मंगलवार, 29 मार्च 2022

पर-उपदेश

मिसिज़ खन्ना का सुबह का यह वक्त अपनी मां दुलारी के साथ बैठ कर गप्पबाजी करने का होता है ..वे दोनों एक साथ बॉलकनी में बैठ कर चाय का मज़ा लेती हैं...साथ में अखबार के पन्ने उलट लेती हैं...मिसिज़ खन्ना की माताश्री को एफ.एम सुनना भाता है ...अभी विविध भारती पर भूले-बिसरे गीत चल रहे हैं...

मिसिज़ खन्ना की माताश्री रेडियो, किताबों और क्रोशिए, पैच वर्क की दुनिया में मस्त रहती हैं...85 से ऊपर हैं लेकिन ईश्वर उन्हें बुरा नज़र से बचाए..अभी भी अपने सूट खुद सी लेती हैं...और अपनी नातिन नेहा के मशहूर फैशन-डिज़ाइनर होने पर खूब ठहाके लगाती है ...अब उसे फटी हुई जीन की तुपाई करने को नहीं कहतीं...वह ज़माने के तौर-तरीकों से वाकिफ़ हो चुकी हैं...लेकिन दुलारी को यह बात बहुत हैरान परेशान करती है कि नेहा को किसी ने कटिंग भी नहीं सिखलाई.....मिसिज़ खन्ना उन्हें कईं बार बता भी देती हैं कि ये सब काम करने के लिए मॉम उस के पास टेलर हैं न .. दुलारी हंस कर बात टालने में माहिर तो है ..लेकिन उस का दिल फिर भी नहीं मानता..

खैर, अभी भी तो मां-बेटी चाय की चुसकियां ले रही हैं...

रिंकी,  मुझे यह तुम्हारी ग्रीन टी बिल्कुल नहीं भाती...यह तो मुझे और सुस्त कर देती है ..और ऊपर से ये पैकेट वाले बिस्कुट....मेरे लिए वही नीलम बेकरी से ही बिस्कुट मंगवाया करो, और चाय भी अच्छे से उबली हुई पी कर ही मुझे चुस्ती आती है ...

ठीक है, मॉम, अभी दूसरी चाय भिजवाती हूं...बिस्कुट भी मॉम, आप की सेहत के लिए यही ठीक हैं...मैरी गोल्ड के ....

नहीं, रिंकी, अब और कितने दिन की मेेहमान हूं...जो अच्छा लगता है, वही खाना पीना पसंद है ...

बस, मॉम, आप की यही बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं...जब देखो, उम्र की बात करने लगते हो...लोग आज कल 100 साल के जश्न की प्लॉनिंग करते हैं और आप हैं कि ....अच्छा, मॉम, आप मुझे यह बताएं कि आप के कमरे में एस.सी के लिए बोल दूं...

नही, नहीं, रिंकी, तु्म्हे तो पता है मेरी हड्डियां तो वैसे ही दुखती रहती हैं ...मुझे तो पंखा भी देर रात बंद करना पड़ता है ...मुझे कभी हवा लेनी होती है तो मैं बॉलकनी में बैठ जाती हूं ...मैं तो तुम लोगों को भी कहती हूं कि इस नामुराद ए.सी से थोड़ा दूर ही रहा करो...यह सेहत के लिए ठीक नहीं ..

ठीक है, मॉम, आप सही कहती हैं...लेकिन यह तो आप देख रही हैं न कि इस मार्च के महीने में भी किस तरह से सूरज आग उबल रहा है ...अब हमारे शरीर इन सब चीज़ों के आदि हो चुके हैं, यह कहते हुए वह वहां से उठ खड़ी हुई ...क्योंकि आज उन्हें एक प्रोग्राम में जाना है ...वह वहां की की-नोट स्पीकर हैं ...उन्हें वहां एक प्रिज़ेन्टेशन भी करनी है ...

मिसिज़ खन्ना (मां के लिए रिंकी) के वहां से उठने के बाद दुलारी फिर से पुरानी यादों में खो गईं ..दुलारी को भी लगने लगा है कि वह वर्तमान से ज़्यादा अकसर गुज़रे दौर में टहलती रहती हैं। उसे मीरपुर के वे बचपन के दिन याद आने लगे जब उन का सारा परिवार गर्मियों के दिनों में छत पर चारपाईयां डाल कर सोते थे...ठंड़ी ठंडी हवा के झोंके, चांद-सितारों की चादर ओढ़ कर सभी सो जाते ...और सुबह कितनी ताज़गी महसूस करते ...

फिर देश के विभाजन के बाद वे सब लोग इधर आ गए ....दिल्ली में रहने लगे ...वहीं दुलारी की शादी हो गई ...मौसम खुशनुमा ही थी..हां, रात के वक्त कभी कभी गर्मी लगती तो सब लोग अपनी अपनी खटिया के एक कोने में एक हाथ की पक्खी रखने लगे थे ...कभी ज़रूरत महसूस होती तो हाथ से उसे दो मिनट चला लेते ...फिर कुछ सालों बाद पक्खी से काम न चलता तो आंगन में एक छोटी टेबल पर एक पंखा चला दिया जाता ...रात भर सब को हवा देता न थकता...और जब सुबह सुबह सब को उस की वजह से 
ठंड लगने लगती तो कोई न कोई उठ कर उसे बंद कर देता...

दुलारी को सब अच्छे से याद है ...नेहा दाद देती है नानी की फोटोग्राफिक मेमेरी की ...खैर, दुलारी को याद है फिर पंखे की हवा में भी जब लोगों को हवा न लगती तो आंगन में सोते वक्त एक कूलर किसी बड़ी सी मेज़ पर टिका दिया जाता ...कुछ साल काम चलता रहा ...लेकिन जैसे जैसे गर्मी बढ़ती गई ...उमस से परेशान होने लगते ..तो कूलर भी बेकार लगने लगता ...

फिर घर में एक ए.सी लग गया ....वाह...जैसे तैसे घर के सभी लोग उसी कमरे में ठूंसे रहते ख़ास कर रात के वक्त ....लेकिन धीरे धीरे जैसे घर के लोगों की प्राईव्हेसी की ज़रूरत बढ़ने लगीं....सब अपने अपने कमरों में अपने स्पेस में जाने लगे ...एक दो और कमरों में ए.सी भी लग गया...किसी विंडो ए.सी को निकाल कर स्पलिट ए.सी का रिवाज़ चल निकला ...क्योंकि इस से शोर-शराबा कम से कम घर में तो नहीं होता....फिर जब महिलाओं को किट्टी पार्टी में अपनी सखी-सहेलीयों को अपने बिना ए.सी वाले ड्राईंग रूम में बैठाने में अजीब सा लगने लगा तो धीरे धीरे बैठकों में भी ए.सी फिट हो गए...कुछ तो देखा-देखी, कुछ स्टेट्स सिंबल के तौर पर ....अब लगभग हर कमरे में ए.सी है...अकसर दुलारी यही सोचा करती है कईं बार बैठी बैठी कि अब इस के आगे बढ़ती गर्मी से टक्कर लेने के लिए लोग क्या करेंगे...

अभी दुलारी अपनी पुरानी यादों की संदूकची खोल कर बैठी ही थी कि उस के कानों में रिंकी की आवाज़ पड़ी ...मॉम, मैं ज़रा पार्लर हो कर आ रही हूं ...थोड़ा वक्त लगेगा...

ड्राईवर, तुम ने दूसरी गाड़ी का ए.सी ठीक करवाया कि नहीं अभी। 

हां, मैम, कल ही गाड़ी गैरेज पर छोड़ी है, तीन चार दिन लगेंगे ..

ठीक है, उसे कहो जल्दी करे, इतनी गर्मी में बिना ए.सी की गाड़ी के निकलना अपना दिन और मूड खराब करने जैसा है ..

ठीक है, मैम, करता हूं कुछ ...

मिसिज़ खन्ना पार्लर के अंदर चली गईं...और ड्राईवर ए.सी लगा कर किशोर कुमार के गीत सुनने लगा...

सेल्वी, यह फेशियल तो तुम बहुत अच्छा करती हो, लेकिन अपने इस पार्लर की कूलिंग का भी तो कुछ करो...कूलिंग बढ़ाओ भई, दम घुट रहा है, मिसिज़ खन्ना में वहां के स्टॉफ को फटकार पिलाई। 

मैम, क्या करें, गर्मी ही इतनी पड़ रही है...दो दो स्पलिट ए.सी लगवाने के बाद भी यह हाल है ...पता नहीं, यह गर्मी हमें कहां ले जाएगी...

रिंकी ने फेशियल तो जैसे-तैसे करवा लिया...लेकिन पार्लर का ए.सी ठीक न काम कर पाने की वजह से उस का मूड ऑफ था..न ही उसने थ्रेडिंग करवाई , न ही मनीक्योर, न पैडीक्योर ....बस, बालों की स्ट्रेटनिंग जो बेहद ज़रूरी थी, वह करवाई और वापिस घर लौट आई...रास्ते में एक जगह मटके बिक रहे थे तो ड्राईवर को कह कर एक मटका खरीद कर कार में रख लिया...दुलारी कितनी बार उसे कह चुकी थीं कि उस के कमरे की बॉलकनी में एक मटका रखवा दो क्योंकि दुलारी को फ्रिज का पानी भी नहीं सुहाता ...फ़ौरन उस का गला पकड़ा जाता है ...

घर आते ही मिसिज़ खन्ना अपने मेक-अप में लग गई, जो थोड़ा बहुत रह गया था ....क्या करे, कुछ सेमीनार होते ही ऐसे हैं....सब लोगों की निगाहें आप के ऊपर टिकी होती हैं ...आप ने क्या पहना है, आप कैसे दिख रहे हैं...यही सोच कर मिसिज़ खन्ना हर जगह अच्छे से तैयार हो कर ही जाती थीं...

दोपहर 2 बजे मिसिज़ खन्ना उस सात सितारा होटल में पहुंच गईं जहां पर वह सेमीनार था ...वाह, उस हाल की कूलिंग की बात ही क्या थी...लंच के बाद कुल्फी-जलेबी का आनंद लेते लेते स्वामीनाथन ने कहा कि सत्यार्थी तो कह रहे थे कि इस बार यह सेमीनार तो गांव में उन के आश्रम में ही होना चाहिए। 

"सठिया गये हैं, क्या सत्यार्थी जी....इतनी गर्मी में, इतनी उमस में ...हम सेमीनार में आए हैं कोई अत्याचार भोगने नहीं...अगर बोलने-बैठने में ही लोगों को दिक्कत होगी तो ब्रेन-स्टार्मिंग क्या ख़ाक होगी" कहीं पीछे से आवाज़ आई। 

खैर, चलिए, सैमीनार शुरू हुआ...मिसिज़ खन्ना की प्रस्तुति ने जैसे समां बांध दिया....ताली की आवाज़ से सारा हाल गूंज उठा...सब ने तारीफ़ की जिस तरह से मिसिज़ खन्ना ने अपनी बात को रखा...जिस तरह से उन्होंने आंकडे पेश किए और जिस तरह से रिसर्च के आधार पर सब बातें कह कर लोगों को सचेत किया...चाय ब्रेक के वक्त हर कोई मिसिज़ खन्ना की तारीफ़ों के पुल बांध रहा था..

खैर, हो गया सेमीचार अच्छा से हो गया... अगले दिन वही रुटीन ....मां के साथ चाय पीते वक्त मां ने अखबार के पहले पन्ने पर रिंकी की तस्वीर देखी तो वह खुश हो गई ...हैडिंग में लिखा था ...जानी-मानी पर्यावरणविद श्रीमति खन्ना का ग्लोबल-वार्मिंग पर प्रभावशाली व्याख्यान....इस में लिखा था कि श्रीमति खन्ना ने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के तरीके बताए....फ्लोरोकार्बन कम करने के फायदे बताए...एक कुदरती जीवन-पद्धति अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया....

दुलारी अभी पूरी न्यूज़-स्टोरी पढ़ ही रही थी कि चाय की चुस्की लेते लेते उस की हंसी ऐसी छूटी कि चाय उछल कर उस के गाउन पर छलक गई....

क्या हुआ, मॉम, बहुत हंसी आई आप को यह खबर देख कर ...

नहीं, रिंकी, कुछ नहीं, बस ऐसे ही , मां ने कहा। 

लेकिन रिंकी जानती थी कि मां की यह हंसी वह वाली हंसी नहीं थी, उस में कुछ तो अलग था ....क्या था, कटाक्ष था, थोड़ा व्यंग्य था, उपहास था ...उसे पता था कि मां अपने मुंह से कम ही कुछ कहती हैं, अपनी आंखों से बहुत कुछ कह देती हैं, फिर भी अगर कुछ छूट जाता है तो हंस कर कह देती है ...हर जज़्बात के लिए मां की हंसी मुख्तलिफ होती है ....रिंकी मां की हर हंसी का मतलब समझती है ...लेकिन जैसे मां कुछ नहीं कहती, वैसे ही वह भी चुप रहती है...लेकिन आज की खबर देख कर मां के अजीब से ठहाके ने मिसिज़ खन्ना को अपने आप से कुछ सवाल करने पर मजबूर कर दिया...

गुरुवार, 24 मार्च 2022

23 मार्च से जुड़ी चंद यादें...

कल 23 मार्च थी...रह रह कर हस्ताक्षर के नीचे तारीख़ लिखते वक्त फिरोज़पुर में बिताए अपने 6-7 बरस याद आ रहे थे...यह दिन होता था ...शहीदेआज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की अज़ीम कुर्बानी को याद करने का ...और इस दिन एक तरह से मेले की शक्ल में जनता हुसैनीवाला बार्डर पर पहुंचा करती थी..

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले..

वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा...

स्कूल की लाईब्रेरी में, अपने स्कूल के प्रिंसीपल के कमरे में, उस नाई की दुकान पर जहां हम हजामत करवाने जाते थे हर जगह में हमें भगत सिह और इन के साथियों की तस्वीरें दिखा करतीं....बहुत से लोगों के घरों मे भी गुरूओँ, पीर पैगंबरों के बीचो बीच आज़ादी के इस मतलावे की तस्वीर भी दीवार के किसी कील पर टंगी होती ...अब भगवंत मान ने यह फैसला किया कि सरकारी दफ्तरों में उस की तस्वीरें न लगाई जाएं...बल्कि बाबा साहेब डा. अम्बेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें लगाई जाएं...बहुत अच्छा लगा था उस दिन यह सुन कर और ऐसा होते देख कर भी...

भगत सिंह जैसे आज़ादी के मतलवाले के साथ मेरी मुलाकात एक किताब के ज़रिए हुई थी...मुझे जब पांचवी कक्षा में जिला स्तरीय मेरिट छात्रवृत्ति के लिए चुना गया तो डीएवी स्कूल अमृतसर के वार्षिक पारितोषिक वितरण उत्सव के दौरान मुझे तीन चार किताबें मिली थीं, उन में से एक थी ..शहीद भगत सिंह। उन दिनों घर में स्कूल-कॉलेज की किताबों के अलावा कोई किताब न होने की वजह से भी उन तीन चार किताबें में सारे घर की बहुत रूचि थी...मैंने तो उन को अच्छे से पढ़ा ही, मेरी मां ने भी उन्हें पढ़ा और हम दोनों पढ़ कर फिर उन के बारे में बातचीत भी करते थे ....तो, जनाब यह थी कि अपनी उस जांबाज़ से पहली मुलाकात..

बाद में जब हम बड़े हो गए तो यहां वहां अख़बारों में इन तीनों मतवालों के बारे में पढ़ते तो रोम रोम में ऐसे लोगों के जज़्बे के प्रति आदर की भावना पैदा होती...साथ साथ रेडियो टीवी पर भी इन के बारे में सुनते रहते....एक किताब के बारे में पढ़ा जो भगत सिहं जेल में पढ़ा करते थे ...वह किताब इंगलिश में थी, और उस की जिन पंक्तियों को भगत सिंह ने पढ़ते हुए पेंसिल से अंडरलाइन किया था, बाद में उस के ऊपर भी चर्चा हुआ करती थी...बाद में इन की जिंदगी के ऊपर बहुत सी फिल्में भी बनीं ...एक से बढ़ कर एक.....जो भी है, जिस तरह का बलिदान देश की आजादी के लिए इन वीर जवानों ने दिया वह कााबिले-तारीफ़ क्या, और किसी इनाम के काबिल क्या, इन के इस जज़्बे के आगे तो देश का एक एक बाशिंदा ज़मीन पर लेट कर नतमस्तक ही हो सकता है, इस के सिवा कुछ नहीं...अभी चंद रोज़ पहले एक खबर पढ़ी कहीं कि कुछ जगहों पर भगत सिंह को भारत-रतन जैसा कुछ अवार्ड देने की जब मांग हुई तो सरकार ने कहा कि उन का बलिदान देश के किसी भी अवार्ड से बहुत ऊंचा है ...यह बात पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। 


हां, मैं तो आप को सुबह सुबह हुसैनीवाला बार्डर लेकर जा रहा था ..मैं तो वहां पर साईकिल, स्कूटर पर भी बहुत बार हो कर आया ...यह जगह फिरोज़पुर छावनी रेलवे स्टेशन से महज़ 8 किलोमीटर की दूरी पर है ...इस जगह पर इन तीनों शहीदों की याद में एक स्मारक बना हुआ है ...और उस पर लिखा हुआ ङै कि यह वह स्थान है जहां पर इन तीनों शहीदों के पार्थिव शरीर सतलुज दरिया में अंग्रेज़ हुकूमत के द्वारा फांसी देने के बाद पानी में बहा दिए गये थे । हुआ यूं कि जो दिन इन तीनों की फांसी के लिए मुकर्रर था उस के एक दिन पहले ही इन्हें फांसी दे दी गई...क्योंकि फिरंगियों को यह अंदेशा था कि इन की फांसी के वक्त इलाके में बहुत बड़ा बवाल उठ सकता है ....फिरंगियों को जो ठीक लगता था उन्होंने किया ..लेकिन फिर भी इन की शहादत ने देश के बच्चे बच्चे के दिलोदिमाग में फिरंगी हुकुमत के लिए नफ़रत के ऐसे बीज बो दिए जो फिर आज़ादी की सुंदर बेल के रूप में ही पल्लिवत-पुष्पित हुए ....

हर रोज़ आस पास के जो लोग भी और बाहर से आने वाले टुरिस्ट भी जो हुसैनीवाला बार्डर को देखने जाते हैं वे सब शहीदेआज़म के स्मारक पर भी नतमस्तक हो कर आते हैं...मुझे वहां गये 15-16 बरस हो गये हैं ..लेकिन इस जगह को इस के बाद बहुत अच्छे से डिवेल्प किया गया है ...जिन दिनों हम वहां जाया करते थे वहां पर भगत सिंह की माता जी बीबी विद्यावती देवी की भी समाधि पर भी हम ज़रूर हो कर आते ....उन्हें पंजाब माता का दर्जा हासिल है, ज़ाहिर है कोई बड़ी बात नहीं ...सोच रहा हूं कि इस से ऊपर भी कोई दर्जा होता तो वह उस की भी हकदार थी ....लेकिन फिर ख्याल आया कि जब पंजूाब ने उस शेरनी को अपनी मां ही मान लिया तो फिर उस के ऊपर, उस से बढ़ कर क्या और रुतबा होगा ...किसी मां के रुतबे से ऊपर....🙏🙏🙏🙏🙏


भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत से जुड़े इस स्मारक जिस जगह पर बना है वहां पर हुसैनीवाला स्टेशन का खंडहर भी दिखाई देता है ...यह भारत की तरफ़ उत्तर रेलवे का आखिरी स्टेशन है ....1965 की भारत-पाकिस्तान की जंग के वक्त पाकिस्तान की तरफ़ से की गई गोलाबारी में यह क्षतिग्रस्त हो गया...और आज यह इतिहास के गवाह की तरह खड़ा है ...अभी तो वहां पर कुछ म्यूज़ियम भी बनाया जा चुका है या बन चुका है ..लेकिन जिस बात को मैं यहां लिखना चाहता हूं वह यह है कि फिरोजुपर से हुसैनीवाला बार्डर की तरफ़ अब ट्रेनें नहीं चलतीं..(हुसैनीवाला स्टेशन की दूसरी तरफ़ पंजाब का ज़िला है कसूर)....लेकिन 23 मार्च के दिन रेलवे प्रशासन द्वारा हर साल ट्रेनें चलती हैं जो लोगों को फिरोज़ुपर छावनी से लेकर हुसैनीवाला तक जाती हैं जहां पर यह स्मारक है ...और उन दिन इस ट्रेन के कईं फेरे लगते हैं...लोगों को ले कर जाने और वापिस लिवाने के लिए...मेरी भी बड़ी हसरत थी उस दिन गाड़ी में वहां तक जाने के लिए लेकिन वहीं बात कि ह़ज़ारों ख्वाहिशें ऐसीं कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ....

हां तो उस स्मारक पर नतमस्तक होने के बाद लोग फिर हुसैनीवाला भारत-पाक बार्डर पर परेड देखने जाते हैं...वहां पर बिल्कुल वाघा बार्डर जैसा मंज़र होता है ...परेड के वक्त जब दोनों देशों के जवान अपने अपने राष्ट्रीय ध्वज के सलामी करते हैं ...सैंकड़ों लोगों के हुजूम में ...इधर की तरफ़ भी, उधर भी ...फिरोज़ुपर में शहीदेआज़़म के स्मारक और इंडो-पाक बार्डर देखने के लोग बाहर से आए लोग भी इतने लालायित रहते हैं कि वे इन जगहों के दर्शन के लिए वक्त निकाल कर, प्रोग्राम बना कर ही आते हैं...मुझे याद नहीं कि हमारे फिरोज़ुपर में रहते कोई मेहमान हमारे यहां आया हो और हम उसे अपने साथ लेकर वहां न गये हों...2004 से पहले किसी आटो-वाटो में या मैं स्कूटर पर ही ले जाता था ...बाद में जब कार आ गई तो क्या बात थी....वहां जा कर पहले तो भगत सिंह और उस की साथियों और उन की माताश्री की समाधि पर नतमस्तक हो कर वे आत्मविभोर हुए बिना न रह पाते ..और इस के साथ शाम के वक्त होने वाली बार्डर पर परेड को देख कर देशभक्ति के जज़्बे से लबरेज हम लौट आते ...रास्ते में सोचते सोचते कि जिन वीर-बांकुरों ने इस लिए अपनी जानों की कुर्बानी दे दी कि हम आज़ाद देश में खुल कर सांस ले पा रहे हैं ...अब हमारी इतना तो फ़र्ज़ है कि हम ऐसा कुछ न करें जिस से उन की आत्मा को कोई कष्ट पहुंचे और इस आज़ादी पर कोई आंच आए, इस महान देश की अस्मिता के बारे में कोई भी संशय़ कर पाए...ऐसा कुछ भी न करने का जज़्बा लिए हम अंधेरा होते होते देर शाम अपने आशियानों की तरफ़ लौट आते ...

शुक्रवार, 18 मार्च 2022

कल रात खामखां हो गई अपनी धुनाई...

बंबई के लोकल स्टेशन का प्लेटफार्म -- बहुत भीड़, हर एक को जल्दी, इतने में अंधाधुंध चल रही किसी महिला का हाथ मेरे हाथ से छू गया...मेरी कोई गलती न थी, लेकिन जब वह रूक गई और मेरी तरफ़ गुस्से से देखने के लिए ज़रूरी गुस्सा अभी बटोर ही रही थी कि मैंने उस के आगे दोनों हाथ जोड़ दिए ...यही कि मेरा कोई कसूर नहीं ...लेकिन उसने तब तक मुझे बुड्ढे कह कर ज़ोर से एक या दो (अब वह याद नहीं) तमाचे मेरे चेहरे पर जड़ दिए....मुझे तब भी यही लगा कि अब यह बिना बात की बात यहीं पर खत्म हुई ...लेकिन नहीं जी, उस गुस्सैल औरत ने झट से अपनी जूती उतारी और मेरे सिर पर दो तीन दनादन मार दी ....लेकिन अब मेरा बर्दाश्त का मादा हो गया ख़त्म .......आगे क्या किया? .....मुझे पता है आप भी आगे का आंखों देखा हाल जानने के लिए मरे जा रहे हैं कि देखते हैं, इस साले की आगे क्या हालत हुई ...बड़ा लेखक बना फिरता है, हो गई न छित्तर परेड....(कुछ तो यह भी सोच रहे होंगे कि किया होगा इस ने कुछ न कुछ, यूं ही थोड़ा कोई हाथ में जूती उठा लेता है)...चलिए, आप जो भी समझना चाहें, समझते रहिए लेकिन आगे सुनिए....दो तीन जूतियां जैसे ही मेरे सिर पर पड़ी, जनाब, मेरी नींद टूट गई ...

जी हां, मुझे यह सपना कल देर रात या आज सुबह आया ..वक्त का मुझे पता नहीं, क्योंकि मैं इतना थका हुआ था कि सपना टूट गया ...सपने में हुई लित्तर-परेड (इस काम के लिए पंजाबी का एक ढुकवां लफ़्ज़) पर हैरानी या रोश दिखाने की भी फुर्सत न थी, मैं थका हुआ था...अब वैसे भी गर्मी हो गई है...सपना टूट गया, लेकिन मेरी नींद न टूटी...इसलिए आज अभी पौने नो बजे के करीब उठा हूं ...चाय पीते पीते यह सपना जब श्रीमती जी को सुनाया तो वह भी हैरान ...ऐसा सपना आप को !! आप को तो इस तरह का सपना नहीं आना चाहिए!!

जिस तरह के काम के लिए मेरी छितरोल हो गई ..,सपने में ही हुई चाहे...लेकिन इस तरह के जुड़े किसी भी काम के लिए मेरी रूचि अब इस उम्र में तो क्या होगी, तरुणावस्था और यौवनावस्था ही से हमें यही समझाया गया जो बात हमारे दिलो-दिमाग में बैठ भी गई कि नारी श्रद्धेय है जैसे कि महात्मा गांधी ने विदेश जाते वक्त अपनी मां को वचन दिया था ....(वैसे महात्मा गांधी का और मेरा जन्मदिन भी एक ही तारीख को है...2 अक्टूबर) ...

खैर, सपने तो सपने होते हैं ...लेकिन कईं बार हिला देते हैं...वैसे मेरे इस सपने के बारे में आप लोग भी ज़्यादा दिमाग पर ज़ोर न डालिए...और न ही किसी तरह के मनोविश्लेषण की ज़हमत ही उठाएं...कुछ हासिल न होगा...मुझे लगता है कल रात बांद्रा स्टेशन पर रात 10 बजे के करीब एर वाकया हुआ...जिसे मैंने देखा और कहीं न कहीं वही सपने में किसी दूसरी शक्ल में आ धमका। एक 20-25 बरस की युवती थी ...वह ऊंचा ऊंचा बोल रही थी, और किसी को कह रही थी कि तुमने मेरे मुंह पर इतना कस के थप्पड़ क्यों मारा, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ..अभी तक मेरे कान से गर्म हवा के साथ साथ खून निकलने लगा है .......खैर, वो दो औरतें थीं और दो मर्द, शायद वह स्टेशन के बाहर ही रहते थे ..मैं देख रहा था वह औरत स्टेशन के बाहर खड़े सिपाही के पास भी गई ...लेकिन उसने भी उसे स्टेशन से दूर रहने का इशारा कर दिया... लेकिन दूसरी औरत भी कुछ गालियां बके जा रही थी....माजरा कुछ समझ में आया नहीं ...मुझे यह देख कर बहुत बुरा लगा कि बंबई जैसी महानगरी में भी कुछ महिलाओं के हक-हुकूक कहां हैं ...सभी के हकों की हिफ़ाज़त तो होनी ही चाहिए...हर महिला एक सम्मान है ...किसी एक के हक किसी दूसरी महिला के हक से ज़्यादा ज़रूरी या कम ज़रुरी नहीं होते ...

कहां यह किताब, कहां वह सपना..😂
बस कल रात सोते सोते यही बातें दिल में चल रही होंगी ..चाहे किताबें तो मैं बहुत अच्छी ही पढ़ रहा था ...लेकिन फिर भी पता नहीं कल सपने में धुनाई होना जैसे मेरी तक़दीर में ही लिखा था...लेकिन हां, इस सपने को अपने ब्लॉग में दर्ज करना तो मेरे हाथ में ही था, मैं चाहता तो इसे न भी बताता...लेकिन एक लेखक का दिल माना नहीं ...दिल ने कहा कि अगर तुुमने इस का छिपा दिया...किसी भी वजह से ..तो मतलब लिखते वक्त तू अभी भी डरता है ..लिख दिया कर, जो घटित होता है ...किसी भी आंखोदेखी और ख़्वाब में देखी बात को लिख कर आज़ाद हो जाया कर...बेकार का बोझ क्यों उठाए फिरता है ..और स्टेशन पर तो तूं ही है जब लोगों को भारी भारी बोझ उठाए देखता है तो मन ही मन कितना हंसता है तू...फिर किसी तरह को बोझ अपने दिमाग पर रखने से क्या हासिल! 

दुनिया की तो ऐसी की तैसी ...कुछ तो लोग कहेंगे ........और जो तुम्हें जानते हैं, तुम से वाक़िफ़ हैं, उन्हें तुम्हारे बारे में और तुम्हें उन के बारे में सब पता होता है ...(वैसे न ही कुछ पता हो तो क्या फर्क पड़ता है, वे भी क्यास लगाते रहें तो भी क्या) ...और जो जानते नही हैं, उन से वैसे ही क्या फ़र्क पड़ने वाला है.....लेकिन हां, एक बात जो मैं ऊपर दर्ज करना भूल गया कि सपने में जिस वक्त मेरी जूती-परेड हो रही थी तो उस वक्त मुझे उस का दर्द कितना था, कितना न था, यह नहीं पता मुझे...क्योंकि मैं तो उस वक्त भी अपने आसपास यही देखने में मसरूफ था कि मुझे कोई पहचानने वाला तो नहीं ..और कोई वीडियो तो नहीं बना रहा ...खैर, यह वाक्या इतना लंबा चला नहीं...लेकिन मुझे इस बात की बड़ी राहत मिली कि जैसे कि बंबई की भीड़ के बारे में देखते-सुनते हैं ..यह भीड़ ही किसी ऐसे मनचले को वहीं के वहीं पेल देती है अच्छे से....लेकिन मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा ....आह! कितना सुकून मिला मुझे उस वक्त भी ...कि चलिए, बंबई की पब्लिक ने तो हाथ नहीं उठाया.....

चलिए, इस बात को यहीं विराम देते हैं ...हां, सपने की बात चली तो सपनों से जुड़ी कुछ बहुत ही खट्टी मीठी यादें उमड-घुमड कर आ रही हैं कि हमें भूल गए,...नहीं, भई, कुछ भी नहीं भूला ...सब याद है ..लेकिन लिखूंगा किसी दूसरी पोस्ट में ...क्योंकि यह पोस्ट लंबी हो रही है ..वैसे भी मेरे कुछ पाठक मुझे कहने लगे हैं कि डाक्टर साहब आप के लेख लंबे होते हैं...फुर्सत से पढ़ने वाले होते हैं...यकीनन वाट्सएपिया पोस्टों के इस्टैंट दौर में ये लेख तो लंबे दिखेंगे ही..

चलिए, अब आप होली मनाईए...शुभ दिन है ...मेरे लिए तो होली का मतलब यहीं तक है कि गुजिया और मिठाई खानी है, न मैं किसी को रंग लगा के राज़ी हूं और न ही मुझे पसंद है कि कोई मुझे रंग लगाए...अब जैसे हैं वैसे हैं...क्योंकि फ़िज़ूल में नौटंकी करता फिरूं उन लोगों के साथ जिन के साथ 364 दिन कोई वास्ता नहीं होता, कोई जान पहचान नहीं, कोई जीने-मरने तक की कोई सांझ नहीं ...और अचानक 365 वें दिन आप उन के साथ रंग गुलाल  खेलने लग जाएं....इस के बारे मे आप की राय अलग हो सकती है, लेकिन मेरी जो है, अब 60 साल की उम्र में वही रहेगी...बुरी या अच्छी, अब उम्र की इस दहलीज पर कोई परवाह नहीं होती (अगर किसी की जानिब से मेरा कुछ बिगड़ना बाकी रह गया हो तो सोचता हूं उसे भी बिगड़ी हालत में देख ही लूं, यह सोचता हूं अकसर)...मस्त रहिए... और जाते जाते खुशियों से भरा एक होली का गीत सुन लीजिए... पांच छः साल पहले हम लोग होली वाले दिल गोवा में थे, वहां के एक बीच के किसी होटल जैसी जगह पर यह गीत बज रहा था जिस की धुन पर फिरंगी थिरक रहे थे ...

होली है....बुरा मत मनाईए, अपने सपने को मैंने हु-ब-हू सच लिखा है, बिल्कुल सच ....सच के सिवा कुछ नहीं...लेकिन सपना तो ऐसा था कि मेरा सिर भारी कर के चला गया...अभी भी भारीपन चल ही रहा है...


और यह शोले फिल्म का होली वाला गीत भी बेहद पसंद है क्योंकि इसे सुनते हुए मुझे वही 45-50 साल वाले दिन - 1975 का दौर रह रह कर याद आने लगता है ...इस तरह के गीत देखते-सुनते वक्त यही समझ में ही नहीं आता कि काबिलेतारीफ़ दरअसल है कौन...हीरोईन, हीरो, या एक्सट्रा आर्टिस्ट, निर्देशक, नृत्य-निर्देशक, गायिका, इस तरह के गीत लिखने वाला, संगीत निर्देशक...किस की तारीफ़ करें, किस की न करें.....असल बात यह है कि ये सभी लोग काबिले-तारीफ़ हैं क्योंकि अगर इन में से एक ने भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से न किया होता तो इस तरह का शाहकार रचा न जाता ....सुनिए, आराम से सुनिए....और जाइए...जिस किसी को रंग मलना-मलाना है, उस काम से भी फ़ारिग हो आइए.....हम भी लगाते थे आपस में जब तक मां थी, घर में सब उन के चेहरे पर रंग लगाते थे तो वह बहुत हंसती थी ...कहती थीं कि शगुन तो करना ही चाहिए....बस, जब से मां गई काहे के शगुन...काहे का फागुन....😎


छपते छपते ....जिन दिनों हम छोटे थे तो अखबार के किसी कोने में एक जगह रहती थी ..छपते छपते...इस का मतलब होता था कोई ताज़ा तरीन खबर जिसे बस मुख्तसर सा लिख दिया जायेगा क्योंकि वह अभी ही मिली है। तो इस पोस्ट को बंद करने के दो तीन घंटे बाद मैं भी उस छपते-छपते वाले अंदांज़ में लिख रहा हूं ..कि येप्टो से कुछ सामान मंगवाया था...लेकिन उन की तरफ़ से एक होली का गिफ्ट हैंपर भी मिला है ...जिस में कोल्ड-ड्रिंक्स के साथ साथ गुलाल का एक पैकेट भी था....ज़ाहिर है हम ने भी उस गुलाल का सही इस्तेमाल कर लिया है ...शुक्रिया, तुम्हारा भी ...येप्टो....अब हम तो कहां जाते रंग वंग खरीदने ...आपने हमारी होली में भी रंग भर दिए... 🙏

शनिवार, 12 मार्च 2022

फ्रिज के नफे-नुकसान - 3. हमारे घर में फ्रिज आने के बाद

मैंने भी टॉपिक इस बार ऐसा चुन लिया है कि ख़त्म ही नहीं हो रहा...मुझे बोरियत भी तो बहुत जल्दी होने लगती है...चलिए, यह इस टॉपिक की आखरी कड़ी है...अभी सोच रहा था कि मैं यह सब लिख क्यों रहा हूं, अपने आप से यूं ही पूछ बैठा तो दिल ने वही जवाब दिया कि गुज़रे दौर के वक्त की कुछ बातों को अपनी यादों की संदूकची में सहेज कर रखना होता है ...कोई पढ़े न पढ़े यह उस का मसला है लेकिन जब तुम खुद इसे पढ़ोंगे तो वे सारे दिन तुम्हारी आंखों के सामने आ जाएँगे..वैसे भी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ तो लिख कर जाना चाहिए...उन्हें यह भी तो पता चलना चाहिए कि लोग जीते कैसे थे, उनमें कितना सब्र था, कैसे मिलजुल कर रहते थे ..वगैरह वगैरह ....और हां कितना ही साधारण लिखा हुआ हो (जैसा कि मैं लिखता हूं, मुझे इस बारे में कोई ख़ुशफ़हमी नहीं है) आने वाले वक्त के लिए वह दस्तावेज़ ही होता है ...अभी हमें लग सकता है कि यार, यह भी क्या लिखनी वाली बाते हैं....लेकिन किसी को कुछ भी लगे ...लेकिन सच्चाई तो यह है कि दिल की बातें कागज़ पर लिख कर खुले बांटने से लिखने वाला आज़ाद हो जाता है ...जब इस तरह का बोझ दिल से उतरता है तो उस से जो राहत मिलती है, यह वही जानते हैं जो बिना किसी बात की परवाह किए बिना लिख देते हैं दिल की तहों में बैठी हुई बातों को ...

पढ़ने वालों को कुछ पता नहीं कि लिखने वाले के साथ क्या बीती, उसने जैसे तस्वीर पेंट करनी है, पाठकों ने उसे ही तो पढ़ना है, उन के पास लिखने वाले की बातों को तसदीक करने का कोई ज़रिया भी तो नहीं...जैसे कि अगर मैं यह बात न लिखूं कि हमें हमारा पहला फ्रिज हमारे चाचा ने 3800 रूपये में दिलाया था...1976 में तो पढ़ने वालों को इस तरह की बातें कहां से पता लगेंगी...लेकिन अगर मैं सच सच बात नहीं कहूंगा तो फिर यह सब लिक्खा-पढ़ी का फायदा ही क्या, चुपचाप मुझे भी सुबह सुबह नेटफ्लिक्स खोल कर बैठ जाना चाहिए...वह मेरी सेहत के लिए बेहतर होगा इस की तुलना में कि मैं झूठ को दबा दूं और या बातों पर सच को ही तोडता मरोड़ता फिरुं...

हां तो सुनिए जनाब हम लोगों के यहां 1976 की गर्मियों के दिनों में फ्रिज आ गया...मैं आठवीं कक्षा में था, हम अमृतसर में रहते थे और यह केल्वीनेटर का फ्रिज हमें चाचा ने भिजवाया था...केल्वीनेटर का फ्रिज था ..शायद यही 165 लिटर का था ...अमृतसर की किसी दुकान से नहीं, दोस्तो, यह सीधी दिल्ली से हमारे यहां आया था...

ऐसा क्या कारण था कि फ्रिज हमारे यहां पर पहुंच गया...उस का कारण जो उन दिनों हमारे कानों में पड़़ा था आप भी सुन लीजिए...बहन की शादी दिसंबर 1975 में हो गई थी, वह मेरे से दस साल बड़ी हैं...अब हमारे सगे-संबंधियों को लगने लगा कि जम्हाई राजा आएंगे तो घर में फ्रिज तो होना ही चाहिए। वैसे भी घर के जम्हाई राजा के घर में फ्रिज था और ज़ाहिर सी बात है उन्हें उस की आदत तो होगी ही..। हां, एक बात और याद आ गई, फ्रिज का होना घर में एक स्टेट्स सिंबल हुआ करता था उस दौर में ...रिश्ते तय करते इस बात का भी ख्याल रखा जाता था ...मामा के भिजवाए उस पोस्ट कार्ड को मैं कैसे भूल सकता हूं...मैंने खुद पढ़ा था ...बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं, मैं उदास था मन ही मन में कि बहन इतनी दूर चली जाएंगी...खैर, पिता जी ने अजमेर के पास रह रहे मेरे मामा जी को चिट्ठी लिख भेजी कि ऐसे ऐसे रिश्ते की बात चल रही है, जयपुर जा कर लड़के का घर-बाहर देख कर आ जाओ, फिर देखते हैं, फैसला करते हैं। तो ली, मामा का पोस्ट कार्ड मिल गया...हो आया हूं, जीजा जी, उन के घर। कोठी भी ठीक है और घर में फ्रिज भी पड़ा है। चलिए जी, बात पक्की हो गई।

हां तो इस के बाद 1976 में हमारे यहां फ्रिज आ गया...बड़ा रोमांचक मंज़र था घर में फ्रिज का आना...किस तरह से एहतियात से उस की पैकिंग खोली गई...कुछ कुछ याद तो है ...अरे वाह, बर्फ जमाने का जुगाड़ भी, और सब्जी-अंडे ऱखने का प्रावधान भी, अब आम ठंडे कर हम तक पुहुंचेंगे ...और कांच की बोतलों में ठंडा ठंडा पानी पिएंगे...मुझे याद है अच्छे से हमें ..नहीं मुझे (दूसरों के दिल की वे जानें) तो ऐसे लग रहा था जैसे हमारे यहां कोई बड़ी खतरनाक चीज़ आ गई है जिस की हिफ़ाज़त अब करनी होगी..आस पास के घरों के कुछ लोग तो देखने आए थे ..खास कर के बीजी की सहेलीयां ... सच में बड़े प्यार से रहती थीं सब के साथ...मैंने कहा न कि हमें मारना तो दूर, हमने उन्हें ज़िंदगी में अपने मोहल्ले में किसी के साथ उलझते नहीं देखा..हरेक के साथ मिल जुल कर रहतीं...खैर, अब उस का इस्तेमाल होने लगा ..मुझे इस वक्त ख्याल आ रहा कि उस फिज ने हमारी तो क्या हमारे अड़ोस-पड़ोस वालों की भी ज़िंदगी बदल दी...शुरू शुरू में कोई बर्फ जमाने के लिए पानी से बड़ा बर्तन दे जाता, कोई पानी ठंडा रखने के लिए प्लास्टिक की कैनी दे जाता ..उन्हें बस इतना कहना पड़ता कि इतनी बड़ी कैनी इस के अंदर आ नहीं पाती, छोटी ले आइए...हां, मुझे अच्छे से याद है कि कोई गूंथा हुआ आटा जो बच जाता उसे एक बर्तन में डाल कर दे जाता फ्रिज में रखने के लिए....कभी कभी कोई फ्रीजर में आईसक्रीम जमाने के लिए दे जाता ....लेकिन आस पास के तीन-चार घर ही थे जो ये सेवाएं लेने आते थे ...

इस वक्त सोच रहा हूं कि अब यह दौर है जिस बिल्डिंग में रहता हूूं किसी से बोलचाल तो दूर एक बंदे को भी शक्ल से नहीं जानता किसी के मरने-पैदा होने तक की कोई सांझ नहीं है...वक्त बदल गया है, पहले लोगों में सहनशीलता बहुत थी..छुपाने को था ही नहीं..अब हर कोई अपनी स्पेस के लिए पागल हुआ फिर रहा है ...अब देखिए कि फिज में इस तरह से चीज़ें ऱखने आना,फिर लेने आया, फ्रिज वाले रईसों का हंसते हंसते यह सब काम करना, हरेक के बर्तन का ख्याल रखना कि किस का कौन सा है .....खैर, कईं बार हमें घर में बैठे यह हंसी भी आने लगती कि यार, यह तो यार काम बढ़ा लिया...लेकिन मां-पिता जी के चेहरों पर इस तरह का काम बढ़ जाने की वजह से कोई शिकन न देखी...जब कभी फिज में जगह न होती तो उन्हें किसी को ऐसा कहना भी अपराध-बोध करवा जाता ..हम सब देखते थे ..

खैर, हमारे भी मज़े हो गए..पानी फिज का मिलने लगा..मटकों को हम भूलते चले गए....उस का हमें अब कभी ख्याल भी न आता ...घर में बनी आइसक्रीम भी खाने को मिलने लगी, वाह, क्या स्वाद था उस का..और कस्टर्ड-जैली तो खूब बनता था पहले भी..लेकिन अब तो फ्रिज में ठंडा किया हुआ मिलने लगा...आम....खरबूज़े...मैं नहीं जानता कि वे किस ख़ालिस होते होंगे कि फ्रिज खोलते ही उस के अंदर से जो ठंडी ठंडी, मीठी महक आती तो हम जैसे कश्मीर की ठंडी वादियों का ही आनंद ले लेते...

जैसे कि हर नई चीज़ के साथ होता है,...धीरे धीरे, कुछ ही दिनों में लोगों का अपना बचा हुआ आटा, सब्जी, पानी, आईसक्रीम फ्रिज में रखने के लिए आना कम होता चला गया...शायद कुछ और पड़ोसीयों के घर में फ्रिज उनकी भी दुनिया बदलने आ गया...

लेकिन फ्रिज वाले घर में भी शेखी इस बात की भी बघारी जाती कि कुछ बाशिंदे फ्रिज का ठंडा पानी नहीं पीते, क्योंकि यह उन का गला पकड लेता है, लेकिन पिता जी जब कभी देर शाम या रात के वक्त एक दो लवली पैग मारते फ्रिज से निकले आईसक्यूब डाल कर तो मुझे बड़ा अच्छा लगता ...वे उस गिलास में जिस अंदाज़ से दो चार आईस के क्यूब बड़े इत्मीनान से फैंकते, वह देखना ही मुझे पसंद था ..चाहे वह काम मैंने अब तक की ज़िंदगी में एक बार नहीं किया ...कभी इच्छा ही नहीं ...खाने-पीने वाले सारे खानदान में मैं ही कैसे बच गया..मुझे भी पता नहीं ..मेरी मां से मेरी चाचीयां हंसते हंसते कभी कहतीं कि बहन जी, यह कौन सा धर्मात्मा पैदा कर दिया आप ने ....मां भी कह देती कि जब यह होने वाला था तो मैं रामायण खूब पढ़ा करती थीं, उसी का असर होगा... हा हा हा हा हा हा ...

यहां यह लिख दूं कि मुझे कभी भी दारू पीने की इच्छा नहीं हुई क्योंकि पैथोलॉजी की हमारी प्रोफैसर हमे ंइतना अच्छा पढ़ाती थीं कि क्या कहूं ...यही कोई 18 साल की उम्र रही होगी...एक दिन वह लिवर पर अल्होकल से होने वाले दुष्प्रभाव हमें समझा रही थीं, उन की पैथोलॉजी....बस, उस दिन यह फैसला हो गया कि यह चीज़ तो छूने लायक नहीं है ...और नहीं छुई...घर में भी सब को मना करता था लेकिन कभी किसी ने नहीं मानी..खैर, उस पिटारे को अभी बंद रखते थे, बाद में कभी इच्छा हुई तो उसे भी खोल बैठेंगे, लेकिन अभी तो फिज वाला पिटारा तो समेट लें पहलें...

हां, तो फ्रिज का मज़ा ले तो रहे थे लेकिन मुझे नहीं याद कि कभी मां ने उसमें रखे हुए आटे की रोटी हमारे लिए बनाई हो या कोई बासी सब्जी हमेंं खिलाई हो, सच में मैं पूरी ईमानदारी से इस बात को यहां दर्ज कर रहा हूं कि मुझे नहीं याद, लेकिन इतना पक्का है कि हिंदोस्तान की हर मां जैसी ही तो थी, खुद खा लेती होगी...हमें कहां उस वक्त इस बात की यह फ़िक्र थी कि किसने बासी खाया और किसने ताज़ा..हम अपने नशे में चूर थे....पढ़ने-लिखने-उछल-कूद वाले सुरूर में...

हां, एक बात तो लिखनी भूल गया ...जब फ्रिज आया तो उस के नीचे एक चौकी भी आई थी शायद ...अच्छे से याद नहीं है ..लेकिन फ्रिज को शुरू शुरू के कुछ महीने तो बड़े संभाल कर इस्तेमाल किया जाता रहा। उस में एक चाभी भी लगती थी लेकिन उस ताले को लगाने का तो कोई मक़सद हमें नहीं लगा...हां, एक बात और जब कभी फ्रिज का बल्ब फ्यूज़ हो जाता तो बड़ी सिरदर्दी सी हो जाती ..खैर, उसे तो बदलवा ही लिया जाता ...और हां, अमृतसर की हमारी कॉलोनी में बिजली भी तो कितने कितने समय तक गुल रहती थी ...पानी ठंडा पीने को नहीं मिलता था, एक बात ..लेकिन बर्फ भी नहीं जम पाती थी और जम थोड़ी बहुत जमी हुई होती वह पिघल जाती ...

हां, यह वह दौर था जब फ्रिज के ऊपर प्लास्टिक का एक रेडिमेड कवर भी डाल कर रखा जाता था ताकि उसे ज़्यादा दाग-धब्बों से बचा कर रखा जा सके... ताकि मैल न जमने पाए उस पर ...अभी यह वाक्य लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि फ्रिज के हेंडल के लिए भी तो एक अलग कवर हुआ करता था ताकि घी वाले हाथ उस के हेंंडल पर न लगें...और फ्रिज में बर्फ जमाने के लिए उन दो एल्यूमीनियम की ट्रे के अलावा किसी भी स्टील के डिब्बे में, छोटे पतीले में बर्फ जमा लेते थे ...उस सारी बर्फ को एक केंटर में डाल कर पानी भर लेते थे ..सारा दिन वही पानी पिया जाता ..क्योंकि तब तक इतनी अकल आने लगी थी कि यह बार बार कांच की, प्लास्टिक की बोतलें फ्रिज में रखना, निकालना, और भरना ...भी एक छोटी मोटी सिरदर्दी तो थी ही ..और यह सिरदर्द घर की गृहिणी के हिस्से ही आता था ...इसी बात पर मन ही मन हिंदोस्तान की हर गृहिणी के लिए तालीयां बजा दीजिए....यह अद्भुत है...सच में अद्बुत ...जिसे बस दूसरों के लिए ही जीना आता है, कभी अपना ख्याल नहीं रखा, न खाने का, न पहनने का ...जिस वक्त देखो चक्की की तरह पिसती रहती है ...वैसे यह कोई सेलिब्रेशन की बात भी नहीं है ..यह बदकिस्मती भी है एक तरह से ...जो सारे कुनबे को पाल देती है ...और किसी के पूछने पर इतनी सहमी-सिमटी सी कह देती हैं कि हम तो गृहिणी हैं, किसी काम की नहीं है........नहीं, यही सोच बदलने की ज़रूरत है ... इसीलिए मुझे ये जो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विवस भी कॉस्मेटिक सी बातें लगती हैं...दुनिया की नहीं तो कम से कम इस मुल्क की हर औरत की ज़िंदगी भी कुछ बदले तो बात बने ...चलिए, यह तो एक बिल्कुल अलग मुद्दा है ..छोडिए...

हां, अब यह निबंध लिखते लिखते मुझे यह लगने लगा है कि इस की एक किश्त और होनी चाहिए...अभी तक आपने पढ़ा कि हमारे यहां फ्रिज तो आ गया, किस हालात में आया, उसने हमारी और आसपास वालों की ज़िंदगी कैसे बदल डाली, मैंने आप के सामने उतना दिल खोल दिया जितना डाक्टर त्रेहन कहते हैं...लेकिन फिर भी ज़िंदगी इतनी भी न बदली फ्रिज की वजह से क्योंकि उसमें पानी, छाछ, बर्फ, दूध, घर का तैयार किया हुआ मक्खन, और एक दो मौसमी फल रखने के अलावा कुछ था ही नहीं ...क्योंकि इतना ही खरीदने के पैसे थे, बाकी अऩाप-शनाप खरीदोफ़रोख्त को हम जान भी पाते तो कैसे जान पाते ....उस के लिए पैसे चाहिए होते ...लेकिन आज सोच रहा हूं कि यही हमारी खुशकिस्मती थी बेशक ...क्योंकि इसी के रहते हमने सुथरा खाया, सेहतमंद खाया, ताज़ा खाया हमेशा और वही आदतें हमेशा के लिए हमारे साथ हो लीं... 

अब एक बार फिर आप के सामने हाज़िर हो कर यह बताऊंगा कि यह जो केल्वीनेवर फ्रिज हमारे यहां 1976 में आया ..यह कैसे 25-30 बरस तक हमें अपनी सेवाएं देता रहा ....मां पिता जी के पास रहा ...और कैसे फिर उस के बाद हमारे पास इतने पैसे हो गए कि हम लोगों ने अपने फ्रिज को एक स्टोर बना दिया, हम उसमें दुनिया भर की चीज़ें ला ला कर रखने नहीं, ठूंसने लगे, एक चीज़ रखते तो दूसरी गिर जाती 😂😂...जी हां, इस के बारे में बातें अगली पोस्ट में ...हमारे एक बहुत वरिष्ठ अधिकारी ने मेरी पिछली पोस्ट में यह लिख भेजा कि सच में अब तो फ्रिज को हम लोगों ने स्टोर ही बना दिया है ...उन्होंने बिल्कुल सही फरमाया....अब इस आधुनिक स्टोर पर तो एक पोस्ट लिखनी बनती है कि नहीं, मित्तरो.....बनती है 😄😄😄😄..बेशक बनती है .. 

अब गाना कौन सा सुनाऊं आप को ...अपनी पसंद का तो रोज़ सुनाता हूं...चलिए, आज मां की पसंद का सुनते हैं...मैं बहुत छोटा था तो एक दिन मां अपनी सखी-सहेलियों के साथ तलाश फिल्म देख कर आई ..कईं दिन तक मां उस फिल्म की तारीफ़ करती रही...बलराज साहनी के किरदार की, शर्मिला टैगोर के रोल की तारीफ़ ....बहुत बरसों बाद भी जब हम पूछते कि बीजी, आप बताओ आप को कौन सा गाना पसंद है तो वह उसी फिल्म तलाश का वह गीत याद करतीं....लीजिए आप भी सुनिए... वैसे तो दस लाख एक फिल्म आई थी जिस का गाना था, गरीबों की सुनो, वह तुम्हारी सुनेगा, तुम एक पैसा दोगो वो दस लाख देगा....यह भी गाना मां को बहुत अच्छा लगता था ... 

शुक्रवार, 11 मार्च 2022

फ्रिज के नफ़े-नुकसान - 1. घर में फ्रिज आने से पहले वाला दौर

परसों से यह निबंध लिखना शुरू किया है ..लेकिन भूमिका ही इतनी लंबी हो गई कि वहीं छोड़ दिया ...यह गुस्ताखी इसलिए कर पाया कि अब हिंदी के मास्टर साहब की ठुकाई का डर नहीं है ना इसीलिए...वरना विशंभर नाथ मास्टर जी मुंह से कुछ कहते नहीं थे, भरी क्लास में अपने पास बुला कर कमबख्त कान ऐसे मरोड़ देते थे कि मुझे तो नानी याद आ जाती थी ...लेकिन यह जो आप मेरा जितना भी थोडा़-बहुत हिंदी का ज्ञान देखते हैं न, यह उन से डरने का ही नतीजा है ...तो हम लोगों की ज़िंदगी में डर की इतनी अहमियत हुआ करती थी...

परसों सुबह निबंध की भूमिका लिख डाली...शाम को बहुत थका हुआ था ..पता नहीं क्यों, रात 10 बजे के करीब निबंध की अगली किश्त लिखने लगा तो भी थका थका सा था, जम्हाईयां आ रही थी ..अपने आप से कहा, क्या यार, लिखना ही है, लिख लेना, ब्लॉगिंग से तुम्हें हासिल ही क्या हो रहा है ...इस वक्त लिखने का मन नहीं है, सो जाओ चुपचाप चादर ओढ़ कर ..जो तुम ने लिख कर झंडे गाढ़ने हैं, तड़के गाढ़ लेना...

लेकिन कल सुबह भी उठा तो एसिडिटी सी लग रही थी ...मुझे एसिडिटी से इतना डर नहीं लगता क्योंकि मेैं कभी भी ऐसा वैसा कुछ खाता ही नहीं हूं ..लेेकिन फिर भी जो एसिडिटी के साथ सिर दर्द होने लगता है न, यह मेरा सारा दिन खराब कर देता है ..तो मैंने सोचा कि जैसा कि मेेरे साथ होता है, मैं जब आधा-पौन घंटा टहल आता हूं तो अच्छा लगने लगता है ...कल भी टहलने निकल गया..जॉगर्स पार्क की तरफ़....बहुत अच्छा लगने लगा ...मैंने एक बेंच पर बैठ कर सोचा कि मेडिटेट करता हूं ...अभी 10 मिनट ही हुए होंगे कि टांग के साथ कोई जानवर आ टकराया, आंखें खुल गईं ....लेकिन अचानक इस तरह मेडिटेशन होते हुए आंखें खोलना बहुत कष्टदायी होता है ...देखा तो एक छोटी सी, प्यारी सी बिल्ली मौसी थीं ...लेकिन मेरा तो सिर फिर से वैसे का वैसा हो गया...बची खुची कसर दो बुज़ुर्गों को पार्किंग में लडाई नुमा बहस करते देख कर पूरी हो गई ..सिर फिर वैसे का वैसा ..हार कर घर आने कर, डिस्प्रिन की एक गोली पानी में घोल कर लेनी ही पड़ी ...कुछ वक्त बाद सोचा कि आज नाश्ता माटुंगा(मध्य रेल) स्टेशन के बाहर उस सब से पुरानी, मशहूर और लाजवाब दुकान पर ही किया जाए....वहां जा कर इडली, साबूदाना वड़ा और बढ़िया सी कॉफी पी तो जैसे जान में जान आई...

ये ऊपर के तीन पैराग्राफ हम ने खामखां लिख दिए...चलिए, मुद्दे पर आते हैं...मुझे आज फ्रिज के घर आने से पहले वाले दौर से जुड़ी यादों को इस निबंध में समेटना है ...

सच सच बताऊं तो आठ-नौ साल की उम्र तक तो हमें पता ही नहीं था कि फ्रिज होता क्या है...सच में ..लेकिन धुंधली धुंधली यही याद है कि जब कभी गर्मी के मौसम में शाम के वक्त मां ने रूह अफ़ज़ा, शिकंजी, सत्तू, दूध में डाल कर बंटे वाली बोतल का सोडा (जो दूध को गुलाबी कर देती थी) या स्कवैश हमारे लिए तैयार करनी होती तो शायद 20-25 पैसे की बर्फ मंगवाई जाती ...आठ-नौ साल पहले की बातें भी याद कहां रहती हैं...यह नहीं पता कि बर्फ लाता कौन ता, लेकिन वही लिखते लिखते इतना तो याद आ ही रहा है कि दफ्तर से लौटते वक्त पापा जी साईकिल के कैरियर पर बर्फ ऱख के लाते थे ... बस, उस बर्फ को तोड़ा जाता, अच्छा सा कोई भी कोल्ड-ड्रिंक तैयार किया जाता ..सब पीते...और फिर बर्फ का नामोनिशां ही खत्म हो जाता ...

बस, यही वक्त था ...पता नहीं तब गर्मी का ही प्रकोप इतना ज़्यादा न था या हम ने कभी फ्रिज व्रिज के बारे में कुछ सुना-सोचा ही न था, बस जैसे तैसे चल रही थी...हां, कभी कभार दिल्ली-बंबई भूआ, चाचा लोगों के पास जाते तो फ्रिज के दर्शन होते ...और उस के अंदर से जब फलों की एक बेहद खुशनुमा महक आती तो मज़ा आ जाता ...उस मज़े को दोगुना हमारी प्यारी बुआ जी, या  चाचीयां  कर देतीं जब वहां से निकाल कर एक सेब हमारे हाथ में दे देतीं या चाची एक बहुत मीठा आम हमें बड़े ्प्यार से थमा देतीं...बेहद नेक और खुलूस से भरी हुई हमारी भुआ और चाचीयां ....Love them all...पता नहीं इतना प्यार, इतना इख़लाक लाती कहां से थीं..

हमारे यहां तो अमृतसर में कोई फ्रिज न था...यह 1970-71 की बातें लिख रहा हूं जब मैं 8-9 साल का था...मुझे यह अच्छे से याद है कि 1971 में मेरे पिता जी और मेरा भाई रोहतक के मेडीकल कालेज में भाई का भगंदर का आप्रेशन करवाने गये हुए थे ...उन के लौटने की चिट्ठी आ पहुंची थी कि वे फलां फलां दिन आने वाले हैं...डीलक्स गाड़ी से ..जिसे अब पश्चिम एक्सप्रैस कहते हैं ..यह शाम के 7.30 के करीब अमृतसर पहुंचती थी ...उन्हें आने पर पानी ठंड़ा मिले, मुझे बहुत अच्छे से याद है कि मैं एक एल्यूमिनियम का ढोल (जिस में दूध लाते थे) ...घर ही के पास जोशी जी के घर के बाहर लगे हैंड-पंप से पानी लेने गया था ...क्योंकि जोशी जी के हैंड-पंप से पानी खूब ठंडा निकलता था...मैं ही नहीं, बहुत से और लोग भी वहां पानी लेते आते थे ...

 

उन्हीं दिनों की बात है..यह ठंडा पानी लेने आते जाते वक्त अकसर यह गीत बहुत सुनते थे ..फिल्म दुश्मन 1971 

वैसे तो हम अपने घर रखे पानी वाले मटके से ही मुतमईन होते थे ...उसमें ठंडा पानी हमें बहुत सुख देता था ..मीठी मीठी, सोंधी सोंधी मिट्टी की खुश्बू से लबरेज़... 

हर घटके में मटके हुी हुआ करते थे ...और गर्मी के मौसम की शुरुआत में हर घर में नये मटके और हाथ से चलाने वाले दो-तीन पंखे(क्या क्हते हैं उन्हें पक्खियां) भी ज़ूरूर लाने होते थे ...मटके की कईं किस्में होती थीं, कुछ तो सुराही की शक्ल में हुआ करती थीं, कुछ मटके की शक्ल में ..कुछ बड़े, कुछ छोटे हुआ करते ..कुछ सुराहीयां तो इतनी छोटी होती थीं कि वे हमें खिलौना ही लगती थीं...बिल्कुल छोटी, नन्ही मुन्नी...जिन्हें मैं कभी कभी भर कर खुले आंगन में सोते वक्त अपने खटोले (बच्चों के लिए छोटी खटिया) के नीचे रख लिया करता था ...और सच में उस दिन अपने आप को महाराजा पटियाला से कम नहीं समझता था ...और फिर दूसरी तीसरी कक्षा में एक दौर वह भी आया कि उन छोटी छोटी सुराहियों को हम लोगों ने पानी से भर कर स्कूल भी लेकर जाना शुरू कर दिया...लेकिन यह काम तो भई मुझे टेढ़ी खीर लगता होगा..क्योंकि जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह काम हम लोगों ने दो-तीन बार ही किया होगा...बड़ा झंझट होता उसे उठाए2 स्कूल तक की पैदल यात्रा करना ...

हां तो बर्फ की बातें चल रही थीं..ठंडे पानी की बातें हो रही थीं....फिर एक दौर ऐसा भी आया कि हमारे घर के बिल्कुल पास ही एक रेलवे का अस्पताल था जहां उन दिनों नया नया वाटर कूलर लगा था ..लोग शाम के वक्त वहां से जा कर ठंडा पानी भर लाते थे ..दो चार बार मेरी भी यह ड्यूटी लगाई गई ..लेकिन पता नहीं मैंने दो-तीन बार इस काम के लिए जाने के बाद बगावत कर दी या मुझे किसी ने वहां से ठंडा पानी लाने के लिए कहा ही नहीं...बगावत-वावत तो मैंने क्या करनी थी, हम लोग वैसे ही इतने प्यार से रहते थे घर में..शायद किसी ने कभी कहा ही नहीं मुझे वहां से ठंडा पानी लाने के लिए...

हां, तो बर्फ तो 25-50 पैसे की मुझे भी अकसर लानी होती थी साईकिल पर जा कर ....अकसर मैं थैला ले कर जाता था ..जिसे साईकिल पर टांग लेता था...बहुत बार पीछे वाले कैरियर पर बर्फ को दबा देता था ..जिस तरह से मैं अपने पिता जी को बर्फ लाते देखा करता था .. लेकिन तब होती जब मैं कभी ऐसा कोई साईकिल ले जाता था ...जिस पर कैरियर न होता और अगर उस दिन मेैं शौकीनी में आकर थैला लेकर जाना भी भूल गया होता तो भई मेरी तो आफत हो जाती ...तब तक साईकिल चलाना भी आ गया था ...लेकिन दुकानदार तो बर्फ को किसी अखबार के टुकड़े में लपेट कर हमें थमा देता ..हमारी तो तब से लेकर घर पहुंचने तक आफ़त हो जाती ...अखबार से क्या कोई बर्फ के प्रकोप से बच सकता है...मेरे हाथ ठंडे-ठार हो कर लाल हो जाते, दुखने लगते ..उसे फिर मैं दूसरे हाथ मे ं पकड़ने की कोशिश करता कि एक हाथ को थोड़ा सुकून तो मिले ..कहीं खडे़ हो कर हाथों को आराम देने की सोच भी नही ंसकते थे ..क्योंकि ऐसा करने पर आधी बर्फ तो पिघल जायेगी, यह फ़िक्र भी कम थोडे़ न थी ...लेकिन यह बर्फ लाने का काम वैसे तो अकसर होता ही था शाम को ... लेकिन दिन में कभी भी मेहमानों की मेहमानवाज़ी के वक्त भी बर्फ लानी ज़रूरी हुआ करती थी ..उन्हें रूह-अफ़ज़ा या स्कवैश पिलाने के लिए....हां, उस वक्त बर्फ लेने से पहले हम लोग समोसे, बर्फी ले लेते थे...इतनी समझ तो उस वक्त भी थी ही ...

हां, उस वक्त फिर घर घर में एक ट्रेंड चल निकला ....1970-71 की बात रही होगी..घर घर में बोरी में बर्फ लपेट कर ऱखने का सिलसिला चल निकला...सुबह बर्फ वाला आता ..उस से 50 पैसे या एक रूपये की बर्फ ली जाती ...उस बोरी में लपेट कर रख दिया जाता ...उसके साथ दो एक ककड़ीयां या एक पानी भी बोतल रख दी जाती ठंडी होने के लिए...। बीच बीच में उसे देखते जैसे जैसे बर्फ कम होती दिखती उसी अनुपात में उसे देखने वाले को दिल भी डूबता जाता ....

हां, फिर उन्हीं दिनों टीन के आईसब्राक्स बाज़ार में आ गए ...जिस में बर्फ रख दी जाती ...सुबह सुबह 1-2 रूपये की बर्फ का बडा़ सा टुकड़ा उसमें स्थापित कर दिया जाता ..वही बोरी में लपेट कर ....उस के ऊपर पानी की बोतलें कांच की टिका दी जातीं ठंडी होेने के लिए...पास ही ककड़ीयां या आम, आलूबुखारे भी रख दिए जाते ...मज़े से दिन कट रहे थे ...यह दौर 1975 तक चलता रहा ...फिर अचानक 1976 में क्या हुआ...इस की चर्चा बाद में करेंगे ..लेकिन हां, उस आईस-बॉक्स की बर्फ भी शाम तक पूरी पिघल चुकी होती ..जिसे देख कर हमें अफसोस होता ...फिर यह भी कहा जाता कि यह बर्फ वाला कच्ची बर्फ दे जाता है ..पक्की बर्फ इतनी जल्दी नहीं पिघलती ..अगर कच्ची-पक्की बर्फ़ का अंतर आप को पता ही नहीं है तो यह अब आप के लिए जानना ज़रूरी भी नहीं है, और अगर पता है तो आप मेरी बात से इत्तेफाक रखते ही होंगे ...

और हां, गर्मी के दिनों में हमारी दिलोदिमाग की गर्मी को कम करने के लिेए कभी कुल्फी वाले, कभी बर्फ के गोले वाले और शाम के वक्त हरे हरे बोहड़ के पत्ते पर आईसक्रीम लेकर कुछ फेरी वाले आ जाते ...जिसे हम बड़े चाव से खाते ....बहुत मज़े से उस का लुत्फ उठाते ...और कभी कभी फैंटा, कोका कोला जो हमें नसीब होती वह तो हमें दुकान में रखे आईस-बाक्स से ही निकली हुई ही मिलती ..

अपने बारे में लिखना अपना पेट नंंगा करने जैसा काम है ..लेकिन लिखने वाले कहां इस सब की परवाह करते हैं क्योंकि अगर वे सब कुछ अगर ईमानदारी से नहीं लिखते तो उन का सिर दुखता है ...यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं ....और हां, एक बात जाते जाते यह भी सोच रहा हूं मेरे जैसे जिन लोगों का बचपन इतने संघर्ष में बीता हो ...मेरा क्या, सब का ही ऐसा ही होता है ...हां, कुछ लोग रईसी का नाटक कर लेते हैं, हमने वह नहीं सीखा ..जो कुछ हमारे साथ बीता, वही लिख देते हैं...हां, तो मेरे जैसे लोग जिन्होंने साईकिल पर हाथ में थाम कर बर्फ उठा कर लाने वाले दिन देख लिए...उन का किसी भी तरह की ईगो, अहम् क्या बिगाड़ लेगा.... क्या वह किसे बहस करेंगे, क्या किसी से उलझेंगे ...क्या किसी को नीचे दिखाने की कोशिश करेंगे ..हर कोई उन्हें अपना ही ऩज़र आएगा...फिर भी कुछ लोग आप की हवा खराब करने में हर जगह जुट जाते हैं....क्योंकि यह भी देखता हूं अकसर कि लोग किसी को खुश देख कर भी दुखी रहते हैं ...मुझे सब पता चलता रहता है ...समझते हम सब कुछ हैं, हां, बोलते ही कम हैं...उलझते नहीं हैं....फिर भी कईं बार ऐसा हुआ कि कुछ लोग बार बार कहते हैं कि लोग तो आप से बड़ा डरते हैं ...लेकिन आप तो बिल्कुल अलग ही हैं उस तस्वीर से जो लोगों ने आप की बनाई हई थी ...

जो भी लोग ऐसी बाते ं करते हैं ना, सच में मेरी तबीयत होती है कि उन्हें एक करारा तमाचा जड़ दूं (मन ही मन में तो जड़ ही देता हं, मैं क्या कम हूं किसी से!) और कहूं कि मेरे बाते में कुछ जानते ही नहीं हो, और जान भी नहीं पाओगे(क्योंकि अभी तो मैं खुद को समझ नहीं पाया कि मैं हूं क्या)....कोशिश भी मत करो, लेकिन मैं हर तरह से एक ऐसा प्राणी हूं जिस से किसी को कोई डर नहीं है ..किसी का बुरा कभी किया नहीं और आगे भी क्या कर लूंगा ...लेकिन हां, जो लोग यह सब कह कर किसी की हवा खराब करते हैं मेरा दिल करता है, और मेरे मुंह पर आई बात रूक जाती है कि भाई लोगो, मेरी फिक्र मत करो....तुम लोग अपने अपने गिरेबान में झांका करो, मेरा ख्याल छोड़ो ...क्योंकि मैं तुम लोगों को भी उतना जानता हूं जितना तुम भी खुद को नही जानते... 😎

बंद कर भाई अब इस पोस्ट को...यह तो बहस करने लगा तूं ...और वैसे तो तू किसी से भी उलझता नहीं कभी भी ..बस, जैसा है वैसे ही बने रहना...दुनिया की ऐसी की तैसी .... हा हा हा हा हा ...

बुधवार, 9 मार्च 2022

फ्रिज के लाभ-हानि ....

इसी तरह के ही निबंध हम लोगों के मास्टर साहब हम लोगों को लिख कर लाने को कहते थे...आज किसी ने कुछ नहीं कहा है ...अभी अभी उठा ही हूं...मेरे पास विकल्प हैं ..या तो बाहर निकल कर टहलने के बहाने समंदर से आने वाले बढ़िया हवा के झोंकों का लुत्फ़ ले आऊं..और या बेड पर ही बैठे अपनी यादों की अल्मारी में पड़े कबाड़ को ही थोड़ा देख लूं...मैं यादों की अल्मारी को सलीके से खोल कर उसमें पड़ी चीज़ों को देखने का फैसला किया है ...मुझे लगता है इस काम में वक्त लगेगा...लेकिन कोई बात नहीं, लगेगा तो लगेगा...अगर ज़रूरत हुई तो अपनी बात को दो किश्तों में समेट लेंगे..

फ्रिज के बारे में सोचता हूं तो मुझे वह पुराने दिन बहुत याद आते हैं ...मैं 13-14 बरस का रहा होऊंगा जब हमारे यहां पर फ्रिज आया था ...देखिए, अभी मैंने लिखना शुरू ही किया है कि मेरे दिलोदिमाग में मिट्टी के मटके आ कर कहने लगे हैं कि हमें मत भूलना...नहीं बाबा, नहीं, तुम तो मेरे खुशनुमा साथी रहे हो, कैसे भूल सकता हूं तुम को...लिखूंगा...लिखूंगा, तुम्हारे बारे में भी लिखूंगा ..यार, थोड़ा सब्र तो रखो...

मुझे नहीं लगता आज यह निबंध एक किश्त में हो पाएगा...चलिए, किसे जल्दी है! स्कूल में तो शास्त्री जी मास्टर से ठुकाई को डर की वजह से रोज़ का काम रोज़ हो जाता था, अब हम आज़ाद हैं, दो क्या, बेटा, निबंध तीन किश्तों में भी लिख दिया तो भी चलेगा...

अच्छा, बच्चों को फ्रिज में रखी किसी चीज़- दाल-सब्जी, फल, फ्रूट से कुछ फर्क नहीं पड़ता ...उन का तो स्विगी, ज़ोमैटो ज़िंदाबाद जो दस मिनट में ही काके दे ढाबे से या जय जवान रेस्टरां से उन की दाल मक्खनी या शाही पनीर उन को थमा जाता है...हां, उस दाल या पनीर के कुछ चम्मच भी बच जाते हैं तो अगले दिन या उस के भी अगले दिन निकालने के लिए ही वह फ्रिज खोलते हैं...या फ्रिज में रखे रेडीमेड परांठे के पैकेट से परांठे निकालने के लिए ...और मैं फ्रिज अमूमन फ्रिज में रखी चीज़ों को निकाल कर डस्टबिन में फैंकने के लिए तो फ्रिज खोलता हूं और फ्रूट, दूध, दही, छाछ आदि निकालने के लिए ...हमारे यहां फ्रिज में अकसर इतनी भीड़ होती है कि कहीं का भी गुस्सा फ्रिज में रखी चीज़ों पर ही निकलता है ...यार, यह कढ़ी अभी तक पड़ी है, ये राजमाह..ये क्या कर रहे हैं अभी तक ...मैं तुरंत इन्हें निकाल कर डस्टबिन में फैंक देता हूं ..क्योंकि मुझे यही डर रहता है कि श्रीमति जी इन चीज़ों को निकाल कर गर्म कर के खा लेंगी ...और तबीयत बिगाड़ लेंगी खामखां....और जैसा कि मैंने बताया कि बच्चों को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वहां क्या पड़ा है...लेकिन मैंने उन के दिमाग में भी ठूंस दिया है बार बार कह कह कर ..कि खाने पीने की पुरानी चीज़ों को देखते ही डस्टबिन में फैंक दिया करिए... वे व्यस्त लोग हैं, कभी कभी यह नेक काम करते हैं, वरना मैं ही कभी कभी देख लेता हूं ...क्योंकि श्रीमति जी बाहर दूसरे शहर में रहती हैं और दस-पंद्रह दिन में एक दो दिन के लिए ही आती हैं...

मैं दुनियावी ज्ञान बटोरने में कितना भी पीछे रह गया होऊं, दुनियादारी के रंग-ढंग से वाकिफ़ होऊं या न होऊं...लेकिन हमारी मां ने हमारे दिलोदिमाग में बचपन से यह ठूंस दिया था कि फ्रिज तो बीमारी का घर है ....इस में रखी दाल-सब्जी और आटा तो ज़हर हो जाता है वहां पड़ा पड़ा ...इसलिए जब भी कभी हमें गैस चढ़ जाती, सिर दुखने लगता, दिल कच्चा होने लगता तो मां तहकीकात में लग जाती ...इस बात की तह में जाने लगतीं कि इसने घर में ऐसा खाया क्या है ....अगर उन्हें पता चला कि फ्रिज में रखे गूंथे हुए आटे की रोटी  खाई थी इसने ...तो बस, अगली बार से इस बार को सुनिश्चित करती कि हमें मिलने वाली रोटी ताज़े गूंथे हुए आटे की ही हो ...

बीजी ते बीजी दे हत्थां दीयां बनीयां रोटियां- वेख के ही खुश हो लईदै हुन...

मुझे भी फ्रिज में रखी दाल, सब्जी, चावल, खिचड़ी, हलवा... जैसी चीज़ों से सख्त नफ़रत है ....मां नहीं रही ...लेकिन उस की यह नसीहत याद है ...फिर बार बार हम खुद भी पढ़ते रहते हैं कि दाल-सब्जी का ज़ायका तो ताज़ी ताज़ी तैयार की हुई का, दो तीन घंटे तक ही कायम रहता है... एक हद देखते रहे हैं बचपन से कि दोपहर की बची दाल-सब्जी रात को भी खा लेते थे ...या रात की बनी दाल-सब्ज़ी सुबह परांठे के साथ खा लेते हैं....या उस दाल वाले परांठे ही बन जाते हैं अकसर ...लेकिन इस के आगे तो बचे-खुचे खाने को खाना तो बहुत ज़्यादा रिस्क वाला काम माना जाना है हमारे यहां ....क्या करें, जो आदतें पड़ जाती हैं वे ताउम्र साथ रहती हैं...आज की पीढ़ी को अगर फ्रिज में रखे आर.डी के परांठे ही पसंद हैं तो यह उनकी पसंद है ...अच्छा, एक बात याद आ गई, बीस-पच्चीस साल पहले की बात है ...बीजी की एक कज़िन उनसे मिलने आईं...हम लोग बंबई सेंट्रल मे रहते थे ...श्यामा आंटी ...उन के साथ दुबई में रहने वाली उन की बेटी भी थी ...मां की और उन की कज़िन की खूब बनती थी...बोलते-बतियाते खूब हंसा करतीं ...बचपन के दिनों को और उस दौर के किरदारों को याद करते करते ..लेकिन उस दिन उन्हें वापिस जाने की जल्दी थी...कारण यह था कि अगले दिन उन की बेटी जो दुबई में रहती हैं, उसने वापिस लौटना है ..और अभी जाकर 100-150 चपातियां सेंकनी हैं उन्हें ...जब हमें पता चला हमारी तो सांस ऊपर की ूऊपर अटकते अटकते बची। हमे ंयह बताया गया कि वे दोनों मियां-बीबी नौकरी करते हैं, ्वक्त नहीं मिलता ... इसलिए जब भी यहां आते हैं तो रोटियां ले जाते हैं, फ्रिज में रख देते हैं...कईं कईं दिन चल जाती हैं, सेंक कर खाते रहते हैं...

चलिए, अब बाकी की बातें अगली पोस्ट में करूंगा...दरअसल हमारे मास्टरों के डर से हम लोग उस दौर में निबंध लिखते वक्त यहां वहां की यबलीयां नहीं मार पाते थे...जैसे कि आज कल करने लगे हैं ...आप खुद देखिए कि फ्रिज के लाभ-हानियों पर निबंध लिखने बैठा हूं सुबह सुबह और अभी तक मुश्किल से भूमिका ही बांध पाया हूं ...चलिए, इतना तो बता ही दूं कि मुझे इस में लिखना क्या है ...जनाब, मुझे निबंध के ज़रिए उस दौर के ज़ायके को आप तक पहुंचाना है जब हमारे घर में फ्रिज नहीं होता था ...और फिर कैसे फ्रिज के आने से हमारे साथ साथ हमारे पड़़ोसीयों की ज़िंदगी भी बदल गई ..कुछ बातें दिल खोल कर लिखनी होती हैं...परवाह नहीं कितना वक्त लग जायेगा...देखा जाएगा...मुझे भी सारी बात लिख कर ही चैन आयेगा. वरना बार बार मुझे साईकिल पर जा कर हाथ में पकड़ कर बर्फ लेकर आने वाले दिनों की याद सताती रहेगी.......एक बार लिख दूंगा तो यह बार बार उस पुरानी यादों की संदूकची में झांकने से निजात तो मिलेगी ...

आज के लिए इतना ही ...कहना तो बहुत कुछ था..अभी नहीं लिखा ..चलिए, भूमिका तो बंध गई...अगर कोई कसर रह गई होगी तो धर्मेंद्र और सायरा बानो पर फिल्माया यह खूबसूरत गीत भी तो कुछ काम करेगा...


रविवार, 6 मार्च 2022

आदमी मुसाफिर है ...आता है ...जाता है ...

यह गीत मेरे स्कूल कालेज के दिनों में रे़डियो पर तो खूब बजता ही था..फिर जब हम लोगों ने टीवी लेिया 1980 में ...तो फिर आए दिन चित्रहार पर यह बहुत ही सुंदर गीत सुनने को मिला करता...बहुत पसंद है यह गीत ...जैसे ज़िंदगी के फलसफे को आनंद बख्शी साहब ने गीत में पिरो कर रख दिया हो ...आदमी मुसाफिर है, आता है जाता है ...आते जाते रस्ते में ...यादें छोड़ जाता है...

सही बात है ..हम यादें छोड़ जाते हैं ...अच्छा, हम लोग गुज़रे दौर में देखा करते थे कि जब लोग ट्रेन के सैकेंड क्लास में सफर कर रहे होते तो जैसे ही कोई स्टेशन आता तो कुछ महिलाएं ऐसे ही ज़रूरत से ज़्यादा चौड़े हो कर बैठने की फिराक में रहतीं, बच्चा अगर खिड़की से चिपका हुआ बाहर का नज़ारा लूट रहा है, तो उसे पास की सीट पर लेट जाने को कहतीं, और नहीं तो सिर पर दुपट्टा कस कर बांध कर खुद ही लेट जाती ...और भी बहुत तरह के जुगत करते हम देखते लोगों को ...मकसद सिर्फ इतना तो कोई और सवारी उन के पास आ कर बैठ न पाए... सब से ज़्यादा तो मुझे यह देखना बड़ा रोचक लगता था कि ठीक ठाक आराम से बैठे हुए लोग टांगे ज़्यादा से ज़्यादा फैलाने की कोशिश करते दिखते ...और फिर भी अगर कोई ढीठ बंदा या बीबी आ ही गई ...कि थोडा़ आगे हो जाओ, हमें भी बैठना है तो वही चिक चिक शुरू हो जाती ...चाहे होती वह दो एक मिनट के लिए ही लेकिन उस से भी खुशनुमा माहौल में खामखां की टेंशन सी आ जाती...

हमने यह भी देखा कि बहुत से लोग बहुत अच्छे से बातचीत करते करते सफर कर लेते...हमारी बीजी भी ऐसी ही थीं, झट से पास बैठी अनजान औरते के साथ बातचीत शुरू हो जाती...घर का पता, बच्चे क्या करते हैं, कहां जा रही हैं...ये सब बातें महिलाएं आपस में करने लगतीं....और आधे एक घंटे में ऐसा नज़ारा दिखने लगता जैसे कि पूल-लंच हो रहा है..किसी की आलू की सब्जी, किसी के मटर, किसी के पकौड़े, और हां, किसी का आम का आचार..किसी की पूरीयां, किसी के परांठे, और किसी की रोटियां ...सब ऐसे मिल कर खाने लगते ....बहन जी, आप यह तो ले ही नहीं रही, ये देखिए गाजर-शलगम का आचार....घर के पुरूष लोग और मेरे जैसे संकोची बच्चे चाहे दूसरी तरफ़ देखते रहते ...लेकिन महिलाओं की तो जैसे किट्टी पार्टी चल रही होती ....अच्छा, खाना होने के बाद, फिर नया टापिक ... अकसर सारी औरतें जो स्वैटरें बुन रही होतीं, वह निकाल कर बुनने लगतीं और बड़े चाव से एक दूसरे का नमूना (डिज़ाईन) समझने लगतीं.....क्या मज़ेदार दिन थे लोगों में बहुत अपनापन था ...चलिए, इस बात को यहीं छोडते हैं... 

तीस बरस पहले की बात है मैं यहां मुंबई में जिस सत्संग में जाया करता था ..उसमें एक बात चल निकली कि जब आप ट्रेन या बस में सफर करते हैं तो जो भी महिला या पुरूष आप के पास बैठा हुआ है ...ज़रा यह सोचिए कि क्या कोई चांस है कि वह ज़िंदगी में फिर कभी आप को सफर के दौरान ऐसे मिलेगा...अगर चांस है तो कितना चांस है...ज़ाहिर सी बात है कि चांस न के बराबर है.....समझने वालों को इशारा ही काफी होता है .....उस दिन वह यही समझाने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं भी, कभी भी ..हर किसी से बहुत अच्छे से पेश आया करिए......नदी नाम संयोगी मेले .....पता नहीं फिर उसने आप से कभी ज़िंदगी मे कभी मिलना भी है कि नहीं...

हर इंसान अपनी अपनी यात्रा पर निकला हुआ है ...और अपने अपने स्टेशन पर सब उतरते चले जाएंगे ...बाबा बुल्ले शाह ने भी कितनी सुंदर बात कही है ...


बाबा बुल्ले शाह फरमाते हैं कि यहां पर सब मुसाफिर हैं, किसी ने यहां टिके नहीं रहना, सब को अपना अपना सफर तय करने के बाद लौटना ही है ....

बात है तो छोटी सी ..लेकिन कहते हैं न ...छोटी छोटी बातों की हैं यादें बड़ी ...हमें हमारा अहम् बड़ा तंग किेेए रहता है ...हमारे सिर चढ़ा होता है ...लेकिन बहुत से लोगों को देखता हूं ...देखता हूं कहां, यही अखबार में जब उन की मौत की या क्रिया-कर्म की ख़बर छपती है तो मैं अकसर सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि यह बंदा तो बड़ी शांति से अपना वक्त निकाल गया...कहीं पर बेवजह की लाइम-लाइट नहीं....बस, सहजता से जिया और यह गया ...वो गया....

कुछ कुछ आदते पड़ जाती हैं ....मुझे भी टाइम्स आफ इंडिया के उस पेज को पढ़ने की आदत है जिस में शोक-समाचार होते हैं ...


क्या है ना, उस पेज़ में भी कई स्टोरियां छुपी पड़ी होती हैं...घर परिवार वाले जितने भी मुस्कुराते चेहरों की तस्वीरें छपवाने के लिए दे दें...उस से क्लॉक भी फर्क नहीं पड़ता ...असल बात है जो हम लोग जीते जी किसी के साथ कैसे पेश आते हैं ...उसे खुश रख पाते हैं या नहीं ...यही बात अहम् है...बाकी दुनिया से किसी के चले जाने के बाद उस के लिए कुछ भी करने-कराने से हमारा अपराध-बोध (कि हम किसी के साथ अच्छे से पेश नहीं आए...) तो शायद कम हो भी जाए , दिल को एक झूठी तसल्ली देने के लिए ..बाकी, जाने वाले को इन सब चीज़ों से क्या हासिल ...इसलिए जीते जी अगर किसी के साथ हम हंस खेल लेते हैं तो बाद में घड़ियाली आंसू बहाने की भी नौबत नहीं आती ...या दिखावे के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत पड़ती नहीं अकसर...

मैंने आज एक शख्स की प्रार्थना सभा की सूचना पढ़ी अख़बार में ... नाम जाना पहचाना लगा...90 साल की उम्र में बंदा चल बसा है...चार साल चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ रहा, और सात-आठ साल पंजाब का गवर्नर....यह भी मुझे उस विज्ञापन से ही पता चला... पंजाब के गवर्ऩर इस नाम से कोई था, इस का ख्याल भी उन का नाम पढ़ कर ही आया...जो बात मैं कहना चाह रहा हूं कि कुछ लोग कितनी शांति से अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर लेने का फ़न रखते हैं...पिछले दस-बारह सालों में कभी इन के बारे में कुछ सुना नहीं, कुछ पढ़ा नहीं...हम यही क्यास लगा सकते हैं कि एक शांत ज़िंदगी गोवा में रह कर बिता कर चले गये। ऐसे महान् लोगों की पुण्य याद को सादर नमन...

बडे़ बडे़ महान कलाकारों, नेताओं, वैज्ञानिकों की जीवनीयां देखता-पढ़ता हूं जब भी, यू-ट्यूब पर इन के इतने इतने ज़िंदादिल वीडियो देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं ....कुछ दिन पहले एक उच्चाधिकारी ने अपनी इनकुंबैंसी बोर्ड की फोटो शेयर की मेरे साथ ..पिछले 90-92 साल में उस जगह पर लगभग पचास लोग काम कर चुके हैं.....कौन कहां, कब गया,..पीछे क्या छोड़ गया, क्या साथ ले गया...पीछे कोई नाम लेने वाला भी है कि नहीं अब ...किसी को कोई पता नहीं ....लेकिन वही बात है जब हम लोग किसी कुर्सी पर बिराजमान होते हैं तो अकसर हम ज़िंदगी की कड़वी सच्चाईयां याद नहीं रख पाते...हमें यही लगने लगता है कि ऊपर खुदा है और नीचे मैं हूं..बाकी और कुछ नहीं...बस, इसी बात को याद रखने की ज़रूरत है कि हर बंदे का एक वक्त है ...किस्मत उसे झूला झुला कर एक बार नीचे ले कर जाती है, फिर वापिस नीचे तो आना ही है ......लेकिन एक कहावत है कि जब आदमी ऊंचाई की सीढ़ियां चढ़ रहा होता है तो उसे रास्ते में मिलने वालों से अच्छे से पेश आना चाहिए..क्योंकि जब वह सीढ़ियां नीचे उतरने लगेगा तो उन्हीं लोगों से उसे फिर मिलना होगा ... 

मैं भी आज क्या लिखने बैठ गया...यही वजह है कि मैं एक बार लिखने के बाद अपना लिखा कुछ नहीं पड़ता ...बिल्कुल हलवाई की तरह जो अपनी तैयार की हुई मिठाई नहीं खाता...क्योंकि उसे पता होता है कि उसने क्या घाला-माला किया है ...उसी तरह मुझे भी पता होता है कि मैंने भी बस गिल्ला-पीन ही पाया है .. और कुछ नहीं किया ...इसी आदत के चलते मेरे से कोई मेरी किसी भी पुरानी पोस्ट की बात करता है तो मैं झेंप जाता हूं क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि मैंने उस में क्या लिख दिया होगा...कईं बार असहज भी लगता है ..दो तीन दिन पहले मुझे एक मित्र मिलने आए...कहने लगे कि आप की डालड़ा घी वाली पोस्ट बड़ी मज़ेदार थी ...मैं उस वक्त सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या मैंने लिख दिया होगा उस में ..क्योंकि डालडे का मतलब मुझे दो ही बातें याद हैं ...एक तो बीजी के हाथ के बने डालडा घी के अंगीठी पर बने परांठों की दिव्य महक ...आम के अचार के साथ और दूसरी बात यह कि डालडा़ के डिब्बे के खाली होने का मुझे इंतज़ार रहता था क्योंकि मुझे उस में अपने ढेरों कंचे भरने होते थे ... 😄😄...मैं यही सोचने लगा कि बातें तो मेरे पल्ले ये दो ही थीं, डालडे के बारे में ...और यह लेख की बात कर रहे हैं ...इसलिए उन के जाते ही मैंने सब से पहले अपने उस लेख को ढूंढ कर पढ़ा .....तो मुझे चैन आया ...आप भी पढ़ना चाहें तो यह रहा लिंक ... डालडे दा वी कोई जवाब नहीं.. 

शनिवार, 5 मार्च 2022

बस यूं ही ....यादें, किताबें, शिकार की बातें

लिखना भी एक अजीब शौक है ...शुरूआती बरसों में जब लिखना शुरू करते हैं तो ऐसे लगता है कि 30-40 लेखों के अलावा तो कोई मजमून ही नहीं जिस पर लिख पाएंगे...मेरे साथ भी ऐसा ही था ...जब बीस साल पहले मेरे लेख हिंदी की अख़बारों में छपने लगे तो मुझे यही चिंता अकसर सताए रहती कि चालीस पचास लेखों के बाद लिखूंगा क्या...

लेकिन फिर जैसे जैसे आप अपने दिलोदिमाग मे बनने वाली तस्वीरों को  कागज़ पर उकेरने लगते हैं तो फिर यह समझ आने लगती है कि जिन विषयों पर आप लिखना चाह रहे हैं ...वे तो ताउम्र खत्म न होंगे ...बस, उस के लिए निरंतर लिखते-पढ़ते रहना होगा...और इस तरह की रुचि लिखने वाले के साथ मिलते जुलते रहना चाहिए...बातें छोटी सी होती हैं, लेकिन कभी किसी दूसरे के मुंह से निकलती है तो एक बार तो यही अहसास होता है कि यार, इतनी सी बात का हमें ख्याल नहीं आया..

खैर, कुछ दिन पहले की बात है मैं एक लेखक से बात कर रहा था कि मुझे रिटायर होने के बाद अपनी यादें एक किताब में समेटनी हैं...मेरे पास बिंदास लिखने को बहुत कुछ है ...पिछले 30-35 बरसों में नौकरी के दौरान जो महंगे सबक सीखे...सब कुछ लिख देना है मुझे ...नाम वाम तो मैंने क्या लेने हैं किसी के ..लेकिन लिखूंगा मैं पूरी इमानदारी के साथ ...वरना फायदा ही क्या...। नौकरी करते करते कुछ रब्बी लोग भी मिले, कुछ विलेन भी मिले ... कुछ के लिए हम रब थे, कुछ के लिए हम विलेन...लेकिन यह सब अब दिल के किसी कोने में दबा के रखा हुआ है ...जब उस कोठरी को खोलेंगे तो आप को भी बताएंगे ... हा हा हा हा हा ...

हां, तो जब मैं ये बातें कर रहा था तो उसने इतना ही कहा कि लिखना तो अभी शुरु कर दो. छपवा रिटायरमेंट के बाद लीजिएगा...मुझे यह ख्याल पहले कभी क्यों न आया, मैं हैरान हूं...मेरे दिमाग की बत्ती जल गई...

किताबें ..किताबें ...किताबें ...बहुत अच्छी दोस्त होती हैं...मैं इतनी किताबें खरीदता हूं कि क्या कहूं....मेरी मां सब को बड़े चाव से बताया करती थीं कि प्रवीण को पढ़ने का बहुत शौक है और इसके पास ढ़ेरों किताबें हैं...मां को यही लगता कि किताबों पर इतना पैसा खर्च करने के लिए बडा़ दिल होना चाहिए...लेकिन मैं बहुत बार यही कहता कि मैं अपने मन को यह कह कर समझा लेता हूं कि बच्चे तो जितना एक-दो-तीन पिज़्ज़ा मंगवाने पर खर्च करते हैं ...उतना ही तो खर्च आता है किसी किताब को खरीदने में। आज भी कोई भी किताब खरीदते वक्त मेरा ध्यान उस की पांच छः सौ रूपये की कीमत पर नहीं जाता ...बल्कि मैं यही सोच लेता हूं कि मैं किसी बढ़िया सी दुकान से पिज़्ज़ा मंगवा रहा हूं ...या बाहर कहीं जाकर नॉन-दाल मखनी मंगवा रहा हूं ..जो कि मैं अकसर मंगवाता नहीं हूं ...इसलिए किताबों पर किया गया खर्च मुझे कभी भी नहीं चुभता...

मेरे कमरे में हर तरफ़ किताबें बिखरी पड़ी होती हैं...क्योंकि कभी मैं कोई उठा कर पढऩे लगता हूं तो कभी कोई और...कुछ दिन पहले तो मेरे बेड़ पर इतनी किताबें थीं कि मुझ से करवट ही नहीं लेते बन पा रहा था ... खैर, जो भी है...बड़ा बेटा क्रिएटिव फील्ड से है, डाक्यूमैंटरीज़ बनाता है .. वह समझता है, फाउंटेन पैनों की, मेरी किताबों की कलेक्शन को देख कर खूब हंसता है ..डैड, यू आर के क्यूरेटर...। 

मैं आज सोच रहा था कि किताबें दोस्त होती हैं ..बेशक होती हैं दोस्त...इन के साथ रहना अच्छा लगता है ...सुबह-शाम थोड़ा वक्त इन के बीच बिताने से मन हल्का हो जाता है ...मुझे भी वक्त तो थोड़ा ही मिलता है पढ़ने का ...लेकिन सोच मैं यह भी रहा था कि लोग कहते हैं न कि उन्होंने फलां फलां किताब पढ़ी, जिसे पढ़ कर उन का ज़िंदगी बदल गई...मुझे यही मलाल है कि यार, मुझे क्यों नहीं कैसे कोई किताब मिली अब तक जिसे पढ़ कर मेरी ज़िंदगी भी बदल जाए...बेहतर हो जाए..लेकिन असलियत यह है कि शायद ही कोई किताब ऐसी होगी जिसे मैंने शुरू से अंत तक पढ़ा हो ...हां, बचपन की बात करता हूं तो याद आती है ..आठवीं जमात में पढ़ी एक किताब ...शायद उस का नाम था ...आगे बढ़ो - यह किताब मुझे मेरे जीजा जी ने भिजवाई थी ...नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी थी...उसमें प्रेरणात्मक प्रसंग थे, जिन्हें मैं बार बार पढ़ता रहता और मेरी मन में भी वैसा ही बनने की हसरत होती...और हां, स्कूल में भी जब वार्षिक समारोह होता तो हर साल मुझे भी कुछ ईनाम मिलते ....और वे किताबों की शक्ल में ही होते ...भगत सिंह, लाला लाजपत राय, यशपाल का उपन्यास-अधूरा सच....मैं उन्हें भी बड़े चाव से पढ़ता ..लेकिन याद नहीं, पूरा पढ़ा हो ..बीच बीच में से पढ़ता था...

अभी मैं हिंदोस्तान की किसी राजकुमारी की यादें (मिमॉयर्ज़) पढ़ रहा था ...अचानक मुझे लगा कि हमें जितना हो सके पुराने नामचीन लोगों की जीवनियां, मिमायर्ज़ (यादें), ज़रूर पढ़नी चाहिए...बहुत कुछ सिखा देती हैं ये किताबें ....आदमी एक अलग संसार ही में पहुंच जाता है ...हां, तो उस राजकुमारी की यादों से भरी किताबें के पन्ने उलट रहा था तो दो तस्वीरों पर निगाह रूक गई ...पहली में तो उसके पति की 12 बरस की तस्वीर है जिसमें वह एक शिकार किए हुए शेर के साथ बंदूक लेकर खड़ा है...और कुछ सफ़ों के बाद उस के बेटे की फोटो है जो 11 साल की उम्र में अपने पहले शेर के शिकार के साथ बंदूक लिए खड़ा है...लगभग पचास साल पहले यह किताब पहली बार प्रकाशित हुई थी ...जो भी हो, अभी राजकुमारी की बातें तो आराम से, इत्मीनान से पढूंगा ...लेकिन वे तस्वीरें मुझे भद्दी लगीं...तुम ताकतवर हो गए ..ताकत इतनी बढ़ गई कि शेर को ही मार गिराया...उस बेचारे का क्या कसूर....उसे भी जीने देते ....यह भी खौफ़नाक क्रूरता नहीं तो क्या है...। पहले हम लोग फिल्मों में भी देखा करता थे कि कुछ लोग शिकार पर जा रहे हैं...शायद उस बालपन में इतना सोचते नहीं थे ..लेकिन आज सोचते हैं तो घिन्न आती है ..पहले आप जंगल में शिकार करते हैं, फिर उन जीवों को आग कर भून कर खा जाते हैं...यह तो कोई मर्दानगी न हुई...

शुक्र है कि धीरे धीरे कानून इतने सख्त हो गए कि ये शिकारियों विकारियों की बातें कम से कम हम तक पहुंचनी तो कम हुई ..लेकिन शिकार तो होते ही हैं अभी भी ...हां, कभी कोई बड़ा बंदा जब शिकार करते पकड़ा जाता है तो उसे कानून के पंजे से छूटने में बरसों लग जाते हैं ...छूट तो लोग जाते ही हैं ..

आज मैं ड्यूटी पर जा रहा था तो मैंने बांद्रा में एक जगह एक युवक को स्कूटर पर दोनों तरफ़ रस्सी से बांध कर उल्टे टंगे हुए मुर्गे देखे ...मेरा मुूड बहुत खराब हुआ...बड़ी बड़ी गाडियों में तो छोटे छोटे पिजन-होल्स में दुबके, डरे-सहमे पड़े मुर्गे-मुर्गियां तो हम रोज़ देखते ही हैं...कृपया इसे बिना किसी मज़हब का चश्मा लगाए पढ़िए...वैसे भी यह मेरा काम नहीं है, यह जिन लोगों का काम वे अच्छे से करना जानते हैं....और न ही यह किसी को कुछ खाने या ना खाने की नसीहत है ...लेकिन जो बात मुझे कचोटती है नित दिन वही लिख रहा हूं...हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं...बस तस्वीर बदलनी चाहिए...😎....एक साल पहले मैंने बांद्रा इलाके में ही एक युवक को सुबह सुबह अपने दोनों कंधों पर 10-10-20-20 मुर्गे उल्टा लटकाए देखा ...मुझे बेहद दुःख हुआ....मैंने फोटो खींच तो ली...लेकिन वह तस्वीर ऐसी थी कि लोग उसे देख लें तो एनिमल एक्टिविस्ट सड़कों पर उतर आते ...जानवरों के साथ इतनी दरिंदगी... इसलिए उसे अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से फ़ौरन डिलीट कर दिया...क्या है ना, यहां कुछ पता नहीं लगता, आप का लिखा या आप की शेयर की हुई तस्वीरें लोग कौन सा चश्मा लगा कर देख-पढ़ रहे हैं....हंगामा खड़ा करने का बहाना चाहिए होता है जैसे...

बाकी खाने-पीने की आदते हैं सब की अपनी अपनी ..पर्सनल च्वाईस..लेकिन जिस तरह से इन मुर्गे मुर्गियोंक एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया जाता है वह बेहद दर्दनाक दृश्य होता है ...अच्छा, एक बात और ...जिस ट्रक में भी ये मुर्गे लदे होते हैं..डरे, सहमे, सिमटे, दुबके ...किसी मुर्गे बेचने वाले की दुकान पर खड़ा करते ही उस पर एक तराजू लटका दी जाती है ...बस, फिर चार पांच ज़िंदा (कहने को ही ज़िंदा...) मुर्गे उस तराजू पर झूल जाते हैं...और फिर उन्हें वहां से उतार कर दुकान के दड़बे में कैद कर दिया जाता है ...जब तक कोई ताकतवार ग़िज़ा ढूंढते हुए ग्राहक वहां तक नहीं पहुंचता...सोच रहा हूं कि कितने खौफ़ में जीते होंगे ये मुर्गे लोग भी ...और ये क्या ताकत दे देते होंगे खाने वालों को ...अपने आप ही से सवाल कर लेता हूं अकसर...!!

फिल्मों में दिखाते हैंं न कि अपराधियों से भरी गाड़ियों को बीच राह में रोक कर उन्हें उन के गिरोह के लोग छुड़वा ले जाते हैं ..वे रिहा हो जाते हैं...मैं सोचता हूं कि इन मुर्गों से भरे ट्रकों में से इन मुर्गों को आज़ाद करवाने कोई नहीं आता ... ये बातें निरर्थक हैं, सोचना भी ..मुझे पता है ..लेकिन मेरा दिल इन मुर्गे-मुर्गियों को इस हालात में देख कर दुःख बेहद होता है ....काश! .........................(Censored!) 😠😠

अच्छा, मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मैंने ऊपर लिखा कि मैंने शायद ही कोई किताब हो जो शुरू से लेकर अंत तक पूरी पड़ी हो ..लेकिन दो साल पहले जब सुरेंद्र मोहन पाठक ने अपनी जीवनी लिखी- दो किताबों की शक्ल में ...वह मैंने ऐसे पढ़ी चार पांच दिन में पढ़ डाली...मुझे याद है उन दिनों मुझे रोटी खाने की भी सुध न थी......कौन है ये सुरेंद्र मोहन पाठक....जनाब, ये देश के एक बहुत बड़े नावलकार हैं...300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...इसलिए मुझे बहुत जिज्ञासा थी कि यार, जिस बंदे ने इतने नावल लिख दिए...उस की खुद की ज़िंदगी का नावल भी पढूं तो सही ...इसलिए जब वह मुझे दो साल पहले ..लाकडाउन से दो तीन महीने पहले दिल्ली में एक साहित्यिक सम्मेलन पर मिले तो मैंने उन्हें यह सब बताया...वे खूब हंसे...उन की लिखी.एक और किताब वहां से लेेकर उस पर उन के आटोग्राफ भी लिए....मज़ा आया उन से मिल कर ...उन को सुन कर वहां उस दिन...पढने का उन्हें इतना शौक रहा है कि वे जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते, मूंगफली खत्म होने पर उसे फैंकने से पहले फाड़ कर पढ़ ज़रूर लेते ..

सुरेन्द्र मोहन पाठक के साथ लेखक ..नवंबर 2019

और हां, मैंने नावल कभी नहीं पढ़े, इतना सब्र ही नहीं है मुझ में ....शायद बच्चों के नावल ज़रूर पढ़े थे जो किराए पर मिलते थे हमारे दौर में ...जिस में कोई सिक्रेट एजैंट किसी चोर-डाकू-तस्कर के पीछे पड़ जाता है ...मज़ा आता था उन्हें भी पढ़ कर ...वैसे भी जिस लिखावट को पढ़ने में दिमाग पर ज़ोर लगे, मुझे वह पढ़ना नहीं भाता... अपनी अपनी पसंद है...मुझे तो  हल्का-फुल्का लिखा ही पसंद है... जिस पर दिमाग पर ज़ोर भी न पड़े और लिखने वाला हम तक अपनी बात भी पहुंचा दे ...

सुरेन्द्र मोहक पाठक साहब की स्वःजीवनी 

लिखता क्यों है कोई बंदा..........किसी लेखक से यह पूछने बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई यह पूछे कि भूख लगने पर हम रोटी क्यों खाते हैं...कोई मक़सद नहीं होता, कोई पढ़े न पढ़े, कोई फ़र्क नहीं पड़ता...तालियां बजें न बजें...लिखने वाले परवाह नहीं करते ..बस उन्हें लिख कर एक अजीब सा सुकून मिलता है, राहत का एहसास होता है ...और जिन चंद लोगों को हम बहुत चाहते हैं उन्हें जब अपना कुछ लिखा भेजते हैं तो ऐसे लगता है जैसे आज की चिट्ठी विहीन दुनिया में उन्हें चिट्ठी ही लिख रहे हैं....अभी इस पोस्ट को लिखते लिखते देखा कि बड़ी बहन का मैसेज आया है ..तुम्हारी पोस्ट की इंतज़ार हो रही है..मैंने जवाब लिख दिया...लिख रहा हूं, भेजता हूं अभी .. 😃😃


क्या आप को लगता है कि इस फिल्मी नगमे से बड़ी भी कोई इबादत हो सकती है...मुझे तो कभी नहीं लगता...न आदमी की आदमी झेले गुलामियां....न आदमी से आदमी मांगे सलामीयां ......🙏

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

यह उन दिनों की बात है ...2. जब ट्यूशन लगवाना बाइसे फ़ख्र न था...

साल 1974 - चलिए आज मेरे साथ पचास साल पहले वक्त की गलियों में टहलने चलिए...मैं आज बाहर टहलने नहीं जा रहा हूं..सोच रहा हूं यहीं पर ही टहल लूं..जी हां, उन दिनों मैं अमृतसर के डी.ए.वी स्कूल में छठी जमात में पढ़ता था। 

तो जनाब हुआ ऐसे कि मुझे शुरु ही से पढ़ने लिखने का शौक तो था ही ...छुट्टी वुट्टी नहीं करता था ..मास्टरों की बात को अच्छे से सुनना और मानना मेरी आदतों मे शामिल था ..और वक्त पर स्कूल जाना भी होता था ..कुछ साल पैदल, बाद में साईकिल पर...

लेकिन छठी कक्षा में पढ़ते पढ़ते जैसे ही बीज-गणित (एलजेब्रा) पढ़ना शुरू किया तो मुझे कुछ मुश्किल सी महसूस हुई कुछ दिन... मेरे साथ बैटने वाले दोस्त मनीष से मैं पूछ लेता, वह बड़ा नेक बंदा था ...एलजेब्रा के सवाल हल करने मेंं खुशी खुशी मेरी मदद कर देता ...लेकिन फिर भी मुझे एलजेब्रा कुछ अजीब सा ही लग रहा था...

मैं एक दिन स्कूल से घर लौटने पर रोने लग गया...मेरे पापा ने पूछा ...मैं साफ़ साफ़ कह दिया कि पापा जी, मुझे हिसाब का सब्जैक्ट अच्छे से समझ नहीं आ रहा ...बस, फिर क्या था...पापा जी ने पूछा कि क्या वह मास्टर जी ट्यूशन पढ़ाते हैं...मुझे जो पता था वह मैंने बता दिया जो मुझे पता था क्योंकि ट्यूशन पढ़ने वालों पांच छः क्लास के साथियों से यह तो पता चल ही गया था कि वे स्कूल की छुट्टी होने के बाद शाम चार से पांच बजे मास्टर जी से ट्यूशन के लिए रुकते थे...महीने में कितने पैसे ट्यूशन के लगते हैं जितना इस के बारे में भी मुझे जितना पता था वह भी मैंने पापा जी को बता दिया...

पापा ने मेरी कापी का एक पन्ना फाड़ा ...उस पर चिट्ठी लिखी जिन्हें वह वैसे भी वह बड़े चाव से, इत्मीनान से लिखा करते थे ...चिट्ठी लिख कर उन्होंने उसे एक बार फिर से पढ़ा और उसे मेरे हवाले करते हुए कहा कि इस ख़त को कल मास्टर जी को दे देना...मैंने वैसा ही किया ...मुझे पता नहीं आज तक कि पापा ने उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा था - यार, पूरा पन्ना भरा हुआ था...खैर, उस दिन मास्टर जी ने स्कूल की आखरी घंटी के बाद मुझे भी अपनी उस ट्यूशन की क्लास में ही बैठने को कह दिया...बस, फिर क्या था, यकीन मानिए, मुझे दो चार दिन में ही एलजेब्रा बहुत अच्छे से समझ में आने लगा...और मैं खुश..


चाक एन डस्टर फिल्म देख कर पता चला कि एलजेब्रा कितना आसान है ...अभी इस गाने में ज़रीना बहाव को देखा तो उन से हुई मुलाकात याद आ गई....
चार पांच बरस पहले ज़रीना जी से लखनऊ में मुलाकात हुई तो बहुत अच्छा लगा...मैंने उन्हें यह भी कहा कि मैंने उन की सभी फिल्में देखी हैं बार बार ...चितचोर, घरौंदा...वह बहुत खुश हुई ...

खुशी मुझे भी बहुत हुई थी उस दिन...क्या है ना, पहले हमारा इस तरह के अज़ीम कलाकारों के साथ एक रिश्ता जुड जाता था जैसे...कोई हमें बड़ी बहन दिखती तो किसी की ममता में हमें अपनी मां की तस्वीर नज़र आती ...

ट्यूशन का एक महीना पूरा होने का था....पता चला कि महीने के 25 रूपये ट्यूशन की फीस है ...छठी क्लास के बाकी के जितने भी महीने रहते थे वह ट्यूशन जारी रही ...और पापा मुझे महीना पूरा होते ही एक सफेद लिफाफे में 25 रूपये के कड़कड़ाते नोट डाल कर देते कि मास्टर साहब को दे देना..और उन पैसों को लेकर स्कूल जाते वक्त मेरी तो भई जान ही निकली रहती जैसे कि मैं पता नहीं कितना बड़ा खजाना लेकर स्कूल की तरफ़ पैदल मार्च करने का कोई जोखिम उठा रहा हूं ...लेकिन मेरे बाल मन को इतना अहसास तो था कि यह रकम भी इन के लिए बडी़ ही है, कईं बरसों बाद यह लगता था कि पता नहीं कौन से खर्चे कम के उस वक्त उस ट्यूशन की इस फीस का जुगाड़ करते होंगे ...चलिए...मैं सारा दिन उस लिफाफे को अपने बस्ते में पड़े रहने देता...बार बार कईं बार चेक कर लेता ...लेकिन पता नहीं उन दिनों भी इतनी अक्ल कहां से थी कि देता मैं मास्टर साहब को ट्यूशन के पीरियड में ही था....

चलिए जी, यह तो थी अपनी पहली और आखरी ट्यूशन की दास्तां.....उस के बाद कभी भी ट्यूशन नहीं रखी ....कभी ख्याल मन में आया भी तो उस वक्त में तो जो ट्यूशन के रेट चल रहे थे उन दिनों, उस के बारे में मालूम पड़ता तो घर में आकर पापा से कहने की हिम्मत ही नहीं होती क्योंकि पहले बच्चे बोलते कम थे लेकिन मां-बाप की जेब के बारे में बिना किसी के कुछ कहे-सुने बहुत कुछ जान लेते थे ...

खैर, वह ज़िंदगी में मेरा ट्यूशन का तजुर्बा बहुत अच्छा रहा ...वह मास्टर जी ऐसे नेक कि कभी किसी भी छात्र को मजबूर नहीं किया कि उनसे ट्यूशन पढ़नी ही है। और हां, वह लिफाफे में 25 रूपये डाल कर मास्टर जी के भिजवाने वाली बात ..मैं बहुत बरसों बाद जब उस बात को याद करता तो मुझे यह अहसास होता कि मेरे पापा भी ज़माने के हिसाब से बहुत आगे थे कि उन्हें यह भी लगता कि मास्टर को पैसे देते वक्त भी तहज़ीब से देने होते हैं...

दो दूनी चार का यह दृश्य देख कर आप भी ऱोये थे न....मुझे पता है...क्योंकि मेरे साथ भी हर बार ऐसा होता है...

और यही प्रथा फिर आगे मैंने बच्चों की ट्यूशन के मास्टरों को उन की फीस भिजवाते वक्त भी चलाए रखी...हमेशा लिफाफे में डाल कर बड़ी इज़्ज़त से ही यह फीस दी जाती ... क्योंकि भाई हम भाजी मार्कीट से धनिया-पुदीना नहीं खरीद रहे ...और अगर फुटपाथ पर हम कुछ खऱीद कर पैसे उन के हाथ में इज़्ज़त से थमाने की बजाए उन के आगे किसी फलों के ढेर पर या भाजी के ढेर पर रख कर आगे भढ़ने लगते हैं तो मुझे तो बहुत बार किसी बुज़ुर्ग दुकानदार महिला ने कईं बार दम भर है कि यह तरीका नहीं होता..पैसे देने का ..मराठी में कहती हैं लेकिन मैं समझ लेता हूं ...कहती हैं कि पैसे हाथ में सलीके से पकड़ाने होते हैं...दो चार बार इन औरतों से डांट खाने के बाद अब मैं सुधर गया हूं ...किसी को भी पैसे थमाने वक्त पूरा ख़्याल रखता हूं.. 

अच्छा, जैसे जैसे वक्त आगे बढ़ता चला गया ..ट्य़ूशनों का चस्का मास्टरों को भी लगने लगा शायद लेकिन मां-बाप को तो ज़रूर लगने ही लगा ..मास्टरों के बारे में यह सुना जाने लगा कि वे बच्चों को उन के पास ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं ...लेकिन हमें तो कभी किसी ने ट्यूशन पढ़ने के लिए नही ंकहा ..जो सच है वह ज़रूर दर्ज कर देना चाहिए...ऐसे ही सुनी सुनाई बातों पर यकीं नहीं करना चाहिए। 

लेकिन फिर भी ट्यूशन इस कद्र पढ़ी-पढ़ानी वाली चीज़ हो गई जैसे कोई फैक्ट्री चल रही हो ...हमारी कालोनी में हमारे स्कूल से साईंस टीचर रहते थे ..सुबह एक बैच स्कूल खुलने से पहले ..और शाम के वक्त छुट्टी होने के बाद तीन चार या दो तीन बैच पढ़ाते थे .. 1977-78 के दिनों की बातें हैं..हमारे नवीं-दसवीं के दिन ... उन के घर के बाहर बीसियों साईकिल खड़े रहते थे ...और मोहल्ले वाले खामखां टोटल मार मार के अपनी हालत खराब करते रहते कि इतने साईकिल दिन भर में खड़े रहते हैं ..अगर एक स्टूडेंट से इतने पैसे भी लेते होंगे तो इस का मतलब इतना तो कमा ही लेते होंगे...खैर, बहुत काबिल और नेक थे ...हमें स्कूल में ही अच्छे से पढ़ा देते थे और मुझे याद है नवीं कक्षा में जब साईंस के पेपर में मेरे 40 में से 38 अंक आए थे तो उन्होंने मेरे पेपर का एक एक पेज सारी क्लास को दिखा कर कहा कि पेपर में कैसे लिखा जाता है, यह देखो...और मैं बैठे बिठाए क्लास का हीरो नं 1 बन जाता....

अच्छा, एक बात और भी है कि उन दिनों लोगों के मन में यह भी था कहीं न कहीं कि ट्यूशन से होता हवाता कुछ नहीं ...बस, फेल होने वाले को पास करवा देती है....और वैसे भी जो पढ़ाकू किस्म के बच्चे होते थे ..वे कम ही दिखाई देते थे ऐसी ट्यूशन की महफिलों से...शेल्फ-स्टड़ी का सबक हमें घर ही से मिलता रहता था...भाई-बहन को पढ़ते देख कर। 

खैर, यह वह दौर था ...पचास साल पहले ... जब ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर जिन्हें घर बुलाया जाता था उन का अपनी शिष्या को बीजगणित-रेखागणित पढ़ाते पढ़ाते कुछ ऐसा समीकरण बैठ जाता था कि बात शादी करने करवाने तक पहुंच जाया करती थी ..दो किस्से हमारी कॉलोनी में हो गये थे ..दसवीं क्लास की छात्राएं थीं और मास्टर जी से फिर उन की शादी हो गई ...मुझे अभी उन दोनों मास्टरों के चेहरे और उन छात्राओं के चेहरे भी याद हैं....और शादीयां सफल ही रहीं ...लेकिन उस दौर में लोग उस तरह के रोमांस की चर्चा करते वक्त किसी रूमानी नावल पढ़ने जैसा मज़ा लेते...सच कह रहा हूं...हमें भी उड़ती उड़ती बाते सुन कर कुछ कुछ होता तो था लेकिन यह पता न था कि यह है क्या ...


अब लगता है इस पोस्ट को बंद करूं ...अभी ट्यूशन की बातें बहुत सी बची हैं..कभी मूड हुआ...जैसे आज सुबह मूड बन गया तो इतना कुछ बिना किसी शर्म-संकोच के लिख दिया...कुछ तो अभी लिखने को बाकी है ...देखता हूं.....और हां, जाते जाते एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि ये जो ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर घरों में आते थे उन की छवि बड़ी रोमांटिक बनाने में हमारी हिंदी फिल्मों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है ..बेशक...पुरानी से पुरानी फिल्में देख लीजिए...जब भी कोई मास्टर किसी के घर में घुसा...उसने वहां जा कर कुछ पढ़ाया वढ़ाया या नहीं, लेकिन उन का नैन-मटक्का ज़रूर चल निकला...इसलिए जैसे ही फिल्मों में ट्यूशन लगाने की बात ही चलती अपने तो कान फौरन खड़े हो जाते ...कि अब चलेगी फिल्म सही ...

लिखते लिखते मुझे ख्याल आ गया कि आज की पोस्ट लिखते लिखते तो टीचर याद आ गये....ज़रूर टीचरों को याद रखना चाहिए...यह मिट्टी से सोना बनाने वाले कलाकार हैं....बीस-बाईस साल पुरानी बात है ...मैं फिरोजपुर में नौकरी कर रहा था...वहां तो अमृतसर का रास्ता बस में दो घंटे का ही है ...मैं कईं बार पुराने गली-कूचों को बिना वजह देखने, पुरानी यादों को ताज़ा करने चला जाता ..एक बार मैं पूछते पूछते अपने एक टीचर के घर पहुंच गया...संयुक्त परिवार में रह रहे थे ..मैं उनके लिए बर्फी का डिब्बा लेकर भी गया था ...क्योंकि मुझे लग रहा था कि मैं किसी मंदिर में भगवान के दर्शन करने जा रहा हूं ... मैंने उन का आशीर्वाद लिया...लेकिन वह अपनी यादाश्त लगभग खो चुके थे ...कड़ाके की ठंड थी उन दिनों ..एक पुराना, घिसा हुआ कंबल उन्होंने लपेटा हुआ था ...पेंशन नहीं होती प्राइवेट स्कूलो में ...बच्चे नौकरियां कर रहे थे ..मैं उन के साथ और उन के परिवार के साथ संपर्क में था...उन्होंने मुझे बंबई चिट्ठी भी लिखी थी...25 साल पहले ..मेरे पास अभी भी पड़ी हुई है ...उस दिन मुझे मिलने पर यही लगता रहा कि यह वह बंदा है जिस के पास एक ही गर्म सूट था, एक ही शूज़ थे ..लेकिन उन का सलीके से उन्हें रोज़ चमका कर पहनना और सूट को अच्छे से साफ़ रखना ..हमें उन की पर्सनेलिटि अच्छी लगती थी ...उस दिन मुझे लगा कि इन्हें जेब-खर्च तो यार अब भेजना बनता है ...उस के बाद मैं उन को हर महीने 500 रूपये का मनीआर्डर करता रहा ...जब तक वह जीवित रहे ...मैंने एक बार मनीआर्डर के साथ जो संदेश लिख भेजते हैं उस में लिख भी दिया था कि यह मास्टर साहब का जेब-खर्च है, उन के खाने-पीने का ख्याल रखिए... उन के जाने के बाद गुरू मां को भी मनीआर्डर भिजवाता था .....लेेकिन जब वह भी चल बसीं तो वह नाता भी टूट गया....

ये सब बातें लिखना मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था कि मैं बर्फी का डिब्बा ले कर गया ...500 रूपये का मनीआर्डर हर महीने करवाता था ..जो लोग मुझे अच्छे से जानते हैं वे जानते हैं, दूसरे इस लिखने को किस अंदाज़ में लेंगे मुझे रती भर भी फ़र्क नही पड़ता ..और हां, मेरी मां को जब मैंने यह मनीआर्डर वाली बात बताई थी तो उन्हें इतना अच्छा लगा था कि मैं क्या लिखूं...कहने लगी थीं कि बहुत ही अच्छा करते हो... शायद हमें अपने मां-बाप से, हमारे समाज से जो मिलता है, सारी उम्र हम वही लौटाते हैं ...आप को क्या लगता है। यह जेब-खर्च वाली बात इसलिए लिख दी क्योंकि पता नहीं हमे ंकहां से प्रेरणा मिल गई ...इसे पढ़ कर शायद किसी दूसरे को भी कुछ आइडिया आ जाए...इसलिए दिल की बातें शेयर कर देनी चाहिए...

पोस्ट को पढ़ कर थोड़ा इमोशनल हो जाएं तो हो जाने दीजिए...मैं ही इसे लिखते लिखते कितनी बार हुआ...चलिए, अब खुशी की वजह से जो आंखें नम हो गई हैं, उन्हें पोंछने के लिए आप को एक बढ़िया गीत सुनाते हैं... सुनिएगा ज़रूर ....पुराने रोमांटिक गीतों को जब मैं देखता हूं, सुनता हूं तो सोच पड़ जाता हूं कि कह तो तब भी सब कुछ देते ही थे लेकिन कहने का एक नफ़ीस सलीका था.😂😄😎 (उस दौर के गीतकारों की याद को सादर नमन) ...अब तो वेबसीरीज़ में ...गालीयां चेप देना ही कूलनैस का द्योतक हो गया हो जैसे...

 

कोई कोई पो्स्ट लिखने लगो तो सच में प्रसव पीडा़ को सहने जैसा काम होता है ...यह पीड़ा सही तो नहीं है लेकिन सुना बहुत है ..जब तक बात पूरी नहीं लिखी जाती, दर्द चैन से बैठने नहीं देता.....आज तो वैसे भी ऐसे लग रहा है जैसे कोई चित्रहार ही पेश कर रहा हूं 😎😎 - 

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

यह उन दिनों की बात है ...1. भाई बहनों की गुफ़्तगू

मैं अकसर गुज़रे दौर की बातें करता रहता हूं ...इस विधा को हिंदी साहित्य में संस्मरण लेखन कहते हैं...हर कोई अपनी अपनी समझ से आप के लेखन को देखता है ...लेखन कोई इतनी बड़ी तोप भी नहीं ...बस, अपना दिल खोल के सब के सामने रख देने की एक कोशिश है ...धीरे धीरे जैसे जैसे दिल खुलता जाता है, यह काम ख़ासा आसां लगने लगता है...हां, मुझे एक बार मेरे एक कालेज के साथी ने लिखा कि चोपड़े, यार तुम पुरानी बातें याद करते रहते हो...। और बात आई गई हो गई...लेकिन मैं तो वैसे ही अपने दिल की बातें लिख कर हल्कापन महसूस करने का कायल हूं और इस में बहुत सहजता महसूस करता हूं...शायद आज से बीस साल पहले उतनी नहीं करता था जितनी आज करता हूं...

लेकिन कुछ दिन पहले मुझे पंजाबी की एक किताब मिली ...रंग बिरंगीयां...जिसे मेरे स्कूल-कालेज के एक साथी के पिता ने लिखा है ..वह साथी पंजाब का बहुत बड़ा नामचीन सर्जन है ...उस के पापा पंजाबी में लिखते हैं...93 बरस की उम्र में भी लिखते हैं, पेंटिंग करते हैं...वह साथी जब फेसबुक पर अपने पापा की लिखी पोस्टें डालता तो मुझे उन्हें पढ़ने में बड़ा लुत्फ़ आता ...हार कर उस के पापा ने मुझे अपनी लिखी दो किताबें ही भिजवा दीं...शुरू के पन्नों में लेखक ने लिखा है ....उस का हिंदी अनुवाद मैं यहां लिख रहा हूं...

"बेशक यादें मेरी निजी हैं और आप पढ़े-लिखे विद्वान और बुद्धिमान हो, फिर भी शायद कुछ अच्छी लगें, कुछ सिखा जाएं, कुछ ज्ञान में इज़ाफ़ा कर दें , सोचने पर मजबूर करें, हैरान ही कर दें और शायद होटों पर मुस्कान ही ले आएं, आप दूसरों को भी सुनाएं और आप को इन्हें पढ़ते पढ़ते आपकी अपनी पुरानी यादें हरी हो जाएं शायद..."

जब से मैंने उन बुज़ुर्गों की यह बात पढ़ी है, मुझे यह लगने लगा है कि यादों को सहेज कर रखना भी कोई इतनी बुरी बात नहीं है...

उसी सिलसिले में मैं आज कुछ और सहेजने की फ़िराक़ में हूं ...किस तरह से एक छत के नीचे रहते हुए उस दौर के भाई बहन आपस में किस क़द्र जुड़े हुए थे ...उस दौर में भाई बहन आपस में बातें करते थे ...बहुत सी कभी खत्म न होने वाली बातें ...भाई बहन की ज़िंदगी में जो भी चल रहा होता, वे आपस में बात कर लेते ...और मज़े की बात यह है कि भाई बहन की उम्र में काफ़ी फ़र्क होेते हुए भी यह मुमकिन था ...मैं घर में सब से छोटा था, बहन 10 साल बड़ी, भाई 8 साल बड़ा...

यह टीवी मोबाइल न होने की वजह से घर मे सब के पास सब के लिए वक्त ही वक्त था ... और भी कोई मनोरंजन का साधन खास न था...एक दो मैगज़ीन रहतीं जिस के पन्ने उलट लीजिए...और रेडियो जो किसी कमरे के किसी मेज़ पर सजा कर रखा होता...उस की मेहरबानी होती तो हम कोई फिल्मी गीत सुन लेते ...लेकिन अगर उस का मूड ही खराब है, गले में उसे भी खिचखिच होती तो हम परेशान होकर उसे भी आराम करने देते ...यह सोच कर कि सुबह उठ कर छत पर ईंट के नीचे दबी ऐंटीना की तार को हिला-ढुला के देखेंगे ...शायद चल पड़े ..लेकिन अगली दिन वही स्टोरी फिर से दोहराई जाती ...जिन लोगों ने वे सब दिन देखे हुए हैं, उन के लिए लेखक, शायर ...कुछ भी बनना कहां मुश्किल है ...लेख, आलेख खुद ही दिल से बाहर निकलते हैं...

हां, तो घर में भाई-बहनों की बात हो रही थी ...घर में आकर वे अपने स्कूल-कालेज की बातें करते ..बड़े आदर से अपने प्रोफैसरों के बारे में बताते कि वह कितना अच्छा पढ़ाते हैं...कईं बार अपने लिखे हुए नोट्स भी दिखाते कि देखो, आज सर ने कितना पढ़ा दिया...लिखते लिखते हाथ थक गए...मैं छठी-सातवीं में था और बड़ी बहन एम ए में थीं...यह 1973-74 की बातें हैं ...वह बहुत ज़्यादा मेहनत करती थीं...रोज़ का रोज़ पढ़ना और मेरे लिखे इंगलिश के निबंध भी चेक करना ...और मेरी खबर लेते रहना ...खबर लेने का मतलब पिटाई करना नहीं ...वह तो हमें पता भी नहीं था किसे कहते हैं ...हमें घर में किसी ने कभी गुस्से से छुआ तक नहीं.. ...पिटाई तो दूर की बात है ..मां को हम लोग आखिर तक छेड़ते थे कि बीजी, आप भी कैसी मां हो, किसी बच्चे को मारना नहीं, कभी डांटा नहीं, कभी आंखें नहीं दिखाई ...बस, वह हंस देती ...अब जिन बच्चों का बचपन ऐसा बीता हो, उन्हें बड़े होने पर कैसे सब लोग अपने न लगेंगे...

हमें अपने भाई-बहन के कालेज के प्रोफैसरों तक के नाम याद हो जाते थे ...इतनी बार उन के बारे में सुन रखा होता था...ये सब छठी सातवीं कक्षा की बाते हैं...घर के हर बाशिंदे को यह पता होता था कि कौन सा बंदा कहां गया है, कैसे गया है, कब तक आ जाएगा...और सब का इतना सकारात्मक रवैया कि जो भी घर से बाहर गया है वह लौट कर घर ही आ ही जाएगा...आज की तरह नहीं, मिनट मिनट की खबर देना-लेना कमबख्त इतना सिर दुखा देता है कि क्या कहें...

याद नहीं कभी भाई-बहनों ने आपस में कहा हो किसी को कि साईकिल ध्यान से चलाना, संभल कर जाना, वक्त पर आ जाना, स्कूल से सीधा घर ही आना, फ़िज़ूल की चीज़ें न खाना......कोई कुछ नहीं कहता था किसी को, सब अपना ख्याल खुद ही रखते थे ...सातवीं आठवीं कक्षा की बात होगी ..मैंने साईकिल पर नया नया जाना शुरू किया था ..अमृतसर गोल बाग के पास मुझे एक ट्रक आता दिखा तो मैंने अपनी साईकिल वहीं सड़क के बीच ही फैंक दी और खुद पीछे हट गया....साईकिल किसी स्कूटर वूटर के नीचे आ गई ...टेढ़ी सी हो गई ...मैं रिक्शे पर उसे रख कर घर लौट आया...मुझे अडो़स पड़ोस की सभी औरतें ऐसे देखने आईं जैसे मैं कोई जंग फतेह कर के आया हूं ...लेकिन कोई बात नहीं, शाम तक साईकिल को ठीक करवा लिया गया...और अगले दिन से फिर वही साईकिल यात्रा शुरु ---शायद किसी ने बिल्कुल नरमी से घर में यह कह दिया हो कि ट्रक, ट्राली का ख्याल रखा करो....

भाई-बहनों को एक दूसरे के एग्ज़ाम की डेटशीट, उन के सब्जैक्टस के नाम...कौन सा पेपर कैसा हुआ है, कौन सा खराब हुआ है...सब की जानकारी आपस में बांटते थे ...किस ने कहां नौकरी के लिए अप्लाई किया है, किस के रिश्ते की बात कहां चल रही है, बहन ने आज मां के साथ फोटो खिंचवाने जाने से पहले अच्छी सी साड़ी क्यों पहनी है...क्योंकि अब बहन की शादी की बातें घर में होने लगी हैं...मुझे यह बात बहुत उदास कर जाती थी ...अकसर ..कि बहनें बडी़ हो कर ऐसे कैसे दूर चली जाती हैं.......बाल मन की बातें थीं, फिर धीरे धीरे समझ आने लगी ...दिलोदिमाग में ठूंस ठूंस कर भर दिया गया हो जैसे कि बहनें, बेटियां तो पराया धन होता है .......ओह मॉय गॉड...

हां, अब मुद्दे की बात ...क्योंकि मैं भी अमृतसर के उसी कालेज में पढ़ा हूं जिस में बड़े बहन-भाई पढ़ते थे ...कुछ दिन पहले मैंने एक प्रोफैसर साहब का नाम देखा...याद आया कि यह तो बहन को पढ़ाते थे ...उन्हें प्रिंसीपल हो कर रिटायर हुए अरसा हो गया...मैं कल रात फेसबुक पर उन्हें फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेज दी ...उन्होंने तुंरत स्वीकार कर ली.....अब सोच रहा हूं आगे की प्लानिंग ...उन का नंबर लेकर बहन को दूंगा ...उन्हें अच्छा लगेगा कि उन की पढ़ाई हुई एक छात्रा भी यूनिवर्सिटी से प्रोफैसर हो कर रिटायर हो गई है..लेकिन यूनिवर्सिटी वाले अभी भी उन्हें छोड़ने को राज़ी नहीं हैं....बहन है, इसलिए नहीं कह रहा हूं ...वह एक बहुत अच्छी टीचर हैं, हमेशा क्लास में जाने से पहले पढ़ कर जाती हैं, यूनिवर्सिटी से जो कापियां जांचने के लिए आती हैं, उन्हें पूरा पढ़ कर जांचती हैं सुबह उठ कर ....जैसे इबादत कर रही हों..कहती हैं हर एक का सही मूल्यांकन ज़रूरी है...

और हां, मेरी मां के जाने के बाद मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, मेरी हौंसलाफ़जाई करती रहती हैं कि नियमित लिखते रहा करो, तुम बहुत अच्छा लिखते हो ...ख़ुदा करे उन की यह गलतफ़हमी बरकरार रहे और मुझे शाबाशी मिलती रहे ...😃

लेकिन ये सब उन दिनों की बात है जब मोबाइल, टीवी, वीसीआर....कोई झंझट नहीं था, हम सब लोग आपस में खूब बातें करते थे ...अंगीठी के दौर में उस के आसपास बैठ कर मूंगफली-रेवड़ी खाते खाते खूब हंसते थे ...खूब ठहाके लगाते थे..फिर भी हम सब 9 बजे तक सो ही जाते थे ...आज की तरह नहीं जैसे हम उल्लू बने होते हैं ..रात 12-1 बजे तक ..बिल्कुल दीवानों की तरह  पर वाट्सएप पर टंगे रहते हैं...फिर वही पकाने वाली बातें की पता नहीं नींद नहीं आती, नींद पूरी नहीं होती, नींद गहरी नहीं होती.....काश, नींद की भी कोेई एप ही आ जाए उसे स्विच करते ही नींद भी आ जाए .....

परसों देर शाम मैं कफ-परेड प्रेज़ीडेंट हाटेल के पास एक बाग की तरफ़ से निकल रहा था ..मैंने देखा बहुत से बेंचों पर चार चार लड़के बैठे हैं..पेड़-पौधों को निहार नहीं रहे, खेल-कूद नहीं कर रहे ...भाग-दौड़ नहीं रहे .....लेकिन अपने मोबाइल पर सब के साथ खेल रहे हैं......बड़ा अजीबोगरीब नज़ारा लगा मुझे वह उस दिन ....

यह कहां आ गए हम!!