गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

क्या सच में तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता?

पिछले आठ दस दिनों में मेरे पास दो ऐसे लोग आए जिन्हें तंबाकू वाकू चबाने की लत थी...ऐसे तो बहुत से लोग आते हैं...अब मुंह में ही झांकने का काम है तो यह सब तो सब से पहले दिखता ही है...लेकिन इन दोनों की बिल्कुल छोटी छोटी बच्चियां थीं... लगभग चार साल के करीब।

एक तो आया था अपने बीवी के इलाज के लिए और दूसरा आया था अपनी बेटी के इलाज के लिए... पता नहीं कैसे उन बच्चियों से बात छिड़ी कि वे अचानक कहने लगीं......अंकल, पापा तंबाकू बहुत खाते हैं, छोड़ते नहीं। और दोस्तो, जितनी उस बच्ची की आवाज़ में मजबूरी छुपी थी, वह मेरे लिए ब्यां करना आसान नहीं है।

और जो दूसरी बच्ची दो तीन पहले आई ..उसने तो इतना भी कहा कि हम जैसे ही देखते हैं, हम छीन कर फैंक देते हैं... तो मैंने उस बच्ची को कहा..तुम, बहुत अच्छा करती हो ...ऐसे ही किया करो। तो झट से उस की मां बोली...और इस से बाद यह बहुत झगड़ा करते हैं।

मैंने इन दोनों पुरूषों को अच्छे से समझाया...एक के तो जेब में तंबाकू का पाउच था. मैंने कहा कि देखते हो कि यह कैसी तस्वीर है ...फिर भी कैसे हिम्मत कर लेते हो......खैर वह तो उसे तुरंत मेरे डस्टबिन में फैंक कर गया....और दूसरे दिन जो दूसरा आदमी आया था, उसने भी उसी दिन तौबा कर ली थी...जब मैंने उस के मुंह के अंदर के हिस्से को आइना के सामने खड़े हो कर उसे दिखाया।

समय तो लगता है ...किसी को तंबाकू छुड़वाने के लिए प्रेरित करना है ना तो लगभग १०-१५ मिनट लग जाते हैं मुझे ...मैं इस काम को िबल्कुल एक मिशन की तरह लेता हूं....मुझे यही होता है कि दांत की फिलिंग एक हफ्ता बाद भी हो जाएगी तो पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा.....दांतों की पालिश नहीं भी होगी तो कोई बात नहीं.....आज तो मौका है, अगर यह वापिस न आया तो यह भी गया...मुंह के कैंसर से बच भी गया तो अनेकों तरह की अन्य शारीरिक एवं मानसिक तकलीफ़ों में फंसा रहेगा.....इस से तंबाकू छुड़वाना मेरी प्रायर्टी है.....वैसे यह मेरी ड्यूटी के किसी लक्ष्य में नहीं है कि मैंने हर तंबाकू-गुटखा इस्तेमाल करने से इतना समय बिता कर उसे इस लत को लात मारने पर मजबूर करना ही है...लेकिन मैं इसे अपनी ड्यूटी का सब से अहम् हिस्सा मानता हूं..और जितना हो सकता है यह काम पूरे दिल से करता हूं और हमेशा यह सुनिश्चित करता हूं कि मैं ऐसे व्यक्ति से बात अकेले में करूं।

बहुत लंबा अरसा हो गये यह तंबाकू छुड़वाने का काम करते हुए.....इतने ही साल हो गये मुंह के कैंसर के मरीज़ों को तिल तिल मरते देखते हुए...इलाज के लिए परेशान हो जाते हैं...इतना लंबा खिंचने वाला जिस पर इतना खर्च आ जाता है...


अब बात करते हैं परसों दिखी एक फेसबुक पोस्ट की...पाबला जी की पोस्ट थी....मुझे तो इस का हैडिंग पढ़ कर ही इतनी परेशानी हुई... लिखा था कि तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता। पाबला जी बड़े वरिष्ठ हिंदी के लेखक हैं...उन्होंने एक तरह से इस व्यक्तव्य पर कटाक्ष ही किया था...

तंबाकू खाने से कैंसर होने के सारे सर्वे और शोध विदेशों में किये गये थे! इसलिए हटा ही देनी चाहिए तंबाकू उत्पादों के पैकेट पर छपने वाली चेतावनी!
आज तक यह साबित नहीं हो पाया है कि चेतावनी देख कर किसी ने तम्बाखू खाना पीना बंद कर दिया.
फिर ये खाना पीना तो सारे भारत की संस्कृति में भी है   (एक फेसबुक पोस्ट से) 

मुझे उत्सुकता हुई तो मैं उस लिंक को खोला......तो सारा माजरा समझ में आया... एक वेबसाइट ने एक संसद सदस्य का ब्यान छापा था कि तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता. तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता, सारे सर्वे और शोध विदेशी हैं.

उसी समय लगा कि दाल में कुछ काला तो है ही ... अब यह चेतावनियां हटेंगी या कहीं न कहीं से इन पर स्टे ले लिया जायेगा और फिर पता नहीं ...लेिकन एक बात से मैं बिल्कुल सहमत हूं कि मुझे नहीं लगता कि इन चेतावनियों को देख कर कोई डरता होगा......मुझे तो आज तक कोई नहीं मिला जिसने कहा हो कि तंबाकू-गुटखे के पाउच पर छपी चेतावनी से वह इतना डर गया कि उसने पाउच को वहीं के वहीं फैंक दिया और मुंह में रखा तंबाकू थूक दिया। लेकिन इस का यह मतलब भी नहीं कि शासन उन पर वैधानिक चेतावनी छापने की बाध्यता ही समाप्त कर देगा।

लेकिन कल जब टाइम्स आफ इंडिया देखी तो लगा कि धीरे धीरे Cigarettes and Other Tobacco Products Act 2008 की धार को कुंद करने की कोशिश जारी हैं...संसदीय कमेटी इस मामले में काम कर रही है ..तब तक सरकार ने यह निर्णय लिया है कि सिगरेट तंबाकू के पैकेटों पर वैधानिक चेतावनी का साइज फिलहाल नहीं बढ़ाया जाएगा... Govt defers increase in warning signs on cigarette packs.

लेकिन सारे विश्व में प्रसिद्ध है कि भारतीय मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी बखूबी निभाना जानता है ...और इस का प्रमाण आज की टाइम्स आफ इंडिया खोलते ही सामने दिख गया....
Sunita Tomar, face of anti-tobacco drive, loses fight with cancer. 

सुनीता तोमर की मौत की खबर थी... पहले पन्ने पर.....सुनीता तोमर के नाम से वाकिफ नहीं हैं? ..कोई बात नहीं, टीवी पर दिखाये जाने वाले एक विज्ञापन में एक कम आयु की महिला मुंह के कैंसर से ग्रस्त ..जो तंबाकू की लत का शिकार थी ...वह कल अपने चल बसी..अगर अभी भी याद नहीं आया तो यह वीडियो देखें, याद आ जायेगा...



जैसे सुनामी के आसार पहले से नज़र आ जाते हैं.. मुझे लगता है कि आने वाले समय में तंबाकू विरोधी लॉबी कमज़ोर पड़ जाएगी.....लेिकन अब लोगों को स्वयं भी जागना पड़ेगा......अपनी मनपसंद पार्टी, अपने मनपसंद नेता चुनने का माद्दा रखते हैं तो फिर आखिर तंबाकू को हमेशा के लिए छोड़ने का निर्णय क्यों नहीं ले पाते!....बात सोचने वाली है।

गुमराह करने वाले लोग तो हर जगह हैं.....सेहत के लिए अच्छी खराब चीज़ें हर तरफ़ बिखरी पड़ी हैं.....चुनाव हमने करना है ..और वही बात को कांटें बिखरे पड़े हैं इस धरा पर.....अब सारी धरा पर तो चटाई नहीं बिछाई जा सकती .. क्योंकि न स्वयं ही अच्छे से जूते पहन कर कांटों से बच लिया जाए।

वैसे मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि चेतावनी हटने से लोग और भी बिंदास हो कर इसे खाने-चबाने लगेंगे, लेकिन अगर कुछ भी लोग .. विशेषकर युवा पीढ़ी के इन चेतावनियों को देख कर इन से दूरी बनाए रखते हैं तो चेतावनियां छपना अच्छी बात ही है।

मैंने जो भी ऊपर कहा है उस के प्रमाण के रूप में मेरे तीन ब्लॉग्स पर सैंकड़े लोगों की आप बीतीयां दर्ज हैं (हरेक की पहचान गुप्त है...आज मुझे भी नहीं पता कि कौन सा मरीज क्या शेयर कर गया था जिसे मैंने अपने ब्लॉग में सहेज लिया था ताकि दूसरे पढ़ने वाले प्रेरणा ले सकें) ...किस तरह से तंबाकू, गुटखे, पानमसाले ने उनकी ज़िंदगी में ऊधम मचा दिया... इसी मीडिया डाक्टर ब्लॉग में, सेहतनामा ब्लॉग में और शायद आप को ताजुब्ब होगा कि मैं इंगलिश भी लिख लेता हूं... यह ब्लॉग है ..Healthy Scribbles... लेकिन अपनी च्वाईस के कारण ही हिंदी में ही लिखना पसंद करता हूं...तंबाकू की विनाश-लीला के ऊपर किताब छपाने के लिए कईं लोग कह रहे हैं ..वे कहते हैं किताब का मोल २५०-३०० रखना होगा......मैं कह रहा हूं ५० रूपये से ज़्यादा नहीं होना चाहिए...हो सके तो फुटपाथ पर बिकने दीजिए..मुझे कुछ नहीं चाहिए, जिन लोगों को इस किताब की ज़रूरत है उन के हाथ में पहुंचे तो।

I stand by the authenticity of each post of these blogs!

इतनी लंबी खिंच गई यह पोस्ट ......आप को भी नींद आ रही होगी.......लेकिन चलते चलते मैंने व्हाट्सएप पर आई दो फोटो आपसे शेयर करने हैं.....बहुत अच्छी लगीं..




और जाते जाते सुनीता तोमर की याद में ......उस को श्रद्धांजलि के रूप में ..

सी बी आई टीम पर दबंगों का हमला

जहां कहीं भी बिजली चोरी रोकने के लिए बिजली विभाग के लोग जाते हैं, लोग उन पर टूट पड़ते हैं अकसर...डाक्टरों को ड्यूटी पर पिटते देखा, पढ़ा और सुना, उमस भरी गर्मी की रातों में बिजली गुल होने पर पावर हाउस स्टॉफ पर जनता का गुस्सा देखा, किसी दुर्घटना के समय पुलिस पर बरसते पत्थर देखे, परचा लीक होने पर छात्रों द्वारा बसें-रेलगाड़ियां फूंक दी जाती है, बलात्कारियों के लिंग भी जनता ने काटे और उन्हें मौत के घाट भी उतारे जाने की खबरें आप के अपने ही देश में आने लगी हैं........क्या क्या िगनाते चलें, दोस्तो, लिस्ट बहुत लंबी है।

लेकिन .........

लेकिन क्या? 

लेकिन किसी दफ्तर में छापा मारने गई सीबीआई टीम पर वहां के दफ्तर के लोग ही धावा बोल दें, यह शायद हमने पहले कभी नहीं सुना होगा, इसलिए मैंने सोचा कि इतिहास की सुविधा के लिए इसे अपने ब्लॉग पर मैं भी दर्ज कर दूं।

खबरिया चैनल बहुत तेज़ हैं..आपने देख सुन पढ़ ही लिया होगा कि किस तरह से लखनऊ के आयकर विभाग में जब सीबीआई टीम ने एक अफसर को दो लाख रूपये की रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा तो दफ्तर के लगभग ६० लोग उग्र हो गये....एक तरह से उन पर उन्होंने हमला बोल दिया।

सीबीआई की टीम में ऐसा नहीं था कि कोई एक ही आदमी था..नौ लोग थे वे...लेिकन कल अखबार में आया था कि उस समय तो उन्हें लगा कि वे बच नहीं पाएंगे।

सोचने वाली बात यह है कि आखिर ६० लोग इतने उग्र क्यों हो गए?....यह प्रश्न ही इतना बचकाना है ...और हर आदमी इस का जवाब जानता ही होगा। लेकिन मैं यहीं बस करूं.......मुझे तो अभी उसी विभाग से अपना ४० हज़ार का रिफंड लेना है.....हमारे दफ्तर के बाबू की गलती से दो साल पहले ज़्यादा आयकर काट लिया गया था, बीसियों चक्कर मारने के बाद भी ...अपने दफ्तर में और आयकर विभाग में .......अभी भी कुछ पता नहीं कि कब वह रकम वापिस मिलेगी। लेकिन बाबू तो ठहरा बाबू..........उसे कोई कैसे कुछ कहने की हिम्मत कर सकता है!

बहरहाल ३०-४० मिनट के बाद पुलिस आ गई...तब तक उन्होंने अपने आप को कमरे में बंद रखा, लेिकन उस दौरान भी उग्र भीड़ ने आग बुझाने वाले उपकरणों की मदद से दरवाजा तोड़ने की भरसक कोशिश की... और उस उपकरण पर लगी पाइप को दरवाजे के नीचे से कमरे में घुसा कर कार्बनडाईआक्साईड गैस छोड़ दी.. किसी तरह से सीबीआई टीम ने खिड़कियां-विड़कियां खोल कर अपनी जान बचाई।

बहरहाल उस दो लाख की रिश्वत लेने वाले को तो वे साथ ले कर ही गये... और आज के पेपर में खबर है कि उसे जेल भेज दिया गया है।

यहां तो दो लाख की रिश्वत की बात है .. लेकिन जोधपुर में उसी दिन १५ लाख की रिश्वत लेते किसी आयकर विभाग के अधिकारी को भी पकड़ा गया।

मैं कल अपनी श्रीमति जी से कह रहा था कि हम लोग पिछले २५ वर्षों से सर्विस कर रहे हैं... दोनों सर्विस में हैं...अपनी पसंद का एक अच्छा सा फ्लैट किसी बड़े शहर में लेने के लिए मनसूबे ही बनाते रहते हैं......मैजिक ब्रिक्स या ९९ एकर्ज़ पर कीमत देख कर चुपचाप उधर से नज़रे हटा लेते हैं। हम यही सोच रहे थे कि इन लोगों के लिए करोड़ों के बंगले खरीदने बाएं हाथ का खेल है!

मैं अकसर कुछ लोगों के इस तरह से महलनुमा आलीशान मकान और इन की दस बारह लाख की कीमत वाली गाड़ियां देखता हूं...लोगों में सब कुछ आ जाता है.. रिटायर कर्मचारी भी आ जाते हैं..अधिकारी भी आ जाते हैं...तो मैं सोच में पड़ जाता हूं कि इमानदारी की कमाई से इतना कैसे संभव हो सकता है...आदमी बस ठीक ठाक सा एक आशियाना ही बना सकता है, लेकिन इस तरह की बिल्डिंग्स जो कि भव्य इमारतें दिखती हैं बाहर ही से......इन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

लेिकन सुकून तो दोस्तो ईमानदारी में ही है......हमारी दिक्कत यह है कि हम लोग इतिहास से भी सबक नहीं लेते....अफसोस की बात यह है कि इतना पढ़े-िलखे और ऊंचे रूतबे वाले लोग भी इस में धंसे होते हैं...यूपी के ही रूरल हेल्थ मिशन के करोड़ों के घोटाले में लिप्त लोगों के साथ क्या हो रहा है.......जानें जा रही हैं. एक के बाद एक ...इस रहस्य से पर्दा नहीं हटेगा।

और व्यापम् घोटाले में भी यही कुछ हो रहा है.....इतने इतने भव्य भवन खड़े किये हुए किस काम के।

लिखते लिखते यही लग रहा है कि शायद कोई पाठक यही समझ ले कि यार, तेरे लिए अंगूर खट्टे हैं, कहीं इसलिए तो तू भड़ास नहीं निकाल रहा। नहीं, दोस्तो, हम लोगों के जीवन में बेहिसाब संतुष्टि है.......यह हमें विरासत में मिली है....हम ने बिल्कुल सीमित संसाधनों के रहते ..कभी भी अपने मां-बाप को किसी तरह की हाय-तौबा मचाते नहीं देखा... कभी भी नहीं, किसी का हक छीनते नहीं देखते, किसी से कठोरता से बात करने नहीं देखा, किसी से उलझते नहीं देखा, किसी का दिल दुःखाते नहीं देखा..........और क्या होता है, यही तो है ज़िंदगी।

एक बात और ...जिन्होंने भी भव्य भवन खड़े किये..होंगे यार इन में से अधिकतर पैदाइशी रईस होंगे ...हुआ करें....ईश्वर उन को और भवन दे....लेकिन जो लोग सर्विस में रहते हुए या बाद में करोड़ों की कीमत वाले भव्य भवन बांध लेते हैं...तो किसी भी देखने वाले को लगता है कि यह सब नौकरी से तो संभव है नहीं, और परिवार की आमदनी के कुछ अन्य स्रोत भी इतने पुख्ता हैं नहीं........वे शायद देखने वाले के चेहरे के भाव पढ़ लेते हैं और बिना पूछे ही यह ज़रूर कह देते हैं.........हम ने अपनी सारी पुश्तैनी ज़मीनें बेच दीं, गांव में बहुत जमीन पड़ी थी.....या किसी रिश्तेदार को ही मार देते हैं कि वह दे गया है.......लेिकन सुनने वाले को भी जानबूझ कर बेवकूफ बना रहने में ही आनंद आने लगता है।

जो भी हो, दोस्तो, ज़िंदगी प्यार का गीत है ........अभी अभी याद आया.... बेहद सुंदर गीत....
 "जिसका जितना हो आंचल यहां पर..
उसको सौगात उतनी मिलेगी। 
फूल जीवन में 'गर न खिलें तो..
कांटों से निभाना पड़ेगा। 
है अगर दूर मंज़िल तो क्या,
रास्ता भी है मुश्किल तो क्या,
रात तारों भरी न मिले तो..
दिल का दीपक जलाना पड़ेगा।"

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

पेपर में नकल तो मैंने भी की थी...

कुछ दिन पहले मेरे बेटा जब परीक्षा देकर आया तो उसे एक अंक के एक प्रश्न के गलत होने का बड़ा अफसोस हो रहा था..प्रश्न था...कि विटामिन बी १२ की कमी से कौन सा रोग होता है?..मल्टीपल च्वाईस वाला प्रश्न था..इस का सही उत्तर है परनिशियस एनीमिया....बेटा किसी अन्य विक्लप को चुन आया था।

जब मैंने उसे इस के बारे में परेशान होते देखा तो सहज ही मेरे मुंह से निकल गया...राघव, आस पास से पूछ लेते यार। वह उस एक अंक का गम तो तुरंत भूल गया और मेरे मुंह की तरफ़ देख कर बोला...क्या कह रहे हो पापा?....और वह ठहाके लगाने लगा। आगे कहने लगा कि पापा, फ्लाईंग स्कवेड पकड़ ले तो कईं साल तक पीछा नहीं छूटता।

कहने लगा कि पापा, यह काम बड़ा रिस्की है। मैंने भी उसे एक सुझाव दे दिया कि फाईनल परीक्षा का कोई भी पेपर देकर जब लौटते हैं तो उसे चुपचाप किसी अलमारी में छिपा देना चाहिए....जो लिख दिया, वह बदला नहीं जायेगा, ऐसे में क्यों मूड खराब किया जाए। 

उस के बाद मैंने उस से अपने जमाने की नकल की बातें शेयर कीं...सुन कर हंसता रहा....उसे बड़ी हैरानगी होती है कि मैं भी किसी जमाने में नकल किया करता था। 

वही बातें आप से भी आज शेयर करता हूं। 

१९७४ के दिन ...छठी कक्षा में पढ़ते हुए स्कूल की छःमाही परीक्षाएं...अमृतसर का डीएवी स्कूल...पढ़ाई की कोई दिक्कत थी ही नहीं....उस दिन परीक्षा लिखते लिखते मेरी आगे और पीछे वाली सीट वाले लड़कों का आपस में थोड़ा वार्तालाप हुआ...और एक छोटी सी पर्ची मेरे बेंच के पास उन से गिर गई...सामने से अध्यापक आया ..उस ने कुछ न देखा...बिना कुछ पूछे मुझे एक इतने ज़ोर का चांटा मारा कि मेरा सिर घूम गया...मेरे से कुछ पूछा नहीं...इंगलिश का पेपर था..मैं ९५-९६ नंबर का तो कर चुका था...मेरे से पेपर छीन लिया...बिना किसी कसूर के ...और मैं सहमा सा घर आ पहुंचा। 

हम लोग स्कूल की सभी बातें घर में शेयर किया करते थे...मुझे इतना शॉक पहुंचा कि मुझे बुखार हो गया....वह मास्टर जिस ने मेरे को चांटा जड़ा था...मुझे पता था कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में उन का अपना एक स्कूल है और घर भी उस के अंदर ही है। 

दोस्तो, वह ही ऐसा दिन था जब मैंने अपने घर में एक मास्टर के प्रति थोड़ा आक्रोश देखा...वरना दोस्तो हम लोगों को अपने टीचरों को सदैव आदर सत्कार करने के बेहतरीन संस्कार मिले...हम आज भी उन्हें निभा रहे हैं...और बच्चे भी अपने टीचरों के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहते हैं....होता है, शुरू शुरू में ...जब प्राइमरी कक्षा होती है तो बच्चे आ कर कहते थे ...पापा, वह टीचर ऐसा, वह ऐसा......हम लोग उन्हें तुरंत प्यार से समझा दिया करते कि देखो भाई, घर में मां बाप दो बच्चों को नहीं संभाल पाते, नहीं संभाल पाते ना!..... और उन्होंने तो ६०-६० बच्चों को संभालना भी है और उन्हें सिखाना भी है ...और साथ में हम उन्हें हमेशा सेंसेटाइज़ किया करते कि पता नहीं बेटा, किसी की क्या व्यक्तिगत समस्याएं हैं, किसी दिन कैसे मूड है...इसलिए कुछ भी हो, हम लोगों की जगह ,बेटा, मास्टरों के चरणों में ही है। 

हां, उस चांटा मारने वाले मास्टर की बात हो रही थी....उसी दिन मेरा मूड बहुत ज़्यादा खराब था ..मैं अपने पापा के साईकिल पर बैठ कर उन मास्टर साहब के घर पहुंच गया... उन के यहां हम ने चाय पानी पिया ...मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है मेरे पापा ने वहां कुछ खास कहा ही नहीं, बिल्कुल अच्छे से याद है, तकरार की तो कोई बात ही नहीं, मुझे वहां जाकर ऐसे लगा जैसे मेरे तसल्ली के लिए ही पापा मुझे यहां लाए हों...और एक बात, ताज़ी ताज़ी सुबह ही तो बात थी, मास्टर जी को भी सब याद था और शायद गल्ती का एहसास था....मुझे इस बात का इत्मीनान था कि मेरा पेपर रद्द नहीं होगा.... पूरे सम्मान के साथ मैंने बस इतना कहा था कि मास्टर जी, मैं सारा पेपर फिर से दोबारा कर सकता हूं..मुझे सारा आता था। खैर, वह बात तो आई-गई हो गई ...

सातवीं आठवीं कक्षा में था तो नकल की पर्चीयां चलने लगी थीं.... या तो किसी कुंजी के पेज ही फाड़ कर लड़के साथ लेकर जाने लगे थे ...या फिर हाथ से लिख कर पर्चीयां तैयार के ले जाते ... मुझे यह बड़ा अजीब सा लगता था क्योंकि पढ़ाई में कभी कोई दिक्कत ही नहीं थी, सब कुछ अच्छे से आता था, याद होता था, रोज़ का रोज़ पढ़ना अपनी आदत में शुमार था...बिल्कुल कोई दिक्कत नहीं। 

लेकिन वह कहावत है ना कि खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है ... मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी से बेहद नफरत थी ... आज भी है.. इस का भी श्रेय मैं अपने बोरिंग मास्टर को देता हूं जो कभी इस विषय में रूचि उत्पन्न ही नहीं कर पाया ...उसे पीटने में ही लगता था ज़्यादा मजा आता था...मैंने भी दो तीन बार उस से पिटाई खाई.... 

इसलिए औरों की देखा देखी मुझे भी एक बार चाह हुई कि मैं भी नकल की मदद ले लूं... मुझे यही लगता था कि हिस्ट्री-ज्योग्राफी के हैडिंग ही मेरे को पता हों तो मैं आगे क्या लिखना है, संभाल लूंगा.... इतना कान्फिडेंस तो था .. यह भी सुन लिया था कि इस पेपर को तो चेक करने वाले गिट्ठां माप माप के चैक करते हैं (गिट्ठ पंजाबी का शब्द है, मतलब है जब हाथ के पंजे को फैलाते हैं तो उसे एक गिट्ठ कहा जाता है) ...

हां जी मैंने भी एक बार किताब के कुछ पन्ने फाड़े और उन्हें यूरिनल के ऊपर लगी टंकी के पीछे छुपा दिया कि बीच में मौका लगते ही आऊंगा तो पढ़ लूंगा।

याद है उस दिन मैं बीच में बाहर आया भी ... लेकिन मुझे उस फ्लश की लोहे की टंकी के पीछे से वे पर्चे निकाल कर पढ़ने की कल्पना से ही इतना डर लगा कि मैं वह काम कर ही न सका.......मुझे लगा कि अभी मुझे कोई पकड़ लेगा। 
फिर कभी कभी मैं ये हैडिंग रूमाल के किसी कोने में लिख कर भी चला जाता... ऐसे ही लगता कि कभी दो चार अंकों का फायदा हो जाएगा..लेकिन उस रूमाल के चक्कर में ..उस मुसीबत को तीन घंटे अपने पास रखे रखने की मजबूरी के चलते मैं अपने बाकी के प्रश्नों की तरफ़ भी अच्छे से ध्यान न दे पाता....डर बहुत बुरी चीज है। विज्ञापन में सुनना ही ठीक लगता है ....डर के आगे जीत है। 

हां, पर्चीयों की डिस्पोजल की बात करें तो बच्चे उस दौरान भी शातिर कम नहीं थे.....कागज की छोटी छोटी पर्चियां खा लिया करते थे ..फ्लाईंग स्कवेड के आने पर। 

अपनी तो बस यही छुटपुट छटांक भर रूमाल पर लिखे हैडिंग के रूप में ही कभी कभी दो चार नंबर की नकल हो जाती.....लेकिन उस चक्कर में अपने ९६ नंबर के पेपर की वाट लग जाती ..इसलिए दो एक साल में वह भी बंद कर दिया....रूमाल पर भी घर में छुप कर लिखना.....अगर कोई घर ही में पकड़ लेता तो रूमाल ही छीन लेता.....बस, पिटाई विटाई तो क्या होनी थी, दोस्तो,  घर में हमारी पिटाई एक बार भी हुई नहीं....कसम वाली बात है.....हमें कभी किसी ने घर में झिड़की तक दी... 

हां, एक बात अपने एक कज़िन के बारे में शेयर करनी है.. वह मेरी नानी के पास रहता था, पढ़ने में ज़्यादा ध्यान नहीं लगाता था, लाड़ला था, कईं बार तो पेपर से एक दिन पहले किसी विषय की कुंजी लाता.......मुझे अच्छे से याद है नानी उस के बारे में बताते हुए कितना हंसा करती थी ...दोस्तो, १९७० के जमाने में आप को याद होगा जब लड़कियां स्लेक्स पहना करती थीं...लड़के नाईलोन की निक्करें पहना करते थे ..इलास्टिक वाली .. तो यह कज़िन पप्पू क्या किया करता था ..कि अपनी बड़ी मेहनत से अपनी जांघ पर नकल का मैटिरियल लिख लिया करता और  वह स्ट्रेचएबल निक्कर तो उस लिखे को कवर कर ही लिया करती थी। 

मेरी नानी उसे प्यार से झिड़की देते अकसर कहा करती कि जितनी मेहनत तू यह सब करने में करता है, उतने समय में पढ़ ही लिया कर पप्पू.......लेकिन पप्पू कहां सुनने वाला था, कर गया ऐसे ही बीए......लेिकन वही बात है कि बी ए किया एम ए किया.......लगता है सब कुछ ऐवें किया..

यह नकल पुरान तो खूब लंबा खिंच रहा है, लगता है बाकी की बातें फिर कभी ...... अपने अंदर कैद सारे राज़ एक ही दिन थोड़े ही खोल दूंगा!

वैसे पढ़ाई में मैं बहुत अच्छा था...इसके प्रूफ के रूप में मैंने वह १९७३-७४ की पांचवी कक्षा की अमृतसर जिले की योग्यता छात्रवृत्ति की डीएवी स्कूल के मैगजीन में छपी वह तस्वीर ऊपर पेस्ट कर दी है... तीन साल तक हर महीन १० रूपये की छात्रवृति में जो आनंद था वह तो दोस्तो आज सैलरी का चेक मिलने पर भी नहीं होता.....बॉय गॉड, आय स्वेयर। इस छात्रवृति के िलए हमारे मास्टर साहब हमारी बड़ी तैयारी करवाया करते थे। 

बी ए एम की बात हुई तो उन्हीं दिनों का यह गीत याद आ गया..सारी बातें आज ही की लग रही हैं...

मंगलवार, 31 मार्च 2015

31 मार्च का दिन और वे गुलाब के फूल..

अभी मैं घर से बाहर निकला तो ये गुलाब के फूल मेरा स्वागत करते दिखे...फिर अचानक ३१ मार्च का दिन याद आ गया...मेरे िलेए विशेष महत्व का दिन..बचपन में हम लोगों का रिजल्ट इस दिन आता था...और हम लोग उस दिन फूलों की माला घर में तैयार की हुई अवश्य लेकर जाया करते थे।

मुझे इस दिन मेरी वह पोस्ट भी याद आती है जो मैंने आठ साल पहले इसी दिन लिखी थी ...आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...३१ मार्च का दिन ..मेरी बड़ी बहन और ढेर सारे गुलाब।

जितनी उमंग, लगन और चाव से मैं ३१ मार्च के दिन अपनी बड़ी बहन को वह गुलाब के फूलों की माला अपने हाथों से सूईं धागे से तैयार करते देखा करता ...वह शिद्दत मैंने फिर अनुभव नहीं की... अब वह स्वयं विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं और एक आदर्श टीचर हैं।

बात दोस्तो फूलों की माला की नहीं है...बात भावनाओं की है...अब हम लोग बड़े मौकापरस्त से हो गये हैं... है कि नहीं ?...पहले लोग बड़े मासूम से थे, बिल्कुल मासूम ...अब हमने चालाकियां सीख लीं....पैसा फैंक तमाशा देख वाली बात हो गई है....जैसी सामने वाली औकात है उसी के हिसाब से बुके तैयार करवाए जाते हैं...मुझे बुके पर एक रूपया भी खर्च करना बेवकूफी लगती है......उस की बजाए मंदिर के बाहर बैठे लोगों का कुछ भी जश्न करवा देना चाहिए।

अपने टीचर के गले में फूलों का वह हार डालते हुए जो झनझनाहट महसूस की उन दिनों ...वह फिर कभी महसूस न हुई....बाकी सब जगह रस्म अदायगी ही दिखती है। 

यह फूल भी अभी दिखा...
एक तरह से ये जो बुके वुके हैं ...इन में फूल तो होते हैं ...सुंदर से सुंदर...बाज़ार है...लेिकन शायद खुशबू इन में बहुत पहले से गायब हो चुकी है.......वह मासूमियत की, स्नेह की , कृतज्ञ भाव की ...अपनेपन की .......अब तो जो बुके वुके दिये और लिये जाते हैं उन के बारे में चुप ही रहूं तो ज़्यादा ठीक रहेगा...

जाते जाते आज की पीढ़ी को एक छोटी सी सीख.....अपने गुरूओं का सारी उम्र सम्मान करते रहिए....कृपा आती रहेगी ....यह किसी बाबा का टुच्चा नुस्खा नहीं है जो कहता है कि  गुलाब जामुन खाने से भी रूकी हुई कृपा फिर से बरसने लगेगी.........यह गुरू वाली कृपा हमें सारी उम्र मिलती रहेगी अगर हमारे मन में उन का आदर-सत्कार सदैव बना रहेगा।

अच्छा, आप बताएं क्या आप ने इस दौरान अपने प्राइमरी के टीचर को याद किया?

फूलों से ध्यान आया....कुदरत तो यार हर तरफ़ हर पल संभावनाओं से भरी पड़ी है और हम फिर कैसे निराशात्मक रवैया कभी कभी अपना लेते हैं...

सोमवार, 30 मार्च 2015

भट्ठी वाली माई की मीठी यादें...

दोस्तो, व्हाट्सएप भी वैसे है अद्भुत...आज सुबह किसी ग्रुप ने यह फोटो शेयर की ...एक दम से मुझे सत्तर का दशक याद आ गया जब रब जैसी इन बीबीयों के पास अपना लगभग रोज़ जाना हुआ करता था।

मुझे नहीं पता कि पंजाब के अलावा इस तरह का काम करने वालों को किस नाम से मुखातिब किया जाता है..लेकिन पंजाब में तो हम इन्हें भट्ठी वाली माई कहा करते थे।

रोज़ाना बाद दोपहर चार पांच बजे के करीब बच्चों की यह ड्यूटी लगा करती थी कि दाने भुनवा के आओ। दाने भुनवाने का मतलब... मक्का, चना या चावल जा कर भुनवा कर ले आओ।

अधिकतर तो मक्का ही हुआ करता था... मक्का तो अब हम कहने लगे हैं, पंजाब में मक्की बोलते हैं... कल की ही बात लगती है कपड़े के थैले में मक्की लेकर जाना ...और उस भट्ठी वाली माई ने उन्हें भून कर फुल्ले (पॉप-कार्न) तैयार कर देने...और पता है इस का क्या लिया करती थी...मात्र पांच पैसे ...या कभी कभी दस पैसे....अच्छे से याद है मुझे।

और उन फुल्लों को खाने का ..भट्ठी पर ताजे भुने हुए...क्या लुत्फ होता है, यह ब्यां करना भी आसान नहीं है।

कभी कभी हम लोग काले चने भी लेकर जाया करते ...भुनवाने के लिए। और हां, जब कभी थोड़ा बहुत जुकाम होता तो याद है फिर तो काले चने भुनवा कर लाने बिल्कुल लाजमी हुआ करते थे...एक रूमाल में गर्मागर्म चने डाल कर नाक के ऊपर रख लिया करते ...साथ साथ गुड़ के साथ खाते भी जाते.. खांसी-जुकाम के लिए पता ही नहीं था कोई दवाईयां भी होती हैं, बस इस तरह के जुगाड़ और मुलैठी चूसने से ही काम चल जाया करता था।

वैसे मक्की के फुल्ले भी गुड़ के साथ ही खाया करते थे...और याद है जब कभी घर में काले चने न हुआ करते या थोड़ा स्वाद बदलने का ध्यान आता तो कभी कभी चावल ही लेकर चले जाते और भुनवा लाते।

बढ़िया दिन थे....कुछ ज़्यादा जंक-फंक चला नहीं था, यही हम लोगों की खाने की चीज़ें हुआ करती थीं।

आज सुबह यह तस्वीर देखी तो बस वह भट्ठी वाली की याद आ गई।

ऐसा नहीं कि दाने तुरंत ही भून दिये जाते थे....यार, वहां भी इंतज़ार करना पड़ता था, तीन चार लोग होते थे .. लेकिन इंतज़ार बस पांच दस मिनट ही करना पड़ता था...घर से भट्ठी की दूरी पैदल पांच सात मिनट की थी...फिर साईकिल चलाना सीखा तो साईकिल पर चले जाना।

और वहां पर कोई बैंच स्टूल थोड़े ही ना पड़े रहते थे...वहां भट्ठी के इर्द-गिर्द किसी ईंट या पत्थर-वत्थर पर जा कर बैठ जाना...और बड़े ही कोतहूल से उस को अपना काम करते देखते रहना। अच्छा लगता था वहां बैठना भी...कईं बार तो लगता था कि बारी जल्दी ही आ गई...अभी तो और बैठने का मन कर रहा होता...

दोस्तो, आप को पढ़ कर यही लगता होगा कि हमारे ज़माने में भी हम ने वेलापंती के अपने जुगाड़ कर रखे थे।

एक बात और...मैंने आप को बताया ना कि वह दाने भुनने के लिए पांच या दस पैसे लेती थी...दोस्तो, वह ज़माना भी अद्भुत था..कुछ लोग पांच दस पैसे भी नहीं लेकर जाते थे ... उन से वह मक्के का ही भाड़ा ले लिया करती थी, मतलब यह कि उन के दाने भुनने से पहले वह कच्चे दाने निकाल कर अपनी वसूली कर लिया करती थी। इसे भाड़ा लेना कहा जाता था।

अपने अतीत में झांकना और फिर सब कुछ ईमानदारी से शेयर करना ...अब आसान लगने लगा है....क्या अच्छा था, क्या बुरा ...किस बात को लिखने से असहज महसूस होता है ....जब इन बातों का ध्यान नहीं रहता ना, तो सच में लिखने से बड़ा सुकून मिलता है। सच में.......हल्कापन बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जैसे ही कोई बात दबाने की कोशिश की ..तो उस पर कोई झूठ वूठ का लेप लगाने की कोशिश करते हैं तो फिर मत पूछो यार कि सिर कैसे भारी होता है। जैसे हैं ..जैसे थे...वैसा ही ब्यां करने में मज़ा है।

आज तो मुझे मेरे मोहल्ले की भट्ठी वाली याद आ गई थी... कुछ अरसा पहले मुझे सांझा चूल्हा याद आ गया था....सच में दोस्तो उस दिन भी वे यादें शेयर करने में भी बहुत ही मज़ा आया था... अगर आप पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.......शुक्र है रब्बा सांझा चुल्हा बलेया....

अच्छा अभी बातें चल रही थीं भट्ठी की, तंदूर की .....तो अंगारें ज़हन में होंगे और अगर ऐसा हो तो मुझे मेरा ऑल-टाइम फेवरेट हिना फिल्म का वह गीत कैसे न ध्यान में आए.......पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे...इश्क ते मुश्क छुपाए नहीं छुपते......(पल्ला पंजाबी का शब्द है, मतलब ..दामन ..और मुश्क का मतलब है महक, खुशबू)..

आप भी चंद लम्हों के लिए इस गीत के सुंदर बोलों, बेहतरीन संगीत, कश्मीर की हसीं वादियों और ज़ेबा बख्तियार के किरदार में खो जाइए...



शनिवार, 28 मार्च 2015

अटल जी की विलक्षण शख्शियत...

कल बहुत खुशी हुई...अटल जी को भारत रत्न सम्मान से नवाज़ा गया।

आज सुबह अखबार खोली तो उन के निजी सहायक शिव कुमार की लिखी दो बातें दिख गईं...आप से शेयर करना चाहता हूं...

शिव कुमार ने लिखा है...

"अटल जी सरिता की तरह सरल हैं। उनसे अगर कोई छोटी-सी भी गलती हो जाती है तो उसका मलाल उन्हें उस समय तक सालता रहता है, जब तक उस गलती को सुधार नहीं लेते। ये १९८०-८१ की बात है।  
तब मारूति कार बाज़ार मे नई-नई आई थी। हम और अटल जी उसी कार से आगरा जा रहे थे। रास्ते में फरा गांव के पास भैंसों का झुंड मिल गया। हमारे ड्राइवर ने किसी तरह भैंसों के झुंड से बचने की कोशिश की तो एक भैंस कार से टकरा गई और हमारी कार पलट गई।  
कार के नीचे आई भैंस ने पलटा मारा तो कार दूसरी तरफ जा पलटी। उसके बाद उस भैंस ने फिर पलटा मारा तो कार सीधी खड़ी हो गई। कार की विंड स्क्रीन टूट गई, लेकिन मुझे, ड्राइवर और अटल जी को खरोंच तक नहीं आई, पर भैंस मर गई।  
उधर से गुजर रहे एक टैक्सी ड्राइवर ने भैंस को मरा देखा तो हल्ला मचाने लगा। आसपास के गांव वाले लाठी-डंडे के साथ वहां इकट्ठे होने लगे। मैंने अटल जी से कहा कि आप गाड़ी के अंदर रहिए। गांव वाले गुस्से में हैं। अटल जी गाड़ी में बैठने को तैयार नहीं थे। किसी तरह उन्हें समझा-बुझा कर गाड़ी के अंदर किया गया।  
मैंने अपनी लाइसेंसी पिस्तौल निकाल कर उससे हवाई फायर किया, तब जाकर भीड़ तितर-बितर हुई। मैंने ड्राइवर से गाड़ी जल्दी आगे बढ़ाने के लिए कहा। इसी बीच टैक्सी ड्राइवर ने सिकन्दरा थाने पर भैंस मरने की सूचना दे दी थी।  
मैं जब अटल जी के साथ सिकन्दरा थाने पर पहुंचा और थानेदार को गाड़ी से भैंस के मरने की जानकारी दी तो थानेदार को पहले से ही इस बारे में जानकारी थी।  
अटल जी ने थानेदार से कहा कि भई, भैंस के मालिक को बुलाओ, जो मुआवजा होगा, दे देंगे। थानेदार अटल जी को अच्छी तरह से जानता था। उसने कहा कि अरे साहब, आप जाइए। हम गांव वालों को समझा लेंगे और जो मुआवजा होगा, दे देंगे। अटल जी मान नहीं रहे थे , पर थानेदार के आश्वस्त करने पर मैं और वे आगरा चले गए।  
इस घटना के दो साल बाद एक नेत्रहीन कवि राम खिलाड़ी दिल्ली आए और उन्होंने २३ जनवरी को लाल किले में होने वाले कवि सम्मेलन में अपनी कविता पढ़ने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने अटल जी से कहा कि आप आयोजकों से मेरी सिफारिश कर देंगे तो हमें भी वहां कविता पढ़ने का मौका मिल जाएगा।  
अटल जी ने पूछा, कहां से आए हो?..उन्होंने कहा कि उसी गांव से, जहां आपकी कार से भैंस मर गई थी। यह सुन कर अटल जी ने कवि के सामने शर्त रख दी कि उन्हें कविता पढ़ने का मौका तभी मिलेगा, जब वे भैंस के मालिक को लेकर आएंगे। खैर, यह कवि भैंस मालिक को लेकर आ गए। अटल जी ने भैंस मालिक को भैंस मरने के मुआवजे के तौर पर १० हजार रूपये दिए।  
                                                   ********************* 
अटल जी किसी भी कार्यकर्ता को निराश नहीं करते। उनके पास जो भी कार्यकर्ता अपनी दरख्वास्त लेकर आता, उस पर अपनी सिफारिश ज़रूर लिख देते। यूपी में एक जगह गए तो एक कार्यकर्ता अपनी एप्लिकेशन लेकर आ गया कि फलां साब से मेरी सिफारिश कर दीजिए। अटल जी ने उससे पूछा, वह साहब हमें जानते होंगे?..उसने कहा कि बस आप लिख दीजिए।  
अटल जी ने लिखा कि प्रिय महोदय, मैं आपसे परिचित तो नहीं हूं, लेकिन यह आवेदनकर्ता की इच्छा है कि मेरे लिखने से उसका काम हो जाएगा, इसलिए मैं इसकी सिफारिश कर रहा हूं। यकीन मानिए, उसका काम हो गया।  
                                                           ***************** 
अटल जी को पशु-पक्षियों से बहुत प्रेम है। एक बार उन्होंने अपने आवास पर खरगोश पाला। उस खरगोश ने बच्चे को जन्म दिया। बच्चे को देख कर अटल जी बड़े खुश हुए। उन्होंने उसे रुई से दूध पिलाया और संसद चले गए। इसी बीच बच्चा धूप में निकल आया। उसे लू लग गई और वह मर गया। अटल जी दोपहर में आए तो बच्चे को मरा देख कर उनकी आंख में आंसू आ गए। फिर उन्होंने अपने लॉन में स्वयं गड्ढा खोदा और उसे दफनाया। फिर उसके ऊपर एक पौधा लगा दिया।  
                                                      ******************* 
अटल जी को लोगों से मिलने और उनके बीच बैठ कर बात करने में बड़ा आनंद आता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल जी का एसपीजी का घेरा इस आनंद को छीनने की कोशिश करता था तो वह एसपीजी वालों को झिड़क देते।"
दोस्तो, जब हम लोग स्कूल में आठवीं दसवीं कक्षा में पढ़ते थे तो कोई भी कहानी जब हमें पढ़ाई जाती ...नमक का दारोगा, गोदान या कोई भी ...तो फिर हमारे मास्साब किसी किरदार का चरित्र-चित्रण करने को कहते। क्या अटल जी का चरित्र-चित्रण ऊपर वर्णित घटनाओं से नहीं होता!

निःसंदेह अटल जी एक ऐसी विलक्षण शख्शियत हैं कि उन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। वे १२५ करोड़ लोगों के दिलों पर आज भी राज करते हैं....मैं आप से जल्द ही शेयर करूंगा कि इस महान नेता ने १९८४ के सिख दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय और २००२ के गुज़रात दंगों पर क्या कहा था ..इन के जन्मदिन वाले दिन २५ दिसंबर को मैं लखनऊ से बाहर था...लैपटाप था नही...और मोबाइल पर मैं ज़्यादा लिखने के झंझट में पड़ता नहीं, सिर भारी हो जाता है... इसलिए मैंने हाथ से लिख कर इन घटनाओं पर अटल जी की प्रतिक्रिया को मीडिया डाक्टर के गूगल-प्लस पेज पर शेयर किया था... लेकिन यह अच्छे से पढ़ा नहीं जाता...मैं जल्द ही इस पर पोस्ट करता हूं...



एक अजीब लत चुकी है...पोस्ट को खत्म करते समय ...पब्लिश करते समय जो फिल्मी या गैर फिल्मी मेरे ज़हन में आता है, उसे मैं आपसे शेयर कर देता हूं..

आज अटल जी की बातें करते करते एक और महान् शख्शियत अशोक कुमार दी ग्रेट का ध्यान आ गया और उन पर फिल्माया गया यह गीत...याद होगा, टीवी सीरियल वाले हम लोग वाले दिन...हर एपिसोड के बाद दो मिनट के लिए उन की बेशकीमती नसीहत की घुट्टी पीने का किसे इंतज़ार नहीं रहता था!

तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो, 
तुम को अपने आप ही सहारा मिल जायेगा..
कश्ती कोई डूबती पहुंचा दो किनारे पे..
तुम को अपने आप ही किनारा मिल जाएगा.....

वाह ...वाह.....लिखने वाले ने क्या गजब लिख दिया! इस के एक एक शब्द की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है। यह गीत भी मेरा फेवरेट है...मैं इसे हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों बार तो देख सुन चुका ही हूं...और हर बार उतना ही आनंद आता है।

कितना प्लास्टिक अंदर लेंगे और कितना फैलाऐंगे !

हर जगह पर खाने पीने के अपने तौर तरीके होते हैं...इन पर वैसे तो कोई टिप्पणी करते नहीं बनती और न ही करनी चाहिए शायद। आम आदमी की बिल्कुल मासूम सी छोटी छोटी खुशियां हैं, जैसे वह लूटना चाहे....लूट ले।

लेकिन अगर कुछ दिख जाए जो सेहत के लिए या पर्यावरण के लिए खराब हो तो बात कहने में हिचकिचाहट कैसी!

चाय से बात शुरू करते हैं...मैंने बात दरअसल करनी है लखनऊ की चाय की...लेकिन मुझे पहले थोड़ा इधर उधर की हांकनी पड़ेगी। सीधा ही लखनऊ की चाय का तवा लगाने लगूंगा तो पक्षपात लगेगा। 

शुरू से अमृतसर रहे, वहीं पढ़े-लिखे....वहां पर चाय पीने का अंदाज़ अपना अलग ही था, होता है हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं...मुझे अच्छे से याद है कि वहां पर दो तीन जुमले चाय वालों को ज़रूर सुनने पड़ते हैं....यार, पत्ती रोक के ते मिट्ठा ठोक के (यानि पत्ती कम और चीनी दिल खोल के डालना)...जी हां, उस दौर में लोग शर्बत जैसी चाय पीना पसंद किया करते थे... और एक बात.... एक जुमला यह भी...मलाई मार के ... मुझे अच्छे से याद है, चाय वाला चाय की प्याली या गिलास से ऊपर एक चम्मच मलाई का छोड़ दिया करता था...हां, उस दौर में चॉकलेट पावडर भी फ्लेवर के लिए चाय तैयार करते समय डाला जाने लगा था...शायद हम लोग घरों में भी इसे इस्तेमाल करने लगे थे। ओह माई गॉड... काम की बात मैं फिर भूल गया... बेसन के लड्डू...गर्मागर्म चाय के साथ दो एक बेसन के लड्डू होने पर रूह खुश हो जाया करती थी। 


बंगलोर में चाय-काफी परोसने का अंदाज़
मुझे याद है मैं पहली बार १९८७ जनवरी में बंगलौर गया....वह पर हर जगह चाय काफी (अधिकतर काफी) पीने का बेहद साफ़ सुथरा एवं सुंदर अंदाज़ देखा जो मुझे बहुत अच्छा लगा....मैंने वहां से आकर बहुत से लोगों के साथ वह एक्सपिरिएंस शेयर किया..

दिल्ली में तो सारा खाना-पीना पंजाब जैसा ही है...उसे रहने देते हैं.....कुछ साल हरियाणा में मास्टरी की, वहां भी सब कुछ ऐसे ही चलता है.. लेिकन अकसर तीन चार दोस्तों को एक साथ चाय पीते जब देखते थे तो एक स्टील की प्लेट में एक किलो जलेबी या एक किलो लड्डू पड़े देख कर कुछ लगता तो था.... क्या, वह नहीं बताऊंगा!

अब आते हैं लखनऊ शहर में ... मुझे यहां आए दो साल हो गये हैं...मैंने क्या देखा अपने अस्पताल में कि कॉरोडोर में लोग पतली सी प्लास्टिक की पन्नियों में से चाय उंडेल उंडेल कर प्लास्टिक के छोटे छोटे ग्लासों में डाल कर पिया करते।

पहले पहले मुझे लगा कि शायद आज ही यह हो रहा होगा क्योंकि गिलास-प्याली नहीं मिले होंगे..लेकिन नहीं, मैं गलत था, अस्पताल में ही क्या, लखनऊ में अकसर मैंने बहुत जगहों पर यही सिलसिला देखा। बेशक इस से लखनऊ की नफ़ासत और नज़ाकत पे कोई आंच नहीं आती..


मुझे भी यह लोग चाय पीने के िलेए कहते ..लेकिन मुझे कभी नाश्ते और लंच के दरमियान चाय पीने की तलब होती ही नहीं.... लेिकन मैं अपने अटेंडेंट को भी अकसर देखता, जब देखो आधे घंटे के बाद प्लास्टिक का छोटा सा कप मुंह पे लगाए दिखता.....फिर मैंने इन्हें समझाना शुरू किया .. धीरे धीरे अब ये लोग अपनी चाय एक थर्मस में लाते हैं और फिर कांच के गिलास में पीने की आदत डाल रहे हैं। 

दोस्तो, यह जो प्लास्टिक की पन्नियों में चाय पीने-पिलाने का सिलसिला है, यह सेहत के लिए बहुत खराब है...मुझे याद है जब आज से बीस तीस साल पहले इन प्लास्टिक की थैलियों में दही मिलने लगा तो हम नाक-मुंह सिकोड़ लिया करते थे..लेिकन फिर हमें इस की आदत पड़ गई...फिर हम ने देखा ..बंबई में जिस भी डेयरी से दूध लेते थे...वह भी इन्हीं पन्नियों में ही डाल कर दिया करता .... इस की भी लत लग गई...

लेिकन हम रूकने वाले नहीं....फिर धीरे धीरे देखा कि ढाबे वाबे वालों ने दाल-सब्जी भी इन्हीं घटिया किस्म की प्लास्टिक की थैलियों में ही पार्सल करनी शुरू कर दीं। 

सोचने वाले बात यह है कि अगर हम लोग फ्रिज में पानी रखने के लिए प्लास्टिक की बोतलों के बारे में इतने ज़्यादा सज है तो फिर यह कैसे हो गया कि इन सब चीज़ों की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। 

हां, वह पत्तों के दोनों की जगह वह चमकीले से प्लास्टिक जैसी लाइनिंग वाले दोने आ गये....एक बार आठ साल पहले जब मैं ब्लॉग लिखना सीख रहा था तो एक बार इमरती खाते हुए इस तरफ़ ध्यान गया था... यहां लिंक दे रहा हूं...

यह समस्या प्लास्टिक की छोटी छोटी ग्लासियों में चाय पीने की यह भी है कि मुझे पूरा यकीन है कि ये सब रिसाईक्लड प्लॉसिक से ही बनती हैं...बेशक, लेकिन इन का डिस्पोज़ल भी कहां ढंग से हो पाता है...सब इधर उधर फैंक कर छुट्टी कर लेते हैं..

और तो और जिस सतसंग में हम लोग जाते हैं वहां पर सुबह सुबह चाय भी सभी श्रद्धालुओं को ५०-६०प्लास्टिक के ग्लासों में ही परोसी जाती है.. अब तो प्रसाद भी वही प्लास्टिक की लाइनिंग वाले दोनों में ही मिलता है हर जगह... और लंगर भी वहीं डिस्पोज़ेबल प्लेटों में......गुज़रे जमाने की बातें याद करें तो मुझे अच्छे से याद है कि १९७० के दशक में अकसर लंगर को हाथों में ही लिया जाता था....परशादे (रोटी) के ऊपर ही दाल डाल दी जाती थी..और हम सब ऐसे ही उस का लुत्फ़ उठा िलया करते थे....और स्वर्ण मंदिर में प्रसाद की बेहद सुंदर व्यवस्था तो है ही...गर्मागर्म हलवा आप को हाथ ही में दिया जाता था... और दोने भी वही पुराने दौर वाले ... पत्तल के। 

आज सुबह सुबह ये बातें करने की इच्छा हो गई......इन सब बातों के प्रति थोड़ा सा भी हम सब सजग और सचेत रहेंगे तो अपनी सेहत के साथ साथ पर्यावरण की सेहत की भी थोड़ी संभाल कर लेंगे।

लिखते लिखते बंबई की कटिंग चाय का ध्यान आ गया....

और मेरी मां की बात भी याद आ गई कि जब वे विभाजन से पहले गाड़ी में यात्रा किया करती थीं तो स्टेशन आने पर चाय की आवाज़ें इस तरह से लगा करती थीं.....हिंदु चाय...हिंदु चाय.......मुस्लिम चाय... मुस्लिम चाय.........और मां के स्कूल में भी ...पानी के मटके भी हिंदु बच्चों के लिए अलग और मुस्लिम बच्चों के िलेए अलग!! उस दौर की कल्पना कर के तो लगता है कि हम लोग सच में बहुत सुधर गये हैं...वैसे एक बात जो मां बड़ी शिद्दत से दोहराती हैं कि बस यह पानी और चाय के अलावा, कभी उन्हें हिंदु-मुस्लिम अलग अलग होने का अहसास दिलाया ही नहीं गया, सब का आपस में घुल मिल कर रहना भी उस दौर की एक पहचान थी।

सब से बढ़िया वही दौर था जब लोग चाय मिट्टी के कुल्हड़ों में पिया करते थे... गाड़ी में भी ऐसे चाय पीने में अच्छा लगता था...तब यह नियम नहीं था, लोगों ने वैसे ही ऐसे चाय पीना स्वीकार किया हुआ था...कुछ साल पहले रेल मंत्री लालू यादव के जमाने में एक दौर वह भी आया...जब एक नियम भी बन गया कि रेलों में चाय ऐसे ही कुल्हड़ों में बिका करेगी...लेकिन अकसर देखने में आता कि स्टाल वाले अपना सारा धंधा कांच, प्लास्टिक एवं थर्मोकोल वाले गिलासों में ही किया करते ...बस, बीस तीस कुल्हड़ वे लोग अपने स्टाल पर सजाए रखते कि कहीं कोई अधिकारी अपने औचक निरीक्षण में पूछ ले तो!!

                                                वैसे मुझे चाय पीना ऐसे ही अच्छा लगता है....

आज पता नहीं सुबह से मेरे को यह गीत बार बार याद आ रहा है ....आप भी सुनिए...सत्तर अस्सी के दशक में इसे रेडियो पर बहुत सुना....मोहम्मद रफी साहब और सुलक्षणा पंडित की मधुर आवाज़ में...


गुरुवार, 26 मार्च 2015

नहीं जी, मैं तो बस हाउस-वाईफ...

जब कभी मैं ओपीडी में आई किसी महिला से पूछ लेता हूं कि आप क्या करती हैं?..क्या आप सर्विस करती हैं?...और बहुत बार मुझे जब यह जवाब मिलता कि नहीं जी, बस घर में ही, बस हाउस-वाईफ ...मुझे यह सुन कर बहुत बुरा लगता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि जो महिला होम-मेकर है, उसने तुम्हें बता दिया कि वह हाउस-वाईफ है तो इसमें मुझे इतना बुरा लगने वाला है क्या!

है, दोस्तो, यह हाउस-वाईफ या बस घर ही में ...शब्द बोलते जो अधिकतर महिलाओं के चेहरे के भाव मैंने पढ़े हैं ...वह देख कर अच्छा नहीं लगता। सीधे सीधे बात करूं तो मुझे यही अनुभव होता है कि इन्हें यह कहते हुए अपने आप में किसी कमी का अहसास हो रहा है।

लेिकन सच्चाई इस से बिल्कुल अलग है...हम सब जानते हैं कि एक गृहिणी का एक घर में कितना अहम् योगदान है...सारे घर की क्या, पूरे संयुक्त परिवार की धुरी होती है एक गृहिणी। कोई शक?

हां, आज गृहिणी की बात कैसे चल पड़ी.... आज सुबह वाट्सएप पर एक फारवर्डेड मैसेज दिखा....चेतन भगत ने कामकाजी पत्नी की बहुत प्रशंसा की थी..उसने लिखा था कि उस की मां भी ४० वर्ष तक सर्विस में रही हैं। ठीक है, अच्छा लगा उस के विचार पढ़ कर...

यकीनन् दोस्तो इस में दो राय हो ही नहीं सकती कि कामकाजी महिलाएं दोहरी भूमिका निभाती हैं...हम लोग चाहे जितनी भी जेंडर सेंसेटाईज़ेशन की बातें हांकते रहें, लेकिन ज़मीनी हकीकत से हम सब वाकिफ़ हैं कि किस तरह से अधिकतर कामकाजी महिलाएं घर और काम के चक्कर में पिसती रहती हैं। सभी कामकाजी महिलाओं के इस जज्बे को हम सब का सलाम..

यह तो थी बात कामकाजी महिलाओं की लेकिन जब कामकाजी महिलाओं की बात चलती है और उस के साथ ही गृहिणियों की बात न की जाए तो बिल्कुल अधूरी सी लगती है बात, दोस्तो, कामकाजी महिलाएं की संख्या तो आज भी शायद आटे में नमक जैसे अनुपात में होगी...शायद इस से थोड़ी ज़्यादा, लेकिन दोस्तो देश की करोड़ों गृहिणियों का दिन भी तो सुबह काम से शुरू होता है और रात में सोने तक यही सिलसिला चलता रहता है।

मुझे ऐसा लगता है कि जब भी कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाए तो गैर-कामकाजी (वैसे तो मुझे इस शब्द से ही आपत्ति है, क्या सुबह से रात तक घर को संभालना कामकाज नहीं है!) ..महिलाओं के कामकाज के लिए भी प्रशंसा के दो शब्द कहे जाएं।

और सब से बड़ी बात...मुझे आज लगा कि चेतन भगत ने कामकाजी महिलाओं की तारीफ़ के पुल बांध दिए...लेकिन अगर इसी बहाने हम ने अगर उन सैंकड़ों गैर-कामकाजी (!!)महिलाओं को आज याद न किया जिन्हें हम बचपन से देखते रहें....हमारी नानी, दादी, फूफी, मौसी, मामी, चाची, ताई, भाभी, मां, बहन.....और हां, जहां जहां भी हम लोग रहे उस के अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं के संघर्षमय जीवन को देखा, लहरों के विपरीत उन के चलने की हिम्मत देखी..

और बहुत सी बहुत कम पढ़ी लिखी महिलाएं भी देखीं ...कुछ अनपढ़ भी देखीं....(पंजाबी में एक कहावत है, वह पढ़ा नहीं है गुढ़ा है)...लेिकन जीवन की परीक्षा में अच्छे से सफल.....हर तरह से.....हर तरह से घर की आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने में पूरी तरह से सक्षम...

टॉिपक आज गलत चुन लिया गया है.......लिखते कुछ बन नहीं रहा......समाज में गैरकामकाजी महिलाओं के योगदान पर ग्रंथ िलखे जा सकते हैं...अपनी अधिकतर इच्छाओं और ज़रूरतों को दबाते हुए अपने घर-परिवार की मर्यादा के लिए इन के त्याग की गाथाएं लिखने लगेंगे तो ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। हर घर में इन पर कईं कईं नावल लिखे जा सकते हैं।

डर लगता है आज की गैरकामकाजी महिलाओं की भूमिका को इतना ग्लोरीफाई करते हुए....डर लगता है कि यह भी हम पुरूषों की मानसिकता तो नहीं बन गई...ताकि लकीर की फकीरी ज्यों की त्यों बनी रहे।

नहीं दोस्तो ऐसा नहीं है, बदलाव की हवाएं चल निकली हैं....खुशामदीद, स्वागत है, हरेक को खुले में सांस लेने का, प्रश्न पूछने का, कम से कम अपने फैसले स्वयं करने का हक तो है ही!

इन्हीं बदलती हवाएं को हवा देती हुई जब कोई फिल्म आती है ना तो बहुत सुखद अनुभव होता है.....आज भी दोपहर में एक चैनल पर बेटे ने हिंदी फिल्म डोर लगाई हुई थी.....कह रहा था कि अब यह बहुत बार रिपीट हो रही है....मुझे इस फिल्म को बार बार देखना अच्छा लगता है, यह एक दबी हुई महिला के सिर उठाने की दास्तां है, सड़ी गली कुछ पुरानी दकियानूसी प्रथाओं की जंजीरों को तोड़ने की संभावनाएं टटोलते हुए... .... अगर आपने अभी तक नहीं देखी, तो ज़रूर देखिएगा... मुझे इस का यह गीत बेहद पसंद है...मैं कईं बार सुबह सुबह किसी भक्ति-वक्ति गीत की जगह इस तरह के गीत ही सुनना पसंद करता हूं....

बुधवार, 25 मार्च 2015

एक ७५ वर्षीय युवा की सेहत का राज़- प्राणायाम्

हमारा पेशा ही ऐसा है कि हमें बहुत से लोगों से मिलना होता है....कुछ जो लीक से हट कर दिखते हैं उन के बारे में जानने की उस्तुकता तो होती ही है।

कल भी जब एक सज्जन मेरे पास आए तो मैंने उन के पर्चे पर उम्र देखी ...७५ वर्ष..मुझे ताजुब्ब इसलिए हुआ कि वे जितने सक्रिय थे उस से उन की इतनी उम्र लग नहीं रही थी।

मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि तिवारी जी, इस उम्र में भी आप टिप-टाप रहते हैं, देख कर खुशी हुई..लेकिन इस ज़िंदादिली का कोई राज़ हो तो शेयर करिए...अच्छा लगा उन की बात सुन कर। मेरे मुंह से टिप-टाप शब्द सुन कर खुश हो गये और कहने लगे कि इस का मुझे शौक है।

दोस्तो, तिवारी जी को रिटायर हुए १८ साल हो चुके हैं...ये सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली में विश्वास रखते हैं. किसी भी तरह के व्ययसन को छुआ तक नहीं..बस सादी दाल, रोटी, साग सब्जी में ही आनंद आता है। बच्चे अच्छे से सेटल हैं...संयुक्त परिवार है।


जो अहम् बातें इन्होंने शेयर की हैं तीन चार...वही मैं आप से शेयर करने वाला हूं।

यह टहलते रोजाना हैं...पहले पांच छः किलोमीटर चलते थे ...अब कहते हैं तीन चार किलोमीटर ही चलता हूं और जाड़े के दिनों में तो बंद कर देता हूं।

लेकिन एक बात इन्होंने १९९९ से गांठ बांध रखी है...ये नित्य-प्रतिदिन प्राणायाम् करते हैं। मैंने पूछा बाबा रामदेव से सीखा होगा टीवी पर.....नहीं, कहने लगे कि उन के सेंटर में जाकर उन के शिक्षकों से सीखा।

कहने लगे कि पहले मैं बीमार ही रहता था लेकिन अब एक दम फिट रहता हूं...इन से मिल कर बहुत खुशी हुई... कहने लगे साईकिल चलाता हूं...लेकिन आज आप के पास अपने पुराने चेतक पर आया हूं...बीवी कह रही थी कि मत जाओ स्कूटर पर, अब उम्र हो गई है... कहने लगे कि मैंने उसे कहा कि तुम चिंता मत करो, यह देखो, मेरे पास मोबाइल है, जब चाहो मेरे से बात कर लेना।

हां, एक बात और ... कहते हैं मैं सुबह एक लिटर पानी पीता हूं...पहले सवा लिटर पी लिया करता था...बता रहे थे कि उस से मुझे अच्छा लगता है।

इस के बारे में मैं फिर कभी चर्चा करूंगा कि कितना पानी पीना चाहिए ... लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सुबह एक दो गिलास पानी पीना ठीक है, अपनी क्षमता अनुसार। लेकिन मैंने इस बात को अकसर अनुभव किया है कि हम लोग सुबह सुबह पानी पीने में इतनी रूचि लेते नहीं हैं.....अब देखिए,मेरे जैसे लोग थोड़ा बहुत जानते ही हैं, मैं भी इस के बारे में ज़्यादा सचेत नहीं था....पिछले दिनों अखबार में एक विशेषज्ञ का लेख देखा था, इसलिए अब सुबह उठ कर एक दो गिलास पानी पीने की आदत डाल रहा हूं।

हां तो दोस्तो, मैंने इस ७५ साल के जवान की बातें आप से इसलिए शेयर की ताकि हम लोग जहां से भी प्रेरणा मिले ले लिया करें.....मैं भी १९९० के दशक में कईं वर्ष तक नियमित प्राणायाम् किया करता था ...फिर जब से बंबई छूटा तो यह प्राणायाम् भी दूर छूट गया।

मैंने तिवारी जी को कहा कि आप की बातों से मुझे इतनी प्रेरणा मिली है कि मैंने भी निश्चय किया है कि आज ही से मैं भी प्राणायाम् फिर से शुरू कर करूंगा...मैंने इसकी बाकायदा सिखलाई ली हुई है..लेकिन मैं अपनी सेहत के बारे में ज़्यादा जागरूक नहीं हूं....कोई चिराग भी नहीं हूं ..कि वह वाली कहावत ही कह लूं......चिराग तले अंधेरा।

लेकिन इतना पक्का है कि मुझे जहां से भी कुछ अच्छी बातें मिलती हैं, मैं ग्रहण करने का एक अदना सा प्रयास ज़रूर कर लेता हूं...

तिवारी जी को मैंने भी दो हिदायतों की घुट्टी पिला ही दी.....एक तो इन का नाश्ता मुझे कमजोर दिखा...मैंने बताया कि नाश्ता डट कर किया करिए...सूखी रोटी साग सब्जी... दलिया आदि का सेवन अच्छा रहता है और शाम के समय या कभी भी पिसे हुए भुने चने ज़रूर लिया करें...कह गये कि आप की बात ज़रूर मानूंगा।

आप सोच रहे होंगे कि तिवारी जी की सेहत अगर इतनी ही बढ़िया है तो फिर अस्पताल में करने क्या आए थे...हां, तो दोस्तो, तिवारी जी के दांत में कुछ कष्ट था, उस के निवारण के लिए आए थे, वह ठीक हो गया है।

आप ने तिवारी जी की जीवनशैली से क्या सीखा...........अच्छा मुझे यह भी बताइए कि यह जो मैने इन की तस्वीर यहां लगाई है, इस में इन की उम्र कितनी दिखती है?... यह फोटू मैंने इन की आज्ञा से खींची है ....मैंने इन्हें बताया कि मैंने आप की सेहत का राज़ बहुत से लोगों से शेयर करना है। मेरी बात सुन कर खिलखिला कर हंस दिए।

रविवार, 22 मार्च 2015

मरीज की प्राइव्हेसी एक बड़ा मुद्दा तो है ही..

दोस्तो, अगर मुझे किसी चिकित्सक से अपने बारे में बात करनी होती है तो मैं चाहता हूं कि वह अकेले में मेरे से बात करे...दरवाजा मुड़ा हुआ हो...बेहतर हो कि उस का अटेंडेंट या नर्स पास नहीं हों।

सामान्यतयः डाक्टर के पास जाते समय हर कोई इस तरह के वातावरण की चाह रखता है। हर एक को लगता है कि यार, जो बात मैंने अपने चिकित्सक से शेयर करनी है, वह दूसरा कोई क्यों सुने!

मुझे सरकारी अस्पतालों की यह बात बहुत ही ज़्यादा अखरती है कि वहां की ओपीडी में आम तौर पर लोगों की प्राईव्हेसी की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता..

किसी किसी ओपीडी के कमरे में चार डाक्टर बैठे होते हैं और हर डाक्टर को चार छः मरीज़ों ने घेर रखा होता है...यह बड़ी गलत व्यवस्था है। अधिकतर मैंने यही देखा है...अब अगर कोई यह समझे कि कम पढ़े लिखे लोगों को या आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके को इस बात से कोई खास फर्क पड़ता नहीं कि उन की प्राइव्हेसी का ध्यान रखा गया कि नहीं, उन्हें तो दवाई से मतलब है। नहीं, ऐसा नहीं है, हर आदमी चाहता है कि उसे अकेले में सुना जाए।

एक बात मैंने और नोटिस की है...चलो यह तो हो गई ओपीडी की बात...अगर चिकित्सकों के चेंबर भी हैं तो उन में जो चिकित्सक बैठा है, उन के सामने भी उन को मिलने आने वाले कुर्सीयों पर डटे रहते हैं जब कोई मरीज़ चिकित्सक से बात करने आया है।

कईं बार तो देखने में आता है कि उस चेंबर में दो तीन डाक्टर आपस में बातचीत में मशगूल होते हैं..अब अगर कामकाज के संबंध में यह मेलजोल हो रहा है तो कोई बात नहीं...लेकिन अकसर कभी कभी ऐसे ही चाय-काफी के लिए यह मीटिंग शुरू होती है और कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच जाती है...थोड़ा अजीब सा लगता है, विशेषकर जो जनता बाहर इंतज़ार कर रही होती है, उन के लिए एक एक मिनट बिताना पहाड़ जैसा होता है।

मैं हर एक मरीज़ की निजता की पूरी कद्र करने की कोशिश करता हूं...फिर भी १० प्रतिशत केसों में यह पूरी तरह से हो नहीं पाता.....आप किसी मरीज़ से बात कर रहे हैं और किसी भी कारणवश कोई आपके चेंबर के दरवाजे को धक्का देकर अंदर घुसे तो कैसा लगता है......मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे लिए जो मरीज़ मेरे सामने स्टूल पर बैठा है वही व्ही-आई.पी है...

मैंने ऐसे धक्के से आने वालों के लिए एक उपाय का आविष्कार किया है... मैं पहले वाले मरीज़ से बातचीत बीच में ही छोड़ कर, पहले उनसे बात करने लगता हूं...एक दिन मिनट में बात खत्म कर के उन्हें सलाह देकर भेज देता हूं...इन में से कुछ ऐसे भी होते हैं कि जो इस तरह की हिदायत भी देने की अकलमंदी करते हैं ..कोई बात नहीं, डाक्टर साहब, आप इन से (पहले वाले मरीज से) फारिग हो लें, हम बैठे हैं।

इस का भी मैंने इलाज ढूंढ लिया है... मैं उन्हें कह देता हूं कि इन्हें तो टाइम लगेगा, आप को जल्दी है, आप पहले दिखा लें......कुछ तो समझ जाते हैं, अगली बार इत्मीनान से अपने नंबर से ही आते हैं।

मेरा यह मानना है कि डाक्टर मरीज़ का रिश्ता बिल्कुल मां-बाप और बच्चों जैसा है....वह कोई भी हो...महिला हो, बच्चा हो, बच्ची हो, बुजुर्ग हो, युवा हो......यकीन मानिए दोस्तो हमारे सामने बैठने के दौरान वह हमें अपने बच्चे जैसा ही दिखता है......अब मां-बाप और बच्चे की बातें चल रही हों, बच्चे को अपना दिल खोल कर बातें शेयर करनी हैं तो उसे उस तरह का वातावरण देना किस की जिम्मेदारी है?

मुझे पता है कि यहां पर ऐसी व्यवस्था कभी बन ही नहीं सकती कि मरीज़ ही चिकित्सक को कहें कि हमें अकेले में आप से बात करनी है, कभी नहीं होगा, मरीज़ों को लगता है यह कहने से अगर डाक्टर भड़क गया तो बेकार में एक नया लफड़ा..

जो भी हो, जो भी मरीज़ हमारे पास ५-१०-१५ मिनट है, उस की हर बात को अच्छे से सुनना.....और उसे अपने तक ही रखना...क्या यह कोई बड़ी बात है, विश्वास की बात है... और वे बातें हमारे अंदर दफन हो जाती हैं, हम किसी से उन्हंें शेयर करने की सोच ही नहीं सकते।

किसी भी मैडीकल समस्या के केवल सेहत से संबंधित पहलू ही तो होते नहीं, उस के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक पहलू भी तो उस में गुंथे रहते हैं.....वह क्यों किसी तीसरे के सामने अपनी निजी समस्याओं का पिटारा खोलने बैठेगा!

यह टॉपिक तो बहुत बड़ा है, ऐसे ही लिखने लग गया ........इस पर तो जितना लिखते जाऊं कम है। बात केवल इतनी है मरीज अपने दिल की बात तभी शेयर करता है अगर उसे उस तरह का माहौल भी दिया जाए...वरना आधी दिल में, आधी बाहर ...ऐसे में इलाज में भी कमी रह सकती है...।

ऐसे हालात में मरीज की हालत तो वही बात ब्यां करती है......क्या कहूं कुछ कहा नहीं जाए, बिन कहे भी रहा नहीं जाए..


बुधवार, 18 मार्च 2015

जीवन चलने का नाम...

मैं अभी अपनी कॉलोनी में ही थोड़ा टहल कर लौटा हूं...ऐसे ही १५-२० मिनट...धूप तेज लगी तौ लौट आया।

मैंने टहलते हुए एक बुज़ुर्ग को देखा...इन की उम्र ८० के थोड़ा इधर उधर होगी...मैं पिछले दो सालों से देख रहा हूं कि इन का नौकर इन को हाथ पकड़ कर सैर करवाता है।

ये बेहद नियमितता से टहलने आते हैं...मौसम कैसा भी हो, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अच्छा लगता है इन्हें सैर करते देखना...पहले तो अपने नौकर का हाथ थामे हुए भी बहुत ही लड़खड़ाते चला करते थे ..एक हाथ में इन के छड़ी हुया करती थी...आज मैंने देखा कि इन्होंने छड़ी बस ऐसे ही एक हाथ में थामी हुई थी...इस का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे।

बहुत अच्छा लगता है जब कोई इस तरह की दृढ़ इच्छा-शक्ति वाला शख्स मिलता है। बीमारी की ऐसी की तैसी....ये सब तो ८० प्रतिशत हमारे मन की ही उपज हैं....जब शऱीर चलता रहेगा तो मन भी ठीक ही रहेगा।

मैं अकसर इस ब्लॉग पर बहुत से ऐसे लोगों की कहानियां शेयर करता रहता हूं जिनसे कोई भी प्रेरणा ले सकता है। दरअसल इन में से कोई भी कहानी नहीं होती, हर बात सच होती है।

अभी दो तीन पहले ही एक ८४ साल के बुज़ुर्ग आए... पहले फौज में थे, फिर दूसरे विभाग में नौकरी कर ली..दो जगह से पेन्शन पा रहे हैं...बीवी चल बसी है..बच्चे हैं नहीं... घर में अकेले रहते हैं......तो उस दिन अपने आप ही बताने लगे कि डाक्टर साहब, I am completing 84....पच्चीस साल हो गये रिटायर हुए...सारा काम अपना खुद करता हूं...बिल्कुल अपने आप...और इस से मैं बहुत चुस्त दुरूस्त महसूस करता हूं...मुझे याद है वे दो तीन बार आये हैं....हर बार साफ़ स्वच्छ कपड़े पहने रहते हैं....सफेद सूती कमीज़....बिना इस्तरी की हुई...वे इस में भी इतने फिट एवं एक्टिव दिखते हैं...कहते हैं अपने कपड़े रोज़ के रोज़ धो लेता हूं....चाय ऐसी बनाता हूं कि मजा आ जाए...मुझे कहने लगे कि इस बार उन के संत आएंगे तो आप को ज़रूर ले कर जाना है......उसी दिन की बात है कि जब मैं अस्पताल से बाहर निकल रहा था तो मैंने उन्हें साईकिल का ताला खोलते देखा.....वे अभी भी एकदम फिट हैं तो साईकिल से ही अपना ज़्यादातर सफऱ तय करते हैं...मुझे बहुत खुशी हुई। मेरे ख्याल में आपने इन की उम्र ध्यान से पढ़ ही ली होगी....इन्हें अभी ८५ वां साल लगने वाला है। ईश्वर करे ये शतायु हों।

दोस्तो, कल शाम को मेरा सिर थोड़ा भारी था...अकसर हो जाता है, दोपहर खाने के बाद जितनी सुस्ती मुझ पर छा जाती है, मुझे ही पता है.....मैं पिछले लगभग २०-२५ सालों से इस तकलीफ़ से ग्रस्त हूं....लेकिन मेरी बीवी कहती है कि ऐसा सब के साथ ही होता है।

हां, तो कल शाम को मेरा सिर भारी था और हम लोग पास ही के एक बाग जिसे बिजली पासी किला कहते हैं....यह मायावती के कार्यकाल के दौरान बनाया हुआ एक सुदंर स्थल है...मैं वहां पर २०-२५ मिनट टहला, बढिया हवा चल रही थी और हो गई अपनी तबीयत बिल्कुल टनाटन।


मैं क्यों यह सब लिख रहा हूं .. ..आप सब को भी और अपने आप को भी याद दिलाने के लिए कि जहां पर भी मौका मिले अपने शरीर से काम ले लेना चाहिए...इस के बेशुमार फायदे ही हैं....टहलने का बहाना ढूंढे, साईकिल चलाने की वजह ढूंढे.....यह मुश्किल नहीं है बिल्कुल अगर हम ठान लें...

मैं हर शख्स को पैदल चलने के लिए प्रेरित करता रहता हूं... क्योंिक मैं यह भलीभांति जानता हूं कि पैदल चलने से आदमी पहली बात तो यह कि अनेकों मन और शरीर की बीमारियों से बचा रह सकता है और अगर कोई इन सब व्याधियों से ग्रस्त है तो ये भी अपने आप ठीक होने लगती हैं........क्या आप को पता है कि डिप्रेशन (अवसाद) जैसे रोग के लिए भी टहलना अचूक उपाय है!

दोस्तो, जब तक टांगों में दम है, दिल में टहलने की क्षमता है और जीने की उमंग है.......बस टहलते रहिए... पता नहीं कब घुटने की वजह से या अन्य किन्हीं कारणों से किसी से चाहते हुए भी टहला ही नहीं जाए या किसी को डाक्टर ही चलने के लिए मना कर दें।

बस आखिर में एक बात लिख कर नहाने के लिए उठने लगा हूं....यकीन मानिए अगर कोई व्यक्ति पैदल चल रहा है, टहल रहा है तो यह प्रकृति का एक वरदान है.....बिल्कुल वरदान है....आप को मेरी इस बात पर यकीन करना ही होगा कि हमारे पूरे शरीर में ..दिल और दिमाग में भी......अरबों खरबों कोशिकाओं में खरबों या अनगिनत क्रियाएं चल रही हैं... और इन सब शारीरिक प्रक्रियाओं का एक सुंदर परिणाम यह भी है कि आप और मैं चल लेते हैं....अगर कभी किसी में ये प्रक्रियाएं थोड़ी सी भी पटड़ी से नीचे उतरने लगती हैं तो आदमी चाह कर भी एक पैर जमीन पर खड़ा होना तो दूर सीधा खड़ा तक नहीं हो पाता। 

हां, कल एक आदमी की बात सुन कर मूड बड़ा खराब हुआ... वह रिटायर होने वाला है...उस का बेटा बेड पर है...१७ साल की उम्र थी तब जब किसी के स्कूटर के पीछे बैठा था.. स्कूटर किसी से भिड़ गया और उस के बेटे के सिर के पिछले हिस्से पर ऐसा झटका लगा कि वह कभी बेड से उठा नहीं....बड़े से बड़े विशेषज्ञ को दिखा लिया है...वैसे स्वस्थ है, खाता पीता है...२५ साल का हो गया है..लेकिन बिस्तर से उठ ही नहीं पाता......मल त्याग और पेशाब तक भी बिस्तर पर लेटे लेटे ही......गर्दन के दो मनकों को कुछ गड़बड़ हो गई है जिस का कोई इलाज नहीं है।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे। मुझे याद है मैंने लगभग १०-१५ साल पहले एक िकताब पढ़ी थी ..वाकिंग के ऊपर...बहुत ही बेहतरीन किताब थी ...अगर कहीं दिखी तो उस के कुछ अंश आप से शेयर करूंगा.......और आप भी आज ही से टहलने के बहाने ढूंढते रहिए...अच्छा लगता है....जैसे बचपन में रेडियो पर इस गीत को बार बार सुनता अच्छा लगता था.....




रविवार, 15 मार्च 2015

डाक्टर के पहनावे का मरीज़ के इलाज से क्या संबंध हुआ!

दोस्तो, हम लोग जिस सत्संग में जाते हैं वहां पर हमें सभी तरह के कर्म-कांडों से दूर रहने की प्रेरणा मिलती है, उस में एक बात यह भी है कि ज़रूरी नहीं कि आप सुबह सवेरे नहा धो कर ही सत्संग में जाइए। लेकिन अकसर स्टेज से प्रवचन में यह बात दोहराई जाती है कि हमें कपड़ों का चुनाव अवसर के अनुसार करना चाहिए। फिर कहा जाने लगा कि बहनें सतसंग में रीवीलिंग कपड़ें न पहनें तो अच्छा हो...

बात है भी सही कि सतसंग के वातावरण के अनुकूल ही हमारी वेशभूषा हो तो हम सब शांति से सतसंग की बातों को ग्रहण कर सकते हैं। कल बात चल रही थी कि पुरूष लोग अब लोअर पहन कर ही आने लगे हैं....ऐसा न लगे उधर से गुज़रने वाले लोगों को कि ये लोग तो बस नींद से उठ कर आ कर बैठ गये हैं।

दोस्तो, यह बात भी आई कि ज़रूरी नहीं कि हम लोगों के पास आठ-दस-बीस जोड़ें हों तो ही हम लोग साफ़-स्वच्छ दिख सकते हैं... अगर दो ही कपड़ें हों तो भी उन्हें साफ़-स्वच्छ पहन कर रहने से हमारा मन तो खुश रहता ही है, देखने वाले पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

अच्छा, दोस्तो, सतसंग की बात को तो यहीं पर विराम देता हूं...एक विषय पर आप से विचार साझा करना चाहता हूं...पिछले कईं दिनों से इच्छा हो रही थी, आज ध्यान आ गया।

दोस्तो, हम लोग किसी सरकारी अस्पताल में अगर जाते हैं और अगर एक ही ओपीडी के एक कमरे में बहुत से चिकित्सक बैठ कर मरीज़ों की जांच कर रहे हैं तो आप किस चिकित्सक की पंक्ति में लगना चाहेंगे?....ज़ाहिर सी बात है अन्य बातों के साथ साथ कहीं न कहीं हमारे मन में यह भी रहता है कि किस डाक्टर ने कपड़े अच्छे डाले हुए हैं, कौन अप-टु-डेट सा दिख रहा है, हम लोग अकसर उसे ही घेर कर खड़े होना पसंद करते हैं, अगर वह बातचीत भी हर एक से ठीक ठाक कर रहा है, हंसमुख है........ये सब चीज़ें भांपने के लिए किसी आईआईएम की डिग्री नहीं चाहिए, एक देहाती अनपढ़ भी ये सब बातें तुरंत ताड़ जाता है।

एक बात तो पक्की है कि हमारे कपड़े अच्छे होने का मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं कि कपड़े ब्रांडेड हों, महंगे हों, लेकिन यह ज़रूरी है कि वे साफ़-सुथरे हों, मौसम के अनुकूल हों और इस्त्री किए हुए हों।

डाक्टरों के नाखून अच्छे से कटे हुए होने चाहिए, मुंह में गुटखा, पानमसाला नहीं होना चाहिए, अपनी कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट तो बिल्कुल नहीं....(यह सब देखा है इसलिए लिख रहा हूं)....

मैं अकसर देखता हूं कि आज के युवा डाक्टर चप्पलों में ही अस्पताल आने लगे हैं, होता क्या है इस हालात में मरीज़ के मन में डाक्टर की काबिलियत के प्रति संदेह पैदा हो जाता है, कुछ बातें केवल हमें मरीज़ के भरोसे के लिए करनी होती हैं, सच में मरीज़ के मन में इन सब छोटी छोटी बातों का बहुत प्रभाव पड़ता है, वह डाक्टर की बात भी तभी मानता है जब उसे उस पर भरोसा सा हो जाता है .....और कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो हमें इसलिए ध्यान में रखनी होती हैं क्योंकि उन से हमें अच्छा लगता है।

दोस्तो, हर प्रोफैशन के पहनावे के कुछ नियम-कायदे हैं, जो अगर हम नहीं भी फॉलो करते तो कोई हमें नौकरी से बाहर नहीं कर देगा...खास कर सरकारी में....अगर शूज़ अच्छे से पॉलिश नहीं हैं, सफेद डाक्टरी कोट नहीं भी पहना तो हमें कईं बार लगता है कि क्या फर्क पड़ता है, लेकिन मरीज़ के मन को बहुत फर्क पड़ता है......अगर दाढ़ी नहीं बनाई किसी दिन तो दोस्तो हमें अपने आप से बात करने की ही इच्छा नहीं होती तो दूसरे से हम क्या वार्तालाप करेंगें।

दोस्तो, यह सब मेरी आपबीती है ...यह कोई किताबी बातें नहीं हैं.....यह सब मैं एक मरीज़ एवं एक डाक्टर के रूप में अनुभव कर चुका हूं। दोस्तो, मुझे याद है अगर कभी बहुत ज़्यादा कड़ाके की ठंड होनी तो मैंने नहाने की बजाए ड्राई-क्लीन हो कर चले जाना, पैरों में अच्छे शूज़ की अलावा भी सब कुछ पहन कर देख चुका हूं, दाढ़ी न बना कर जाने का हश्र भी देख चुका हूं... सर्दी के दिनों में सिर पर मंकी कैप को फोल्ड कर के भी ओपीडी में बैठ चुका हूं...

लेकिन आज जब आत्मावलोकन करता हूं तो यही पाता हूं कि हमें अस्पताल में हर काम विश्वास को जीतने के लिए करना होता है.....ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि सरकारी अस्पताल में बैठे हैं तो क्या पड़ना इस सब झंझट में......नहीं, हमें अपने प्रोफैशन के अनुसार तो दिखना और फील करना ही चाहिए......इस में कोई दो राय नहीं .... यकीनन मरीज़ का भरोसा जीतने के लिए भी यह सब बहुत ज़रूरी होता है....यार, मरीज़ को लगे तो सही कि यह ठीक ठाक लगता है, यह मुझे भी ठीक कर देगा।

जब हम लोग कालेज में डाक्टरी पढ़ते हैं और जब नये नये डिग्री पाते हैं तो इन सब चीज़ों के प्रति बेहद सजग होते हैं......लेकिन पता नहीं कईं बार धीरे धीरे क्यों ये सब चीज़ें हम थोड़ी सी ध्यान में रखना बंद कर देते हैं......अब आप देखिए कि एक डाक्टर अपने कमरे में बैठा हुआ है, उस की कमीज़ के ऊपर के दो बटने खुले हुए हैं....और उस की मोटी सी सोने की चेन दिख रही है, अब आप भी बताइए कि मरीज़ को क्यों नहीं लगेगा कि कहीं वह पहाड़गंज के किसी प्रापर्टी डीलर के पास तो नहीं आ गया!

एक बात का और ध्यान आ गया.......बिल्कुल सच...दोस्तो, बार बार यह लिखना कि मैं झूठ बिल्कुल नहीं कहता इस ब्लॉग पर, ठीक नहीं लगता....हां, एक डाक्टर को किसी जमाने में जानता हूं जो हर अंगुली में सोने की अंगुठी भिन्न भिन्न पत्थरों और मोतियों से जड़ी हुईं पहने रहता था...और उस के कमरे और कमरे के बाहर बीसियों देवी देवताओं की तस्वीरें टंगी रहती थीं....मुझे यह सब बहुत अजीब लगता था.......अच्छा, एक बात और.....धंधे उस के पूरे के पूरे गोरख ही थे.........ऐसे में क्या नहीं लगता कि हम लोग चीटिंग कर रहे हैं और वह भी मरीज़ से...

क्या ज़रूरत है मरीज़ के सामने ईश्वर से डरने का नाटक करने की .......अगर ईश्वर हम लोगों के मन में बसा हुआ है तो हमारे सामने बैठा हर बंदा ही स्वयं ईश्वर है.....और यह सत्य भी है... फिर बेवजह की नौटंकी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती .... किसी भी धर्म-जाति-वर्ण के मरीज़ के सामने डाक्टर की धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेफरेंसेज़ प्रगट ही क्यों हों, इस की ज़रूरत ही क्या है। हम धार्मिक आस्थाएं कुछ भी हों, इस से मरीज़ को क्या फर्क पड़ता है!

दोस्तो, ये सब बातें शायद आप को बेतुकी लगें लेकिन मेरे लिए यह एक रिमाइंडर था कि मुझे कल से ही इन सब बातों को पूरा पूरा ध्यान रखना होगा, मरीज़ के भरोसे के लिए तो है ही , अपना मन भी अच्छा रहता है, किसी से ढंग से बात करने की इच्छा ही तभी होती है.....आपने नोिटस किया कि मैंने कहीं भी अपने आप को मरीज़ से श्रेष्ठ फील करने की बात नहीं की......और यह भी बहुत ज़रूरी है.....बिल्कुल उस की सतह पर आकर बात करने से बात में अलग ही तासीर पैदा होती है....यह इस खाकसार का तजुर्बा उसे लिखने के लिए उकसा रहा है।



शुक्रवार, 13 मार्च 2015

स्टिंग करने जैसी बेवकूफी मेरे विचार में कोई नहीं....

अच्छा ही है यार मैेंने पिछले कुछ महीनों से टीवी देखना बंद कर रखा है..वही पुरानी समस्या...खबरिया चैनलों पर खबरें पढ़ने वालों को बेहद उत्तेजित होकर खबरें पढ़ते देख कर मेरा सिर भारी होने लगता था..बार बार जब ऐसा होने लगा तो मैंने सोचा कि छोड़ो यार, टीवी ही छोड़ो...मैं ठीक किया या नहीं, मुझे नहीं पता......लेकिन अब मुझे टीवी के बिना अच्छा लगने लगा है।

यह जो स्टिंग विंग की खबरें हैं न, ये अब बड़ी बात नहीं लगती। कोई बच्चा भी कर ले। हर टुच्चे से टुच्चे फोन में बातचीत को टेप करने की सुविधा तो होती है, बस फोन को जेब में डालना है, और किसी का भी कच्चा चिट्ठा खोल कर उस का जूलूस निकाल दीजिए...

दो दिन से  लोग केजरीवाल के स्टिंग आप्रेशन की बातें किये जा रहे हैं...उसने ऐसा कहा , उसने वैसा कहा....मेरा दृढ़ विचार है कि कहा तो कहा, मैं पार्टीबाजी में नहीं हूं...लेकिन केवल अपने दिल की बात कर रहा हूं कि केजरीवाल ने जो भी कहा क्या कोई और बंदा इस तरह की बातें नहीं करता! अकेले में हम लोग भरोसे के लोगों के साथ पता नहीं क्या क्या बकते रहते हैं......सच में वह बकने की ही श्रेणी में ही आता है। मुझे आप को नहीं पता, लेकिन मैं अपने बारे में तो ऐसा कह ही सकता हूं।

ऐसे में अगर किसी ने बिल्कुल दिल की बातें बिना किसी तकल्लुफ़ के किसी के साथ कर दी और उस ने उस का स्टिंग आप्रेशन कर दिया....इस से बड़ी मूर्खता वाली बात क्या हो सकती है!....मेरा अनुभव यही बताता है कि जिन लोगों का स्टिंग आप्रेशन होता है, उन को कोई कुछ भी तो नहीं उखाड़ पाता.......अगर अस्थायी तौर पर कुछ उखड़ने जैसा लगता भी है तो पब्लिक उस सनसनी को चार दिन में भूल भाल जाती है ....जैसा ही कुछ उस से भी ज़्यादा चटपटा पढ़ने-देखने-सुनने को मिलता है, पुरानी बातें ठंड़े बस्ते में पहुंच जाती हैं।

लेिकन सब से ज़्यादा नुकसान पता है किस को होता है...जो आदमी स्टिंग कर रहा होता है...उस की विश्वसनीयता अगर मानइस में न भी कहें तो सीधे सीधे शून्य तो हो ही जाती है।

एक आदमी को जानता था...पांच छः साल पहले की बात है..वह अपने अधिकारी के साथ जब बात करने जाता तो टेप कर लिया करता.....फिर उसे दूसरों पर धाक जमाने के लिए इस्तेमाल किया करता ... बिल्कुल सच्ची घटना है...मजबूरी है कि मैं उस का नाम नहीं ले सकता.....उस का नतीजा यह निकला कि उस बंदे की अपनी विश्वसनीयता जीरो हो गई...जब वह किसी को भी फोन करे तो लोग उस से बिलकुल काम की ही बात करते, हरेक को लगता वह उस की बातें टेप कर रहा है।

हम लोग बहुत अविश्वास के दौर में जी रहे हैं...हैं कि नहीं?... आज व्हाट्सएप पर सुबह सुबह मैसेज आया ...डाक्टर मित्रों ने आपस में एक दूसरे को चेताया था एक सच्ची घटना का हवाला दे कर....एक मैडीकल रिप्रेज़ेंटेटिव डाक्टर के पास आया..जब वह बाहर गया तो गलती से मोबाइल वहीं भूल गया... डाक्टर ने निगाह डाली तो उसे पता चला कि सारा वार्तालाप उसने फोन में रिकार्ड किया हुआ था....साथ में बताया गया था कि कोई इंदौर में डाक्टर का स्टिंग भी इसी ढंग से ही हुआ था।

आज कल तो वही दौर है कि मैं सोचता हूं कि जिस से भी वार्तालाप कर रहे हैं ...सीधे सीधे या फोन पर...तो उस के पास आपकी हर बात रिकार्ड करने की सुविधा है....इस के लिए कोई बड़ी तकनीक सीखने की ज़रूरत नहीं है... ऐसे में आज के दौर में दिल खोल कोई क्या बात करेगा। हर तरफ खौफ ...कहीं बात का गलत इस्तेमाल न कर लिया जाए।

दोस्तो, मैं कुछ स्टिंग आप्रेशन को छोड़ कर .......शायद जो बहुत ही बड़े स्तर के हों, जहां कोई बहुत बड़ा भ्रष्टाचार हो रहा है, राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में हो .....जो पत्रकार लोग सुनियोजित ढंग से यह सब करते हैं, उन को तो छूट दी जा सकती है.......अपना काम कर रहे हैं..........लेकिन यह जो जना-खना एक दूसरे की बातें टेप कर के, वीडियो फिल्म बना कर या तो ब्लेकमेल करने लगते हैं या फिर किसी मीडिया हाउस को यह तथाकथित स्टिंग सौंप देते हैं, यह सरासर पीठ में छुरा घोंपने जैसा है.......शायद सोये हुए बंदे की पीठ में छुरा घोंपने जैसा। थर्ड क्लास काम तो है ही, विचार उस से भी नीच स्तर का।

दोस्तो, आप अपने दिल पर हाथ कर के देखिए हम सारे दिन में जो जो बोलते हैं, जो जो कहते हैं, अगर उन का भी स्टिंग आप्रेशन होने लगे तो कमबख्त हम सब को चुल्लू भर पानी भी मुहैया न हो.....लेकिन एक बात है कि जब हम लोग अपने पुराने दोस्तो...स्कूल, कालेज एवं अपने परम मित्रों से, रिश्तेदारों से बातें करते हैं तो कितने खुलेपन से करते हैं......क्योंकि हम लोग इन पर अपने से भी ज़्यादा भरोसा करते हैं।

वैसे दोस्तो मैंने तो यह बात मन में बिठा रखी है और यह मैं हर वार्तालाप के समय मन में रखता हूं कि हो सकता है कि इस बंदे ने मोबाइल की रिकार्डिंग ऑन की हो..की हो तो की हो, उखाड़ लो यार जो उखाड़ना हो।

लेकिन मैंने भी २००९ में एक बार फोन रिकार्ड किया था......ऐसे ही २-३ मिनट के लिए.......शाम को सुनते ही इतनी आत्मग्लानि हुई कि तुरंत उसे डिलीट कर के पश्चाताप कर लिया.......मेरे विचार में यह भद्र पुरूषों के शौक नहीं है, यह सब धंधे करने वाली की विश्वसनीयता तो ज़ीरो हो ही जाती है, उसे बेहद टेंशन में भी रहना पड़ता है निरंतर........तो फिर इस खुराफात से पाया क्या.......सिवाए इस के कि पब्लिक को मुफ्त में दो दिन का ऐंटरटेन मिल गया।

आज दोपहर एक खबर दिखी की एक नेता कह रहा है कि केजरीवाल का एक और स्टिंग उस के पास है... उस ने घड़ी के द्वारा किया....और पेनड्राइव में वह स्टिंग बंद है....तू भी ले ले यार, तू भी ले ले बहादुरी पुरस्कार। ऐसे लोगों को तो पत्रकार होना चाहिए.......अब अगर पत्रकारों के काम ये लोग करने लगेंगे तो वे क्या काम करेंगे।  वैसे हो सकता है कि मैं भूल रहा होऊं.........दोस्तो, अगर आप को याद हो कि पिछले दस पंद्रह बरसों में किन किन स्टिंग आप्रेशनों की वजह से किस का क्या क्या उखड़ गया, तो कृपया टिप्पणी के रूप में दर्ज़ कर दीजिएगा।



गुरुवार, 12 मार्च 2015

अधिकतर हिंदोस्तानियों को दूध पचता ही नहीं...

दोस्तो, यह कोई मिलावटी, सिंथेटिक या किसी ऐसे वैसे दूध की बात नहीं हो रही...पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया है जिस के परिणाम में यह पता चला है कि तीन चौथाई हिंदोस्तानी दूध पचा ही नहीं पाते।

यह खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर प्रकाशित हुई है। इस तरह की खबरें पहले भी आती रही हैं लेकिन अकसर उन पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई विश्वसनीय संस्थान इस तरह की बात की पुष्टि न करे।

बीस बरस हो गये एक लेख पढ़ा था...किसी पेपर में ...मानव के पांच ऐसे दुश्मन हैं जो सफेद हैं... Sugar, milk, rice, maida, salt -- चीनी, दूध, चावल, मैदा, और नमक। यहां यह बताना चाहूंगा कि यहां पर जिस चावल की बात हो रही थी वह पॉलिश्ड एवं एकदम चमकदार चावल है जो हम खाते हैं...बिना पॉिलश वाला हल्के से भूरे रंग के चावल (brown rice) इस श्रेणी में नहीं आते हैें, वे सेहत के लिए बहुत लाभदायक होते हैं।

हां, तो दोस्तो, बीस साल पहले भी यह चर्चा चली थी कि दूध पचाने के लिए केवल शिशु के पास एन्ज़ाईम होता है ...बड़ों के पास ऐसा कुछ होता नहीं, इसलिए दूध नहीं पचता नहीं। पचता नहीं से आप यह मतलब भी निकाल सकते हैं कि दूध उन के शरीर को लगता नहीं।

चलिए, आज वाली न्यूज़ रिपोर्ट की भी कुछ बातें कर लेते हैं...दूध न पचा पाने की बात इस लिए होती है क्योंकि इसे पचाने के लिए हमारी आंतड़ियों में लेक्टेज़ नामक ऐन्ज़ाइम की कमी है....इसी ऐन्ज़ाइम की वजह से ही लेक्टोज़ दो छोटे हिस्सों में बंट पाता है जिन्हें ग्लूकोज़ एवं ग्लेक्टोज़ कहते हैं...जो बड़ी आसानी से हमारी रक्त प्रणाली में प्रवेश कर जाते हेैं।

दूध को पचाने की शक्ति बढ़ती उम्र के साथ घटती जली जाती है...और आदमी के तीसरे दशक तक पहुंचते पहुंचते यह तकलीफ़ पेट की बीमारियों जैसे कि बार बार टॉयलेट जाना और खट्टी डकारें आना..ऐसा लगना जैसे मुंह के रास्ते पेट में पड़ा हुआ खाया पिया बाहर आना चाह रहा है..

लेक्टोज़ इन्टालरेंस तो है ...भारतीयों में अन्य नसलों की बजाए समस्या बहुत बड़ी है... और एक बात कि यह जो हम लोगों ने जैसे अब निरंतर तनाव में रहना शुरू कर दिया है...और हमारी जंक-फूड से मोहब्बत इस समस्या को और भी जटिल किए जा रही है।

दूध न पचाने वालों की जब स्टडी हुई तो पाया गया कि दक्षिणी भारतीय मूल के लोगों में तो यह समस्या ८२ प्रतिशत तक है जब कि उत्तर भारतीयों में ६६प्रतिशत...

सब से अहम् बात यह है कि इस लेक्टोज़ इन्टालरेंस की वजह से शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है, हड्डियों कमज़ोर हो जाती हैं...और कुछ कुछ लोगों में जिन में विटामिन डी की भी कमी रहती है उन में तो हड्डी की तकलीफ़ और भी बढ़ जाती है।

इन तकलीफ़ों पर लगाम लग सकती है अगर हम लोग कैल्शियम एवं विटामिन डी सप्लीमेंट्स लेना शुरू करें। पीजीआई मैडीकल संस्थान के वैज्ञानिक भी यही बात करते हैं कि जिन लोगों को दूध नहीं पचता, वे इसे लेना तो बंद कर देते हैं लेिकन वे यह नहीं समझते कि इस के लिए उन्हें किसी अन्य पूरक की ज़रूरत तो है हीं........हिंदी में पूरक कुछ ज़्यादा ही कठिन सा लगता है न, तो इन्हें सप्लीमेंट्स कह देते हैं।

कृपया इस पोस्ट को पढ़ते ही कहीं आप भी किसी मॉल-वॉल में सप्लीमेंट्स ढूंढने न निकल पड़िए, कृपया इत्मीनान करिए....इन वैज्ञानिकों से ही पूछते हैं कि कौन से सप्लीमेंट्स हैं जिन की यह सिफारिश करते हैं ...इस बात का ध्यान करते हुए कि भारत में बहुत सी जनसंख्या शाकाहारी ही है। अभी इन्हें मेल भेजता हूं......जो जवाब आयेगा आप से  साझा करूंगा।

Source :   Three out of four Indians have no milk tolerance 

मैं अगर अपनी पोस्ट के नीचे कोई गीत नहीं लगाऊं तो मेरे दोस्त खफ़ा हो जाते हैं...मैं अकसर कहता हूं कि सब कुछ यू-ट्यूब पर पड़ा तो हैं, फिर मुझे सुनना पड़ता है कि वे पोस्ट के बाद मेरी पसंद का गीत सुनने के आदि हो चुके हैं.....ओह माई गॉड, अच्छा तो इस की भी लत लग जाती है... सुबह का समय है, दातुन का ध्यान आ रहा है...

मंगलवार, 10 मार्च 2015

मौत से ज़िंदगी की बात करो....

जब मैंने सन् २००० के आस पास सेहत संबंधी विषयों पर अखबारों के लिए लिखना शुरू किया तो मैं अकसर लिखने वाले विषयों को अपनी अंगुलियों पर गिन लिया करता था....फिर धीरे धीरे जैसे जैसे आंखों से परदा हटता गया तो पता चला कि हर लम्हा एक विषय लेकर आपके सामने खड़ा है।

सब कुछ अनुभव किया ....लेकिन अब पंद्रह बरस बाद यही लगने लगा है कि क्या यार, वही घिसी पिटी बातें...डेंगू के ये लक्षण, स्वाईन फ्लू की दवाई, मधुमेह की दवाईयां, दिल की बीमारी के इलाज .....सब पर लिखता चला गया लेकिन मन में अब आने लगा है कि यह सब बेकार था......किसी बीमार से उस के सेहतमंद होने की बात करो तो बात बने, शब्दों में किसी गिरते हुए को थाम लेने की तासीर पैदा हो तो बात बने....वरना क्या फायदा बात बात पे लोगों को डराने धमकाने का कि यह मत खाओ, यह मत करो, वो मत करो....जो पहले ही से खौफ़ज़दा हैं, उन के साथ मस्ती की बात करो, उन को हंसाओ.....मैं तो दोस्तो यही समझा हूं ...और पूरी शिद्दत से इसे महसूस करने लगा हूं।

जब मैं किसी के हालात बदल ही नहीं सकता, बिल्कुल भी नहीं, कल्पना भी नहीं कर सकता तो क्यों हम उस के मौजूदा हालात की बात कर कर के बार बार उस की दुःखती रग पर हाथ रखने की हिमाकत करूं...


कुछ कुछ पंक्तियां मन में बस जाती हैं...वे आप की राह ही बदल देती हैं....मैंने भी दोस्तो कुछ महीने पहले बशीर बद्र जी की ये पंक्तियां कहीं देखीं......देखीं क्या, दोस्तो, वे मेरे मन में उतर गईं...मैंने डायरी में नोट भी कर रखी हैं....आप भी सुनिए...
  "शमा से रोशनी की बात करो..
चांद से चांदनी की बात करो। 
जीने वाले तुम्हें खुदा की कसम, 
मौत से ज़िंदगी की बात करो, 
न जी भर के देखा न कुछ बात की, 
बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की। 
कईं साल से कुछ खबर नहीं,
कहां दिन गुज़ारा कहां रात की। 
मैं चुप था तो हवा रूक गई, 
कि जुबां सब समझते हैं ज़ज्बात की।।"
दोस्तो, इस की एक एक पंक्ति में जीवन का सारा सार छिपा है ...मुझे तो मेरे मतलब की दो बातें याद आती रहती हैं.... जीने वाले तुम्हें खुदा की कसम, मौत से ज़िंदगी की बात करो।

इसलिए मुझे लगता है कि मेरे लेखन में भी एक नया मोड़ आया है......जब तक बहुत ही ज़रूरी न हो, मैं अपने ब्लॉग पर बीमारियों की बात नहीं करता...बस मैं भी उम्मीद बांटने की, खुश रहने की, जीवन के उत्सव को मना लेने की ही बातें करना चाहता हूं.....भयंकर बीमारियां और उन के इलाज के बारे में ....जहां पर भी अकसर आम आदमी का बहुत बार घोर शोषण ही शोषण है, बहुत कुछ पढ़ते-सुनते रहते हैं, ऐसे में क्या बात करें....जो किसे को थामने की बजाए.....

सच में ये जो महान् शायर हैं इन के शब्दों में हकीमों के नुस्खों से भी कहीं ज़्यादा असर होता है.......हो भी क्यों नहीं, दोस्तो, इन के ये जादुई शब्द ही हैं जो मुरझाए चेहरों पर एक बड़ी से मुस्कुराहट बिखेर देते हैं.......इन के फन को कोटि कोटि प्रणाम् और ऐसी सभी महान् हस्तियों को दंडवत् प्रणाम्.......क्या कोई टेबलेट यह काम कर सकती है?

सुबह सुबह आज आप को एक इस विषय से मिलता जुलता गीत सुनाते हैं........आ बता दें कि तुझे कैसे जिया जाता है... मोहम्मद रफी साहब हम सब आप से बहुत मोहब्बत करते हैं.......

दोस्तो, कहीं भी कुछ अच्छी बात पढ़ो तो उसे लिख लिया करें, अपने दिल में.....वरना कम से कम डायरी में तो ज़रूर ही, क्या पता किसी के कौन से शब्द हमारे जीने की राह ही बदल दें। आजमा कर देखिएगा.......मैं आजमा चुका हूं और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है....



शुक्रवार, 6 मार्च 2015

पुराने कपड़े दो और नये बर्तन लो...

यह खेल भी आज से ३०-३५ वर्ष पहले बहुत हुआ करता था...बहुत मजा आता है जिस जगह भी यह खेल चल रहा होता तो मोहल्ले के बच्चे उसी जगह पर इक्ट्ठा हो जाते और उन के टाइम पास का अच्छा जुगाड़ हो जाया करता।

मैं सोच रहा था कि हम लोगों के बचपन में टाइमपास के जुगाड़ बड़े हुआ करते थे....इस खेल के बारे में तो अभी बात करूंगा ...एक और टाइमपास...उस जमाने में जब स्टील चला नहीं था, पीतल के बरतन हुआ करते थे ...तो अकसर उन की कलई उतरने लगती थी जो कि कलई करने वाला आकर कर फिर से चढ़ा जाया करता था।

हमें तो देख कर ही इतना मजा आया करता था .. हमें कलई शब्द ही अभी पता चला...हम तो पंजाबी में इसे भांडे कली करवाने के नाम ही से जाना करते थे.....हम किसी जादू से कम नहीं लगता था जब वह भट्ठी पर बर्तन गर्म कर के, उस के अंदर एक कैमीकल रगड़ता और झट से पानी में झोंकता.......लो जी, हो गई कली। हम लोग उसे ऐसे घेरे रहते थे ...तब तक जब तक वह अपना सामान बंद कर के रफा-दफा नहीं हो जाता था। उस के साथ पहले मोल-तोल देखना भी अच्छा लगता था।


हां, तो ऊपर कपड़े वाले खेल की बात करें.......अभी वाट्सएप पर एक मैसेज दिखा कि मोदी का सूट तो करोड़ों में बिक गया लेकिन एक बंदे को मलाल है कि उस की बीवी ने तो उस की तीन जीन पैंट्स एक पतीली लेने के चक्कर में दे डाली।

दोस्तो, हम बचपन में अकसर देखा करते थे जब नये नये स्टील के बर्तन चले तो एक टोकड़ी में कुछ बर्तन रख के अकसर महिलाएं (हां, पुरूष ही हुआ करते थे) मोहल्ले मोहल्ले में आवाज़ें लगाती रहती थीं...कि पुराने कपड़े दो और नये बर्तन ले लो।

वाह यार वाह.....मोहल्ले में किसी के भी घर के सामने या दरवाजे पर जैसे ही वह बैठती तो तुरंत बच्चे उसे घेर लेते......उस घर की गृहिणी की यह तमन्ना होती कि उसे लूट ले और उस बर्तनों वाली की इच्छा तो आप समझ ही सकते हो, गृहिणी कितने भी कपड़े िनकाल निकाल कर लाती, उस बर्तन वाली का पेट नहीं भरता......वह फिर कहती ..यह साड़ी तो पुरानी है, यह पैंट तो घिसी हुई है , यह कमीज का कॉलर चला गया है........दो साड़ियां लाओ और एक बढ़िया पतलून दो ...और यह बड़ा स्टील का पतीला ले लो........सच में यार यह सब देख कर बड़ा मज़ा आता था...कभी न खत्म होने वाली सौदेबाजी........हमें इस से कोई मतलब नहीं होता था कि किस की जीत हुई, हमें तो बस इसी में मजा आता था कि समय बढ़िया पास हो रहा है...और जिज्ञासा तो स्वाभाविक है बनी रहती थी कि कौन लूटेगा, कौन लुटेगा........लेिकन चंद मिनटों में जैसे ही डील पक्की हुआ करती तो दोनों के चेहरों पर संतोष का भाव झलकने लगता...और यही नहीं, फिर वह स्टील का बर्तन मोहल्ले की औरतें में अगले दो दिन तक चर्चा का विषय बना रहता .....कि यार, सोढ़न (सोढ़ी की बीवी ने) ने पुराने कपड़ों से एक बहुत बड़ा पतीला ले लिया, और कपूरनी (कपूर की बीवी) ने छः गिलास ले लिए...पुराने कपड़े दे कर।

मुझे ध्यान आ रहा है िक ये लोग एल्यूमीनियम और कांच के बर्तन भी इस तरह से एक्सचेंज में देने के लिए ऱखा करते थे।

बस, यही ध्यान आया तो आप से शेयर कर दिया........ऐसी यादें भी अब चंद लोगों के पास ही बची होंगी......फिर धीरे धीरे यह काम बंद तो नहीं हुआ.....बहुत कम हो गया। हां, एक बात का और ध्यान आ गया कि अकसर ये लोग पुराने प्लास्टिक से तैयार सामान भी लेकर आया करते थे। अकसर लोग इन लोगों को यह भी कह दिया करते कि हमें फलां फलां स्टील का बर्तन चाहिए.....तो वे कुछ दिनों बाद फिर से हाजिर हो जाते .....और पहले ही बता कर जाते कि इस के लिए इतने कपड़े देने होंगे......बस, यार, वह मंजर भी देखने वाला हुआ करता था।


 एक बात और, एक रिसाईक्लिंग की और उदाहरण याद आ गई..साईकिल पर एक आदमी करता था जो पुराना, टूटा फूटा प्लास्टिक लेकर जाता और उस के बदले कांच के गिलास, कांच की प्यालियां, प्लेटें कुछ भी दे जाता.......ऑन डिमांड...

बस, यार बंद करता हूं.......होली है, होली मनाओ......यादें तो यादें हैं.....आती ही रहती हैं.....

जाते जाते भांडे कली करवाने (बर्तन कलई करवाने) वाला पंजाबी फिल्म का एक गीत आप से शेयर करना है.....


गुरुवार, 5 मार्च 2015

बीबीसी से मेरा तारूफ़ १९७१से है तो लेिकन...

१९७१ में जब पाकिस्तान और हिंदोस्तान का युद्ध शुरू हुआ तो हम लोग अमृतसर में रहते थे...मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमें (हमें तो क्या, हमारे घर वालों को) कोई भी युद्ध से खबर सुननी होती थी तो मोहल्ले के सभी लोग अपने अपने रेडवो के साथ जुड़े पतली तार रूपी ऐंटीने इधर उधर घुमाने लगते कि कहीं से बीबीसी स्टेशन कैच हो जाए...और होता भी था, कभी दो मिनट, कभी एक मिनट...कभी पांच मिनट...बीच बीच में रूकावट के साथ लेकिन इस की खबर पक्की मानी जाती थी।

एक बात और बीबीसी पर खबरें आने के समय बहुत से लोग अपने रेडियो पर इस स्टेशन को लगाने की निरंतर कोशिश करते रहते, जो खुशकिस्मत होते उन्हें इस की आवाज़ सुनाई दे जाती.....फिर वह चौड़ा हो कर आसपास वह खबर पहुंचाता फिरता कि यह खबर अभी अभी उसने बीबीसी रेडियो पर सुनी है।

मुझे अभी भी याद है अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जो अपने ट्रांसिस्टर को तब तक ऊपर नीचे घुमाते रहते जब तक उन्हें बंगला देश की आज़ादी की खबरें अच्छे से न सुनाई देतीं। उन्हें भी बड़ा शौक था बीबीसी सुनने ..। तब टीवी वीवी तो हुआ नहीं करते थे..। बस, रेडियो सिलोन फिल्मी गानों के लिए और बीबीसी खबरें के लिए छाए हुए थे।

फिर अस्सी का दशक आया....पंजाब ने आतंकवाद का बुरा समय देखा...हर रोज़ कभी एक समुदाय के और कभी दूसरे समुदाय के लोग कत्ल होने लगे.....अब सरकारों की अपनी मजबूरियां रही होंगी ...गोलियों से मरने वाले लोगों की गिनती बहुत कम बताने की ......लेकिन हर दिन लोगों को यही व्याकुलता रहती कि बीबीसी ही बताएगा यही गिनती....और आतंकी वारदात की सही जानकारी भी वही देगा.....और देता भी था....बिल्कुल सटीक।

उस के बाद टीवी आ गये, वीडियो आ गये..फिर बीबीसी रेडियो हम लोगों की ज़िंदगी में कहीं दूर हो गया। लेिकन लगभग बीस पच्चीस साल के बाद जब २००८-०९ के आसपास नेट पर अच्छी स्पीड आने लगी और मैं जन संचार की पढ़ाई लिखाई से भी फारिग हो गया तो फिर रूझान हुआ ...बीबीसी की साईट का।

जी हां, जनसंचार की पढ़ाई के दौरान अच्छे से हम लोगों ने समझ लिया कि बीबीसी की साईट एक आदर्श साइट है...सभी तरह से ..कंटैंट की नज़र से, ले-आउट एवं प्रिज़ेन्टेशन की निगाह से...और मैं पिछले लगभग आठ सालों से इसे नियमितता से देख ही लेता हूं....मुझे बहुत से लेखों की प्रेरणा मिली वहां का कंटेंट देख कर, मैं स्वीकार करता हूं।

लेकिन यार मैं पिछले कुछ महीनों से यह महसूस करने लगा था कि बीबीसी की साइट पर भारत से संबंधित कंटेंट बड़ा अजीब से ढंग से ..क्या कहें...हिकारत भरे शब्दों से ... ऐसा कहें कि जैसे किसी को नीचा दिखाना हो तो उस के बारे में हम सब बुरी बातें ढूंढनें लगते हैं, करते हैं ना हम लोग ऐसा ही......कहीं न कहीं मेरे मन में यह विचार आने लगा कि यार, कहीं इन लोगों को यह मलाल तो नहीं है कि हमें क्यों भारत से खदेड़ दिया गया, हम होते तो वहां पर हालात इतने खराब न होते.......मुझे यह विचार बार बार आते रहे दोस्तो पिछले कुछ महीनों में, लेिकन मैंने अपने तक ही रखे।

लेिकन अब निर्भया की डाक्यूमेंटरी ने तो इंतहा ही कर दी......मुझे बहुत बुरा लगा.....मैं उस पाले में से हूं जिन्हें इस फिल्म के बनने पर और प्रसारित किए जाने पर घोर आपत्ति है। मुझे बहुत बुरा लगा इस के बारे में जान कर ...बहुत ही बुरा....वैसे एक बात तो है कि हर कोई कह रहा है कि ये पत्रकार अंदर उस अभियुक्त का इंटरव्यू लेने कैसे पहुंच गई ....आप देखिए नीचे इस स्क्रीन-शॉट में कि इस पत्रकार ने कितने घंटे इस अभियुक्त के साथ इंटरव्यू करते हुए बिताए...यह मैंने अभी अभी बीबीसी हिंदी की साइट से लिया है....
http://www.bbc.co.uk/hindi
(इसे ठीक से पढ़ने के लिए इस फोटो पर क्लिक करिए) 

वैसे सब से चिंता करने वाली बात यही है कि यार यह पत्रकार आखिर इस तरह की हाई-सिक्योरिटी जेल में घुसी कैसे.......और यह कोई खुफिया स्टिंग आप्रेशन भी नहीं था। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इस देश में क्या मुश्किल है....कितनी खिल्ली उड़ी हम सब की ...फिल्म तैयार हो गई और बीबीसी ने दिखा भी दी....और हम गिड़गिड़ाते ही रह गये.......प्लीज़ नहीं, प्लीज़ नहीं। किसी न किसी ने तो गड़बड़ी की है......अब एन्क्वॉयरी होगी, देखते हैं क्या निकलता है...

किस तरह से पिछले दिनों देखा कि एक मंत्रालय के कर्मचारी ही वहां की खुफिया जानकारी कारोबारियों तक पहुंचाते पकड़े गये.....मुझे याद आ रहा एक बार कोई कह रहा था कि वह तो किसी ज़माने में ज़रूर पड़ने पर दस बीस रूपये खर्च कर यूपीसी (अंडर पोस्टल सर्टिफिकेट) ले लिया करता था किसी भी तारीख का....फिर कानूनी खेल में उसी बात का फायदा लिया करता था कि हमने तो चिट्ठी भेजी थी....वैसे इस मुद्दे पर तो क्या लिखें, हम सब लोग जानते ही हैं कि जुगाड़ू लोग कैसे कैसे जुगाड़ लगा कर अपना काम निकाल लेते हैं...ट्रांसफर, नौकरी, प्रवेश परीक्षा में धांधली ...आप नाम लीजिए, सेवा हाज़िर है.....पैसे का खेल हो गया है सब।

वैसे अब मेरा बीबीसी की साइट की तरफ़ जाने की ज्यादा इच्छा नहीं होती......अपने देश की निगेटिव खबरें देख कर पकने लगा हूं....चलिए अभी अभी यह तो पता चला ...यू-ट्यूब से हटाई गई निर्भया डाक्यूमेंटरी

वैसे अगर आप इस के बारे में अन्य खबरें देखना चाहें तो गूगल पर हिंदी या इंगलिश में निर्भया डाक्यूमेंटरी लिख कर सर्च करिएगा.......बीबीसी की साइट पर तो यह खबर देखने-पढ़ने-सुनने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती, वे तो यही कहेंगे कि हम ने सब कुछ संपादकीय दायरों में रह कर किया..

किसी को क्या कहें, जब अपने ही किसी घर के भेदी ने लंका ढहा दी.....सब से बड़ा प्रश्न इस डाक्यूमेंटरी के लिए इतना कंटेंट जेनरेट आखिर हुआ तो हुआ कैसे......मुझे तो बरतानवी पोंडों की खनक सुनाई पड़ रही है, क्या आप को भी कुछ सुना?....  यह खनक बड़े बड़ों के होंठ सिल भी देती है और बड़े बड़ों के मुंह खुलवा देती है। अफसोस....बेहद अफसोसजनक। 

इत्तफाक से मैं भी १६ दिसंबर २०१२ वाले दिन दिल्ली में ही था...Grassroot Comics की एक प्रशिक्षण कार्यशाला में शिरकत कर रहा था.....बहुत बुरा लगा था दोस्तो.......हंसती खेलती एक बहादुर बेटी को हरामियों के इन पिल्लों ने कैसे अपनी दरिंदगी का शिकार बना दिया। थू---थू....थू।। 

अगर वही सरिया इन की .......तो इन्हें पता चलता कि उस समय कितना दर्द होता है...