आज सुबह जुहू बीच की तरफ टहलने के इरादे से निकले ...हाई टाईड का समय तो था ही...समंदर की लहरें देख कर मन भी हिलोरे खा रहा था ...लेकिन पांच दस मिनट चलने के बाद ही वॉटर-स्पोर्ट्स का नज़ारा कुछ ऐसा दिखा कि फिर टहलना-वहलना तो दूर उन्हीं नज़ारों को ही तकते रह गए....
नीचे मैं कुछ वीडियो लगा रहा हूं...वॉटर स्पोर्ट्स के संचालक बता रहे थे कि अभी एक तारीख से ही जब से सब कुछ खुला है तभी से ही ये स्पोर्ट्स भी फिर से शुरू हुए हैं ...अच्छा लगा, उन के पास सुरक्षा के पूरे इंतज़ाम देख कर अच्छा लगा...लाइफ-गार्ड भी थे ...और सब से खुशी की बात कि लोग खूब लुत्फ़ ले रहे थे ...
अचानक ख्याल आ गया कल छतीसगढ़ में घटी एक दुर्घटना का- वहां पर कोई जगह है शायद देवगढ़ ...दो रोप-वे आपस में टकरा गए ..दो लोगों की मौत हो गई ...कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर थी...बस, ऐसे ही ख्याल आ गया कि जो भी लोग इन राईड्स का मज़ा लेने जाते हैं ...वे सुरक्षित रहें और खुशी खुशी इन सब में हिस्सा लें...
आज की पोस्ट में मेरे पास कुछ लिखने के लिए है नहीं...एक तो मैं वैसे ही थका हुआ हूं ..सारी दोपहर किसी सेमीनार में गया हुआ था ..नींद आ रही है..सोचा कि अभी इस वॉटर-स्पोर्टस् के बारे में कुछ लिख लूं तो ठीक ..वरना अगले दिन मेरा यह सब लिखने का बिल्कुल मन नहीं करता ..क्योंकि नया दिन...नई किरणें, नया उजाला.....कौन पिछले दिन की बातों को लिखने बैठे...
खैर, मैं कुछ तस्वीरें भी लगा रहा हूं जिस से आप को इन के बारे में अच्छी जानकारी मिल जाएगी... हां, मेरा लिखना का मक़सद इतना ही है कि अगर तो आप बंबई में रहते हैं तो ज़रूर जाइए बच्चों को लेकर जुहू बीच ...क्योंकि अब जुहू बीच पहले जैसा नहीं है, साफ सुथरा है..हम तो नंगे पांव ही रेत पर चलते रहे आज...अच्छा लगा...पानी के अंदर भी भीगने गए...कुदरती नज़ारे भी ऐसे हैं, ये कुदरती नेमते भी ऐसी हैं कि बार बार वहां जा कर, वहां पर कितनी भी वक्त रुके रहें, कमबख्त यह दिल ही नहीं भरता... चलिए पहले कुछ तस्वीरें देखिए ..फिर चार वीडियो देखिए..बहुत छोटे छोटे वीडियो हैं.....यह तो सिर्फ़ ट्रेलर है ...पूरी फिल्म तो आप लोग खुद बनाओगे जब वहां जा कर वॉटर-स्पोर्टस् का आनंद लूटेंगे ...
लिखने से पहले मुझे ख्याल आ रहा था कि इस से पहले तो हम यह सब फिल्मों में देखते थे ...या शायद एक दो बार गोआ में भी देखा ...बंबई में तो ये नजारे पहली बार देखे....टिकट है कुछ राईड्स की 200 रूपये प्रति व्यक्ति और 300 रूपये प्रति व्यक्ति ...और दो मिनट में यह सब खेल पूरा हो जाता है ....
ये जो आप अलग अलग आकार की बोट्स देख रहे हैं इन से ही राईड्स का नाम चलता है ....जैसे यह है रिंगो राइड, एक है बनाना राईड, एक है सोफा राइड .... ऐसे ही और भी कुछ हैं जिन को आप दूसरी फोटो में देख सकते हैं...
जुहू बीच आज कल बड़ा साफ सुथरा दिखता है ...वहां पर बिल्कुल भी गंदगी नहीं है ...क्योंकि हर दिन उस की सफाई बीसियों मुलाजिम करते दिखते हैं...
इस तरह के ट्राले यहां रोज़ाना कूढा़ कचरा ढोते दिखते हैं ....ताकि लोगों को कोई दिक्कत न हो ...
वहां से लौटते वक्त यह महिला भी दिखी जो अपने या किसी के डॉगी को शायद ट्रेन कर रही थी ...अचानक वह हमारी तरफ लपका ..तो इसने सॉरी कह दिया...बहुत बहुत शुक्रिया आप का...हां, इन का डॉगी बेचारा रेत में खड्ढ़ा करने की भरसक कोशिश करता दिखा जब कि रास्तों पर पलने वाले डॉगी साहिबान मस्ती से भीगी रेत में गहरे गहरे गड्ढे खोद कर मस्ती से उन में लेट कर वे भी एयरकंशीनर का लुत्फ ले रहे थे
..मतलब लुत्फ तो वहां सभी ले रहे थे, अपने अपने हिसाब से (लेकिन तब तक मेरी मोबाइल की बैटरी जवाब दे चुकी थी...नहीं तो वह नज़ारा भी कैमरे में कैद करने वाला था..)..नज़रिया अपना अपना ...मेरे जैसे लोग देख कर ही खुश हो रहे थे ...अभी भी आप के दिमाग में एक सवाल तो ज़रूर होगा कि तुम ने इस स्कूटर का आनंद लिया कि नहीं.....नहीं, यार, नहीं...मुझे इन सब से बड़ा डर लगता है ...मुझे जान बहुत प्यारी है ...इतनी प्यारी जैसे मैं खुदा से 150 साल जीने का पटा लिखवा कर लाया हूं.....चलिए, अब आप को मेरी सिर-खपाई वाली बातें सुनने की जगह महान अदाकारा हैलन पर फिल्माया एक गीत सुनना चाहिए...जो मुझे भी बहुत पसंद है ...आज से नहीं, बचपन से ही....क्योंकि इस में बहुत सुंदर तरीके से जीने का मक़सद समझाने कोशिश की गई है ....
आज गुड़ी पर्व दिवस है ...सोच रहा हूं इसे तो डायरी में दर्ज कर देना बनता ही है ... चलिए, कोशिश करते हैं...बहुत कुछ देखा...बहुत कुछ सुना ...लिखना लंबा हो जाएगा...कोई बात नहीं ..कुछ बातें सहेजनी ज़रूरी होती है..
आज मैं सुबह उठा तो उठते ही गुड़ी पर्व का एक कार्ड बनाने लग गया..दरअसल यह मुझे अपने कैलीग्राफी के उस्ताद जी को देना था...लिख तो लिया ...लेकिन मैं अपनी कैलीग्राफी से बहुत कम ही खुश होता हूं ...एक एक अक्षर में जो त्रुटियां रहती हैं वे मैं या गुरु लोग ही जानते हैं ...लेकिन आज तो मैं गुड़ी या गुढ़ी में ही कितना वक्त अटका रहा ...पक्के तौर पर मुझे अभी भी नहीं पता कि यह ड़ से है या ढ़ से है ..
परसों देेर शाम मैंने दादर स्टेशन के ब्रिज पर एक महिला को मोटा सा बांस का टुकड़ा लेकर जाते देखा...यही कोई 5 फीट की लंबाई का होगा...उस के पास बहुत से आम के पत्ते भी थे ...मुझे यह समझ में आया कि गुड़ी पर्व पास ही है ...प्लेटफार्म पर आया तो एक शख्स अपने बैग में आम के पत्ते और गेंदे के फूल ठूंस रहा था ...
खैर, आज मैंने बॉय रोड जाते माहिम, माटुंगा के रास्ते ...तुलसी पाइप लाइन से होते हुए....सारा माहौल गुड़ी पर्व के रंग में रंगा देखा...बहुत अच्छा लग रहा था ..हर तरफ़ रंग बिरंगी झंडियां देखना बहुत भा रहा था ...दादर पश्चिम रेलवे की तरफ़ एक बहुत बड़ी फूलों की मार्कीट है ...वहां पर कल तो बहुत ज़्यादा भीड़ थी, आज कुछ कम ही थी...क्योंकि आज तो त्योहार था ...लोग फूल, पत्ते और सब ज़रूरी चीज़ें कल खरीद कर ले गए होंगे ...आज भी कुछ दुकानदार हमारे लिए गुड़ी पर्व की तैयारियों में लगे हुए थे...उन्हें देख कर मन में यही विचार आता रहा था कि इन का त्योहार कब होता है ...होता भी है कभी कि नहीं ..
खैर, तभी सामने जा रहे एक बहुत बड़े ट्रक पर नज़र गई ..उसमें सैंकड़ों मु्र्गे ठूंसे पड़े थे ...इन बेचारे मुर्गों के मुकद्दर पर मन रो पड़ा कि इन को कभी राहत नहीं ...अगर एक हफ्ते रामू का निवाला बनने से बच भी गए तो उन दिनों शेर खां की प्लेट तक पहुंंचने से नहीं बच पाएंगे ...इतने डरे, सहमे, दुबके, सिमटे मुर्गे देख कर एक बार तो मेरा गुड़ी पर्व का सारा मज़ा किरकिरा हो गया...मुन्नवर राणा की बात बार बार याद आ जाती है इन्हेें देख कर ...पता नहीं किस घड़ी में लिख देते हैं अपने दिल से निकली बात...
एक निवाले के लिए मैंने जिसे मार दिया...
वह परिंदा भी कईं दिन का भूखा निकला...
दादर से आगे भी भायखला तक आते आते हर तरफ़ माहौल गुड़ी पर्व के जश्न से सराबोर ही दिखा ....
ड्य़ूटी पर भी आज मरीज़ कम ही थे ...हमारी ओपीडी में भी सभी साथियों ने बड़ी श्रद्धा से गुड़ी पर्व की पूजा की और सब की सलामती की दुआ की ...पेड़े, नारियल का प्रसाद मिला..समोसे खाए...सब बहुत खुश थे ..अच्छा लगता जब त्योहार की वजह से सब के चेहरे पर खुशियां दिखती हैं ..इन मौकों पर सब के लिए यही दुआएं निकलती हैं कि सब लोग इन उत्सव में अपने अपने तरीके से भाग ले सकें ...
मुझे लगा जैसे कि मना लिया गुड़ी पर्व ...अब घर जाकर राजमांह चावल ठूंसने के बाद बस अब सो जाना है ...लेकिन नहीं, मैं गलत था ...जैसा कि आप को मेरी इस डॉयरी के अगले पन्ने से पता चलेगा...
हां, हमारे मुंबई में रहने वाले एक साथी ने मोबाइल में अपने गृह में स्थापित गुड़ी के दर्शन करवाए...देख कर अच्छा लगा...तभी एक साथी ने बताया कि महानगरों में तो हमें इतने ही से काम चलाना पड़ता है लेकिन गांव में बहुत बड़े बांस की मदद से इस की स्थापना की जाती है ..उन्होंंने कोंकण के एक गांव के घर की वीडियो साझा की जिस से हमें गुड़ी पर्व के एक दूसरे ही गावटी स्वरूप के दर्शन हुए...लीजिए आप भी करिए...
जब भी कोई त्योहार आता है तो हमें यही लगता है कि हमें उस के बारे में कुछ ज़्यादा मालूम ही नहीं...इस के कईं कारण हैं...खैर, गुड़ी पर्व लिख कर जब गूगल से कुछ जानना चाहा तो उसने भी गुड़ी पर्व पर लिखा हुआ एक निबंध हमारे सामने रख दिया ...यह रहा उस का लिंक ..गुड़ी पर्व पर निबंध ...लेकिन उस निबंध को पढ़ कर कुछ ज़्यादा मज़ा आया नहीं...पूरा दिन बीत जाने के बाद हमें यह अहसास हुआ कि इस से अच्छा तो हम सड़कों पर टहलते हुए गुड़ी-पर्व की रौनकों से इस त्योहार को लाइव पढ़ सकते हैं.. समझ भी सकते हैं, इतने भी तो अनाड़ी नहीं कि जनसंचार पढ़ कर भी जनमानस की भावनाओं को न पढ़ पाएं।
अच्छा, एक बात है ...मैं ज़्यादा धर्म, मज़हब की बातें करता नहीं....ज़्यादा क्या, कम भी नहीं करता..क्योंकि एक बार इन मज़हबी चक्करों में पड़ जाओ तो फिर बेकार की बहस, तकरार...सब बेमतलब की चर्चाएं। लेकिन इतना तो लिख ही सकता हूं कि बंबई में कुछ इलाकों में हिंदु ज़्यादा है, कुछ में मुस्लिम ...कुछ में पारसी, कहीं गुज़राती और कहीं पंजाबीयों ने मिनी-पंजाब बनाया हुआ है। यह जो लाल बाग, प्रभादेवी, दादर के इलाके हैं न इन इलाकों में हिंदु बहुत ज़्यादा हैं....जो हर त्योहार को बड़ी धूम-धाम से, बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं...आज मुझे इस बात का ख्याल तब आया क्योंकि मैं अभी वापिस लौटते वक्त लालबाग एरिया में ही था कि मुझे गुड़ी पर्व की धूम धाम दिखने लगी...मन बहुत हर्षित हुआ ..
ऐसे ही मैं दादर पहुंच गया....मैंने थोड़ा रास्ता बदल लिया...तुलसी पाइप रोड़ की बजाए मैं भवानी शंकर रोड़ पर आ गया..ताकि कबूतरखाने से होते हुए मैं शिवसेना भवन के सामने से होता हुआ, शीतला मंदिर मार्ग से माहिम, बांद्रा की तरफ़ आ जाऊं...मुझे आज बरसों बाद दादर पश्चिम के इस इलाके से निकलते हुए यह लग रहा था कि मैं इतनी बार दादर (पश्चिम) आता हूं लेकिन कभी भी इस एरिया को अच्छे से एक्सप्लोर नहीं किया मैंने ...उस इलाके में बहुत कुछ है देखने के लिए...रहस्यमयी, रोमांचकारी ....उस एरिया में लगता है जैसे मराठी धरोहर को संजो कर रखे जाने की कोशिश की जा रही है ....
परेल के इलाके में भी दुकानें दुल्हन की तरह सजी हुई थीं...
खैर, मैं कबूतरखाने से होता हुआ जब शिवसेना भवन की तरफ़ आ रहा था तो रास्ते में प्लाझा सिनेमा दिखा ....यह सिनेमा भी एक तरह से मराठी ही नहीं, हिंदी सिनेमा की धरोहर है ..दादासाहेब फाल्के जैसी महान हस्ती का नाम इस से जुड़ा हुआ है ...हमेशा ही से उस राह से निकलते हुए हमेशा ही इस सिनेमा को देखना किसी मराठी, हिंदी चित्रपट के मंदिर के दीदार करने जैसा है ...आज मैंने सोचा कि अगर इस में मराठी फिल्में ही लगती होंगी...तो भी मैं जल्दी ही इस में फिल्म देख कर आऊंगा ...यह मेरी हसरत है ...
अभी थोड़ा आगे निकला ही था शिवसेना भवन के आसपास तो सारा एरिया गुड़ी पर्व के रंगों में डूबा देखा ...हर तरफ़ खूबसूरत, रंग बिरंगी झंडियां ...और त्योहार का माहौल....अभी शिवसेना भवन से आगे निकला ही था कि रास्ते में गुड़ी पर्व के और रंगों को भी देखना नसीब हुआ...
और ये वीडियो देख कर इन खुशियों में हो जाइए...
लेकिन यह क्या, बांद्रा तक पहुंचते पहुंचते ...एक सन्नाटा सा देखने को मिला...शायद गर्मी की वजह से ...आज ही अखबार में आया है कि इस बार मार्च के महीने में मुंबई में जितनी गर्मी पड़ी है, उतनी 122 साल पहले पड़ी थी...कार्टर रोड का समुद्री किनारा भी सूना पड़ा दिखाई दिया...
बाद दोपहर घर पहुंच कर मुझे लगा कि अब तो हो गया..गुड़ी पर्व की रौनकें देख लीं...लेकिन नहीं, अभी भी कुछ तो बाकी था...शाम के वक्त जब जुहू बीच के लिए निकले ही थे कि कार्टर रोड के समुद्री किनारे पर कुछ लोग बड़े अच्छे तरीके से ढोलक जैसा दिखने वाला कोई यंत्र थपथपा रहे थे, देख कर अच्छा लगा...ऊपर जो मैंने कार्टर रोड की दोपहर की सन्नाटे की तस्वीरें लगाई थीं, उन्हें भूल जाइए..अब सूर्यास्त का वक्त था, ख़ूब रौनकें थीं वहां पर इस वक्त और गुड़ी पर्व के उत्सव को चार चांद लगाते वही लोग ..ढोलक जैसा कुछ बजाने वाले ...मुझे अभी याद ही नहीं आ रहा है कि जिस यंत्र को वे लोग बजा रहे थे उसे कहते क्या हैं, लेकिन कुछ चीज़ों का बस लुत्फ उठाना चाहिए...क्या करना है उस के बारे में जान कर ...सच तो यह है कि वह ग्रुप अपने फ़न से आसपास के सभी लोगों को लुत्फअंदोज़ कर रहे थे ...हमने वीडियो भी बनाई और आप भी उन के इस फन का आनंद लीजिए....हमें भी यह देख कर इतना मज़ा आया कि या तो एक वैसा ही ढोलक पकड़ कर हम भी उस ग्रुप में शामिल हो जाएं ...नहीं तो वहीं पर नाचने लगें, ऐसा लग रहा था ..लेकिन वह भी हमारी हज़ारों ख़्वाहिशों जैसी एक हसरत ही थी ..हमें तो जुहू जाने की जल्दी थी कि सूरज के डूब जाने से पहले वहां पहुंच जाएं कैसे भी ...
लीजिए, यह देखिए ... एक मिनट का वीडियो जिसमें इन रब्बी लोगों की सुंदर प्रस्तुति हमने कैद कर ली....इन सब को देख कर यही सबक मिलता है कि खुशियों को मना लेना चाहिए...सिमटे, दुबके, छुपे रहने से कुछ हासिल नहीं होता ...वह गाना भी तो है...आइए...बहार को हम बांट लें....ज़िंदगी के प्यार को हम बांट लें...अब यह वीडियो देख कर हमें यह नगमा कैसे याद आ गया....हमें पता नहीं...लेकिन इन लोगों को इस तरह से खुशियां बांटते देखा तो वह नगमा इस वक्त याद आ गया...
यह लिखने के बाद मुझे याद आया कि इसे ढोलक नहीं इसे तो ड्रम कहते हैं...यह मुझे मेरी बड़ी बहन ने याद दिलाया तो मैंने उन्हें कहा कि मुद्दत से इसे सीखने की भी मेरी बड़ी हसरत है ....वह हंसने लगी लेकिन मैं सच कह रहा था ..क्योंकि मुझे कभी मौका मिला तो मुझे यह सीखना ही है ..वैसे इस में सीखने जैसा है ही क्या...बस, एक थाप के ज़रिए अपनी खुशियों को दूसरों तक पहुंचाने की बात ही तो है ...
जैसे ही सांताक्रूज के वह बच्चों के ऐरोप्लेन वाले गार्डन से आगे निकले ..तो जुहू रोड पर एक बस से भी जश्न की आवाज़ें सुनाई दीं..हमारे पास तो हमारा कैमरा तैयार ही रहता है, इन दुर्लभ लम्हों को कैद कर के पाठकों तक पहुंचाने के लिए...मुझे नहीं पता वे लोग कहां जा रहे थे लेकिन खुशियों के फूल बिखेरते तो जा ही रहे थे ...देखिए, उन का वीडियो ...
दस मिनट में जुहू बीच पहुंच गए...अच्छा था नज़ारा था वहां भी ....बहुत से बच्चे फुटबाल खेल रहे थे ..सैलानी क़ुदरती नज़ारों का आनंद लूट रहे थे...सूरज महाराज जाते जाते अपनी छटा बिखेर रहे थे ...इसीलिए हमने एक फोटो निकाल ली अपनी भी ...
कुछ बच्चे रेत को घर बना रहे थे. ढहा रहे थे, फिर बना रहे थे ..उन्हें देख रहे थे और हमारे विविध भारती पर येसुदास की सुरीली, मनमोहक आवाज़ में यह गीत बज रहा था ...जैसे उस वक्त वहां पर मौजूद लोगों के जज़्बात की तर्जुमानी कर रहा हो ....
और जुहू बीच पर दिन में जिस वक्त भी जाते हैं ...सुबह, दोपहर, शाम, रात...वहां का नज़ारा अलग ही दिखता है ...इस वक्त बच्चे भी मज़े कर रहे थे ...बर्फ के गोले उन्हें खाते देखा तो वहीं उन के पास बैठ जाने की तमन्ना हुई ...किसी ज़माने में हम ने भी बहुत खाए...और उसे चूसते हुए बार बार जो उस पर गोले वाले से मीठा रंग उस पर डलवाने का लुत्फ होता था, उसे कैसे लिख पाऊंगा...नहीं होगा वह ब्यां...
अंधेरा होने लगा था...वापिस लौटने का ख्याल आया....लौटते लौटते देखा कि दो महिलाएं कुछ पूजा का सामान लिए अपने सहायक के साथ सीढ़ीयां उतर कर समंदर की लहरों की तरफ़ जा रही हैं...अब हम से यह मत पूछिए कि वे किस लिए, किस रस्म के लिए वहां जा रही थीं..यह हमें भी नहीं पता...और कैसे पूछें, किस से पूछें...कुछ सवाल दिल में सवाल की शक्ल ही में रहें तो भी क्या हर्ज़ है ...इतने बड़े मुल्क में इतने रस्मो-रिवाज़ हैं कि बंदा किस किस को समझे....किस किस को जाने..!!
घर लौटने पर हमारी कॉलोनी का प्ले-ब्वाय बिल्ला कुछ इस अंदाज़ में दिखा जैेसे पूछ रहा हो कि दिन भर कहां घूमते रहते हो ...हमारी भी कुछ फ़िक्र है कि नहीं....अमृतलाल नागर की कहानी में लखनऊ के बांकों का ज़िक्र है ...इसे भी आप बंबई का बांका ही समझिए..मतलब समझ ही गये होंगे आप ....घर में हम सब का यह फेवरेट है ...इस की चाल-ढाल, इस का सलीका झलकता है ... हा हा हा हा ...
बस, यही सब देखते सोचते घर लौट आए ...आते ही लिखने बैठ गए...जब निंदिया रानी आई तो सो गए...बाकी का लिखना अभी पूरा करने बैठ गये हैं...
और जाते जाते एक बात यह कि बीसियों तस्वीरें, वीडियो देखने के बाद, भायखला से जुहू तक गुड़ी पर्व के दिन घूम लेने पर भी हमें यह अहसास हुआ कि हम अपने आसपास को कितना कम जानते हैं, अपने रस्मो-रिवाज़ से कितने नावाक़िफ हैं.. कितने बेखबर है ...दूसरों की ही नहीं, अपनी खुशियों से भी ...इस के कारण जो मैं समझ पाया हूं अभी तक लिखते-पढ़ते-घूमते हुए ..वे यही हैं कि हम लोग समाज से लगभग कटे हुए हैं...बिना किसी मतलब के हम किसी से बात करना तो दूर आंखें मिलाने से भी कतराते हैं...बात करते वक्त भी किसी की आंखों में कहां देख पाते हैं....किसी के साथ बिना किसी मक़सद के दो पल हंसना, खिलखिलाना तो दूर ...मुस्कुराना भी गुनाह समझते हैं कि इस का कहीं कोई फ़ायदा ही न उठा ले....बिना किसी ख़ास मकसद के हम कुछ भी करते ...जब तक कोई ख़ास काम न हो हम पैदल कहीं आसपास भी नहीं जाते ..लोग क्या कहेंगे...और कईं बार दिल को समझाने के लिए वही बहाना कि इन सब के लिए वक्त ही कहां है, मरने की तो फुर्सत है नहीं....और कौन इतनी गर्मी में बाहर निकले...बस, इसीलिए हम लोग अपने आसपास की दुनिया से ...जो असली दुनिया है ...कटे ही रह जाते हैं...अलग थलग पड़े रहते हैं...अपने नशे में चूर...अपने धन-दौलत, वैभव की मस्ती में डूबे....और इस सब के क्या नतीजे निकलते हैं, इस प्रश्न के साथ मैं बस यहीं पोस्ट को विराम-चिन्ह लगा रहा हूं...
डा कपिल, एक योग्य एवं कर्मठ फ़िज़िशियन ... 👏
हां, इस बार यह गुड़ी पर्व पर इतना लिखने का मन कैसे हो गया...दरअसल दोपहर हमारे एक साथी हैं ..डा कपिल...एक बहुत मेहनती, कर्मठ और शांत फ़िज़िशियन हैं...परसों उन्हें उन की सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया तो उन की तस्वीरें हमारे अस्पताल की चीफ़ फ़िज़िशियन मे शेयर की वाट्सएप ग्रुप ...उन तस्वीरों को देख कर हमें तो ऐसे लगा जैसे डा कपिल गुड़ी पर्व के बिल्कुल सही ब्रैंड-अंबैसेडर हैं...गुड़ी पर्व के पोस्टर-ब्वॉय हैं...सच में वह उस पारंपरिक वेश-भूषा में ऐसे ही लग रहे थे ..
दो साल पहले यही लॉकडाउन से ठीक पहले मैं स्कूटर से गिरा .पैर का हड्डी टूट गई ....और वह मेरी काली पैंट भी घुटने वाली जगह से थोड़ी सी फट गई...अभी वह पैंट नई ही थी...और वह फ्लेक्सी-वेस्ट वाली पैंट थी ...यानि एक बार पहनने के बाद उसी जगह पर टिकी रहती थी..यह जो सिर्फ़ बेल्ट के सहारे पर ही पैंटें पहनी जाती हैं उन्हें तो बार बारऊपर सरकाना पड़ता है, यह सिरदर्दी लगता है मुझे...मुझे इस से बहुत चिढ़ भी है ...लेकिन चिढ़ है तो वज़न का पहले ख्याल करना चाहिए था...अभी मेरी यह उम्र गैलस पहन पर अरबपति दिखने की भी तो नहीं है ....कुछ दिन पहले मुझे कपड़ों की अलमारी में वह पैंट दिख गई तो मैंने उसे रफू करवा लिया ...लेकिन जब वह पैंट रफू हो घर आई तो मुझे यह कहा गया कि अब इसे बाहर नहीं पहनना, यह ऐसे ही घर-वर में पहनने के लिए है..
लेकिन मुझे वह पैंट इतनी पसंद है कि मैं तो बाहर भी पहन लेता हूं ...और सोचता हूं कि एक तरफ़ तो रफू की गई पैंट को पहनना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझा जाता है, दूसरी तरफ़ ये जो लोग कटी-फटी जीन पहन कर शान से अपने कूल (या हॉट?) होने की स्टेटमेंट दिए फिरते हैं, उन का क्या....पहली बार कुछ देखा टाइम्स में कि देश के किसी शहर के एक कॉलेज में (शायद यह बंगलोर की बात है, मुझे अच्छे से याद नहीं) यह नियम बना है कि डैमेज जीन पहन कर आना मना है ..शायद साथ में कुछ लिखा था ..आर्टीफिशियली डैमेज ..य़ानि जिन्हें खुद से काट-फाड़ कर डैमेज किया गया हो ...
कईं साल हो गए ..लखनऊ की बात है कि एक पांच छः साल का बच्चा आया मेरे पास आया था जिसने ऐसी ही एक कटी-फटी-चीथडे़-2 हुई जीन पहनी हुई थी ...उस की मां ने बताया कि यह इसी की जिद्द पर खऱीदी गई है...मैंने अभी तक उस से छोटे किसी बच्चे को इस तरह की डैमेज जीन पहने नहीं देखा है ..डैमेज जीन के बारे में बहुत से सोशल मीडिया स्टेट्स, वाट्सएप पर तस्वीरें या इतने चुटकुले अकसर दिख जाते हैं कि अब यह कोई नईं या अजीब बात नहीं लगती और देखा जाए तो लगे भी क्यों...हम होते ही कौन हैं किसी को भी पहनने-पचरने के नुस्खे बांटने वाले ...जो किसी को मुनासिब लगता है उसे पहनने का हक है...और रही पुरानी पंजाबी कहावत की बात ...खाईए मन भांदा, पाईए जग भांदा...(खाना वही चाहिए, जो मन को भाए...पहनना वही चाहिए, जो दुनिया को भाए) ...मैं इस कहावत के बिल्कुल ख़िलाफ़ हूं ...दुनिया कौन होती है जिस की वजह से हम लोग अपने पहनावे का कोई फ़ैसला लें। और हां, मैंने एक बात लिखी कि हम कौन होते हैं किसी को कहने वाले कि यह पहनो, यह न पहनो....और ख़्याल अभी यह भी आया कि कहने से होता ही क्या है... कौन सुनता है यार किसी की, और सुने भी क्यों।लिखते लिखते कईं बातें याद आने लगती हैं ...सोशल मीडिया पर तस्वीरें देखना अपनी जगह है, और रास्तों पर आते जाते लोगों को फटे-पुरानी जीन पहने देखना और किसी स्टोर पर ऐसे कपड़े बिकते देखना एक अलग एक्सपीरियंस है .....मैं अलग लिखा है, अच्छा, बुरा कुछ नहीं लगा...वैसे भी लिखने वाले का काम होता है आंखो-देखी को दर्ज करना ...बस।
दो तीन साल पहले की बात होगी मैं बच्चों के साथ ज़ारा के स्टोर पर गया तो वहां पर एक चीथड़े-चीथड़े हो चुकी एक टी-शर्ट देखी थी ...शायद 3500 रूपये की थी ..मैंने अभी तक लोगों को इस तरह से चीथड़े हो चुकी टी-शर्ट तो पहने कम ही देखा है ......लेकिन हां, हॉफ बाजू की कटी-फटी डैनम की डेमेज टी-शर्ट पहने तो देखा ही है ...बेटे के पास भी है एक ऐसी ही जैकेट है जो उसे बहुत पसंद है ...जब मैं इन को कहता हूं कि मुझे भी दिलवा दो एक डैमेज जीन तो हंसते हंसते कहते हैं कि हां, हां, क्यों नहीं ...कलर बताइए, आज ही चलिए। मैं सोचता हूं कि हंसते वे यह सोच कर होंगे कि बापू, यह बूढ़ी हड्डियों और घिसे हुए घुटनों वालों के शौंक नहीं हैं..
कल देर रात तक मैं अपने कपड़ों की अलमारी में रखे कपड़े ज़रा देख रहा था ...देख क्या रहा था, मैं अपनी सभी सफेद कमीज़ें अलग कर रहा था ...क्योंकि इतनी गर्मी में मुझे सफेद रंग ही पहनना अच्छा लगता है...मैंने देखा कि कुछ सफेद रंग के शार्ट कुर्तों की प्रैस खराब हो चुकी थी ..और कुछ गुचड़े-मुचड़े (सिलवटें) हुए पड़े थे... मुझे तभी ख्याल आया कि आज कल मैं कुछ लोगों को लोकल स्टेशनों पर देखता हूं जो बिना इस्तरी किए कपड़े पहने दिखते हैं...मैं सोचता हूं कि यह भी तो ठीक है ...इस्तरी करवाने के चक्कर में पड़ना ही क्यों ...हर किसी की कोई न कोई मजबूरी, शौक या अपना कोई स्टाईल या कोई नई फैशन स्टेटमेंट भी हो सकती है ...इस तरह से सिलवटों वाले कपड़े पहनना....जो किसी को अच्छा लग रहा है, पहन रहा है।
यह जो हम कपड़ों को इस्तरी करवाते हैं न मुझे तो यह भी बहुत अजीब सा लगने लगा है...पहले भी थोड़ा तो लगता ही था लेकिन इस कोविड-वोविड़ की महामारी के बाद तो ज़रूर ही लगने लगा है...क्या इस्तरी, क्या स्टीम-प्रैस, क्या ड्राई-क्लीन और क्या गुच्चड़-मुच्चड़ कपड़े ...सब यहीं के यहीं धरे रह गए...मुझे ऐसा लगता है कि ठीक है, हम अच्छे से प्रैस हुए कपड़े पहनते हैं, क्योंकि अकसर यह उस पेशे की भी एक मांग होती है जो काम हम कर रहे होते हैं...डाक्टर हैं तो मरीज़ एक उम्मीद करते हैं कि उसने ठीक ठाक से कपड़े पहने होंगे...और ठीक-ठाक से उस का क्या मतलब है, यह जानते हम सब कुछ हैं, लेकिन बस ऐसी ही अनाड़ी बनने का ढोंग करते हैं बहुत बार ..जब भी हमें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक पोशाक पहननी होती है...। अब वकील हैं, पुलिस वाले हैं, वे भी अच्छे से इस्तरी किए हुए साफ सुथरे कपड़े पहने ही अच्छे दिखते हैं...पुलिस का रूआब भी तो उन की वर्दी से है ...
लेकिन एक बात तो है ...दुनिया वुनिया तो वैसे ही एक ड्रामेबाजी है ...है कि नहीं...और इस में हर किरदार को उस के रोल के मुताबिक तो कपड़े पहनने ही होंगे ...यह ज़रूरी है ..लेकिन यह रोल एक दिन में कुछ घंटों तक ही तो महदूद होता है ..जैसे ही आप का दिन का वह वाला रोल पूरा हो जाए...उतार फैंकिए उस किरदार की पौशाक को भी, और पहन लीजिए जो कुछ भी आप के दिल को पसंद है, मैं भी ऐसा ही करता हूं.. ..मुझे यही लगने लगा है कि लोगों की छोटी छोटी खुशियां हैं ...कोई किसी को कुछ कहे ही क्यों और किसी की कोई भला सुने भी क्यों।
मुझे सच में नहीं पता कि कर्नाटक में कालेज के बच्चों की पोशाक को लेकर क्या चल रहा है ..क्योंकि मैं न तो खबरें ही सुनता हूं और न ही अखबार में इस तरह की खबरें पढ़ने का मेरे पास फालतू वक्त ही होता है ...बस, हिजाब के बारे में कुछ न कुछ चल रहा है ..कोई कह रहा है पहनना है, कोई कह रहा है नहीं। इस के बारे में भी सीधी सीधी बात तो यह है कि जो किसी को अच्छा लगे वह करे ..यह तो पहनावे का ही एक अंग है ...बाकी, इस तरह के मामलों में कोर्ट-कचहरी में जो गहरी,पेचीदा बातें होती हैं, वे सब मेरी समझ से थोड़ी नहीं, कोसों दूर हैं...समझ तो मैं भी सकता हूं अगर चाहूं तो ....लेकिन कभी इच्छा ही नहीं उस तरफ़ दिमाग़ लगाने की।
लिखते लिखते एक बात का और ख्याल आ गया...अकसर देखते रहे हैं कि रईस लोग या धनी लोगों के बच्चे कुछ भी पहन लें ..लोग एक्सेप्ट कर लेते हैं...फैशन है, ये लोग कूल हैं, कूल लोग ऐसे ही पहनते हैं....(कूल-हॉट मैं नहीं जानता-समझता, जब कभी समझ लूंगा तो लिख कर ब्यां कर दू्ंगा..) लेकिन मुझे इस बात से सख्त नफ़रत है जब मध्यम वर्ग या उस से भी थोड़ी कम हैसियत वाले लोगों के बच्चे (खास कर बच्चियां) फैशन के मुताबिक कपड़े पहनती हैं तो अड़ोस-पड़ोस वाले कईं बार तरह तरह की बातें करने लगते हैं...आप और मैं यह सब समझते हैं.....लेकिन मुझे इस बात से बड़ी तकलीफ़ होती है क्योंकि हर इंसान को सुंदर दिखने का, स्टाईलिश दिखने का ...कूल या हॉट स्टेटमेंट देते हुए कुछ भी पहनने का पूरा हक है .....है कि नहीं? और मैं आते जाते जब इस तरह के युवा-युवतियों को अपने मन-पसंद कपड़ों में, कईं बार बिना प्रैस किए हुए भी ...देखता हूं तो मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि वे अपने पहनावे के बारे में बहुत सहज हैं ..देखा जाए तो हों भी क्यों न.....हर एक की अपनी दुनिया है ....अपना फ़लक है, ..अपना कैनवस है मन-भावन रंग भरने के लिए।
अपने पेशे की मांग को छोड़ कर ...पहनावे से कुछ फर्क पड़ता है या नहीं पता नहीं, लेकिन पहनने वाले का दिल तो खुश रहता ही है ...जीन डैमेज है, पुरानी है, सैकेंड हेंड है, कपड़े प्रैस हैं या गुचड़-मुचड़े हुए हैं, कमीज़ कालर वाली है या बिना कालर वाली...पतलून ब्रांडेड है या नहीं, सूती है या टैरीकॉट की ...बूट 200 रूपये वाले ब्लू-स्टार के हैं या 6000 रूपये के स्केचर्स ...यह सब हर इंसान की हैसियत के ऊपर है ..एक गलती जो हम अकसर करते हैं वह यह है कि हम बहुत बार किसी के कपड़ों से उस का आंकलन ही करने लगते हैं ...लेकिन यह भी एक बीमारी है ...जैसे तुलना करना बीमारी है ...वैसे कपड़ों को देख कर किसी बंदे के बारे में अपनी राय बना लेना भी एक गलती है ...थोड़ा बहुत तो चलिए ठीक है, हम सब यह काम करते ही हैं. लेकिन इस पर ज़्यादा भरोसा करना बंद करिए, बहतु बड़ा धोखा खाएंगे ...ज़िंदगी के तजुर्बे से यह सब सीखा है, इसलिए लिख रहे हैं..
आज सुबह सुबह जल्दी जल्दी मैं क्या उठ गया...मैं यह सब लिखने में लग गया...बात सिर्फ इतनी सी है कि जो जिसे पसंद हो, वह पहने ...हम आज़ाद देश के बाशिंदे हैं...हमें हमारे संविधान ने बहुत से अधिकार दिए हुए हैं...उन में स्पीच का, एक्सप्रेशन का ..बोलने की आज़ादी वाला अधिकार भी तो है ....हम जो पहनते हैं वह भी तो एक तरह से एक्सप्रेशन ही है ...कानूनी ज़ुबान नहीं बोल रहा हूं, दिल की बात कह रहा हूं ..
जो भी है, कईं बार मैं भी ऐसी ऐसी बातेें लिखने लग जाता हूं कि लिखते लिखते मैं ही पक जाता हूं ..पढ़ने वालों का क्या हाल होता होगा...खुदा जाने .....कोशिश करता हूं एक अच्छा सा गीत लगा कर अब यहां से इसी वक्त उठ जाऊं... एक छोटी सी सीख के साथ....जिओ और जीने दो..ज्यादा नसीहतों के चक्कर में, सही गलत के नुस्खों में, मुनासिब, गैर मुनासिब के इश्तिहार मत बांटिए....सहज रहिए...बेकार के पच़ड़ों से दूर रहिए...और खुशी खुशी पहनिए जो भी अच्छा लगता है ...
हमारे अस्पताल में कार्यरत स्त्री रोग विशेषज्ञा ने आज एक बहुत प्यारे से गोबले-गोबले बच्चे की फोटो डाली जिस के बारे में उन्होंने बताया कि इस 4 किलो 600 ग्राम वज़न वाले नवजात शिशु का शुभागमन हुआ है ... और यह सिज़ेरियन से पैदा हुआ है ...
गोबले-गोबले से आप तो भई चक्करों में पड़ गए होंगे...पहले उस चक्कर का निपटारा कर लूं...दरअसल यह एक पंजाबी का ऐसे ही एक ऊट-पटांग लफ़्ज़ है ..खामखां किस्म का ...बस जैसे कईं लफ़्ज़ लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाते है ....हम लोगों ने बचपन से यही देखा, सुना कि जो शिशु मोटा-ताज़ा दिखता है, जिस के गाल मोटे मोटे पिलपिले से होते हैं उसे ऐसे ही कहते हैं कि यह बच्चा तो बड़ा गोबला-गोबला है .. और एक बात ज़ेहन में आ रही है कि ये जो गोबले गोबले बच्चे होते हैं, बिना किसी कसूर के भी इन के गालों की खिंचाई होती रहती है...क्यों? ...क्यों-व्यों का तो मुझे भी पता नहीं लेकिन यकीनन मैं भी इस तरह के गोबले शिशुओं के गाल अकसर खींचता रहा हूं ..जब दादी, नानी, मौसी, मामा, पड़ोसी ऐसे बच्चों के गाल खींचते हैं तो मैं कैसे इस काम से दूर रह सकता था....सच में इस तरह के गालों को छूते ही, गोली मारिए खींचने को...छूते ही मखमली रूई का अहसास होता था...यह जो मैं था लिख रहा हूं वह इसलिए कि यह काम हमारे ज़माने में तो हो जाता था ..फिर धीरे धीरे लोग कानून की धाराओं को जानने लगे ...छोटे शिशु के गालों को छूने से भी डर लगने लगा....
वैसे एक बात तो है कि यह जो पुराने ज़माने में एक रिवाज़ था कि जच्चा-बच्चा को सवा महीने तक दुनिया की नज़रों से दूर ही रखते थे ..देखा जाए तो यह भी ठीक ही था..क्योंकि उस दौरान बच्चे को इस तरह के छूने-चूमने से उसे कईं तरह के संक्रमण होने का डर तो रहता ही है ...इसलिए अभी भी शिशु रोग विशेषज्ञ इस बात की खास ताकीद करते हैं कि नवजात शिशु को ज़्यादा छूने, चूमने-चाटने से परहेज़ करें ...और यह बात है भी बहुत ज़रूरी।
खैर, हम तो बात कर रहे थे उस साढ़े चार किलो के उस्ताद की जिसने आज हमारे अस्पताल में पहली बार आंखें खोलीं...सच बताऊं हमें भी फोटो देख कर मज़ा आ गया...हां, वही गोबला-गोबला बच्चा, प्यारा-प्यारा...जैसे बाज़ार में बिकने वाले पोस्टरों पर दिखते हैं। खैर, फोटो देख कर हमारी एक अन्य साथी महिला चिकित्सक ने पूछा कि क्या इस की मॉम मधुमेह से ग्रस्त हैं...एक शिशु रोग विशेषज्ञ ने एक मज़ेदार टिप्पणी की कि यह तो छोटा भीम ही दिखाई दे रहा है ..
खैर, तभी उस महिला रोग विशेषज्ञ की अगली टिप्पणी आई कि यह संतानहीन मां-बाप की यह शिशु पहली औलाद है जो उन्हें बारह बरस के बाद नसीब हुआ है ...हमें बहुत अच्छा लगा..चलिए किसी के आंगन में किलकारीयां गूंजी....आगे लिखा था उस डाक्टर ने अभी बड़े आप्रेशन से अभी उसने उस बच्चे की डिलीवरी की ही थी कि प्रसूता कि तरफ़ से उसे सवाल सुनाई दिया ..लडका है या लड़की...और फिर अगला सवाल उन पर दागा गया कि काला है या गोरा! डाक्टर ने आगे लिखा था कि ...दिल मांगे मोर..
हमने भी टिप्पणी में लिखा कि इस बात पर तो पोस्ट बनती है ...आप लिखिए, वरना हम लिखेंगे....जैसा कि अकसर मेरे साथ होता है, मेरी बात को कोई रिस्पांस नहीं मिला...इसलिए मुझे तो अपना काम करना ही था, मैं यह पोस्ट लिखने बैठ गया...
कुछ पोस्टें, कुछ बातें किस तरह से हमारे दिलोदिमाग को झंकृत कर जाती हैं ...यह भी एक ऐसी ही पोस्ट थी ....और एक महिला डाक्टर ने उस बात को लिखा था तो उस का महत्व और भी बढ़ जाता है ...दरअसल हम जो बातें लिख कर सहेज रहे होते हैं, वही आने वाले वक्त का साहित्य है ....चूंकि साहित्य किसी भी समाज का आइना होता है ..तो आज से पचास सौ बरस बाद अगर आज का लिखा हुआ किसी के साथ लगेगा तो उसे आज के दौर के इंसान के मनोविज्ञान, उस की आंकांक्षांओं, सामाजिक परिवेश इत्यादि बहुत कुछ पता चलेगा....विश्लेषकों को तो ईशारा ही काफ़ी होता है ..
सच में जब मैंने पढ़ा दिल मांगे मोर ...तो मुझे भी बड़ी हंसी आई ...देखिए, पहले तो बच्चे के लिए लोग तरसते हैं....फिर अगर आधुनिक चिकित्सा पद्धति की वजह से, ईश्वरीय अनुकंपा की बदौलत आंगन में किलकारीयां गूंजती हैं पहली बात तो उन्हें उस के काले-गोरे होने की भी फ़िक्र है ...क्या काला, क्या गोरा..
बच्चे के जन्म के वक्त सब से पहले तो उस की पहली किलकारी होती है ...जिस को सुनने के लिए स्त्रीरोग विशेषज्ञ और कईं बार साथ खड़े शिशु रोग विशेषज्ञ के कान तरसते रहते हैं ...सच में हम लोगों की हसरतें लगातार बढ़ती रहती हैं....जिन के शिशु नहीं है, उन्हें शिशु की चाहत होती है ...फिर बेटे की चाहत, फिर कम से कम बेटों की एक जोड़ी हो जाने की हसरत ....बस, बात वही कि हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी..
चलिए, दुनिया जहां की बातें करते करते अपने घर की भी बातें कर लेनी चाहिए...हमारी श्रीमती की पहली डिलीवरी का वक्त था, 15 दिन पहले कोई अल्ट्रासाउंड हुआ ...कहने लगे कि हाइड्रोकैफलस है ...(शिशु में बड़े सिर का होना एक गंभीर समस्या होती है) ...दो तीन बार उन्होंने किया ...लेकिन अंदेशा यही था। हमारे भी पैरों तले से ज़मीन खिसक गई....लेकिन किसी के कहने पर किसी दूसरी जगह से अल्ट्रासाउंड करवाया गया...उसे लगा कि ऐसी कोई बात तो नहीं लग रही ...लेकिन इलेक्टिव सिज़ेरियन करवा ही लीजिए...अभी चाहे 10-12 दिन रहते हैं ...फिर भी करवा लीजिए..। एक दो दिन में सि़ज़ेरियन कर दिया गया...सब कुछ ठीक था, इतना ही पता चला तो जैसे सब की जान में जान आई....काला, गोरा, नयन-नक्श की किसी को नहीं पड़ी थी..
दूसरी डिलीवरी होने में अभी दो चार दिन थे कि अल्ट्रासाउंड में पता चला कि ब्रीच डिलीवरी है ...और शिशु के गले में गर्भ-नाल (एम्बिलिकल कॉड) - कॉड अराऊंड दा नैक ...है ...दूसरी जगह से भी अल्ट्रासाउंड करवाया तो उन्हें भी ऐसा ही लगा ...और वहां उस के क्लीनिक के बाहर एक पोस्टर टंगा हुआ था..Seek the will of God, Nothing More, Nothing Less, Nothing Else! इत्ता सा पढ़ लेने ही से मन को संबल मिला ....केवल इसी अंदेशा के चलते नार्मल डिलीवरी की जगह सिज़ेरियन तुरंत प्लॉन किया गया....ईश्वर की कृपा रही ..सामान्य प्रिज़ेंटेशन थी ....सब कुछ सामान्य था...कह रहे थे कि कईं बार कॉ़ड-अराउंड दा नेक अपने आप खुल भी जाती है ...खैर, वही बात है ..जाको राखे साईंयां..
अरे हां, मैं अपनी बात बतानी तो भूल ही गया जिसे मैंने कईं बार मां को अपनी सहेलीयों को सुनाते सुना....मां नहीं चाहती थी कि मैं पैदा ही होऊं...इसलिए मां दो-तीन महीने तक कुछ दवाईयां खाती रहीं ...लेकिन फिर भी मैं भी ठहरा ढीठ बंदा 😎...मुझे तो दुनिया में आना ही था...हार कर दो तीन महीने के बाद पड़ोस में रहने वाली मां की सहेली मिसिज़ कौल ने मां को समझाया कि अब, बस भी करो...छोड़ तो दवाईयां खाना, आने दो आने वाले जी को ...अपनी किस्मत लेकर आएगा.... (थैंक यू, कौल आंटी, मां को नेक सलाह देने के लिए...मुझे वह बड़ा प्यार करती थीं...अभी मैं बहुत छोटा था कि उस नेक औरत के दिल में छेद का डायग्नोसिस हुआ...तब कोई इतना इलाज नहीं था, कुछ ही वक्त के बाद चल बसी ...🙏) ....मां अकसर यह बात अपनी सहेलीयों के साथ हंस हंस कर किया करती थी....मां बहुत हंसमुख थी ...हंसती-खिलखिलाती ही दिखती थी ...। हां, एक बात यह भी कि मां अकसर यह बात मेरे जन्म से पहले इतनी दवाईयां खाने की बात तब किया करती थी जब यह बात कहीं चला करती थी कि आज तो गर्भवती महिलाओं की प्रसव से पहले इतनी नियमित जांच होती है ...इतने टॉनिक-विटामिन, कैल्शीयम दिए जाते हैं....लेकिन पहले वक्त में तो रब ही राखा था....यह मैंने क्या लिख दिया ..रब ही राखा था.......नहीं, रब ही हम सब का राखा है, था, और जब तक यह कायनात कायम-दायम है, वही हमारी राखा है, हमारे अंग-संग है ....मैडीकल उन्नति अपनी जगह है ...अच्छी बात है ...वैज्ञानिक नज़रिए से सब कुछ हो रहा है .....लेकिन बात जो बाणी मे दर्ज है वह यही है कि एक पत्ता भी इस परमपिता परमात्मा के हुक्म के बिना हिल नहीं सकता ....यह बात हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है ...ज़िंदगी आसान लगने लगती है ...😂 - मज़ाक अपनी जगह, आप को कहीं यह पढ़ कर ऐसा तो नहीं लग रहा कि काश! तुम्हारी मां जो दवाईयां ले रही थीं वह काम कर जातीं....हम तुम्हारी रोज़ की ब्लॉगिंग की टैं-टैं से तो बचे रहते ...ना होता बांस, न बजती बांसुरी ...
जाते जाते एक बात और लिख दूं कि काला हो, गोरा हो या हो भूरा...हर मां के लिए उस का बच्चा राजकुमार होता है ...और यही सब के खूबसूरत बात है ...बाकी सब बेकार की बातें हैं... भगवान कृष्ण भी तो सांवले ही थे ...और एक गाना भी तो है ...दिल को देखो चेहरा न देखो....चेहरों ने लाखों को लूटा...दिल सच्चा और चेहरा झूठा... हा हा हा हा ...एक बात और यह भी कि आज मैंने आप को एक पंजाबी के लफ्ज़ से वाकिफ़ करवा दिया....गोबला..गोबला....और एक दूसरा लफ्ज़ यह है पंजाबी का भब्बड़गल्ला.....यह उन छोटे शिशुओंं के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो मोटे ताज़े होते हैं ..और वही उन के गाल फूले हुए, एक दम मस्त ...जिन्हें आज के दौर में बंदा खींचे चाहे न खींचे, चाहे छुए भी न, लेकिन एक बार प्यार से उन्हें खींचने की तमन्ना तो ज़रूर होती है......पहले तो यह भब्बड़गल्ले कहीं कहीं कभी कभी दिखते थे ..क्योंकि दाल रोटी ही वास्ता रखते थे ...लेकिन जंक-फूड की भरमार से अब तो भब्बड़गल्ले जगह जगह दिखाई देने लगे हैं ....