सोमवार, 16 अगस्त 2021
शेरशाह मूवी के पंजाबी डॉयलाग ठीक नहीं लगे ....
मंगलवार, 29 जून 2021
खराब अंग्रेज़ी की अच्छाईयां
अंग्रेज़ी की ही एक कहावत है कि जब पैसा बोलता है तो उस की व्याकरण की अशुद्धियों की तरफ़ कोई नहीं देखता.. बिल्कुल बात सही है ...हम लोग सब यह देखते ही हैं..
इस बात के साथ जो बात मैं अकसर जोड़ देता हूं वह यह है कि जब कोई भी इंसान दिल से बात करता है ...तब भी हम उस की व्याकरण की तरफ़ बिल्कुल ध्यान नहीं देते....हम यह गुस्ताख़ी समझते हैं, है कि नहीं। लेकिन जो कोई हम पर अपनी इंगलिश-विंगलिश झाड़ कर हम पर रूआब डालने की कोशिश करता है ...उस की अंग्रेज़ी की तो पूरी तलाशी होनी ही चाहिए...शायद यह ज़रूरी भी है..
हां, तो खराब अँग्रेज़ी के फायदों की बात कर रहे हैं....पता नहीं, कहीं भी किसी की भी खराब अंग्रेज़ी पढ़ कर बंदे पर तरस सा आने लगता है ...यार, बंदा कोशिश तो पूरी कर रहा है...चलो, उस की इबारत बार बार पढ़ कर उस का मतलब ढूंढते हैं और पता लगाते हैं कि वह आखिर चाह क्या रहा है..। बस इसी रहमोकरम के चक्कर में उस का काम हो जाता है....क्या है न हैं तो हम देसी लोग इमोशनल फूल ही हैं...हमें बेवकूफ़ बनाना कोई मुश्किल काम भी नहीं है...
खराब अंग्रेज़ी की बात करता हूं तो सब से पहले मुझे एक बंगाली बाबू की याद आ जाती है जो एक बार रेल में यात्रा कर रहा था...गाड़ी एक जगह रूकी...उसे हाजत हो रही थी, वह हल्का होने के लिए इधर उधर चला गया...इतने में ट्रेन ने सीटी बजा दी ...बेचारा पानी का लोटा और अपनी धोती संभालता चलती हुई ट्रेन को पकड़ने के लिए भागता रहा ...लेकिन उस बंदे ने अंग्रेजी में एक चिट्ठी लिख मारी जैसे तैसे रेल के किसी बड़े अफ़सर को ....बस जी होना क्या था, उस का क्या, सारे हिंदोस्तान का काम हो गया उस बंदे की टूटी फूटी इंगलिश से ... ये जो आज हम जैसे भी खाना-पीना ठूंस कर चढ़ जाते हैं गाड़ी में कि कोई बात नहीं ...हाजत हो भी गई तो अपनी रेल ज़िंदाबाद.... हिंदोस्तान की रेलों में टायलेट की व्यवस्था उस एक चिट्ठी की वजह ही से हो पाई।
हमारे एक अजीज़ हैं सक्सेना जी.. बाबू लोगों के अंग्रेज़ी प्रेम के बड़े किस्से सुनाते हैं...लेकिन बाबू लोग ही नहीं, अफसरों की अंग्रेज़ी भी कईं बार बहुत बढ़िया नहीं होती ..लेकिन करें तो क्या करें, हमें तो वही झाड़नी है, उसे से ही हम अपना दबदबा बना पाएंगे ....शायद यही मानसिकता होती होगी...एक दिन बताने लगे कि डाक्टर साब, यह जो दफ्तरों में बाबूओं का अंग्रेज़ी प्रेम है न, इस के चलते बहुतेरों के बच्चे पल रहे हैं...। बात हमारी समझ में आई नहीं।
हमें समझाते हुए सक्सेना जी ने कहा कि जिस देश में अधिकतर लोग अपनी राष्ट्र-भाषा में तो अपने आप को व्यक्त कर न पाएं ढंग से, उन से यह उम्मीद लगा लेना कि वे अंग्रेज़ी में एक बढ़िया सा टाइट ड्राफ्ट तैयार कर पाएंगे ....यह सरासर नाइंसाफी है कि नहीं, डा. साब। आगे कहने लगे कि अंग्रेज़ी भाषा हो या कोई भी भाषा हो उस में परफैक्शन हासिल करने का कोई क्विक-फिक्स तरीका नहीं होता कि एक हफ्ते में कुछ भी सीख लिया जाए....नहीं, यह भी एक साधना होती है....लेकिन अधिकतर नौकरीपेशा लोगों को इस साधना का वक्त कभी मिला ही नहीं ...लेकिन हां, इंगलिश में एक बढ़िया सा ड्राफ्ट लिखने का बहुत शौक रखते हैं....इसलिए उस में कुछ न कुछ और बहुत कुछ ऐसे ही लिखा आगे निकल जाता है ....। मैंने उन्हें बीच में ही टोक दिया कि ऐसे कैसे आगे चला जाता है....पूरी हायआर्की है चैक करने के लिए...। सक्सेना साब ने हमें कहा कि बस हम जो कह रहे हैं उसे सुन लीजिए....बाबू का लिखा बि्लुकल वैसे का वैसे आगे चला जाता है ....
और एक बात गौर करिेएगा....सक्सेना जी ने बात जारी रखी, जब तक तो किसी की खराब अंग्रेज़ी से किसी का भला हो रहा है...कोई फायदा हो रहा है ...तो जिस का फायद हो रहा है, उस की बला से किस का भाषा ज्ञान कैसा है, उस से क्या मतलब.......लेकिन ओफ.....दिक्कत जब होती है जब कुछ एक बाबू लोगों की खराब इंगलिश की वजह से किसी का थोड़ा नुकसान हो जाए या किसी की नौकरी पर बन आए....ओह, हो...फिर देखिए किस तरह से बाबू के लिखे का पोस्टमार्टम होता है ....बात कोर्ट-कचहरी तक पहुंचती है .....और वकीलों को तो आप जानते ही हो, वे तो कितनी सफ़ाई से बाल की खाल भी खींच लेेते हैं....इसलिए बहुत बार, हमारा यकीं कर लीजिए. बहुत से केस अदालत में बाबू लोगों की खराब इंगलिश की वजह से पिट जाते हैं .......और मुलाजिम काम पर वापिस लौट आता है और उस के बाल-बच्चों, वृद्ध मां-बाप का भरण-पोषण चलता रहता है और बाबू लोग इस तरह से उन सब की अपार दुआएं पाते रहते हैं ....
अब बात हमारी भी समझ में आ गई... कि खराब अंग्रेज़ी होना भी इतनी ख़राब बात नहीं है, भला तो वह भी किसी न किसी का, किसी न किसी रूप में कर ही रही है...
( आज पूरे डेढ़ महीने बाद कुछ लिखा है....अपने साथी ब्लॉगरों को रोज़ सुबह पढ़ता हूं....सोचा जिस एक बात को १५ साल से सीख ही रहा हूं ...उसे कैसे इतनी आसानी से छोड़ दूं....मै जब भी कुछ दिनों के लिए लिखना बंद करता हूं तो हमारा कोई स्टॉफ ही मुझे इतनी मासूमियत से कह देता है कि हम आप का लिखा पढ़ते हैं....अच्छा लगता है...बस, मुझे मेरा इनाम मिल जाता है.....और हम फिर से शुरू हो जाते हैं...यह एक दम सच है..)
यह गीत परसों विविध भारती के प्रोग्राम बाइस्कोप की बातें में जो स्टोरी सुनाते हैं....उस दिन जिस फि्लम की स्टोरी सुनी ...उस का नाम था ...आँसू बन गए फूल ...यह गीत बहुत मुद्दत के बाद सुना तो इस गीत के रेडियो पर बार बार बजने वाले दिन याद आ गए .... 😀😁
शुक्रवार, 14 मई 2021
कभी पेड़ का साया...पेड़ के काम न आया...
हमारे स्कूल के ज़माने का यह गीत ...हमने इस के बोलों की तरफ़ कभी ध्यान भी न दिया होगा ...उन दिनों में किसे इतनी फ़ुर्सत होती है ...बस, इसे सुनना मन को भाता था, इसलिए रेडियो पर बजता था तो सुन लेेते थे ...तपस्या फिल्म का यह सुंदर गीत है ...१९७६ की फिल्म थी तपस्या....
पिछले लगभग आठ-दस साल से शायरों, फिल्मी गीतकारों के बारे में जिज्ञासा होने लगी कि ये लोग ऐसे दिल को छू-लेने वाले बोल कैसे लिख लेते हैं... लखनऊ में रहते हुए कुछ को मिलने का मौक़ा मिला..कुछ को देखने का ...और अभी बंबई में रहते कुछ गीतकारों की अगली पीड़ी से उन के बारे में सुनने का, उन को पढ़ने का सबब हासिल हुआ...
मैं भी किन बातों में पड़ गया...बात तो उस गीत की कर रहा था ...जी हां, मुझे फिल्मी गीत रेडियो पर और विविध भारती पर ही सुनने पसंद हैं। रविंद्र जैन की सुंदर फिल्मी और गैर फिल्मी रचनाओं से कौन वाक़िफ़ न होगा .. उन के सभी गीत और भजन दिल को छू जाते हैं ...बार बार सुन कर भी बंदे की प्यास नहीं बुझती।
अच्छा, यह जो गीत है ....यह मुझे बेहद पसंद है ... मैंने कुछ दिन पहले इसे कईं बार सुना था ... और मैं अकसर अपने पसंदीदा गीतों की दो चार लाइनें अपनी किसी कापी में लिख लेता हूं ....बाद में इसे ढूंढने में मुझे आसानी होती है ...क्योंकि मेरी यही पूंजी है 😆..लेकिन इस के बारे में मुझे मेरी नोटबुक में कहीं कुछ दिखा नहीं।
दो दिन से मैं इस गीत को तलाश कर रहा था ...बस, मुझे इतना ही याद था कि पेड़ अपने साये में ख़ुद नहीं बैठते ...सो, यही लिख कर मैंने गूगल किया ...और मुझे धुंधला सा यह भी याद था कि इसे लिखा भी रविंद्र जैन ही था शायद...मन सब तरह से गूगल कर लिया लेकिन मुझे इस का कुछ पता नहीं चल रहा था ....
कुछ क़रीबी लोगों से पूछा ..लेकिन कोई मदद न कर पाया....तो आज देर शाम में जब मैं अपने मोबाइल पर विविध भारती सुन रहा था तो अचानक यह गीत बजने लगा...मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि मैं ब्यां नहीं कर सकता ...सच में मुझे एक बार तो ऐसे लगा कि जैसे मेरी लॉटरी लग गई हो.. इसलिए मैं आज मौक़ा हाथ से जाने नहीं दिया...विविध भारती पर सुनने के बाद इसे कईं बार यू-टयूब पर देखा और साथ साथ उसे लिख कर भी रख लिया....
फिल्म तपस्या के इस बेहद सुंदर गीत को लिखा था..एम जी हश्मत ने...संगीत दिया था ...रविंद्र जैन ने और गायक थे ...किशोर कुमार और इन सब ने मिल कर जिस बेमिसाल गीत को जन्म दिया, उस का कमाल तो हम देख ही रहे हैं...इतने बरसों से ...👏
पेड़ और इस बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर मैंने गुजरात के एक स्टेशन पर कुछ दिन पहले खींची थी ....आज अचानक लगा कि यह गीत इन दोनों की दास्तां ही जैसे ब्यां कर रहा हो |
मुझे कईं बार लगता है जहां चाह वहां राह ...जिस चीज़ को हम लोग बड़ी शिद्दत से चाहते हैं, कुदरत भी उसे दिलाने में हमारी मदद करती ही है ज़रूर ...
शनिवार, 3 अप्रैल 2021
आम, खरबूज़ा, तरबूज फीके हैं...अंगूर खट्टे हैं...
किसी डाक्टर से मरीज़ कहां किसी इलाज की पूरी गारंटी मांगता है ... अगर मांगता भी है तो शायद वह अपना मज़ाक ही बनवाता होगा...है कि नहीं। और भी बाज़ार में बिकने वाली कितनी चीज़ें ऐसी हैं जिन की अगर आप गारंटी की बात ही करेंगे तो दुकानदार ऊपर से नीचे तक आप का मुआयना कर डालेगा...इन सब चीज़ों के बारे में वे लोग बहुत ज़्यादा जानते हैं जो बाज़ार जाते रहते हैं...दूसरे ऑनलाइन वालों को ये बात पल्ले नहीं पड़ेगी...
वो जंक फू़ड (पिज़्ज़ा) 375 रुपये में एक पकी-अधपकी मोटी सी रोटी हमें थमा देते हैं ...हम बिना किसी चूं-चपड़े के उसे खा लेते हैं...(मैं तो लिखने के लिए लिख रहा हूं...मेेरे से तो उस का एक टुकड़ा भी नहीं खाया जाता )....
लेकिन दुनिया भर की सारी गारंटी हमें सड़क किनारे फल-फ्रूट बेचने वाले से चाहिए....तरबूज़ हम लोग उन महंगे मॉल्स से उठा कर ले आते हैं....वहां पर कौन उस कलिंघड़ का पेट पाड़ कर हमें दिखाता है कि वह अँदर से कितना लाल है, कितना सफेद है....और न ही हम वहां पर इस तरह की कोई मांग ही रखते हैं क्योंकि हमें लगता है कि ऐसे ही सिरफिरा कह देगा कोई....
लेकिन मुझे दुःख इस बात का होता है जब भी मैं बाज़ार में कहीं भी तरबूज़ लेने के लिए रूकता हूं...पहले तो आजकल ग्राहक ही कम हो गये हैं...फिर उस से ग्राहक की यह मांग की काट कर दिखाओ...लाल होगा तो लेंगे ..नहीं होगा तो दूसरा देखेंगे...मुझे यह बात बड़ी अजीब लगती है ...मैंने कभी उसे काटने के लिए नहीं कहा...यही 30-40 रूपये में उस की जान थोड़ा ले लेंगे हम। जैसा भी है ..फीका है, मीठा है, लाल है ...या सफेद है ....वह कौन सा मंडी से उस के अंदर देख कर लाया है... क्या इतना कम है कि एक क़ुदरती चीज़ हम तक पहुंच रही है ...फीका है तो भी खा लो ...शायद उस वक्त आप को फीके की ही ज़रूरत होगी ...और अगर मीठे के लिए जी मचल रहा है तो साथ में गुड़ खा लीजिए।
सोचने वाली बात यही है कि दिन भर में अगर वे इसी तरह से अंदर से लाल न दिखने वाले तरबूज को वेस्टेज में जमा करते रहेंगे तो उन का चुल्हा रात को कैसे जलेगा....अगर जल भी जाएगा तो वैसा नहीं तो नहीं जल पाएगी जैसा वे लोग चाह रहे होंगे ...कमी तो रह ही जाएगी.....खरबूज़े का भी यही रोना ...भई, किस बात की गारंटी मांग रहे हैं हम ...उसे भी नहीं पता कि अंदर से कैसा होगा वह ...मुझे ये सब बातें मूर्खता से भरी लगती हैं....हमारे पड़ोस की एक आंटी ने तो बचपन में हमें एक फार्मूला बता दिया था ...फीके खऱबूजे को मूीठा करने का ....वह उसे काट कर चीनी (शक्कर) डाल कर फ्रिज में रख देती थी ...
अंगूर खट्टे हैं ...वह तो कहावत ही है ...लोग अपने हक के लिए अपनी बात तक तो मनवा नहीं पाते ...पॉवर के नशे में धुत्त हुए लोग किसी की जायज़ बात भी कहां सुनते हैं, बात सुनना तो दूर, सीधे मुंह बात तक करने की तहज़ीब इन्होंने किसी से कभी सीखने की कोशिश न की ...(इन प्राणियों से अपने आप को बचा कर रखिए....ये बड़े खूंखार होते हैं) और लोग फिर कहते हैं कि हमें नहीं चाहिए कुछ भी ..अपना हक़ भी नहीं ...हमें तो मन की शांति चाहिए...वही कहावत लोमड़ी वाली कि अंगूर खट्टे हैं .... इसलिए अगर खाने वाले अंगूर भी खट्टे हैं तो क्या फ़र्क पड़ता है...क्यों हम उस छोटी सी दुकान वाले से उलझने लगते हैं...और अरबपतियों के मॉल पर अपने को बड़ा संभ्रांत शो-ऑफ करते हैं....
कोई भी फल जो हमारे हाथ तक पहुंच रहा है ...सोचने वाली बात यह है कि इस के पीछे क़ुदरत की कितनी मेहनत है ...किसने उस का बीज रोपा, किसने पानी दिया...सींचा, उस पौधे की देखभाल की ...कितनी धूप-बारिश उसने झेली और फिर एक दिन पक कर हमारी प्लेट तक पुहुंच गया...क्या यह अपने आप में किसी क़रिश्मे से कम है ....बिल्कुल नहीं ....फिर हम उस से फीकेपन, खट्टेपन की शिकायत करने लगें तो यह मां प्रकृति का सरासर अनादर है ... जो है उसे परवान करने की आदत डालिए....और यह बड़ा सहज भाव में ....ख़ुशी खुशी करिए ... शायद इससे सहनशीलता ही बढ़ने लगे....
कभी भी नज़र दौडाइए...हम लोग उसी को अपना रूआब दिखाते है जो उसे सहने के लिए मज़बूर है ...जो हमें आंखें दिखाता है, उस से हम आंखें चुराने लगते हैं....ये जो छोटे छोटे दुकानदार हैं सड़क के किनारे पर खड़े ..ये हमें वल्नलेबर लगते हैं...हमारी बात उन्हें सहनी ही हैं ..इसलिए लोग उन्हें आंखें दिखाते हैं...हर तरह से उन का शोषण होता है ....एक तरबूज भी तब बिकेगा उन का जब वह अंदर से लाल-सुर्ख होगा....
ज़रा सोचिए...क्या हम इस के बारे में कुछ कर सकते हैं ...अपने स्तर पर ....अगर आप तरबूज को बिना कटवाए ही घर ले आएं तो यह भी एक नेक काम ही होगा...खरबूजा लेने लगो तो उस की कोशिश होती है कि एक खरबूज काट कर हमें दिखाए...मैं तो उसे मना कर देता हूं....आम और सेब बेचने वाले की भी यही कोशिश होती है ....लेकिन हम किस किस चीज़ की गारंटी लेंगे ...क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम इन सब चीज़ों को मां प्रकृति का प्रसाद समझ कर ही स्वीकार करना शुरू करें ...फीके, मीठे, बकबके को मुद्दा बनने ना ही दें ..
पंजाबी का एक सुपरहिट गीत है ... सब मालिक दे रंग ने सजना ...सब मालिक दे रंग ने ....सुनिए..आप को ज़रूर समझ में आ जाएगा ...आसान सी पंजाबी में बहुत सुंदर बातें कही गई हैं ..कुदरत की स्तुति में।
शनिवार, 27 मार्च 2021
आखिर कैसे हम पहुंच ही गए कोरोना वैक्सीनेटर तक ...
आज सुबह भी मैंने क्या किया ....पोस्ट का हैडिंग तो लिख दिया .... आखिर दिल और दिमाग़ की जंग हुई ख़त्म - हमने भी लगवा ही लिया कोरोना वैक्सीन !
और पता नहीं लिखते लिखते किधर से किधर भटक गया ...पहुंच गया बचपन के दिनों में .... बात कुछ ख़ास नहीं, लेकिन ऐसे लगा जैसे रीडर्स को ठग लिया ....अब असली बात भी तो करूं, मैंने सोचा। इसलिए वही बात लिखने बैठ गया हूं।
हां, तो जब कोरोना की पहली लहर का कहर जब बरप रहा था तो इस से बचाव के टीके की ख़बरें भी आने लगीं ...इस के बारे में साईंटिस्ट तो क्या बोलते, वे लोग तो कम बोलते हैं तभी तो इतने इतने महान् कारनामें अंजाम दे देते हैं ...लेकिन यह जो वाट्सएप यूनिवर्सिटी है न, यह मार्कीट में कोविड के टीके के आने की संभावित तारीख़ बताए जा रही थी ... लेकिन पढ़ा-लिखा तबका इन पर इतनी तवज्जो नहीं दे रहा था।
ख़ैर, देखते ही देखते टीके के ट्रायल होने लगे और सफल भी होने लगे ... फिर जैसे अकसर होता है सोशल मीडिया पर टीके के ऊपर भी राजनीति होने लगी - एक दो साईंटिस्ट थे जिन की वीडियो वाट्सएप पर वॉयरल हो गईं कि आखिर इतनी अफरातफ़री में क्यों इस वैक्सीन को मार्कीट में लाने की तैयारी है। क्यों इतने शार्ट-कट अपनाए जा रहे हैं...लेकिन कुछ दिनों में देखा कि वे आवाज़ें कहीं नीचे दब सी गई हैं और ये ख़बरें आने लगी हैं कि दो तरह के टीके देश में फलां फलां तारीख से लगने शुरू हो जाएंगे ...तब तक विभिन्न मेडीकल संस्थानों को अपनी लॉजिस्टिक तैयारी करने को कहा ...अपनी भंडारण क्षमता, कोल्ड-स्टोरेज क्षमता बढ़ाने के आदेश आ गए...जो मेडीकल कर्मी वेक्सीनेटर के तौर पर काम करने के लिए सक्षम हैं, उन का पूरा डैटा-बैंक तैयार हो गया।
हमारे अस्पताल में भी एक दिन इस के बारे में मीटिंग हुई ....यह वैक्सीन लगने जब शुरू हुए उससे कुछ दिन पहले की बात थी ...लेकिन कुछ भी ठोस कोई कह नहीं पा रहा था। यही बातें होती रहीं कि सेफ्टी डैटा आए तो पता चले ... फिर यह बात भी हुई कि हम लोग तो फ्रंट लाइन वर्कर हैं ..हमें तो टीका लगवाना ही होगा....उन्हीं दिनों यह भी शासकीय आदेश निकला था कि टीकाकरण ऐच्छिक है ...जिसे लगवाना हो अपनी मर्ज़ी से लगवाना होगा...कोई बाध्यता नहीं है, कोई बंदिश नहीं है। हम सब को यह सुखद लग रहा था ...
वैक्सीन लगने शुरु हो गए ... मेडीकल स्टॉफ ऐम्बुलेंस में बैठ कर जाने लगे ...और वैक्सीन सेंटर में जा कर टीका लगवाने लगे। और हां, अभी टीके लगने शुरू नहीं हुए थे कि सभी फ्रंट-लाइन वर्कर का पूरा डैटा विभिन्न संस्थाओं द्वारा अपलोड कर दिया गया था .. इसलिए अब उन की लिस्ट आ गई...गलती से मेरा नाम रह गया था ..शायद मेरे पहले कार्य-स्थल की लिस्ट में नाम आया होगा ...मुझे मन ही मन यह इत्मीनान ही हुआ कि चलो, जब नाम ही नहीं है तो वैक्सीन लगवाने का सवाल ही कहां है।
वैक्सीन लग रहे थे ....मेरी मिसिज़ डाक्टर हैं, उन्होंने भी यही सोच रखा था कि वह भी वैक्सीन नहीं लगवाएंगी.... बच्चे जो मेडीकल साईंस की एबीसी भी नहीं जानते, उन्होंने भी कहा कि वैक्सीन मत लगवाइए। लेकिन हर जगह peer-pressure काम करता है ...मिसिज़ के लगभग सभी बैच-मेट्स ने जब यह लगवा लिया तो इन्हेंं भी प्रेरणा मिली और इन्होंने भी लगवा लिया।
मिसिज़ के लगवाने के बाद मुझे प्रेरणा मिली कि मैं भी लगवा के छुट्टी करूं ... मैं इतना अकलमंद भी नहीं कि बुद्धिजीवियों की बुद्धि मिला कर भी मेरे से कम है ....मैंने कुछ नहीं पढ़ा इन वैक्सीन के बारे में ...इससे और कंफ्यूज़न ही होता है ...लेकिन तब तक पता चला कि अब पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन बंद हो चुका है ...यह भी एक तरह से इत्मीनान ही था कि चलो, अब पंजीकरण ही नहीं हो रहा तो इस का ख़्याल ही दिल से निकाल दो...
लेकिन जैसे जैसे आसपास के लोगों ने इस वैक्सीन को लगवाना शुरू किया...मैंने भी इसे लेने का फ़ैसला तो कर लिया ...लेकिन यह सोचने लगे कि दूसरे अस्पताल में जाकर कहां इंतज़ार करेंगे, अपनी पहचान बताते फिरेंगे ...देखतें हैं ....इतने में एक दिन हमारे अपने अस्पताल में (जहां मैं काम करता हूं) वहां पर म्यूनिसिपल कोर्पोरेशन की तरफ़ से केवल मैडीकल स्टॉफ के लिए वैक्सीन लगाने का कैंप लगाया गया ... जब मैं वहां गया तो पता चला कि मेरा तो रजिस्ट्रेशन ही नहीं हुआ है ...इसलिए मुझे बैरंग उल्टे पैर वापिस लौटना पड़ा।
कुछ दिन पहले ऐसे हुआ कि हमारे अस्पताल को म्यूनिसपल कार्पोरेशन ने कोविड वैक्सीन लगाने के लिए एक केंद्र बना दिया...इस में हमारे विभाग के सरकारी कर्मचारी ही नहीं बल्कि दूसरे नागरिक भी आते हैं...रोज़ाना 100 वैक्सीन लगाने से शुरूआत हुई ...अब यहां पर 150 से भी ऊपर कोविड वैक्सिन लग रहे हैं...
मेरा यह सारी राम यहां कहानी लिखने का मकसद क्या है... मैं इसी बात पर ज़ोर देना चाह रहा हूं कि कईं बार जहां पर जो मेडीकल सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है, वहां का रख-रखाव, वहां के स्टॉफ का व्यवहार, काम में दक्षता ....आने वाला इंसान ये सब बातें देखता है, फिर ही कोई निर्णय लेता है ...मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ कि जब से हमारा अस्पताल कोविड वैक्सीन सेंटर बना है, मैं दो-तीन बार हो कर आया, ऐसे ही चक्कर लगा कर नीचे आ गया ...सारी व्यवस्था बढ़िया लगी ...हमारे अस्पताल के वैक्सीन केंद्र के स्टॉफ का रवैया इतना बढ़िया लगा जैसे कि वो आने वालों को वेलकम कह रहे हों...परसों मुख्य नर्सिंग सुपरडेंट ज्योत्स्ना सेमुअल से बात हुई (जो यह सारी व्यवस्था संभाल रही हैं ) उन की बात में इतनी सहजता महसूस हुई ...इतने ठहराव से वह बात करती हैं कि हमने यह टीका लगवाने का फ़ैसला कर लिया।
घर से भी दबाव आने लगा था कि लगवाओ अब वैक्सीन ...अभी तक इंतज़ार किस बात का कर रहे हो, केस निरंतर बढ़ रहे हैं, मरीज़ ओपीडी में पहले की ही तरह आ रहे हैं...मरीज़ के मुंह के अंदर काम करते हो उस के पास जाकर ....क्यों इतना रिस्क ले रहे हो, वैक्सीन लगवा लो।
इतनी सी बात मेरी मोटी बुद्धि के पल्ले पड़ गई...70 प्रतिशत ही सही, कुछ तो बचाव होगा ही ...और इस बात को तो सभी लोग मान ही रहे हैं कि अगर वैक्सीन लगे हुए किसी इंसान को कोरोना होता है तो उसमें बिल्कुल हल्का-फुल्का रूप ही दिखेगा ... इसलिए कल वैक्सीन लगवा ली ..कोवी-शील्ड ..एक बात और भी है, जब तक नहीं लगवाया था तो एक अपराध-बोध तो यह भी बना हुआ था कि अगर बिना टीका लगवाए काम कर रहे हैं तो कहीं न कहीं मरीज़ों की सेहत के लिए भी यह ठीक नहीं है ...
वैसे जहां तक मरीज़ों की बात है,,,,ठीक है जिन्हें एमरजेंसी है उन्हें तो आना है ज़ूरूर आएं ...लेकिन दिक्कत तब होती है जब बरसों से तंबाकू -ज़र्दे से तहस-नहस किए दांतों को चमकाने कोई इन दिनों आ रहा है ... और एक बात, जिस किसी को जुकाम आदि के लक्षण हैं, अगर उसे कहें कि कुछ दिन के बाद आ जाइए, तो कहते हैं कि नहीं, नहीं..कुछ नहीं है, बस ऐसे ही अभी फेसमास्क की वजह से ज़ुकाम जैसा लग रहा है...ये सब चुनौतियां तो हैं ही सरकारी अस्पताल में काम करने की।
बार बार समझाया जा रहा है कि टीका लगवाते ही बिंदास घूमना मत शुरू कर दीजिए...न तो फेसमास्क को उतारना है और न ही सोशल-डिस्टेंसिंग का दामन छोड़ना है ...बिना कारण ऐसे ही तफ़रीह करने नहीं निकलना....क्योंकि अभी भी ख़तरा टला थोड़े न है...कोरोना वॉयरल के कुछ बिगडैल स्ट्रेन्स (म्यूटैंट स्ट्रेन्स) के यहां वहां मिलने की ख़बरें आ रही हैं...बच के रहिए....और अगर टीका लगवाने के लिए आप पात्र हैं और अगर आप को यह उपलब्ध हो रहा है तो चुपचाप बिना किसी नुकुर-टुकुर के लगवाने में ही समझदारी है ...
अच्छा अब करते हैं कोरोना की बातें बंद और लगाते हैं - होली के रंग में रंग जाने की करते हैं तैयारी यह गीत सुनते सुनते ...लेकिन ध्यान रहिए इस बार भी होली डिजीटल ही होगी ...हम इसे अपने मोबाइलों की स्क्रीन पर ही खेलेंगे ...वरना, एक बार फिर से होली बहुत महंगी पड़ जाएगी....अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए ...अपना मनपसंद कोई काम कीजिए जिसमें आप को ख़ुशी मिलती हो ...
आखिर दिल और दिमाग़ की जंग हुई ख़त्म - हमने भी लगवा ही लिया कोरोना वैक्सीन !
कोरोना-फोरोना के बारे में तो बात कर ही लेंगे ...सच में पक गये हैं इस से बचते-बचाते ... पहले टीके के बारे में कुछ ऐसे ही बिना सिर-पैर की बातें साझा करी जाएं। क्या ख़्याल है? बचपन की याद करता हूं तो याद आता है शिवलाल नाम का शख़्स जो कि घर के नज़दीक वाले सरकारी अस्पताल में ड्रेसर था ...यह आज से 54-55 बरस पहले की यादें हैं ...मैं उस वक्त यही चार साल का रहा हूंगा ..लेकिन मुझे याद है बिल्कुल अच्छे से कि कैसे शिवलाल ही टीका लगवाने घर आते थे ...उन के पास साईकिल थी ...और साथ में एक स्टील की डिब्बी होती थी जिसमें उन्होंने कांच की सिरिंज और स्टील की कमबख़्त बड़ी बड़ी सूईंयां रखी होती थीं ...उन का हमारी कॉलोनी में बहुत मान सम्मान था क्योंकि वे पट्टी भी बिना दर्द के बिना ज़ख़्म की पपड़ी को बेरहमी से खींचे बिना एकदम बढ़िया करते थे, टांके भी टनाटन लगाते थे और टीका भी एकदम बिना दर्द के लगाया करते थे, पता ही नहीं चलता था...दो या तीन रूपए उन की फ़ीस थी घर आकर टीका लगाने की ...शायद चार रूपये। जहां तक मुझे याद है कि इसमें टीके की कीमत भी शामिल हुआ करती थी। (यह जो शिवपाल मैं बार बार लिख रहा हूं ..इससे मुझे लालजी मिश्र के उपन्यास राग दरबारी का ख़्याल रह रह कर आ रहा है...शायद उसमें भी एक किरदार का नाम था शिवपाल या जगह का नाम था ..शिवपालगंज ...कुछ तो था, चेक करूंगा आज...😁बिना वजह दिमाग़ पर लोड डालने की आदत नहीं छूट रही मेरी भी!!)
बचपन के उस दौर में मुझे याद है कि खेलते खेलते मेरे घुटने में कुछ लोहे का चुभ गया ..खून बहने लगा ...मेरे पिता जी मुझे साईकिल पर बैठा कर पास के अस्पताल में ले गए ...वहां पर शिवलाल जी ने उस घाव में टांके लगाए और शायद टीका लगवाने के लिए मेरे पिता जी ने उन्हें घर आने को कहा। हमारे घर पहुंचने के थोड़े ही वक्त के बाद वे आए और टीका लगा गए। पूरी कॉलोनी में उन की धाक थी ---होती भी क्यों न, वे अपने काम मेंं माहिर जो थे।
लेकिन उन के टीका लगाने की प्रक्रिया पर तो मैं रोशनी डाली ही नहीं....जी हां, जनाब, वे घर पहुंचते ही अपनी वह स्टील वाली डिब्बी से इंजेक्शन और सिरिंज निकाल कर मेरे पिता जी को देते कि इन्हें उबाल कर लाइए...मां उसी वक्त स्टोव जलाकर फ्राई-पैन में उन को उबालने का प्रबंध करने लगती और वे पिता जी के साथ बातों में मशगूल हो जाते ...और मेरी यह सोच कर जान निकली रहती कि पता नहीं सूईं कितना दर्द करेगी...अस्पताल में तो हम लोग टीके के नाम पर बिदक कर जैसे तैसे मां को बहला-फुसला कर बिना टीके के ही घर लौट आते हैं लेकिन अब तो ये घर पर ही आ गये हैं ...सामान भी उबल रहा है, अब तो बच्चे ख़ैर नहीं।
टीका लगाने का सामान कितने वक्त तक उबलेगा, इस के लिए कोई ख़ास दिशा-निर्देश नहीं दिए जाते थे ... जहां तक मुझे याद है पानी के उबलते ही सामान को विषाणुमुक्त मान लिया जाता था। लो जी, सामान उबल गया है ... और मां ने फ्राई-पैन को अच्छे से धो कर उस में चाय के लिए पानी चढ़ा दिया है ...शिव लाल जी सिरिंज के आगे स्टील की सूईं लगा कर अपना फ़न का मुज़ाहिरा करने के लालायित हैं और चारपाई पर पड़े पड़े हमारी जान निकल रही है ...ख़ैर, वह मनहूस घड़ी भी आ गई जिस का हमें सब से ज़्यादा खौफ़ हुआ करता था ...लेकिन यह क्या, कूल्हे पर टीका लग भी गया और पता भी नहीं चला।
शिवलाल जी के सामान समेटने तक चाय तैयार हो चुकी होती ... पिता जी और शिवलाल बाबू चाय-बिस्कुट पर बातें करने लगते और हमारी कब आंख लग जाती कुछ पता नहीं। अच्छा, एक बात और भी यहां लिख दूं कि हमने हमेशा देखा कि पिता जी पूरे सम्मान के साथ उन की फीस उन्हें दिया करते ...मुझे लगता है यह उन के स्वभाव में शामिल था ... पिंगलवाडे से कोई दान भी लेने आया है तो उस से बड़ी इज़्ज़त से पेश आते ...और छठी जमात में हमारे ट्यूशन वाले मास्टर साब को फ़ीस के 25 रूपए भी हर महीने (1974 की बातें हैं) एक छोटे से लिफ़ाफे में डाल कर ही भिजवाते ...ज़ाहिर है हमने उन की इन बातों से भी बहुत कुछ सीखा। अब सोचता हूं तो हैरानी भी होती है कि आज से लगभग 50 साल पहले मास्टर को ट्यूशन फ़ीस भी इतने सलीके से भिजवाना....मास्टर साब को भी अच्छा लगता, वे इन्वेलप को खोले बिना अपने कोट की जेब के हवाले कर देते।
चलिए यह शिष्टाचार की, ख़ुलूस की बातें तो अपनी जगह पर हैं लेकिन यह तो गुस्ताख़ी ही हुई कि ऊपर कोरोना वैक्सीन का नाम लिख कर मैं अभी तक उस के आसपास तक नहीं पहुंच पाया हूं, इधर उधर की गप्पें छोड़े जा रहा हूं। लेकिन करें क्या, यह सब भी कब से अपनी इस वेब-डॉयरी में लिखना चाह रहा था, आज मौक़ा मिला है तो कर लेता हूं यह भी काम।
और बातें जो टीके की याद आती हैं ...सरकारी अस्पताल में टीके वाला कमरा हमें बड़ा डरावना लगता था ...उधर से गुज़रते ही देखते थे सफेद वर्दी पहने हुए उस कमरे में तैनात बड़े बड़े स्टील के डिब्बे में दर्जनों सिरिंजों-सूईंयों को उबालते हुए अपने शिकार का इंतज़ार करते दिख जाते। लेकिन हमारी तो टीके के नाम से जान निकलती थी। मां का हाथ पकड़ कर ही अस्पताल जाते और रास्ते में बार बार जब मां से एक ही बात पूछते रहते - बीजी, टीका तो नहीं लगेगा न....यह सुन सुन कर वह बेचारी कितनी परेशान हो जाती होंगी और हम मां के जवाब से राहत महसूस कर लेते ....आखिर बच्चे के लिए उस की मां दुनिया की सब से बड़ी डाक्टर जो होती है।
वहां जाकर डाक्टर को दिखाते ... अगर वह टीका नहीं लिखता तो सच में जान में जान आ जाती...उस के कमरे से बाहर निकलने से लेकर घर आने तक सारा रास्ता मन ही मन इतनी ख़ुशी महसूस करते कि ऐसे लगता जैसे चल नहीं रहे, उड़ रहे हैं। और अगर टीका लगवाने का नुस्खा वह थमा देता तो फिर हम पहले तो देखते कि टीका लगा कौन रहा है....अगर ऐसा कोई दिख जाता जिस का बिना दर्द टीका लगाने के लिए अच्छा नाम है, तब तो टीका लगवा लेते ....वरना, मां को बहला-फुसला कर कुछ भी कह कर बिना टीका लगवाए घर वापिस लौट ही आते।
लोग मुझ से पूछते हैं कि लिखने का क्या फंडा है, मेरा फ़क्त इतना ही कहना है कि कापी-कलम लेकर बैठ जाओ बस, बाकी काम आप का नहीं है ...पता नहीं कहां कहां से बातें उमड़ने लगती हैं ...बरसों से अंदर दबी पड़ीं ...और ख़ुद अपने आप को लिखवा के ही दम लेती हैं...जैसे मुझे अभी ख़्याल आ गया कि हमारे बचपन के दिनों में पैनेसिलिन का टीका बड़ा कारगर समझा जाता था ..जिसे लग जाता था, समझा जाता था वह तो भला-चंगा हो ही जाएगी....शायद एक दिन के अंतराल पर लगता था और उस को लगाने से पहले उस की सेंसेटिव टैस्टिंग की जाती थी बाजू पर - सेंसेटिव लफ़्ज़ हमें मालूम न था, हमें तो इतना पता था कि पहले इस का टेस्ट किया जाएगा क्योंकि अगर वह किसी को रिएक्शन कर जाता था तो वह आंख झपकते ही सीधा स्वर्गसिधार जाता था ...इसलिए उस टीके का बड़ा खौफ़ होता था ..कईं केस ऐसे हमने देखे थे ...26 जनवरी1975 को मेरे 28 साल के मामा को भी (अभी उन की शादी हुए दो साल ही हुए थे, कुछ महीनों की एक प्यारी सी बेटी थीं प्रीति...) यह टीका ही रिएक्ट कर गया था ...वे मिनटों में ही चल बसे....अंबाला में रहते थे, पाला पड़ रहा था, पौष के दिन, ठंडी लग गई थी, खांसी-बल्गम जम गई, डाक्टर साब आए...यही पैनेसिलिन का टीका लगाते ही सारे कुनबे को रोता बिलखता छोड़ कूच कर गए। उस दिन ननिहाल की तो दुनिया ही उजड़ गई थी।
वक्त का पहिया रुकता थोड़े न है ....क़िस्मत में ऐसा लिखा था कि हम डेंटिस्ट बन गए...टीके के नाम से डरने वाले दिन में आठ-दस टीके मुंह के अंदर लगाने लगे ...लेकिन मेरी मां मेरे इस काम से बड़ी इंप्रेस थीं....वह अकसर मुझे कहतीं कि तेरा काम कितना मुश्किल है, मुंह के अंदर टीका लगाना ...और यह कहते कहते ही वह सिहर जातीं। हम भी प्यार से उन्हें कह देते ...बीजी, हमें इस की आदत हो जाती है, अच्छे से पहले ट्रेनिंग देते हैं, फिर ही टीका पकड़ने देते हैं....। लेकिन फिर भी उन्हें मुंह में टीका लगाने की बात सुनना ही बहुत जोखिम का काम लगता। इसी वजह से मोबाइल आने पर भी उन्होंने हमें ड्यूटी के वक्त कभी भी अस्पताल में फोन नहीं किया - वे अकसर कहतीं कि फोन से ध्यान बंट जाता है, क्या पता उस वक्त आप लोग टीका लगा रहे हों या मरीज़ का कुछ और काम कर रहे हों। क्योंकि मुझे एक बार ऐसा ही झटका लग चुका है आज से 13-14 साल पहले ....
तो हुआ यूं कि 13-14 साल पहले मैं एक दिन किसी मरीज़ के तालू पर सुन्न करने का टीका लगा रहा था, उस की अकल की जाड़ निकालने के लिए...उस युवा की उम्र यही 25 बरस के करीब रही होगी ..स्पोर्टसमैन था...चेहरे की मांसपेशियां सख़्त थीं...अभी मैं टीका लगा ही रहा था कि उसने सिर को हिला दिया...उस पर इस्तेमाल की गई सूईं मेरी उंगली में खुभ गई...मैंने डबल-ग्लवज़ पहने हुए थे ..लेकिन नीडल-प्रिक तो हो ही गई।
उंगली धो ली ...मिसिज़ को फोन किया ...तब तक वह मरीज़ जा चुका था ... मिसिज़ ने कहा देख लो उस की एचआईव्ही जांच करवा लो। मुझे भी लगा कि एक फार्मेलिटि के तौर पर करवा ही लेते हैं....उसे उस के दफ्तर से बुला लिया....जांच करवाई तो उस का एचआईव्ही टैस्ट पाज़िटिव आया ...उस के बाद मेरी भी जांच हुई ....निगेटिव थी ...मेरी दवाईयां उसी दिन से शुरू हो गईं...कुछ दवाईयां स्थानीय मार्कीट में नहीं थीं, उन्हें ट्रेन से दिल्ली से मंगवाया...रात 12 बजे हम लोग स्टेशन से जा कर वे दवाईयां लेकर आए...दवाईयां खाना जारी रहा। लेकिन मेरा स्टेट्स क्या है, इस का पता 6 सप्ताह बाद ही चलना था। वे 6 हफ्ते मैंने कैसे बिताए मेरे लिए ब्यां करना नामुमकिन है ...घर में बड़ा डिप्रेसिंग सा माहौल हो गया....जान निकली रही ...क्योंकि सूईं तो खुभी थी ...लेकिन विशफुल थिंकिंग यही रही उन दिनों कि वह युवा तो बिल्कुल हट्टा कट्टा था, मैंने दो दो ग्लवज़ पहने थे ...शायद कम वायरल लोड की वजह से बच ही जाऊं...ख़ैर जो भी हुआ ...सब की दुआ लगी या डाक्टर की दवा ....45 दिन के बाद मेरी टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव आई --- जान में जान आई ...लेकिन उन दो तीन महीनों में जो दवाईयां लेनी पड़ी उन की वजह से भी और एचआईव्ही की जांच अगल छः महीने तक चलती रही ....ईश्वर का शुक्र है कि सब कुछ सामान्य रहा ....उस दौरान मुझे यह अहसास हुआ कि ये जो हम मेडीकल व्यवसाय के प्रोफेशनल जोखिमों की बात करते हैं, वे कितने खौफ़नाक हैं, कैसे एक सूईं के चुभने से आप की जान ही निकल जाती है जब तक कि आप की सभी रिपोर्ट सामान्य न निकलें ...ज़िंदगी के उन महीनों में मैंने बड़ा डिस्प्रेसिंग महसूस किया ...पहले 45 दिन तो हाल ज़्यादा ही बुरा था...हर वक्त मेरा लेटे रहने का ही मन करता ....यही लगता कि काश, कोई मशीन हो जिस से ये 45 दिन झट से बीत जाएं और मैं अपनी टेस्टिग करवा पाऊं...मेरा बड़ा बेटा जो उन दिनों 12 वीं कक्षा में था, वह भी उदास सा मेरे साथ ही पलंग पर लेटा रहता ....उन दिनों को याद करता हूं तो सच में एक बुरा सपने जैसे महसूस होता है ....मां भी उदास रहतीं और बार बार धाड़स बंधाती ...कुछ नहीं होगा...तुम फ़िक्र मत कर .....और बीवी की भी सोच तो बड़ी सकारात्मक और प्रैक्टीकल है ही ...वे कहतीं कि चिंता मत करो, जो भी होगा, देखा जाएगा।
अब यह लिखते लिखते मेरा मन भर गया है ....इसलिए कोरोना-फोरोना की वैक्सीन के बारे में लिखने की अब गुंजाइश नहीं है ...बाद में देखता हूं....अभी तो कोई मनपसंद गीत सुनना पडे़गा मूड को तरोताज़ा करने के लिए...
इस ठिकाने तक पहुंचने का क़िस्सा बाद में ब्यां करता हूं ...जल्द ही! |
और ज़िंदगी यूं ही आगे चलती रहती है....
मंगलवार, 23 मार्च 2021
गाय माता इस तरह भी अपने बच्चों को पाल रही है...
कुछ बरस पहले यहां मुंबई में मैंने देखा कि कुछ चौराहों पर एक या दो गाय बंधी हुई हैं ...साथ में एक महिला या पुरूष फुटपाथ पर बैठा हुआ है...जिस के पास चारा रखा हुआ है ...और भी खाने का कुछ सामान धरा हुआ है। एक दो बार यह मंज़र देखा तो समझ में आ गया ... गऊ माता को खाना खिलाने का पुण्य कमाने का अभिलाषी कोई आदमी या औरत उस दुकानदार के पास आएंगे...उन्हें दस-बीस रूपये जो भी रेट होगा देंगे, चारे की एक दो टहनी उठाएंगे ..और उसे गाय माता को खिला कर, उसे नमस्कार कर अपनी राह पकड़ लेंगे।
अब मुंबई जैसे महानगरों में लोग गाय माता को खिलाने कहां जाएंगे...कल्पना कीजिए...यहां तो वैसे कभी गाय दिखती ही नहीं ...अगर ये दुकानदार यह सर्विस प्रोवाइड कर रहे हैं तो उस का चार्ज तो देना ही पड़ेगा। अच्छा, एक मज़ेदार बात और भी है ...अकसर ये सर्विस प्रोवाइडर अपने हाथों से कुछ अलग अलग सामग्री के लड्डू भी बना रहे होते हैं..एक तो भूसे के लड्डू होते हैं, वे मैंने बनते देखे हैं...और अगर कोई भगत आदमी कुछ स्पैशल खिलाना चाहता है तो वह इन लड्डूओं के अलग से दाम देकर खिला सकता है...
मुंबई में पैसा कमाना बड़ा मुश्किल है ...मुझे बस यही काम आसान सा दिखा ...दुकानदार की गाय का पेट भी भर गया, दुकानदारी की जेब भी भर गई और घर जा कर उसे दोह भी लिया...
मुंबई के बहुत से इलाकों में मैं इस तरह के दुकानदार देखता हूं ...यह भी आज सुबह की ही तस्वीर है ...एक बहुत बड़े पेड़ के नीचे यह पुण्य कमाने का काम चल रहा था ...आस्था बहुत बड़ी बात है।
लेकिन यह क्या कुछ महीने पहले मैंने इसे भी एक बैल जैसा कुछ लेकर बाज़ार में घूमते देखा....इस की बॉडी देख कर बड़ा डर लगा उस दिन ...एक तो वाट्सएप पर ऐसे ऐसे वीडियो दिखते हैं कि इन भीमकाय जानवरों से डर तो लगता ही है।
कुछ तो इन से जुड़ी धार्मिक आस्था होगी ज़रूर जो मुझ अल्पज्ञ की समझ के परे है...खार-बांद्रा जैसे इलाके में देखता हूं एक विशेष किस्म की गाय ...सजी संवरी गाय -- सड़कों पर घुमा कर लोग दान-दक्षिणा का जुगाड़ करते हैं...
मुझे ध्यान यही आया कि गाय माता के पास अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के बहुत से तरीके हैं...हैं कि नहीं। बस, बंदा थोड़ा सा मेहनती होना चाहिए।
गुरुवार, 18 मार्च 2021
कुछ शुरुआती ख़ुशियां बाद में महंगी पड़ती है...
यह जो हम लोगों की ख़ुशी है न कि अब तो किराने का सामान और फल-सब्ज़ी भी एप से ही बुक कर देते हैं...और अगले दिन सुबह आप के दरवाज़े के बाहर उन सब चीज़ों का पैकेट पड़ा होता है ... बहुत बार डिलीवरी चार्जेज भी नहीं और अगर कुछ छोटी मोटी स्कीम स्बस्क्राईब कर लो तो सारा महीना कुछ भी डिलीवरी चार्जेज नहीं लगता ...आप चाहे तो 30 रूपये का सामान मंगवा लीजिए ...चाहे 3000 का । सुबह उठ कर जब हम उन का थैला चैक करते हैं तो उस में केले की अलग से कार्डबोर्ड के डिब्बे में पैकेजिंग देख कर हैरान होते हैं...चीकू की भी ऐसी ही पैकिंग ....हमें यह पता चलता है कि अंडों के बक्सों के आगे भी खाने पीने की सस्ती सस्ती चीज़ों की भी पैकेजिंग की भी दुनिया है ...
अच्छा, एक बात और ....इतनी इतनी बढ़िया एप्स आ गई हैं कि अगर कोई सब्जी या फल की क्वालिटि आप के मन मुताबिक नहीं है तो आप को बस उस की फोटो खींच कर एप को शेयर करनी होती है, उस आइटम के आप के पैसे लौटा दिए जाते हैं...और ये जब पैसो का लेनदेन डिजीटल ही होता है ...
सुनने में ही कितना बढ़िया लगता है ना....जी हां, लगता तो है लेकिन इस के बारे में गहराई से सोचिए कि इस तरह की जो सुविधाएं हमें एकदम निकम्मा और नकारा सा तो नहीं बना रही ....हमारी तो छोड़िए, हम तो चले हुए कारतूस हैं अब..इस से ज़्यादा और कितना निकम्मा हमें कोई बना पाएगा...हमारी तो बहुत सी ज़िंदगी कट गई लेकिन जब मैं आज के युवाओं के बारे में सोचता हूं और उन का इस तरह की एप पर भरोसा देखता हूं तो मुझे बड़ा डर लगता है ...
अच्छा आप एक बात सुनिए....ये सभी एप्स उस जेनरेशन के हाथ में हैं जिनमें से अधिकतर सभी तरह के जंक फूड पर पल रहे हैं...दालों, सब्ज़ियों के उन्हें नाम तक नहीं आते, खाना तो बहुत दूर की बात है ...अगर खाते भी हैं तो वही पीली वाली, हरी वाली, और राजमाह बस, और सब्जी में कोई बस भिंडी खाता है ...यह वह जेनरेशन है जिसे अधिकतर दालों, सब्ज़ियों के नाम तक तो आते नहीं, बाज़ार जा कर तो वही खरीदेगा न जिसे नाम आते हों या इन चीज़ों की क्वालिटि देखने की भी थोड़ी बहुत गुज़ारेलायक समझ हो ...ठीक है, आप कह रहे हैं कि यह इश्यू तो बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोर ने सेटल कर दिया है ...ये लोग वहां चले जाएंगे और वहां से खरीद लाएंगे ...लेकिन वही बात है बहुत सी ऐसी रोज़मर्रा की चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें अरबपति-खरबपति "सेठों की दुकानों" से खरीदने से मुझे सख्त परहेज है ... दो चार रूपये महंगी सस्ती का सवाल नहीं है, लेकिन अगर हम सब इन धन्ना सेठों की बड़ी दुकानों से ही सब कुछ खरीदते रहेंगे तो अपने गांव से पांच दस किलो सब्ज़ी लेकर शहर में बेचने आए इंसान का क्या होगा, इस के बारे में सोचना भी ज़रूरी है ...उस से खरीदारी करना उस के एवं उस के परिवार के वजूद से जुड़ा हुआ है ... बडे़ सेठों के ऐशो-आराम वैसे ही चलते रहेंगे आप उन के कुछ खरीदें या नहीं ....
मैं जब 50 साल पहले की बातें याद करता हूं तो याद आता है कि हम किसी भी दाल सब्ज़ी को खाने से मना नहीं करते थे..कच्ची मूली गाजर भी खाते थे ..ककड़ी भी, खीरा भी ...हां, कोई एक सब्ज़ी या दाल ज़रूर होती होगी जिसे हम पसंद नहीं करते थे...अपनी बात करूं तो दालें तो सभी खा लेता था, कभी भी नुकुर-टुकुर नहीं, लेकिन सब्ज़ियों में करेला मुझे कभी भी पसंद नहीं (मुझे जितना नापसंद, मेरी नानी को उतना ही पसंद था) ....आज तक भी करेला और ग्वार की फली ही ऐसी दो चीज़ें हैं जिन्हें मैं नहीं खाता...और बचपन ही से रोज़ाना अलग अलग तरह की दालें (कभी कभी दो-तीन दालें मिला कर भी) ...और सब्ज़ियां खाते चले आ रहे हैं...लेकिन जब तक हम लोग स्कूल कालेज जाने लगे लोग इस बात पर फ़ख्र महसूस करने लगे कि उन के बेटों को तो दालों के नाम तक नहीं आते ...पीली दाल, हरी दाल...राजमा बस.....इतना ही ...फिर वक़्त ऐसा आया कि इस बात पर फ़ख्र महसूस किया जाने लगा कि हमारे लाडले को तो राजमा पसंद हैं, किसी का राजा बेटा बस पीली दाल ही खाता है ...अरहर की .....और सब्जी भी ऐसे ही एक दो ही या कोई कोई लाडला तो बस आलू ही खाता है ...
कितना लिखें ....लिखते लिखते थक गए हैं ...हमारा खाना-पीना ठीक नहीं है ...एक तो जिस तरह की कुकिंग हम लोग कर रहे हैं उस की अनेकों दिक्कतें हैं, हमारी सेहत के लिए दुश्वारियां ही पैदा करती है यह कुकिंग ...उस पर भी मैंने अपने बहुत से एक्सपेरीमेंट किए हैं अपने ऊपर ही ...फिर कभी साझा करूंगा ...और ऊपर से हमारी दुनिया भर की एप्स पर बढ़ती हुई डिपेंडेंस ...किसी भी चीज़ के बारे में जानने की ज़रूरत ही क्या है, सब कुछ दिख रहा है साइट पर....क्लिक करो और सिरदर्दी खत्म।
नहीं ऐसा नहीं है ....जब भी हम लोग बाज़ार जाते हैं ...वहां हम बीस रूपये के आलू-प्याज़ ही नहीं खरीदने जाते ...हमें वहां जाकर दुनिया से रू-ब-रू होते हैं ...उन लोगों के रहन-सहन-बातचीत से रू-ब-रू होते हैं जिन के बीच हमें ज़िंदगी काटनी है ...हम हर सिचुएशन में, हर स्तर पर बात करना सीखते हैं....ये बातें लेटे लेटे ऑनलाइन नहीं सीखी जातीं ...टमाटर, नींबू और चीकू की सही क्वालिटी देखने के लिए उसे हाथ से टटोलना ही पडेगी ...ज़्यादा पकी हुई भिंडी और फली का पता एप से नहीं चलेगा ....और भी बहुत सी चीज़ें हैं जिन्हें बाज़ार जाकर ठेले पर खड़े होकर ही सीखा जा सकता है ....क्योंकि यह थ्यूरेटिकल ज्ञान नहीं है ... इतना प्रैक्टीकल है कि अगर गल्ती करेंगे तो उस रात के खाने का ज़ायका ही बदल जाएगा बिल्कुल.... है कि नहीं।
अच्छा एक बात और भी है ...आज कल मां-बाप बहुत ज़्यादा प्रोटैक्टिव भी हो गए हैं... उन्हें लगता है कि वे खरीदारी खुद ही कर लेंगे ...राजा बेटा कहां परेशान होगा...लेकिन यही गलती है ..खरीदारी उन्हें इस तरह से ख़ुद बाज़ार जा कर हम लोग करने नहीं देते, इन सब चीज़ों को अमूमन खाते वो हैं नहीं....जंक फूड का बोलबाला है ... कुकिंग में इन की कोई दिलचस्पी है नहीं ...ऐसे में वही स्टिरियोटाइप पैदा होते रहेंगे सदियों तक -कम से कम इस देश में ...जहां दुनिया भर का बोझ ...घर का सामान लाने का, तैयार करने का, और हंसते हंसते परोसने का सारा जिम्मा घर की गृहिणी का ही होता है ... और फिर सभी के खाने के बाद अपने खाने की सुध लेना और बाकी बचे सामान को पहले ही से ठूंसे पड़े फ्रिज में कैसे भी ठूंस देना ...क्योंकि उसे ही ये सब ख़त्म करना है ...बाकी तो घर में सभी लाट-साब हैं जिनकी तबीयत फ्रिज में रखी चीज़ें खाने से बिगड़ जाती है ...सोचता हूं कैसी व्यवस्था है इस मुल्क में भी ....एक गृहिणी जो 365 दिन बिना किसी छुट्टी के सारा दिन पिसती है ....हर चीज़ का ख्याल रखती है और किसी के पूछे जाने पर हाउस-वाईफ इस तरह से कहती है मानो कोई ज़ुर्म हो हाउस-वाईफ होना ....और जो महिलाएं आफिस के साथ साथ घर का काम भी देखती हैं ...उन की सोचिए....
अब ज़माना आ गया है इन को इन सब बेढि़यों से आज़ाद करने का - ये हम पुरूष लोग ही तोड़ेंगे तो होगा ...हरेक को आज़ादी पसंद है ...इतना कोई क्रांतिकारी काम भी नहीं करना हमें ...बस, हमें खाना बनाना-पकाना और बाज़ार से सामान लाने की जिम्मेदारी थोड़ी शेयर करनी चाहिए ...मैंने देखा है जिन घरों में बच्चे बचपन में (विशेषकर लोंडे) कुछ काम करना धरना तो दूर, पानी का गिलास तक खुद उठा कर नहीं पीते, आगे चल कर जब वे नौकरी-चाकरी के सिलसिले में बाहर जाते हैं तो वे महीने में हज़ारों रूपये खर्च कर भी भूखे ही रहते हैं ....पौष्टिकता तो गई तेल नहीं ...जंक फूड खा-खाकर भी पेट कहां भरता है.....एक भयंकर किस्म का कुपोषण जिसे सैलरी पैकेज के नशे में चूर जेनरेशन समझ नहीं रही ....इस की समझ आती है 35-40 साल के होने के बाद ...
बाज़ार जाएंगे ...कुछ खरीदेंगे अपने हाथ से ...तो कुछ नया भी ज़ूरूर पता चलेगा...मेरी इतनी उम्र हो गई है लेकिन मुझे याद नहीं कि मैं जिन भी शहरों में रहा हूं या जाता हूं वहां पर मैं जिस दिन भी बाज़ार कुछ लेने गया हूं और कुछ नया न देखा हो या सीखा हो ...मैं सात आठ साल लखनऊ में रहा और वहां पर मैंने कईं तरह की ऐसी सब्जियां देखीं जिन के बारे में हम लोगों ने कभी पंजाब-हरियाणा के बारे में सुना भी नहीं था..इन के बारे में मैं पिछले बरसों में ब्लॉग भी लिखता रहा हूं ...और बहुत सी दालों-अनाजों के बारे में पता भी दुकान पर जा कर ही चलता है ...एप पर तो सारी जानकरी काम-चलाऊ ही हो सकती है ...
कटहल की सब्जी तो खाते ही रहे हैं अकसर... |
अभी कल ही की बात है ..शाम के वक्त मैं बाज़ार से गुज़र रहा था कि मेरी नज़र इस रेहड़ी पर पड़ी जिसमें वह कटी हुई कटहल से यह फल जैसा कुछ निकाल रहा था ...देखा तो मैंने पहले भी यह बहुत बार था ...लेकिन कभी खाया नहीं, कभी खरीदा नहीं ...यही सोच कर कि पता नहीं इस कटहल का स्वाद कैसा होगा ...लेकिन कल मैं उस दुकानदार का उत्साह देख कर रुक गया...100 रुपये का आधा किलो खरीदा ... पहली बार चखा इसे कल ...लेकिन मैं इतनी अद्भुत चीज़ पहले कभी नहीं खाई...इतना बढ़िया स्वाद लगा इसका।
वाह ही कटहल ....काश! तुम्हें इस रूप में पहले कभी चखा होता... |
इस पोस्ट को बंद करते करते बस इल्तिजा यही है कि जब तक शरीर में दम है, घुटनों में थोड़ा भी दम-खम है, उन्हें ज़हमत दीजिए, खुद चल कर जाइए, सामान लाइए....बहुत सी बातें पता चलती हैं, कुछ नया सीखते हैं कुछ नया खाने को मिलता है ...और रही गुफ्तगू की बात ...इस सोशल-वोशल मीडिया के चक्कर में हम लोग वैसे ही लोगों से रू-ब-रू मिलने से कन्नी कतराने लगे हैं, हम वाट्सएप पर ही शेर बने घूमते हैं (मेरे जैसे) ....किसी से आमने-सामने बात करते हमें झिझक महसूस होती है...हम लोगों को एवॉयड करते हैं...(जितना काम के सिलसिले में ज़रूरी है उतना ही इंट्रेक्शन करते हैं ...धीरे धीरे लाइफ-स्किल्स भी कमज़ोर पड़ने लगी हैं....बस सॉफ्ट-स्किल्स के वाट्सएप स्टेट्स पढ़ कर थम्स-अप कर देते हैं) ....और अगर अब साग-सब्जी, फल-फ्रूट भी एप के ज़रिए घर के किवाड़ की खूंटी पर ही टंगे मिलेंगे रोज़ाना सुबह तो ऐसे तो हम दुनिया से बिल्कुल कट के ही न रह जाएं....
एक बात और ध्यान में आई बाज़ार जाने के नाम से ..बचपन में हम लोग मां की उंगली पकड़ कर सब्ज़ी लेने बाज़ार जाते थे ...आते वक्त मां के दोनों हाथों में सब्ज़ी से भरे थैले होते थे और हमें उंगली पकड़ने को नहीं मिलती थी ..इसलिए मां को बार बार हमारे ऊपर ध्यान रखना पड़ता था ...और एक मध्यम वर्गीय बजट में मां इतनी खरीदारी करने के बाद भी बाज़ार के आखिर में खड़े गन्ने के रस वाले या कप में मिलने वाली आइसकीम के लिए पैसे भी ज़रूर बचा कर रखती थी क्योंकि वह फरमाईश हमारी पक्की होती थी और मां ने कभी निराश नहीं होने दिया .....खुद कभी हमारे साथ उस आइस-क्रीम या गन्ने के रस का लुत्फ़ उठाया हो मां ने, हमें तो यह भी अच्छे से याद नहीं, हमें ज़िंदगी के उस दौर में यह सब सोचने की फ़िक्र ही कहां थी ....आज फ़िक्र ही फ़िक्र है लेकिन मां गायब है..
शनिवार, 13 मार्च 2021
मुंबई की लोकल ट्रेन में एक सफ़र
1991 से सन 2000 तक मुंबई की लोकल ट्रेनों में खूब सफ़र किया ...ज़्यादातर तफ़रीह के लिए ही इन में घूमने निकले...अधिकतर सफ़र मुंबई सेंट्रल से गिरगांव चौपाटी (चर्नी रोड स्टेशन), या मैरीन ड्राइव और कई बार नरीमन प्वाईंट तक अकसर रात में घूमने निकल जाते थे ... मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर ही रहते थे, बिल्डिंग से नीचे उतरे और लोकल में बैठ गए..पांच सात मिनट का सफ़र और पहुंच गए...वहां टहले, हवा के साथ साथ कभी कभी गिरगांव चौपाटी के सामने मशहूर कुल्फी खाई और एक-आध घंटे में वापिस ट्रेन पकड़ कर लौट आए...ज़रा सी भी बोरियत होती तो ऐसे ही निकल जाते ..और अगर कहीं नहीं जा पाए और बच्चों का मन कहीं जाने को मचल रहा है तो बिल्डिंग से नीचे आ कर बाम्बे सेंट्रल के प्लेटफार्म नं 5 पर 10 मिनट टहल आए...और बच्चे ट्रेनें, उन पर चढ़ने-उतरने वालों को देख कर ही ख़ुश हो जाया करते थे...
रात में उस वक्त लोकल ट्रेन खाली ही होती थीं...ज़रूरी नहीं होता था कि फर्स्ट क्लास में ही जाना है ...अगर गाड़ी प्लेटफार्म पर रुकी है और सामने सैकेंड क्लास का डिब्बा है तो उसी में चढ़ जाते थे ...यह तो था रात का सफ़र। उन दस सालों में अकसर हम लोग इसी तरह की प्लॉनिंग के साथ ही निकलते थे कि उस वक्त लोकल गाड़ीयां में भीड़-भाड़ न हो ... और बहुत बार तो रविवार के दिन ही घूमने निकलते थे ...जूहू बीच, फ्लोरा फाउन्टेन जैसी जगहों के लिए ...उम्र के उस दौर में घूमने का शौक कुछ ज़्यादा ही होता है और घुटनों का दम-खम भी उस शौक से मेल खाता है ..
उस के बाद भी यदा-कदा लोकल ट्रेनों में सफ़र तो चलता ही रहा ...लेकिन कोशिश यही होती की सीट तो मिल ही जाए ...और इंसान की लालसा देखिए अगर ट्रेन में बैठने की जगह है तो भी निगाहें ट्रेन की जाने वाली दिशा की विंडो-सीट पर टिकी रहतीं...ख़ैर, मुझे तो लोकल ट्रेन में ही सफ़र करना अच्छा लगता है ...शायद इस की वजह है कि मैंने इनमें इतना सफ़र किया है लेकिन इस में धक्के नहीं खाने पड़े....कुछ कुछ याद तो आ रहा कि पीक-ऑवर के दौरान शाम को चर्चगेट से मुंबई सेंट्रल या बांद्रा के लिए विरार फास्ट-लोकल से आया तो यह सबक बढ़िया से याद हो गया कि विरार-फॉस्ट लोकल में बांद्रा उतरने वाले को क्यों नहीं चढ़ना है ...बहरहाल, दो चार बार ही भीड़ भाड़ में सफ़र करने का मौका मिला ...और मुंबई वालों के लिए यह रोज़ की बात है ...फर्स्ट क्लास में भी इतनी भीड़ कि सफ़र के दौरान यही टेंशन बनी रही कि क्या बांद्रा में उतर भी पाएंगे ... और अगर उतरने को मिलेगा तो क्या सही सलामत उतर पाएंगे क्योंकि स्टेशन पर उतरने-चढ़ने की कशमकश में जेब-तराशी, चश्मा गिर जाना, चश्मा टूट जाना, छोटी-मोटी चोट लगने जैसा कुछ भी हो सकता है ...
लिखते लिखते एक ख़्याल आ रहा है कि मुंबई वालों की यह स्पिरिट माननी पड़ेगी कि जिसने लटक कर या जैसे भी एक बार लोकल-ट्रेन पकड़ ली, उसे वे जगह देना अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हैं ..कैसे भी कुछ भी कर के उसे पैर रखने के लिए जगह दे ही देंगे...मुझे इस शहर का यह जज़्बा बहुत हैरान करता है ...जिस तरह से लोग लोकल के दरवाज़े पर टंगे रहते हैं, कोई धक्का मुक्का नहीं ...बस, तुम चढ़ गए हो न, अब शांति से टिके रहो और अपने स्टेशन का इंतज़ार करो....यह देख कर भी एक सुखद अनुभूति होती है कि हर शहर का अपना एक तेवर होता है ...कईं बार सोचता हूं कि अगर इस तरह से दिल्ली में लोगों को सफ़र करना पड़े तो रोज़ ही हर गाड़ी के नीचे दस-बीस लोग ट्रेनों के नीचे दबे कुचले पड़े होते ...वहां पर धक्का-मुक्की के बिना कुछ होता ही नहीं .., अकसर लाठी वाला ही भैंस लिवा के ले जाता है ..इसलिए सलाम मुंबई..
उस दिन मैं रात 8.50 के करीब दादर पहुंचा ...मुझे कल्याण के लिए कोई फॉस्ट लोकल पकड़नी थी ...कल्याण फॉस्ट तो मिल जाती लेकिन शायद उस में बैठने की जगह न मिलती और वैसे भी ठाणे के बाद वह हर स्टेशन पर रुकती है, इसलिए सोचा कि थोड़ा इंतज़ार करता हूं ...कोई बाहर गांव वाली ट्रेन आ जाएगी ...वक्त थोड़ा ज़्यादा लगता है तो कोई बात नहीं, लेकिन उसी में कल्याण तक चले जाऊंगा ...पर पता चला कि बाहर गांव जाने वाली ट्रेन तो अभी वी.टी स्टेशन से ही नहीं चली ...वैसे भी मैं उस में ठाणे तक ही जा सकता था क्योंकि उस के बाद उसे पनवेल की तरफ़ से आगे जाना था ...लेकिन यह भी मंजूर था अगर वह तब मिल जाती ...
तभी एक इंडीकेटर से खोपोली फॉस्ट लोकल की सूचना मिली...खोपोली वी.टी स्टेशन से लगभग ढाई घंंटे की दूरी पर है ...वीटी से क्ल्याण एक घंटा और उस के आगे खोपोली डेढ़ घंटा ...जितनी लंबी की दूरी होगी, ट्रेन में उतनी ही ज़्यादा गर्दी रहेगी (मुंबईया भाषा में भीड़ का पर्यायवाची है गर्दी )....बंबई में रहने के दौरान इस बात की चिंता मुझे अकसर रहती है कि यहां से बाहर जाने तक अपनी हिंदी सही-सलामत रहनी चाहिए ...बड़ी मुश्किल से इसे लखनऊ में सात साल बिताने के बाद कहीं जा कर थोड़ा ठीक-ठाक गुज़ारे लायक किया है ...
अच्छा, तो उस दिन मेैं दादर से रात 9.01 की खोपोली फास्ट पर चढ़ तो गया लेकिन बरसों बाद ऐसी भीड़ में सफ़र कर रहा था ...कु्र्ला से और भीड़ चढ़ी और ठाणे से भी ... जिसे कहते हैं कि गाड़ी में पैर रखने की जगह नहीं, इस का अनुभव कभी करना हो तो आप भी मेरी तरह यह एडवेंचर कर लीजिए ..सब कुछ समझ में आ जाएगा..। अभी ट्रेन शीव स्टेशन से गुज़र रही थी तो स्लो-ट्रेक पर डोंबिवली एसी लोकल दिखी ...मैंने सोचा कि चाहे वह स्लो-ट्रेन है, हर स्टेशन पर रुकेगी ....लेकिन कुर्ला या घाटकोपर उतर कर डोंबिवली तक उसी में चला जाता हूं ..लेकिन दो चार दिन से घुटने में उठे अचानक दर्द की वजह से एक और एडवेंचर न करने में ही समझदारी समझी...सफ़र के दौरान मुझे मेरे फोन और बटुए की सलामती की फ़िक्र लगी रही ... बच्चे तो समझदार होते हैं...बेटे ने आज से 8-10 साल पहले मेरे साथ एक बार बेस्ट की बस में सफर किया था...उस का 40 हज़ार का नया फोन गायब हो गया सफ़र के दौरान ...उस दिन के बाद वह बस ही में नहीं बैठा कभी और लोकल ट्रेन में भी शायद दो चार बार ही कहीं मजबूरी में गया होगा...वह भी मेरे आग्रह करने पर।
आप जब एक-आध घंटे के लिए इतनी भीड़ में किसी फॉस्ट-लोकल में सफ़र कर रहे होते हैं तो आप को अलग ही अनुभव होता है ....भय (चोट वोट लग जाने का, खीसा कट जाने का, कोरोना की चपेट में आ जाने का), रोमांच ( वाह! क्या फर्राटेदार हवा के झोंके), अचंभा (लोग कितनी मजबूरी में यह सब रोज़ झेल पाते होंगे) आदि -इत्यादि ....अकसर जिस स्ट्रेटजिक-प्लॉनिंग के बारे में आप लोग ज़ूम मीटिंग के दौरान पढ़ते-सुनते हैं ...उस डिब्बे में हो रही स्ट्रेटजिक-प्लॉनिंग के बारे में वे ज़ूम मीटिंग वाले पाठ आप को एकदम नीरस और बेकार लगने लगेंगे...क्योंकि ट्रेन के डिब्बे में चढ़ चुके या लटक चुके शख्स के लिए सवाल जिंदा रहने का है, सही सलामत परिवार तक पहुंचने का है ...कुछ लोग उस का बेसब्री से इंतज़ार किए जा रहे हैं....जो बाहर लटक रहा है उस की कोशिश यह रहती है कि कहीं अच्छे से पैर तो जम जाए ..और जो खडे़ हुए हैं ...वे भी सब त्रस्त हैं ....कोई सोच रहा है पैर तो ठीक से रख पाऊं फर्श पर, किसी के बैग ने उस के साथ साथ औरों का जीना दूभर किया हुआ है ...(मैंने तो अपना शोल्डर-बैग अपने पैरों के नीचे रख दिया था...और एक दीवार के साथ खड़े होने की जगह मिल गई थी) ...और जो सही सलामत खड़ा हुआ है वह बैठे हुए हर इंसान के हाव-भाव एक ही नज़र से ताड़ कर यह जान लेने को बेताब है कि क्या कोई उतरने वाला भी है इन में या ये सब भी दूर के राही हैं....
अच्छा, एक बार जो इस तरह की ट्रेन में घुस गया उसे भी चैन नहीं ....हो भी तो कैसे। कुछ तो मेरे जैसे लोग इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्या अपने स्टेशन पर उतर भी पाएंगे इतनी भीड़ में ...लेकिन जैसे बंबई की लोकल ट्रेन के बारे में लोग मज़ाक करते हैं ...कि इसमें चढ़ने या उतरने के लिए आप को कुछ नहीं करना होता ...यह काम भीड़ के धक्का-मुक्का अपने आप कर देती है...मेरे पास ही एक 70-75 साल के बुज़ुर्ग थे ...वे कुर्ला से चढ़े थे और उन्हें बदलापुर जाना था ....उन्हें यही चिंता सताए जा रही थी कि ठाणे या डोंबिवली उतरने वालों के धक्कों से वे अगर नीचे उतर गए तो क्या वापिस चढ़ भी पाएंगे ... वे बार यह बात दोहराए जा रहे थे ...मैं भी कोई लोकल ट्रेनों का खिलाड़ी नहीं हूं (इन के कानून कायदों से नावाकिफ़ ही हूं ...पिछले सप्ताह के 1200 रूपये की वॉटर-बाटल जो एक दिन पहले ही ली थी ...कल्याण से चढ़ते ही ऊपर ट्रेन के रैक पर रख दी ..और दादर उतरते वक्त भूल गया...पांच मिनट बाद ख़्याल आया कि हाथ कुछ खाली खाली से लग रहे हैं....खैर, तब तक तो चिड़िया खेत चुग ही चुकी थी....) ...मैंने भी उन्हें कहा कि आप नीचे उतरिए ही नहीं ...(जैसे यह उन के अपने हाथ में हो। अगर पीछे से धक्का आएगा उतरने वाले हुजूम का तो उस वक्त अपने फ़ैसले नहीं चला करते ...अपने फ़ैसले अपने दफ़्तरो में आम आदमी के सामने ही चलते हैं) ....लेकिन उन्हें इस बात की इतनी चिंता थी कि उन की यह बात सुन सुन कर एक मुंबई वाले को कंटाला आ गया है (वह ऊब गया) वह जिस दीवार से सटा हुआ था, वहां से हट गया और कहने लगा, ...चाचा, आप इधर दीवार के साथ आ जाइए, पहले आप की समस्या का समाधान तो करें। और वह बुज़ुर्ग खुश हो गए...क्या कहते हैं उन की जान में जान आई।
अब मुझे वह कहने लगे कि कल्याण उतरना है तो बैग को कंधे पर अच्छे से डाल लो ...मैंने उनके कहने पर पैरों में रखे बैग को उठा लिया और एक कंधे पर डाल लिया ...लेकिन उन के फिर से कहने पर कि अच्छे से लटका लो, तभी आराम से उतर पाओगे ...मैंने उन की बात मान ली ... वैसे भी मैंने पैरों के बीच रखे हुए बैग को तो उठाना ही था, क्योंकि डोंबिवली स्टेशन पर जिस तरह से भीड़ उस डिब्बे से निकली मुझे लगा कहीं मेरा बैग भी उन के पैरों की ठोकर से नीचे न पहुंच जाए...खैर, अब अगला मुद्दा था कि कल्याण स्टेशन आयेगा किस तरफ़ ...दो तीन लोगों से पूछा ...सब ने कहा कि कभी इधर, कभी उधर ....एक ने सही से कहा कि आज तक कोई यह नहीं बता पाया कि किस तरफ़ आएगा ...यह तभी पता चलता है ...मैं उस दिन एक और हक़ीक़त से रू-ब-रू हुआ ....और फिर मैंने उसे कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्मो की जानकारी से उसे को-रिलेट भी किया ...खैर, कल्याण स्टेशन आने वाला था और जैसे ही साइड का पता चला एक शोर सा मचा....खुशकिस्मती से यह तरफ़ ही था जिस तरफ़ के दरवाज़े की तरफ़ मैं खड़ा था...मैंने उन बुज़ुर्ग को अलविदा कहा और नीचे उतर गया ....रात के 9.51 बजे थे ....पचास मिनट का यह सफ़रनामा आप तक पहुंचा दिया ...आप तक पहुंचाने से भी कहीं ज़्यादा मुझे इसे अपनी डॉयरी में दर्ज करना था ....कुछ सबक़ होते हैं जो लेने ज़रूरी होते हैं ....इसलिए। कहते हैं कि गलतियां करना तो आदमी का स्वभाव है ...लेकिन वही वही गलतियां दोहरानी मूर्खता होती है .....किसी भी शख्स का आखिर वजूद है ही क्या, वह तो फ़क्त अपने अनुभवों का एक जीता-जागता पुलिंदा है ... इसलिए हर रोज़ कुछ गलती करता है, कुछ सबक सीखता है ...बस, यह सिलसिला मिट्टी में मिल जाने तक चलता रहता है ...
जितना मैं बोल चुका हूं ....अगर लखनऊ में होता तो कोई न कोई मुझे टोक देता ...यार, इतनी ज़्यादा बक...... मत कर, अब बस भी कर। मुझे भी वह लफ़्ज बोलने-सुनने में बड़ा मज़ा आता है, लेकिन वह लिखने में झिझक रहा हूं....समझने वालों को इशारा ही काफ़ी होता है....जैसे एक इशारा यह भी है कि पहले ज़माने में राजा लोग भेष बदल कर जनता-जनार्दन के बीच जाते थे ....उन की मुश्किलें उन्हें पता चलती थीं, उन के मिज़ाज की जानकारी हासिल करते थे फर्स्ट हैंड एकदम ....तभी तो वे आदर्श राजा कहलाए जाते थे ...सीधी सीधी बात है आम नागरिक के बीच में गए बगैर आप उन के डर, खुशी, उमंग में कैसे जान पाएंगे....उन में शामिल होना तो बहुत दूर की बात हुई।
मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस - सितंबर 2020 का एक दिन |
अभी इस पोस्ट को बंद करते करते ख्याल आ रहा है कि लॉक-डाउन के दौरान मैंने बहुत बार लोकल-गाड़ियों में तब भी सफर किया है जब उन में मैं अकेला ही हुआ करता था ...और अब ...उफ....आगे से रात के उस वक्त में दादर से खोपोली फास्ट लोकल लेने की गल्ती नहीं दोहराऊंगा ...देखते हैं अपनी बात पर कितना टिका रह पाता हूं!
शनिवार, 2 जनवरी 2021
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से ....
कितना खूबसूरत फ़रमाया जनाब गुलज़ार साब ने ...किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से....लेकिन आज उन को उठा कर पढ़ने की फ़ुर्सत कम हो गई दिखती है।
किताबों-रसालों की बातें याद आती हैं तो बचपन के दिनों में किराये पर लाकर जो कॉमिक्स और पत्रिकाएं पढ़ी हैं वही शायद पूरी शिद्दत से पढ़ी गई हैं ...वरना अपनी खरीदी हुई या कहीं से उपहार स्वरूप मिली किताबों की हम लोग अब कहां परवाह करते हैं... कहीं किसी रैक पर पड़ी धूल चाटती रहती है...अब जो है सो है ... आज का युवा सोचता है कि जो कुछ है नेट पर है, किंडल पर है, ई-बुक्स हैं, पीडीएफ है.....सब कुछ वहां पड़ा है। लेकिन मुझे लगता है ..यह मेरे जैसे लोगों का व्यक्तिगत मत हो सकता है कि इन सब के होते हुए भी किसी भी किताब की हार्ड-कापी हाथों में लेकर पढ़ना और नेट पर किसी पत्रिका को पढ़ना बिल्कुल वैसे ही दो अलग प्लेटफार्म हैं जैसे कि बचपन में हम लोग सिनेमाघर में जा कर फिल्म देखते थे और आज ओटीटी प्लेटफ़ार्म ...नेटफ्लिक्स, अमेज़ान आदि पर जो फिल्म देखते हैं ...मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मेरे लिए यह ज़मीन आसमां का फ़र्क है ....अब इसमें क्या ज़मीन और क्या आसमां, आप समझ गए होंगे।
सोचने वाली बात यह है कि जब हम खुद की खरीदी हुई अपनी पसंद की किताबें ही नहीं पढ़ते तो दूसरों से उपहार में मिली किताबें कहां पढ़ेंगे ... मेरे पास अपनी एक छोटी सी किताबों की लाइब्रेरी है... हर किताब मेरे पसंद की ...हिंदी, इंगलिश, पंजाबी और उर्दू ज़ुबान की किताबें हैं ...एक एक किताब अपनी खरीदी हुईं...पिछले सात-आठ साल से सोच रहा हूं कि इन में दो किताबें मुझे जल्दी से जल्दी पढ़नी हैं...फणीश्वरनाथ रेणु की महान् कृति मैला आंचल जिस पर फिल्म भी बन चुकी है ...और श्रीलाल शुक्ल की बहुचर्चित किताब राग दरबारी.... लेकिन मेरे से यह नहीं हो पाया....हर बार दस-बीस पन्ने पढ़ता हूं, फिर कोई दूसरा काम निकल आता है।
मैं कईं बार बैठा यही सोचता हूं कि जो पत्रिकाएं बचपन से लेकर 28-30 साल की उम्र तक किराये पर लेकर पढ़ी जाती थीं, उन्हें पढ़ना का एक अपना अलग ही मज़ा हुआ करता था। छुटपन से ही हम ने देखा कि हमारे घर अखबार के इलावा इलस्ट्रेटिड वीकली, धर्मयुग आता था .. और कभी भी सरिता भी । और चंदामामा और नंदन मैं साईकिल पर जा कर लेकर आता था ...इसके अलावा लोटपोट, मायापुरी और फिल्मी कलियां किराये पर ही लाकर पढ़ते थे ...फिर जब कॉलेज जाने लगे तो फिल्म-फेयर और स्टॉर-डस्ट भी किराए पर मिलने लगीं .. शायद एक रूपये रोज़ का किराया होता था ...आगे चल कर स्टार-डस्ट का दैनिक किराया दो रूपये हो गया था ...और जिस लोटपोट की मैं बात कर रहा हूं वे तो हम लोग तीन चार इक्ट्ठा ही ले आते थे ...25 पैसे प्रति लोटपोट के हिसाब से उसे सुबह लाईं 4 लोटपोट का एक रूपया देना होता था अगर उन्हें आप शाम तक लौटा दें ...वरना अगले दिन लौटाने पर दो रूपये देने होते थे .. लेकिन यह एक और दो रूपये का अंतर भी तो हम लोगों को राई और पहाड़ का अंतर दिखता था ....दिखता ही नहीं था, हमारी छोटी छोटी जेब को पता भी चलता था ...इसलिए घर पर लाते ही इन्हें पढ़ने को प्राथमिकता दी जाती थी।
जैसे जैसे लोगों की जेबें बड़ी होती गईं ....इस तरह का साहित्य पढ़ने, पढ़ाने की बातें फ़िज़ूल समझी जाने लगीं ... रसाले छपने भी कम होते गए ....पहले एक परिवार जब सफर के लिए गाड़ी में चढ़ता था तो उस के पास एक ट्रंक, होलडाल, सुराही के साथ साथ बड़े-छोेटों के लिए दो-तीन रसाले भी ज़रूर हुआ करते थे जिन्हें प्लेटफार्म ही से खरीदा जाता था...
अकसर मैंने यह नोटिस किया है कि साहित्य पढ़ने-पढ़ाने को इतनी अहमियत नहीं दी जाती ....लेकिन हमारी आंखें खोलने के लिए, हमारे बौद्धिक विकास के लिए और दिलो-दिमाग का पैराशूट खोलने के लिए साहित्य बेहद ज़रूरी है ... दुःख की बात है कि स्कूल में भी लोग साहित्य को अच्छे से नहीं पढ़ते ....बस पी.सी.एम और पी.सी.बी में स्कोर करने के चक्कर में ऐसा फंसते हैं कि कभी भी किताबों की तरफ़ रुझान पैदा हो ही नहीं पाता...
मुझे जितना भी वक्त मिलता है कुछ न कुछ पढ़ने का कोशिश तो ज़रूर करता हूं ...मेरे विचार में हम सब को अपने पास एक किताब ज़रूर रखनी चाहिए ...कहीं भी जाएं ...जहां भी दस-बीस मिनट का वक्त खाली मिले कुछ न कुछ पढ़ना चाहिए...मुझे तो मेरी पढ़ने की आदत से बहुत फायदा हुआ है ...और रोज़ाना अखबार पढ़ने से मैंने जितना सीखा है उतना तो स्कूल-कॉलेज में भी नहीं सीखा...मैं हर किसी को कहता हूं कि पढ़ने की आदत डालिए ....हम कभी भी इतने तुर्रम खां नहीं बनेंगे कि हम कहें कि हम सब कुछ जानते हैं...हमें और कुछ जानने की क्या ज़रूरत .... किताबें हमारा सच्चा साथी हैं....इस से हम लोग सफर में, या कहीं और भी बेवजह की बे-सिर पैर की गॉसिप से भी बच जाएंगे ...जिस की वजह से सर ही भारी होता है ...और कुछ नहीं .... यह जो गॉसिप है इस से किसी का आज तक भला हुआ नहीं ...न तो आप किसी का कुछ बिगाड़ सकते हैं और न ही कोई दूसरा आप का बाल भी बांका कर सकता है ...किताबों की दुनिया को खंगालिए..।
एक बात बतानी तो भूल ही गया ... मैं अकसर आते जाते कबाड़ी की दुकान पर बहुत सी अंग्रेज़ी की किताबें - नावल इत्यादि पड़े देखता हूं ..कुछ महीने पहले मैंने खुशवंत सिंह की लिखी एक किताब और उन के आटोग्रॉफ के साथ किसी को गिफ्ट की हुई रददी में पड़ी देखी ....मुझे बड़ा दुःख हुआ...और एक बार किसी नामचीन डाक्टर द्वारा लिखी गई एक किताब एक मुख्य-मंत्री और उस की पत्नी के नाम भेंट की हुई ...डाक्टर के हस्ताक्षर के साथ, मैंने रद्दी में पड़ी देखी ...उस दिन भी बहुत अफसोस हुआ ...यह सब इस बात का आइना है कि हम लोग किताबों की कितनी क़द्र करते हैं !
एक बात तो बतानी भूल ही गया ... मैंने कुछ अरसा पहले 50-60 पुरानी एक इलस्ट्रेटेड वीकली और धर्मयुग की एक प्रति को डेढ़ हज़ार रूपये में खरीदा ... ये अब कहीं मिलती नहीं लेकिन मुझे ये किसी भी कीमत पर ज़रूरी चाहिए थीं....और मेरे पास कुछ दुर्लभ किताबों में से एक 160 साल पुरानी डिक्शनरी भी है....जिसे भी भारी कीमत पर खरीदा गया ....बस इस तरह का खर्च करते वक्त मैं यह सोच लेता हूं कि मैंने चार-पांच पिज़्जा खा लिए (जो कि मैं कभी नहीं खाता..) ...इस से इस तरह की फ़िज़ूलखर्ची का झटका थोड़ा सा कम लगता है ... इन दुर्लभ किताबों में क्या है, क्या दबा पड़ा है, ये क्या संजोए पड़ी हैंं, इस के बारे में फिर किसी दिन बात करेंगे...
शुक्रवार, 1 जनवरी 2021
हम सब के चेहरों से जल्दी ही मॉस्क हट जाएं....काश!
आज कल नए वर्ष की शुभकामनाएं भिजवाना बड़ा सस्ता सा काम हो गया है ...हमारे ज़माने में नहीं हुआ करता था ...उन दिनों अगर आप को किसी को नये साल की ग्रीटिंग्ज़ भिजवानी हैं तो आप को दो चार पांच दस रूपये खर्च कर के उसे नए साल का ग्रीटिंग कार्ड भिजवाना पड़ता था....बहरहाल, यह तो एक पर्सनल सा मुद्दा हुआ। मुझे याद है कुछ लोग इस काम के लिए दर्जनों कार्ड थोक-रेट पर खरीद लिया करते थे...लेकिन हम लोगों ने ऐसा कभी भी ऐसा नहीं किया- एक तो इन बेकार चीज़ों के लिए इतने पैसे ही नहीं होते थे और दूसरा, इन सब चोंचलों की निरर्थकता बचपन से ही समझ आने लगी थी।
मुझे तब भी ये सब कार्ड-वार्ड भिजवाना बड़ा नीरस सा काम लगता था (याद नहीं अभी तक दो-चार कार्ड भी किसी को भिजवाएं हों ...और आज भी सोशल मीडिया पर एक क्लिक से 256 लोगों को बधाई संदेश भिजवाने में मैं तो बड़ा गुरेज करता हूं...ग्रीटिंग कार्ड के ज़माने में भी जब हम किसी को हाथ से लिख कर ख़त भिजवाते थे या दूसरों से ऐसे हस्तलिखित संदेश पाते थे, उसकी तो बात ही अलग हुआ करती थी..अब सोशल मीडिया के सस्ते दौर में कौन हिसाब रखता फिरे कि किस को शुभकामनाएं भेजी, किस को मिलीं और किस ने वापिस हमें तुरंत लौटाईं भी या नहीं। मुझे इन सब पचड़ों से बेहद चिढ़ है।😁
हम लोगों ने जैसा बचपन से देखा-सुना, आज भी वैसा ही करते हैं...सुबह उठ कर समूची कायनात के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर लेते हैं...और नए साल में भी किसी को भी फोन या मैसेज करने से कहीं बेहतर मुझे यही लगता है कि दुनिया के हर शख़्स, हर परिंदे और हरेक पेड़ के लिए यह वर्ष नई उम्मीद एवं नई उमंग, खुशियां ले कर आए...परिंदे गुलेल से, जानवर कसाई से और हरे-भरे पेड़ पढ़े-लिखे लोगों की कुल्हाड़ी से बचे रहें...मेरी यही अरदास है। और सब को रहने के लिए एक ढंग की जगह मिले, खाना-पीना ठीक से खाएं, स्वस्थ रहें और इतने खुश रहें सभी कि चिंताएं उन के पास फटक न पाएं....
यह सब लिखते लिखते मुझे एक फिल्मी गीत याद आ गया....कहने को तो यह फिल्मी गीत है, लेकिन मैं इसे एक भजन मानता हूं...यह मेरे दिल के बहुत करीब है...क्योंकि ये जिन मुद्दों की बात उठा रहा है वे सब मेरे दिल के बेहद करीब हैं....इसलिए मैं अपने आप को ज़मीन पर टिकाए रखने के लिए अकसर सुनता रहता हूं और जब भी इसे सुनता हूं तो भावुक हो जाता हूं...मुझे पूरी उम्मीद है कि आप ने भी इस के लिरिक्स की एक एक पंक्ति की तरफ़ ध्यान तो दिया ही होगा...गीतकार की अद्भुत रचना। एक बार तो मुझे यह भी ख्याल आया था कि इस अरदास भरे गीत के बोल लिख कर फ्रेम करवा कर अपने आसपास टांग लेने चाहिए.. ताकि ये सब बातें याद रहें कि दुनिया में अभी भी हर किसी को बराबरी, घर, दो जून की रोटी, सामाजिक न्याय मयस्सर नहीं है और इस के लिए निरंतर काम करने की ज़रूरत है जब तक कि लाइन में खड़े आखिरी इंसान तक उस का हिस्सा सम्मान के साथ न पहुंच जाए!
आज नए वर्ष बेला पर मैं भी यही अरदास कर रहा हूं ....
ओह! मैं भी नए वर्ष की पहली सुबह ही कहां से किधर जा निकला....बात तो सीधी सादी शुभकामनाएं देने की थी ...मेडीकल व्यवस्था से जुड़े हरेक वर्कर के लिए मैं आज यह दुआ करता हूं कि हरेक के चेहरों से मॉस्क हट जाएं...बहुत मुश्किल होता है सारा दिन एन-95 चढ़ा कर अपना काम करना, मरीज़ों से बोलना-बतियाना ....कुछ घंटों के बाद ही हालत खराब होने लगती है ...सर भारी हो जाता है और तबीयत नासाज़ - और पी पी ई किट डाल कर जो लोग पूरा दिन ड्यूटी कर रहे हैं उन को भी अब इस सब से मुक्ति मिले ....जल्दी से कोरोना का नाश हो और हम सब एक बार फिर से खुली फ़िज़ाओं में खुशनुमा हवाओं का लुत्फ़ उठा पाएं...और इस के साथ ही जन साधारण को भी इन नकाबों से मुक्ति मिले ...छोटे छोटे बच्चों को भी मॉस्क लगा कर बाहर निकालने की मजबूरी देखता हूं तो मन दुःखी होता है। एक ज़माना था जब मेडीकल स्टॉफ के अलावा अगर कोई दूसरा इंसान फेसमास्क लगाए दिख जाता था तो हम समझ जाया करते थे कि यह शख़्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है, इस की इम्यूनिटि डॉउन है ... कोई बड़ा लफड़ा है इस के साथ। लेकिन अब तो फेस-मॉस्क सब के लिए सरदर्दी बन चुकी है ...लेकिन जब तक कोरोना का संकट इसे लगाए रखना और ठीक से लगाए रखना हमारी सब की मजबूरी है ...
एक तो मेरे जैसे दो कौड़ी के लेखक जो लगभग सभी हिंदी फिल्में कईं कईं बार देख चुके हैं , उन के गीत आत्मसात कर चुके हैं...उन को लिखते वक्त हर सिचुएशन पर फिल्माए गीत जैसे बीच बीच में आकर कहते हैं कि हमें भी तो इतना पसंद करते हो ..बार बार सुनते हो, हमारे बारे में भी कहो ..ठीक है बाबा, ठीक है .....कहे देता हूं ...तो जनाब यह गीत है हमारे बचपन में आई फिल्म सच्चा झूठा का ....फिल्म मुझे बहुत पसंद थी और यह गीत भी .... यह भी उन सब नकाबों की बात कर रहा है जो हम सब ने ओढ़ रखे हैं....इस गीत में एक जगह यह कहा गया है ..."सब ने अपने चेहरों के आगे झूट के परदे हैं डाले ....!" लीजिए, आप भी सुनिए हमारे बचपन के दौर के मेरे इस बेहद पसंदीदा गीत को ....😀
गुरुवार, 24 दिसंबर 2020
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर ही ज़िंदगी है ...
दो दिन पहले एक दिन के लिए गाज़ियाबाद जाना हुआ...बाज़ार में टहल रहे थे ...इतने में आंच पर सिक रही लिट्टी की तरफ़ ध्यान गया...इतनी सर्दी के मौसम में जहां पर भी अंगीठी जल रही होती है ... वहीं पर थोड़ा रुक जाने की इच्छा तो होती ही है ...और ऊपर से इस रेहड़ी पर लिट्टी-चोखा तैयार करने वाला बड़े उत्साह से, साफ़-सफ़ाई से अपने काम में मस्त था....
हम भी रूक गए...उसने कहा कि एक प्लेट सादी 25 रूपये की है और शुद्ध घी वाली 35 रूपये की है ...हमारे पूछने पर उसने घी का ब्रांड भी बता दिया... मैं पहले भी दो एक बार लिट्टी चोखा खाया था ...एक दो बार तो लखनऊ में और एक बार घर ही में तैयार हुआ था..लेकिन इतना मज़ा नहीं आया ..उस दिन ब्रह्म देव जी के ख़ालिस-घी की लिट्टी-चोखे की बात ही अलग थी...
खाते समय थोड़ी बहुत बात होती रही ..समस्तीपुर से हैं, 13-14 साल से यहीं गाज़ियाबाद में यह काम कर रहे हैं, यहां पर अकेले ही रहते हैं...18-20 घंटे डट कर मेहनत करते हैं...लिट्टी चोखा तो शाम को 5 से रात 9 बजे तक ही बेचते हैं...लेकिन सारा दिन इस की तैयारी में कट जाता है। सुबह 6 बजे उठ कर सब्जी खरीदने जाते हैं...फिर उस की धुलाई, कटाई, और तरह तरह की चटनी की तैयारी में शाम हो जाती है ...और कहने लगे कि बीच में अपने लिए खाना भी तैयार करना होता है।
वहां रेहड़ी पर खाने वाले तो हम जैसे इक्का-दुक्का ही थे...अधिकतर लोग मोटर-कार में आकर अपना आर्डर दे रहे थे ...एक युवती ने कार से ही आवाज़ दी - लिट्टी वाले अंकल, दो प्लेट दीजिए...एक चटपटा, एक सादा। हमारी मिसिज़ ने उस युवती से कहा कि आप तो इन के रेगुलर कस्टमर लगते हो ...वह हंसने लगी। लिट्टी-चोखा खाते वक्त हमारी मिसिज़ ने भी उन से चटनी और सत्तू के बारे में दो एक टिप्स ले ही लीं..
उन का लिट्टी-चोखा देसी घी में डुबोई हुई लिट्टी के साथ इतना उम्दा था कि हमने एक एक प्लेट और ली। उन्हें देख कर, अपने पेशे के प्रति उन का समर्पण देख कर और सब से बड़ी बात उन का उत्साह देख कर यही लग रहा था कि उम्र कुछ भी हो, अगर कुछ करने का जज़्बा कायम-दायम है ...और सब से अहम् बात यह कि अगर अपने कम्फर्ट-ज़ोन से बाहर निकलने के लिए कोई निकलना जानता है तो ज़िंदगी बड़ी ख़ुशग़वार है ...नहीं तो सब कुछ बड़ा नीरस सा, घिसा-पिटा लगने लगता है...
अब ब्रह्म देव भी चाहते तो अपने गृह-नगर में ही रहते ....वहां से बाहर निकले, एक नया आकाश बांहें फैलाए उन की इंतज़ार कर रहा था ...अच्छा लगा उन से मिल कर ...आते आते मैं भी अपनी आदत से मजबूर ...ब्रह्म देव जी आप को हम 10 में से 10 नंबर देकर जा रहे हैं..यह सुनते ही उन के दूसरे ग्राहक भी हंसने लगे जैसे हमारी कही बात की हामी भर रहे हों...हमने उनसे वायदा किया कि जब भी यहां आया करेंगे, आप के पास ज़रूर आएंगे।
हम जैसे लोगों के लिए भी लिट्टी-चोखा खाना अपने कम्फर्ट-जो़न से बाहर निकलने जैसा ही है ...क्योंकि ये भटूरे, चने जैसे हमारे डी. एन.ए में ही शामिल हो चुके हैं ...ब्रह्म देव की रेहड़ी पर खड़े एक युवक ने कहा कि यह तो बिहार का बहुत ही पसंदीदा पकवान है ...मैंने कहा कि जैसे देश के इस भाग में भटूरे-चने ...इस पर ब्रह्म देव जी ने कहा कि लिट्टी चोखे में तो कोई भी ऐसी चीज़ नहीं है जिस का नुकसान हो ...मैंने उन की बात में हामी भर दी..। मुझे उस दिन पता चला कि चोखे में बैंगन के साथ आलू भी डाला होता है ...और एक चटनी नारियल और सरसों की भी उन के यहां जो खाई, वह भी लाजवाब थी।
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने पर लिखने का मन पता नहीं आज कैसे कर गया....बहुत विशाल विषय है ... जितना भी लिखना चाहें, लिखते चले जाएं...ख़ैर, मैं अकसर कहता हूं शहर, कस्बा, देश कोई भी हो, उसे अच्छे से देखने, फील करने के लिए भी हमें कम्फर्ट-ज़ोन से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है ...मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि शहर तो वहां से शुरू होते हैं जहां से उन में हमारी मोटर-गाड़ीयां घुसनी बंद होती हैं....या यह भी कह सकते हैं जब हम अपनी मोटर-गाड़ी से उतर कर अपने पैरों को ज़ेहमत देने लगते हैं, उसी घड़ी से मान लीजिए हम उस गली, मोहल्ले, उस कसबे को जैसे टटोलने लगते हैं....कहीं पर कोई कदीमी दुकान दिख जाती है, किसी दूसरी नुक्कड़ पर कोई बहुत बुज़ुर्ग कारीगर अपने फ़न की इबादत करता दिख जाएगा....कही ं पर कोई ऐसी दुकान जिस पर ऐसा सामान बिक रहा होता है जो हमारे बचपन में ही बिकता हुआ दिखता था .... नए नए लोग दिखते हैं, उन से कभी थोड़ी ग़ुफ्तगू भी हो जाती है ... इस का मतलब नहीं कि हम लोगों ने उस शहर से अगला चुनाव जीतना है ...लेकिन बस ऐसे ही जहां पर रहते हैं वहां के बारे में पता हो तो ज़िंदगी थोड़ी ज़िंदगी जैसी लगती है ....नहीं तो वही रोबोट की तरह, जहां भी जाएं वहां पर पार्किंग की टेंशन करते करते ही थक हार कर अपने घर लौट आते हैं...है कि नहीं...कार में जब घूमने निकलते हैं तो यही तो होता है। मुझे और किसी का पता नहीं, मुझे तो बिल्कुल मज़ा नहीं आता....शहरों-कस्बों के ऐसे हवाई दौरों से ....ये हवाई-सर्वेक्षण जैसा काम नहीं है, यहां तो भई शहर-कस्बे की नब्ज टटोलने के लिए उस की रफ़्तार के साथ ही चलना पड़ता है..।
इसलिए मुझे टू-व्हीलर पर घूमना और उस से कहीं ज़्यादा साईकिल पर या पैदल चल कर सड़कों को नापना बहुत भाता है ... हर दिन हमें कुछ नया दिखता है ...कुछ ऐसा पता चलता है जो कल पता नहीं था, बस इन्हीं छोटी छोटी खुशियों से ही तो ज़िंदगी में थोड़ी ऊर्जा आती है ... साईकिल पर चलने वालों के, पैदल टहलने वालों के मेेरे पास सैंकड़ों किस्से हैं....अब क्या क्या लिखें, क्या क्या सुनाएं...शायद वह भी कम्फर्ट ज़ोन में अटके होने वाली बात है मेरे लिए...जिस दिन ठान लूंगा कि नहीं यह सब भी लिख कर शेयर करना ही है, करने लगूंगा।
इस तस्वीर का किस्सा फिर कभी . |
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने के बारे में दो-चार अहम् बातें अगली पोस्ट में करूंगा... जाते जाते अपने बचपन के दौर का 50 साल पुराना अपना एक बेहद पसंदीदा गीत ही लगा दूं....इस लिंक पर क्लिक करिए... अगर नीचे यू-ट्यूब वीडियो नहीं चले तो ...