रविवार, 3 मई 2009

शरीर की नियमित जांच (हैल्थ चैकअप) का एक और फंडा

शरीर की नियमित जांच करवाते रहना चाहिये ---यह बहुत ही ज़रूरी है। मैं इस के बारे में बहुत सोचा करता था कि यह तो है ही कि इस से लगभग कोई भी शारीरिक तकलीफ़ जल्दी से जल्दी पकड़ में आ जाती है जिस से कि तुरंत उस का समाधान ढूंढने की तरफ़ अपना मन लगाया जा सकता है।

लेकिन मुझे कुछ दिन से इस तरह की नियमित शारीरिक जांच के एक और फंडे का ध्यान आ रहा है जिसे मैं आप के साथ साझा करना चाहता हू.

- पहली बात तो यह कि मैंने देखा है कि जिन लोगों की जीवनशैली में कुछ भी गड़बड़ सी होती है जैसे कि तंबाकू, सिगरेट, अल्कोहल, शारीरिक परिश्रम न करना, सब तरह का जंक-फूड खाना ----कुछ भी !! मैंने यह देखा है कि अगर कभी इन्हें यह कह दिया जाये कि यार, थोड़ा अपने खाने-पीने का ध्यान करो, सेहत की फ़िक्र करो, तो झट से जवाब मिलता है ------क्या डाक्टर साहब आप भी क्या सलाह दे रहे हैं ? बीसियों साल हो गये ये सब खाते पीते, जो नुकसान शरीर में हो सकता होगा वह तो हो ही गया होगा, अब ये सब छोड़ने का क्या फायदा। जितने दिन ज़िंदगी लिखी है उसे मज़े से जी लें, बस यही तमन्ना।

लेकिन मैंने यह भी बहुत नज़दीक से देखा है कि अगर ऐसा कहने वालों की कभी शारीरिक जांच की जाये और सब ठीक ठाक आता है तो इन लोगों को अपनी जीवन-शैली में ज़रूरी तबदीली करने का एक उत्साह सा मिलता है। यह देख कर बहतु अच्छा लगता है यह समय होता है डाक्टर को अपनी बात उन के आगे रखने का ---कि देखो भई तुम ने इतने साल इस शरीर के साथ हर तरह की बदसलूकी की और तुम भाग्यशाली हो कि यह सब कुछ सहता रहा है लेकिन अब आप की उम्र का तकाज़ा यह कह रहा है कि यह सब इस से अब बर्दाश्त नहीं होगा। मैंने देखा है कि ये शब्द लोगों पर जादू सा असर करते हैं कि चलो, ठीक है , अब तक तो बचे हुये हैं, अब आगे से ही अपनी ज़िंदगी को पटड़ी पर ले आयें।

दूसरी बात है कि अगर किसी मरीज़ के शरीर में कुछ खराबी निकल भी आती है तो वह अच्छी तरह से समझाने के बाद अपनी सेहत के प्रति सचेत हो जाता है और जीवनशैली में उपर्युक्त बदलाव करने हेतु तुरंत राज़ी हो जाता है।

कहने का मतलब है कि नियमित शारीरिक जांच ( हैल्थ चैकअप) करवाने के फायदे ही फायदे हैं----- आज सुबह मुझे ध्यान आ रहा था कि पचास वर्ष की उम्र के बाद तो हम लोगों को हर वर्ष यह हैल्थ-चैकअप की सलाह देते हैं तो अपने सगे-संबंधी, दोस्त को उस की सालगिरह पर इस तरह के चैक-अप करवाने का तोहफ़ा देने वाला आइडिया कैसा है ?
आज रविवार है और मैं घर में ही टाइम पास कर रहा हूं तो यही सोच रहा हूं कि आज एक पोस्ट लिखूंगा कि हमें कौन कौन से टैस्ट एक साल के बाद करवा लेने चाहियें और उन का क्या महत्व है।

जब ढंग से की दो बातें ही इलाज होता है

मैं अकसर सोचता हूं कि उम्र के साथ बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी आ जाती हैं ( चलिये, हम यहां कैंसर की बात नहीं करते) ---जिन तकलीफ़ों का कोई विशेष इलाज होता ही नहीं है।

हर डाक्टर के पास ऐसे ही कईं मरीज़ रोज़ाना आते हैं जिस के बारे में उसे बिलकुल अच्छी तरह से पता है कि इस अवस्था के बारे में कुछ नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी मरीज़ का मन बहलाये रखना भी बहुत बड़ा काम है।

चलिये, एक उदाहरण लेते हैं ओसटियो-आर्थराइटिस की जो कि बड़ी उम्र में लोगों को ओसटियोपोरोसिस के साथ मिल कर बहुत ही ज़्यादा परेशान किये रहती है। चलने में दिक्कत, घुटने में बेहद दर्द ------अब ये तकलीफ़ें ज़्यादातर केसों में तो इसलिये होती हैं कि लोग विभिन्न कारणों की वजह से अपने शरीर की तरफ़ कईं कईं साल तक ध्यान दे ही नहीं पाते --- और बहुत से केसों में यह उम्र का तकाज़ा भी होता है।

मुझे बहुत साल पहले एक हड्डी रोग विशेषज्ञ का ध्यान आ रहा है जो कि बड़ी-बुजुर्ग महिलाओं को एक झटके में बड़े आवेग से कह दिया करता था कि अब उन के घुटनों में ग्रीस खत्म हो चुकी है, कुछ नहीं हो सकता अब इन हड्डियों का। इतना ब्लंट सा जवाब सुन कर अकसर मैंने देखा है कि लोगों का मन टूट जाता है।

इस का यह मतलब भी नहीं कि इन बुजुर्ग मरीज़ों को झूठी आशा दे कर, रोज़ाना अच्छी अच्छी बातों की मीठी गोलियां दे देकर उन से पैसे ही ऐंठते रहें ----या और नहीं तो वही एक्स-रे, वही सीटी स्कैन करवा कर उन की जेबें हल्की कर रहें।

जो मैं कहना चाह रहा हूं वह बस इतना ही है कि मरीज़ की स्थिति कैसी भी हो ----उस को हम ठीक ठीक बता तो दें लेकिन अगर आवेग में आकर बिना सोचे समझे बडे़ स्पष्टवादी बनते हुये सब कुछ एक ही बार में कह देते हैं तो मरीज़ का मन बहुत दुःखी होता है। दवाईयों ने तो जो काम करना होता है वह भी नहीं कर पाती ----क्योंकि मरीज़ का मन ठीक नहीं है। लेकिन अहम् बात यह है कि अगर मरीज़ का मन ठीक नहीं है, डाक्टर की बात से वह खफ़ा है तो उस के शरीर की जो प्राकृतिक मुरम्मत करने की क्षमता ( natural reparative capacity) है , कमबख्त वह भी मौके का फायदा उठा कर हड़ताल कर देती है।

बहुत सी तकलीफ़ें ऐसी हैं जिन का कोई सीधा समाधान है ही नहीं ----- बस, मरीज़ का अगर मन लगा रहे तो यही ठीक होता है। बाकी, आज लोग काफ़ी सचेत हैं उन्हें भी पता होता ही है कि फलां फलां तकलीफ़ें उम्र के साथ हो ही जाती हैं और ये सारी उम्र साथ ही चलेंगी लेकिन फिर भी वे डाक्टर के मुंह से कुछ भी कड़े निराशात्मक शब्द सुनना नहीं चाहते।

अगर ऐसे ओसटियोआर्थराइटिस के केस में डाक्टर इतना ही कह दे कि आप अपना थोड़ा वज़न कम करें , थोडा़ बहुत टहलना शुरू करें ---- खाने पीने में दूध-दही का ध्यान रखें ---- तो मरीज़ बड़े उत्साह के साथ इन बातों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करने लगता है। और साथ में अगर योग, प्राणायाम् के लिये भी प्रेरित कर दिया जाये तो क्या कहने !! ठीक है, वह दर्द के लिये हड्डियों पर लगाने वाली ट्यूब, कभी कभार या नियमित विशेषज्ञ की सलाह से कोई दर्द-निवारक गोली या वह गर्म पट्टी ----ये सब अपना काम तो करती ही हैं लेकिन सब से तगड़ा काम होता है डाक्टर के शब्दों का जिन्हें बहुत ही तोल-मोल के बेहद सुलझे ढंग से निकालना निहायत ही ज़रूरी है।

बस और क्या लिखूं ? ---पता नहीं इन बातों का सुबह सुबह कैसे ख्याल आ गया ---- कहना यही चाह रहा हूं कि डाक्टर और मरीज़ के बीच का वार्तालाप बेहद महत्वपूर्ण है ---इन में एक एक शब्द का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर करेंगे तो ही मरीज़ों का मनोबल बढ़ेगा -------------वरना वे हमेशा बुझे बुझे से हर हफ्ते डाक्टर ही बदलते रहेंगे जब तक कि वह किसी आस पड़ोस के बहुत ही मृदुभाषी नीम हकीम के ही हत्थे नहीं चढ़ जायेंगे जो कि बातें तो शहद से भी मीठी करेगा लेकिन खिलायेगा उन को स्टीरॉयड जो कि इन मरीज़ों का शरीर दिन-ब-दिन खोखला कर देती हैं।

जब छोटे से तो बड़े-बुजुर्गों से सुनते थे, अपने हिंदी और संस्कृत के मास्टर जी अकसर कबीर जी, तुलसी दास के दोहे पढ़ाते हुये यह बताया करते थे कि वाणी कैसी हो, इस पर क्यों पूरा नियंत्रण हो ----------और आज इतना साल चिकित्सा क्षेत्र में बिताने के बाद यही सीखा है कि सही समय पर कहे गये संवेदना से भरे दो मीठे शब्द कईं बार इन दवाईयों से भी कईं गुणा ज़्यादा असर कर देते हैं। मेरी अभी तक की ज़िंदगी का यही सारांश है। आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ?

शनिवार, 2 मई 2009

घिसे हुये दांत करते हैं बहुत परेशान

अभी तो आप मेरे दो मरीज़ों के बुरी तरह से घिसे हुये दांतों की तस्वीरें ही देखिये ---ये दोनों महिलायें दो एक दिन पहले आईं थी --- इन की उम्र पैंतालीस के पास की है। दांतों की जब इतनी घिसाई हो जाती है तो इस का इलाज इतना आसान होता नहीं ---- और न ही इतना सस्ता में हो पाता है। इस का इलाज बहुत महंगा होता है जिस के लिये इन दांतों पर कैप्स ( क्राउन) लगाये जाते हैं।

अकसर मैंने तो अपने प्रोफैशन कैरियर में शायद एक दो मरीज़ों को ही इस का इलाज करवाते देखा है। वरना, तो वही दांतों पर ठंडा गर्म लगने से बचाने वाली क्रीमें लगानी शुरू कर दी जाती हैं। लेकिन उन से भी आराम बिल्कुल टैंपरेरी सा ही आता है।

जब मरीज़ दांतों की इस घिसाई की वजह से इतना परेशान हो जाता है कि उस से और दर्द सहा नहीं जाता तो फिर धीरे धीरे इन को निकलवाने का काम शुरू करवा लिया जाता है और बाद में नकली दांतों का सैट लगवा लिया जाता है।

प्राइवेट लैबों के नियंत्रण के लिये कोई कानून नहीं

सूचना के अधिकार वाला कानून भी ऐसी ऐसी बातें सतह पर ला रहा है जिन के बारे में बीसियों सालों से किसी ने कभी सोचा ही नहीं। केरल की एक सामाजिक संस्था दा प्रापर चैनल ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत एक ऐप्लीकेशन दिया। यह समाचार कल के दा हिंदु अंग्रेज़ी अखबार में छपा है ( 1मई2009).

इस के जवाब में केरल सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने यह जवाब दिया है कि राज्य सरकार के पास इस समय ऐसा कोई कानून या नियंत्रण ढांचा नहीं है जिस के द्वारा निजी लैबों की कार्यप्रणाली पर कंट्रोल रखा जा सके। यहां तक कि इन प्राइवेट लैबों को शुरू करने से संबंधित भी कोई कानून-वानून नहीं है जिस के तहत इन को रैगुलेट किया जा सके।

चलिये यह तो सूचना के अधिकार कानून ने बता दिया। लेकिन वैसे भी देश में जगह जगह क्या हो रहा है क्या हम नहीं जानते हैं। हमारी समस्या केवल यही है कि हम लोग जानते तो बहुत कुछ हैं लेकिन हम लोगों ने प्रजातांत्रिक ढंग से अपनी बात किसी के आगे रखने की कसम सी डाल रखी है।

हर शहर में ,कसबे में या अब तो गांवों में भी इतनी लैब खुल गई हैं कि इन्हें देख देख कर यही लगता है कि इतनी सारी लैब क्या कर रही हैं, कौन सा काम कितनी व्यावसायिक मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा के अंदर रह कर कर रही हैं, यह कौन जानता है। मुझे याद है कि कुछ अरसा पहले मैंने अपने कुछ टैस्ट करवाने थे ---- मैं और मेरी पत्नी दो-तीन लैब पर गये लेकिन जैसे ही हम लोगों ने भीतर झांका, हमारी अंदर जाने की इच्छा ही न हुई।

आखिर हम लोग एक प्रसिद्ध लैब में ही गये जो कि सैंपल इक्ट्ठे कर के बाहर दिल्ली वगैरह भेजते हैं। मैं अपनी इस पोस्ट के माध्यम से इस तरह की लैब की कोई सिफारिश बिल्कुल नहीं कर रहा ----यह काम मेरे बस का नहीं है। और न ही मैं यह कहना चाह रहा हूं कि जो सैंपल दिल्ली से चैक होने जाते हैं उन सभी की ही रिपोर्टिंग परफैक्ट होती है। मेरी बात का यह मतलब बिलकुल नहीं लिया जाये।

लेकिन दो-तीन कंपनियां ऐसी हैं जिन के कलैक्शन सैंटर कईं शहरों में खुले हुये हैं ---और इन की वेबसाइट आदि पर जा कर देखा है तो यही पाया है कि इन के स्टैंडर्डस यहां वहां नौसीखिये टैक्नीशियन्ज़ द्वारा खोली गई लैब्ज़ की तुलना में कहीं ज़्यादा अच्छी होती हैं।

विषय तो यह बहुत बड़ा है –इस पर आगे भी लिखता रहूंगा --- लेकिन यह देख कर दुःख होता है कि जगह जगह पर टैक्नीशियन्ज़ के चेलों-चपाटों ने रक्त-पेशाब-मल-वीर्य की जांच की हट्टियां खोल रखी हैं। यह बहुत चिंताजनक मामला है।

अब मैं पाठकों के लिये किसी लैब को रिक्मैंड करूं यह मेरे से ना होगा। चलिये , मैं इस बात का जवाब दे देता हूं कि जब मेरे को किसी टैस्ट की ज़रूरत होती है तो मैं क्या करता हूं ..... तो , पिछले कुछ सालों से जब से ये अच्छी खासी लैबों के कलैक्शन सैंटर शहरों में खुल गये हैं तब से मैं तो इन्हें ही प्रेफर करता हूं । वरना, कभी ऐसे शहर में गये हों कि वहां पर कोई बहुत प्रसिद्ध लैब है जिसे कोई एम.डी ( पैथालाजी), माइक्रोबॉयोलॉजी अथवा एमएससी ---माइक्रोबॉयोलॉजी, बॉयोकैमिस्ट्री आदि चला रहे होते हैं तो मैं वहां से ही अपनी जांच करवाना पसंद करता हूं।
मैं अपनी बात कहूं तो मैं किसी ऐसी लैब की तरफ़ न तो खुद ही जाता हूं और न ही किसी को भेजता हूं जिस के बोर्ड से यह भी पता नहीं चलता कि इसे चलाने वाला कोई प्रशिक्षित बंदा है कि नहीं।

ऐसी ही चालू जगह से टैस्ट करवाने से रिपोर्टों में तो गड़बड़ हो ही जाती है ---दूसरी तरह की परेशानियां भी हो सकती हैं। अब क्या क्या गिनवायें....। हरेक मरीज़ की हरेक रिपोर्ट उस के लिये एक महत्वपूर्ण, निर्णायक दस्तावेज़ है –उस ने कौन सी दवाई खानी है और कितनी मात्रा में कितने दिन तक खानी है ...यह सब हमारी रिपोर्टें ही तय करती हैं।

मैं भी बहुत बार सोचता हूं कि इन लैबों पर नियंत्रण होना ही चाहिये ----हम लोग बड़े शहरों के जिन होटलों में मैदू-वड़ा भी खाने बैठते हैं उन की तो स्थानीय प्रशासन ने ग्रेडिंग की होती है लेकिन इन लैबों के संबंध में इतनी ढिलाई क्यों बरती जाती है। रिपोर्ट ठीक नहीं आई तो शायद इतना बड़ा ज़ुर्म नहीं है लेकिन अगर चालू तरह की लैबोरेट्री में स्टैरीलाइज़ेशन का ध्यान नहीं रखा जाता तो समझ लीजिये टैस्ट करवाने गई पब्लिक को कहीं लेने के देने ही न पड़ जायें।

तो , यहीं विराम लेता हूं ---इसी उम्मीद के साथ कि हम चिट्ठाकारों के अपने वकील साहब , डियर द्विवेदी जी इस तरह के कानून की आवश्यकता पर प्रकाश डालेंगे और इस के लिये क्या करना होगा, इस का भी ज़िक्र करेंगे।

शुक्रवार, 1 मई 2009

जुबान के कैंसर का चमत्कारी इलाज

हां, तो मैं दो दिन पहले अपने एक मरीज़ की बात कर रहा था जिसे जुबान (जिह्वा) का कैंसर डायग्नोज़ हुआ है। सारे टैस्ट पूरे हो चुके हैं लेकिन वह अब वह किसी चमत्कारी नीम हकीम के चक्कर में पड़ चुका है।

मैंने उसे बहुत समझाया कि आप सर्जरी करवा लो, जितना जल्दी सर्जरी करवायेंगे उतना ही बेहतर होगा। उस ने मेरे बार बार कहने के बावजूद भी मुझे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया। मैं उस की मानसिकता समझ सकता हूं, आदमी सब कुछ ट्राई कर लेना चाहता है , क्या करे जब आदमी बेबस होता है तो यह सब कुछ होना स्वाभाविक ही है।

उस ने मुझे कहा कि मैं देसी दवा किसी सयाने से ला कर खा रहा हूं ---दिल्ली के पास यूपी की एक जगह का उस ने नाम लिया । कहने लगा कि जब मैं उस के पास गया तो उस ने मेरी कोई रिपोर्ट नहीं देखी, मेरा कोई टैस्ट नहीं करवाया, मुझे कहने लगा कि तेरे को जुबान का कैंसर है। यह सब मेरे मरीज़ ने मुझे बताया।

फिर आगे बताने लगा कि वह इंसान इतना नेक दिल है कि किसी से मशविरा देने के कोई पैसे नहीं लेता ---बस दवा के पैसे ही देने होते हैं ---बीस दिन की दवाई के एक हज़ार रूपये ---मैं उस की बातें के ज़रिये उस सयाने की कार्यप्रणाली समझने की कोशिश कर रहा था। फिर मेरा मरीज़ मुझे कहने लगा कि उस ने एक तो कुल्ला करने की दवाई दी है और कुल्ला करने के बाद एक दवाई जुबान पर लगाने को दी है। मरीज़ ने आगे बताया कि दवाई लगाने के बाद ही जुबान से मांस के टुकड़े से निकलने लगते हैं।

आगे मरीज़ ने बताया कि उसे लग रहा है कि उस की जुबान पर जो ज़ख्म है उस का साइज़ भी कम हो गया है। अब मैं उस की हर बात का जवाब हां या ना देने में अपने आप को बहुत असहज अनुभव कर रहा था। क्योंकि मेरी तो केवल एक ही कामना थी और है कि वह जल्दी से जल्दी सर्जरी के लिये राज़ी हो जाये ताकि वह अपनी बाकी की ज़िंदगी को जितना चैन से काट सकता है काट सके।

वह फिर मेरे से पूछने लगा कि डाक्टर साहब यह भी तो हो सकता है कि अगर एक-दो महीने के बाद मैं अपने सारे टैस्ट दोबारा से करवाऊं तो मेरे सारे टैस्ट ही ठीक हो जायेंगे ----अब मैं उस के इस सवाल का क्या जवाब देता ?

वह बंदा मेरे से बातचीत कर रहा था तो फिर अपने आप ही कहने लगा कि डाक्टर साहब, मेरी बेटी ने इंटरनेट पर सारी जानकारी हासिल कर ली है ---- यह तो बिटिया भी कह रही थी कि पापा, आप्रेशन के बिना कोई इलाज इस का नहीं है। मैं यही सोच रहा था कि जब मां-बाप को कोई तकलीफ़ होती है तो आजकल के पढ़े-लिखे बच्चे भी बेचारे जितना उन से हो पाता है सब कुछ करते हैं लेकिन ये कमबख्त कुछ रोग ही इस तरह के होते हैं कि .........!!

वह बंदा बता रहा था कि डाक्टर साहब , जितनी बातें मैंने आज आप से की हैं मैंने पिछले दो महीने में कभी नहीं की हैं। मेरा भी उस के साथ गहराई से बात करने का केवल एक ही मकसद था कि किसी तरह से यह आप्रेशन के लिये राज़ी हो जाये। रूपये-पैसे की तो कोई बात ही नहीं है ---- क्योंकि हमारा विभाग अपना कर्मचारियों की सभी प्रकार की चिकित्सा का प्रबंध करता है।

मैंने उसे इतना ज़रूर कहा कि आप मुझे दो-तीन में एक बार हास्पीटल की तरफ़ आते जाते ज़रूर मिल लिया करें ---- क्योंकि मैं उस बंदे का हौंसला बुलंद ही रखना चाहता ही हूं। मैं उस से बात कर ही रहा था कि मुझे मेरे एक 70-75 वर्षीय मरीज़ का ध्यान आ गया जिस ने कुछ साल पहले जुबान के कैंसर के इलाज के लिये सर्जरी करवाई थी --और वह नियमित रूप से चैक-अप करवाने जाता रहता है और ठीक ठाक है। मैं उसे उस का नाम लिखवा दिया और उस के घर के पते का अंदाज़ा सा दे दिया ---- वह कहने लगा कि बस इतना ही काफ़ी है, वह ढूंढ लेगा। यह मैंने इसलिये किया क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह उस से जब बातें करेगा तो उस का ढाढस बंधेगा।

रही बात उस सयाने द्वारा दी जाने वाली दवाई की ------ जहां तक मेरा ज्ञान है इस तरह के देसी-वेसी इलाज से कुछ होने वाला नहीं है। यही सोच रहा हूं कि किसी को इतनी ज़्यादा उम्मीद की रोशनी दिखा देना भी क्या ठीक है ? यह तकलीफ़ भी ऐसी है कि इस के लिये किसी प्रशिक्षित, स्पैशलिस्ट से ही इलाज करवाने से काम बन सकता है। चमत्कारी दवाईयों से कहां इन केसों में कुछ हो पाता है।

जाते जाते मरीज़ मुझे बता रहा था कि अब वह गुटखा एवं तंबाकू कभी नहीं चबायेगा ---उस ने यह सब छोड़ दिया है --- मैंने उसे तो कहा कि बहुत अच्छा किया है लेकिन मैं दुःखी इस बात पर था कि अब ये सब कुछ छोड़ तो दिया है .....ठीक है , लेकिन ....................!!!!!

जब थायरायड कम काम करने लगे ---- हाइपोथायरायडिज़्म

हाइपोथायरायडिज़्म एक ऐसी अवस्था है जिम में थायरायड पर्याप्त मात्रा में हारमोन्ज़ पैदा नहीं कर पाता। अगर इस अवस्था का इलाज नहीं किया जाये तो यह खतरनाक हो सकती है।

थायरायड की इस बीमारी की वजह से शरीर की सारी क्रियाएं एक दम सुस्त सी पड़ जाती हैं, इस बीमारी के निम्नलिखित लक्षण होते हैं –
थकावट
मानसिक अवसाद
सुस्ती छाई रहना
ठंड महसूस होना
शुष्क चमड़ी एवं बाल
कब्ज
मासिक-धर्म में अनियमितता

हाइपोथायरायडिज़्म निम्नलिखित अवस्थाओं की वजह से हो सकता है ---

---थायरायड ग्लैंड की तकलीफ़ की वजह से
----कुछ ऐसी दवाईयां अथवा बीमारियां जिन में थायरायड की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है
----शरीर की पिचुटरी ग्रंथि अगर पर्याप्त मात्रा में थायरायड-स्टिमूलेटिंग हारमोन( Thyroid stimulating hormone) ही न बना पाये।
---कई हाईपरथायरायडिज़्म ( जिस अवस्था में थायरायड हारमोन अधिक मात्रा में पैदा होने लगते हैं) के इलाज के लिये जब रेडियोएक्टिव आयोडीन दी जाती है या सर्जरी की जाती है।

इलाज –
हारपोथायरायडिज़्म का इलाज शरीर में उपर्युक्त मात्रा में थायरायड हारमोन पहुंचा कर किया जाता है। इस के लिये मरीज़ को थायरायड हारमोन थाईरोक्सिन ( टी- 4 अथवा लिवोथायरोक्सिन) की एक टेबलेट दी जाती है। इस टेबलेट को शूरू करने के दो हफ्तों के भीतर ही मरीज़ को आराम महसूस होने लगता है।

लेकिन जो ढीठ किस्म की थायरायड की बीमारी होती है उसे ठीक होने में लंबा समय भी लग सकता है। कुछ अलग से केसो में कभी कभी मरीज़ को टी-3 हारमोन भी दिया जा सकता है और कईं बार तो टी-3 और टी-4 हारमोन का मिश्रण भी दिया जाता है।

हाइपोथायरायडिज्म के अधिकतर केसों में तो यह टी-4 टेबलेट की टेबलेट उम्र भर के लिये देनी पड़ सकती है। और अपने चिकित्सक से नियमित परामर्श करते रहना होता है ताकि दवाई की डोज़ को बढ़ाया-घटाया जा सके।