शनिवार, 26 जनवरी 2008

सुप्रभात..............आज का विचार..26जनवरी,२००८.

--"जब मैं एक आवाज़ को सुनता हूं तो सोचता हूं कि उस की तुलना किस से करूं। फिर सोचता हूं कि अगर सभी पर्वतों से निकलने वाली नदियों के मधुर संगीत, आकाश पर उन्मुक्त हो कर विचर रहे सभी पंक्षियों की चहक, मधुमक्खियों के छज्जों से टपकते हुए शहद की ध्वनि और बागों में सभी रंग बिरंगी तितलियों के मनलुभावन रंगों को मिला दिया जाए और इन सब को चांदनी में गूंथा जाए तो शायद आशा भोंसले की आवाज़ बन जाए।"-----दोस्तो, ये शब्द जावेद अख्तर द्वारा आशा भोंसले के लिए २००२ में ज़ी-सिन अवार्ड्स के दौरान कहे गये थे और मैंने इन्हें अपनी डायरी में लिख लिया था....क्योंकि मैंने ऐसी जबरदस्त तुलना आज तक ही देखी है, ही सुनी है - इसीलिए आज के विचार में आप के लिए पेश कर रहा हूं
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सीखो
फूलों से नित हंसनी सीखो,
भोरों से नित गाना,
फल की लदी डालियों से नित
सीखो शीश झुकाना।

सीख हवा के झोंकों से लो
कोमल कोमल बहना
दूध तथा पानी से सीखो
मेल जोल से रहना।

सूरज की किरणों से सीखो,
जगना और जगाना,
लता और पेड़ों से सीखो,
सब को गले लगाना।

दीपक से सीखो तुम
अंधकार को हरना,
पृथ्वी से सीखो सब की ही ,
सच्ची सेवा करना।।
( दोस्तो, यह प्रेरणात्मक पंक्तियों मुझे उस कागज़ पर बहुत साल पहले दिख गईं थीं जिस में मैं एक रेहड़ी के पास खड़ा हो कर भुनी हुई शकरकंदी का मज़ा लूट रहा था.....यह किसी छोटे बच्चों की किताब का कोई पन्ना था जो मुझे हिला गया).....
दोस्तो, अभी तो कोई शक करने की गुजाइश ही नहीं रह गई कि क्यों कहते हैं कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि।
अच्छा , दोस्तो, गणतंत्र दिवस की ढ़ेरों बधाईआं।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

अब पैरों के तलवों का तापमान देखने के लिए भी थर्मामीटर....


मुंह के अंदर थर्मामीटर रख कर या जांघों के अंदर थर्मामीटर रख कर किसी रोगी के टैम्परेचर का पता करने से तो हम सब लोग परिचित ही हैं, लेकिन आप भी इस पैरों के तलवों का तापमान देखने के लिए निकाले नये थर्मामीटर के बारे में सुन कर हैरान से तो हो ही गये होंगे। कुछ दिन पहले एक मैडीकल न्यूज़ दिखी कि अब शुगर के रोगियों के पैरों को घाव से बचाने आ गया है यह विशेष थर्मामीटर जिस से वे नियमित अपने पैरों के तलवों का तापमान देख सकेंगे। अगर तलवे में किसी भी जगह तापमान बढ़ा हुया पाया जाएगा तो उसे तापमान को कम करने की सलाह दी जायेगी.....यह सब इसलिए कि किसी तरह से डायबिटीज़ के रोगियों को अकसर उन के पांव में होने वाले घाव से बचाया जा सके।
शायद आप को यह मालूम हो कि ...Sometimes diabetics lose the gift of pain…….इस से मतलब यह है कि शुगर के कुछ मरीज़ों में पैर सुन्न हो जाते हैं....पैरों में नंबनैस(numbness) होने की वजह से उन्हें उन में किसी तरह का दर्द महसूस नहीं होता जिस की वजह से उन के पांवों में घाव बनने की संभावना बढ़ जाती है। और होता यह भी है कि शूगर के रोगियों में इस तरह के घाव ठीक होने में काफ़ी समय ले लेते हैं और कईं बार तो इन मामूली से दिखने वाले घावों में इंफैक्शन भी हो जाती है, जो कईं बार इतनी बढ़ जाती है कि पैर का कुछ हिस्सा सर्जरी के द्वारा काटना (amputation) भी पड़ता है, अन्यथा कईं बार गैंगरीन( gangrene) होने से पूरी टांग को ही खतरा हो जाता है और यहां तक कि जान पर भी आन पड़ती है।
अमेरिका में तो एक वर्ष में 80,000 शुगर-रोगियों को अपने पैर के अंगूठे, पैर अथवा टांग के निचले हिस्से की ऐँपूटेशन के आप्रेशन से गुज़रना पड़ता है।
दोस्तो, बात मैंने शुरू की थी, उस थर्मामीटर से जो पैर के तलवों का तापमान जांचा करेगा---चूंकि अब अमेरिका में यह चल निकला है तो यहां पहुंचते भी देर न लगेगी ( Thanks to the wonders of globalization!!)……लेकिन क्या इस देश के बाशिंदे इस थर्मामीटर को खरीदने से पहले कुछ बिल्कुल सीधी-सादी सी दिखने वाली ( लेकिन बेहद महत्वपूर्ण) बातों पर भी प्लीज़ ध्यान देने की ज़हमत उठाएंगे।
तो सुनिए, दोस्तो, डायबीटीज़ एक ऐसी बीमारी है जिसे मैंने अपने आस-पास बहुत बुरी तरह से मैनेज होता देखा है। जैसा कि आप जानते हैं कि इस देश में हम सब की प्राबल्मस कुछ ज्यादा ही कम्पलैक्स हैं...इसलिए किसी तरफ़ भी दोष की उंगली करना इतना आसान नहीं है।
शुगर के मरीज़ महीनों तक बिना ब्लड-शुगर की जांच करवाए दवाई खाते रहते हैं.....कुछ बीच में ही छोड़ देते हैं कि अब उन्हें ठीक लग रहा है. लेकिन बात ठीक लगने की नहीं है न, ठीक तो उन्हें लग रहा होगा, ठीक है, लेकिन वे विभिन्न प्रकार की जांच से चिकित्सक को भी तो ठीक लगने चाहिए। अच्छा, एक बात और कि एलोपैथिक दवा लेते हैं, बीच में आयुर्वैदिक दवा साथ में शुरू कर देते हैं, कुछ समय बाद कुछ पुडियां जो कोई नीम-हकीम थमा देता है वे खानी शुरू कर देते हैं, फिर कोई देसी दवा किसी ने बताई वह खानी शुरू कर दी......दोस्तो, मेरी इन मरीज़ों से पूरी सहानुभूति है....किसी भी बीमारी को भुगत रहा बंदा कोई भी जगह नहीं छोड़ता................लेकिन दोस्तो, ऐसे तो नहीं हो पाएगी शुगर कंट्रोल।
एक बार विशेष और यह भी है कि वे न तो नियमित छःमहीने बाद आंख की जांच ही करवाने जाते हैं , और न ही अपने गुर्दों एवं हृदय की जांच ही नियमित करवाते हैं .....अनियंत्रित शुगर रोग शरीर के इन टारगेट अंगों पर अपनी मार करता रहता है, इसलिए इन की नियमित जांच भी जरूरी है। वैसे तो अब इस तरह के टैस्ट भी मौजूद हैं( glycosated haemoglobin) – ग्लाईकोसेटिड हिमोग्लोबिन इत्यादि) जिन के करवाने से आप के पिछले कुछ महीने के डायबीटीज़ के कंट्रोल की एकदम सही जानकारी फिज़िशियन को मिल जाती है।
एक बात और भी बहुत ज़रूरी है कि किसी अच्छी क्वालीफाईड एवं विश्वसनीय लैब से ही रक्त-जांच करवाया करें ...यह बहुत ज़रूरी है। वैसे तो आजकल हर मोहल्ले की नुक्कड़ पर ये लैब्स खुल गईं हैं, लेकिन ज़रा देख लिया करें।
मेरे ख्याल में शुगर रोगी कोई भी चिकित्सा पद्धति अपनाए, लेकिन परहेज का भी पूरा ध्यान रखे, शारीरिक कसरत करे, प्राणायाम् एवं योग भी जरूरी है, और फिज़िशियन द्वारा नियमित जांच भी जरूरी है, यह सब कुछ करने पर शायद आप की शुगर इतनी कंट्रोल रहने लगे कि आप के चिकित्सक को आप की दवाईंयां या तो कम करनी पड़े या कभी कभी बंद ही करनी पड़ें। लेकिन इस मेँ अपनी मरजी की कोई गुंजाइश है ही नहीं, जो भी हो चिकित्सक की सलाह से।
और हां, अभी वह थर्मामीटर अपने यहां आने तो दीजिए, लेकिन पहले यह बताएं कि क्या आप अपने फिजिशियन द्वारा पैरों पर घाव से बचने के लिए बताई गई सारी सावधानियां बरत रहे हैं......Because they are probably much…much …much more important than keeping that thermometer by your bed-side…..
Good luck, friends !!

सुप्रभात.............आज का विचार


जिस आदमी ने आदमी की बनाई चीज़ें देखीं वह आदमी कठोर हो जायेगा। जिसने परमात्मा की कोमल बनाई चीज़ें देखी वह आदमी भावनाओं की दृष्टि से सभ्य हो जायेगा। .....
...........
रात में क्या जाने
कोई गिनता है कि नहीं गिनता,
आसमान के तारों को यों,
कि कोई रह तो नहीं गया आने से।
प्रभात में क्या जाने कोई
सुनता है कि नहीं सुनता यों
कि रह तो नहीं गया कोई पंछी गाने से
दोपहर को कोई देखता है कि नहीं देखता
वन-भर पर दौड़ा कर आँख
कि पानी सब ने पी लिया कि नहीं।
और शाम को यह
कि जितना जिसे दिया गया था,
उतना सब ने जी लिया है कि नहीं।
I never climbed any ladder. I have achieved eminence by sheer gravitation…………………………..George Bernard Shaw
तो, दोस्तो, अगर हम सोचें तो आज का विचार हमें बहुत कुछ कह रहा है।
“Many people believe that humility is the opposite of pride, when,in fact, it is a point of equilibrium. The opposite of pride is actually a lack of self-esteem. A humble person is totally different from a person who cannot recognize and appreciate himself as part of this worlds marvels.”

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

केवल सौ रूपये - सारे देश में कोई रोमिंग नहीं...., कोई मासिक किराया नहीं......


यह तो अच्छा है अगर कोई ऐसी सर्विस है जिस में कोई मासिक किराया नहीं, कोई रोमिंग चार्ज़ेज़ भी नहीं....और अनगिनत बातें। किसी तरह की कोई फार्मैलिटि भी नहीं है कि यह फार्म भरो, राशन कार्ड की कापी लाओ, यह लाओ , वो लाओ। तो अगर आप भी अगर ऐसा कनैक्शन लेने के इच्छुक हैं तो केवल आप को पड़ोस वाली किसी भी इलैक्ट्रोनिक शाप में जाना होगा और वहां से एक सौ बीस रूपये मे एक एफएम रेडियो का सैट लाना होगा। फिर सुनिए जितनी मरजी मज़ेदार, चटपटी बातें। क्या कहा....केवल बातें सुनना.....हां, हां, वैसे भी हम जब मोबाइल पर बात कर रहे होते हैं , बातें तो दूसरी साइड वाला ही करता है –हमारा तो रोल उस में सिर्फ हूं-हां करने तक ही सीमित होता है, दोस्तो। क्या उस से ज्यादा मौका एफ.एम वाले अपने फोन-इन प्रोग्रामों के दौरान नहीं दे देते।

आज सुबह मैं विविध भारती पर पिटारा प्रोग्राम सुन रहा था। यार, पता नहीं जिस बंदे ने भी इस का नाम पिटारा रखा है, उसे तो किसी राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा जाना चाहिए क्योंकि इस का तो नाम सुनते ही करोड़ों लोगों को अपनी नानी-दादी की पिटारियों की याद आ जाती होगी। और फिर उत्सकुता रहती है कि देखते हैं कि आज पिटारे से क्या निकलता है....जैसे नानी के पिटारे से तरह तरह से चीज़ें निकला करतीं थीं....ठीक उसी तरह निकलती है विविध भारती के पिटारे से मीठी मीठी बातें....जिन के अनुसार कहीं अगर हम ज़िंदगी को ढाल लें तो दुनिया का तो नक्शा ही बदल जाए।

आज सुबह भी जब पिटारा खुला तो मैं उस मेहमान का नाम सुनने से चूक गया...लेकिन क्या कशिश है , दोस्तो, इस प्रोग्राम में कि आदमी बस पूरे प्रोग्राम के दौरान सैट से चिपका सा रहता है। और तो और , टीवी की तरह विज्ञापनों का भी कोई झंझट नहीं।

टीवी में तो पता नहीं किसी संजीदा इंटरवियू के दौरान ब्रेक में भी आप को क्या क्या परोस दें, और आप का बेटा पोगो चैनल पर पहुंच कर वहां से वापिस आना ही न चाहे...तो आप के प्रोग्राम का तो हो गया कचरा दोस्तो। इस लिए मेरे को यकीन मानना टीवी देखना आजकल एंटरटेनमैंट कम और सिरदर्दी ज्यादा लगने लगी है।

अकसर मैं जब भी विविध भारती के प्रोग्राम सुनता हूं न तो साथ साथ यही सोच रहा होता हूं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक मज़दूर से लेकर कोई बड़े से बड़ा उद्योगपति भी वही कार्यक्रम सुन रहा है.....किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं कि कोई ज्यादा पैसे खर्च करेगा तो उसे कुछ और सुना दिया जाएगा। यह सर्विस भी कितनी अद्भुत है। सैल-फोन कंपनियों का दावा अपनी जगह है –देश को जोड़ के रखने का, लेकिन देश के बंदों को एक माला में पिरो रखने का काम क्या आकाशवाणी / विविध भारती के इलावा किसी के वश की बात है.......नहीं,ना,...मैं भी ऐसा ही सोचता हूं।

दोस्तो, आप को यूं ही पता नहीं क्यों यह बता रहा हूं कि आप की तरह ही मेरे पास भी संगीत एवं मनोरंजन के सारे आधुनिक साधन मौजूद है लेकिन उन सब में से केवल मेरे एफएम सैट ही मेरे मन में बसे हुए हैं। मेरे लिए तो मनोरंजन के मायने ही यही हैं कि मैं अपने फुर्सत के क्षणों में रेडियो के प्रोग्रामों का मज़ा लूटूं।

दोस्तो, डोंट वरी, बलोग पोस्ट ज्यादा बड़ी नहीं होने दूंगा, क्योंकि पिछला कुछ अरसा जो आप के साथ बलोगिंग पर बिताया है उस से यही सीख ली है कि पोस्ट छोटी ही होनी चाहिए। तो, मैं आज सुबह के पिटारे की बात कर रहा था...दोस्त, उस में से मेरी बेहद पसंद का राजेश खन्ना एवं मुमताज पर फिल्माया वह गीत भी निकल आया.....जै जै शिव शंकर—कांटा लगे न कंकर...जो प्याला तेरे नाम का पिया ......मेरी तो जैसे लाटरी ही लग गई। विविध भारती वाले जो भी गीत बजाते हैं न बस वे सब अपने ही लगते हैं....कभी आप यह नोटिस करिए कि यह उन की सैलेब्रिटी की ही पसंद नहीं होती, सारे देश की जनता कि कलैक्टिव पसंद भी यही होती है।

विविध भारती के गीत तो भई हमारी ज़िंदगी में पुश बटन का काम करते हैं....अभी अभी अगर हम उन के द्वारा बजाए जा रहे किसी गीत में अपने छुटपन की गलियों में आवारागर्दी कर रहे होते हैं तो चंद मिनटों बाद ही अपने यौवनकाल की मधुर यादों में खो जाने पर मज़बूर हो जाते हैं....... आज भी कुछ ऐसा ही हुया जब पिटारा खुलने के कुछ समय बाद ही रेडियो पर यह गाना बजना शुरू हो गया.................

दिल की बातें...दिल ही जाने,

आंखें छेड़े ....सौ अफसाने.....

नाज़ुक-नाज़ुक...प्यारे प्यारे...वादे हैं ...इरादे हैं...

आ-आ मिल के दामन...दामन से बांध लें।

हां,तो दोस्तो, रूप तेरा मस्ताना फिल्म का यह गीत सुन कर मज़ा आ गया। शायद बहुत ही अरसे बाद इस गीत को सुना था।

अब डाक्टर कितना बताए , कितना छिपाए !


दोस्तो, लगभग बीस साल पहले किसी फिल्म में अपने शम्मी कपूर जी का एक डायलाग मुझे अब तक याद है ...कुछ बातें सच्ची होते हुए भी कहने-सुनने में उतनी अच्छी नहीं होती। डाक्टरों से बेहतर यह बात और कौन इतनी गहराई से समझ सकता है।

दोस्त, पिछले महीने मैं किसी परिचित को मिलने गया---उस व्यक्ति ने पी-पी कर अपना सारा लिवर खत्म कर रखा था---उसे लिवर की सिरोसिस ( Hepatic cirrhosis) था...पेट फूल रहा था, उस में पानी भरा हुया था जिसे ascites कहते हैं, दो-कदम चलने पर सांस फूल रही थी...देखने ही में वो बेचारा बेहद बीमार लग रहा था। कईं बार उसे खून की उल्टी हो चुकी थी। अब दिल्ली के मशहूर हास्पीटल से उस का इलाज चल रहा था....उस के बिस्तर के आस-पास ही दवाईंयों, टानिकों और एक्सरों, डाक्टरी रिपोर्टों एवं नुस्खों का अंबार लगा हुया था। वे बता रहे थे कि कितना महंगा इलाज चल रहा है, और कितने महंगे टीके लग रहे हैं।

उस बंदे के सामने बैठे ही उस की पत्नी ने एक प्रश्न पूछ लिया....डाक्टर साब, पैसे की तो कोई बात नहीं, बस यह ठीक हो जायें.....डाक्टर साहब , आपने सारी रिपोर्टें देखीं हैं, ये ठीक तो हो जाएंगे न ! अब ऐसी शिचुएशन में,दोस्तो, सोचो हम डाक्टरों की हालत कैसी हो जाती है। आप को सब कुछ पता है...लेकिन आप को फिर भी मरीज का, मरीज की बीवी का , उस के मां-बाप का , उस के बच्चों का ( जो आप की तरफ ऐसे देख रहे होते हैं जैसे उन के घर में कोई फरिश्ता ही उतरा आया हो) दिल रखना होता है, उन्हें डोलने नहीं देना होता........कितना बड़ा प्रैशर होता है , दोस्तो, किसी ऐसे सवाल का जवाब देना। पता तो बेचारे अभिभावकों को भी अंदर से सब कुछ होता ही है, लेकिन वे फिर भी शायद कुछ अच्छा सा सुनने की आस लिए बैठते हैं कि शायद.........!

लेकिन डाक्टर भी दोस्तो इस मामले में मंजे खिलाड़ी होते हैं.....अपने फेशियल एक्सप्रेश्नज़ से कभी भी कुछ ज़ाहिर नहीं करते.....और तो और दोस्तो इन soft skills की कोई ट्रेनिंग उसे किसी मैडीकल कालेज में नहीं दी जाती, लेकिन ये लोग ज़िंदगी की किताब पढ़ पढ़ कर अपने मरीज़ों से ही यह सब कुछ सीखते हैं.....शायद अपने को, अपने बच्चों को, अपनी बीवी को, अपनी बहन को, अपने मां-बाप को उस रिश्तेदार के अभिभावकों की जगह खड़ा कर के।

बस, फिर कुछ यूं ही कुछ आत्मबल बढ़ाने वाली बातें शुरू कर देते हैं जिस से मरीज को लगे ही नहीं कि वह बीमार है या जिन बातों से उन सब की आँखें आशाओं की किरणों से चौंधिया जाएं।

शायद मैंने भी उस दिन कुछ ऐसा ही किया....यार, आप सुबह उठ कर बाबा रामदेव के बताए तरीके से प्राणायाम किया करो---यार, इस में बड़ी ताकत है, देखते नहीं हो आप कैसे-कैसे मरीज वहां पर ठीक हो जाते हैं.....और हां, यार, आप आंवले का सेवन जरूर किया करो...यह पेट के लिए बहुत अच्छा है। ऐसी बातें करने से मरीज़ को थोड़ा अच्छा लगने लगता है।

दोस्तो, कईं बार हम डाक्टरों का ध्येय यही होता है कि मरीज को एवं उस के अभिभावकों को अच्छा अच्छा लगता ही रहे.......यकीन जानिए, अंदर से पता उन को भी सब होता है लेकिन वो भी बेचारे क्या करें....उन को भी यही उम्मीद होती है कि काश, हमारे घर में कोई चमत्कार ही हो जाए। और बाकी बातें, समय अपने आप धीरे धीरे खोल देता है।

लेकिन हां, डाक्टरों को यह भी बखूबी पता होता है कि किस मरीज के अभिभावकों को कुछ ज्यादा बताना है....अब किसी गरीब दिहाड़ीदार को कोई बहुत ही असाध्य रोग है तो उस के घरवालों को संभल कर थोड़ा ज्यादा भी बताना होता है ताकि वे ना तो किसी नीम-हकीम के चक्कर ही में पड़े और न ही हज़ारों रूपयों का कर्ज़ अपने सिर पर उठा लें......और बाद में पता चले कि बंदा तो चला गया, और उस की बीमारी पर लिया ऋण चुकाते चुकाते घर के एक-दो बंदे............

बस दोस्तो यहीं विराम लेता हूं......जो भी हो, डाक्टर लोग भी होते मंजे कलाकार ही हैं, क्या दोस्तो, कईं बार होना पड़ता है....किसी बंदे की आशा रूपी पतंग को हवा में लहराते देख कर कैसे उस की पतंग को अपनी अध-कचरी नालेज की सख्त डोर से झटका दे कर काट दूं.......Because miracles do happen !! And as we say sometimes medical science as yet is not complete.......what we understand about this universe is just equal to the size of a tiny sand particle. Then , how do we boost so much about our knowledge.................

Let's never ever forget....

Each day dawns with the bunch of opportunities.

Good morning, Everybody…….सुप्रभात्..............आज का विचार


दोस्तो, एक अंग्रेज़ी की कहावत जिसे मैं बार-बार पढ़ता रहता हूं और हर बार जब उसे पढ़ता हूं तो अपने आत्मबल को बढ़ा हुया पाता हूं ...उसे इस सुप्रभात् के आज के विचार में आप के सामने प्रस्तुत करने में बेहद खुशी हो रही है......पढ़िए, सोचिए और लिख कर अपनी टेबल पर भी रख लीजिए......
What do you first do when you learn to swim?’’ ---You make mistakes, do you not? And what happens? You make other mistakes and when you have made all the mistakes you possibly can without drowning- and some of them many times over—what do you find ? -----That you can swim? ……Well, life is just the same as learning to swim ! Do not be afraid of making mistakes, for there is no other way of learning how to live !!
-Alfred Adler
दोस्तो , क्या यह बात हमें सुबह सुबह हमें कुछ नया, नराला, अद्भुत करने के लिए कमर कसने के लिए नहीं कर रही है। दोस्तो, मैंने तो इसे एकांत में बैठ कर बीसियों बार पढ़ा है और हर बार अपने में ऩईं सोच, नईं शक्ति का संचार होते पाया है.......
अच्छा, तो मित्रो, फिर मिलते हैं।

बुधवार, 23 जनवरी 2008

गन्ने के रस का लुत्फ तो आप भी ज़रूर उठाते होंगे !



मैं जब भी बम्बई में होता हूं न तो दोस्तो वहां पर बार बार गन्ने के रस पीने से कभी नहीं चूकता.. लेकिन अपने यहां पंजाब -हरियाणा में मेरी पिछले कुछ सालों से कभी गन्ने का रस पीने की इच्छा ही नहीं हुई। पिछले कुछ सालों से इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि पहले खराब गन्ने का रस पीने के नुकसानों से वाकिफ न था। वैसे तो मैं बचपन से ही इस का शौकीन रहा हूं - जब भी मां की उंगली पकड़ कर बाज़ार जाता तो आते वक्त मेरा एक गन्ने का गिलास पक्का था।

दोस्तो, 1980 में मुझे पीलिया हो गया तो मेरी मां बहुत दूर से जाकर छःसात गिलास गन्ने का रस ले कर आती थी, क्योंकि उस अमृतसर के दुर्ग्याणा मंदिर के बाहर स्थित गन्ने के रस की दुकान की खासियत ही यह थी कि वह खूब सारा धूप वगैरह जला कर एक भी मक्खी आस पास नहीं फटकने देता था। और पीलिया रोग में तो यह एहतियात और भी कहीं ज्यादा जरूरी थी।
और बचपन में याद है कि हम लोग स्कूल से आते हुए एक ऐसी जगह से यह जूस पीते थे जहां पर बैल की आंखों पर पट्टी बांध कर उसे गोल-गोल दायरे में घुमा कर गन्नों को पीस कर जूस निकाल जाता था, तब किस कमबख्त को इस की फिकर थी कि क्या मिल रहा है। बस यही शुक्र था कि जूस के पीने का आनंद लूट रहे थे। इस के बाद , अगला स्टाप होता था , साथ में बैठी एक छल्ली वाली ....वही जिसे भुट्टा कहते हैं-- उस से पांच-दस पैसे में कोई छल्ली ले कर आपनी यात्रा आगे बढ़ा करती थी।

सारी, फ्रैंडज़, यह जब से ब्लागिरी शुरु की है न , मुझे अपनी सारी पुरानी बातें बहुत याद आने लगी हैं...क्या आप को के साथ भी ऐसा हो रहा है। कमैंटस में जवाब देना, थोड़ी तसल्ली सी हो जाएगी

हां, तो मैं बात कर रहा था कि बम्बई में जाकर वहां पर गन्ने के रस का भरपूर आनंद लूटना चाहता हूं। इस का कारण पता है क्या है ...वहां पर गन्ने के रस के स्टालों पर एकदम परफैक्ट सफाई होती है, उन का सारा ताम-झाम एक दम चमक मार रहा होता है और सब से बड़ी बात तो यह कि उन्होंने सभी गन्नों को सलीके से छील कर अपने यहां रखा होता है ....इसलिए किसी भी गन्ने का ज़मीन को छूने का तो कोई सवाल ही नहीं।
इधर इस एरिया में इतनी मेहनत किसी को करते देखा नहीं, ज्यादा से ज्यादा अगर किसी को कहें तो वह गन्नों को कपड़ों से थोड़ा साफ जरूर कर लेते हैं ,लेकिन जिसे एक बार बम्बई के गन्ने के रस का चस्का लग जाता है तो फिर उसे ऐसी वैसी जगह से यह जूस पसंद नहीं आता। बम्बई ही क्यों , दोस्तो, कुछ समय पहले जब मुझे हैदराबाद जाने का मौका मिला तो वहां पर भी इस गन्ने के रस को कुछ इतनी सी सफाई से परोसा जा रहा था। यह क्या है न दोस्तो कि कुछ कुछ जगहों का कुछ कल्चर ही बन जाता है।

और जगहों का तो मुझे इतना पता नहीं, लेकिन दोस्तो, पंजाब हरियाणा में क्योंकि कुछ जूस वाले सफाई का पूरा ध्यान नहीं रखते इसलिए गर्मी के दिनों में लोकल प्रशासन द्वारा इस की बिक्री पर कुछ समय के लिए रोक ही लगा दी जाती है ...क्योंकि इस प्रकार से निकाला जूस तो बस बीमारियों को खुला बुलावा ही होता है।

तो,आप भी सोच रहे हैं कि इस में कोई हैल्थ-टिप दिख नहीं रही-तो ,दोस्तो, बस आज तो बस इतनी सी ही बात करनी है कि गन्ने का रस पीते समय ज़रा साफ-सफाई का ध्यान कर लिया करें।

वैसे जाते जाते बम्बई वासियों के दिलदारी की एक बात बताता हूं ...कुछ दिन पहले ही चर्चगेट स्टेशनके बाहर हम लोग गन्ने का जूस पी रहे थे कि एक भिखारी उस दुकान पर आया और उसे देखते ही दुकानदार ने उसे गन्ने के रस का एक गिलास थमा दिया.....उसने बीच में पीते हुए दुकानदार से इतना कहने की ज़ुर्रत कैसे कर ली....नींबू भी डाल दो। और दुकानदार ने भी उसी वक्त कह दिया कि सब कुछ डाला हुया है , तू बस साइड में हो कर पी ले। मैं यह समझ नहीं पाया कि क्या उस भिखारी ने नींबू मांग कर ठीक किया कि नहीं.....खैर जो भी , We liked this small noble gesture of that shopkeeper. May he always keep it up !!

गन्ने के रस का लुत्फ तो आप भी ज़रूर उठाते होंगे !




मैं जब भी बम्बई में होता हूं न तो दोस्तो वहां पर बार बार गन्ने के रस पीने से कभी नहीं चूकता.. लेकिन अपने यहां पंजाब -हरियाणा में मेरी पिछले कुछ सालों से कभी गन्ने का रस पीने की इच्छा ही नहीं हुई। पिछले कुछ सालों से इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि पहले खराब गन्ने का रस पीने के नुकसानों से वाकिफ न था। वैसे तो मैं बचपन से ही इस का शौकीन रहा हूं - जब भी मां की उंगली पकड़ कर बाज़ार जाता तो आते वक्त मेरा एक गन्ने का गिलास पक्का था।

दोस्तो, 1980 में मुझे पीलिया हो गया तो मेरी मां बहुत दूर से जाकर छःसात गिलास गन्ने का रस ले कर आती थी, क्योंकि उस अमृतसर के दुर्ग्याणा मंदिर के बाहर स्थित गन्ने के रस की दुकान की खासियत ही यह थी कि वह खूब सारा धूप वगैरह जला कर एक भी मक्खी आस पास नहीं फटकने देता था। और पीलिया रोग में तो यह एहतियात और भी कहीं ज्यादा जरूरी थी।
और बचपन में याद है कि हम लोग स्कूल से आते हुए एक ऐसी जगह से यह जूस पीते थे जहां पर बैल की आंखों पर पट्टी बांध कर उसे गोल-गोल दायरे में घुमा कर गन्नों को पीस कर जूस निकाल जाता था, तब किस कमबख्त को इस की फिकर थी कि क्या मिल रहा है। बस यही शुक्र था कि जूस के पीने का आनंद लूट रहे थे। इस के बाद , अगला स्टाप होता था , साथ में बैठी एक छल्ली वाली ....वही जिसे भुट्टा कहते हैं-- उस से पांच-दस पैसे में कोई छल्ली ले कर आपनी यात्रा आगे बढ़ा करती थी।

सारी, फ्रैंडज़, यह जब से ब्लागिरी शुरु की है न , मुझे अपनी सारी पुरानी बातें बहुत याद आने लगी हैं...क्या आप को के साथ भी ऐसा हो रहा है। कमैंटस में जवाब देना, थोड़ी तसल्ली सी हो जाएगी

हां, तो मैं बात कर रहा था कि बम्बई में जाकर वहां पर गन्ने के रस का भरपूर आनंद लूटना चाहता हूं। इस का कारण पता है क्या है ...वहां पर गन्ने के रस के स्टालों पर एकदम परफैक्ट सफाई होती है, उन का सारा ताम-झाम एक दम चमक मार रहा होता है और सब से बड़ी बात तो यह कि उन्होंने सभी गन्नों को सलीके से छील कर अपने यहां रखा होता है ....इसलिए किसी भी गन्ने का ज़मीन को छूने का तो कोई सवाल ही नहीं।
इधर इस एरिया में इतनी मेहनत किसी को करते देखा नहीं, ज्यादा से ज्यादा अगर किसी को कहें तो वह गन्नों को कपड़ों से थोड़ा साफ जरूर कर लेते हैं ,लेकिन जिसे एक बार बम्बई के गन्ने के रस का चस्का लग जाता है तो फिर उसे ऐसी वैसी जगह से यह जूस पसंद नहीं आता। बम्बई ही क्यों , दोस्तो, कुछ समय पहले जब मुझे हैदराबाद जाने का मौका मिला तो वहां पर भी इस गन्ने के रस को कुछ इतनी सी सफाई से परोसा जा रहा था। यह क्या है न दोस्तो कि कुछ कुछ जगहों का कुछ कल्चर ही बन जाता है।

और जगहों का तो मुझे इतना पता नहीं, लेकिन दोस्तो, पंजाब हरियाणा में क्योंकि कुछ जूस वाले सफाई का पूरा ध्यान नहीं रखते इसलिए गर्मी के दिनों में लोकल प्रशासन द्वारा इस की बिक्री पर कुछ समय के लिए रोक ही लगा दी जाती है ...क्योंकि इस प्रकार से निकाला जूस तो बस बीमारियों को खुला बुलावा ही होता है।

तो,आप भी सोच रहे हैं कि इस में कोई हैल्थ-टिप दिख नहीं रही-तो ,दोस्तो, बस आज तो बस इतनी सी ही बात करनी है कि गन्ने का रस पीते समय ज़रा साफ-सफाई का ध्यान कर लिया करें।

वैसे जाते जाते बम्बई वासियों के दिलदारी की एक बात बताता हूं ...कुछ दिन पहले ही चर्चगेट स्टेशनके बाहर हम लोग गन्ने का जूस पी रहे थे कि एक भिखारी उस दुकान पर आया और उसे देखते ही दुकानदार ने उसे गन्ने के रस का एक गिलास थमा दिया.....उसने बीच में पीते हुए दुकानदार से इतना कहने की ज़ुर्रत कैसे कर ली....नींबू भी डाल दो। और दुकानदार ने भी उसी वक्त कह दिया कि सब कुछ डाला हुया है , तू बस साइड में हो कर पी ले। मैं यह समझ नहीं पाया कि क्या उस भिखारी ने नींबू मांग कर ठीक किया कि नहीं.....खैर जो भी , We liked this small noble gesture of that shopkeeper. May he always keep it up !!

4 comments:

Let The World Wait said...

Dr. Saab,
im really impressed with u.
and u just keep writting..
and providing such a impt. informations too.
My self..Amit Sharma
From Kuwait
amteeshr@gmail.com

Gyandutt Pandey said...

डाक्टर साहब; ये कुवैत से लिखने वाले सज्जन बिल्कुल सही कह रहे हैं। और यह बहुत अच्छा है कि आप जानदार पोस्ट लिख रहे हैं - डाक्टरी प्रेस्क्रिप्शन नहीं घसीट रहे।
बहुत बहुत साधुवाद - एक ध्येय पूर्ण ब्लॉगिंग के लिये।

अनुनाद सिंह said...

हिन्दीभाषा में स्वास्थ्य-साक्षरता को बढ़ावा देने वाली जानकारी का बहुत अभाव है। आपको हिन्दी-ब्लागजगत में पाकर बहुत सन्तोष हो रहा है। ऐसे ही स्वास्थ्य के लिये महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी लेखनी चलाते रहें; हिन्दी और हिन्दी-जगत का बहुत भला होगा। स्वास्थ्य साक्षरता और रोग-शिक्षा (पैशेंट एडुकेशन) का किसी भी समाज को निरोग रखने में बहुत महत्व है। आशा है आपका ब्लाग इस दिशा में पहल करके समाज का हित साधने के साथ ही यश का भाक़्गी होगा।

PD said...

अजी हम तो यही कहेंगे की हम ब्लौग तो इसीलिये शुरू किये थे क्योंकि मैं अपनी यादों को सजोना चाहता था.. उसे दुनिया तक पहूंचाना चाहता था.. :)

Good Morning, India...............सुप्रभात !!


यह भी क्या, दोस्तो, सुबह सुबह उठ कर लग गए इस बलागिंग के चक्कर मे, किसी से राम-रहीम नहीं, दुया-सलाम नहीं.....यार, सारा दिन अपने पास पढ़ा है, थोड़ा ताज़ी ताज़ी सुबह का आनंद भी तो लें...........
जागती आंखों से भी देखो दुनिया को,
ख्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं।
पिछले लगभग 15वर्षों से ओशो-टाइम्स पढ़ता हूं ---पढ़ता क्या हूं....उस में लिखी बातें पढ़ कर इतना आनंद मिलता है कि अपनी स्लेट पर उस में से ही लिए कुछ वाक्य लिख रहा हूं.........
You be true to yourself. Never try to be anybody else. That is the only sin I call sin. Accept yourself! Whatever you are , you are beautiful. Existence accepts you; you also accept yourself.
Comparison : A great Disease.
We are all unique, so it is pointless to compare ourselves to others.
Comparison is a disease, one of the greatest diseases. And we are taught from the very beginning to compare, Your parents start comparing you with other children.
From the very beginning you are being told to compare yourself with others. This is the greatest disease; it is like a cancer that goes on destroying your very soul—because each individual is unique, and comparison is not possible.
I am just myself and you are just yourself. There is nobody else in the world you can be compared with.
Do you compare a marigold with a roseflower? Do you compare a mango with an apple? You don’t compare. You know they are different; comparison is not possible.
Man in not a species, because each man is unique. There has never been any individual like you before and there will never be again. You are utterly unique. This is your privilege, your prerogative, your unique-ness. Comparison will bring trouble.
If you fall victim to this disease of comparison, naturally you will either become very egoistic or you will become very bitter; it depends on whom you compare yourself with.
If you compare yourself with those who seem to be bigger than you, higher than you, greater than you, you will become bitter. You will become angry : “ why am I not greater than I am? Why am I not physically so beautiful, so strong? Why am I not so intelligent? Why am I not this, not that?” Your life will become poisoned by the comparison. You will remain always in a state of depression, as if existence has deceived you , betrayed you, as if you have been let down.
Or if you compare yourself with people who are smaller than you, in some way lesser than you, then you will become very egoistic…
……………………………………………..
Ok friends, good morning.
सुप्रभात........आज की यह नई सुबह आप की ज़िंदगी में बहारें ले आये।

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

थोड़ी थोड़ी पिया करो...?


तंग आ गया हूं, दोस्तो, मैं मरीजों की इस बात का जवाब दे देकर जब वे यह कहते हैं कि यह बात तो आजकल आप डाक्टर लोग ही कहते हो कि थोड़ी थोड़ी पीने में कोई खराबी नहीं है। इस का जो जवाब मैं उन्हें देता हूं—उस पर तो मैं बाद में आता हूं, पहले ब्रिटेन में हुई एक स्टडी के बारे में आप को बताना चाहूंगा।

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रिसर्चकर्त्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि जिन लोगों की जीवन-शैली में चार स्वस्थ आदतें शामिल हैं----धूम्रपान न करना, शीरीरिक कसरत करना, थोड़ी-थोड़ी दारू पीना,और दिन में पांच बार किसी फल अथवा सब्जी का सेवन करना ---- ये लोग उऩ लोगों की बजाय 14वर्ष ज्यादा जीतें हैं जिन लोगों में इन चारों में से कोई एक बिहेव्यिर भी नहीं होता। इस रिसर्च को 45 से 79 वर्ष के बीस हज़ार पुरूषों एवं औरतों पर किया गया।

यह तो हुई इस रिसर्च की बात....अब आती है मेरी बात...अर्थात् बाल की खाल उतारने की बारी। एक बार ऐसा अध्ययन लोगों की नज़र में आ गया ,तो बस वे समझते हैं कि उन्हें तो मिल गया है एक परमिट पूरी मैडीकल कम्यूनिटी की तरफ से कि पियो, पियो, डोंट वरी, पियो ...अगर जीना है तो पियो......बस कुछ कुछ ठीक उस गाने की तरह ही ....पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए।

अब मेरी व्यक्तिगत राय सुनिए। जब कोई मरीज मेरे से ऐसी बात पूछता है तो मैं उस से पूछता हूं कि पहले तो यह बताओ कि तुम्हारा स्टैंडर्ड आफ लिविंग उन विदेशियों जैसा है.... जिस तरह का जीवन वे लोग जी रहे हैं....क्या आपने तंबाकू का सेवन छोड़ दिया है, रिसर्च ने तो कह दिया धूम्रपान...लेकिन हमें तो चबाने वाले एवं मुंह में रखे जाने तंबाकू से भी उतना ही डरना है। दूसरी बात है शारीरिक कसरत की ---तो क्या वह करते हो। अकसर जवाब मिलता है ...क्या करें, इच्छा तो होती है, लेकिन टाइम ही नहीं मिलता। आगे पूछता हूं कि दिन में पांच बार कोई फल अथवा सब्जी लेते हो.....उस का जवाब मिलता है कि अब इस महंगाई में यह फ्रूट वूट रोज़ाना कहां से ले पाते हैं, दाल रोटी चल जाए – तब भी गनीमत जानिए। तो, फिर मेरी बारी होती है बोलने की ---जब पहली तीन शर्तें तो पूरी की नहीं, और जो सब से आसान बात लगी जिस से अपनी बीसियों साल पुरानी आदत पर एक पर्दा डालने का बहाना मिल रहा है, वह अपनाने में आप को बड़ी सुविधा महसूस हो रही है।

इसलिए मैं तो व्यक्तिगत तौर पर भी ऐसी किसी भी स्टेटमैंट का घोर विरोधी हूं जिस में थोड़ी-थोडी़ पीने की बात कही जाती है। इस के कारणों की चर्चा थोडी़ विस्तार से करते हैं। दोस्तो, हम ने न तो खाने में परहेज किया...घी, तेल दबा के खाए जा रहे हैं, ट्रांस-फैट्स से लैस जंक फूड्स में हमारी रूचि दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उस के ऊपर यह दारू को भी अपने जीवन में शामिल कर लेंगे तो क्या हम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का काम नहीं करेंगे। शत-प्रतिशत करेंगे, क्यों नहीं करेंगे !

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सेहत को ठीक रखने के लिए आखिर दारू का क्या काम है....This is just an escape route…... अब अगर हम यह कहें कि मन को थोड़ा रिलैक्स करने के लिए 1-2 छोटे छोटे पैग मारने में क्या हर्ज है, यह तो बात बिलकुल अनुचित जान पड़ती है, वो वैस्टर्न वर्ड तो इस तनाव को दूर भगाने के लिए अपने यहां की ओरियंटल बातों जैसे कि योग, मैडीटेशन को अपना रहा है और हम वही उन के घिसे-पिटे रास्ते पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

एक बात और भी है न कि अगर छोटे-छोटे पैग मारने की किसी डाक्टर ने सलाह दे भी दी, तो क्या गारंटी है कि वे छोटे पैग पटियाला पैग में नहीं बदलेंगे। क्योंकि मुझे पता है न कि हमारे लोग इस सुरा के मामले में इतने मैच्योर नहीं है। यह जानना भी बेहद जरूरी है कि अच्छी क्वालिटी की शराब कुछ कम खराब असर करती है और वह भी तब जब साथ में खाने का पूरा ध्यान रखा जाए..यानि प्रोटीन का भी पीने वालों की डाइट में पूरा समावेश हो। अमीर देशों में तो वे ड्राइ-फ्रूट को भी पीते समय साथ रखते हैं............लेकिन हमारे अधिकांश लोग न तो ढंग की दारू ही खरीदने में समर्थ हैं, न ही कुछ ढंग का खाने को ही रखते हैं.....अब कटे हुए प्याज को आम के आचार के साथ चाटते हुए जो बंदा दारू पी रहा है, वह अपना लिवर ही जला रहा है, और क्या ! इस का अभिप्रायः कृपया यह मत लीजिए कि महंगी शराब जिसे काजू के साथ खाया जाए उस की कोई बात नहीं ----बात है, दोस्तो, बिल्कुल बात है। नुकसान तो वह भी करती ही है -----There is absolutely no doubt about that.

एक बात और भी है न कि जब आदमी शराब पीनी शुरू करता है न, तो पहले तो वह उस को पीता है, बाद में मैंने तो अपनी प्रैक्टिस में यही देखा है कि उस की ज़रूरत बढ़ती ही जाती है......जैसे लोग कहते हैं न कि फिर शराब बंदे को पीना शुरू कर देती है,और धीरे धीरे उस को पूरा चट कर जाती है।

क्या मैं नहीं पीता ?---आप की उत्सुकता भी शांत किए देता हूं। दोस्तो, मैं गीता के ऊपर हाथ रख कर सौगंध खा कर कहता हूं कि दारू तो दूर मैंने आज तक बीयर को भी नहीं चखा। इस के लिए मैं ज्यादातर श्रेय गौरमिंट मैडीकल कालेज , अमृतसर की पैथालोजी विभाग की अपनी प्रोफैसर मिसिज वडेरा को देता हूं जिस ने 18-19 साल की उम्र में हमें अल्कोहल के हमारे शरीर पर विशेषकर लिवर पर होने वाले खतरनाक प्रभावों को इतने बेहतरीन ढंग से पढ़ाया कि मैंने मन ही मन कसम खा ली कि कुछ भी हो, इस ज़हर को कभी नहीं छूना। सोचता हूं कि यार, ये टीचर लोग भी क्या ग्रेट चीज़ होते हैं न, क्यों कुछ टीचर्ज़ की बातों में इतनी कशिश होती है, इतना मर्म होता है कि उन की एक एक बात मन में घर जाती है..................क्योंकि वे सब अपना काम दिल से, शत-प्रतिशत समर्पण भाव से कर रहे होते हैं। आप इस के बारे में क्या कहते हैं, दोस्तो, कमैंट्स में लिखना।

सो, Lesson of the story is…….Please, please, please…..please stay away from alcohol…………..यह हमारी सीधी सादी मासूम ज़िंदगी में केवल ज़हर घोलती है। क्या हमारे आसपास वैसे ही तरह तरह का ज़हर कम फैला हुया है कि ऊपर से हमें इस के लेने की भी ज़रूरत महसूस हो रही है।

अच्छा, तो दोस्तो, अब उंगलियों को विराम दे रहा हूं क्योंकि खाने का समय हो गया है।

22.1.08 (9pm)

सोमवार, 21 जनवरी 2008

अपने सारे स्क्रैप्स की गठड़ी इधर ही उतार कर थोडा़ हल्का हो लूं??


इस में आप को कोई आपत्ति तो नहीं होगी !! दोस्तो, पिछले लगभग 10-12 सालों से मीडिया की जिन बातों ने भी मुझे छुया, कुछ सोचने को मजबूर किया, किसी दीवार पर लिखी बात ने हंसाया, किसी ट्रक के पीछे लिखी किसी बात ने अपनी तरफ ध्यान खींचा, किसी करैंसी नोट पर किसी प्रेमी का अपनी प्रेमिका के लिए लिखे संदेश, मेरे किसी मरीज द्वारा बोली गई किसी पते की बात, किसी समाचार-पत्र में छपी किसी तस्वीर ने जब हिला दिया, किसी ट्रेन में यात्रियों की आपसी बातचीत, किसी प्लेटफार्म पर कोई रोचक सी घटना....कोई खास किस्म का संस्मरण, कोई ऐसी फोटो जो जब भी दिखती है तो हंसाती है, मेरे पिता जी द्वारा मुझे 10-12 साल पहले लिखी चिट्ठीयां, कुछ प्रेरणात्मक कहावतें जो किसी पत्रिका अथवा पत्र से नकल कर के रख लीं या उन की कतरन ही रख ली कि कभी इस्तेमाल करूंगा....किसी समाचार-पत्र में छपे किसी कार्टून ने जब बहुत हंसाया, किसी व्यंग्य लेख ने जब सारे घर वालों को खूब हंसाया, किसी घटना ने जब कुछ ज्यादा ही छू लिया, किसी की बात ने जब मेरा मन दुखाया, किसी का मन जब मैंने दुखाया, किसी ने जब मेरे साथ बदतमीजी की या मैंने जब किसी के साथ ठीक व्यवहार न किया, जो बातें मन को कहीं न कहीं कचोट रही हैं, जो बातें अंदर ही अंदर दबी हुई हैं, जो निकलना चाहती हैं लेकिन या तो गले के भीतर ही अटक कर रह जाती हैं या जुबान पर आकर उस पर ताला सा लग जाता है---खुद मैं ही इसे लगाने वाला हूं..किसे से क्या गिला-शिकवा—सब कुछ जो हमारे साथ घट रहा होता है, उस के लिए हम खुद ही तो जिम्मेदार होते हैं,और क्या, ...जिस किसी फिल्म ने मुझे हिला दिया, जो फिल्मी गीत मुझे झकझोर देते हैं.........अपने पिता जी के हाथों से लिखे कुछ कागज.........अपनी पांचवी कक्षा की मैरिट स्कालरशिप की फोटो, स्कूल के दिनों में स्कूल की पत्रिका में छपे लेख, .......अरे यार, मैं इतना लिखता जाऊंगा न तो बस शाम ऐसे ही हो जाएगी। तो, सीधी बात पर आता हूं कि इन सब बातों की मेरे पास एक कलैक्शन है.....पता नहीं और भी क्या क्या कचरा मैंने अपने स्टडी-रूम में रख छोड़ा है.....एक स्क्रैप बुक भी है जिस में इन के बारे में लिख छोड़ा है, लेकिन अब सोचता हूं कि इन सब से निजात पा ही लूं....क्योंकि इन सब के रहते मेरा स्टडी रूम पढ़ने वाला कमरा कम और कोई कबाड़खाना ज्यादा लगने लग गया है....ओह, माई गुडनैस, इतना कबाड़ कि मेरी ही वहां जाने की इच्छा नहीं होती , तो सोच रहा हूं कि इस सारे स्क्रैप को क्यों न इस आन-लाइन डायरी में ही डाल कर फारिग हो लूं.....तो ठीक है, दोस्तो, आज से इस काम में भी लग रहा हूं। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं अपने स्टडी-रूम को पेपर-लैस करने में सफल हो सकूं। हां, तो दोस्तो, इस डायरी में लिखे स्क्रैप्स के लिए भाषा की कोई शर्त नहीं होगी, कुछ कुछ चीज़े आप को अंग्रेज़ी में दिखेंगी, कुछ पंजाबी में भी दिख सकती हैं जिसे मैं लिख तो देवनागरी स्क्रिप्ट में ही दूंगा......बस, और क्या?-----लेकिन मेरी गारंटी यही है कि आप को बोर नहीं होने दूंगा। हां, तो दोस्तो मैं कह रहा था न कि इस में कुछ कुछ वाक्य कईं बार यहां वहां से चुराए हुए भी होंगे, इसलिए बार बार उस सोत्र का नाम लेना मुझे याद रहे न रहे...चलिए, इस सत्य के व्रत को शुरू करने से पहले यह काम कर लूं कि उन सब महान आत्माओं के चरण-कमलों को भी याद कर लूं जिन के शब्दों के सहारों ने मुझे तूफानों में भी थाम कर रखा। एक बात और, मेरी किसी भी ब्लोग पर किसी भी लेख को आप भी अपना ही समझिए....जहां मन करे वहां बांटिए.....और मजे की बात तो यही है कि इस काम में मुझे किसी तरह के क्रेडिट की भी कोई तमन्ना नहीं है।

तो , फिर आज से ही शुरूआत करते हैं.........

मेरे सामने एक इंगलिश के पेपर की छोटी सी कतरन पड़ी हुई है ....लिखा हुया है गाजियाबाद, जून 28...अब पता नहीं साल कौन सा है, पर दोस्तो, आप ने क्या लेना है साल है, गोली मारो साल को, क्योंकि वह खबर तो मुझे कल-परसों ही खबर मालूम पड़ रही है.......

“ Youth thrown out of running train”

Ghaziabad..June 28……A-28-year old youth was thrown out of a running train, following a brawl near the Baraut railway station while his fellow passengers remained mute spectators. Brij Kishore was thrown out of Delhi-Sharanpur Passenger by some unidentified men last evening when he tried to stop them from pulling the chain, police said. None of the passengers came forward to help Kishore, who lost both his legs and was rushed to Delhi in a critical condition, they said. ----------- PTI

और लीजिए , इस के साथ ही मैंने इस कतरन को फाड़ कर अपनी वेस्ट-पेपर बास्कट में डाल दिया। काश, मेरी इस रस्म-अदायिगी के साथ साथ अब इस तरह के किस्से होने ही तो बंद हो जाएं...ताकि मुझे फिर कभी इस तरह कतरनें की संभालने की ज़रूरत ही न पड़े, दोस्तो। हल्ला-बोल फिल्म वालो आपने भी यह खबर पढ़ी थी क्या ??

दोस्तो, जाते जाते मेरी टेबल के सामने बोर्ड पर लगा एक शेयर और मेरे सामने टंगी एक सुंदर सी सीनरी मुझे आप तक कुछ पहुंचाने के लिए उकसा रही है, तो सुनिए.....

माना कि परिंदों के पर हुया करते हैं,

ख्वाबों में उड़ना कोई गुनाह तो नहीं।।।।।

HAVE A NICE DAY !!

This morning is going to be great.

Greet with smile.

This afternoon will be the finest one.

Share with everyone.

This evening will be the prettiest time.

Enjoy with friends.

Today is a day with flowers and smiles .

Have fun and cheer !!

जब मेरे ही हास्पीटल में काम करने वाले किसी स्वास्थयकर्त्ता ने ऊपर लिखी परिंदों वाली बात की एक बार तारीफ करते हुए मुझे कहा कि इसे बार-बार पढ़ना मुझे अच्छा लगता है, मैं आज इसे लिख ही लेता हूं, तो मुझे एक बार फिर से आभास हुया कि शब्दों में कितनी ताकत है...ये हमें कहां से कहां पहुंचा देते हैं। आज सुबह ही अपने ही एक बलोगर बंधु मिहिर भोज की एक पोस्ट पढ़ी, यकीन मानिए मजा आ गया और शब्द रूपी हाथों से ही उन की पीठ थपथपा दी।

अच्छा , दोस्त, आज के लिए बस इतना ही सही....कहीं आप यह ही न सोचने लगें कि यार आज तो इस ने डायरी में स्क्रैप डालना शुरू ही किया है, अगर इतनी इतनी लंबी हांकने लगेगा तो आफत हो जाएगी।

इसलिए दोस्तो, अब विराम कर के डायरी बंद करता हूं और बलोग पोस्ट का पब्लिश बटन दबाता हूं।

आसमान से गिरे खजूर में अटके वाली बात याद दिलाती यह सिगरेट छुड़वाने वाली टेबलेट !


धूम्रपान से निजात पाने के लिए एक करामाती दवा आज कल अमेरिका, ब्रिटेन एवआस्ट्रेलिया में चल रही है। धूम्रपान विऱोधी खेमे में एक क्रांति सी ला देने वाली इस टेबलेट को अमेरिका एवं ब्रिटेन में 62 से ज्यादा मृत्यु के केसों के साथ जोड़ा गया है और मन में आत्महत्या जैसे विचारों एवं डिप्रेशन( अवसाद) के हज़ारों केसों में इसे ही जिम्मेदार ठहराया गया है।
यह टेबलेट मस्तिष्क में निकोटीन रिसेप्टरस को ही ब्लाक कर देती है ( This revolutionary pill blocks nicotine receptors in the brain) और पिछले एक साल में हज़ारों मरीज़ों में इस के दुष्परिणाम पाने जाने के बावजूद धूम्रपान विरोधी संगठन इस का समर्थन कर रहे हैं।
यह टेबलेट 26 देशों में बिक रही है। अमेरिका में 450 लाख लोग धूम्रपान करते हैं और इन में से प्रत्येक वर्ष 70फीसदी लोग धूम्रपान छोड़ना चाहते हैं । हर सिगरेट पीने वाला जब इसे छोड़ना चाहता है तो यह काम अपने ही ढंग से करता है और औसतन 8 से 11 बार इसे छोड़ने की कोशिश करता है।
इस टेबलेट को बनाने वाली कंपनी को अब इस के संभावित साइड-इफैक्टस के बारे में चेतावनी को और भी अच्छे से , पैकिंग की और भी प्रोमिनैंट जगह पर लगाने का निर्णय लेना पड़ा है।
चलो, अच्छा है वहां पर विभिन्न नियंत्रणों के रहते कंपनी को यह तो फैसला तो करना पड़ा----हमारे यहां जैसे थोड़ी ही बात है जहां पर तंबाकू उत्पादों पर ही वैधानिक चेतावनी कुछ इस तरह से दी गई होती है कि बस वे वैधानिक फार्मैलिटि ही पूरी करती दिखती हैं, बाकी कुछ नहीं....भाषा भी ज्यादातर अंग्रेजी जो देश की अधिकांश जनता न पढ़ सकती है, न समझ ही सकती है। और तो और वैधानिक चेतावनी भी कुछ इस तरह से लिखी गई होती है कि उसे कोई अगर मुश्किल से देख भी ले तो पढ़ न पाए। तंबाकू युक्त पान-मसालों एवं ज़र्दा का भी यही हाल है। बाकी सारी बात हिंदी में, लेकिन चेतावनी अकसर अंग्रेज़ी ही में होती है।
यह क्या आप किस सोच में पड़ गए........देखिए, किसी दूसरे के तजुर्बे से भी हम अगर कुछ सीख ले लेते हैं तो बहुत अच्छा है। अब तो छोड़ दो, दोस्तो, इस स्मोकिंग को न छोड़ने के बहाने---किसी टेबलेट की इंतजार न करें.....अगर अमेरिका के ठुकरा दिए जाने के बाद वह हमारे यहां आ भी जाएगी तो क्या है......आप उस के खतरनाक परिणाम अभी से ही जान चुके हो।
तो, क्या करें ?----अभी भी मेरे कुछ कहने को कुछ बचा है क्या----तो, फैंक दीजिए उस कैंसर स्टिक को जो आप हाथ में थामे हुए हैं.......Truly speaking, friends, this is very much a cancer-stick !!..इतने साल हो गए प्रोफैशन में.....लेकिन कितने लोगों ने नशा-विरोधी केंद्रों की मदद से इस लत को लात मारी होगी.....कुछ न ही कहूं तो ठीक है, आप सब भी सारी बात जानते हैं। कितने लोगों ने उस निकोटीन च्यूईँग गम को चबाने से इस आदत से निजात पाई होगी, अब क्या कहूं.......बार-बार मेरा मुंह मत खुलवाओ, दोस्तो, आप सब इन बातों के बारे में जानते हैं।
तो , तंबाकू किस को छोड़ते देखा है------केवल उन मन के मजबूत बंदों को जिन को दिल से इस शैतान से नफरत हो जाती है, और वे अचानक एक दिन ठोस फैसला कर लेते हैं कि अब नहीं.......आप अगर सिगरेट पीते हैं तो आप भी क्यों नहीं ऐसा ही करते ....एक झटके में छोड़ दीजिए......यकीन मानिए कुछ नहीं होगा.....अमेरिका वालों के पास अगर चमत्कारी गोली है , तो अपने यहां भी उस से हज़ारों गुणा ज्यादा चमत्कारी योग है, प्राणायाम है, जो आपकी इस शुभ काम में मदद कर सकता है, लेकिन आप एक बार मन बनाएं तो। हां, कुछ लोगों को इस आदत को छोड़ने पर कुछ दिनों के लिए बदन-दर्द, थोडा़ बुखार सा हो सकता है लेकिन उस के लिए तो छोटी-मोटी गोलियां हैं न, और आप का फैमिली डाक्टर है। अब , इतना तो सहना ही पड़ेगा ---अब अगर किसी ने चाय ही छोड़नी है तो उसे यह सब कुछ दिन सहना ही पड़ता है , और आप की तो इस कैंसर स्टिक छोड़ने से दुनिया ही बदल जाने वाली है।
जाते जाते एक बात, अगर कोई बंधु इस तंबाकू की लत की वजह से कोई भयंकर रोग लग जाने पर डाक्टर के कहने पर इस आदत को मजबूरी में बाय-बाय कहता है,तो मेरे विचार में यह कोई बहादुरी नहीं—
सब कुछ लुटा कर होश में आए तो क्या हुया.......................
Please stay away from smoking and people who are smoking…..because second-hand smoke is also very bad for our health. There was a news that some country has banned smoking in cars……….काश, इस देश की बसों में बीड़ी फूंकनी भी लोग बंद कर दें....इस से वे दूसरे लोगों की सेहत को भी कितना नुकसान पहुंचाते हैं, इस बात को हम क्यों नहीं लेते इतना सीरियस्ली ?

रविवार, 20 जनवरी 2008

मरीज़ से ढंग से बात करने की बात...............


अकसर हम सुनते ही हैं न कि यार, उस फलां फलां की बीमारी में तो बड़े से बड़े डाक्टरों ने जवाब दे दिया, लेकिन साथ वाले गांव के हकीम ने उस का मर्ज पकड़ लिया...अब वह भला-चंगा घूम फिर रहा है। दोस्तो, ऐसी बातें क्या हम डाक्टरों को अपने अंदर झांकने के लिए थोड़ा मजबूर नहीं करतीं....करती है न, तो फिर मुझे भी कुछ दिन से कुछ इस तरह के ही विचार आ रहे थे....आज छुट्टी का दिन है, सोचो आप के सामने रख ही दूं। दोस्तो, यह मेरा एक बहुत ही पक्का व्यक्तिगत ( अब देखिए किसी तरह की कंट्रोवरसी से बचने के लिए मैंने इस व्यक्तिगत शब्द की भी ढाल पकड़ ली है, वैसे अभी बात शुरू भी नहीं की है, लेकिन उसे पहले ही से थाम लिया है) .....विश्वास यही है कि इस सुपर-स्पैशियलाइज़ेशन के जमाने में डाक्टर और मरीज़ के बीच की खाई बढ़ सी गई है....कोई होलिस्टिक कंसैप्ट लुप्त होता ही दिख रहा है...बस मरीज़ अपनी आंख की नस के चैक-अप के लिए किसी के पास जा रहा है, नाक के लिए किसी दूसरे के पास और कान के अंदरूनी भाग के आप्रेशन के लिए किसी तीसरे के पास.....इस के फायदे तो खैर हैं ही कि अलग अलग तरह के विशेषज्ञ मौजूद हैं और बीमारियों के ऊपर काफी हद तक विजय पा ली गई है, लेकिन क्या हम मरीज का दिल जीत पाने में कामयाब हुए हैं.......यह जवाब तो आप ही दे सकते हैं, दोस्तो, मैं खुद कुछ कहता ठीक नहीं लगता। डाक्टर मरीज का इंटरएक्शन इस बढ़ती स्पैश्लाइज़ेशन की वजह से कम से और कम होता जा रहा है। वो दोस्त, गाइड वाली बातशायद कुछ कुछ किताबी सी होकर ही रह गई है। जब कभी भी चिकित्सा क्षेत्र की अपने ही लोगों के बीच बात छिड़ती है तो अकसर यही सुनने को मिलता है कि दूसरे क्षेत्रों में देखो वहां क्या हो रहा है.....इन मास्टरों को देखो, वकीलों को देखो..........बस, बात फिर लंबी ही खिंच जाती है......लेकिन दोस्तो बात वही है कि क्या कोई और भी प्रोफैशन है जिस में कोई बंदा किसी प्रोफैशनल पर इतना बड़ा भरोसा कर लेता है कि उस के आगे अपना जीवन ही समर्पित कर देता है....नहीं, नहीं, डाक्टरी के इलावा शायद कोई ऐसा पेशा नहीं है।

यह क्या,यार, आज तो भूमिका ही इतनी बड़ी हो गई है, कि जो बात कहना चाह रहा हूं वह तो पहले कह लूं। तो दोस्तो, मेरी बात ज़रा ध्यान से सुनिएगा।

दोस्तो, एक उदाहरण ले रहा हूं। जब मेरे पास कोई बिलकुल कमज़ोर सी, जिसकी आंखें और गाल बिल्कुल अंदर धंसी हुई हैं, जिस ने एक नंगा-धडंगा रोता हुया 2-3 महीने का बच्चा उठा रखा है....ऐसी औरत आती है तो मेरे अंदर एक साथ बीसियों सवाल उठ जाते हैं जिन के जवाबों से डरते-डरते, भागते हुए मैं उस का इलाज करता हूं, कुछ सवाल जो मुझे हमेशा चिढ़ाते हैं, वे ये हैं......

क्या मैं इस की हालत तुरंत बदल सकता हूं.....नहीं

क्या मैं इस के पति की आमदनी बढ़ा सकता हूं.....नहीं

क्या मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूं कि इसे रोज़ पौष्टिक खाना मिले जिस में कम से कम थोड़ा दूध, सब्जी तरकारी और कोई मौसमी फल भी हो........नहीं

क्या मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूं कि इस के पति की शराब, तंबाकू और दूसरे तरह के नशे करने की आदत छुड़वा दूं...........शायद थ्यूरैटिकली कभी कभी यैस....लेकिन ज्यादातर नहीं

क्या इस चार लड़कियों की मां की एक अदद बेटे की चाह मैं दबा सकता हूं.....................कभी नहीं

क्या इस को इस के आदमी से रोजाना पिटने से मैं बचा सकता हूं.......................................बिल्कुल नहीं

क्या मैं सुनिश्चित कर सकता हूं कि वह महिला अपनी टीबी की बीमारी का पूरा कोर्स करेगी.....नहीं

क्या मेरे द्वारा दी गई चंद टेबलेट खा लेने मात्र से ही इस की खून की कमी ठीक हो जाएगी......नहीं

क्या मैं सुनिश्चित कर सकता हूं कि यह भी घर के सभी सदस्यों के साथ बैठ कर ही खाना खाया करे, ताकि यह सदियों से खुरचन खा कर ही तृप्त होने की अपनी आदत छोड़ दे.......................नहीं

क्या मै सुनिश्चित कर सकता हूं कि जिस घर में यह काम करने जा रही है वहां इस को शोषण न हो..........................................नहीं

क्या मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूं कि इस के आस-पास वाली इस को हेय दृष्टि से न देखें.......नहीं

.............दोस्तो, यह तो एक सैंपल मात्र है जो मैंने आप के सामने रख दिए हैं, सच्चाई तो यह है कि जब कोई मरीज सामने स्टूल पर बैठा होता है न तो उस से संबंधित बीसियों सवाल मन में चोट कर रहे होते हैं।

अब ,आप भी कह रहे होंगे कि सवाल उठते होंगे तो उठते होंगे.....तू पहले हमें ऊपर लिखे सवालों का जवाब तो दे। क्या दूं , जवाब दोस्तो, वह तो मैंने हर सवाल के साथ-साथ ही दे दिया है।

तो फिर क्यों मानेगी, बेवकूफ डाक्टर, वो तेरी कोई भी बात....................जब स्थिति इतनी दर्दनाक है,तो तुम डाक्टरों के पास है ही क्या।

है, दोस्तो, है......भगवान ने हमें जुबान दी, वाणी दी है, दूसरे के दुःख में दुःख दर्शाने वाली दो आंखें दी हैं.....और क्या चाहिए। ऊपर सभी प्रश्नों का जवाब ना में है तो क्या गम है, अगर हम अपनी जुबान और जुबान से कहीं ज्यादा बोलने वाली आँखों का इस्तेमाल उस बीमार महिला से करेंगे तो हम पाएंगे कि उस के सूखे चेहरे पर चमक रही डरावनी सी आँखों में भी अचानक एक आशा की किरण चमकी है....उसे लगा है कि कोई उस की बात सुन रहा है, उस का किसी ने मर्म समझ लिया है....कोई उससे बात कर रहा है, पता नहीं भावावेश में वह अपने गोद उठाये बच्चे का माथा चूम ले...........इस आत्मीयता में दोस्तो इतनी ताकत है कि क्या पता वह उस दिन से फिर से अपनी ज़िंदगी से दोबारा प्यार करने लग पडे...क्या पता वह उस दिन से नियम से अपनी टीबी की दवाई खाने लगे और कुछ ही दिनों में उस के दूध भी उतर आए जिस से कि वह अपनी भूख से बिलखती बच्ची की भूख तो शांत कर सके। वैसे, दोस्तो, हम डाक्टर लोग भी कितनी आसानी से अपने एयरकंडीशनड कमरों में बैठ कर कितनी ही आसानी से माताओं को पहले छः महीने तक बच्चों को केवल स्तनपान की ही सलाह दे देते हैं। लेकिन यकीन मानिए है यह भी किसी करिश्मे से कम नहीं..शरीर तंदरूस्त है , मन तंदरूस्त है, खान-पान ठीक है....तभी तो करवा पाएगी वह स्तनपान............काश, हम सब यह समझ पाएं।

बस, दोस्तो, अब डाक्टर की डायरी को बंद कर के अलमारी में रख रहा हूं......फिर कभी खोलूंगा और खुल कर आप से बातें करूंगा।

तो रेडिया का एक रूप यह भी है.....


यह एक रेडियो की विज्ञापन प्रसारण सेवा है। इस सेवा में आप यह ही एक्सपैक्ट करते हैं किसी गीतों भरे कार्यक्रम के दौरान किसी साड़ीयों की दुकान, किसी गहनों के शो-रूम या किसी जूतों के शो-रूम की मशहूरियां आप को सुनने को मिलेंगी......ठीक है, ठीक है, इतना तो चलता है, हमें एंटरटेन करने के साथ अगर यह सर्विस कुछ रैविन्यू भी कमा रही है तो ठीक ही है, इस में बुराई क्या है।

लेकिन, दोस्तो, कल मैं सुबह इस सेवा के अंतर्गत एक प्रोग्राम सुन रहा था....सेहत संभाल। यह कोई हकीम जी द्वारा दी गई इंटरवियू पर आधारित था। सब से पहले तो मैं यह क्लियर करना चाहता हूं कि मैं चिकित्सा की सभी पद्धतियों का एक सम्मान करता हूं। तो फिर , मेरे को उस हकीम जी की बातों से क्या आपत्ति नहीं, मुझे भला क्यों आपत्ति होने लगी, मुझे तो केवल आपत्ति यही है कि उस so-called सेहत संभाल कार्यक्रम से पहले उस हकीम जी का पूरा पता, फोन सहित बताया गया, और प्रोग्राम के बाद भी पूरा पता ,शायद फोन नंबर सहित बताया गया था। आपत्ति तो ,दोस्तो, मुझे इस में ही है----मैं भी इस तरह के इंटरवियू पर आधारित प्रोग्रामों का एवं फोन-इन कार्यक्रमों का कईं बार हिस्सा रह चुका हूं....कभी ऐसा किसी चिकित्सक का पता बताना, फोन नंबर बताना यह वाली विज्ञापनबाजी तो दोस्तो मेरे को पचानी मुश्किल हो रही है। प्रोग्राम के बाद एक मोबाइल नंबर भी बताया गया कि अगर आप को कोई तकलीफ है तो आप इस नंबर पर फोन कर लीजिए।

दोस्तो, ले दे कर एक फुटपाथ पर, किसी फ्लाई-ओवर के नीचे गीली बदबूदार मिट्टी पर सोने वाले बशिंदों के पास अपने गमों को गलत करने के लिए, सारे शरीर को मच्छरों, मक्खियों से छलनी करवाते हुए , आधा पेट खाली होते हुए अंगडाईयां ले लेकर थक चुकी, और बार-बार दूध के लिए बिलख रही अपनी लाडली को पीटने के बाद पश्चाताप की आग में जलते जलते कल के किसी सुनहरी सपनों में खोने का एक मात्र तो साधन है ...उस का एक सस्ता सा एफएम....दोस्तो, सस्ता जरूर होगा, लेकिन उस में भी आवाज़ किसी फाइव-स्टार होटल के कमरे में लगे एफएम से कम नहीं आती है...........अब इस में भी किसी हकीम जी की विज्ञापनबाजी घुसेड़ कर क्या कर लोगे.......क्यों हम उन बंदों की पहले से ही बेहद कंप्लीकेट लाइफ को और भी ....... !!

मुझे इस कार्यक्रम के format से ऐसा ही लगा कि यह कोई स्पोंसर्ड कार्यक्रम है...नहीं तो अभी तक यह प्राइवेट डाक्टरों के नाम,पते, फोन नंबर कहां इन प्रोग्रामों में सुनते को मिलते थे। लेकिन दोस्तो कुछ भी हो मेरे को तो यह सब अच्छा नहीं लगा।

दोस्तो, चाहे मैं हकीमी ज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं जानता लेकिन जिस तरह की बातें उस कार्यक्रम में हो रहीं थीं, वह आप को बताना चाहूंगा.......शरीर की कमज़ोरी, जिगर की गर्मी, पिचके गाल, धंसी गाले...बाकी तो आप समझ ही गये होंगे। बार-बार यही कहा जा रहा था कि आपको चैक अप करने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है। वैसे तो आप भी सोचते होंगे कि इस में क्या नई बात है, सभी डाक्टर रेडियो-टीवी पर ऐसा ही तो कहते हैं.....अब बिना देखे थोड़ा ही वो दवा-दारू शुरू कर देते हैं। बात आप की ठीक है, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे इस प्रोग्राम में यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.....शायद sponsorship वाले छोंक की भनक मात्र से सारी दाल का ज़ायका ही बदल जाता है।

स्पांसरशिप वाली बात से एक बात याद गई कि मेरा बेटा मुझे कुछ दिनों से कह रहा है कि पापा, अपनी हैल्थ वाली बलोग्स पर कुछ विज्ञापन डाल लो, लोग तो इससे बहुत कमा रहे हैं। मुझे उस को समझाना ही पड़ा कि क्यों कोई दवाईयों के विज्ञापन मेरी ब्लोग पर देने की हिमाकत करेगा, क्योंकि मैंने जब किसी भी प्रोडक्ट को रिकमैंड ही नहीं करना अपनी बलोग पर , तो क्यों कोई देगा विज्ञापन। दूसरी बात यह भी है , मैंने उसे समझाया, कि अगर एक बार बिल्ली के मुंह पर खून लग गया ....एक बार मुझे इन विज्ञापनों से होने वाली पांच सौ-एक हज़ार रूपल्ली के नशे की लत गई , तो फिर मैं जो लिखूंगा,उन विज्ञापनों में दी गई वस्तुओं एवं सेवाओं को बेचने के लिए ही लिखूंगा..........मेरे लिए तो भई वह दोयम दर्जे का ही लेखन होगा.....जब मैं अपने मन की बात ही किसी तक पहुंचा पाऊं.......वह तो फिर बात हो गई स्पोंसर्ड लेखन की ....लेखन और वह भी स्पोंसर्ड ...बात हज़म नहीं हो रही....आप को भी नहीं हो रही ?---आप की यह बदहज़मी लेकिन आप के बारे में बहुत कुछ ब्यां कर रही है। इस के लिए कुछ लेने की ज़रूरत नहीं ....बस, हमेशा ऐसे ही बने रहिए।