सोमवार, 11 अप्रैल 2016

इस गुस्से का क्या करें!

बहुत अरसे बाद मुझे कल रविवार के दिन पांच छः हिंदी इंगलिश के अखबार पढ़ने को मिले..हर रविवार के दिन इतने मिलते तो हैं लेकिन अकसर पढ़ने का समय नहीं होता...

इन सभी अखबारों में एक खबर ने बहुत उद्वेलित किया..एक 92 साल के बुज़ुर्ग ने केरल में अपनी ७५ साल की पत्नी और ५५ साल के बेटे को गुस्से में आकर मार दिया...ब्लॉग में सब कुछ सच लिख देना चाहिए...पहला रिएक्शन तो मेरा शीर्षक पढ़ने के बाद यही था कि न चाहते हुए भी हंसी आ गई...यह कोई हंसने वाली बात नहीं थी जानता हूं..लेकिन यह बेवकूफी हुई...यह भी ब्लॉग पर दर्ज हो ही जाए तो ठीक है।

उस खबर को आगे पढ़ते हुए मन दुःखी हुआ..यह बुज़ुर्ग पेन्शन से अपने घर का गुज़ारा किया करता था..२० हज़ार पेन्शन थी..लेकिन इन की बिजली का बिल चार हज़ार के करीब आने लगा था...बुज़ुर्ग परेशान थे इसी चक्कर में और अखबार में िलखा है कि यह अपनी पत्नी और बेटे को कहा करते थे कि वे जिस रूम में सोते हैं वहां का ए.सी कम चलाया करें...उस दिन सुबह भी जब यह उन के कमरे में गये तो वे सो रहे थे..ए सी चल रहा था, इन्होंने एक लोहे की रॉड उठाई और एक ही झटके में अपनी बीवी और बेटे का काम तमाम कर दिया..फिर इन्होंने शोर मचाया और अपने पड़ोसियों को बुलाया .. लेिकन तब तक देर हो चुकी थी..

एक बात और लिखी थी पेपर में कि इन्होंने भी फंदा लगा कर अपनी जान लेने की कोशिश की लेकिन यह ऐसा इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि इतनी बड़ी उम्र की वजह से यह स्टूल पर चढ़ ही नहीं पाए।

मैं दंत चिकित्सक हूं ..फिर भी कुछ महीनों के बाद मेरे पास कोई ना कोई मरीज़ आ जाता है जो पूछता है कि गुस्से को कम करने की कोई दवाई है।

उस दिन भी एक २० साल के करीब कोई लड़की अपने दांत का इलाज करवाने के बाद जाते समय कहने लगी कि डाक्टर साहब, मेरी मां को नींद की गोलियां चाहिएं...आपने पिछली बार भी नहीं दी थीं...मुझे अजीब सा लगा, मैं उस की मां को नहीं जानता था, न ही ऐसा कुछ याद आ रहा था...मैंने कहा कि मैं नींद की गोलियां नहीं लिखता और ये गोलियां अपने आप लेनी भी नहीं चाहिए..

फिर यह लड़की कहने लगी कि मुझे अपने लिए भी ये गोलियां चाहिएं क्योंकि मुझे नींद ही नहीं आती ...मुझे हैरानगी हुई ...वैसे भी यह बच्ची डिप्रेस सी लग रही थी...कहने लगी कि चलिए कोई ऐसी दवाई ही लिख दीजिए जिस से गुस्सा कम हो जाए...मुझे गुस्सा बहुत आता है ...मैंने उसे कहा .. इसमें दवा कुछ नहीं करेगी, शांत रहने की सलाह देकर मैंने उसे साथ के कमरे में सामान्य चिकित्सक के पास भेज दिया..हां, एक बात उसने यह भी कही कि गुस्सा इतना भी तो नहीं आए कि मैं घर की चीज़ें ही तोड़ने लगूं...

यह इस बच्ची की बात नहीं है ..हम अकसर देखते हैं कि लोगों में गुस्सा बहुत ज़्यादा बढ़ गया है ..रोज़ाना अखबार गुस्से के कारनामों से भरा पड़ा होता है ...हमें गुस्सा किसी और से होता है निकलता किसी और पर है...एक तरह से फ्रस्ट्रेशन निकालने वाली बात...बात बात पर तुनकमजाजी बहुत बुरी बात है ...सामने वाले के लिए तो है ही अपनी जान के लिए भी खऱाब ही है ..एक मिनट में हम हांफने लगते हैं...सोचा जाए तो ऐसी कौन सी आग लगी जा रही है...

जितना मैं मैडीकल विज्ञान को जान पाया हूं ..वह यही है कि गुस्से-वुस्से का इलाज करना किसी भी चिकित्सा पद्धति के वश की बात है ही नहीं और कभी होगी भी नहीं...यह बात मैं पक्के यकीन से कह सकता हूं और इस पर चर्चा करने के लिए तैयार हूं...वैसे तो बहस करता नहीं, चुप हो जाता हूं बहुत ही जगहों पर, हंस कर बात टालने की कोशिश करता हूं ....क्योंकि मैं यही सोचता हूं कि बहस जीत कर भी मैं क्या हासिल कर लूंगा!

५०और ३ त्रेपन साल की उम्र भी कम नहीं होती...यहां पहुंचने तक कोई भी बंदा दुनिया देख लेता है ..न चाहते हुए भी कुछ कुछ सीख ले ही लेता है ..मैंने जो सीखा इस गुस्से को काबू करने के लिए ..इतने सालों में यह है आज शेयर करना चाहता हूं...

युवा लोगों की बात कर लें पहले...

युवा लोगों में तरह तरह के स्ट्रेस हैं...Relationships, सर्विस से जुड़ा तनाव, खाने-पीने का तनाव, ड्रग्स, देर रात चलने वाली पार्टियां, हर वक्त कनेक्टेड रहने की फिराक, अपने आप को बेहतर दिखाने की होड़, और बैंकों के बड़े बड़े कर्ज...इतने सब के बावजूद भी अगर कोई गुस्सा को दूर रख पाए तो वह सच में बहादुर इंसान है। इन सब के बारे में क्या लिखें, सब कुछ लोग जानते हैं...बस, युवाओं की दुनिया अलग ही है आज कल...पिछले दिनों प्रत्यूषा बैनर्जी ने अपनी जान ले ली, इतना प्रतिभाशाली जीवन एक ही झटके में यह गया, वो गया...हर रोज़ इस तरह की हस्तियों के नाम आते रहते हैं और पता नहीं कितने तो गुमनाम ही चल बसते हैं...कोई नाम भी नहीं लेता!

जीवन में अध्यात्म का स्थान....

मैं नहीं कहता कि हम लोग सत्संगों में जा कर संत बन जाते हैं....मैं अपने अनुभव से कहता हूं...लेिकन फिर भी अच्छी बातें बार बार सुनते हैं तो कुछ तो असर होने ही लगता है ..जिस भी सत्संग में जाना आप को अच्छा लगे, वहां जाइए, नियमित जाइए, छोटे छोटे बच्चों को भी लेकर जाइए..क्योंकि सत्संग वाला सिलेबस किसी स्कूल में कवर नहीं होता...न ही कभी होगा...

हर सत्संग प्यार, मोहब्बत, आपसी मिलवर्तन की बातें करता है...जहां भी मन लगे प्लीज़ जाइए...घर से बाहर निकलिए तो सही ....

अच्छा साहित्य पढ़िए...प्रेरणात्मक साहित्य ...एक बात और भी है कि अगर बच्चे और युवा नियमित सत्संग में जाएंगे तो वे स्वतः ही अश्लील साहित्य, अश्लील साईट्स से दूर रहेंगे...यह भी बिल्कुल पक्की बात है ...वरना आज कल छोटे छोटे बच्चों के पास नेट और मोबाइल की सुविधा इतनी बेरोकटोक है कि वे आग का खेल खेलने से बाज़ नहीं आते...
अध्यात्म हमारी बहुत बड़ी उम्मीद है ...और हमेशा से है और युगों युगों तक रहेगी....सत्संग में जाकर बच्चों में आत्मविश्वास पैदा होता है, किसी से बात करने का सलीके जान लेते हैं, सेवाभाव, समर्पण जैसे गुण स्वतः प्रवेश करने लगते हैं..
मैं जिस भी मरीज़ को देखता हूं कि उस को बहुत सी तकलीफ़ें हैं और कुछ कुछ काल्पनिक भी हैं ..या जो मुझे जीवन से निराश हताश हुआ दिखता है तो मैं उसे किसी सत्संग से साथ जुड़ने की सलाह ज़रूर दे देता हूं ...मुझे इस नुस्खे पर अपने आप से भी ज़्यादा भरोसा है ...अटूट विश्वास है...प्रार्थना में, अरदास में...

एक सुंदर बात याद आ गई...
PRAYER NECESSARILY DOESN'T CHANGES life situations FOR YOU, IT DEFINITELY CHANGES YOU FOR those situations!
कितना लिखूं सत्संग की महिमा पर ...जितना लिखूं कम है...बस, बच्चों को, युवाओं को आध्यात्म से साथ जोड दीजिए...

गुस्से के लिए खान-पान भी दोषी...
अकसर हम लोग पढ़ते ही रहते हैं कि बच्चे जिस तरह से जंक-फूड-फास्ट फूड और प्रोसेसेड फूड के आदि हो चुके हैं ..इन में तरह तरह के कैमीकल्स होने की वजह से भी और वैसे भी पौष्टिकता न के बराबर होने की वजह से ये लोगों में गुस्सा भर देते हैं...ऐसा बहुत से रिसर्चज़ ने भी देखा है...लौट आइए अपने पुराने खान पान पर...

मांस-मछली छोड़ने पर विचार करिए... 
बहुत सी चीज़ें हैं जिन के बारे में इस देश में कहना लिखना ठीक नहीं लगता..फिर भी ...अपनी बात तो कर ही सकते हैं...मांस मछली हम ने १९९४  में आखिरी बार खाई थी, २२ साल हो गये हैं...इसे न खाने से बहुत अच्छा लगता है...लेिकन यह कोई हिदायत नहीं दी जा सकती...यह हमारी पर्सनल च्वाईस है ...हरेक की है .. लेकिन इसे छोड़ कर कभी ऐसा नहीं लगा कि शरीर का पोषण कम हो गया है ...बिल्कुल भी नहीं..वैसे भी मांस मछली हम किस क्वालिटी की खाते हैं ....हम सब जानते हैं....फैसला आप का अपना है।

मांस मछली और जंक फूड के बारे में कहते हैं कि यह सुपाच्य नहीं है ..विभिन्न कारणों की वजह से इन की वजह से भी हम बात बात पर उत्तेजित हो जाते हैं....हमारे पुरातन ग्रंथ भी तामसिक सात्विक खाने की बातें तो करते ही हैं...हम उन की भी कहां सुनते हैं!

 शारीरिक श्रम..
िकसी भी तरह का शारीरिक श्रम--कोई खेल कूद, साईकिल चलाना, टहलना...कुछ भी जो अच्छा लगे किया करिए रोज़ाना.... और एक बात, कोई न कोई हॉबी ज़रूर रखिए...कुछ भी बागबानी, पेंटिंग, लिखना-पढ़ना, समाज सेवा, नेचर-वॉक,.....कुछ भी जिसे कर के आप को अच्छा लगने लगे...उसे ज़रूर करिए...

ध्यान (मेडीटेशन) ज़रूर करिए...
मैंने शारीरिक श्रम की बात की, मेडीटेशन (ध्यान) की भी ट्रेनिंग लीजिए और इसे नियमित करिए...मैं बहुत सालों तक करता था...पिछले कईं सालों से सब कुछ छोड़ दिया...यह पोस्ट के माध्यम से मुझे अपने आप से भी यह कहने का मौका मिला कि मैं भी अपनी लाइफ को पटड़ी पर ले कर आऊं....सोच रहा हूं आज या कल से ..आज से ही फिर से मेडीटेशन शुरू करता हूं...I really used to feel elated after every Meditation session!...Just 15-20 minutes twice or thrice a day!

बातें शेयर करने की आदत डालिए...

जितनी बातें मन में कम से कम रखेंगे उतना ही बोझ हल्का होता जाएगा..मैं भी ब्लॉगिंग के माध्यम से यही तो करता हूं लेकिन बड़ी धूर्तता से बहुत कुछ छिपाए रखता हूं ...लेकिन इतना इत्मीनान है कि पाठकों के लिए जो काम की बात है, उसे पूरे खुलेपन से दर्ज कर देता हूं...

हां, बातें शेयर करने की बात से मैंने ब्लॉगिंग की बात तो कर दी , लेकिन जिन के ब्लॉग नहीं हैं वे क्या करें, वे अपने घर परिवार में, भाई बहन से अपने मन की बातें शेयर ज़रूर किया करें...कुछ बातें अपने टीचर्ज़ से भी शेयर की जा सकती हैं...यह बड़ा जरूरी है ... हमें कदम कदम पर मार्गदर्शन चाहिए, हम सब के सब अपने आप में अधूरे हैं....कड़ी से कड़ी मिल के ही कुछ बात बन सकती है ....

एक दिल का डाक्टर किसी को हिदायत दे रहा था...
दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलन गे औज़ारा नाल...

ओह माई गॉड...आज तो पोस्ट कुछ ज्यादा ही प्रवचन स्टाईल में और हट के हो गई...लेकिन असल बात कहूं तो मेरा यही सिलेबस है ...मैंने चिकित्सा विज्ञान से कहीं ज्यादा अध्यात्म को पास से अनुभव किया है ...

इतनी भारी भरकम पोस्ट.....अब इसे बेलेंस कैसे करूं...  अभी करता हूं कोई हल्का-फुल्का जुगाड़ ...


घर से ज़्यादा सेफ़ है सड़क...

कईं बार लिखना बड़ा बोरिंग सा लगता है ...लगता है कि आखिर इतनी मगजमारी किस लिए...बिल्कुल कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती...उस समय मुझे मूड बनाने के लिए अपने दौर के किसी मनपसंद गीत को सुनना पड़ता है ...एक बार नहीं, दो तीन बार...

यह जो ऊपर मैंने लिखा है ..सड़क घर से ज़्यादा सेफ़...ये शब्द हैं लखनऊ के एक बड़े बुज़ुर्ग के ...परसों एक बाज़ार में यह कोई अखबार पढ़ रहे थे.. अचानक एक खून-खराबे की खबर पर मेरी नज़र गई..मैं उसे देखने के लिए रूक गया..सुबह का समय था...इन्होंने पेपर मेरी तरफ़ सरका दिया....मैंने कहा कि लखनऊ जैसी नगरी में भी यह सब कुछ...!...गुब्बार निकालने लगे कि अब तो घर आ के मार जाते हैं...आए दिन खबरें आती हैं...अब तो सड़क घर से ज़्यादा सेफ़ हैं, कहने लगे। मैं भी सोच में पड़ गया। उस ने यह भी कहां कि फलां फलां के राज में इतनी गुंडागर्दी नहीं थी..सभी लोगों को कानून को डर था...

सच में मैं लखनऊ के लोगों की नफ़ाज़त और नज़ाकत से बहुत प्रभावित हूं..यहां के लोग जब बात करते हैं ऐसा लगता है जैसे कानों में मिशरी घोल रहे हों...बेशक यह तो खूबी है यहां लोगों में...और यह इन की जीवनशैली ही है...इस के लिए इन्हें १०० में से ९९ नहीं, १०० नंबर ही मिलने चाहिए...

 मैं भी यहां पिछले तीन सालों में कुछ कुछ सीख गया...और इस के लिए मेरा असिस्टेंट का बड़ा रोल है...उस का सभी से बातचीत करने का ढंग इतना आदरपूर्ण एवं शालीन है ...मुझे तीन सालों में एक बार किसी मरीज़ ने कहा कि आप के असिस्टेंट को बात करने की तहजीब नहीं है...मैंने उसे कहा कि कोई और बात होती तो मैं मान भी लेता, उस के पास रहने से मैं कुछ कुछ सीखने लगा हूं...


बात चीत की बात हो गई ...कर्मकांड की बात भी ज़रूरी है, कर्मकांड में भी एकदम फिट हैं लखनऊ के लोग, पूजा-अर्चना, दान दक्षिणा...सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं...घरों के बाहर पशु-पक्षियों के लिए और जगह जगह प्याऊ दिख जाते हैं...इस पोस्ट में सभी तस्वीरें आज की ही हैं...





यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के खूब चर्चे हैं ही ..लेकिन एक बात उस के बारे में यह है कि एक बार मैंने एक साहित्यिक गोष्ठी में शहर की एक नामचीन वयोवृद्ध महिला को यह कहते सुना कि आपसी मिलवर्तन का बस यही मतलब नहीं कि आपने किसी के यहां जा के उन के त्योहारों पर सेवईयां खा लीं और उन्होंने आप के होली पे गुझिया खाईं...उन्होंने कहा कि ये भी ज़रूरी हैं, बेशक, लेकिन इन प्रतीकों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है ..मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. 


अब आता हूं अपने मन के एक प्रश्न पर...जो अकसर मुझे परेशान करता है कि इतने बढ़िया संस्कृति के शहर में इतना खून-खराबा...हर दिन अखबार में यहां पर मारधाड़ की खबरें आती रहती हैं...घर में बैठे निहत्थे, बड़े-बुज़ुर्गों तक को मौत के घाट उतार दिया जाता है....शायद आप के मन में आ रहा हो कि यह किस शहर में नहीं हो सकता...बिल्कुल आप सही कह रहे हैं...लेकिन लखनऊ की नफ़ाज़त, नज़ाकत के टगमें के साथ यह मेल नहीं खाता, इसलिए हैरानगी होती है....


अभी मैं साईकिल भ्रमण से लौटा हूं ....लखनऊ के साईकिल ट्रैकों के बारे में बहुत बार लिख चुका हूं...बहुत अच्छी बात है ..ये अधिकतर खाली पड़े रहते हैं....आज बड़े लंबे अरसे के बाद मैंने एक स्कूली बच्चे को इस पर साईकिल चलाते देखा..खुशी हुई.. मजे की बात यह कि उस समय मैं भी सड़क पर ही साईकिल चला रहा था...





लखनऊ के एलडीए एरिया में भी बहुत बढ़िया ट्रैक हैं... मैंने भी इन ट्रैकों पर साईकिल चला रहा हूं... एक बुज़र्ग मिल गये योग टीचर ..डाक्टर साहब हैं....कहने लगे कि अच्छा करते हैं साईकिल चलाते हैं..वैसे भी अगर ये ट्रैक इस्तेमाल होेंगे तो ही कायम रह पाएंगे...उन्होंने बिल्कुल सही बात कही थी... आगे चल के देखा तो एक ट्रक कुछ इस तरह से खड़ा दिखा... अब सरकार ने ये रास्ते बनाए हैं तो इन का इस्तेमाल भी होना चाहिए....इन को अतिक्रमण से बचाने का मात्र यही उपाय है...


एक बात और ...चाहे इन ट्रैक्स पर साईकिल सवार तो एक ही दिखा ..वह स्कूली बच्चा, लेकिन इन पर पैदल चलने वाले, सुबह भ्रमण पर निकले बहुत से लोग दिख गये.. यही ध्यान आया कि इसी बहाने चलिए देश में पैदल चलने वालों की भी सुनी गईं...वरना इन के तो कोई अधिकार हैं ही नहीं ..

बस करता हूं सुबह सुबह...मैं भी क्या टर्र-टर्र सुबह सुबह...सोमवार की वैसे ही अल्साई सी सुबह है...चलिए एक बढ़िया सा भजन सुनते हैं और इस हफ्ते की शुभ शुरूआत करते हैं......बहुत सुना बचपन में यह भजन...अभी भी सुनता हूं लेकिन मन नहीं भरता... 

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

साहिब नज़र रखना..मौला नज़र रखना

तीन साल पहले हम लोग जब किराये का कोई घर देख रहे थे तो लखनऊ के बंगला बाज़ार को अच्छे से जान गये थे..हम लोग अपने रेस्ट-हाउस से निकलते कार में...और लखनऊ की बड़ी बड़ी सडकों पर नित्यप्रतिदिन गुम हो जाते..दो तीन दिन में हमें यह पता चल गया कि वापिस कैसे लौटना है...हमें यह पता चल गया कि बंगला बाज़ार से हमारा रेस्ट-हाउस नज़दीक ही है ..और इस बाज़ार से वहां जाने का रास्ता मालूम हो चुका था...

इसलिए हम कभी भी किसी से वापिसी का रास्ता पूछते और वह पूछता कि कहां जाना है, हम उससे बंगला बाज़ार का नाम ले लेते... यह सिलसिला १५ दिन तक चलता रहा...

बंगला बाज़ार लखनऊ का एक मशहूर बाज़ार है...कितना बड़ा होगा?...एक किलोमीटर की लंबाई में फैला हुआ होगा...सड़की भी कोई खास चौड़ी नहीं है, लेकिन encroachment तो अब एक आम ही बात हो ही गई है... इतने से बाज़ार में एक पुरानी मस्जिद है, कईं पुराने मंदिर भी हैं..सभी लोग मिल जुल कर सभी त्योहार मनाते हैं.. लेकिन बाज़ार में भीड़ अब बहुत होने लगी है ...सब कुछ मिल जाता है वहां....टमाटर से टैप तक...समोसे से वाहिद बिरयानी तक...


इस तरह के एक बाज़ार के एक किनारे पर अचानक एक दिन अगर कोई ट्रक इस हालत में दिखे पूरी तरह से पलटा हुआ तो देख कर कोई भी सकपका जाए....आज सुबह मुझे यह ट्रक इस हालत में दिखा...मैं भी एक मिनट के लिए रूक गया...फोटो खींचने की गुस्ताखी कर ली.. उस ट्रक के पास जाकर किसी से बात करनी की इच्छा नहीं हुई...इस तरह के हालात में हम किसी की कुछ भी मदद करने की स्थिति में नहीं होती, बिना वजह बार बार परेशान लोगों के ज़ख्म कुरेदना बहुत बुरी बात है .. उस समय तो बस उन के हालात सुधरने की प्रार्थना-याचना करते ही बनती है ..


इस तरह के मंजर अकसर हमें बड़ी सड़कों पर शहर के बाहर हाई-वे आदि पर कभी कभी दिख जाते हैं..ईश्वर कृपा करें, सभी सुरक्षित अपने घर पहुंचा करें...लेकिन एक बाज़ार के बीचों बीच इस तरह का हादसा आज शायद पहली बार ही दिखा था.. मैं अपने आप से पूछता हूं कि उस समय मैं कहीं जाने में लेट हो रहा था, कहीं मैं इसलिए तो वहां नहीं रूका...कुछ न भी किसी के लिए कर सके किसी हालत में दो शब्द सहानुभूति के कहने में से कुछ नहीं लगता!..यह मैं अपने आप से कह रहा हूं। 


कोई कह रहा था कि ओव्हरलोडेड था... कोई कुछ...एक तरफ़ से आवाज़ आई कि ड्राईवर क्लीनर तो खत्म हो गये होंगे... तभी दूसरे ने कहा...नहीं, नहीं, दोनों सलामत हैं....इत्मीनान हुआ यह सुन कर कि चलिए जानी नुकसान तो नहीं हुआ...हर चीज़ की भरपाई हो जाती है .....लेिकन इंसानी जान की बहुत कीमत है ...हर इंसान की कीमत उस से परिवार से पूछनी चाहिए...एक बंदे के ठीक ठाक वापिस लौटने का इंतज़ार कईं कईं ज़िंदगीयां कर रही होती हैं ...और एक जान से कईं लोगों की जान अटकी होती है ...रोटी के लिए ही नहीं, अपनेपन का रिश्ते..

मुझे हमेशा से इन ट्रक ड्राईवरों की लाइफ से बड़ी सहानुभूति और सम्मान है ...कितना कठिन जीवन है .. घर से दूर, बीवी ,बच्चों, मां-बाप सारे कुनबे से दूर .. तरह तरह के अनुभव ..किसी चीज़ का कोई ठिकाना नहीं....

इस समय मौका तो बिल्कुल भी नही है कि यहां पर कोई गाना लगाया जाए ..लेिकन पंजाब का एक बेहद प्रसिद्ध गीत याद आ गया जो इन ट्रक ड्राईवरों की ज़िंदगी की एक छोटी सी झांकी पेश करती है ...मुटियार (ट्रक ड्राईवर की पत्नी) को उस की सहेलियां चिढ़ा रही हैं कि इतना फिक्र करते करते तू तो पगला सी गयी है ...मुटियार आगे से अपने पति को याद करते हुए सोचती है कि उस की तो जैसे लंबे लंबे रूटों से याराना हो गया है ..बेहद पापुलर गीत, बेहद सुंदर ढंग से शूट किया हुआ ...और पम्मी बाई की तो बात ही क्या करें, वह तो पंजाब के दिलों पे राज़ करता ही है.....पम्मी बाई जी वह हैं जो इस वीडियो में ड्राईवर का रोल अदा कर रहे हैं...पंजाब में साफ़ सुथरे सभ्याचारक सामाजिक गीत बनाने के लिए इन का नाम बडे़ सम्मान के साथ लिया जाता है ...

१९८६ से १९८८ तक मैं होस्टल में था ..और मुझे सभी कहते थे कि मुझे ट्रक ड्राईवरों वाले गाने बडे़ पसंद हैं...इसी तरह के गाने बजते रहते थे मेरे टेपरिकार्डर से .. कैसेटें थीं दस बीस... अच्छे यही लगते थे, कारण यही था कि यह जीवन की बात करते हैं, उत्सव की बात करते हैं, किसी का हाथ थाम कर उसे उठाने की बात करते हैं....फिर भी कुछ लोगों का रवैया इन ड्राईवरों के प्रति उतना बढ़िया होता नहीं जितना होना चाहिए...

पता नहीं महलों वाले कुछ लोग सड़क के लोगों से जलते क्यों हैं....आईए इसे समझने की कोशिश करते  हैं ३५ साल पुराने आशा फिल्म के इस गीत से...इस फिल्म का नायक जितेन्दर भी एक ट्रक ड्राईवर ही था...

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

91 वर्षीय शख्स की सीख...

कल विश्व स्वास्थ्य दिवस था..मुझे अभी इन ९१ वर्षीय शख्स का ध्यान आ गया ..पिछले दिनों इन को तीन चार बार मिलने का मौका मिला...हर बार ऐसे लोगों से कुछ सीखने का मौका मिलता है..

इन्हें रिटायर होते हुए ३०-३५ साल हो चुके हैं..९१-९२ वर्ष के हैं...अपने ६५ साल के करीब के बेटे के साथ आते हैं..

इन का स्वास्थ्य, इन की गर्मजोशी, सूझ-बूझ, आवाज़ की बुलंदी और मस्त, बेपरवाह अंदाज़ देख कर इन से कुछ सीख लेने की इच्छा हुई ...

पिछले दिनों जब ये कुछ दांत उखड़वा रहे थे...एक दिन फुर्सत थी तो मैंने इन से इन की दिनचर्या पूछ ली...
९१ वर्षीय शर्मा जी अच्छी नसीहत दे गये उस दिन..
शायद इन्हें इस तरह के प्रश्न बहुत से मौकों पर पूछे जाते होंगे.. इन्होंने दो तीन मिनट में अपनी बात पूरी कर ली..

यह सुबह जल्दी उठते हैं..पानी पीने के बाद घर में ही थोड़ी एक्सरसाईज कर लेते हैं, टहलने नहीं जाते क्योंकि टांग में पुरानी चोट लगने की वजह से कुछ दिक्कत हैं, लेकिन इन्हें इस से कोई शिकायत नहीं ...इस से क्या किसी से भी इन्हें कोई शिकायत नहीं..
नाश्ते में अधिकतर दलिया या कार्न-फ्लेक्स लेते हैं...बस...१०-११ बजे कुछ फल-फ्रूट या फलों का रस....दोपहर में सामान्य खाना दाल रोटी सब्जी..शाम में चाय बिस्कुट और रात में एक चपाती...यह है इन की खुराक दिन भर की .. एक दम फिट है वैसे तो लेकिन अब उम्र के हिसाब से बीपी थोड़ा ऊपर रहने लगा तो उस की दवाई ले लेते हैं..
एक बहुत ज़रूरी बात यह है कि इन्होंने कभी भी तंबाकू, गुटखा, पान, सिगरेट, बीड़ी, शराब को नहीं छुआ...कभी नहीं, और शर्मा जी पक्के शाकाहारी हैं.. कभी मांस-मछली नहीं खाई। 
खुश मिजाज ऐसे कि मैंने इन्हें कहा कि आप के साथ फोटो खिंचवाने की इच्छा हो रही है...तुरंत राजी हो गये..

टाईम पास करने की कोई दिक्कत नहीं है.. अपनी कालोनी की जो प्रबंधन समिति है उस का काम काज भी देखते हैं... 
पूरी तरह से सचेत हैं...कानों से सुनाई पूरी अच्छी तरह से देता है...टीवी पर न्यूज़ देखना बहुत पसंद है..

मिसिज़ के दो साल पहले चले जाने का गम है ... उन की बात करते हुए इन की आंखें नम हो गईं। 

मेरा सहायक भी मेरी जैसी बातें करने लगा है ...और शायद मैं उस जैसी ...सोहबत का असर है ...मेरा सहायक मैट्रिक पास नहीं है, लेकिन ज़िंदगी के इम्तिहान में मेरिट-लिस्ट पर है...इतना आत्मविश्वास..बैंकों के काम दूसरों के भी तुरंत करवा देता है, एक तरह का Dr Fixit ..अपने साथियों की हेल्प करने का जज्बा भी बहुत है उसमें...अंग्रेजी के बहुत से भारी-भरकम शब्द भी जानता है ...मैं अकसर उससे मजाक में कहता हूं कि सुरेश, ईश्वर जो करता है, अच्छा करता है..अगर तुम तीन या चार कक्षाएं और पास कर जाते तो खड़े खड़े आते जाते फतेहअली चौराहे का सौदा कर आते... हंसने लगता है ...उस दिन भी यह बुज़ुर्ग जाने लगे तो इन्हें बड़े प्रेम से पूछने लगा ..बाबू जी, जीवन से जो सीखा हम से भी बांट दीजिए। 

मैं इन की तरफ़ देखने लगा... कहने लगे, सीखा यही है कि खुश रहो, मस्त रहो, ईमानदारी में बड़ी ताकत है, झूठ मत बोलो..और एक बात कि किसी भी बात को बढ़ाओ मत, उसे जहां तक संभव हो प्रेम से (he used the word 'amicably') सुलटा लो....और एक बात पर विशेष ज़ोर दिया इन्होंने कि नेकी कर कुएं में डाल। 

अच्छी  खुराक मिल गई थी बहुत दिनों तक सोच विचार करने के लिए...

अभी पब्लिक का बटन दबाने लगा तो ध्यान आया कि हम लोगों की ज़िंदगी ..हर इंसान की ...एक नावल सरीखे है...हम लोग अपने आस पास के नावलों को पढ़ते हैं..हरेक से सीख मिलती है...लेकिन यह नावल तभी पढ़े जा सकते हैं अगर हम इतने खुलेपन में विश्वास रखते हों कि हम अपनी ज़िंदगी की किताब से भी कुछ पन्ने शेयर करने से न घबराएं...it's always a two-way communication! 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

दमे के ५०प्रतिशत रोगियों को दमा होता ही नहीं है...

Times of India 7.4.16 (Click to read) 
अभी आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर देख कर चिंता हुई..इस अखबार में किसी खबर का पहले पन्ने पर छपना और और वह भी फोल्ड के ऊपर वाले हिस्से में इस के महत्व को दर्शाता है।

पहले तो शीर्षक देख कर कुछ ऐसा लगा जैसे कोई उपभोक्ता संरक्षण कानून से संबंधित कुछ खुलासा होगा...

पूरी खबर पढ़ी तो समझ में आया कि किस तरह से प्राईमरी हेल्थ सेट-अप में दमे की बीमारी का सटीक निदान किए बिना ही एन्हेलेर एवं अन्य स्टीरायड दवाईयां शुरू कर दी जाती हैं।

एक सात साल के बालक के बारे में लिखा था कि वह चंड़ीगढ़ में पिछले तीन वर्ष तक दमा की स्टीरायड जैसी दवाईयां लेता रहा....बाद में पता चला कि उसे दमा (अस्थमा) तो था ही नहीं, उस की सांस की नली में एक मूंगफली का दाना अटका पड़ा था।

इस अहम् रिपोर्ट में यह बताया गया है कि लगभग ५० प्रतिशत दमा के मरीज़ों में जिन की दवाईयां चल रही होती हैं उन में दमा होता ही नहीं है.. एक तरह का ओव्हरडॉयग्नोसिस कह लें या जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि वास्तविक कारण होता है ..किसी तरह की वॉयरल इंफेक्शन, एलर्जी या कोई ट्यूमर...

मुझे लगता है कि इसे पढ़ कर लोग वॉयरल इंफैक्शन, एलर्जी के कारणों को नहीं देखेंगे, बस किसी ट्यूमर की चिंता ही करने लगेंगे...लेकिन सांस की तकलीफ़ के लिए यह बहुत रेयर कारण होता होगा...अब विशेषज्ञों ने लिखा है तो होगा ही।

पिछले कुछ वर्षों से बिना दमे की बीमारी की पुष्टि के इंहेलर्स का इस्तेमाल न करने की सलाह तो दी ही जा रही है...लेकिन अनुभवी लोगों की सुनता कौन है!..शक्तिशाली मार्कीट शक्तियों का जाल बिछा हुआ है...और फिर कुछ छोटी जगहों पर कम अनुभव वाले चिकित्सक जो प्राईमरी यूनिटों पर काम करते हैं...शायद जाने अनजाने वे भी ये सब लिखने लगते हैं...जल्दबाजी में ही। एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि इन इन्हेलर्स का इस्तेमाल करना तक बहुत से मरीज़ों को नहीं आता...बेकार में बहुत सी दवाई बेकार हो जाती है।

लेकिन इस के लिए ये क्वालीफाईड चिकित्सक ही नहीं, बहुत से नीम हकीम, झोला छाप डाक्टर ... कोई भी इन्हेलर्स के इस्तेमाल की सलाह दे देता है .. और एक बार शुरू हो जाए तो फिर वर्षों बस वही दवा चलती रहती है.. यही नहीं, मरीज़ खुद भी कैमिस्ट से खरीद लेते हैं ...एक तो आजकर नेट से आधी-अधूरी अधकचरी जानकारी लोगों के लिए आफत बनी हुई है... प्रेग्नेंसी टेंट तक खुद घर पर कर लेते हैं तो क्या मैडीकल तकलीफ़ों का भी पता खुद ही कर लेंगे...असंभव...A little knowledge is a dangerous thing!... और यहां भी यही बात है।


इस तरह से दमे के इलाज के लिए इंहेलर्स का ही अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं हो रहा... सब से भयंकर तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों का गलत इस्तेमाल हो रहा है...छोटी मोटी वॉयरल और अपने आप ठीक हो जाने वाली तकलीफ़ों के लिए भी लोग अपने आप ही कैमिस्ट से कुछ भी स्ट्रांग सा ऐंटिबॉयोटिक उठा लाते हैं....जिस तरह से देश में तंबाकू का इस्तेमाल करना नामुमकिन है, मुझे लगता है कि दवाईयों का irrational use और इन का misuse रोक पाना भी बहुत टेढ़ी खीर है...शायद लोगों की जागरूकता के बाद कुछ हो पाए...

अब हम सब लोगों को कम से यह तो याद रखना चाहिए कि हर सांस की तकलीफ़ दमा (अस्थमा) नहीं होती, किसी विशेष तरह की दवाई खाने के लिए या सूंघने के लिए जिद्द न करिए....अनुभवी डाक्टरों को सब कुछ पता रहते हैं...वे एक मिनट में ही आप की सेहत की जन्मपत्री जान लेते हैं..


वैसे भी प्रदूषण इतना ज़्यादा है हर तरफ़ ...यह भी सांस की तकलीफ़ों एवं एलर्जी की जड़ हो सकता है....इस तरफ़ भी पेरेन्ट्स को देखना चाहिए... बहुत ज़रूरी है यह भी ..हो सके तो बच्चों में हेल्थी जीवन शैली के बीज रोपने की शुरूआत बचपन से ही करिए....संतुलित पौष्टिक आहार, दैनिक शारीरिक परिश्रम, जंक फूड से दूरी... और जितना जल्दी हो सके कि योग एवं प्राणायाम् करने की शुरूआत की जाए...


लिखना का या किसी को प्रवचन देने का एक फायदा तो है, और कुछ हो न हो, अपने आप को वही बातें बार बार सुनानी पड़ती हैं तो असर हो ही जाता है ...धीरे धीरे... जैसा कि मुझे कुछ दिनों से थोड़ा थकावट सी महसूस होने लगी है...शाम के समय...और सोच रहा हूं ..आज से मैं प्राणायाम् किया करूंगा....मैंने इस का पूरा प्रशिक्षण लिया हुआ है...लेकिन आलस की बीमारी का क्या करूं... काश कोई इलाज होता इसका भी! कुछ न कुछ असर तो होता ही है, मैंने पिछले दिनों सुबह उठ कर पानी पीने की बात खूब शेयर करी... अब मैं भी अकसर उठते ही पानी पीता हूं...वैसे आज नहीं पिया...


हो गई बातें खूब..सुबह सुबह...सांसों की बातें हुईं तो ध्यान आ गया ...

चलती है लहरा के पवन के सांस सभी की चलती रहे....जी हां, सब का स्वास्थ्य अच्छा हो, सब मस्त रहें, व्यस्त रहें, खुश रहें......यही कामना करते हुए इस गीत में डूब जाइए... one of my favourites again!!...😎😎😎


विश्व स्वास्थ्य दिवस और डॉयबीटीज़ को हराने का संकल्प

दस दिन पहले जो रविवार था उस दिन प्रधानमंत्री के मन की बात सुनने के दौरान पता चला कि इस बार विश्व स्वास्थ्य दिवस का फोकस है कि डॉयबीटीज़ को हराया जाए...पी एम ने इसे हराने, भगाने और दूर रखने की बात अच्छी कही कि दिनचर्या में कठिन परिश्रम के लिए भी कुछ समय रखें...उस मन की बात में गर्मी के दिनों में घर की छत पर या आंगन में थके मांदे हांफ रहे पशु-पंक्षियों के लिए पानी रखने की बात भी सुनी और घर में किसी भी काम से आए किसी वर्कर ..डाकिया या कूरियर ब्वॉय को कम से कम एक गिलास पानी पिलाने की बात भी सुनी...

प्रोग्राम खत्म होते होते मुझे लग रहा था कि पी एम जैसी हस्तियों से हमें इस तरह की संवेदनशील एवं आत्मीय बातें सुनने की आदत ही कहां है..हमें तो यही पता है कि बस साल में एक बार लाल किले से बड़ी गंभीरता से हमें पीएम का भाषण सुनना होता है ...या फिर साल में एक दो बार अन्य अवसरों पर...लेकिन अब कुछ अलग लगता तो है! 


विश्व स्वास्थ्य दिवस के दिन उसी बात पर ही टिका रहूं तो बेहतर होगा..

डॉयबीटीज़ के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है..इसे टक्कर देने की बात आज होगी...इस से बचने की बातें हम सब जानते हैं..अधिकतर ...फिर भी हम सारा दिन मनपसंद खाना खाने में कोई कोर-कसर कहां छोड़ते हैं.. शारीरिक परिश्रम न करना और जंक-फूड पर निर्भरता हमें इस बीमारी की तरफ़ खींचती रहती है.. जंक-फूड, फास्ट-फूड के कुछ बड़े नुकसान वे तो हैं ही कि यह नमक और वसा से लैस तो होता ही है ..इस के साथ ही साथ इस का ग्लाईसैमिक इंडैक्स बहुत ज़्यादा होता है जिस का मतलब है कि इसे खाते ही शरीर में ग्लूकोज़ का स्तर एक दम से बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है .. और यह न तो मधुमेह के इलाज के लिए और न ही इस से बचाव के लिए ठीक है.... सीधे-सादे पारंपरिक हिंदोस्तानी खाने से बेहतर कुछ भी नहीं है..हम जानते तो हैं,लेकिन मन फिर भी सुबह सुबह नाश्ते के समय से ही जलेबी, कचौड़ी, खस्ता, भटूरे, पूरी के लिए मचलने लगता है...

आज विश्व स्वास्थ्य दिवस का यही थीम होने की वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ़ से इस बारे में विशेष संदेश दुनिया के लिए आते हैं...उस पेज का लिंक यह रहा ...विश्व स्वास्थ्य दिवस..मधुमेह हराएं..


बचपन में हम लोग इधर उधर से सुना करते थे कि अगर किसी के पेशाब करने के पश्चता उस जगह पर कीड़े-मकौड़े आ जाएं तो होती है शूगर... फिर थोड़ा और बड़े हुए तो अपनी एक आंटी जी को सुबह शाम अपनी जांघ में इंसुलिन के टीके लगाते देखा करते थे... बड़ी हिम्मत वाली थीं, कभी अपनी तकलीफ़ की शिकायत नहीं करती थीं, मस्त रहती थीं..

आज भी मैं डब्ल्यू एच ओ की साईट देख रहा था तो आंकड़े देख कर डर लग रहा था... ठीक है, सरकारों का काम है आंकड़ों की बात करना... मकसद यही होता है कि काश, हम लोग अभी भी जाग जाएँ...लेिकन मुझे विभिन्न कारणों से कभी भी आंकड़ों पर ज़्यादा भरोसा रहा नहीं....बस इतना ध्यान आता है कि जिसे कोई भी तकलीफ़ हो गई उस के लिए तो बीमारी का प्रतिशत शत प्रतिशत हो जाता है ....उस की एवं परिवार की लाइफ ही बदल जाती है ..अगर इस बीमारी से ग्रस्त आदमी इस के कंट्रोल की तरफ़ और ज़रूरी परहेज की तरफ़ ध्यान नहीं देता.. 

आज शायद आप सब को इस तकलीफ़ के बारे में दिन भर बहुत सी बातें सुनने को मिलेंगी... मैं भी कुछ कहना चाहता हूं.. 

डॉयबीटीज़ क्लीनिक 
प्राईव्हेट अस्पतालों की तो बात ही क्या करें, कारपोरेट कल्चर में सुविधाओं का टोटा नहीं है...लेिकन बहुत ही कम लोगों की पहुंच वहां तक है...इन आलीशन अस्पतालों में डॉयबीटीज़ क्लीनिक चलते हैं..जहां पर सभी तरह की ज़रूरी जांचे और परीक्षण हो जाते हैं। 

कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों में भी इस तरह के क्लीनिक सप्ताह में दो बार या ज़्यादा चलते हैं...इस तरह के क्लीनिक सभी अस्पतालों में चलने चाहिए.. 

बात बस महीने भर की दवाईयां लेने तक की 
मैंने जो देखा, सुना और अनुभव किया है कि आज कल मधुमेह के रोगियों का सरोकार बस महीने भर की दवाईयां लेने तक ही होता है ..कसूर उन का नहीं, मैडीकल व्यवस्था का भी नहीं है, बस, जो देखा-सुना है उस के आधार पर यही लगता है कि शायद डॉयबीटीज़ और हाईपरटेंशन ऐसे रोग हैं जिन की मैनेजमेंट में बहुत सुधार की ज़रूरत है...
इस सुधार के लिए केवल मैडीकल कम्यूनिटी ही नहीं, मरीज़ की जागरूकता भी बड़ी जरूरी है...

मैंने नोटिस किया है कि कुछ मरीज़ महीनों मधुमेह की दवाईयां लेते रहेंगे, बीच में छोड़े देंगे, फिर कुछ देसी शुरू कर देंगे...फिर किसी बाबा का नुस्खा आजमाने लगेंगे ....लेकिन उन का नियमित बेसिक सा ब्लड-शूगर का टेस्ट नहीं हो पाता.. हो नहीं पाता या वे करवाना नहीं चाहते ..दोनों ही बातें हैं....इसी चक्कर में ब्लड-शूगर का स्तर खूब इधर-उधर हो जाता है और अकसर किसी बड़ी तकलीफ़ के बाद ही इस का पता चलता है ..
कुछ अस्पतालों में ब्लड-शूगर करवाने के लिए जब वह आता है तो पहले दिन वह इस जुगाड़ में रहता है कि उस की जांच कोई लिख दे...जांच लिखे जाने तक लैबोरेट्री में सैंपल लेना बंद हो जाता है ..क्योंकि वह वैसे भी खाली पेट ही लेना होता है...फिर वह दूसरे किसी दिन खाना साथ बांध के आता है ..फॉस्टिंग शूगर की जांच के बाद खाना खा कर फिर से जांच होती है .....तीसरे किसी दिन उसे रिपोर्ट मिलती है ...कईं बार चौथी बार भी आना पड़ सकता है किसी तकनीकी रूकावट की वजह से ... व्यवस्था की अपनी मजबूरियां भी तो हैं ही। 
एक तो पेचीदा रूट टेस्ट करवाने का .. रक्त जांच का आदेश, फिर उस आदेश पर अनुमति की मोहर, फिर एप्वॉयेंटमैंट....और इन सब के साथ साथ जनमानस में जागरूकता का अभाव...बस, इसी चक्कर में नियमित यह जांच हो नहीं पाती....अब अगर हम यह कहें कि लोग अपने आप घर में ही ये जांच कर लेते हैं आजकल....(ऐसा नहीं है बिल्कुल, आटे में नमक के बराबर ही लोग हैं जिन्हें यह सुविधा है) ... यह बिल्कुल वैसी बात होगी .. किसी देश की रानी को यह सूचना मिली कि देश में अकाल पड़ गया है, गेहूं की फसल ही नहीं हुई.....तो उसने तुरंत कह दिया....अनाज नहीं हुआ तो न सही, बिस्कुट और ब्रेड खा लिया करें.......उस के बाद फिर क्या हुआ, सब जानते हैं। 
पंगा ले लिया है यह टॉपिक चुन कर ... समझ में आ नहीं रहा कि क्या लिखूं क्या छोड़ूं...बस कुछ अहम् बातें लिख कर इस पोस्ट को बंद कर रहा हूं...

अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार तरह तरह की रक्त की जांचें एवं अन्य जांचे करवाते रहिए
यह सब के लिए ज़रूरी तो है ही ...मधुमेह के रोगियों के लिए तो और भी ज़रूरी है। इस में कोई चूक न होने पाए। 

हां, एक टेस्ट होता है जिस से यह पता चलता है कि आप का ब्लड-ग्लूकोज़ पिछले छः महीने में किस तरह से नियंत्रित रहा ...इसे ग्लाईकोसेटिड हीमोग्लोबिन कहते हैं...इसे भी अपने चिकित्सक की सलाह अनुसार करवा लिया करें।

पेशाब की नियमित जांच 
साल में एक बार या इस से ज़्यादा चिकित्सक जैसा भी कहें..बहुत ज़रूरी है ताकि आप के गुर्दों की सेहत का पता चलता रहे...मधुमेह के रोगियों को इस तरह की तकलीफ़ होने का अंदेशा थोड़ा ज़्यादा होता है। 
नियमित जांच होती रहेगी तो आप आश्वस्त रहेंगे और कुछ भी छोटी मोटी गड़बड़ी होने पर सचेत हो जाएंगे।

ब्लड़-प्रैशर सब को नियंत्रित रखना चाहिए
शूगर के मरीज़ों को तो इस के बारे में और भी सजग रहने की ज़रूरत है...नियमित ईसीजी और रक्तचाप की जांच ..या कोई और भी जांच जिसे आपके चिकित्सक करवाना चाहें करवा लीजिए...

पैरों की देखभाल बहुत ज़रूरी है 
वरना कईं बार पैर का अंगूठा, पैर या टांग का कुछ हिस्सा भी काटना पड़ सकता है अगर बेलगाम डॉयबीटीज़ के चलते गैंगरीन जैसी कोई जटिलता पैरों में हो जाए...हमारे एक अंकल अपने अंगूठे को दिखाने आए थे.. मैं उन दिनों में मैडीकल कालेज रोहतक में काम करता था.. उसी दिन एमरजैंसी में उन के पैर के अंगूठे को काट दिया गया था..नहीं, नहीं, उन की जान बचाने के लिए काटना पड़ा था, उन की शूगर कंट्रोल में नहीं रहती थी..

और आंखों को दिखाते रहिए
क्या मतलब, आंखें किसे दिखाएंगे?..मेरा मतलब आंखें तरेरने से नहीं है, किसे दिखाएंगे आंखे, रोग को और बढ़ा लेंगे...नेत्र रोग विशेषज्ञ से अपनी आंखों का नियमित परीक्षण करवाते रहिए...पहले तो साल में एक बार कहते थे मधुमेह के रोगियों को ..कहीं पढ़ रहा था कि यह जांच छःमहीने में एक बार होनी चाहिए..आप देखिए जैसा भी आप के नेत्र-रोग विशेषज्ञ कहें... और इस से भी पहले अगर कोई भी तकलीफ़ लगे...आंखों में कुछ भी अलग महसूस हो...तो नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास पहुंच जाईए। 

अब मुंह और दांतों की तकलीफ़ों की भी दो बातें
डॉयबीटीज़ के रोगियों में मसूड़ों के रोग होने की संभावना ज़्यादा होती है, अगर मसूड़े बीमार हैं तो ये ब्लड-ग्लूकोज़ को सामान्य होने नहीं देते...और बढ़ी हुई शूगर से मसूड़ों के रोग और भी जटिल होते जाते हैं....it is a vicious circle!... इसलिए मसूड़ों और दांतों की जांच भी नियमित करवाते रहिए... अपने दंत चिकित्सक से ...बचे रहिए जितना हो सके...और एक बात, आम पब्लिक में यह सब से भयंकर डर है कि शूगर का मतलब है कि दांत उखड़वाने के बाद ज़ख्म नहीं भरेगा... खराब भी हो जायेगा......इस का जवाब मेरे पास एक दम पक्का है...पिछले तीस बरसों में शूगर के रोगियों के सैंकड़ों दांत उखाड़ने के बाद एक भी ऐसा मरीज़ नहीं दिखा जिस का ज़ख्म नहीं भर हो....Nature Heals everything, we don't! 

इसे यहीं बंद कर रहा हूं...आज विश्व स्वास्थ्य दिवस के दिन अपने आप से एक प्रण कर के कि ज़िंदगी में मिठास को कम करूंगा.... बस खाने पीने में ही ...और बोलचाल में इसे बढ़ा दूंगा...और अभी टहलने निकल रहे हैं...वरना...औरों को नसीहत, खुद बाबा फजीहत वाली बात हो जायेगी...😄😄😄😄😄😄😄😄😄

Stay healthy..Stay fit... All the best!

हम लोग इधर इतनी सीरियस बातें कर रहें और इधर देखिए ये अपने आप में कितने मस्त हैं...😊 ...Their own inimitable sytle to ward off Diabetes perhaps!


बुधवार, 6 अप्रैल 2016

नाखुन भी बहुत कुछ ब्यां कर देते हैं..

मैं ने किसी से सुना था कि एक अनुभवी चिकित्सक मरीज़ के सेहत के बारे में कुछ कुछ अंदाज़ इस बात से भी लगा लेता है जिस ढंग से वह उस के पास चल कर आया है...निःसंदेह चिकित्सक लोग बहुत महान हैं।

हमारी आंखें तो बोलती ही हैं...दिल की जुबां कहा गया है इन्हें..बेशक हैं, लेिकन चिकित्सक इन को देख कर बहुत सी शारीरिक तकलीफ़ों का पता ढूंढ लेते हैं, मुंह के अंदर झांकने से हमें किसी बंदे की सेहत का कुछ कुछ अंदाज़ा हो जाता है, और हां, जुबान देख कर भी बहुत कुछ पता चल जाता है .. एक १००० पन्नों की किताब को आधी-अधूरी पढ़ कर मैंने छोड़ दिया था...Tongue- in Health & Disease...चकरा गया था मैं उसे पढ़ते पढ़ते...

हमारे बाल, उन का टैक्सचर, उन की मोटाई...हमारी चमड़ी की हालत, हमारे पैरों की अंगुलियों की हालत, और यहां तक कि हमारे नाखुन भी बहुत कुछ ब्यां करते हैं...

नाखुन का ध्यान मुझे कुछ दिनों से ज़्यादा ही आ रहा है...मेरे पैर के अंगूठे के नाखुन का रंग कुछ अजीब सा था पिछले कुछ हफ्तों से.. अकसर इस तरह का काला वाला नाखुन तभी पड़ता है जब कोई चोट वोट लगी हो.....ऐसा मुझे कुछ ध्यान नहीं आ रहा था...

एक दिन सोचा व्हाट्सएप पर सारा दिन फालतू फालतू ज्ञान तो बांटते रहते हैं हम लोग.....किसी काम के लिए ही इसे इस्तेमाल कर लिया जाए.. मेरा मतलब एक तरह की टेलीमेडीसन से था...

पिछले महीने मेरा नाखुन ऐसा था..
मैंने पैर के अंगूठे की फोटो खींची और अपने मित्र डा अमरजीत सिंह सचदेवा को व्हाट्सएप की और पूछा कि यह क्या है...तुरंत जवाब मिला था कि यह फंगल इंफेक्शन है ...फलां फलां दवाई एक महीने में एक हफ्ते के लिए तीन महीने ले लो...

तुरंत शुरू कर दी...एक महीना खा ली है...अभी दूसरे महीने वाले हफ्ते के लिए खा रहा हूं..

आज डा सचदेवा के बारे में कुछ कहने की इच्छा हो रही है...ये एक बेहतरीन चिकित्सक, अनुभवी स्किन स्पैशलिस्ट होने के साथ साथ एक बहुत अच्छे इंसान भी हैं...आए दिन इन के लिखे लेखों की कतरनें व्हाट्सएप पर मिलती रहती हैं... ये अत्याधुनिक तकनीकों का भी पूरा ज्ञान रखते हैं..

मुझे अकसर याद आ जाती है जनवरी २००६ की एक रात ..हम लोग अंबाला से फिरोजपुर जा रहे थे..भटिंडा उतर गये और वहां से गाड़ी नहीं मिली...स्टेशन के वेटिंग रूम में मां को अचानक आंख के आस पास भयंकर दर्द शुरू हो गया..भयंकर दर्द... सारी रात उन्होंने कराहते हुए ही बिताई... अगले दिन माथे पर कुछ दाने दाने से हो गए..और दर्द भी बना रहा।

मैंने डा सचदेवा को फोन किया... उन्होंने एक मिनट बात सुनी और कहा कि मुझे हर्पिज़ ज़ोस्टर Herpes Zoster लग रहा है, किसी चमडी रोग विशेषज्ञ को दिखा लेना ज़रूर....उसी दिन शाम को दिखाया...वही तकलीफ निकली ..तुरंत इलाज शुरू हो गया...आंख के डाक्टर को भी दिखाया गया...क्योंकि इस में कईं बार दृष्टि बाधित होने का भी खतरा बना रहता है .. कुछ दिनों में सब ठीक हो गया..

अभी दूसरे महीने वाली दवाई की खुराक ले रहा हूं (आज की तस्वीर है) 
हां, तो मैं कह रहा था कि नाखुन भी हमारी सेहत के बारे में कुछ कुछ कह देते हैं...कुछ दिन पहले एक महिला आई..दांतों की झनझनाहट से परेशान, उस के घिसे हुए दांत देख कर मैंने पूछा कि क्या आप देशी खुरदरे मंजनों के चक्कर में हैं...जब इन्होंने मना किया तो मैंने फिर से कहा कि बिना इस तरह की चीज़ों के इस उम्र में दांत इतने ज़्यादा तो इस तरह से घिस ही नहीं सकते.. फिर उसने कहा कि मुझे मिट्टी खाना अच्छा लगता है .. पहले तो लोग राख ही खा लिया करते थे, अब चूल्हे-वूल्हे तो रहे नहीं, मैंने पूछा कैसी मिट्टी?...जमीन से उठा कर?...कहने लगीं कि नहीं, ये जो मिट्टी की गोलक आदि होती हैं इन्हें तोड़ कर खा लेती हूं...इस की सोंधी सोंधी खुशबू की वजह से अपने आप को रोक नहीं पाती...

मेडीकल फील्ड में इस आदत का भी अपना एक महत्व होता है .. इसे pica कहते हैं...इस तरह की अवस्था में मरीज़ के रक्त की जांच करवाई जाती है .. मुझे लगा कि शायद रक्ताल्पता (एनीमिया) होगा, लेकिन देखने से तो लग नहीं रहा था, लेकिन नाखुन तो बीमार लग ही रहे थे ..... फिजिशियन के द्वारा जांच करने पर और रक्त की जांच से ही बेहतर पता चलेगा है...उसे सामान्य चिकित्सक के पास भेज दिया था...

बहुत बार नाखुनों से ही शरीर में रक्त की कमी का पता चलता है ...एक अनुमान तो लग ही जाता है...नाखुन खून की कमी के बारे में ही नहीं बोलते, वे दिल की किसी भयंकर बीमारी के बारे में भी कईं बार सचेत कर देते हैं...विशेषकर उन के आस पास की चमडी, उसी तरह से गुर्दे रोग के मरीज़ों में भी नाखुन को कईं बार देखा जाता है...

यह तस्वीर जिस मरीज़ की है उन्हें कुछ गुर्दे की तकलीफ है, दांतों के इलाज के लिए आये थे.. नाखुन देखे तो बड़े brittle और कमजोर से .. अपने आप टूट जाते हैं, इन्हें भी कहा कि सामान्य चिकित्सक को नाखुन भी दिखा दें....पहले कभी दिखाए नहीं, मुझे याद है पहले एक routine हुआ करता था..किसी भी चिकित्सक के पास जा कर ...जिसे General Physical Examinaiton कहते थे..हम अपने सीनियर प्रोफैसरों को भी यह सब करते देखा करते थे..और फिर बेड पर लिटा कर मरीज़ के पेट को एग्ज़ामिन करना, टैप करना, प्रकस्स करना, पेलपेट करना (Percussion and palpation are medical terms)... शायद आज कल विभिन्न मैडीकल जांचों के चक्कर में इस की जरूरत नहीं पड़ती होगी, मुझे नहीं पता....शायद पता तो है ...

जो भी हो, मरीज़ों को इस से बहुत संतुष्टि मिलती रही है और रहेगी.....वह अलग बात है कि डाक्टरों की अपनी अलग मजबूरियां हैं और रहेंगी.....वह अलग मुद्दा है ..हमेशा बना रहेगा...It is very easy to comment on such an issue! .... times have changed and fast changing..(लिखते लिखते बस यह ध्यान आ गया कि जो चिकित्सक प्राईवेट प्रैक्टिस में हैं, अगर वे तीन चार पांच सौ फीस ले लेते हैं तो यह कहां ज़्यादा है....किसी को देख कर, उस से बात कर के, उस के हाथों को देख कर अंदर की बातें जान लेते हैं...और आप को उचित दवाई एवं मशविरा देते हैं...हमेशा डाक्टरों का सम्मान होना चाहिए...)

नाखुन की चमक होना या न होना, नाखून कितने मजबूत हैं ..क्या वे अपने अपने टूटते रहते हैं, बिल्कुल छोटे छोटे रह जाते हैं...महिलाओं में सर्दी के दिनों में विशेषकर नाखूनों की समस्याएं....बहुत कुछ है नाखुनों के बारे मे कहने लिखने सुनने को .....

बात बस रेखांकित करने वाली इतनी है कि किसी भी तकलीफ के लिए अपने आप दवाई लेना मत शुरू कर दीजिए...न काला होने के लिए , न गोरा होने के लिए...न ही दाद-खुजली को अपने आप ही ठीक करने लगिए...चिकित्सकों ने बीस-तीस साल तपस्या की होती है ....कईं बार लगता है कि हर चिकित्सक एक तरह का डिटेक्टिव ही है....जैसे वह हर बात में लक्षण ढूंढने लगता है।

मेरे मित्र थे बंबई में ..डा जगदीश रावत...बड़े अच्छे मनोरोग विशेषज्ञ.......मैं उन्हें अकसर कहा करता था कि रावत, तुम से बात करते हुए कईं बार ऐसा लगता है कि तुम यार मनोविश्लेषण - psychoanalysis कर रहे हैं...वैसे यह काम मनोरोग विशेषज्ञ ही नहीं करते....आज कल हिंदी ब्लॉगिंग के विषय पर कुछ लोग पीएचडी आिद कर रहे हैं.....उन की एक प्रश्नोत्तरी आई थी...चार पांच पेज की ..ईमेल से....मेरे इस ब्लॉग लिखने के अनुभव के बारे में, क्या लिखता हूं, कितना फ्रैंक हूं, क्या ब्यां कर देता हूं, क्या छिपाता हूं...सब कुछ, हम भी जैसे हैं बिल्कुल साफ साफ एक दम सच सच जवाब दे दिया था...अगर हमारी बातें किसी के काम आ जाएं!

ठीक है, आंखें दिल की जुबां होती हैं लेकिन हमारे शरीर के शेष हिस्से भी बहुत कुछ बोल जाते हैं....गाहे बगाहे..

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

बीड़ी नहीं मारी, तो सिगरेट ही सही ...

यह जो मुंह के अंदर की तस्वीर आप इस में देख रहे हैं.. यह एक ५५-५८ साल से पूरूष की है ..यह कल मेरे से एक जाड़ उखड़वा कर गये हैं..मुझे याद था अच्छे से कि ये कुछ आठ-दस महीने पहले भी कुछ दांत उखड़वा के गये थे...ये हृदय रोग से पीड़ित हैं, इन की सर्जरी हो चुकी है, मधुमेह की दवाईयां भी ले रहे हैं..


जब मैंने इन के तालू को देखा तो मैंने इनसे पूछा कि आप ने तो बीड़ी छोड़ दी थी...मुझे अच्छे से याद है महीनों पहले मेरे कहने पर अपनी बीड़ी का बंडल मेरे रूम के डस्टबिन में फैंक गये थे..कहने भी लगे कि डाक्साब, आपने जिस दिन मेरी मेरा बीड़ी का फैंक फिंकवा दिया था, उस दिन के बाद से मैंने बीड़ी छुई नहीं...मुझे पता है उस दिन मैंने जब इन के तालू की इस तकलीफ़ के बारे में इन्हें बताया था तो ये रो पड़े थे...मैंने कहा था कुछ नहंीं, अभी कुछ नहीं ...आप बीड़ी छोडिए तो, यह ठीक हो जायेगा कुछ हफ्तों में, देखते रहेंगे.

लेिकन आज आठ-दस महीने बाद बीड़ी छोड़ने के बावजूद भी इस तरह का ज़ख्म दिखना सामान्य नहीं थी, वरना पूरी तरह से ठीक न भी हो, कुछ तो कम अवश्य ही हो जाता।

मैंने जब फिर से पूछा कि कुछ तो लफड़ा अभी भी कर रहे हो!.. फिर इन्होंने धीमे से कहा कि बस दो तीन सिगरेट पी लेता हूं...मैंने कहा कि बीड़ी नहीं तो सिगरेट ही सही...यह किस ने कह दिया!. यह कहने लगे कि आपने सिगरेट का तो कुछ कहा ही नहीं था, मेरे साथ काम करने वाले साथियों ने भी यही कहा कि दो तीन सिगरेट से कुछ भी नहीं होता...कश खींच लिया करो..बस, मैंने उस के बाद दो तीन सिगरेट..बस दो तीन डाक्साब, पीने लग गया...

मुझे बड़ी हैरानी हुई....

चलिए इस स्टोरी को और कितना खींचे, मैंने कल भी उन्हें उन के मुंह के अंदर की इस तस्वीर को दिखाया...मैंने कहा कि यह ज़ख्म तो आप देख रहे हैं, पिछले साल भी दिखाया था मैंने, और यह ज़ख्म वह है जहां पर हम इसे आसानी से देख सकते हैं...आगे गले में, पेट में, फेफड़ों में यह तंबाकू क्या क्या कर रहा होगा, उस के बारे में भी सोचिएगा...और यह बिलकुल भी थ्यूरी नहीं है, यह सब हो रहा है..

फोटू देखने के बाद उसे लगा कि अब तो सिगरेट का भी त्याग करना पड़ेगा...मैंने कहा कि सिगरेट भी फैंक जाइए कचड़ादान में....कहने लगे कि आज जेब में है ही नहीं, लेिकन आगे से पीऊंगा नहीं...

हां, तो इस मरीज़ के तालू में है क्या, यह जो ज़ख्म है यह तंबाकू के धुएं की वजह से है ..और यह कैंसर की पूर्वावस्था है ..(oral pre-cancerous lesion) ..एक तरह से खतरे की घंटी..अगर बंदा इस अवस्था में भी नहीं संभले तो कुछ भी हो सकता है..यह अवस्था किस मरीज़ में कैंसर का रूप ले लेगी और किस में नहीं....इस का ध्यान रखने के लिए निरंतर कुछ महीने के बाद जांच और सब से ज़रूरी तंबाकू तो छोड़ना ही होगा... किसी भी रूप में!

अकसर बीड़ी -सिगरेट पीने वाले के तालू इस तरह की तकलीफ़ से यूं ही प्रभावित हो जाते हैं...मैंने कईं बार लिखा है इस ब्लॉग में कि मुंह मे किस तरह का घाव है, और किस जगह पर है, उस से मरीज़ की विभिन्न आदतों का पता चल जाता है ...



देश में अनेकों भ्रांतियां है...कोई सिगरेट छोड़ बीड़ी पीना शुरू कर देते हैं... लेकिन फिर भी इस के प्रकोप से कोई भी नहीं बच पाया..कुछ तकलीफ़ें तो मैंने ऊपर गिना दीं, हार्ट की तकलीफ़, दिमाग की नसों की परेशानी, पैरों के रक्त के बहाव में दिक्कत......यार, शरीर का कोई भी अंग ऐसा है ही नहीं जिस पर तंबाकू का बुरा असर नहीं पड़ता हो...(I feel like getting it engraved on a stone!...there are no ifs and buts!!)

यह बात सरकारें भी चीख चीख कर बता रही हैं ...हम भी यही बातें करते रहते हैं ....लेकिन हमारी आवाज़ों की बजाए इस तरह के नीम हकीमों की चीखें...कहीं ज़्यादा कारगर हैं...आज दोपहर कार की सर्विसिंग के लिए जाते हुए देखा कि इस सड़कछाप दवाखाने में इतने बढ़िया तारीके से और पूरी गारंटी के साथ तंबाकू से होने वाले घावों को दूर करने की बात की जा रही थी...एक अच्छे से मयूज़िक सिस्टम पर......आवाज़ इतनी बढ़िया, साउंड सिस्टम एक दम परफैक्ट, रिकार्डिंग का अंदाज़ भी बढ़िया......लेकिन कंटैंट बिल्कुल रद्दी, भ्रामक, गुमराह करने वाले, जाल में फंसाने वाला.....रोग को बढ़ावा देने वाला....

वैसे इस के साउंड-सिस्टम से मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये...रेडियो के अलावा कुछ मनोरंजन का साधन तो था नहीं...बस, कभी कभी अड़ोस पड़ोस में किसी के यहां शादी-ब्याह या कथा-कीर्तन से पहले बड़ा सा लाउड-स्पीकर ज़रूर बजने लगता था कुछ घंटों के लिए...हम लोग तो जैसे उस की इंतज़ार ही किया करते थे कि कब यह बजना शुरू हो और कब हम नाटक करें कि इतनी आवाज़ में पढ़ा नहीं जा रहा ... चुपचाप शोले फिल्म के डॉयलॉग, सीता गीता के गाने, जट जमला पगला दीवाना वाला गीत...गीता मेरा नाम ...ऐसी ऐसी फिल्में के गाने बजते रहते थे...जो उस गोल वाले रिकार्ड चलाने वाले तक पहुंचने का जुगाड़ कर लिया करता था, उस की पसंद का रिकार्ड लग जाया करता था....

कोई गल नहीं जी कोई गल नहीं... आज का दौर तो और भी अच्छा है, जो सुनना चाहें..यू-ट्यूब कुछ सैकेंड में सुना कर खुश कर देता है ..मुझे अपने बचपन के दौर का एक ऐसा ही गीत अभी ध्यान में आ रहा है..आप भी सुनिए...



अभी अभी मुझे अपने सतसंग व्हाट्सएप ग्रुप पर यह मैसेज दिखा...अच्छा लगा...
वैसे बात है तो सोचने लायक!

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

जुबान और गाल के जल्दी ठीक होने वाले अल्सर

कुछ घाव जुबान और गाल के अंदरूनी हिस्सों में बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं...अगर मरीज़ तुरंत किसी डेंटिस्ट को दिखा दे..

संयोग से परसों दो मरीज़ ऐसे ही आये कि इस विषय पर कुछ लिखा जाए...अकसर हर दिन ओपीडी में एक मरीज़ तो ऐसा आ ही जाता है।

ऐसे अधिकतर मरीज़ इतने खौफज़दा होते हैं कि उन्हें लगता है कि जैसे मुंह में कैंसर हो गया है.. केवल डेंटिस्ट के देख लेने से ही इन्हें बहुत ज़्यादा राहत महसूस होती है।

किताबों में भी लिखा है...हमारे प्रोफैसर भी कहा करते थे कि दांतों की इस तरह की लंबे समय तक चलने वाली रगड़ की वजह से कैंसर हो जाने का अंदेशा रहता है .. जी हां, होता तो है..लेकिन जब इस तरह की रगड़ बरसों पुरानी हो, मुंह के ज़ख्म को बिल्कुल नज़रअंदाज़ किया गया हो... साथ में पान या तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन से भी रिस्क तो बढ़ ही जाता है।

अकसर मैंने देखा है कि मुंह में इस तरह का ज़ख्म होने पर मरीज़ या तो अपने आप कुछ न कुछ लगा कर ठीक करने की कोशिश करता है, कैमिस्ट से कुछ भी ले लेता है लगाने के लिए, कुछ "सुखाने वाले कैप्सूल" ले लेता है, बिना वजह बी-कम्पलैक्स खाता रहता है, किसी दूसरे विशेषज्ञ को दिखाता रहता है .....सब कुछ ट्राई करने के बाद फिर वह किसी के कहने पर दंत चिकित्सक के पास जाता है ...जहां से उसे इस तकलीफ़ की जड़ का पता चलता है।

यह जो ऊपर तस्वीर लगाई है मैंने यह किसी ५०-५५ साल की महिला की तस्वीर है ...आप देख सकते हैं कि जुबान के घाव के सामने ही एक निचली जाड़ का किनारा टूटा हुआ है ...और इस नुकीले कोने की वजह से यह ज़ख्म हो गया है ... कुछ खास करना होता नहीं, एमरजैंसी के तौर पर बस उस कोने को तो उसी समय खत्म करना होता है ...और बहुत बार तो इस ज़ख्म पर कुछ भी न तो लगाने की ही ज़रूरत होती है और न ही कोई दवा खाने की ...बहुत ही जल्दी दो तीन दिन में ही यह सब कुछ बिल्कुल ठीक हो जाता है ...

वैसे उन नुकीले कोने को गोल करते ही मरीज़ को बहुत राहत महसूस होने लगती है... और बस कुछ दिन मिर्च-मसाले-तीखे से थोड़ा सा परहेज बहुत ज़रूरी है ..ज़ख्म भरने में मदद मिलती है।

कुछ दिन बाद पूरा इलाज तो करवाना ही होता है ...अगर दांत भरने लायक है तो उसे भरा जाता है, उखाड़ने लायक तो उखाड़ा जाता है ...और अगर उस पर कैप लगवाने की ज़रूरत हो तो मरीज़ को बताया जाता है...जैसे भी वह निर्णय ले सब कुछ समझ कर।

यह जो दूसरी तस्वीर है यह भी एक निचली जाड़ के टूटे हुए नुकीले कोने की वजह से है...लेकिन इस तरह से गाल में इस तरह का ज़ख्म कुछ कम ही दिखता है ...मैंने ऐसा नोटिस किया है...इस मरीज़ को इस ज़ख्म के आसपास सूजन भी थी... इन्होंने कभी तंबाकू, गुटखे, पान का सेवन नहीं किया....इन के भी टूटे हुए दांत के नुकीलेपन को दूर किया तो इन्हें तुरंत बहुत राहत महसूस हुई ... पूछने लगे कि मुझे मधुमेह है ...ज़ख्म का क्या होगा, मैंने कहा कुछ नहीं करना, बस दो चार दिन बाद दिखाने आ जाईयेगा...और नीचे वाला हिलता हुई टूटा दांत उखाड़ना ही पड़ेगा...

हां, इन के साथ ही एक बुज़ुर्ग भी थे...७५-८० साल के ...बस, यही तकलीफ कि दांत के कोने नुकीले होने की वजह से ज़ख्म हो गये हैं....बड़े फ्रैंक हैं वे...कहने लगे कुछ दिन घर में कुछ जुगाड़ किया इस के लिए...नहीं हुआ तो सोचा चलिए अपने अस्पताल में ही चलते हैं....प्राईव्हेट में तो हाथ लगाने के तीन चार सौ लग जाएंगे....

मैंने यही सोचने लगा कि जो कोई भी प्राईवेट क्लीनिक खोल के बैठा है ... उस ने भी अपने सारे खर्च वहीं से निकालने हैं....३००-४०० रूपये कुछ ज़्यादा भी नहीं है...उसे इस तरह की तकलीफ़ का सटीक निदान एवं उपचार करने के लिए तैयार होने के लिए कितना अपने आप को घिसाना पड़ा होगा....और किसी मरीज़ की किसी बड़ी चिंता को दूर करने के लिए, उसे ठीक करने के लिए तीन चार सौ रूपये कुछ ज़्यादा नहीं है ....शायद एक पिज़्जा या गार्लिक ब्रेड ५००-६०० की है, और ये जो फेशियल-वेशियल के भी तो इतने लग जाते हैं....फिर अनुभवी चिकित्सकों की फीस ही क्यों चुभती है....हम लोग कभी प्राईव्हेट में किसी चिकित्सक के पास जाते हैं तो मैं वहां बताता ही नहीं कि मैं भी डाक्टर हूं...जहां तक संभव हो...उन की जो भी फीस है ४००-५०० चुपचाप चुकता करनी चाहिए....अगर उन्हें पता चलता है और वे फीस लौटा देते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है ....इस तरह की मुफ्तखोरी बहुत बुरी बात है! और ये महान् चिकित्सक हैं उन्हें किसी मरीज़ के साथ दो मिनट से ज़्यादा बात करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती ....मैं ऐसे लोगों के फन को सलाम करता हूं..

अच्छा अब चित्रहार की बारी है... यह गीत ..पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है... ब्यूटीफुल .... यह सुबह से ही बार बार याद आ रहा है ...पता नहीं क्यों! अभी इसे सुन ही लूं... तो चैन पड़े...


कपूर एंड संस के भी दर्शन कर ही आइए...


क्रिकेट में रूचि बिल्कुल भी नहीं है ...जिस दिन क्वार्टर-फाइनल मैच था.....उस दिन हम लोग कपूर एंड संस देख आए...जिस तरह से हम लोग स्कूल-कालेज के दिनों में कोई फिल्म देखना नहीं छोड़ा करते थे, उसी तरह से अपनी सुविधा अनुसार कभी कभी फिल्में देख लेनी चाहिए...मेरा कहने का मतलब है थियेटर में जा कर ...क्योंकि फिल्म देखना वहीं अच्छा लगता है।

और फिल्म लगने के बाद जितनी जल्दी हो सके, अगर थियेटर में जा पाएं तो हो आइए... क्योंकि आज कल सब पैसे का खेल ...इतने करोड़, उतने करोड़ का धंधा हो गया...बस, तुरंत अधिकतर फिल्में कुछ ही दिनों में उतर जाती हैं...हम लोगों के ज़माने में सिल्वर जुबली फिल्में हुआ करती थीं...२५ सप्ताह तक फिल्में चल आना एक आम बात थी।
इस से पहले कि मैं भटक जाऊं..वापिस कपूर एंड संस पर लौट आते हैं!

किसी भी फिल्म या साहित्य के बारे में एक बात तो हमें अच्छे से याद रखनी चाहिएं कि फिल्में और साहित्य किसी भी दौर में उस समय के समाज का आईना होता है ...फिल्में वही दिखाती हैं जो उस समय के समाज में घट रहा होता है।
कपूर एंड संस फिल्म अच्छी थी....एक मध्यमवर्गीय घर घर की कहानी सी लगी...उन की मजबूरियों, आडंबरों, दिखावा, डबल-स्टैंडर्ड्स, तनाव, चिंता, कशमकश, हंसी के लम्हों, पारस्परिक संबंधों, विवाहेतर संबंधों- extra-marital relationships की कहानी है यह कपूर एंड संस...

मैं इस फिल्म की कहानी आप को बिल्कुल भी नहीं बताना चाहता.... लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि फिल्म है तो देखने लायक ..ज़रूर देख कर आईए.....जैसे कि अकसर में होता है हम इन सामाजिक फिल्मों से कुछ भी ग्रहण करना चाहें कर सकते हैं।

यार, वैसे फिल्म में खपखाना बड़ा है, सारा समय सारा परिवार ..कोई न कोई किसी ने किसी से उलझता दिखता है ...टैं, टैं, टैं....हम जब फिल्म देख कर वापिस लौट रहे थे तो हमारा इस बात पर एकमत था कि इतने खपखाने फिल्म तो थियेटर में ही देखना संभव है..क्योंकि वहां पर टिकट खरीदी होती है ..घर में तो पंद्रह मिनट के बाद बंदा उठ जाए..शायद यह पटकथा की विवशता है ...होगी!


फिल्म के सभी किरदारों ने ..😄 ..Rishi Kapoor, रजत कपूर, रतना पाठक शाह, फवाद खां, सिद्धार्थ कपूर, आलिया भट्ट ने अच्छा काम किया है ...

हम लोग यही सोच रहे थे कि रिशी कपूर की फिल्म में उम्र तो इन्होंने ९० साल की कर दी ..मेकअप भी वैसा कर दिया..लेिकन उस की हरकतें उस के मेकअप और उम्र के साथ मैच नहीं कर रही थीं...वैसे खुशमिजाज बंदा है फिल्म में भी ..लेकिन उसे देखते ही मुझे तो उस के सभी सत्तर-अस्सी के दशक के गाने और मैंने इन्हें मई १९७५ में सन एंड सैंड होटल में अपनी कज़िन की शादी के दौरान देखा था...वह उधर टेबल-टेनिस खेल रहा था...और इस फिल्म में वह उस दिन मड-पैक लगाते हुए दिखा...समय मुट्टी में बंद रेत की तरह से झट से खिसक जाता है..

मुझे तो Rishi kapoor के राजकपूर साहब के गीत ही याद आये जा रहे थे...  ...

ओव्हरहाल अच्छी फिल्म है ...जैसा कि मैंने कहा कि कोई भी अच्छी फिल्म समाज का आईना ही होता है ...यह भी है..जिस तरह से यंगस्टर्ज़ की पार्टीयां, उन का रहन सहन, लाइफ-स्टाईल बहुत चेंज हो गया है..सब कुछ इस फिल्म में देखा जा सकता है ...

मुझे दुःख इस बात का हुआ कि ९० साल के Rishi kapoor की यह इच्छा पूरी न हो सकी कि एक पूरे परिवार की फैमली फोटो होनी चाहिए उस के बेड के सामने... नहीं, नहीं, उन्हें कुछ नहीं हुआ लेिकन फिर भी इच्छा अधूरी रह गई....यही जानने के लिए कह रहा हूं आज ही देख कर आइए.........Kapoor & Sons since 1921..

PS.... Didn't you notice that i wrote Rishi Kapoor in English only...'coz i don't know how to write it in Hindi ..मुझ से हर बार रिषि ही लिखा जाता है..

रविवार, 3 अप्रैल 2016

जाको राखे साईयां..

हमारी नेचर है कि हम पल में तोला..पल में मासा हो जाते हैं, है कि नहीं हमारी ऐसी ही फितरत...किसी को दो पूड़ी दिलाकर अपने ऊपर दाता का टैग चिपका लेते हैं, कोई बात किसी की ठीक न लगे तो झट से उतावले हो जाते हैं...हर वक्त ऐसा ख्याल तंग करता है ना जैसे कि हम ही सब कुछ चला रहे हैं..हम नहीं रहेंगे तो पता नहीं जैसे दुनिया रूक जायेगी... लेिकन कभी कभी परिस्थितियां कुछ हट के सोचने पर मजबूर कर दिया करती हैं।

हमारे बाथरूम की खिड़की को इस हालत में देख कर यही लगता है ना कि पता नहीं मुद्दतों से इस की सफाई न हुई हो..आप ठीक सोच रहे हैं... इस की सफ़ाई तो क्या, पिछले तीन चार महीनों से यह खुली भी नहीं है..और हमारी डोमेस्टिक हेल्प को भी मेरे छोटे बेटे के इस आदेश का पालन करने की हिदायत मिली हुई है...

राघव अपनी दोस्त के साथ .. 
छोटा बेटा...राघव...पता नहीं यार किस मिट्टी का बना है वह...मेरी मां कहती हैं कि यह तो कोई देवता ही रहा होगा.. मुझे भी लगता है कभी कभी ..बेहद संवेदनशील...बड़े होकर गली के डॉगी लोगों के लिए एक बड़ा सा प्लाट लेकर उन के लिए बसेरा बनाने की बातें किया करता है...कितने सालों तक स्कूल से आने पर ब्रेड लेकर कालोनी के डॉगियों के पास पहुंच जाया करता था... वे भी जैसे इस के स्कूल के आने का इंतज़ार ही किया करते थे...पूंछ हिलाते इस के पीछे पीछे.. जानवर-पक्षी को कुछ भी डालने से पहले से मां से यह पूछ लेता है कि हम इसे क्यों नहीं खा रहे?...कईं बार मैंने उसे कहते सुना है िक जो चीज़ हमारे खाने लायक नहीं है, वह इन के लिए कैसे ठीक हो सकती है! ... बिल्कुल छोटा सा था, पहली दूसरी कक्षा में...एक बार मैं उसे स्कूटर से घर ला रहा था, रास्ते में एक घोड़ा-गाड़ी में जुते हुए घोड़े को उस की गाड़ी पर लदे सरिये की वजह से चोट लग गई...बेचैन हो गया...कहने लगा इस की पट्टी के लिए पैसे दो...उस गाड़ी वाले को घोड़े की पट्टी के लिए सौ रूपया देकर इसे थोड़ा चैन आया...कभी झूठ नहीं बोलता..... God bless you, Raghav. Love you!...ऐसे ही बने रहना..Today's world needs kind-hearted persons like you very much!

हां, तो बात यह थी कि राघव ने कुछ महीने पहले घर के एक बाथरूम की खिड़की पर एक पक्षी के कुछ अंडे देखे...हमारी मजबूरी थी कि हम उस पक्षी को कुछ दाना वाना डाल नहीं सकते थे...पहली मंज़िल का फ्लैट है...लेकिन राघव ने निर्देश दे दिया कि जब तक ये बच्चे उड़ने लायक नहीं हो जायेंगे, इस खिड़की को कोई नहीं खोलेगा।
वैसा ही किया गया... कभी कभी मैं और बहुत बार श्रीमति जी खिड़की की तरफ़ देख आतीं...लेकिन हम ने उसे खोला नहीं...

मुझे तो वैसे ही लग रहा था...जैसे कि मेरी निराशावादी सोच तो है... कि खिड़की न खोलने से भी होगा क्या... दो चार दिन में अंडे गिर जाएंगे...चलिए, बच्चे की बात रख लेते हैं। देखते ही देखते कुछ दिनों में एक छोटा सा घोंसला भी तैयार कर लिया इस पंक्षी ने...



लेकिन नहीं, वही बात ...जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो वाली बात....सच कहूं मैं तो भूल ही चुका था, कुछ हफ्तों के बाद अचानक श्रीमति जी ने बताया कि पक्षी के बच्चे बड़े हो गये हैं...यह ऊपर वाली तस्वीर उन्हीं दिनों की है ....

बहुत खुशी हुई....हम से ज़्यादा खुशी राघव को होस्टल से लौटने के बाद उन्हें देख कर हुई...

पिछले कितने ही हफ्तों से हम ने नोटिस किया कि जब से छोटे छोटे बच्चे उस छोटी सी जगह पर बैठे हुए थे, जब भी कभी हम उस बाथरूम में जाते तो यह पक्षी टक-टक हमारी तरफ़ ही नज़रें गडाए रहता... डरा, सहमा सा ...यह बात राघव ने भी नोटिस की...

अचानक आज खुशखबरी मिली श्रीमति जी से कि बच्चे खूब बड़े हो गये हैं....तुरंत मैं भी देखने गया... मन झूम उठा...अब ये कभी भी उड़ारी मार जाएंगे....यह वाली तस्वीर अभी ली है ..सोचा कि राघव को भेजूं...फिर सोचा पोस्ट ही लिख देते हैं..
"We are ready to take off, folks! ...Thanx for bearing with us!!"
मैंने उन के इतने बड़े हृष्ट-पुष्ट शरीर पर आश्चर्य ज़ािहर करते हुए यही कहा कि ऐसे कैसे बिना खाए पिए इतने बड़े....श्रीमति ने तुरंत याद दिलाया...ऐसे कैसे बिना खाए पिए...उन की मां लाती होगी उन के लिए रोज़ कुछ। ठीक कहा।



लेिकन यह वाक्या हमेशा याद रह जायेगा....जब भी अहम् सिर पर चढ़ने लगेगा तो इसे ही याद कर लिया करेंगे ..कि हर जगह ईश्वर हर प्राणी की रक्षा कर रहा है और हम कितनी बेवकूफ़ी से क्रेडिट लेना चाहते हैं!

इन तीन महीनों में एक तरह के वातावरण में बहुत से परिवर्तन आए... आंधियां तूफ़ान भी तो आए थे...लेकिन  वही बहात है ....वो चिराग क्या बुझे....फ़ानूस बन कर जिस की रक्षा खुदा करे...

Thanks, Raghav dear, for teaching another lesson in life! ....First was..of course, Patole babu Story.. from your text book!.You know what i mean!


पिछले दिनों गोरैया को बचाने की बड़ी मुहिम चली थी...यहां लखनऊ के डीएम ने स्कूलों में जाकर बच्चों को शपथ दिलाई कि वे गोरैया को बचाएंगे... प्रधानमंत्री मोदी ने भी पिछले रविवार अपनी मन की बात में इन नन्हे परिंदों के लिए दाना-पानी रखने के लिए कहा था...करते रहो यार कुछ भी ... जो भी बन पाए...बस अपनी धुन में लगे रहिए...कोई कुछ भी कहे जो आप के मन को अच्छा लगे, लगे रहिए बस....that's life real mantra!

अपने घर की बालकनी में, बाग-बगीचे में इन के बसेरे का भी कुछ जुगाड़ हो जाए तो कितना अच्छा हो... मैं भी कभी कभी क्या करता हूं, सुबह सुबह आप सब को इमोशनल कर दिया... क्या करें कभी कभी हम लोग लिखते नहीं, कलम अपने आप ही चल पड़ती है ...आज भी कुछ ऐसा ही हुआ है...Just want to share with you all that writing a post is just another meditative experience for me!

सत्संग में सुनी एक बात याद आ गई....
क्या बनाने थे क्या बना बैठे..
कहीं मस्जिद बना बैठे, कहीं मंदिर बना बैठे..
हम से तो अच्छी है परिंदों की ज़ात..
कभी मंदिर पे जा बैठे, कभी मस्जिद पे जा बैठे...

अपने मित्र योगेन्द्र मुदगिल की ये बात भी ध्यान आ गई जाते जाते...
मस्जिद की मीनारें बोलीं मंदिर के कंगूरों से ..
हो सके तो देश बचा लो, 
इन मज़हब के लंगूरों से... 







बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में...

कल जब मैं अस्पताल से घर लौटने के लिए अपने रूम के बाहर बरामदे में था तो वह बुज़ुर्ग महिला मिल गईं...जी हां, ७५ के आस पास ज़रूर होंगी...प्रेम, वात्सल्य, करूणा, अनुकंपा की मूर्त जैसी ...वह मेरे साथ पहले अपने पति के साथ कईं बार आई हुई हैं...उन से भी चला नहीं जाता...कठिनाई से ही चल कर जैसे-तैसे अस्पताल में हर महीने अपनी दवाईयों को लेने आते हैं..

जैसा कि मैंने कहा कि यह बुज़ुर्ग मां बोलने में इतनी कोमल हैं कि मैं ब्यां नहीं सक सकता...इतने ठहराव से अपनी बात कहती हैं...कल भी जब हम दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया तो बड़े ही आराम से कह दिया इन्होंने....आज काम नहीं करोगे क्या?

मैंने पूछा ..बताईए तो काम क्या है! कहने लगीं कि दांत काले काले से हो रहे हैं, अगर ठीक हो जाते तो अच्छा था..वहीं खड़े खड़े ही उन्होंने अपने आगे के दांत दिखाने चाहे। मैं समझ गया...लेिकन मुझे अचानक ध्यान आया कि जब यह अपने पति के साथ उन के इलाज के लिए आया करती थीं तो भी मैंने इन्हें इस कालेपन को दूर करने के लिए कहा था...तब तो यह थोड़ा झिझक कह लीजिए या कुछ ....ऐसे ही टाल गई थीं ...इतना कहते हुए.."अब इस उम्र में!"

मैंने अपने असिस्टैंट को आवाज़ दी ...खोलो यार रूम। इस तरह के मरीज़ों का अस्पताल तक पहुंचना ही एक दुर्गम काम होता है, ऐसा मैं सोचता हूं और अपने आसपास भी लोगों को इस के बारे में सेंसीटाइज़ करने की कोशिश करता हूं। 

हम लोग अंदर आ ही रहे थे कि मेरे मुंह से एक गलत कहावत निकल गई ...मैंने अपने असिस्टेंट से कहा ...सामान लगाओ, मशीन चालू करो... आज न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...वह इतनी सचेत थीं कि अपने नर्म अंदाज़ में कहने लगीं कि दांत उखाड़ोगे क्या! मैंने सोचा ..कहावत का इन्होंने यह मतलब ले लिया... नहीं, नहीं, कुछ नहीं,  बस इन्हें चमका देंगे...तब कहीं जा कर उन्हंें कहीं इत्मीनान हुआ...

दरअसल मैं कहना तो चाह रहा था कि इस कालिख वाले कांटे को अभी दूर किए देते हैं..लेकिन कहां बांस और बांसुरी ... चलिए, कोई बात नहीं, पांच दस मिनट में यह मां अपने चमकते दांत देख कर खुश हो गईं... 

इन्हें ब्रुश-पेस्ट के सही इस्तेमाल के बारे में तो मैं पहले ही बता चुका था...जाते जाते कहने लगीं कि मैं तो अभी भी इस कालिख को नहीं उतरवाती, लेिकन नाती-पोतों ने कुछ बार टोक दिया कि दादी, यह क्या, आप हंसती हो तो ....अच्छा नहीं लगता...बस, यही बात इन्हें छू गई। 

एक बार इन्हें फिर से बुलाया है पॉलिशिंग के लिए... लेकिन इन्हें खुश देख कर मैं और मेरा असिस्टेंट भी बहुत खुश हुआ...पांच दस मिनट भी नहीं लगे होंगे...आज कल यह काम बिना किसी दर्द, परेशानी के अल्ट्रासानिक स्केलर से सहज ही हो जाता है .. काम पूरा होने के बाद मैंने इन्हें कहा आप चाहें तो आइने में देख लीजिए.....बड़े झिझकते हुए फिर कहने लगीं.....नहीं, ऐसा भी क्या......!!!!

कईं बार कुछ ऐसी बातें घट जाती हैं जो यही सिखाती हैं कि हम लोगों की बड़ी बड़ी खुशियां कितनी छोटी छोटी बातों में पड़ी-धरी रहती हैं। 


यह तो एक डाक्टर और लेखक की बातें....अब कुछ बातें शुद्ध डाक्टरी की ...जिस तरह की तकलीफ़ इन्हें हैं, इन्हें तो केवल दांतों की अच्छे से सफाई न करने की वजह से यह थी, लेकिन अधिकतर पान, गुटखा खाने वाले में तो यह सब बहुत ही आम समस्या है ...लेिकन उन के केस में मैं इसे एक उपाय की तरह इस्तेमाल करता हूं कि पहले गुटखा, पान छोड़ो फिर इन दांतों को चमकवाओ...वरना, कुछ दिनों में तो फिर से यह सब कुछ इक्ट्ठा हो जायेगा... कुछ की समझ में बात आ जाती है और वे प्रेरित भी हो जाते हैं..गुटखे, पान, तंबाकू को हमेशा के लिए छोड़ने के लिए....क्या करें, लत छुड़वाने के लिए कईं जुगाड़ करने पड़ते हैं....बस, ये कंपनियां ही थोड़े न अपने हथकंड़ों से लोगों को इस लत का शिकार बनाती रहेंगी...

हां, एक बात और ...कईं बार इस तरह के टारटर की वजह से शायद किसी को इस के सिवा कोई तकलीफ नही हो सकती कि देखने में बुरा लगता है ..लेिकन फिर भी लोगबाग इस की परवाह कम ही करते हैं...लेिकन इस तरह के टॉरटर की वजह से मसूड़ों एवं उस के नीचे की हड़्ड़ी की परेशानी निरंतर बढ़ती ही रहती है ....इसे अच्छे से ठीक करवाने के बाद, बेकार की आदतों से निजात पा कर, अच्छे से रोज़ाना ब्रुश से दांतों की और जीभ की सफाई करने के अलावा कोई इस का क्विक-फिक्स उपाय है ही नहीं, न ही कभी होगा....कुछ भी खाने के बाद कुल्ला कर लिया करें तुरंत ..

लेकिन कईं बार कुल्ला नहीं हो पाता....कल दोपहर मैंने भी कहां किया!.....केसरबाग सर्कल की तरफ़ जाना था, उस की कचौड़ी देख कर रहा नहीं गया...दिल और दिमाग में जंग भी हुई कि मत खा, लेकिन दिल जीत गया और खा ली कचौड़ी ...खाने से ठीक पहले, एक पेपर बेचने वाला कहीं से सामने आया ..बड़े आहिस्ता से कहने लगा, पूड़ी दिलवाओगे, मैंने कहा ..हां, हां, आओ यार, खाओ.....उसे क्या पता कि यह तो वैसे भी हमारी फैमली का प्रण है ...बच्चों का भी, और मुझे यह बहुत अच्छा लगता है...बरसों पुराना वायदा अपने आप से कि  जब बाज़ार में कोई भी कुछ भी खाने के लिए मांगेगा... परवाह नहीं उस समय हम क्या खा रहे हैं... तुरंत उस के पेट की आग शांत करना ही उस समय का सब से बड़ा धर्म है ...और उस समय चाहे बंदा एक हो या चार पांच दस हों, कभी टालना नहीं होता....क्या फर्क पड़ता है, मांगना बहुत मुश्किल होता है, पता नहीं उस समय कोई कितना मजबूर होता है ....यह लिखना बहुत ही हल्का लग रहा है ...फिर भी जानबूझ कर लिख रहा हूं, अगर सब कुछ दर्ज कर देने से किसी दूसरे का भला हो जाता है ...जिन लोगों ने अमृतसर के गोल्डन टेंपल -- दरबार साहब अमृतसर में लंगर छका है, वे मेरी बात समझते हैं..

मेरी तो कईं बार वहीं टिक जाने की इच्छा होती है ...पिछले दिनों मेरा असिस्टेंट पहली बार गोल्डन टेंपल के दर्शन कर के आया है, जब वह वहां के लंगर की बातें मुझ से साझी कर रहा था तो भावुक हो रहा था...इतनी सेवा, इतनी करूणा, इतना भव्य आयोजन......मैंने उसे गुरूनानक देव जी के सच्चे सौदे वाले एफ.डी की बात सुनाई. ..

किधर की बात कहां निकल जाती है ...अगर एग्ज़ाम होता तो मुझे पता चलता, हैडिंग कुछ और था, पोस्ट एक बुज़ुर्ग मां की खुशियां के बारे में और जाते जाते हरिमंदिर साहब गुरूद्वारा की याद निकल आई...लेकिन ब्लाग लिखने का यही तो मजा है, मन हल्का करने के लिए कुछ भी लिख लिया करते हैं..अपने बारे में ही बहुत सी बातें.... पहली डॉयरियां लिखनी पड़ती थीं, छुपा छुपा के रखनी पड़ती थीं, अब सब कुछ ओपन....ट्रांसपेरेंट एकदम। 

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

वाट्स-एप डायरी से ..1.4.16

मैंने पिछले िदनों वाट्सएप पर आने वाले कुछ संदेशों को इस ब्लॉग पर सहेजना शुरू किया था...

कुछ दिनों वह सिलसिला चला...फिर मैं किसी और काम में मसरूफ़ हो गया..

लेिकन विभिन्न जगहों से इतने बढ़िया बढ़िया वाट्सएप संदेश आते हैं कि उन्हें पढ़ते ही लगता है कि इन्हें तो संभाल के रखना चाहिए, इसे आगे भी शेयर करना चाहिए...और इसे बार बार देखना चाहिए...मकसद सिर्फ इतना कि किसी के चेहरे पर हंसी आ जाए, कोई कुछ सोचने लगे...और शायद किसी को कोई रास्ता ही मिल जाए.....वैसे इतना भारी भरकम मकसद भी नहीं....Just a time pass!

इसीलिए मुझे आज अप्रैल फूल के दिन एक बार फिर से यह बेवकूफाना विचार आया है कि एक डायरी ही लगा लेनी चाहिए और दिन भर में जिन वाट्सएप संदेशों ने दिल को छुआ हो, उन्हें डॉयरी में लिख लेना चाहिए...

उस दिन भी मैंने एक पोस्ट में लिखा था कि मैं बाग में टहल रहा था तो किसी योग ग्रुप में किसी ने वाट्सएप पर मिले किसी संदेश को जब सारे ग्रुप में सुनाया तो सब लोगों के ठहाके मुझे बहुत अच्छे लगे...हर बंदा नेट से जुड़ा नहीं है, ऐसे में अगर कुछ अच्छे संदेश (अपनी पसंद के अनुसार) ऑफ लाईन यूज़ के लिए लिख लिए जाएं तो कैसा रहेगा...

और इस तरह की डायरी कभी कभी देखते रहने से हम उन मस्त लम्हों को बार बार जी पाते हैं...




अभी अभी बेटे ने भी एक बढ़िया अप्रैल फूल संदेश भेजा है...शायद यह बात मेरे ऊपर बिल्कुल सही बैठती है ...सच में...

और आज अप्रैल फूल के दिन का जश्न इस गीत से मनाते हुए पोस्ट को यहीं विराम देते हैं...

और लोग कितनी आसानी से कह देते हैं कि लत छूटती नहीं...

जैसे ही मैंने शीर्षक में यह शब्द लिखा..कितना आसान...तुरंत बरसों पुराना यह गीत याद आ गया...कितना आसां है कहना भूल जाओ...इस पोस्ट को लिखने से पहले ज़रा इत्मीनान से उसे देख सुन लूं...

हां, मैं बात कर रहा था किसी लत को छोड़ने की ... परसों-नरसों एक इंस्पेक्टर से मुलाकात हुई...६५ के करीब की उम्र है। मुंह का निरीक्षण करते हुए मैंने गुटखे-पानमसाले के इस्तेमाल के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ये तो नहीं लेकिन पान वान सब कुछ एक ही झटके में एक िदन छूट गया..

इस तरह की आपबीती सुनने को हमें अकसर मिलती नहीं...हमें तो वही घिसी-पिटी बातें रोज़ सुनने को मिलती हैं कि क्या करें, अब तो यह लत साथ ही जायेगी, बिना इस को पिए पेट साफ़ नहीं होता, बेचैनी होने लगती है, रात की शिफ्ट की ड्यूटी है इसलिए इस के बिना रह नहीं पाते...क्या करें, पान-वान सब मजबूरन खाना पड़ता है क्योंकि हर समय गंदगी को हटाने का काम है ...इसे खाए बिना तो हो ही नहीं पायेगा । 

कुछ दिन पहले हिंदी की अखबार में भी एक अच्छा लेख किसी ने लिखा कि कईं बार बरसों पुरानी खराब आदतों को बस एक वाक्या छुड़वा देता है ..एक बंदे की आपबीती लिखी थी जो पान खाने का बहुत शौकीन था..बरसों से...एक बार किसी शादी में नये कपड़े पहन कर गया...पान थूकने वॉशरूम में गया...नये कपड़ों पर पान के लाल लाल छींटे देख कर इस लत से ऐसी नफ़रत हुई कि उस दिन के बाद इसे छुआ नहीं। 

लेकिन परसों वाले बंदे की बात कुछ अलग थी, उसने केवल पान ही नहीं, सब कुछ ..दारू, पान, सिगरेट सभी कुछ एक दिन अचानक छोड़ दिया था ..आज से १५ वर्ष पहले...

ज़ाहिर है जब कोई ऐसी बात करता है तो जिज्ञासा होती है जानने की आखिर यह कैसे संभव हो पाया....क्योंकि हमें फिर उस के अनुभवों को आगे भी बांटना होता है ..

इन इंस्पैक्टर साहब ने बताया मैं इस सब खाने पीने वाली चीज़ों का इतना आदि हो चुका था कि मुझे इन की बुराई के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं थी.....

"सिगरेट मैं लगभग ४० रोज़ पीता था, तंबाकू वाला पान खाने की तो कभी गिनती ही नहीं की ...बस, खाना खाने और रात को सोने से पहले उसे थूकना मजबूरी थी, दारू पीने लगता तो निरंतर ४-६ घंटे पीता ही रहता ...इतना आदि हो चुका था कि दारू का भी कि पांच छः पीने के बाद भी आराम से ड्यूटी भी करता था, किसी को भनक तक न लग पाती थी कि दारू पिए हुए हूं...पड़ोसियों तक को नहीं पता था कि मैं शराब पीता हूं..." 
" पंद्रह वर्ष पहले एक सेमीनार में जाने का अवसर मिला...वहां पर एक आई.जी रैंक के अधिकारी को सुनने का मौका मिला..उन की एक बात मन को छू गई कि आज कल लोग नशे की आदत में डूब कर बच्चों के भविष्य से खेल रहे हैं...आई जी ने आगे कहा कि एक ही काम हो सकता है या तो आप शराब,दारू, सिगरेट, पान का मज़ा लूट लें या बच्चों को अच्छी शिक्षा-दिक्षा दिला लें..."

 बस, इस बात का इन के मन पर इतना गहरा असर हुआ कि उसी दिन से सब कुछ त्याग दिया...मुझे इन की बात बेहद प्रेरणात्मक लगी, इसीलिए इसे ब्लॉग पर शेयर करने का मन हुआ। बताने लगे कि मेरे भी बच्चे उन दिनों आज से १५ वर्ष पहले छोटे थे, मुझे भी लगा कि अगर इन्हें आगे अच्छी शिक्षा दिलानी है तो पैसे और सेहत की बरबादी आज ही से रोकनी पड़ेगी...

मेरे यह पूछने पर कि एक ही दिन एक ही झटके में आप ने यह सब छोड़ तो दिया तो आप को क्या कुछ तकलीफ़ हुई...उन्होंने तपाक से पूरे ज़ोर से कहा ....डाक्साब, मेरे को कुछ भी परेशानी नहीं हुई ..क्योंकि मेरा इरादा बिल्कुल पक्का था...उस के बाद बच्चों की पढ़ाई लिखाई की तरफ़ पूरा ध्यान दिया...सभी बच्चे आज ऑफीसर लगे हुए हैं...

आप को कैसे लगी  इन इंस्पेक्टर साहब की बात...हां, एक बात और उन्होंने शेयर करी...बताने लगे कि मैंने अपनी बात सुना सुना कर कुछ लोगों की ऐसी आदतें छुड़वा दीं, कुछ ने मेरी बात सुन कर कम कर दिया ...यहां तक कि शहर के एक नामचीन डाक्टर का भी पान छुड़वा दिया....लिखना तो मैं उस किस्से को भी चाह रहा हूं लेकिन आप भी बोर हो जाएंगे... और मैं भी। वैसे भी किसी भी चीज़ की खुराक जब ज़रूरत से ज़्यादा हो जाये तो फिर आप को पता ही है कि क्या होता है!

हां, तो दोस्तो मैंने इन इंस्पेक्टर साहब से दो बातें ग्रहण कीं...सच बताऊं मैं किसी किसी दिन बहुत बोर हो जाता हूं वहीं बातें मरीज़ों को समझाते समझाते ...मुझे लगता है कि पाउच पर सब कुछ लिखा रहता है भयानक किस्म की तस्वीरों के साथ...फिर भी यार ये मान ही नहीं रहे। लेकिन इन की आपबीती सुनने के बाद यह विश्वास और भी पक्का हो गया कि अगर एक गैर-मैडीकल इंसान की बात सुन कर इन की लाइफ में इतना बदलाव आ गया... तो फिर हम लोगों का तो धर्म ही यही है लोगों को अच्छे बुरे का फ़र्क समझाना...

दूसरी बात जो उन्होंने कही कि इन सब चीज़ों को छोड़ने के बाद न तो उन्हें कब्ज हुई, न सिरदर्द और न ही बेचैनी...इस बात को नोट कर लें आप सब भी ...मैं भी अकसर मरीज़ों को कह दिया करता था कि आप जब इस लत को लात मारेंगे तो पांच सात दिनों की तकलीफ की बात है , थोड़ी सी तकलीफ़ हो सकती है, लेकिन उस का भी समाधान है....अब मैं इस बात को नहीं कहूंगा ...क्योंकि इस बंदे के अनुभव मेरे सामने हैं......और हो सका, तो मरीज़ों को इस पोस्ट का एक प्रिंट-आउट ही थमा दिया करूंगा...बस, आप से इतनी गुज़ारिश है कि कम से कम इस पोस्ट को उस बंदे तक पहुंचा दें जो ये सब चीज़ें छोड़ना चाहता है ....

दरअसल हमें खुद पता नहीं होता कि हमारी कौन सी बात किसे कब छू जाए....ध्यान आ गया आठ दस पहले स्वपनदोष पर लिखी एक पोस्ट का .....दिल से लिखी थी...स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो। (एक बार किसी पोस्ट को लिखने के बाद मैं उस से कभी छेड़छाड़ नहीं करता...यह उस दिन की मनोस्थिति ब्यां करती है, इस पोस्ट को भी मैंने कभी  एडिट करने की कोशिश नहीं की....वही आठ साल पुरानी वैसी ही है ) ...इसे हज़ारों युवाओं ने तो पढ़ा ही है और फिर वे मुझे आज तक थैंक्स का ई-मेल भेजते हैं कि उन का भार भी हल्का हो गया....बस, अभी तक की लेखन यात्रा से यही सीखा है कि जो कुछ भी ज्ञान ...बड़ा, छोटा, तुच्छ, तुच्छतम्---बस बांटते चलिए... आप के लिए तुच्छ हो सकता है, लेकिन पता नहीं पढ़ने वाले को उस की कितनी ज़रूरत है ..शायद वह उस की सोच, उस का नज़रिया या ज़िंदगी ही बदल दे....

शायद अब इस पोस्ट के लिफाफे को बंद करने का समय आ गया है ... थोड़ा टहल कर आता हूं... फिर आ कर इस पोस्ट के कुछ प्रिंट आउट लूंगा ..मैं इंस्पैक्टर साहब की बातों से उन के जज्बे से, उन की आत्मशक्ति से बहुत मुतासिर हुआ...कोई भी होगा, क्या आप नहीं हुए?....अगर हुए तो कमैंट बॉक्स में कुछ कह दिया कीजिए, उस के पैसे नहीं लगते! शायद मुझे आप से और भी बतियाने का मन करे। 

जाते जाते अमिताभ बच्चन का खाई के पान बनारस वाला यहां एम्बेड करने की इच्छा तो थी, लेकिन बहुत हो गया..सुन सुन कर अब ऊबने लगे हैं...अभी अपनी फिल्मी ज्ञान के घोड़े दौड़ाता हूं ...