मेरी मां पिछले तीन चार दिनों से अपनी बुक-शेल्फ को ठीक करने में व्यस्त दिख रही थीं।
उन्होंने कल सभी किताबों की एक सूची तैयार की होगी।
अभी अभी बताने लगीं कि वह दो लिस्टें बनाना चाहती थीं और इसलिए दो कागज़ के पन्नों के बीच एक कार्बन भी रखा था लेकिन नीचे वाले पन्ने पर कुछ भी लिखा नहीं आया।
जैसा कि मेरे जैसे लोग ओव्हर-कॉन्फिडैंट और ओव्हर क्लेवर भी समझते हैं अपने आप को.......मुझे यही लगा कि उन्होंने दो पन्नों के बीच कार्बन को गलत तरीके से रख दिया होगा, और मैंने उन से भी यही कहा।
वैसे यह गलती मैं भी कईं बार करता हूं और लिखने से पहले पेन को ऐसे ही घिसा कर चेक भी कर लिया करता हूं कि नीचे वाले कागज़ पर भी छप रहा है कि नहीं। बॉय-चांस उन के हाथ में वे दो पन्ने और कागज़ थे, मैंने उन से लिए और अपने नाखून से ऊपर वाले पन्ने पर कुछ लिखना चाहा......नीचे वाले पन्ने पर नहीं आया तो मुझे लगा कि हां, यह कार्बन ही उल्टा पड़ा था।
मैंने फुर्ती से कार्बन पल्टा, नाखून से ऊपरी पन्ने पर कुरेदना चाहा तो भी नीचे वाले पन्ने पर कुछ नहीं आया।
इतने में मेरी मां कहती हैं कि कार्बन तो जैसे मैंने रखा था वैसे ही रखेंगे तो ही ठीक आएगा.........मैं भी यही समझा। लेकिन मां ने आगे बताया कि हां, मुझे लगता है कि लिखना ज़ोर से जाना चाहिए था। मैं भी उन की बात से सहमत हो गया... लेकिन मुझे एक बात और भी लगी कि जिस कागज़ के पन्ने पर वे लिस्ट तैयार कर रही थीं वह कुछ था भी मोटे किस्म का, इसलिए भी नीचे वाले कागज पर प्रिंट नहीं आया होगा।
बहरहाल, यह अभी अभी का किस्सा सिर्फ़ हम सब को याद दिलाने के लिए कि सारी माताएं कितनी सीधी होती हैं, बिल्कुल बच्चों जैसे होती हैं।
मेरी मां के बारे में चंद बातें....... मैं पचास की उम्र पार कर गया हूं लेकिन आज तक उन्होंने कभी भी मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया, यार, हाथ उठाना तो दूर कभी मुझे झिड़का तक नहीं... शायद यही कारण है कि मैं भी अपने बच्चों के साथ कुछ वैसा ही हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता हूं कि मैंने अपने बच्चों पर हाथ नहीं उठाया-- दो एक बार तो मैंने कभी उन की चंपी की ही थी.......लेकिन वे शायद भूल चुके हैं या भूलने का नाटक करते हैं जब कहते हैं कि पापा ने हमें कभी नहीं मारा।
वैसे मेरे पिता जी ने मुझे एक बार थप्पड़ मारा था.....बस केवल एक बार, मैं बार बार उन के सिगरेट के पैकेट को कुर्सी से नीचे गिरा रहा था ...मुझे अच्छे से याद है, पांच-छः वर्ष का रहा होऊंगा।
अच्छा, मां की एक और तारीफ़........मुझे नहीं याद कि स्कूल, कॉलेज और बेरोज़गारी के चंद महीनों के दौरान मैंने अपनी मां से कुछ रूपयों की फरमाईश की हो और उस ने अपनी अलमारी के किसी कोने में पड़े वे पैसे मुझे खुशी खुशी न दिए हों। मेरे पिता जी ने भी मेरी किसी भी फरमाईश को नहीं टाला, कभी भी नहीं। कभी यह भी याद नहीं कि मैं मां के साथ बाज़ार गया होऊं और किसी भी चीज़ के मेरा मन मचल गया हो और मां ने वह तुरंत न दिलाई हो......चाहे वह गन्ने का रस, आईसक्रीम या कोई खिलौना, कुछ भी।
एक बात और, कभी भी कुछ भी कहा वह बात हमेशा मान ली......कभी भी कोई किंतु-परंतु नहीं। अगर कहीं जाने के लिए कह दो, तो ठीक.......कहीं न जाने का बहाना मैं बना दूं तो भी वे बिल्कुल राज़ी। हर बात में हां में हां मिलाने वाली मां...........शायद इस देश की सारी माताएं मेरी मां जैसी ही होती होंगी।
और एक बार, कभी नहीं याद कि कुछ खाने की इच्छा ज़ाहिर की हो, और इस मां ने रात में उठ कर भी वह न बनाया हो। स्कूल जाने से पहले दही-परांठे का नाश्ता उन अंगीठी के दिनों में भी, स्कूल के लिए लंच में परांठे और सब्जी, चार-पांच बजे घर आ कर गर्मागर्म खाना.. ये सब काम हर दिन करना उन की दिनचर्या में शामिल रहा और सब से बड़ी बात हंस हंस कर........अब क्या क्या लिखूं यार।
हर एक की बात में आ जाना........उस दिन मेरा छोटा बेटा अपनी दादी से बात कर रहा था......बीजी, हुन केले दर्जन विच दस ही मिलदे ने। और मुझे यह जान कर इतनी हैरानी हुई कि वे इस बात से हैरान तो हुई लेकिन उन्होंने उस की बात मान ली.........बाद में उसने बता दिया कि वह मजाक कर रहा था। मुझे खोसला का घोंसला फिल्म का वह संवाद बहुत अच्छा लगता है कि बच्चों की बातों में आने की कोई उम्र नहीं होती।
यार, ऐसे तो लिखता ही जाऊंगा....... फिर कभी...........लेकिन एक बात का विचार आ रहा है कि हम अपने मां-बाप से जिस तरह का बर्ताव पाते हैं.......वही शायद हम फिर अपनी ज़िंदगी में अपने संपर्क में आने वाले लोगों में बांटते चले जाते हैं... क्या मैं ठीक कह रहा हूं?
वैसे मेरी मां अपना एक ब्लॉग भी लिखती हैं.......आप यहां इसे देख सकते हैं.....क्या कहूं, क्या न कहूं?
पेशे-खिदमत है सभी मांओं की महानता को समर्पित पंजाब का यह सुपर-टुपर गीत..........उस गायकी की बादशाह कुलदीप मानक की आवाज़ में.........मां हुंदी ए मां ओ करमा वालेयो..........
उन्होंने कल सभी किताबों की एक सूची तैयार की होगी।
अभी अभी बताने लगीं कि वह दो लिस्टें बनाना चाहती थीं और इसलिए दो कागज़ के पन्नों के बीच एक कार्बन भी रखा था लेकिन नीचे वाले पन्ने पर कुछ भी लिखा नहीं आया।
जैसा कि मेरे जैसे लोग ओव्हर-कॉन्फिडैंट और ओव्हर क्लेवर भी समझते हैं अपने आप को.......मुझे यही लगा कि उन्होंने दो पन्नों के बीच कार्बन को गलत तरीके से रख दिया होगा, और मैंने उन से भी यही कहा।
वैसे यह गलती मैं भी कईं बार करता हूं और लिखने से पहले पेन को ऐसे ही घिसा कर चेक भी कर लिया करता हूं कि नीचे वाले कागज़ पर भी छप रहा है कि नहीं। बॉय-चांस उन के हाथ में वे दो पन्ने और कागज़ थे, मैंने उन से लिए और अपने नाखून से ऊपर वाले पन्ने पर कुछ लिखना चाहा......नीचे वाले पन्ने पर नहीं आया तो मुझे लगा कि हां, यह कार्बन ही उल्टा पड़ा था।
मैंने फुर्ती से कार्बन पल्टा, नाखून से ऊपरी पन्ने पर कुरेदना चाहा तो भी नीचे वाले पन्ने पर कुछ नहीं आया।
इतने में मेरी मां कहती हैं कि कार्बन तो जैसे मैंने रखा था वैसे ही रखेंगे तो ही ठीक आएगा.........मैं भी यही समझा। लेकिन मां ने आगे बताया कि हां, मुझे लगता है कि लिखना ज़ोर से जाना चाहिए था। मैं भी उन की बात से सहमत हो गया... लेकिन मुझे एक बात और भी लगी कि जिस कागज़ के पन्ने पर वे लिस्ट तैयार कर रही थीं वह कुछ था भी मोटे किस्म का, इसलिए भी नीचे वाले कागज पर प्रिंट नहीं आया होगा।
बहरहाल, यह अभी अभी का किस्सा सिर्फ़ हम सब को याद दिलाने के लिए कि सारी माताएं कितनी सीधी होती हैं, बिल्कुल बच्चों जैसे होती हैं।
मेरी मां के बारे में चंद बातें....... मैं पचास की उम्र पार कर गया हूं लेकिन आज तक उन्होंने कभी भी मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया, यार, हाथ उठाना तो दूर कभी मुझे झिड़का तक नहीं... शायद यही कारण है कि मैं भी अपने बच्चों के साथ कुछ वैसा ही हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता हूं कि मैंने अपने बच्चों पर हाथ नहीं उठाया-- दो एक बार तो मैंने कभी उन की चंपी की ही थी.......लेकिन वे शायद भूल चुके हैं या भूलने का नाटक करते हैं जब कहते हैं कि पापा ने हमें कभी नहीं मारा।
वैसे मेरे पिता जी ने मुझे एक बार थप्पड़ मारा था.....बस केवल एक बार, मैं बार बार उन के सिगरेट के पैकेट को कुर्सी से नीचे गिरा रहा था ...मुझे अच्छे से याद है, पांच-छः वर्ष का रहा होऊंगा।
अच्छा, मां की एक और तारीफ़........मुझे नहीं याद कि स्कूल, कॉलेज और बेरोज़गारी के चंद महीनों के दौरान मैंने अपनी मां से कुछ रूपयों की फरमाईश की हो और उस ने अपनी अलमारी के किसी कोने में पड़े वे पैसे मुझे खुशी खुशी न दिए हों। मेरे पिता जी ने भी मेरी किसी भी फरमाईश को नहीं टाला, कभी भी नहीं। कभी यह भी याद नहीं कि मैं मां के साथ बाज़ार गया होऊं और किसी भी चीज़ के मेरा मन मचल गया हो और मां ने वह तुरंत न दिलाई हो......चाहे वह गन्ने का रस, आईसक्रीम या कोई खिलौना, कुछ भी।
एक बात और, कभी भी कुछ भी कहा वह बात हमेशा मान ली......कभी भी कोई किंतु-परंतु नहीं। अगर कहीं जाने के लिए कह दो, तो ठीक.......कहीं न जाने का बहाना मैं बना दूं तो भी वे बिल्कुल राज़ी। हर बात में हां में हां मिलाने वाली मां...........शायद इस देश की सारी माताएं मेरी मां जैसी ही होती होंगी।
और एक बार, कभी नहीं याद कि कुछ खाने की इच्छा ज़ाहिर की हो, और इस मां ने रात में उठ कर भी वह न बनाया हो। स्कूल जाने से पहले दही-परांठे का नाश्ता उन अंगीठी के दिनों में भी, स्कूल के लिए लंच में परांठे और सब्जी, चार-पांच बजे घर आ कर गर्मागर्म खाना.. ये सब काम हर दिन करना उन की दिनचर्या में शामिल रहा और सब से बड़ी बात हंस हंस कर........अब क्या क्या लिखूं यार।
हर एक की बात में आ जाना........उस दिन मेरा छोटा बेटा अपनी दादी से बात कर रहा था......बीजी, हुन केले दर्जन विच दस ही मिलदे ने। और मुझे यह जान कर इतनी हैरानी हुई कि वे इस बात से हैरान तो हुई लेकिन उन्होंने उस की बात मान ली.........बाद में उसने बता दिया कि वह मजाक कर रहा था। मुझे खोसला का घोंसला फिल्म का वह संवाद बहुत अच्छा लगता है कि बच्चों की बातों में आने की कोई उम्र नहीं होती।
यार, ऐसे तो लिखता ही जाऊंगा....... फिर कभी...........लेकिन एक बात का विचार आ रहा है कि हम अपने मां-बाप से जिस तरह का बर्ताव पाते हैं.......वही शायद हम फिर अपनी ज़िंदगी में अपने संपर्क में आने वाले लोगों में बांटते चले जाते हैं... क्या मैं ठीक कह रहा हूं?
वैसे मेरी मां अपना एक ब्लॉग भी लिखती हैं.......आप यहां इसे देख सकते हैं.....क्या कहूं, क्या न कहूं?
पेशे-खिदमत है सभी मांओं की महानता को समर्पित पंजाब का यह सुपर-टुपर गीत..........उस गायकी की बादशाह कुलदीप मानक की आवाज़ में.........मां हुंदी ए मां ओ करमा वालेयो..........