शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

ऐसा ताज़ा बकरा, मुर्गा, और मछली किस काम के !!

थोड़े से पानी में छटपटाती ये मछलियां.. मार्केटिंग टूल 
आज बाद दोपहर जब मैं एक दुकान पर खड़ा था तो सामने वाली दुकान मीट-मछली की थी.....मेरा ध्यान एक बर्तन की तरफ़ गया जिस में बहुत कम पानी में कुछ मछलियां छटपटा रही थीं....बहुत बुरा लगा ये देख कर। यह जो तस्वीर आप यहां देख रहे हैं, वहीं की तस्वीर है।

ज़ाहिर सी बात है कि वह दुकानदार अपनी बिक्री चमकाने के लिए यह सब ड्रामेबाजी कर रहा था....उसी समय आप छटपटाती हुई कोई भी मछली पसंद करिए...उसे समय उसे काट कर आप को थमा िदया जायेगा। 

बात इस दुकानदार की ही नहीं है, मैंने बहुत जगहों पर इधर लखनऊ में नोटिस किया है कि मछली बेचने वालों ने एक बर्तन में थोड़ा पानी डाल कर कुछ मछलियां छटपटाने के लिए छोड़ रखी होती हैं। मुझे यह मंजर बहुत ही बुरा लगता है....अमानवीय तो है बेशक। 

इस तरह से ताज़ा-तरीन मछलियों के दाम भी दूसरी पहले से मृत मछलियों से ज़्यादा होती होगी शायद......क्योंकि मैं शाकाहारी हूं पिछले २५ वर्षों से .....कोई भी धार्मिक कारण नहीं ..बस यह सब खाना अच्छा नहीं लगता, इसलिए बिल्कुल भी नहीं.......घर में कोई भी नहीं खाता। 

कभी आपने साईकिल के पीछे मुर्गे-मुर्गियों को ठूंस कर एक जाल में ले जाते देखा है......मैंने बहुत बार देखा है.....कितना असहाय महसूस कर रहे होते हैं वे जानवर उस समय.....और तौ और, एक बात और नोटिस की कि लोग अपने सामने ज़िंदा मुर्गे को कटवाते, साफ़ करवाते हैं......सोचने वाली बात यह है कि उस जानवर के शरीर में डर खौफ़ की वजह से क्या क्या हार्मोन्ज़ रिलीज़ न होते होंगे.........लेकिन हमें क्या, हमें तो ताज़े मुर्गे से मतलब है!

मुझे जांघ चाहिए, मुझे गुर्दा, मुझे कलेजा...मुझे सिरी (दिमाग)...मुझे चांप
जब मैं स्कूल कालेज में था तो खूब मीट खाया करते थे.....मेरे पिता जी को बहुत शौक था....अलग अलग चीज़ें उस में डाल कर लज़ीज़ मीट तैयार होता था...हमें भी कहां इतना समझ थी कि हम खा क्या रहे हैं.....बस, इतना पता था कि शायद मीट की दो तरह की दुकानें हुया करती थीं...अमृतसर शहर की बात कर रहा हूं.....लेिकन मीट खरीदते जाते वक्त यह हिदायत दी जाती थी कि फलां फलां झटकई से ही लाना है......झटकई पंजाबी का शब्द है जिस का मतलब है जो झटका मीट बेचता है अर्थात् जिस कसाई के यहां बकरे की गर्दन को एक झटके ही में अलग कर दिया जाता है। 

हां, वह बात तो बताना भूल ही गया कि मीट खाना कब से बंद किया....यह १९९० के दशक के शुरूआत की बात है.....मैं और मेरी बीवी हम लोग पूना गये थे.....एक हॉटेल में गये.....वहां जो मीट हमें दिया गया......वह चबाया ही नहीं जा रहा था......हम सारी बात समझ गये.....बस उस दिन के बाद फिर मीट-मछली-मुर्गा खाने का मन ही नहीं किया। 

वैसे भी आज कल मुर्गे वुर्गे बड़े करने के चक्कर में क्या क्या गोरखधंधे हो रहे हैं, किस तरह से कैमीकल्स और हारमोन्ज़ इन में टीके की शक्ल में पहुंचाए जाते हैं, यह तो हम सब मीडिया में देखते सुनते रहते हैं...है कि नहीं?

 मुझे पता है मेरे यहां चार पंक्तियां लिखने से यह सब बंद नहीं होने वाला, लेकिन फिर भी हम लोग इस क्रूरता के बारे में तो सोच ही सकते हैं.........क्या आप को लगता है कि पानी में छटपटाती उस मछली को काट कर खा लेने से हम लोग ज़्यादा मर्द बन जाएंगे?...

नोट........इस पोस्ट को लिखने का कोई भी धार्मिक उद्देश्य नहीं है... वैसे भी मैं बस एक ही धर्म को जानता हूं जिसे मानवता कहते हैं। मछलियों की पीड़ा आज देखी तो दिल को बात लग गई, आप से साझा कर ली। 

इस फिल्मी गीत में भी शूटिंग के िलए एक मछली को छटपटाया तो गया......

बच्चों को तो हम शुरू से पढ़ाते ही हैं.....शायद उन की पहली कविता......मछली जल की रानी है, जीवन उस का पानी है, बाहर निकालो मर जायेगी.............जितनी हवा हमारे लिए ज़रूरी है, उतना ही पानी भी मछली की श्वास प्रक्रिया के लिए ज़रूरी है....कल्पना करिये किस तरह से खिड़कियां बंद होने पर हवा थोड़ी सी कम होने पर ही जब हमारा दम घुटने लगता है और हमारी फटने लगती है........है कि नहीं??

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

ग्लुकोज़ की बोतल भी देती है ताकत

पहले कुछ लेखों में हम लोग कुछ ताकत प्रदान करने वाली चीज़ों की चर्चा कर रहे थे —कुछ दवाईयां तो छूट ही गईं। ग्लूकोज़ की बोतल, ग्लूकोज़ पावडर,कैल्शीयम की गोलियां, और खाने में मछली, चिकन-सूप, चिकन एवं मांसाहारी आहार.

ग्लूकोज़ की बोतल वाली ताकत

—बहुत से लोगों से अकसर नीम-हकीम इस ग्लूकोज़ की बोतल के द्वारा ताकत दिलाने का झूठा विश्वास दिला कर तीन-चार सौ रूपये ऐंठ लेते हैं, लेकिन ताकत कहां से आयेगी !
दरअसल अभी भी देश में यही सोच है कि अगर किसी भी कारण से कमज़ोरी सी लग रही है तो एक-दो शीशी ग्लूकोज़ की चड़वाने से यह छू-मंतर हो जायेगी।
लेकिन ग्लूकोज़ चढ़ाने के लिये क्वालीफाईड चिकित्सकों के अपने कारण होते हैं— administration of intravenous fluids has got its own indications. लेकिन मरीज़ की फरमाईश पूरी करने के चक्कर में कईं बार बहुत पंगा हो जाता है।
ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने के लिये बहुत से कारण है—कईं बार उल्टी-द्स्त किसी को इतने लग जायें कि शरीर में पानी की कमी सी होने लगे (डि-हाईड्रेशन) तो भी इस के द्वारा शरीर में शक्ति पहुंचाई जाती है।

ग्लूकोज़ का पैकेट

— अकसर ग्लूकोज़ के पैकेट का भी कुछ लोगों में बहुत क्रेज़ है । बिना किसी विशेष कारण के ही यह पैकेट खरीद कर पिलाना शूरू कर दिया जाता है।
बात यह है कि यह भी डाक्टर की सलाह के अनुसार ही खरीदा जाना चाहिये। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि कभी भी डाक्टर से अपनी तरफ़ से अलग अलग चीज़ों के नाम जैसे कि ग्लूकोज़ का पावडर आदि मरीज़ को पिलाने की बात स्वयं न करें। अगर ज़रूरत होगी तो वह स्वयं ही बता देगा।
अगर अपनी मरजी से पिला रहे हैं तो फिर चीनी पीस कर ही पानी में निंबू-नमक के मिश्रण के साथ पिला दें।

कैल्शीयम की गोलियां

— एक तो इन कैल्शीयम की गोलियों का बहुत बड़ा क्रेज़ है लेकिन इस में भी यह देखा गया है कि जिस वर्ग  को ये मिलनी ज़रूरी होती हैं वे ही नहीं खा पाते। और जिन को ज़रूरत नहीं होती वे फिज़ूल में छकते रहते हैं और अपने आप को शरीर में ज़्यादा कैल्शीयम जमा होने के दुष्परिणामों से कईं बार बचा नहीं पाते।
सब से पहली तो यह बात है कि आहार संतुलित होना बहुत ही ज़रूरी है—-लेकिन पता नहीं क्यों मुझे मंहंगाई की वजह से और समाज में व्याप्त खाने से संबंधित भ्रांतियों की वजह से यह सलाह देनी कईं बार बहुत घिसी-पिटी सी लगती है, लेकिन फिर भी देनी तो पड़ती ही है।
दरअसल यहां लैपटाप पर कोई सेहत के विषय पर पोस्ट लिखनी बहुत आसान सी बात है लेकिन वास्तविकता उतनी ही भयानक है। आज जिस तरह का मिलावटी, कैमीकल दूध जगह जगह पकड़ा जा रहा है , ऐसे में कैसे मान लें कि दूध में कैल्शीयम होगा ही ——-इस का क्या कहें, लेकिन बस यूरिया, डिटरजैंट, और तरह तरह के कैमीकल न हों तो गनीमत समझिये।
दूसरा मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि ये अगर किसी को ये कैल्शीयम आदि लेने के लिये कहा भी जाये तो बढ़िया कंपनी का खरीदना चाहिये —चालू किस्म की कंपनियां क्या करती होंगी, इस का अनुमान भली-भांति लगाया जा सकता है।


अगली पोस्ट में देखेंगे कि कौन कौन से खाद्य पदार्थ ताकत के वास्तविक भंडार हैं।

ताकत की दवाईयों की लिस्ट

इस तरह की दवाईयों की लिस्ट यहां देने से पहले यह कहना उचित होगा कि ऐसी कोई भी so-called ताकत की दवा है ही नहीं जो कि एक संतुलित आहार से हम प्राप्त न कर सकते हों, वो बात अलग है कि आज संतुलित आहार लेना भी विभिन्न कारणों की वजह से बहुत से लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है।
जो लोग संतुलित आहार ले सकते हैं, वे महंगे कचरे ( जंक-फूड – पिज़ा, बर्गर,  ट्रांसफैट्स से लैस सभी तरह का डीप-फ्राईड़ खाना आदि) के दीवाने हो रहे हैं, फूल कर कुप्पा हुये जा रहे हैं  और फिर तरह तरह की मल्टी-विटामिन की गोलियों में शक्ति ढूंढ रहे हैं। दूसरी तरफ़  जो लोग सीधे, सादे हिंदोस्तानी संतुलित एवं पौष्टिक आहार को खरीद नहीं पाते हैं , वे डाक्टरों से सूखे हुये बच्चे के लिये टॉनिक की कोई शीशी लिखने का गुज़ारिश करते देखे जाते हैं।
मैं जब कभी किसी कमज़ोर बच्चे को, महिला को देखता हूं और उसे अपना खान-पान लाइन पर लाने की मशवरा देता हूं तो मुझे बहुत अकसर इस तरह के जवाब मिलते हैं —-
क्या करें किसी चीज़ की कमी नहीं है, लेकिन इसे दाल-सब्जी से नफ़रत है, आप कुछ टॉनिक लिख दें, तो ठीक रहेगा।
( कुछ भी ठीक नहीं रहेगा, जो काम रोटी-सब्जी-दाल ने करना है वे दुनिया के सभी महंगे से महंगे टॉनिक मिल कर नहीं कर सकते)
–इसे अनार का जूस भी पिलाना शूरू किय है, लेकिन खून ही नहीं बनता ..
(कैसे बनेगा खून जब तक दाल-सब्जी-रोटी ही नहीं खाई जायेगी, यह कमबख्त अनार का जूस भर-पेट खाना खाने के बिना कुछ भी तो नहीं कर पायेगा)
विटामिन-बी कंपैल्कस विटामिन
— जितना इस ने लोगों को चक्कर में डाला हुआ है शायद ही किसी ताकत की दवाई ने डाला हो। किसी दूसरी पो्स्ट में देखेंगे कि आखिर इस का ज़रूरत किन किन हालात में पड़ती है। इस में मौजूद शायद ही कोई ऐसा विटामिन हो जो कि संतुलित आहार से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने आप ही कैमिस्ट से बढ़िया सी पैकिंग में उपलब्ध ये विटामिन आदि लेना बिल्कुल बेकार की बात है।
किसी दूसरे लेख में यह देखेंगे कि आखिर इस विटामिन की गोलियां किसे चाहिये होती हैं ?
डाक्टर, बस पांच लाल टीके लगवा दो !!
एक तो डाक्टर लोग इन लाल रंग के टीकों से बहुत परेशान हैं। क्या हैं ये टीके—-इन टीकों में विटामिन बी-1, बी –6 एवं बी –12 होता है और कुछ परिस्थितियां हैं जिन में डाक्टर इन्हें लेने की सलाह देते हैं। लेकिन पता नहीं कहां से यह टीके ताकत के भंडार माने जाने लगे हैं, यह बिल्कुल गलता धारणा है।
अकसर मरीज़ यह कहते पाये जाते हैं कि मैं तो हर साल बस ये पांच टीके लगवा के छुट्टी करता हूं। बस फिर मैं फिट ——- आखिर क्यों मरीज़ों को ऐसा लगता है, यह भी चर्चा का विषय है।
मैं खूब घूम चुका हूं और अकसर बहुत कुछ आब्ज़र्व करता रहता हूं —-इस तरह की ताकत की दवाईयों की लोकप्रियता के पीछे मरीज़ कसूरवर इस लिये हैं कि जब उन्होंने कसम ही खा रखी है कि डाक्टर की नहीं सुननी तो नहीं सुननी। अगर डाक्टर मना भी करेगा तो क्या, वे कैमिस्ट से खरीद कर खुद लगवा लेंगे। और दूसरी बात यह भी है कि शायद कुछ चिकित्सकों में भी इतनी पेशेंस नहीं है, टाइम नहीं है कि वे सभी ताकत के सभी खरीददारों से खुल कर इतनी सारी बातें कर पाये। इमानदारी से लिखूं तो यह कर पाना लगभग असंभव सा काम है —–वैसे भी लोग आजकल नसीहत की घुट्टी पीने में कम रूचि रखते हैं, उन्हें भी बस कोई ऐसा चाहिये जो बस तली पर तिल उगा दे—–वो भी तुरंत, फटाफट !!
जिम में मिलने वाले पावडर
—- कुछ युवक जिम में जाते हैं और वहां से उन्हें कुछ पावडर मिलते हैं ( जिन में कईं बार स्टीरायड् मिले रहते हैं) जिन्हें खा कर वे मेरे को और आप को डराने के लिये बॉडी-वॉडी तो बना लेते हैं लेकिन इस के क्या भयानक परिणाम हो सकते हैं और होते हैं ,इन्हें वे सुनना ही नहीं चाहते। अगर इन के बारे में जानना हो तो कृपया आप Harmful effects of anabolic steroids लिख कर गूगल-सर्च करिये।
अगर कोई किसी तरह के सप्लीमैंट्स लेने की सलाह देता भी है तो पहले किसी क्वालीफाईड एवं अनुभवी डाक्टर से ज़रूर सलाह कर लेनी चाहिये।
संबंधित पो्स्टें

तंबाकू --एक दो किस्से ये भी हैं..

मुझे इस बात से बड़ी खीझ होती है कि हिंदी फिल्म का कोई आइटम सांग तो पब्लिक को दो दिन में याद हो जाता है लेकिन हम लोगों की बात ही भूल जाते हैं।
दो दिन पहले मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था –एक महिला अपने शिशु को स्तन-पान करवा रही थी और बिल्कुल साथ ही बैठा उस का पति बीड़ीयां फूंके जा रहा था। ऐसा लगा कि बच्चे को अमृतपान के साथ साथ विषपान भी करवाया जा रहा हो।

कुछ महीने पहले अंबाला छावनी स्टेशन पर बैठे बैठे किसी ने मुझ से किसी गाड़ी के बारे में पूछा। दो-तीन बातें हुईं तो पता चला कि वे दोनों आदमी बिहार में अपने गांव जा रहे थे क्योंकि उन में से एक के लगभग 20-22 वर्ष के भाई की सेहत बहुत खराब है। पूछने पर पता चला कि उसे पिछले लगभग 10 साल से तंबाकू खाने की लत लग गई थी– इसलिये उसे मुंह का कैंसर हो गया है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है —घर में पैसा खत्म हो गया है, इसलिये यह बंदा अपना काम-धंधा छो़ड़ कर गांव जा रहा है।

उस दिन जो बात मैंने उस बंदे के मुंह से सुनी शायद मैंने पहले इस की कल्पना भी नहीं की थी। वह आदमी बहुत गुस्से में था —कह रहा था कि हम घर वाले इसे रोक रोक कर हार गये कि तंबाकू न खाया कर, लेकिन इसने भी हमारी एक न सुनी। बता रहा था कि वह तंबाकू का इस कद्र आदि हो चुका था कि तीन तीन चीज़े एक समय में इस्तेमाल किया करता था —- मैं उस की बात सुन कर हैरान हो गया कि नीचे वाले होंठ के अंदर उस का भाई गुटखा दबा लिया करता था, गाल के अंदर की तरफ़ तंबाकू -चूने का मिश्रण और साथ में बीड़ी —-अब भला ऐसे में कौन बचाता उसे मुंह के कैंसर से। उस की बात सुन कर मन बहुत दुःखी हुया ।

वैसे तो हम लोग तंबाकू और शराब के सेवन को ही एक किल्लर कंबीनेशन मानते हैं लेकिन यहां तो तंबाकू के तीन तीन उत्पाद एक साथ खाये, पीये और थूके जाते रहे —– आप के आसपास भी तो नहीं कोई यह सब कर रहा —देखते रहिये —- सचेत करते रहिये । और क्या कर सकते हैं!!

बुधवार, 19 नवंबर 2014

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

निदा फ़ाजली ने कहा है...
बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..
 तितलियों को ना फूलों से उड़ाया जाए..

बेरी पर लगे हुए बेर... 


सुबह सवेरे किसी बाग में टहलते हुए यही स्थिति होती है। आज सुबह टहलते हुए पता नहीं कितने बरसों बाद मैंने बेरी के पेढ़ पर बेर लगे हुए देखे.....बचपन में तो खूब देखते थे और पत्थर फैंक फैंक पर तोड़ते भी थे.....लेकिन पत्थरों से बेरों को नीचे गिराने वाला काम कितना मुश्किल होता है, यह तो वही जानते हैं जो ये काम बचपन में कर चुके हैं...चाहे, बेर का पेढ़ जितना भी बड़ा हो जाए इतना आर्कषित नहीं करता, लेकिन एक बात तो यह जो कि सूफ़ी गायक बार बार अपने गीतों में दोहराते हैं ... कि बेरी के पेढ़ का स्वभाव देखो, बच्चे उसे पत्थर मारते हैं और वह उन्हें मीठे मीठे बेर देता है।

हमारे बचपन के दिनों की विद्या की देवी...


रोज़ाना नईं नईं चीज़ें देखने को मिलती हैं बाग में....बहुत बार तो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं जैसा कि मैंने जब इस पेढ़ को देखा तो मुझे ध्यान आ गया कि हम लोग बचपन में इस छोटे से पौधे को विद्या-पढ़ाई का पौधा कहते थे....उस की एक छोटी सी टहनी अपनी किताब में रखना इस आस के साथ कि इस से हम अच्छे अंक ले पाएंगे, आज हास्यास्पद लगता है लेकिन हम लोगों ने अपने समय में ये सब काम खूब किए।

विद्या के पेढ़ के फूलों का एक अलग रूप..



एक बात और देखी......इस पौधे के साथ छोटे छोटे कुछ फल जैसे (पता नहीं क्या हैं, फल या कुछ और) तो पहले भी कईं बार दिख ही जाते थे लेकिन आज एक पेढ़ पर इन का अलग ही रूप देखा....पता नहीं ये हरे रंग के फल-फूल बाद में ये रूप धारण कर लेते हैं या यह इन का पहले का रूप है.....बाद में हरे हो जाते हैं.....देखेंगे..




क्या इन्हें बस जंगली फूल कह के हम फारिग हो जाएं...
बाग में थोड़ा सा ही अंदर गया तो एक कमज़ोर पेढ़ पर नज़र पढ़ गई और बहुत से बिना वजह खिले छोटे छोटे मनमोहक रंगों में खिले फूल भी दिख गये... दरअसल ऐसा नहीं कहना चाहिए कि बिना वजह खिले हुए या जंगली फूल.... ज़रूरी नहीं कि हर बात का कोई कारण है, वैसे भी हमारी अल्पज्ञ बुद्धि कहां प्रकृति के राज़ समझ पाती है। बस जो भी दिखा ...बाग में प्रकृति की सारी संरचना ध्यान की मुद्रा में ही दिखी....at ease with themselves and with surroundings.......Peaceful co-existence.....a food for thought for the early morning walkers!


ये काम बंद होने चाहिएं...
अब यह झुलस गया, इस का क्या कसूर था !










मैं बहुत बार सोचता हूं कि बागों में ऐसे नियम भी लागू होने चाहिए कि वहां पर सूखे पत्तों ओर टहनियों को आग न लगाई जाए...इस से वातावरण तो प्रदूषित होता ही है, आस पास हरे-भरे पेड़ों को भी नुकसान पहुंचता है....यह काम तुरंत बंद होना चाहिए... इस के बारे में हमें ही कुछ तो करना होगा। आप इन तस्वीरें में देख सकते हैं कि किस तरह से पेड़ ही बुरी तरह से झुलस जाते हैं इस तरह से पत्तों-टहनियों को आग लगाने से।

 अच्छा लगा इस बेल को देख कर..
चलिए, जो भी हो.....सुबह सुबह बाग में जाना बहुत आनंदित करता है......आशा है आप भी जाते होंगे, नहीं भी जाते तो अब से शुरू कर सकते हैं... अगर पास में कोई बाग नहीं भी है, तो कम से कम सुबह सवेरे घर से तो निकलए, बाहर आईए, घूमिए, टहलिए, दूध लेने के बहाने, बच्चे को स्कूल छोड़ने के बहाने, कहीं प्रवचन सुनने के लिए चल कर जाईए तो.....अच्छा लगता है।

आज जब मैं सुबह बाग में टहल रहा था तो मुझे जय भादुड़ी पर फिल्माया वह बहुत सुंदर गीत याद आ गया.... मैंनें कहा फूलों से.... अगर मैं कभी शिक्षा मंत्री बन गया ना (अब तो हर तरफ़ संभावनाएं ही संभावनाएं हैं) तो स्कूल में इस तरह के गीत सुबह सुबह एसैंबली से पहले लाउड-स्पीकर पर बजवाया करूंगा.........आप को कैसा लगा यह गीत ?



मंगलवार, 18 नवंबर 2014

ऐसा नहीं है कि कैंसर छेड़छाड़ से फैल जाए...

जब भी किसी  ऐसे मरीज़ को जिसमें मुंह का कैंसर होने का संदेह लग रहा हो...किसी मैडीकल कालेज आदि जैसी जगहों पर भेजता हूं..तो अधिकतर उस मरीज़ का या उस के साथ आये हुये व्यक्ति का यही रिएक्शन रहता है कि वहां तो इस का टुकड़ा लेकर टेस्ट करेंगे तो इस तरह की छेड़छाड़ से तो यह बहुत फैल जाता है, ऐसा बताते हैं।

यह एक बहुत ही बड़ी भ्रांति है अपने लोगों में......अब यह कहां से चल पड़ी नहीं जानता.....लेकिन इतना तो तय है कि जो कैंसर रोग विशेषज्ञ होते हैं वे अपने काम में बहुत एक्सपर्ट होते हैं कि टुकड़ा कितना लेना है, कहां से लेना है.....और कहां पर जांच के लिए भेजना है, इस के बारे में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि किसी जगह से मांस का कोई टुकड़ा आदि लेने से स्थिति बद से बदतर हो जाएगी।

मुंह के कैंसर के बारे में मैंने यह देखा कि कुछ दंत चिकित्सक या कोई अन्य सर्जन जिन्होंने मुंह के कैंसर का इलाज नहीं भी करना होता, वे भी टुकड़ा ले लेते हैं.. (इसे मैडीकल भाषा में बॉयोप्सी करना कहते हैं) और जांच के लिए उस टुकड़े को किसी लैब में भेजते हैं और अगर वहां से कैंसर की पुष्टि हो जाए तो मरीज़ को किसी कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास रेफऱ करते हैं। ऐसा दंत चिकित्सक ही नहीं करते, मैंने बहुत बार देखा है कि ईएनटी (कान, नाक, गला रोग विशेषज्ञ) डाक्टर भी बॉयोप्सी कर देते हैं मुंह के संभावित कैंसर की........फिर बाद में किसी कैंसर सर्जन के पास रेफर करते हैं।

मुझे यह ठीक नहीं लगता क्योंिक मुंह के कैंसर के बारे में बात करें तो अधिकतर केसों को तो देखने मात्र से पता चल जाता है कि यह कैंसर ही है.....बस बॉयोप्सी से केवल पुष्टि करने भर की ज़रूरत रहती है। और मैं ऐसा मानता हूं कि दंत चिकित्सकों एवं अन्य सामान्य चिकित्सकों एवं सर्जनों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे मुंह के कैंसर के बारे में देखते ही काफी कुछ जान लें..कम से कम एक अनुमान तो हो ही जाना चाहिए....यह बड़ा ज़रूरी है।

एक बात और याद आ गई.......आपने बहुत बार सुना होगा कि किसी ने अपना कोई दांत निकलवाया और उस जगह पर मुंह में कैंसर बन गया.......नहीं, ऐसा नहीं होता, दरअसल होता क्या है कि कैंसर अगर जबाड़े में हड्डी में धीरे धीरे बढ़ रहा होता है तो इस वजह से बहुत बार  उस के आस पास वाले दांत भी थोड़े हिलने लगते हैं.....कईं बार तो इतना हिलने लगते हैं कि वे अपने आप लगभग झड़ से जाते हैं......जैसा दूध के दांत अपने आप निकल जाते हैं!!

अब आप कल्पना कीजिए कि ऐसे ही किसी एक बंदे ने दांत उखड़वाया (जिस के जबड़े में कैंसर पहले से है) और दांत उखड़वाने के बाद अगर उस का ज़ख्म नहीं भर रहा और दो महीने बाद जब वही जबड़े का कैंसर उखड़े हुए दांत से बाहर आने लगता है तो ऐसा कह दिया जाता है कि दांत उखड़वाने से कैंसर हो गया.......इस में कोई सच्चाई नहीं है।

मुझे याद है दस वर्ष पहले का एक मरीज ...वह तंबाकू का खूब इस्तेमाल किया करता था.....और उस के ऊपरी आखिरी अकल की जाड़ के पास एक ज़ख्म सा था... अकसर इस तरह के ज़ख्म (जो जाड़ की रगड़ से ही होते हैं) खराब जाड़ निकालने पर दो चार दिन में ठीक हो जाते हैं....क्योंकि दांत तो उस का खूब हिल ही रहा था, उसे तो निकालना ही था, मैंने निकाल दिया...लेकिन लगभग एक महीने बाद जब वह मुझे चैकअप करवाने आया तो उसी जगह पर कैंसर जैसी ग्रोथ बन चुकी थी.......और मेरे पास आने से पहले वह बाहर दो चिकित्सकों को भी चैक करवा के आ चुका था कि कहीं दांत उखड़वाने से तो यह नहीं हो गया......उन्होंने भी उसे यही समझाया कि नहीं, यह तो पहले ही से था, अब दिखने लग गया और फिर उसे कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया।

कैंसर रोग विशेषज्ञ जो बॉयोप्सी लेगा उस से उसे बीमारी के स्तर का पता तो चलता ही है, इसी से ही वह निर्णय लेते हैं कि किस तरह का इलाज इस मरीज़ के लिए उपर्युक्त है।

बात तो मैंने इस पोस्ट के माध्यम से इतनी रखनी थी कि मांस का टुकड़ा लेने से ऐसा नहीं होता कि कैंसर फैल जाए......लेकिन यह टुकड़ा कौन लेगा...ज़ाहिर सी बात है कि इस देश के मरीज़ यह निर्णय नहीं ले पाते कि यह काम किस से करवाएं......इसलिए विभिन्न चिकित्सकों को ही इसमें आत्म-अनुशासन की ज़रूरत है कि विशेषकर मुंह के कैंसर के केसों में जहां बहुत कुछ बिना कुछ टैस्ट किए ही दिख रहा है...साफ़-साफ़- और अगर उस टुकड़े की जांच करवाने पर कैंसर की पुष्टि भी हो गई तो भी सामान्य चिकित्सक अथवा सामान्य दंत चिकित्सक ने कुछ भी तो नहीं करना होता, मरीज़ को रेफर ही करना होता है.......ऐसे में जहां मरीज़ को रेफर किया जाता है, अगर वह कैंसर-रोग विशेषज्ञ फिर से बॉयोप्सी लेने को कहता है तो मरीज़ को बहुत बुरा लगता है.......इस सब के चक्कर में समय और पैसा तो बर्बाद होता ही है.........(क्योंकि पहली वाली बॉयोप्सी से बचा जा सकता था)... मरीज की परेशानी भी बढ़ जाती है....उस के लिए तो वैसे ही इस तरह की बीमारी का मात्र संदेह होने पर ही बिना सटीक इलाज के एक एक दिन बिताना भारी होता है।

जाते जाते मेरी हाथ जोड़ कर आप सब से एक ही प्रार्थना है कि अगर आप तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन कर रहे हैं, पानमसाला खा रहे हैं......गुटखा खा रहे हैं, डली चबा रहे हैं तो अभी से इस आदत को थूक दें.........बाद में कुछ भी कर लीजिए... दरअसल बहुत ही देर हो चुकी होती है। Stay healthy!!

सोमवार, 17 नवंबर 2014

गर्भावस्था के दौरान मधुमेह रोग का जोखिम...

आज से १५-२० वर्ष पहले तक मुझे याद है कि यह बहुत कम गर्भवती महिलाओं में देखा जाता था कि वे मधुमेह का शिकार हो गईं.....चाहे यह रोग होता कुछ महीनों के लिए ही है लेकिन इस का नकारात्मक पहलू यह भी है कि इस से होने वाले बच्चे में कईं दिक्कतें आ सकती हैं और वैसे भी यह जच्चा-बच्चा दोनों के लिए जटिलतायें उत्पन्न कर सकता है।

इस तरह के मरीज मेरे संपर्क में तो आते नहीं है इसलिए मैं यही सोचता था कि यह समस्या कोई आम समस्या नहीं है। वैसे भी कभी कोई ऐसी महिला आ जाती थी अपने मुंह के इलाज के लिए।

लेिकन इस बार विश्व मधुमेह दिवस पर जब मैंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली अखबार में यह खबर देखी कि यहां मैडीकल कालेज में स्त्री रोग विशेषज्ञों ने एक स्टडी की है जिस में यह पाया है कि लगभग २० प्रतिशत महिलायें लखनऊ में गर्भावस्था के दौरान मधुमेह की चपेट में आ जाती है.....गर्भावस्था के दौरान होने वाला मधुमेह रोग लगभग ४ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में जटिलतायें उत्पन्न कर देता है।


सब से चिंताजनक बात यह पढ़ने को मिली कि जिन महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान मधुमेह रोग पाया जाता है......उन में से आधी महिलाओं को आगे चल कर ४० साल की उम्र पार करने पर मधुमेह रोग होने की बहुत संभावना होती है और जो महिलायें गर्भावस्था के दौरान मधुमेह से ग्रस्त होती हैं, उन से पैदा होने वाले बच्चे भी अकसर ४० साल की उम्र पार करने पर मधुमेह से ग्रस्त हो जाते हैं।

इतनी सारें बातें यहां करने का यही फंडा है कि गर्भवती महिलाओं को समय समय पर अपनी सभी जांचे करवानी ज़रूरी है......वैसे तो अगर वे नियमित अपने स्त्री रोग विशेषज्ञ से मिलती रहती हैं तो यह काम स्वतः ही होता रहता है...और एक बात, गर्भवती महिलाओं को खानपान के बारे में भी सही दिशा-निर्देश दिये जाने ज़रूरी हैं....क्योंकि भारतीय समाज में एक बात तो है कि गर्भवती महिला को अच्छा पर्याप्त पौष्टिक भोजन मिलने का मतलब यही लिया जाता है कि सब तरह का खाना ..मीठा भी ... कस के खाया जाये .......और वैसे ही इस समय दौरान शारीरिक श्रम तो ज़्यादा वर्जित ही होता है.....इसलिए मोटापा होने की संभावना और फिर इस से होने वाली परेशानियों का खतरा तो बढ़ ही जाता है।

बस, यह ध्यान रखें कि गर्भावस्था में जो मधुमेह रोग होता है......वह काफी जटिलतायें पैदा कर सकता है ... जच्चा बच्चा के लिए जन्म के समय भी और ४० की उम्र पार करने पर भी यह दोनों में मधुमेह रोग उत्पन्न करने की क्षमता तो रखता ही है। ध्यान रखियेगा।

गैस से भरे गुब्बारे का खेल भी खतरनाक

आज कल बहुत दिखता है कि पार्टीयों में गैस से भरे गुब्बारे खूब टंगे रहते हैं.....कुछ ही समय में बच्चे उन्हें फोड़ना शुरू करते हैं...होता है ना यह सब आज कल खूब!!

मुझे तो गैस के गुब्बारे देख कर अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं.....गुब्बारे वाले ने अपनी लकड़ी पर दो तरह के गुब्बारे टंगे होते थे.....एक साधारण और दूसरे गैसी गुब्बारे। गैसी गुब्बारे का रेट साधारण गुब्बारे की तुलना भी उस समय के अनुसार काफ़ी हुआ करता था....कभी कभी जब मैं गैस का गुब्बारा खरीदता था तो उस के साथ लंबा सा धागा बांध कर बैठक में छोड़ दिया करता था।

और सुबह उठ कर जितनी शिद्दत से आज के बच्चे व्हास्ट्स-अप और फेसबुक अपडेट्स चैक करते हैं, उस से भी कहीं ज्यादा शिद्दत से मैं बैठक की तरफ़ लपक पड़ता था यह देखने के लिए अपने गैसी गुब्बारे का क्या हाल चाल है?.. अगर वह अभी भी ऊपर छत पर लगा दिखता तो बहुत मज़ा आ जाया करता था। कितनी छोटी छोटी सी बातों में अपुन की खुशियां छुपी हुआ करती थीं!!



पांच सात दिन पहले यहां लखनऊ के पास गैस वाले गुब्बारों से संबंधित एक बड़ा हादसा हो गया..एक सरकारी समारोह में गैस के गुब्बारे छोड़े गये..साथ में कोई बैनर वैनर बंधा हुआ था.. यह गुब्बारे पास ही के किसी गांव में जाकर जब नीचे गिरने लगे तो बच्चों का झुंड आ धमका....और जैसे ही ये गैसी गुब्बारे फूटे, पास ही पड़े सूखे घास में आग लग गई... और लगभग १२-१५ बच्चों आग से बुरी तरह से झुलस गये। बड़ा अफसोसजनक हादसा था यह।

फिर अगले दिन पता चला कि अब इन गैस के गुब्बारों में लोगों ने हीलियम गैस की जगह हाईड्रोजन और एसिटिलिन जैसी गैसें ज्वलनशील गैसें भरनी शुरू कर दी हैं... सब कुछ सस्ते के चक्कर में .....ये लोग अमोनियम नाइट्रेट और कास्टिक जैसे कैमीकल्स को मिला कर हाइड्रोजन जैसी गैस तैयार करते हैं जो कि शीघ्र ही आग पकड़ सकती है।

पड़े हुए हैं सब लोग अब इस बात के पीछे कि दोषियों को पकड़ो....कुछ को पकड़ा भी गया है.....लेकिन लोगों को भी सचेत किये जाने की भी बहुत ज़रूरत है......और वैसे भी गैस से भरे गुब्बारों पर प्रतिबंध की तैयारी हो ही गई है।

सोचने वाली बात है कि पहले ही से कितनी चीज़ें हैं जो प्रतिबंधित हैं और धड़ल्ले से बिक रही है.....गुटखा, पानमसाला एक उदाहरण है।

१४ नवंबर २०१४ के हिन्दुस्तान लखनऊ संस्करण में छपी खबर 
आप भी सावधान रहिए...बच्चों की पार्टियों आदि में भी ध्यान रखिए.... इन गैसी गुब्बारों-वारों से दूर ही रहने में समझदारी है। 

स्कूली बच्चों की शादी, मोबाईल चोर की हत्या और सैक्स टॉय बाज़ार

ओह माईगाड---शीर्षक कितना सनसनीखेज दिखता है ..स्कूली बच्चों की शादी, मोबाईल चोर की हत्या और सैक्स टॉय बाज़ार....कुछ कुछ उस टीवी चैनल जैसा जो हर एपीसोड से पहले कहता है कि चैन से जीना है तो जाग जाईए। इस शीर्षक की बात तो बाद में करते हैं, उससे पहले एक बात याद आ गई कि डीएवी स्कूल अमृतसर में भी सत्तर के दशक में मेरी एक ड्यूटी लगा करती थी।
मुझे स्कूल के ज़ीरो पीरियड में एक साथी के साथ लाईब्रेरी में जाकर हिंदी और इंगलिश के पेपरों की हैडलाइन्ज़ को खंगालना होता था और फिर उन में से पांच छः मुख्य खबरें छांट कर हिंदी और इंगलिश में अलग अलग नोटिस बोर्डों पर गीले चाक से लिखनी होती थीं..यह सिलसिला दो तीन साल तो चला....मुझे बड़ा गर्व महसूस होता था कि जो मैं चाहूं वही लिख दूं बोर्ड पर ..फिर आधी छुट्टी के समय स्कूल के बच्चे उन्हें पढ़ा करते थे। आज सोचता हूं कि यह तो एक संपादक जैसा ही काम हो गया...फिर मुझे स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट एडिटर भी बना दिया गया......अच्छा लगता था यह सब काम करना।
आज भी जब अखबार देखी तो वही दिन याद आ गये.....तीन चार खबरों ने कुछ हिला सा दिया।
खबर पढ़ने के लिए इस क्लिपिंग पर क्लिक करिये
पहली खबर यह कि आठवीं क्लास का लड़का और सातवीं कक्षा की छात्रा लखनऊ के एक कानवेंट में पढ़ने वाले लखनऊ से भाग कर नैनीताल की तरफ़ निकल पड़े। घर से कुछेक हज़ार रूपये उन्होंने साफ किए और वे शादी के मनसूबे बना कर निकल पड़े। पहुंच गये बरेली.....वहां अगला कोई कार्यक्रम बना रहे थे कि किसी बैंक अधिकारी भद्रपुरूष को कुछ शक सा हुआ उन की उम्र देख कर....उसने पुलिस को सूचित किया......पुलिस के सामने उन्होंने यह सब कबूल किया... और फिर मां बाप उन्हें वापिस ले कर आए।

यह घटना समाज का आईना तो है ही .....यह केवल बदलते समय की दस्तक ही नहीं है, आज के मां बाप की रातों की नींद हराम करने के लिए काफ़ी है। मैं खबर पढ़ते यही सोच रहा था कि भला हो उस भलेमानुस का जिस की नज़र इन बच्चों पर पड़ गई और ये किसी अनहोनी का शिकार होने से बच गये।

अभी तो ये बच्चे १६ के भी नहीं हुए होंगे और अभी से ये तेवर......




दूसरी खबर यह कि कलकता के मैडीकल छात्र जिस होस्टल में रहते थे ... वहां उन्होंने एक मोबाईल चोर को पकड़ लिया... और फिर फिर सब ने क्रूरता से उस की तुरंत हत्या ही कर डाली। बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली यह घटना। भविष्य में डाक्टर बनने वाले डाक्टरों में इतनी क्रूरता कैसे आ गई कि एक मोबाईल के चक्कर में एक जान ही ले डाली.......डर लगा यह खबर पढ़ कर कि एक जान इतनी सस्ती भी हो सकती है। वह घटना याद आ गई हरियाणा की कुछ महीने पहले की जिसमें एक बच्ची के साथ मुंह काला करने वाले युवक का लोगों ने पकड़ कर लिंग ही काट कर उसे थमा दिया। हम निःसंदेह खतरनाक समय में जी रहे हैं। एक और खबर पर नज़र पड़ गई थी जिसमें कलकत्ता के ही एक घर में जब चोर घुसे और उन्होंने ८० पार कर चुकी बुज़ुर्ग महिला को धक्का मारा तो उसने चंद मिनटों पर मृत होने का ऐसा नाटक किया कि उस की जान बच गई।

तीसरी खबर ...यह खबर मुझे बड़ी अजीब सी लगी ... हो न हो यह भी कोई स्पांसर्ड टाइप की ही खबर थी ....खबर यह बता रही है कि अब महिलाओं ने सैक्स टॉयज़ में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी है और वे इन के ऊपर खूब पैसा खर्च कर रही हैं....यह खबर पढ़ कर तो ऐसा लगा कि जैसे सारे देश की महिलायें ही इस तरह की ऑनलाईन खरीददारी में लगी हुई हैं......कुछ भी अखबार वाले बकवास भी तो लिख देते हैं ना....यह उसी का ही एक उदाहरण है... उन्हें बकवास लिखना भी पड़ता होगा शायद.....पर शिकायत इस तरह की खबर से यह है कि जिन की ज़िंदगी चल रही है ठीक है....वे भी क्यों ठीक ठाक चलें, बेचो उन को भी ये सैक्स टॉयज़... और तरह तरह के सैक्स टॉयज़ के नाम और वे देख के किन किन शहरों में किस किस पते पर मिलते हैं, यह भी बता दिया गया है.........जबरदस्ती का सौदा...बेकार लगा यह देख कर.

प्रातःकाल के भ्रमण की तो कोई मांग नहीं...

यह कौन सा डिज़ाईनर है....
क्या नज़ारा है......वाह..
अभी अभी अपने घर के पास ही एक बाग में टहल कर आ रहा हूं...अच्छा लगता है। आज मैंने एक बुज़ुर्ग को बिल्कुल स्कूल की पी.टी की तरह अपने बाजु वाजू हिलाते-ढुलाते देखा तो मुझे बहुत अच्छा लगा। दो चार दिन पहले की ही बात है कि मैं अपने एक मरीज से उस की दिनचर्या की बात कर रहा था तो उस बुज़ुर्ग ने भी मुझे कहा था कि सुबह टहलता हूं और थोड़ी पी टी कर लेता हूं।

पता नहीं यह क्या है...पर देख कर मज़ा आ गया
उस दिन मुझे भी अपने स्कूल का पी टी पीरियड याद आ गया था... लेिकन सोचने वाली बात है कि क्या वह पी टी केवल अपने पी टी मास्टर की पिटाई से ही बचने के लिए हम किया करते थे....शायद हां, कुछ खास मन नहीं लगता था ना उस दौरान.........लेकिन अब तो उस सब में मन लगाने की बहुत ज़रूरत है।

हां, तो मैंने आज सुबह बुज़ुर्ग को पी टी जैसा करते देखा तो मैंने भी वैसे ही करना शुरू कर दिया....अच्छा लगा।

सुबह बाग में जब जाते हैं तो सब को बहुत खुश पाते हैं....भ्रमण करते करते जब लोगों के ठहाके सुनाई देते हैं तो यही कामना होती है कि ये ठहाके यूं ही गूंजते रहें....कोई हास्य-क्लब में ठहाके लगा रहे होते हैं कुछ लोग इक्ट्ठा हो कर......कुछ यार दोस्त वैसे ही हंसी-ठिठोली करते दिखते हैं।

ऐसे नज़ारे सब को रोज़ाना दिखते रहें..काश!
आज मैं यही सोच रहा था कि जो भी हो ये लोग घर से एक घंटे के लिए बाहर आ गये और बच्चे बन गये.....यही एक बड़ी बात है....हम लोग बच्चे ही तो बनना भूलते जा रहे हैं। सारे दिन में केवल एक घंटे तो अपने आप को देना बनता है कि नहीं।

मैंने एक बात नोटिस की है कि कुछ लोग सैर करते समय गंभीर सी बातें करते सुनाई पड़ते हैं.......मुझे नहीं पता कि यह ठीक है कि नहीं, वैसे हंसी मज़ाक हो और हल्की फुल्की बातें हों तो ठीक है, ज़्यादा गंभीर विषयों को तो शायद बाकी के तेईस घंटों के लिए छोड़ देना चाहिए......यार, पहले आप अच्छे से चार्ज तो हो जाईये।

वैसे भी यह सुबह का समय होता है यह अपने आप के साथ और प्रकृति के साथ समय बिताने का एक बेहतरीन अवसर होता है.....मैं भी कुछ कुछ तस्वीरें खींच लेता हूं......आज मैंने बाग में टहलते हुए जो तस्वीरें खींचीं, यहां ठेल रहा हूं.....कैसी लगीं?

पिछले दिनों मैं एक हृदय रोग विशेषज्ञ को रेडियो पर सुन रहा था ...बता रहे थे कि कुछ लोग सुबह सैर करना इसलिए टालते रहते हैं कि सैर करने वाले बूट नहीं हैं.....वह यही बताना चाह रहे थे कि सुबह की सैर की कोई मांग नही है, शूज़ नहीं हैं तो क्या है, चप्पल तो है, उसे ही पहन कर निकल पड़े.......मैं भी देखता हूं कि बाग में कुछ गृहिणीयां चप्पल डाल कर टहल रही होती हैं....बिल्कुल ठीक है।

एक बात और याद आ रही है कि स्कूल के शुरूआती दिनों में जब प्रातःकाल का भ्रमण विषय पर हमें निबंध लिखना सिखाया जाता है ...उसे जब गर्मी की छुट्टियों में हम उसे रिवाईज़ किया करते थे तो उन दिनों सुबह सुबह पास की ग्राउंड में टहलने भी निकल जाया करते थे......क्या मज़ा आता था.......लेकिन धीरे धीरे हम क्यों यह सब भूलना शुरू कर देते हैं....स्वर्ग सिधार गये अपने मास्टर लोगों की नज़र अभी भी अपने ऊपर है........इसलिए जो भी है, जैसे भी हैं, सुबह का एक घंटा अपने शरीर के लिए रख दें तो कितना अच्छा हो ! Let's stop taking things for granted!!

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

नवजात शिशु की आवश्यक देखभाल...

आज की अखबार में नवजात शिशु देखभाल सप्ताह - 14 नवंबर से 21 नवंबर 2014 तक.. से संबंधित उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ़ से एक पोस्टर देखा..

इस में बहुत सी काम की बातें लिखी हुई हैं....शायद हर पाठक इस से कोई ऐसी नईं बात जानेगा जिसे वह पहले न जानता होगा। इसलिए मैंने सोचा कि इसे एक पोस्ट के द्वारा नेट पर डाल दूं...ये सब काम की बातें अत्यंत अनुभवी विशेषज्ञों के अनुभवों के आधार पर पोस्टर पर लिखनी तय होती हैं......इसलिए कोई किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं होती......चुपचाप सब कुछ आंखे बंद कर मान लेने में ही बेहतरी है.....जच्चा और बच्चा दोनों की......

                        नवजात शिशु की आवश्यक देखभाल

  • प्रसव अस्पताल में ही करायें और शिशु का नियमित टीकाकरण करायें।
  • प्रसव के पश्चात् 48 घंटे तक अस्पताल में मां एवं नवजात की उचित देखभाल हेतु रूकें। 
  • विटामिन-K का इंजेक्शन अवश्य लगवाएं। 
  • नाभि को सूखा रहने दें, संक्रमण से बचाव करें, मां शिशु की व्यक्तिगत स्वच्छता का ध्यान रखें।
  • बच्चे को ठंडक (हाइपोथर्मिया) से बचाएं, मां अपने नवजात को सीने से चिपका कर गर्म रखें। जन्म के तुरन्त बाद न नहलायें। 
  • कम वजन वाले शिशुओं की विशेष देखभाल करें। 
  • जन्म के बाद नवजात का वजन अवश्य लें। 
  • जन्म के एक घंटे के भीतर मां का दूध पिलायें। शुरू में निकलने वाला मां का पीला गाढ़ा दूध नवजात को बीमारियों से सुरक्षित एवं तन्दरूस्त रखता है। 
  • स्तनपान बार-बार करायें, शिशु जितनी बार चाहे, दिन और रात में मां का दूध पिलायें। 
  • बच्चे को शहद, घुटटी इत्यादि न पिलायें, छः माह तक पानी बिल्कुल भी ना पिलायें। 
  • कुपोषण से बचाव के लिये 6 माह तक बच्चे को केवल स्तनपान करायें। 

नवजात को न 
तुरन्त नहलायें, 
पोंछ उसे कपड़े पहनायें। 
मां की छाती से 
तुरन्त लगायें, 
ठंड निमोनिया से 
उसे बचायें। 


चाय से नफ़रत के मेरे कारण....

जहां तक मुझे याद है...चाय पीना बचपन ही से मुझे खासा पसंद रहा है.....अच्छी कड़क चाय ..परांठे, आम का आचार ...बस और क्या चाहिए होता था।

चाय मैं अकसर चार बार तो ले ही लेता हूं.....मात्रा हम लोग कम ही लेते हैं......छोटे छोटे कांच के गिलास और प्यालियां हैं...दो बार तो सुबह और दो बार शाम को चाय हो जाती है। लेकिन मैं अपनी ड्यूटी पर चाय कभी नहीं पीता.....अपवाद केवल वे दिन होते हैं शायद महीने में एक दो बार जब मीटिंग में चाय पिलाई जाती है, मैं वहां भी पीना नहीं चाहता, लेकिन वही फार्मेलिटि का ढोंग तो करना ही पड़ता है।

आप सोच रहे होंगे कि अगर तुम्हें चाय इतनी ही पसंद है तो फिर यह नफ़रत वाली बात क्यों कर रहे हो। इस के ही कारण मैं आप से शेयर करना चाहता हूं।

घर में चाय पीने में कोई दिक्कत नहीं ... लेकिन मैं आप को यह भी बताना चाहता हूं कि मैंने बीस वर्ष पहले सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम किए....वहां पर चाय तो छुड़वा ही देते हैं......दो तीन दिन तकलीफ़ हुई....बाद में ध्यान ही नहीं जाता था....जब इन योगा एवं ध्यान प्रोग्रामों के Silence Retreats के लिए आश्रम जाना होता....चार दिन, एक सप्ताह और २८ िदन तक....तब वहां भी चाय का ध्यान नहीं आता था.....वातावरण ही कुछ ऐसा रहता है इन रमणीक स्थानों का..।

वैसे भी अगर हम नियमित ध्यान करते हैं तो फिर चाय आदि उत्तेजक पेय उस में बाधक हैं....ये ध्यान होने नहीं देते क्योंकि हम लोग सेटल ही नहीं हो पाते।

यह तो थी थ्यूरी की बातें......सब कुछ पता होते हुए भी मैंने तीन-चार वर्षों में ही चाय फिर से पीनी शुरू कर दी......फिर कुछ वर्षों बाद ध्यान आया...फिर कुछ समय के लिए छोड़ दी......यह सिलसिला तीन चार बार तो चल ही चुका है...जहां तक मुझे याद है।

सफ़र के दौरान चाय नहीं लेता..........मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सफ़र के दौरान चाय ली हो.....कितना भी लंबा सफ़र हो, चाय मैं बाहर की नहीं ले पाता....अब होता यह है कि जब तक सफ़र खत्म होने वाला होता है चाय न पीने की वजह से मेरा हाल बुरा हो चुका होता है.....बिल्कुल वही सब बातें जो नशा छूटने पर होने लगती हैं......एसिडिटी, मितली आना, सिर भारी, सिरदर्द, बेचैनी....ऐसा मेरे साथ लगभग हर लंबे सफ़र के बाद होता ही है।

चाय के साथ बिस्कुट, भुजिया.......एक बात और भी है कि इस देश में खाली चाय को पीना जैसे अशुभ सा माना जाता है, मुझे ऐसा लगता है। जितना बार चाय उतनी बार भारी भारी बिस्कुट और भुजिया खाते खाते अब लगने लगा है कि बढ़ती उम्र के साथ साथ खाने में थोड़ा तो नियंत्रण करना ही होगा। कुछ दिनों से यह सोच रहा था कि चाय पीना ही बंद कर दूं ताकि ये सब अनाप-शनाप खाद्य पदार्थों पर भी अपने आप अंकुश लग जाएगा।

शर्बत जैसी मीठी चाय.......एक और बुरी आदत है कि अच्छी कड़क चाय और काफ़ी मीठे वाली चाय ही मुझे पसंद है। अब इतना मीठा खा खा के कैसे कोई ठीक रह पाएगा?

इन सब कारणों के रहते मैंने इस बार एक लंबे सफ़र के दौरान निश्चय किया कि अब इस चाय को त्याग ही देना है......बस इस बार ठान लिया था, अब लगभग १० दिन होने को हैं , मैंने चाय नहीं पी........दो तीन चार दिन तकलीफ़ तो हुई......मैं आपसे शेयर करना चाहता हूं कि उस तकलीफ़ के लिए मैंने क्या किया......उस के लिए मैं दिन में दो एक बार तो कोई ओमीप्राज़ोल नामक कैप्सूल (जो एसिडिटी को कंट्रोल करता है) लिया करता था.....एक तो खाली पेट.......जिस से मुझे काफी मदद मिली।

तीन चार दिन तो मैं सिरदर्द से परेशान रहा......लेटा ही रहा लगभग.....कभी कोई दवा भी ले लिया करता था। फिर तीन चार दिन के बाद सब सेटल होने लगा।

जैसा कि मैंने लिखा है कि मुझे चाय से कोई घृणा नहीं है, लेकिन इस के बिना जब बाहर नशा टूटने जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं तो बहुत ज़्यादा दिक्कत हो जाती है......इसलिए अब इस से किनारा करने का ही फैसला कर लिया है।

इन तीन चार दिनों के दौरान जब मैं चाय के withdrawal symptoms (नशा टूटने जैसे लक्षण)..झेल रहा था तो मैं बार बार यही सोच रहा था कि एक चाय को छोड़ना अगर इतना मुश्किल है तो दूसरे नशों को छोड़ना भी तो उतना ही मुश्किल होता होगा........शायद इस से भी ज़्यादा......इसलिए इन सब तंबाकू, शराब, ड्रग्स आदि घातक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिए........

एक खुशखबरी.....जब से चाय छोड़ी है, फिर से प्रातःकाल का भ्रमण नियमित हो रहा है, प्राणायाम् भी फिर से शुरु किया है और ध्यान भी दो बार तो हो ही जाता है।

इसी बात पर यह गाना ध्यान में आ गया.......कितना आसां है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना.....यह गाना मुझे बहुत पसंद है....यह फिल्म मैंने 1981 जनवरी में अमृतसर की नंदन टाकीज़ में देखी थी....




सुबह का नाश्ता और मधुमेह रोग

सुबह के नाश्ते की बात चलते ही मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं....याद नहीं कि किसी दिन बिना ढंग से नाश्ता खाए हम लोग स्कूल-कालेज गये हों..दो परांठे..और साथ में दही शक्कर का नाश्ता अपना फेवरेट हुआ करता था...लेकिन जब मैं अपने बेटों के बारे में नाश्ते की बात करता हूं तो यह लगता है कि शायद ही कोई दिन हो जब वे नाश्ता कर के स्कूल गये हों......बस, एक गिलास दूध पी लेने से क्या होता है।

याद आ रहा है कि जब हम कालेज में थे तो ओपीडी में खड़े खड़े अगर किसी छात्रा को चक्कर जैसा महसूस होता था तो हमारे प्रोफैसर लोग लड़कियों को बड़ा डांट दिया करते थे कि तुम लोग सुबह का नाश्ता न करने के चक्कर में अपनी सेहत बिगाड़ लेती हो।

आज इस नाश्ता की बातों का ध्यान फिर से इसलिए आ गया क्योंकि आज विश्व डॉयबीटीज़ दिवस होने की वजह से अखबारों में खूब लिखा गया है इस की रोकथाम के बारे में ...टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में साफ़ साफ़ लिखा है कि एक पौष्टिक सुबह का नाश्ता भी मधुमेह रोग से बचाता है। 

सोचने वाली बात यही है कि क्या हम लोग यह नहीं जानते......जानते तो हैं लेकिन आज कल की युवा पीढ़ी अपने नाश्ते को गोल करने के चक्कर में पड़ी है, वह अपने आप में जीवनशैली से संबंधित बीमारियों को एक खुला आमंत्रण जैसा है।

मैं अकसर सुबह सुबह देखता हूं कि कुछ श्रमिक ईंटों के बीच आग जला कर जो नाश्ता बना रहे होते हैं ...मोटी मोटी रोटियां और साथ में कोई सब्जी पका रहे होते हैं....नाश्ता इस तरह से करने पर ही वे फिर दिन भर मेहनत के लिए तैयार हो पाते हैं।

उस दिन मैं एक हृदय-रोग विशेषज्ञ की बातें आपसे साझा कर रहा था तो वह भी यही बात कह रहे थे कि सुबह का पौष्टिक नाश्ता तो बहुत ज़रूरी है ही क्योंकि यह िदन भर आप के एनर्जी के स्तर को कायम रखता है।

अब पौष्टिक की परिभाषा क्या है, इसे भी समझना ज़रूरी है.....रोटी-सब्जी, दलिया, दोसा, इडली...कुछ भी जो आम तौर पर हम लोग खाते हैं यह अच्छे नाश्ते की ही श्रेणी में आता है। लेिकन बड़े शहरों में जाते जाते रास्ते में वड़ा-पाव ले कर खा लेना, कचौड़ी-समोसा रोज ही खाना, कुछ भी बिस्कुट-पाव-टोस्ट लेकर खाना....यह पौष्टिक नाश्ते के उदाहरण नहीं हैं और ना ही रोज़ रोज़ घी में तैर रहे परांठे आदि खाना ही सेहत के लिए ठीक है।

अब देखते हैं कि यह भी साधन संपन्न लोगों में एक ट्रेंड हो गया कि नाश्ते के साथ फलों का रस लेना...और वह भी ब्रांडेड किसी कंपनी का ही......नहीं, या तो ताज़ा फ्रूट जूस ही लें, अन्यथा फ्रूट ही खाना ठीक है। यह बोतल वोतल वाले फलों के रस एक आध दिन के लिए तो ठीक हैं, रोज़ रोज़ इन्हें लेना मुनासिब नहीं है...वैसे यह कोई मुद्दा नहीं है क्योकि ९९.९प्रतिशत लोग इस देश में रोज़ाना सुबह नाश्ते के साथ जूस लेते भी नहीं है, ले पाने में असमर्थ भी होते हैं और इस तरह के नाश्ते हिंदी सीरियलों में ही दिखते हैं....

अब डबलरोटी का बात कर लें......अपनी अपनी च्वाईस है, मेरा बेटा ब्राउन ब्रैड देख कर यही समझता है कि यह गेहूं की क्वालिटी ही है जिसने ब्रेड को ब्राउन कर दिया है........नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहंीं है, जितना मैं समझा हूं ये सब कलर्ज़-वलर्ज़ का कमाल है......वरना ब्रेड तो ब्रेड ही है।

पता नहीं मैं अपनी पसंद क्यों बीच में घुसानी शुरू कर देता हूं.....लेकिन मुझे ब्रेड से बहुत नफ़रत है......सिंकी हुई ब्रेड तो मैं फिर महीने में एक आध बार खा लेता हूं लेकिन िबना सिंकी ब्रेड तो मैं चख भी नहीं पाता.....चलिए, हर बंदे की अपनी पसंद नापसंद है........वैसे ब्रेड बनती तो मैदे से ही हैं......और मैदा (refined flour) खाना सेहत के लिए अच्छी बात नहीं है।

फिजूल में इतना कुछ लिख दिया कि नाश्ता कैसा हो, कैसा न हो.....हर बंदे को अपने सामर्थ्य के अनुसार पता ही रहता है कि अच्छा नाश्ता कैसा होता है...फिर भी हम लिखने वाले हैं, हमें तो बस लिख कर ही तसल्ली होती है। असल बात तो है सुबह सवेरे अच्छा सा नाश्ता करने की.......जैसा कि आप समझ ही गये हैं कि अच्छे का मतलब कदापि नहीं है कि महंगा.......सीधे, सादे, हिंदोस्तानी घर में तैयार नाश्ते से बढ़ कर भी क्या कोई ज़्यादा पौष्टिक सुबह का नाश्ता है?...नहीं।

बिना नाश्ता किए बच्चों का मन पढ़ाई में, काम करने वालों का काम में कैसे लगता होगा, यह भी एक रिसर्च का विषय है।

आशा है कि आप तो सुबह सवेरे एक अच्छा सा ब्रेकफास्ट ज़रूर कर ही लेते होंगे, बहुत अच्छा करते हैं, इस आदत को मत छोड़िएगा.....बहुत अच्छी और सेहतमंद आदत है।

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

जीवनशैली से संबंधित कुछ छोटी छोटी बड़ी बातें...

बीते सोमवार बाद दोपहर में मैं विविध भारती पर पिटारा प्रोग्राम के अंतर्गत एक सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ की इंटरव्यू सुन रहा था...एक घंटे का कार्यक्रम होता है यह.....और रेडियो पर प्रसारित होने वाले सेहत संबंधी बेहतरीन कार्यक्रमों में से यह एक है।

बातें उन्होंने बहुत अच्छे से सभी समझाईं......दिखने में छोटी छोटी बातें थीं लेकिन इन का हमारी सेहत पर कितना गहरा प्रभाव होता है।

अच्छा शुरूआत करते हैं पानी पीने की बात से......आप ध्यान करें तो या तो आप को किसी ने कभी न कभी कहा होगा या आप ने आगे किसी से यह कहा होगा कि रात में सोते समय पानी मत पियो..क्योंिक फिर रात में बाथरूम जाने के लिए उठना पड़ेगा।

उस विशेषज्ञ ने बताया कि यह एक बहुत गलत बात है। वैसे ही आज कल लोग बंद दफ्तरों में वातानुकूलित कक्षों में काम करते हैं जिस की वजह से उन्हें वैसे ही प्यास कम लगती है...लेिकन इस का मतलब यह नहीं है कि शरीर में पानी की आवश्यकता नहीं है। शरीर को विभिन्न क्रियाओं के लिए पानी चाहिए.... जो भी विषैले तत्व शरीर में उपलब्ध हैं, उन को बाहर निकालने के लिए भी पानी ही चाहिए... इसलिए वह डाक्टर यह सलाह दे रहे थे कि आफिस में काम करने वालों को वाटर-कूलर तक जा कर पानी पीने की आदत डाल लेनी चाहिए.... ज़रूरी नहीं कि प्यास लगे तभी वाटर कूलर का रूख करना है। वह तो यह भी कह रहे थे कि हर घंटे के बाद एक गिलास पानी पीना चाहिए।

डाक्टर साहब आज के युवा प्रोफैशनल्ज़ की भागती दौड़ती जीवनशैली के बारे में बात करते कह रहे थे कि किस तरह से आज कल युवा १५-१६ घंटे कुर्सी टेबल पर ही बैठे रहते हैं.....ढंग से खाने का समय नहीं, एक्सरसाईज़ का समय नहीं... बस कुछ भी जंक फूड खाते रहते हैं... ऊपर से सिगरेट, तंबाकू .. ऐसे में वह बता रहे थे कि कोई ताजुब्ब की बात नहीं कि छोटी उम्र के युवा भी दिल के रोग का शिकार होने लगे हैं।

बड़ी अच्छी बात बता रहे थे कि सारे दिन के २४ घंटों में से कम से कम आधा एक घंटा तो हमें अपने शरीर को भी देना चाहिए। सुबह जल्दी उठ कर ३०-४५ मिनट का भ्रमण करना ही इतना लाभदायक होता है।

सुबह ११-१२ बजे फ्रूट ब्रेक की बात कह रहे थे .. बहुत बढ़िया लगी यह बात.... शाम को ४ बजे भी कोई फ्रूट आदि को लेने की एडवाईस दे रहे थे।

अभी मुझे लिखते लिखते यही लग रहा है कि कितनी बातें हम लोग स्कूल के दिनों से जानते हैं कि क्या खाना है, कितना  व्यायाम करना है, प्रातःकाल का भ्रमण क्यों ज़रूरी है...फल क्यों ज़रूरी हैं, तंबाकू और शराब क्यों खराब है.....सब कुछ हम सैंकड़ों बार पढ़ सुन चुके हैं.....लेकिन फिर भी सभी डाक्टर अपने अपने पेशे से संबंधित बिगड़े से बिगड़े देखते हैं.....आज ही मैंने एक ४५ वर्ष के आदमी को देखा, पहले पान खाता था फिर गुटखा शुरू कर दिया....उस के कागज़ बता रहे थे कि चार वर्ष पहले भी डायग्नोज़ हुआ था कि मुंह का कैंसर है......लेकिन अब इतना ज़्यादा फैल चुका था कि ऊपर वाले होंठ से बाहर की तरफ़ भी घाव दिख रहा था.....

मरीज़ों की खुशी हमें खुश कर देती है और मरीज़ों का दुःख हमें दुःखी कर जाता है.....हम लोग भी कोई सुपर-हयूमन थोड़े ही ना हैं......बहुत मूड खराब होता है .......मैं कल ही सोच रहा था कि सरकारी अस्पताल की ओपीडी में बैठे बैठे इसलिए हम जैसे डाक्टर लोग पता नहीं कितनी बार मन ही मन दिल ही में कितनी बार रो लेते हैं और कभी जब मरीज़ को खुश देखते हैं तो हम भी खिल उठते हैं।

जीवनशैली की तरफ़ ध्यान देना है बड़ा ज़रूरी। Take care!!

बुधवार, 12 नवंबर 2014

यादाश्त के अनूठे कारनामे को सलाम...

आज से ठीक २० वर्ष पहले जब मैंने सिद्ध समाधि योग का प्रोग्राम किया...इन के एडवांस्ड रेज़िडेंशियल प्रोग्रामों में भाग लिया तो इन के सुपर मेमोरी प्रोग्राम के बारे में पता चला कि किस तरह से एक संतुलित जीवनशैली के बलबूते ये स्कूली बच्चों की यादाश्त को बहुत ही ज़्यादा सुधार देते हैं.....यह कार्यक्रम बहुत सुंदर था.....स्कूली बच्चों के स्कोर बढ़ाने के लिए इसे खूब इस्तेमाल किया गया...सब कुछ वैज्ञानिक ढंग से...बच्चों में योग, प्राणायाम् और ध्यान के द्वारा उन की यादाश्त बढ़ती देखी मैंने इस संस्था में।

फिर कुछ समय बाद देखा कि कुछ तरह के कमर्शियल लोग भी इस प्रोफैशन में आ गए......इन के विज्ञापन तो आप लोगों ने अखबारों में भी देखे ही होंगे ......और फिर हिंदी के अखबारों के वे विज्ञापन कि बच्चों को ये सिरिप पिला दें तो उन की यादाश्त इतनी ज़्यादा बढ़ जाएगी.........उस तरह की सारी बकवास से आप वाकिफ़ ही हैं।

चलिए, ये तो बातें होती रहेंगी लेकिन आज सुबह जब मैंने आज का टाइम्स ऑफ इंडिया देखा तो उस में एक न्यूज़-रिपोर्ट थी एक जैन साधु के बारे में.... ये २४ वर्ष के हैं जिन का नाम है.. मुनिश्री अजीतचंद्रा सागर जी...और आने वाले रविवार को बंबई के एक स्टेडियम में यह दर्शकों के ५०० प्रश्न लेंगे.....ये पांच सौ के पांच सौ प्रश्न याद कर लेंगे और फिर उन्हें बढ़ते या घटते क्रम में जैसा भी कोई चाहे ये उन सभी प्रश्नों के उत्तर देंगे। है कि नहीं, दांत के तले अंगुली दबाने वाली बात......मुझे भी ऐसा ही लगा।
यह इवेंट सरस्वती साधना रिसर्च फाउंडेशन आयोजित कर रही है।

इतना ही नहीं, जब वे सारे ५०० प्रश्न सुन लेंगे तो कोई श्रोता अगर बीच ही में कह देगा कि आप प्रश्न नंबर ६३ को रिपीट करें और उस का जवाब बताएं ...तो वह भी काम करेंगे।

कुछ इंगलिश में लिखता हूं जो पेपर में लिखा था.....अच्छा लगा था पढ़ कर....
The 'Shatavdhan' or 100-question challenge is a remarkable achievement in itself. The challenger must recall 100 questions posed by onlookers, and repeat the questions and answers in ascending and descending order: When the audience calls out a random number, say 21, he must remember the question against that number. Sunday's challenge involves 500questions, so the effort is five-fold.
The previous such challenge of 1,000 questions is believed to have been accomplished by another jain monk, Muni Sunder Suriswarji Maharaj Saheb, in the court of Raja Bhoj 500 years ago. He had earned the title of 'Sahastravdhani'.

और एक बात आप इन से केवल जैन धर्म से ही संबंधित सवाल नहीं पूछ सकते, बल्कि आप जटिल से जटिल अंकगणित और इतिहास के प्रश्न भी पूछ सकते हैं।

कितनी हैरान करनी बात है ना.......हो भी क्यों नहीं. दरअसल जैन धर्म दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धर्मों में से है जो पूरी तरह से वैज्ञानिक जीवनशैली पर आधारित है..इन का सब कुछ संतुलन में रहता है....खानपान, विचार, आचार-व्यवहार.....इन की साधना........शायद इस सब का ही यह परिणाम होता होगा कि जैन साधु इस तरह की हैरतअंगेज सिद्धियां प्राप्त कर लेते हैं........सही तरह से जैन धर्म को मानने वालों से मैं हमेशा बेहद प्रभावित रहा हूं ..इन की बोलचाल...व्यवहार, सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है.....आप ने नोटिस किया होगा िक मैं जैन सरनेम की बात नहीं कर रहा हूं .....मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं जो जैन हैं और जैन धर्म की मर्यादा में रहते हुए अपना जीवनयापन करते हैं........

मुझे भी रविवार का इंतज़ार है, कोई न कोई चैनल वाला तो इस इवैंट को दिखाएगा ही.....

वैसे मेरे विचार में आप ने मेरी बात तो सुन ली, अगर आप ओरिजनल खबर भी पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं....  Jain monk to recall 500 questions by audience.

मैंने यह सन्नाटा तो नहीं मांगा था....

कुछ दिन पहले मैं ट्रेन से लखनऊ से बंबई जा रहा था... सैकेंड ए.सी के डिब्बे में एक फैमली थी.. शायद किसी प्राईव्हेट कंपनी में काम कर रहे थे...और तबादला होने पर बंबई जा रहे थे.....छोटी छोटी दो बेटियां.....एक होगी कोई तीन चार वर्ष की और दूसरी तो अभी बहुत ही छोटी थी.....बोतल में दूध पीती थी।

इतनी बातें, इतनी बातें ......मैं तंग आ गया था.....लेकिन कोई करे तो क्या करे, किसी को कुछ कहा भी तो नहीं जा सकता कि आप बातें थोड़ी सी कम कर देंगे क्या..और बच्चे तो आज कल वैसे ही बच्चे नहीं रहे....वह छोटी लड़की कभी मां की क्लास लेनी शुरू कर दे कि आपने पापा को अभी ऐसा क्यों कहा.....हार कर मां को कहना ही पड़ता कि मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा....लेकिन फिर वह बच्ची मां को कहने लगी....आप पापा को डांट को देती हो?

शायद बंदे के बापू का फोन आया......उसने शायद खुद पहले बात करनी चाहिए....तो फिर जब बच्ची की बारी आई तो शिकायत करने लगी अपने दादू से कि मुझे आप से बात भी नहीं करने देते।

सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था....पांच छः बार चाय भी पी चुके थे वे सब, दो तीन टमाटर के सूप और लंच डिनर अच्छे से संपन्न होने के बाद ...जैसे कहावत है ना......खाली दिमाग शैतान का घर........औरत को पता नहीं क्या सूझा कि वह एक कंट्रोवरशियल मुद्दा ले कर बैठ गई.....कि मैं तो फलां फलां जगह इन बेटियों से राखी भिजवाया करूंगी। बंदे ने कुछ ऐसा कहा कि हर जगह थोड़ा ही भेजती रहोगी राखियां.....बस फिर तो उस बंदी ने उस की ऐसी क्लास ली....कि आप बताओ कि आप के मना करने का कोई लॉजिक है या बस जो आप को अच्छा नहीं लगे, वह नहीं करना है। हाथ धो कर ऐसा उस के पीछे पड़ी कि उस ने भी जान छुड़वाई यह कह कर कि ठीक है, जहां जहां मन करे , भेज देना राखियां......

इतने लंबे समय के सफ़र में मैं उन की बातें सुन सुन कर इतना थक और पक गया कि उस दिन निश्चय किया कि अगली बार से लंबा सफ़र तो फर्स्ट एसी श्रेणी से ही करने की कोशिश करूंगा। यह भी सोचा कि कान में ठूंसने के लिए कोई प्लग आदि का भी पता करना चाहिए.........जैसे रोशनी में सोने के लिए आंख के ऊपर काली पट्टी भी तो मिलती है।

बहरहाल, वापिस भी लौटना था दो दिन बाद.......सैकेंड एसी में ही आना था....डिब्बे में आते ही दिखा कि एक १८-२० वर्ष की युवती एक अधेड़ उम्र की औरत के साथ (जो उस की मां थी, बाद में पता चला)...मेरे सामने वाली सीट पर बैठी हुई थीं। उस युवती ने चेहरे पर मास्क पहना हुआ था और सिर पर एक कैप जैसा कुछ कस के बांध रखा हुआ था....ठीक से पूरी बात नहीं कर पा रही थी.....अटक अटक के अपनी बात पूरी कर रही थी.....मैं समझ गया कि ये लोग टाटा अस्पताल में किसी कैंसर आदि का इलाज करवा के लौट रहे हैं।

जी हां, वही बात थी....मन बहुत बुरा हुआ जब पता चला.....मैंने पूछा नहीं ..मुझे ऐसे पहले ही से परेशान बंदे से पर्सनल से प्रश्न पूछने अच्छे नहीं लगते...क्या हरेक को वे बार बार वही बातें दोहराएं.....लेकिन रिश्तेदार और मित्रों के उन को जो फोन आ रहे थे उससे ही पता चला कि ये दोनों उस युवती का इलाज करवा के ही लौट रहे हैं..

मैंने उस महिला को कहा कि आप भी नीचे वाली सीट पर ही आ जाएं......मैं ऊपर चला जाता हूं क्योंिक उसे बार बार उस युवती को लेकर बाथरूम जाना पड़ रहा था....पानी भी मां उसे बार बार एक माप में बार बार पिला रही थी ... डाक्टरों ने ऐसा कुछ कहा होगा......बार बार उस युवती को जूता पहना कर, उसे थोड़ा सहारा देकर बाथरूम ले कर जातीं और लौट कर उसे फिर से सेटल करतीं।

मैं तो वैसे ही गाड़ी में चुपचाप ही रहता हूं.....मुझे नहीं याद कि हम लोग परिवार में भी जब चलते हैं तो ज़्यादा बातचीत करते हैं....हमारा सिर भारी होने लगता है....बस लेटे ही रहते हैं.....इसलिए मैं भी लेटा ही रहा पूरा दिन.....लाइट बंद.....उस केबिन में एकदम सन्नाटा सा ही रहा ... बस बीच बीच में कभी कोई फोन जब आता तो वे मां-बेटी बड़ी शालीनता से बात तो कर लेतीं........एक बार तो वे दोनों किसी से बात करते करते हंसने लगीं.......मुझे बड़ा अच्छा लगा.....वरना बेटी तो लेपटाप पर लगी रही अधिकतर और मां चुपचाप चिंता में डूबी ही दिखी।

उस महिला ने बताया कि यह इंजीनियर है, सर्विस करती थी ...फिर यह तकलीफ़ हो गई.... इलाज करवाने पर ठीक ही थी लेकिन फिर से ग्रोथ हो गई है ..अब फलां फलां अस्पताल टाटा वालों ने रेफर किया है.....मैंने नहीं पूछा कि किस जगह का कैंसर है, मुझे ठीक नहीं लगा उन के मन के घाव को कुरेदना....

जब मैं ऊपर वाली सीट पर लेटा हुआ था तो मैं चुपचाप यही सोच रहा है कि भगवान, मैंने ऐसा सन्नाटा तो नहीं मांगा था.......ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब लोग हंसते-खेलते, मुस्कुराते और स्वस्थ रहें........बातों का क्या है, कोई ज़्यादा बातें कर भी रहा है तो उन को सुनते रहने की आदत डालनी कौन सा मुश्किल काम है......उस पूरे दिन का सन्नाटा मेरे मन को कचोट रहा था।

लखनऊ स्टेशन पहुंचते पहुंचते मेरे से रहा नहीं गया....मैंने उस बेटी को इतना आशीर्वाद तो दिया ही.......God bless you with some magical recovery! Wish you all the very best!!

ईश्वर उस युवती को तंदरूस्त करे और आगे भी सेहतमंद रखे। आमीन!!

सोमवार, 10 नवंबर 2014

बंबई में अनानास बेचने का बढ़िया ढंग

बंबई की कुछ बहुत बढ़िया रिवायते हैं.....जैसे कि नारीयल को अच्छे से फोड़ कर ग्राहक को थमाते हैं..वे इस काम में पूरे एक्सपर्ट हैं.. गन्ने का रस कितने अच्छे से निकाल कर परोसते हैं उस के बारे में एक पोस्ट मैंने २००८ में लिखी थी जिस का लिंक यहां दे रहा हूं.... गन्ने का लुत्फ तो आप भी उठाते ही होंगे


दो दिन पहले मैं बंबई में था....सड़क पर एक अनानास बेचता हुआ दिख गया......यहां यह दिखाना चाहता हूं कि आप देखें कि कितना साफ़-सुथरा तरीका है अनानास बेचने का। फल को छीलने के लिए भी उस ने अपने हाथों पर पालीथान लपेट िलया है। मैंने जब इसे साफ़ सफ़ाई का एक नमूना बताया तो मुझे बताया गया कि वह यह पालीथान तो अपने आप को किसी चोट से बचाने के लिए लपेटता होगा......मैंने कहा कि जो भी हो......it is a win-win situation!


जहां तक मेरा अनुभव रहा इस फल को खाने का....अकसर तो फल वाले इसे बिल्कुल ऐसे का ऐसा ही थमा देते हैं। घर में आकर कौन इतनी सिरदर्दी करे......और देखा गया है कि घर में इसे इतने अच्छे से काटा जा भी नहीं सकता, इसलिए खाने में अच्छा नहीं लगता क्योंकि बीच बीच में कुछ सख्त सा हिस्सा आने लगता है।


लेकिन इन तस्वीरों में आप देखें कि दुकानदार कितनी साफ़-सफ़ाई से हर अनानास से उस के सख्त हिस्सों को कितनी निपुणता से अलग कर के और बाद में इस के टुकड़े कर के आप को पार्सल थमा देता है। बंबई की इस स्पिरिट को सलाम।


हां, एक बात है छः-सात वर्ष पहले एक बार देखा था कि किस तरह से मिलावटी अनानास को दिल्ली में बेचा जा रहा था, रंग में डुबो कर.....आप इस लिंक पर जा कर देख सकते हैं, वह भी मेरी आंखो-देखी ही थी......मिलावटी खान-पान के कुछ रूप ये भी। 

मुझे बंबई वाले पाईन एपल का फ्रूट को काटने का तरीका अद्भुत लगा इसलिए मैंने उसे कह कर इस की एक वीडियो बनाई जिसे यहां एम्बेड कर रहा हूं, देखिएगा.........



सोमवार, 3 नवंबर 2014

डिठवन पर्व है आज...

आज दोपहर बाद मैंने लखनऊ के बाज़ार में देखा कि बढ़िया बढ़िया क्वालिटी के गन्ने और शकरकंदी खूब बिक रही थी, मुझे यह अनुमान लगाते देर न लगी कि आज भी कोई त्योहार है, कोई तो व्रत है, पर्व है।

एक बुज़ुर्ग रिक्शेवाला मेरे पास आकर रूका......मैंने उस से पूछा....आज क्या कोई त्योहार है। उस ने बड़े उत्साह से मुझे जवाब दिया...हां, हां, यह डिठवन है। मुझे शब्द अच्छे से पल्ले पड़ा नहीं। फिर भी उस बेचारे ने तो मुझे दो बार दोहरा कर बताने की कोशिश तो की ही...इतने में उस की सवारी आ गई।

अभी मैं जब फिर से बाज़ार में निकला तो लोगों को ताबड़तोड़ गन्ने और शकरकंदी खरीदते देखा... मैंने एक बंदे को पूछ ही लिया कि इस त्योहार का क्या नाम है। तो उसने वही शब्द बोला ...मैंने उसे कहा कि आप ज़रा लिख दें.....मैं नेट पर देख लूंगा।

उसने लिख तो दिया ...चाहे उस ने ठीक से लिखा नहीं था, लेकिन इतना बता दिया कि यहां गांव-देहात में इसे डिठवन कहते हैं.....



अब मुझे यह तो पता नहीं कि यह पर्व कैसे मनाया जाता है लेकिन फिर से नेट पर हिंदी लिख लेने का एक फायदा यह तो है कि आप गूगल से तो पूछ ही सकते हैं.....पहले तो स्पैलिंग गलत ही थे, फिर आखिर जब डिठवन लिखा तो दिख गया कुछ कुछ अपने मतलब का।

जिस पन्ने पर जाकर मैंने इस पर्व के बारे में पढ़ा, आप भी इसे यहां जाकर पढ़ सकते हैं......मन साफ होंगे तभी होंगे हरि दर्शन 

कईं बार यही अहसास होता है कि हम लोग अपने शहर की जगहों को नहीं जानते, गली मोहल्लों के नामों से वाकिफ़ नहीं है, अपने ही कितने तीज-त्योहारों के नाम तक नहीं जानते, किसी दूसरे प्रांत में चले जाएं तो वहां पर कुछ ऐसी सब्जियां दिखती हैं जो पहले कभी देखी नहीं होती........सच में हमारा ज्ञान कितना सूक्ष्म है.....फिर भी हम लोग पता नहीं किस बात पर इतराए रहते हैं, नाक पर मक्खी नहीं बैठते देते....बात सोचने लायक है कि नहीं!!

शनिवार, 1 नवंबर 2014

जुबान के जख्म बहुत जल्द भर जाते हैं..

परसों मैंने अपनी एक पोस्ट में एक महिला की जुबान की कुछ तस्वीरें लगाई थीं....और उस लेख का शीर्षक था.....नुकीले दांत जुबान काट देते हैं। 

सारी विस्तृत जानकारी तो मैंने उस महिला की तकलीफ़ के बारे में लिख ही दी थी।

दो दिन बाद आज वह वापिस चैक अप के लिए आई थी। बड़ी खुश थी.....कह रही थी कि दर्द भी गायब, गले की सूजन भी ठीक और खाना पीना भी लगभग सही हो रहा है और जुबान का ज़ख्म भी ठीक होने लगा है।

दो दिन पहले जुबान का घाव
मैंने भी जब उस की जुबान को देखा तो बहुत खुशी हुई। दो दिन में ही कितना आराम हो गया......यह भी प्रकृति का एक करिश्मा ही है कि उसने हमारे शरीर में अथाह हीलिंग क्षमता भी दे रखी है। न तो इसे कोई ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही दी गई थीं और न ही इस ने कोई भी दर्द निवारक गोलियां ही लीं। बस, वह दवाई ही दो दिन लगाई।

ऐसा नहीं है कि यह जख्म दवाई लगाने से भरने लगा ...नहीं,ऐसा नहीं.. अगर कोई भी दवाई न भी लगाई जाती तो भी यह ठीक तो होना ही था क्योंकि जो नुकीला दांत जुबान में गढ़ कर ज़ख्म पैदा कर रहा था, उस को गोल कर दिया गया था।
यह तस्वीर जो आज खींची बिना फ्लैश के है....

ये दोनों तस्वीरें दो दिन बाद ..(आज की हैं).... तेज़ी से ठीक होता ज़ख्म
यह लगभग वही बात है कि हम लोगों को जब कोई नया नया जूता काटने लगता है तो हमारे पैर में ज़ख्म सा हो जाता है.....वैसे आज कल के युवा ज़्यादा चुस्त चालाक है, कम साईज़ का जूता पहनते ही नहीं हैं, हम जैसे थोड़े ना कि दुकान में जा कर शर्म इतनी आने लगती कि दुकानदार की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर तंग जूता खऱीद कर आ जाते थे और फिर उस में रूई और सरसों का तेल आदि लगा लगा कर कईं दिन तक कुछ जुगाड़ किया जाता था.....कईं बार तंग जूते के काटने से ज़ख्म भी हो जाता अगर तो फिर उस का इस्तेमाल कुछ दिन के लिए रोक दिया जाता .. और जूता खुलवाने के लिए किसी मोची को दे दिया जाता.......आप भी ना......ऐसे मजे ले लेकर पढ़ रहे हैं कि जैसा आपके साथ कभी ऐसा हुआ ही न हो....

कोई बात नहीं, बस यह छोटी सी पोस्ट यही बताने के लिए कि मुंह में घाव-वाव होने पर घबराईए मत, दंत चिकित्सक से अवश्य मिल लिया करें, इस महिला को भी यह ज़ख्म ६ महीने से था, डर रही थी कि कहीं कैंसर ही न हो.....चलो, अच्छा हुआ एक मरीज़ ठीक हुआ, उस की चिंता भी दूर हो गई।