रविवार, 4 जनवरी 2009

लगभग बीस साल बाद दिल्ली में एक रविवार .....भाग 1..

मुझे आज दिल्ली में एक राइटर्ज़-मीट( लेखन मिलन) के सिलसिले में जाना था --- प्रोग्राम तो था सुबह दस बजे से एक बजे तक – मैं यहां यमुनानगर से सुबह लगभग साढ़े चार बजे बस से चला और दिल्ली के अंतर्राजीय बसअड्डे पर लगभग साढ़े आठ बजे पहुंच गया था। वैसे तो मुझे कहीं भी आने-जाने का इतना आलस्य आता है किक्या बताऊं --- लेकिन जब किसी बहाने लेखकों से मिलने की बात होती है तो मेरे रास्ते में न तो दूरी और न हीसमय की कोई बाधा आती है। आप हिंदी चिट्ठाकारों का भी कोई समारोह हिंदोस्तान के किसी भी कोने में रख के देख लीजिये --- वहां पर भी पहुंच ही जाऊंगा। लेखकों के साथ कुछ समय बिताने के चक्कर में तो अन्य जगहों के इलावा असम के जोरहाट में भी 10 दिन लगा के आ चुका हूं।

हां, तो जैसे ही दिल्ली के बस अड्डे पर उतरा बस-अड्डे की दीवार पर इस दीवारी सूचना नेस्वागत किया --- ये एक-दो नहीं एक दीवार पर तो बीस बार ही लिखा हुआ था । इस सूचना को देख कर इतना ही सोचा कि या तो यह भी लगे हाथ कानून ही बन जाये कि किसी ने भी पेशाब करना ही नहीं है – वरना इन बीसियों नोटिसों की व्याकरण ही थोड़ी दुरूस्त कर दीजाये --- केवल वाक्य के शुरू में यहां लगाने भर की तो बात है , वरना यह तो बीड़ी-सिगरेट की मनाही याद दिलाने वाले किसी विज्ञापन की तरह ही लग रहा है !!



वैसे तो इन नोटिसों में छिपी बैठी
एक ग्रैफिटी यह भी तो थी !!























वहां से मुझे धौला कुआं जाना था – लगभग 45 मिनट का सफ़र था। रास्ते में जाते हुये पता चला कि 1 जनवरी 2009 को दिल्ली में नो-होंकिंग डे ( अर्थात् उस दिन हार्न बजेंगे ही नहीं !!)- मुझे नहीं पता कि वह दिन वास्तव में दिल्ली वालों ने कैसे मनाया होगा लेकिन इतना सोच ही रहा था कि कुछ ही दूरी पर एक अन्य बड़े से पोस्टर पर निगाह पड़ गयी ---जिस में एक हार्न के साथ एक कुत्ते की तस्वीर थी और ये पोस्टर उस कुत्ते की तरफ़ से ही लगे हुये थे जिस में वो बहुत गुस्सा से फरमा रहे थे ---
मैं बिना वजह भौंकता नहीं हूंआप भी बिना वजह हार्न बजायें।

प्रिय टॉमी, हम लोग तुम्हारे जितने समझदार होते तो बात ही क्या थी , यह नौबत ही न आती कि तुम से भी प्रवचन सुनने पड़ते !!

आगे थोड़ी दूरी पर देखा कि मैट्रो का काम चल रहा था – उस के इर्द-गिर्द लगे लोहे की शीटों पर एक बहुत ही बढ़िया संदेश हम सब के लिखा हुआ था --- हैल्मेट इज़ मोर इंपोर्टैंट दैन यूअर हेयर-स्टाईल ---
आप के हेयर-स्टाईल से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है आप का हेल्मेट पहनना!!

जहां पर दरियागंज लगभग खत्म होता है वहां पर एक बहुत बड़ा बोर्ड यह भी दिख गया --- अंग्रेज़ी में लिखा हुआ - दान देने के लिये उपर्युक्त कंबल खरीदने के लिये इस मोबाइल पर संपर्क करें – इन की कीमत 75 रूपये से शुरू होती है। बात सोचने वाली यही है कि क्या दान वाले कंबलों में प्यार की इतनी ज़्यादा हरारत होती है कि एक 75 रूपये वाला कंबल भी फुटपाथ पर पड़े हुये किसी बदकिस्मत को इस नामुराद ठिठुरन से बचा सकता है ---- एक बात और भी है न कि अब किसी का जीना-मरना तो दानकर्त्ता के हाथ में थोड़े ही है ---- सुबह वह फुटपाथी फटीचर उठे या उठे ---लेकिन ठंड की वजह से अकड़ चुके इस बंदे के पड़ोस में ही फुटपाथ पर पड़ी अखबार के स्थानीय पन्ने पर धन्ना सेठ की रंगीन फोटो के नीचे कितना साफ़ साफ़ लिखा भी तो होगा कि कल शाम धन्ना सेठ ने गरीबों में 100 कंबल बांटे ------ गिनती पूरी होनी थी , सो हो गई !! और इसी चक्कर में धन्ना सेठ ने अपना तो लोक-परलोक सुरक्षित कर लिया ---कोई घाटे का सौदा थोड़े ही है ?

दिल्ली की महत्वपूर्ण जगहों की दीवारों पर अकसर गुमशुदा लोगों की तस्वीर देख कर बहुत रहम आता है --- अरेभई, किसे पड़ी है इस चक्कर में अपने दो मिनट खराब करे ---- जो गुमशुदा हो गयें उन का तो पता है कि वेगुमशुदा हो गये हैं लेकिन ये जो लाखों लोग अपने आप से ही गुम हो चुके हैं, महानगर की भागम-भाग में इन का खुद जीवन भी तो कहीं गुम हो चुका है लेकिन इन का गुमशुदा नोटिस क्या कभी कोई छापेगा -----क्योंकि मेरे साथ साथ सब के सब डरते हैं ----सच्चाई डरावनी होती है।

वहां लेखकों के मिलन के दौरान प्रोफैसर जावेद हुसैन से ये पंक्तियां भी सुनीं ---
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रोज़ किया करते हो कोशिश जीने की ,
मरने की भी कुछ तैयारी किया करो।

अच्छा तो दिल्ली में बिताये गये इस रविवार की बकाया रिपोर्ट एवं उस लेखक-मिलन के बारे में अगली दो पोस्टों में लिखूंगा --- अभी नींद आ रही है ---आज सफर बहुत किया है ---अच्छा तो दोस्तो, शब्बा खैर !! शुभरात्रि !!