो-रुम में घुस गए..वहां सेल लगी हुई थी ...धड़ाधड़ जूते बिक रहे थे ...इतनी तेज़ी से बिक रहे थे जितनी तेज़ी से पंजाब में भटूरे-छोले की दुकान पर कडाही से भटूरे भी न निकलते होंगे.....मुझे एक रईस दिखने वाली महिला --हां, दिखने वाली, क्योंकि आज कल किसी की असलियत का पता लगता नहीं, अगर ढंग से कोई ड्रेस अप हो, भारी भरकम मेक-अप टिका ले और अपनी भाव-भंगिमा पर थोड़ा काम कर ले, तो सब रईस ही लगेंगे ...हां, उस महिला ने उस दुकान से मेरे ख्याल में बीस-पच्चीस जूते खरीद लिए ....झट से उसने पेमेंट किया और दोनों बड़े बड़े कैरी-बैग उठा कर बाहर निकल कर टैक्सी का इंतज़ार करने लगी ...

एक झलक शू-रैक की....बहुत से जूते सोफों के नीचे, बालकनी में, बेड के नीचे भी धरे-पड़े हैं....मैं कईं बार बहुत हंसता है कि ये सब रईस होने की अलामतें हैं...मतलब निशानीयां हैं... 😎😂

हम लोगों ने भी पांच पांच छः छः जोड़े तो ले ही लिए होंगे ज़रुर ......लेकिन मैंने तो उनमें से पहना एक भी नहीं ...ये सब चीज़ें खरीदना भी एक ओबसेशन जैसा हो जाता है ....शायद आज का बाज़ार बना देता है ऐसा हमें .....शूज़ इतने ज़्यादा हो जाते हैं कि वे पड़े पड़े खराब होते रहते हैं डिब्बों में , अल्मारियों में ...कभी महानों बाद जब उन पर नज़रें इनायत होंगी और अगर ऊपर से चमड़ा भुरता दिखेगा तो उन को डिस्कार्ड कर दिया जाएगा....मां कहती थीं किसी को पुरानी चीज़ नहीं देनी चाहिए...बाहर कहीं कोने में ऱख आती थीं, जिसे ज़रूरत होगी, उठा ले जाएगा......मां का फंडा भी काफी हद तक नेकी की दीवार जैसा ही था...

कल जब लोकल ट्रेन में मुझे मेरे जूते काट रहे थे ..और घुटने भी दुख रहे थे तो मुझे यही विचार आ रहा था कि दुनिया के मेले में करोड़ों लोग हैं, ऐसे कैसे कि यही कोई १०-१२ साईज़ सब को फिट आ जाएं...कहीं तो चुभेगा, कहीं तो कटेगा....यह तो वही बात हुई कि पहले फुटपाथ पर नकली दातों के नए-पुराने सैट बिक रहे होते थे ...अभी भी होते होंगे.....लेकिन वह मंज़र तो हमने अपनी आंखों से देखा है....चश्मे भी इसी तरह से बिकते दिखते हैं, देख ले यार, जिससे तेरे को साफ दिखे, चल पहन ले, ऐश कर...लेकिन, जूता खरीदना भी एक टेढ़ा काम लगा अभी तक तो ...बचपन में जब मां के साथ शूज़ लेने जाते तो उस बेचारी की कोशिश यही होती कि साइज़ से थोड़ा बड़ा ही होना चाहिए ....बच्चा वाधे पिया होया ए (बच्चा बड़ा हो रहा है)......यह न हो कि जल्दी ही छोटे हो जाएँ ....हां, अगर शूज़ थोड़े बड़े आ जाते तो उस में इंसोल (पंजाबी में पतावे कहते हैं) डलवा कर काम चल जाता ....

अमृतसर शहर के पुतलीघर चौक में एक दिन पांचवी-छठी कक्षा के दिनों में मैं मां के साथ गया शूज़ लेने....जिस दुकान पर गया वहां पर मैं मास्टर बलदेव राज को देख कर हैरान हो गया...यह उन की दुकान थी ..वह हमें इंगलिश और रेखा-गणित पढ़ाते थे ... और डिप-पैन (होल्डर) से लिखने की प्रैक्टिस करवाते थे ...ले लिया शूज़, लेेकिन घर आ कर देखा तो इतना तंग कि चलने में जान निकले....मां कहें कि कोई बात नहीं बदलवा लेंगे, मेरी यह सोच कर जान निकले की मास्टर की दुकान पर यह जा कर कहूंगा कि यह काटता है ....खैर, मां ले गईँ अपने साथ अगले दिन ...और मास्टर जी ने आराम से बदल दिए शूज़...

बचपन, जवानी की बातें याद करते हैं तो बहुत कुछ ऐसा है जो हमेशा के लिए याद रह जाता है ....एक बात तो यह कि यही कोई पांचवी छठी की बात होगी, उन दिनों हम लोग सेंडिल पहनते थे ...और अगर नीचे से घिस जाते तो उन के सोल (तलवा) बदलवा लिया जाता था...मुझे अच्छे से याद है एक बार मेरे सेंडिल का तलवा भी बदलवा कर मेरे पिता जी लाए थे ...मैं अकसर उन दिनों को याद करता हूं, बच्चों के साथ शेयर करता हूं उन बातों को तो यह ज़रूर कहता हूं कि जितनी खुशी मुझे उस दिन उन सेंडिलों के नए रूप को देख कर हुई थी, उतनी मुझे कभी हज़ारों रूपये के जूते खरीद कर भी नहीं मिली .... 

दूसरी बात ...मैं ग्याहरवी में पढ़ता था, मेरी बड़ी बहन मेरे से १० साल बड़ी है, उन दिनों वह कालेज में लेक्चरार हो गई थीं, मैं उन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने जिद्द की मुझे जूते दिलाने की ....नार्थ स्टार के शूज़ थे, १२५ रूपये के आए थे ....और शायद चार पांच साल तक मैंने उन्हें इतना पहना ....इतना पहना ..कि उन को घिस कर ही दम लिया.....आज भी जब मैं बहन को मिलता हूं तो उन जूतों को ज़रूर याद करता हूं ...हम लोग खूब हंसते हैं ...पहले हम लोगों के पास चीज़े ंकम थीं, लेकिन हम लोग उन की कद्र करते थे ...अब हम चीज़ों की तो क्या, लोगों की कद्र नहीं करते ....हम बहुत आगे आ चुके हैं...

एक याद और ...ज़्यादा से ज़्यादा हमारे पास दो शूज़ होते थे...एक काले रंग के, एक कोई कैन्वस के ...और एक हवाई चप्पल ...वह भी ज़्यादातर बाटा की ही होती....और सुबह टहलते वक्त अधिकतर लोगों ने फांटां वाला पायजामा, पैर में बाटा की या कोरोना की हवाई चप्पल - चलते वक्त ठप्प ठप्प करने वाली ....वह भी अकसर नीचे से घिसी होती, नहीं तो उस के स्ट्रैप इतनी ढीले हो जाते कि बिना वजह नाराज़ हो कर बाहर निकले रहते ......फिर उन को बीच सड़क पे अंदर डालते फिरो ....कईं बार तो मोची छोटी सी टाकी लगा कर उस की बीमारी का इलाज कर देता .....लेेकिन फिर एक वक्त यह भी आ जाता कि स्ट्रैप बदलवाने की नौबत आ जाती ....और यह एक मेजर डिसीज़न हुआ करता था कि स्ट्रैप बदलवाने हैं या चप्पल ही नईँ ले ली जाए.....नया स्ट्रैप दो-तीन रूपये में आ जाता था जहां तक मुझे याद है, और चप्पल १०-१२ रूपये की...खैर, नया स्ट्रैप लगवा कर भी मज़ा आ जाता था, एकदम कसा हुआ...हमारी तो चाल ही बदल जाती थी ... 😎😎😎😎😎

अच्छा, एक और मज़ेदार बात ....उन दिनों हम एक दूसरे के पहने हुए शूज़ पहन भी लेते थे ...हमें उसमें कोई शर्म नहीं महसूस होती थी ...जब मैं बडा़ हो गया तो मेरे जूतों का साइज मेरे चाचा जितना हो गया...तो जब हम मिलते तो चाची बड़े प्यार से हमारे सामने चाचा के कुछ बहुत अच्छे शूज़ रख देतीं कि देखो, जो तुम्हें पसंद हो, पहन लो ...और हम पहन लेते...हमें बहुत अच्छा भी लगता। 

अब, न तो कैंची, हवाई चप्पलों में वह ताकत और न ही जूतों में ..कमबख्त ऐसे घिसते हैं जैसे दो कौड़ी की पैंसिल ...चलिए, घिसें ..कोई बात नहीं ..लेकिन जब कभी अचानक आदमी इन घिसी-पिसी चप्पलों की वजह से फिसलते फिसलते बचता है तो बड़ी राहत महसूस करता है ... अब चप्पलें शुरूआत से ही घिसी पिटी लगती हैं मुझे ...पहले ऐसा न था, बहुत लंबे अरसे तक पहनने पर ही वह घिसने लगती थीं, जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में दूसरे पहले डिल्यूट हुए हैं, यह भी होना ही था, जूतों की वजह से स्लिप होना भी एक आम सी बात हो गई है....

पहले जब बूट खरीद कर लाते तो घर आ कर पैरों मे छाले हो जाते.....फिर उस पर सरसों का तेल लगाया जाता, अंदर रूईं रखी जाती ...बाद में ये जो बैंड-एड आ गईं उन को लगाना पड़ता ....बडे प्रपंच करने पड़ते भाई..फिर भी वह कहां काटना बंद करता ...फितरत हो जिस की काटने की ...फिर कभी कभी कोई कील चुभने लगती तो मोची के पास जा कर उस की ठुकाई करवानी पड़ती ... अभी लिखते लिखते यह भी याद आया कि पहले हम लोग शूज़ के नीचे बडे़ बड़े मोटे कील भी ठुकवा लिया करते थे ताकि जूते कम घिसें ...और कुछ जूतों पर तो अलग से चमड़े या रबर का सोल भी लगवा लेते ताकि जूते हिफ़ाज़त से रहे ...

कभी कभी बच्चे कहते हैं दिखाओ, जो शूज़ पहने हैं, दिखाओ.....नीचे से कैसे हैं, देखते हैं, फिर नाराज़ होते हैं ....फिर कहते हैं कि कितना बार कहते हैं कि मत पहना करो इन को अब....लेकिन आप को क्या है, आप तो रेंबो हो....फिर नये शूज़ आ जाते हैं शाम को ...लेकिन वह हमें पसंद नहीं आते या उन का साईज ठीक नहीं होता ..फिर वापिस हो जाते हैं....बस ऐसे ही ज़िंदगी चलती रहती है ...लेकिन मैंने एक बात ऊपर लिखी है न कि पहले जो मज़ा जूतों के तलवे (सोल) बदलवा कर आता था वह अब हज़ारों रुपयों के जूते खरीद कर भी नहीं आता....पहले घर में एक चप्पल भी आती थी तो सब को पता चलता था ...जैसे एक ख़त घर में आता था तो वह सब के लिए होता था, सब पढ़ते थे उसे बार बार ......अब हज़ारों रूपये के जूते आ भी जाएं तो जिस के लिए आए हों, उसे ही अकसर खोलने की फ़ुर्सत नहीं होती, तो वह आगे किस को दिखाए ......

हां, पहले एक शूज़ होता था ....उसे पालिश किया जाता था, मेरे पिता जी अपने जूते रोज़ सुबह खुद पालिश किया करते थे और हमें कहते कहते परलोक सिधार गए कि जूते रोज़ाना पालिश किए पहनने चाहिए क्योंकि जो तुम लोगों का दुश्मन होता है वह पहले तुम्हारे जूतों की तरफ़ देखता है ....पिता जी की यह बात तो कुछ खास समझ आई नहीं अब तक, लेकिन इतनी बात पक्की है जब शूज़ को अच्छे से पालिश किया हो तो बंदा सारा दिन सातवें आसमां पर टिका रहता है ...ज़रूरी नहीं तो किसी के पास दस शूज़ ही हों, लेेकिन बहुत से लोगों को मैने देखा है कि शूज़ चाहे एक हो लेकिन उसे अच्छे से रोज़ पालिश कर के पहनते हैं ....मस्त रहते हैं....समझदार लोग...

लिखते लिखते बातें याद आती रहेंगी....मेरा क्या है, लिखता रहूंगा ... लेकिन दुनिया में दूसरे काम भी तो हैं....चलिए, सुबह सुबह यह सुंदर गीत सुनिए....मुझे बहुत पसंद है यह गीत, इस की संगीत और इस के बोल ....

3 टिप्‍पणियां:

  1. श्रीमान जी ....आप का लेख पढ़ा... मन गद२ हो गया ...आपने तो हम को भी हमारा बचपन याद दिला दिया ....पिताजी याद आ गए ...हमें टायर से बनी जूती पिता जी ने ले दी थी कि खेत खलिहान में जो काम हों उनको वो सख्त न घिसने वाली चप्पल पहन के निपटा लिया करो और जो शहर आदि के काम हों उनको जब करने जायो तो न्यूयॉर्क ब्रांड की हवाई चप्पल पहना करो ! हम खुशी२ उनका कहना मान लेते थे....आज आप का लेख देख कर वही बीती पुरानी , ज़मीन से जुड़ी बातें याद आ गईं ..
    साधुवाद ...ऐसे ही लिखते रहिये ...ईश्वर आप की लेखनी को ओजस्वी बनाये रखे.. यही शुभ कामना है ...

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    1. बेनामी जी, आपने तो हमें एक बहुत पुरानी बात याद दिला दी....हमारे फूफा जी का गांव और हमारी नानी का गांव एक ही था...हमें हमारी नानी समझाया करती थीं कि अगर किसी को कुछ करने की लग्न हो तो उस के लिए कोई भी अड़चन आडे़ नहीं आती।
      फिर वह हमें बता दिया करतीं कि तुम्हारे फूफा के पिता उन के जन्म से कुछ वक्त पहले ही स्वर्गसिधार गए थे...घर में इतनी मुफ़लिसी कि एक चप्पल खरीदने के पैसे न थे...लेकिन पढ़ने का उन्हें बहुत शौक था, इसलिए फूफा जी की मां बट वृक्ष के कुछ पत्ते लेकर एक सूतली की मदद से उन के पांव पर बांध देती ताकि उस के बेटे के पैर रास्तों की सख्त गर्मी सर्दी का मुकाबला कर सकें...और बस वह उन्हीं पत्तों के सहारे ही स्कूल के सफर पर निकल पड़ता।

      वक्त का पहिया चलता रहा ....
      आगे चल कर मेरे फूफा जी बंबई के एक कालेज के वाईस-प्रिंसीपल हो गए थे ...कामर्स में उन की लिखी किताबें हैं...और एक स्कूल की स्थापना में उन्होंने निश्काम सेवा की....
      मुझे उन से जुड़ी बचपन की यादें आती हैं तो उन का मधुर, विनम्र स्वभाव याद आता है ...उन के घर मैं जाता तो यही मैं कोई 18-19 बरस का रहा हूंगा तो मुझे लौटते वक्त बस में बिठा कर घर लौटते ...
      इसलिए, वह कहावत बिल्कुल सटीक है ...
      कुछ कर गुज़रने के लिए, मौसम नहीं मन चाहिए....

      और एक बात ....
      कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
      एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो....

      आप की टिप्पणी के लिए शुक्रिया ...हमारी हौसलाफ़ज़ाई हुई और इसी क्रम में आप को अपने पिता जी की बातें याद आ गई, बस, हमारा लिखना सफल हुआ...साधुवाद आप का भी....

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  2. जूतों का मोह काफी दिन हो गए अब नहीं रहा। हाँ, मुझे बस इतना याद है कि छोटे में ऐसी जूते होते थे जिनके सोल में बैटरी से लगी होती थी और उन्हें पहन कर चलो तो जूतों की एड़ी पीछे के आस पास रोशनी हो जाती थी। उसका बहुत क्रेज था मुझे। इसके बाद तो जूते जरूरतानुसार ही पहने गए। हाँ, चमड़े के जूते मुझे पसंद नहीं है। उनसे अक्सर छाला हो ही जाता है। फिर चाहे कितने ही महँगे लो। उसके विकल्प में मैं अब ऐसी सैंडल पहनता हूँ जो कि आगे से बंद सी होती है। ऑफिस वाले भी पंगे नहीं करते और हमारे पाँव भी हमें दुआएँ देते हैं। रोचक रहा आपके संस्मरणों को पढ़ना।

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