शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

रोड़ सेफ्टी की ऐसी की तैसी

अकसर हम लोग बड़े हल्के फुल्के अंदाज़ में कह देते हैं ना कि नियम कानून तो कमज़ोर तबके के लिए होते हैं...दबंगों के आगे कहां नियम-कायदे टिक पाते हैं।.....लेकिन कहीं हम सड़क नियमों के बारे में भी ऐसा नहीं सोच लेते। वैसे तो आज कर देश में हर जगह ट्रैफिक को देख कर यही लगता है।

कॉलेज के दिनों में एक गीत बार बार बजा करता था ......लखनऊ के दो नवाबों की गाड़ी पहले आप पहले आप के चक्कर में छूट जाती है.....मुझे तो यहां ऐसा माहौल नहीं दिखा....हर कोई जल्दी में है। वैसे यह लखनऊ की ही बात तो है नहीं, हर तरफ़ लगभग यही मंजर दिखेगा।

मेरे पास सड़क दुर्घटना में चोटिल हुए बहुत से मरीज़ आते हैं..... आगे के दांत टूटे हुए, होंठ कटे-फटे हुए, जबड़े की हड्डी टूटी हुई....और लगभग हर केस में यही देखता हूं कि दुर्घटना के समय उस ने हेल्मेट नहीं पहना हुआ था....क्या करें, फिर भी हम ने तो हौंसला तो देना ही होता है....मैं अकसर इन्हें कहता हूं कि आप गनीमत समझें कि आंखें बच गईं, सिर फटने से बच गया....दांतों और चेहरे पर लगने वाली चोटें अकसर बहुत गंभीर होती हैं। टूटी हड्डियां-वड्डियां जुड़ तो जाती हैं लेिकन इस दौरान एक-दो महीने तक उन्हें खाने-पीने की कितनी दिक्कत होती है, इस की शायद ही आप कल्पना कर पाएंगे। और बहुत से केसों में दाग वाग तो रह ही जाते हैं सदा के लिए.....कहां लोग प्लास्टिक सर्जरी करवाते हैं!

पिछले हफ्ते मेरे पास एक ३० वर्ष के लगभग उम्र का एक युवक आया था.....उस का मुंह बहुत ही बुरी तरह से चोटिल हुआ था....पहले ही बहुत से टांके लगे हुए थे.....बात करने पर पता चला कि रात के समय बिना हेल्मेट के मोटरसाइकिल चला रहा था, मोबाईल पर बात भी करता जा रहा था कि पीछे से एक बड़े ट्रक ने टच कर दिया.....दूर जा कर गिरा खेतों में। आधे घंटे के बाद किसी पुलिस वाले ने उठा कर अस्पताल पहुंचा दिया। उस के ऊपर नीचे वाले दांत आपस में मिल नहीं रहे थे, खाया कुछ भी नहीं जा रहा था, मैंने चेक किया तो ऊपर वाले जबड़े का फ्रैक्चर पाया......ठीक तो हो ही जाएगा, वह बात नहीं है। उस के चेहरे को फोटो मैं यहां नहीं लगा रहा क्योंकि इससे आप विचलित हो जाएंगे।

लखनऊ में मैंने एक ट्रेंड और नोटिस किया है कि डिवाइडर वाली रोड पर लोग उल्ट डायरेक्शन पर अपने दोपहिया वाहन लेकर चले आते हैं..एक बार तो मैंने एक कार चालक को यह डेयरिंग काम करते देखा।


दो तीन दिन पहले की बात है कि मैंने स्कूटर के पीछे एक महिला को देखा जिसने एक बड़ा सा लकड़ी का रैक थामा हुआ था......लेिकन यह क्या, हम नितप्रतिदिन रोड़ सेफ्टी को चिढ़ाने वाले इस तरह के दृश्य देखते ही रहते हैं।

अभी कल परसों की बात है कि मैंने एक रिक्शे को इतनी तेज़ी से जाते देखा कि एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे रिक्शे में किसी ने मोटर लगवाई हो......(आज से तीस वर्ष पहले पंजाब में एक ट्रेंड चला था, साइकिल रिक्शा को मोटर लगवाने का....फिर पता नहीं वह क्रेज जल्द ही पिट गया था)... लेिकन फिर ध्यान गया कि यह तो इस मोटरसाइकिल सवार बांके की कारगुजारी थी.......इसने अपने पांव उस रिक्शे पर रखा हुआ था...एक तरह से यह उसे धकेलता जा रहा था... आगे चौक पर पहुंचने से पहले इसने कुछ क्षणों के लिए पैर हटा लिया.......लेकिन फिर से रख लिया......मैं यही सोच कर कांप रहा था कि अगर इस का पैर उस रिक्शे में कहीं अटक जाए.......कितना जोखिम भरा काम है यह.....



लेकिन अभी लिखते लिखते ध्यान आ गया कि हम भी स्कूल के दिनों में एक जोखिम उठाया करते थे...साइकिल पर आते जाते थे.....रास्ते में कोई ट्रैक्टर-ट्राली दिख जाती तो उस के संगल पकड़ कर दो मिनट मेहनत से सुकून पा लिया करते थे......एक खतरनाक खेल होता था वह भी।

हां, एक बात यह कि मैं इस बांके की जब ये फोटू खींच रहा था, तो इन की इतनी स्पीड थी कि मुझे मेरे दुपहिया वाहन की स्पीड उतनी रखने में दिक्कत हो रही थी क्योंकि मैं तो हमेशा २५-३० की स्पीड में चलाने वाला बंदा हूं। सोचने की बात है कि आखिर मेरे को भी ऐसी क्या एमरजैंसी दिखी कि मुझे ये तस्वीरें खींचनी ही थीं, ज़ािहर है यह कोई एमरजैंसी नहीं थी, यह भी तो एक जोखिम है कि आप ऐसी सड़क पर अपने फोन से फोटो खींचने की कोशिश कर रहे हैं, एक हाथ से अपने स्कूटर के हैंडल को थामे हुए। काश, मुझे भी सद्बुद्धि प्राप्त हो कि मैं भी इस तरह से रोड़-सेफ्टी को नज़र अंदाज़ न किया करूं।

लेकिन एक बात है कि रोड़ पर सब गड़बड़ थोड़े ही ना होता है, कभी कभी बहुत अच्छा भी दिख जाता है जैसे इस नन्ही सी बच्ची और उस के बापू का प्यार.....जिस अंदाज़ में उसने बापू को थाम रखा था, देखने लायक था, मैंने अपना स्कूटर धीमा कर के कहा कि तुम्हारी बेटी बड़ी समझदार है, हंसने लगा था वह बंदा मेरी बात सुन कर।

इतनी छोटी बच्ची की इतनी मजबूत पकड़
हां, एक बात और.....आज सुबह जब गूगल इंडिया का ब्लॉग देखा तो वहां पता चला कि २०१४ में एक वीडियो  जो सातवें नंबर पर रहा ..जो इतना वॉयरल हो गया कि इसे लगभग पचास लाख लोग देख चुके हैं और यह भी रोड़ सेफ्टी के ऊपर एक सोशल मैसेज है... आप देखेंगे कि किस तरह से ट्रांसजेंडर्स की मदद  इस अभियान में इतनी क्रिएटिविटी के साथ ली गई है.....लीजिए आप भी देखिए यह वीडियो ....


शरीर पर भारी स्मार्टफोन की खुमारी

पिछले महीने एक दिन मेरी तबीयत खराब थी, मैं लेटा हुआ था, लेकिन बार बार मेरे स्मार्टफोन पर कुछ न कुछ आ रहा था और मैं उसे उसी समय चैक किए जा रहा था।

उस समय मेरे बेटे ने अचानक मुझे सलाह दी......."Dad, be cool!....take some rest. You are checking and responding to your messages with the agility of a 13-year old"....यही शब्द उस ने कहे थे, मुझे भी यही लगा कि इतना भी क्या चस्का इस स्मार्टफोन का, ठंड रखनी चाहिए। कोशिश कर रहा हूं यह सीखने की कि कैसे स्मार्टफोन हाथ में रहते हुए भी ठंड रखी जाए। 

दो दिन पहले १० दिसंबर की हिन्दुस्तान अखबार में विशाल माथुर की एक रिपोर्ट छपी थी......शरीर पर भारी स्मार्टफोन की खुमारी। यह रिपोर्ट मुझे बहुत अच्छी लगी, मैं चाहता हूं कि इसे सभी स्मार्टफोन यूज़र्ज देखें। मैं इसे नेट पर भी ढूंढने की कोशिश की, लेकिन नहीं मिला इस का लिंक। इसलिए मैं इस में से कुछ अंश आप की जानकारी के लिए यहां रखना चाहता हूं। 

कहते हैं, दुश्मन से दिल्लगी अच्छी नहीं होती। कुछ यही बात स्मार्टफोन की लत पर भी लागू होती है। कभी काम तो कभी चैटिंग के बहाने स्मार्टफोन से िदन भर चिपके रहने की आदत न सिर्फ आंख, बल्कि गर्दन और रीढ़ की सेहत पर भी भारी पड़ रही है। 

रिसर्च में पाया गया है कि सीधी मुद्रा में बैठने या खड़े होने के दौरान औसत इन्सान के सिर का वजन ४.५ से ५ किलोग्राम होता है। लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति सिर आगे या पीछे की ओर झुकाने लगता है, ग्रेविटी के चलते भार बढ़ता जाता है। ऐसा बताया गया है कि गर्दन १५ डिग्री तक झुकाने पर सिर का वजन २७ पौंड (लगभग १२ किलोग्राम), ३० डिग्री नीचे करने पर ४० पौंड (लगभग १८ किलोग्राम), ४५ डिग्री पर ४९ पौंड (लगभग २२ किलोग्राम), और ६० डिग्री पर ६० पौंड (लगभग २७ किग्रा) तक पहुंच जाता है। 

ऐसे कम करें नुकसान ...
  • स्मार्टफोन, टैबलेट या ई-बुक को आंख से १२ से १४ इंच की दूरी पर रखकर प्रयोग करें। 
  • अंधेरे में और लेटकर या आराम-कुर्सी पर बैठकर स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने से बचें। 
  • एंड्रायड उपभोक्ता ब्लूलाइट फिल्टर डाउनलोड करें, गूगल प्लेस्टोर पर मुफ्त में उपलब्ध। 
  • गर्दन से जुड़ी एक्सरसाइज़ करें, रोज २०-२० बार गदर्न सीधी रखकर दाएं व बाएं घुमाएं।
  • फोन आंख की बराबरी मे लाकर इस्तेमाल करें। 
शरीर पर पड़ रहे दुष्प्रभाव ..
गर्दन
सिर झुकाकर स्मार्टफोन खंगालने के दौरान गर्दन पर दबाव पड़ता है। इससे नसों के दबने और उनमें खून का प्रवाह बाधित होने से असहनीय दर्द की शिकायत उभर सकती है। साथ ही आसपास की हड्डियों, मांसपेशियों और ऊतक कमजोर होने से कईं दूसरी परेशानियां घेर सकती हैं। 

आंख..
कंप्यूटर और स्मार्टफोन चलाने के दौरान पलकें कम झपकाने से आंखों में आंसू का उत्पादन नहीं हो पाता है। इससे व्यक्ति ड्राई-आई की चपेट में आ जाता है, जिसमें आंखों में जलन, खुजली, कमजोर रोशनी, सिरदर्द, चक्कर, मिचली और एकाग्रता में कमी की शिकायत होने लगती है। 

रीढ़ की हड्‍डी 
किताब पढ़ने, फोन पर काम करने या फिल्म देखने के दौरान अक्सर लोग गर्दन तानकर आगे की तरफ झुका लेते हैं। इससे रीढ़ की हड्डी पर अत्याधिक दबाव पड़ता है. उसमें सूजन आने से डिस्क के बीच अंतर बढ़ने लगता है। व्यक्ति को असहनीय दर्द तो झेलना ही पड़ता है, साथ में सर्वाइकल स्पांडलाइटिस का खतरा भी बढ़ जाता है। 

हां, तो दोस्तो आपने क्या सोचा.....स्मार्टफोन ठीक है यार अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है, लेकिन अति तो किसी भी चीज़ की सेहत पर भारी पड़ती ही है....ये जो बातें ऊपर लिखी हैं ये सब रिसर्च के परिणाम हैं, न्यूयार्क स्पाइन सर्जरी एंड रिहैबिलिटेशन मेडिसिन सेंटर के हालिया अध्ययन में स्मार्टफोन के ये दुष्परिणाम गिनाए गए हैं। 

देखिए, दोस्तो, आप अपने विवेक अनुसार निर्णय लें, जानता हूं स्मार्टफोन के बिना अब गाड़ी चलने वाली नहीं तो फिर क्यों न हम ऊपर लिखी सावधानियों को मान लें........और जैसे गर्दन की एक्सरसाइज करने को कहा गया है, वह भी कर लिया करें, मैंने भी बेटे की बात को मन में बसा लिया है कि हर समय १३ साल के लोंडे की तरह हर मैसेज को तुरंत उसी समय देखना और तुरत-फुरत उस का उसी पल जवाब देना क्या सेहत से भी ज़्यादा ज़रूरी है क्या, बिल्कुल नहीं!! Take care, friends!

अच्छा एक काम करते हैं, आप अपना स्मार्टफोन थोड़ा दूर रखें, इतने सीरियस टॉपिक के बाद आप को एक गीत सुनाता हूं...it is thought provoking too!


टीचरों के अनुभव ताउम्र मार्गदर्शन करते हैं....

हर स्तर पर टीचर पूजनीय है, यह तो हम सब मानते हैं......वह कक्षा में केवल विषय ही तो पढ़ा नहीं रहा होता, वह अपने उम्र भर के अनुभव आप के सामने रख देता है...है कि नहीं?

कुछ लोग शायद इस गलतफहमी में रहते हैं कि फलां फलां ने क्या पढ़ाना है, सब कुछ तो किताबों में लिखा ही है, पढ़ लेंगे, उस में समझने लायक है ही क्या। लेिकन यह बहुत बड़ी भूल है, जो हर क्लास में ये महारथी पांच मिनट के लिए अपने अनुभव साझा कर रहे होते हैं, वही तो सुनने और समझने वाली बात होती है, जो किसी किताबों में नहीं मिलतीं।

मेरे पास बहुत से मरीज़ ऐसे आते हैं जो आम खांसी जुकाम के लिए ऐंटीबॉयोटिक की फरमाईश करते हैं....मुझे पता है कि इन्हें इन की ज़रूरत नहीं है, फिर भी ...अपने आप किसी डाक्टर को ऐंटीबॉयोटिक लिखने के लिए कहना या अपनी मरजी से ही बाज़ार से खरीद लेना एक बड़ा मुद्दा है। इसी वजह से कारगर से कारगर ऐंटीबॉयोटिक अब अपनी धार खोने लगे हैं....अब वे असर ही नहीं करते।

छोटे छोटे बच्चों की आम खांसी-जुकाम के लिए दी जाने वाली दवाईयों की तो कितनी आलोचना हो रही है, आप देखते ही होंगे।

हां, तो मैं अपनी एक मैडम की बात करना चाहता हूं....यह थीं डा सीता शर्मा, जो अमृतसर के मैडीकल कालेज की फार्माकालोजी विभाग के अस्सी के दशक के दौरान हैड थीं....वह हमें फार्माकालोजी पढ़ाती थीं......बहुत ही ज़हीन प्रोफैसर थीं...अच्छे से समझा देती थीं, मैं उन की एक भी क्लास मिस नहीं करता था।

अगर पांच छः छात्र भी होते थे तो भी वे अपनी क्लास ज़रूर लिया करती थीं।

एक दिन की बात है मुझे अच्छे से याद है कि उन्होंने हम से साझा किया कि ये जो इतनी दवाईयां खाने का ..विशेषकर छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए...ट्रेंड सा चल पड़ा है, यह खतरनाक है। हमें तो उम्र की उस अवस्था में कहां दीन- दुनिया के बारे में इतना कुछ पता होता है... एक दिन उन्होंने बताया कि किस तरह से पंजाब के गांव के आदमी बुखार होने पर एक कप चाय पीने से ही दुरूस्त हो जाते हैं.......सामान्यतयः ये चाय पीते नहीं हैं...शायद यह ३० साल पुरानी बात थी, आज का मैं नहीं कह सकता......और जब ये बुखार में चाय पीते हैं... तो चाय में मौजूद कैफीन इन के लिए एक दवाई का काम करती है, इन्हें पसीना आ जाता है और ये एकदम फिट हो जाते हैं......यही बात वे ऐस्प्रिन की गोली के बारे में बताया करती थीं कि यह सस्ती सी गोली, कितनी असरदार है........यह आप लोग नहीं समझोगे, आप लोग तो बस मैडीकल रिप्रेजेंटेटिव के प्रलोभन में  महंगी महंगी दवाईयां ही लिखा करोगे, इन्हें यह भी अंदेशा था.......अब यह हमारे दिल को पता है कि यह कितना सच साबित हुआ, कितना झूठ।

पंजाब के गांवों में लोग अमूमन दवाईयां कम ही खाते हैं.....इस का इफैक्ट देखना चाहेंगे?..कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे व्हाट्सएप पर यह वीडियो भेजी थी.....मैं यहां शेयर कर रहा हूं, देखिएगा...और इन के घुटनों की और इन के उत्साह की तारीफ़ में दो शब्द तारीफ़ के शेयर किए बिना बिल्कुल मत आगे बढ़िएगा.....

बड़ा इम्पैक्ट पड़ता है अपने टीचरों का हमारे व्यक्तित्व को तराशने में......शर्त यही है कि हम लोग उन्हें पूरा सम्मानपूर्वक सुनें तो.......एक ऐसे ही टीचर थे हमारे डा कपिला सर...ये हमें ओरल सर्जरी का विषय पढ़ाया करते थे...दिल से पढ़ाते थे......इसलिए उन की सभी बातें सीधा दिल में उतर जाया करती थीं....अमृतसर के दिसंबर-जनवरी के महीने में कोहरे के िदनों में आठ बजे सुबह की क्लास में पांच मिनट पहले पहुंचना उन की आदत थी......कहां गये ऐसे लोग......हर बात को अच्छे से समझाना.....कहा करते थे कि जबड़े की हड्डियां अपने तकिये के नीचे रख के सोया करो.....कहने का भाव यही कि अपने विषय को अच्छे से पढ़ा करो......शत शत नमन......अब वे नहीं रहे।

हां, तो एक बात......मैंने पिछले एक महीने से चाय छोड़ रखी है..........बिल्कुल......कारण यह रहा.........चाय से ऩफरत के मेरे कारण। 

कल से बड़ा जुकाम परेशान कर रहा था, आज सुबह अच्छी सी चाय दवाई के तौर पर पी तो इतना अच्छा लगा कि अपनी मैडम डा सीता शर्मा की जी बातें याद आ गईं और आपसे शेयर करने बैठ गया।

मैडीकल पी जी प्रवेश में खेला जा रहा सॉल्वर का खेल

आज की हिन्दुस्तान में मनीष मिश्र की इस रिपोर्ट  ने चौंकाया तो बिल्कुल नहीं ..क्योंकि मुन्ना भाई फिल्म से तो काफी कुछ पहले से पता लग ही चुका है एक बात.......और दूसरा अब तो आए दिन इस तरह की खबरें दिखने लगी हैं लेकिन एक बात की जानकारी पुष्ट हो गई कि किस तरह से डाक्टर १० -२० लाख रूपये की साफ़-सुथरी कमाई कर रहे हैं।

लखनऊ के मैडीकल कालेज केजीएमयू के डाक्टर पीजी की सीट में दाखिले में सॉल्वर बन रहे हैं। ज्यादातर खेल प्राइवेट मेडीकल कालेजों की सीटों को लेकर चल रहा है। एक एक सीट को लेकर छात्र १० से २० लाख रूपए तक कमा रहे हैं।

दाखिला कराने का जाल कर्नाटक और महाराष्ट्र के मेडीकल प्रवेश परीक्षा तक फैला हुआ है। एमबीबीएस के मेधावी साल्वर बनकर परीक्षा में सेंधमारी कर रहे हैं।

दरअसल कर्नाटक के प्राइवेट मेडिकल कालेजों में पीजी कक्षाओं के सीटों का आवंटन राज्य सरकार व कॉलेज प्रबंधन मिलकर करते हैं। ८५फीसदी सीटें सरकार आवंटित करती है। १५ फीसदी सीटें मैनेजमेंट कोटे से आवंटित होती हैं। इसके लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा होती है। इसे कोमेड पीजीईटी (कर्नाटक कॉमन मेडिकल इंट्रेंस टेस्ट) कहते हैं।

कोमेड में केजीएमयू के छात्र बढ़-चढ़ हिस्सा लेते हैं। हर साल ५०-६०छात्रों का चयन भी हो रहा है। काउंसलिंग की प्रक्रिया होने के बाद से ही असली खेल शुरू होता है। कॉलेज प्रबंधन के एजेंट छात्रों को सीट छोड़ने के एवज में मोटी रकम का लालच देते हैं।

केजीएमयू के ८० फीसदी मेडिकोज हर साल अपनी सीटों को सरेंडर कर रहे हैं। बदले में वे १० से २० लाख रूपए की रकम ले रहे हैं।

कुछ ऐसा ही खेल महाराष्ट्र के मेडिकल कॉलेजों में भी चल रहा है। एमबीबीएस अंतिम वर्ष के अलावा एमबीबीएस कर चुके छात्र भी इन परीक्षाओं में हिस्सा लेते हैं। पीजी की पढ़ाई कर रहे छात्र भी इसमें शामिल हैं।

यूं बिकती हैं सीटें 

कर्नाटक सरकार के नियमों के मुताबिक छात्रों द्वारा सरेंडर सीटों को फिर से भरने की जिम्मेदारी कॉलेज प्रबंधन की होती है। कॉलेज प्रबंधन विषयावर सीटों की बोली लगाता है। जानकारों की मानें तो एक-एक सीट ५० से ६० लाख में बुक होती है। क्लीनिकल विषयों के रेट ज्यादा हैं। यही वजह है कि क्लीनिकल विषय चुनने वाले छात्रों को ज्यादा मोटी रकम मिलती है।

विदेशी डॉक्टरों से पैसा वसूल रहे देशी मेधावी 

देश में हर वर्ष चीन, रूस, यूगोस्लाविया और चेकोस्लवाकिया से हजारों छात्र डाक्टरी की पढ़ाई कर लौट रहे हैं। इन देशों में पढ़ाई सस्ती है ऐसे में ऊंचे घरानों के लिए यह देश पहली पसंद बने हुए हैं। इन विदेशी डाक्टरों को देश में प्रैक्टिस करने या फिर पीजी में प्रवेश परीक्षा होने से पहले एक परीक्षा पास करनी होती है। इसे फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट इंट्रेंस एक्जाम (एफएमजीई) कहते हैं। इस परीक्षा को नेशनल बोर्ड ऑफ एक्जामिनेशन (एनबीई) कराता है।

आमतौर पर ९० फीसदी विदेशी डाक्टर इस परीक्षा में फेल हो जाते हैं। इन कमजोर विदेशी डॉक्टरों को पास कराने में भी केजीएमयू के मेडिकोज शामिल होते हैं। जानकार बताते हैं कि यहां मेडिकोज की भूमिका सॉल्वर की होती है। इस परीक्षा में शामिल होने वालों का न तो बायोमेट्रिक रिकार्ड रखा जाता है और न ही परीक्षा कक्ष में फोटो ली जाती है. ऐसे में यह गेम पूरी तरह सुरक्षित होता है। हर आवेदक से मेडिकोज चार से पांच लाख रूपये वसूलते हैं।

यह तो थी रिपोर्ट----->>>>>अब इस की खबर लेते हैं। मेरे विचार में ये जो मेधावी डाक्टर अपनी काबिलियत के बल पर कर्नाटक जैसे राज्यों में पहले तो सीट ले लेते हैं फिर छोड़ने का उन्हें १०-२० लाख रूपया मिलता है, इस में आखिर क्या बुराई है......यह उन का हुनर है, उन्होंने तपस्या की इतने वर्ष...विषयों का पढ़ा और फिर पेपर पास किया..बाद में सीट ली, नहीं ली.....हम क्यों इस चक्कर में पड़ें, उन्होंने दस-बीस लाख की साफ़-सुथरी कमाई हो गई....हमें तो यही खुशी है........खुशी इसलिए है कि ये जो प्राइवेट कालेज इन्हें सीट छोड़ने के लिए इतनी मोटी रकम दे रहे हैं, ये भी कोई इन पर एहसान थोड़े ही कर रहे हैं, बोली लगती है इन के यहां इन सीटों के लिए , और आपने मीडिया में भी देखा-सुना होगा कि कुछ कुछ सीटें तो २-३ करोड़ में बिकती हैं, इसलिए इन के लिए १०-२० लाख रूपये देने तो कुछ भी नहीं हैं, मेरे विचार में यह रकम तो खासी कम है।

अब आते हैं सॉल्वर की भूमिका पर...... यकीनन यह सरासर गैरकानूनी है कि आप किसी की जगह पेपर दो और उसे पास करवाओ....यह तो पूरा पूरा जूते खाने और जेल की सैर करने का रास्ता है। मुझे नहीं लगता कि अगर परीक्षा लेने वाले चाहें तो इस प्रैक्टिस पर नकेल न कसी जा सके.....यहां पर देखता हूं कि रेलवे में खलाशी की भर्ती के लिए भी इस तरह के सॉल्वर आए दिन पकड़े जाते हैं....ऐसे में अगर परीक्षा हाल में बॉयोमेट्रिक्स का इस्तेमाल नहीं हो रहा, उन की फोटो नहीं खींची जाती है तो इस से तो भाई साफ पता चलता है कि सब कुछ ऊपर से मिलीभगत से ही चल रहा है। वरना आज की तारीख में यह सब करना क्या मुश्किल काम है।

ये जो चीन-रूस से पढ़ कर आने वाले डाक्टरों की बात है, मुझे याद है कि एक ऐसा ही मुन्नाभाई हमारे भी केन्द्रीय सरकार के अस्पताल में कईं वर्ष काम करता रहा....(एक उदाहरण नहीं है, बहुत मिल जाएंगे अगर ढूंढने निकलेंगे) ...एक दिन जब हम लोग शाम को घर पहुंचे तो टीवी पर खबर आ रही थी..किसी चेनल का स्टिंग आप्रेशन था कि कुछ मुन्नाभाईयों की चीन-रूस की डिग्री ही फर्जी हैं........उस दिन के बाद वह डाक्टर कहीं नहीं दिखा.......मामला ऐसे ही रफा-दफा हो गया (यही होता है).......आप दबंगाई देखे कि वह इतने वर्षों पर मरीज़ों का इलाज करता रहा.......उस की दबंगाई से भी ज़्यादा चयन-समिति शक के घेरे में आती है कि आपने क्या चैक किया.........बाबा जी का ठुल्लू?

और ऊपर मैंने बात की उन डाक्टरों की जो अपनी सीट छोड़ देते हैं १०-२० लाख रूपये में ......इस में इतनी आपत्ति क्यों, मैं नहीं समझ पाया......जब ये छोटे मोटे एक्टर लोग टीवी पर आने के लिए लाखों पाते हैं तो इन ज़हीन डाक्टरों ने क्या अपराध किया है..........अपनी काबलियित के बलबूते कोई टेस्ट पास किया...और फिर वह सीट छोड़ दी........सब कुछ साफ साफ.........लेकिन वह किसी की जगह पर बैठ कर पेपर सॉल्वर का काम तो एकदम खतरनाक खेल है, पता नहीं इतने पढ़े लिखे हो कर डाक्टर इस तरह से सॉल्वर बनने के चक्कर में कैसे पड़ (फंस) जाते होंगे!!

इन सॉल्वरों आदि की बैसाखियों के सहारे डाक्टर बने वे अमीरज़ादे क्या कर लेंगे एमबीबीएस....एमडी की डिग्री पाकर............ये कागज़ के फूल आखिर खुशबू कहां से लाएंगे?

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

जी का जंजाल बन चुके ये लाउड-स्पीकर

मेरा अपना अनुभव है कि आज से चालीस साल पहले हर तरफ़ एक तरह का सन्नाटा पसरा रहता था..शायद हम लोग इस सन्नाटे के भंग होने की इंतज़ार किया करते थे.....अधिकतर ये भंग होता था..पेढ़ों के पत्तों की आवाज़ों से, पंक्षियों के गीतों से....भंग शब्द कुछ ज़्यादा जंच नहीं रहा, लेकिन कोई अच्छा शब्द इस के लिए मिल भी तो नहीं रहा.....हां, एक बात और, यह सन्नाटा बहुत बार बचपन में लाउड-स्पीकर की आवाज़ से भी भंग हुआ करता था। 

लाउड-स्पीकर की आवाज़---बचपन में ये आवाजें अकसर किसी धार्मिक प्रोग्राम के दौरान या फिर शादी ब्याह के समय आती थीं.....टीवी आने से पहले वाले दिनों की बातें हैं.....रेडियो तो बस अपने टाइम पर फिल्मी गीत बजाता था....लेकिन जब यह शादी-ब्याह के मौसम में घर के आसपास कहीं लाउड-स्पीकर फिट होता दिखता तो हमारी बांछें खिल जातीं.......क्योंकि फिर बार बार हमें अपने पसंदीदा फिल्मी गीत सुनने को मिला करते......मैं जट पगला दीवाना, तेरे हुस्न का मुझ पे हुआ यह असर है, गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, ड्रीम-गर्ल, दस-नंबरी, डॉन, लैला-मजनू.....इस रेशमी की पाजेब की झंकार के सदके....क्या क्या गिनवाएं...लिस्ट बहुत लंबी है, यादों की रेल जितनी। 

अब वैसे लोगों में सहनशीलता नहीं रही...किसी दूसरे के बारे में हम लोगों ने सोचना ही बंद दिया है....और दूसरा लाउड-स्पीकर बजाने वाले भी संवेदन-विहीन होते दिख रहे हैं। सरकारें कितने प्रतिबंध लगाए हुए है कि इतने से इतने बजे के दरमियान लाउड-स्पीकर नहीं बजेंगे लेकिन कोई सुने तो। 

आज तो वैसे ही हर तरफ़ इतना शोर-शराबा है कि हर बंदा चाहता है कि कम से कम सुबह, शाम और रात की चंद घड़ियां तो कोई उसे सुकून से काटने दे। 

कल की हिन्दुस्तान में एक खबर छपी कि पुराने लखनऊ के वजीरगंज इलाके में मंगलवार रात एक घर में मजलिस के दौरान लाउडस्पीकर बजाने के विवाद में दो पक्ष भिड़ गए। इस दौरान करीब आधे घंटे तक पथराव हुआ जिसमें एक महिला समेत चार लोग चोटिल हो गए। 

इसी अखबार के संपादकीय पन्ने पर एक कॉलम छपता है ..नजरिया.......कल यहां पर पंकज चतुर्वेदी का एक लेख दिखा.......आफत बनते भोंपू और चुप्पी साधते लोग जिस में कितनी सही लिखा गया है कि तमाम नियम-कायदों के वावजूद दिन-रात बजने वाले लाउड-स्पीकरों से मुक्ति का कोई तरीका नहीं। 

यह लेख अच्छा लगा...हम सब की ही बात करता दिखा......सच में हम लोग इन मुद्दों पर अपने आप को कितना असहाय पाते हैं। इस का शीर्षक लिख कर गूगल किया तो यह लेख ऑनलाइन भी मिल गया.....यह रहा इस का लिंक ... आफते बनते भोंपू और चुप्पी साधते लोग। 
अभी कुछ दशक पहले तक सुबह आंखे खुलने पर पक्षियों का कलरव हमारे कानों में मधु घोलता था, आज देश की बड़ी आबादी अनमने मन से धार्मिक स्थलों के बेतरतीब शोर के साथ अपना दिन शुरू करता है। यह शोर पक्षियों, प्रकृति प्रेमी कीट-पतंगों, पालतू जीवों के लिए भी खतरा है। बुजुर्गों, बीमार लोगों व बच्चों के लिए यह असहनीय शोर बड़ा संकट बन कर उभरा है। पूरी रात जागरण या शादी, जन्मदिन के लिए डीजे की तेज आवाज़ कईं के लिए जानलेवा बन चुकी है।
(इसी लेख से)
लो जी, अभी अभी मेरे कानों में भी बाहर से आ रहा शोर पड़ना शुरू हो गया.....अभी तक कितनी शांति थी, लगता है अब फिर से एक घंटे के लिए रजाई में ही घुस जाया जाए। अगर आप का कुछ धार्मिक सुनने का मूड है तो इस लिंक पर क्लिक करिए........राम चंदर कह गये सिया से.....ऐसा कलयुग आएगा।

 

सपनों की सौदागरनी-- पुष्पक एक्सप्रेस



कल रात हम लोग जैसे ही लखनऊ जंक्शन स्टेशन पर पहुंचे तो प्लेटफार्म पर लंबी सी कतार देख कर हैरानी हुई कि आजकल तो पीक पीरियड भी नहीं है। लेकिन फिर ध्यान आया कि बंबई जाने वाली सभी गाड़ियों का सारा साल ही यही हाल होता है...त्योहार के समय बहुत ज़्यादा।

इस लंबी सी पंक्ति को गुज़रते गुज़रते अचानक उन अगणित सपनों का ध्यान आ गया जो इस लाइन में खड़ा हर बश्र अपने साथ लेकर जा रहा है। फिर अचानक सपनों का सौदागर फिल्म का वह गीत याद आ गया....

सपनों का सौदागर आया,
ले लो ये सपने ले लो,
किस्मत तुम से खेल चुकी,
अब तुम किस्मत से खेलो।।

(यह रहा इस टीस से भरे सुंदर गीत का यू-ट्यूब लिंक, अगर आप सुनना चाहें तो)...

१९७० के दशक में जब मैं १०-१२ साल का रहा हूंगा और जब नया नया टी वी आया था तो दूरदर्शन पर दिखाई गई थी....अच्छी लगी थी......यह गीत ही याद रहा .....बाकी सब कुछ भूल गया......किसी दिन यू-ट्यूब पर ही फिर से देखूंगा....अगर कभी फुर्सत मिली तो!)

हां, तो बात चल रही थी कि लंबी सी पंक्ति में खड़े हर शख्स के सपनों की......बहुत बार सुनता रहा हूं कि सारा यू.पी- बिहार बंबई, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, चंडीगढ़ पहुंच गया है, इस तरह की टिप्पणी मुझे बेहद घटिया लगती हैं, इन शहरों ने क्या किसी को रोक रखा है, कोई भी जा कर अपना सिक्का मनवा ले।

मैं पिछले लगभग दो वर्षों से यूपी में रह रहा हूं......यहां के लोगों को थोड़ा समझने लगा हूं.....इरादे के पक्के, मेहनती नहीं बहुत ज़्यादा मेहनती, बातचीत में दक्ष.......और चाहिए क्या होता है किसी भी जगह पर अपने पांव जमाने के लिए। छःसात वर्ष पहले की बात है ....हम लोग मनाली के आगे रोहतांग पास पर बैठे बर्फबारी का आनंद उठा रहे थे, वहां पर आदमी एक-दो घंटे से ज़्यादा टिक नहीं पाता...वहां पर जो बंदे चाय-काफी और भुट्टे बेच रहे थे, उनमें से अधिकांश यू.पी के ही रहने वाले थे...उस जगह पर यह सब बेचने उन के लिए कितनी बड़ी चुनौती थी यह सुनने लायक था, किस तरह से बस के ऊपर अपना सारा सामान रख कर रोज़ सुबह उस जगह पहुंचते हैं, और कैसे शाम होने से पहले वापिस अपने ठिकानों पर पहुंचते हैं....इस की कल्पना वे लोग बेहतर कर पाएंगे जो कभी रोहतांग पॉस गये हों।

हां, ये जो लाइनें आप देख रहे हैं ये लोग पुष्पक एक्सप्रेस है......यह गाड़ी बंबई जाने के लिए बड़ी लोकप्रिय ट्रेन है....रात ७.४५ बजे लखनऊ जंक्शन स्टेशन से छूटती है, और २४ घंटे लेती है बंबई पहुंचने के लिए। मुझे यही लग रहा था कि यह ट्रेन जैसे सपनों की सौदागरनी है......यह सपने ही इधर उधर करती रहती है......लेकिन बड़ा संभल कर ....किसी के सपने को ठेस नहीं लगनी चाहिए। वैसे भी दुनिया में हर इंसान अपने भीतर ही भीतर एक जंग लड़ रहा है जिस के बारे में दूसरे किसी को कुछ भी तो नहीं पता। मैंने बहुत साल पहले एक इंगलिश की कहावत पढ़ी थी......Never laugh at anybody's dreams!! ........कितनी सुंदर बात है ना!!

आज के खुले वातावरण में जिस तरह से कुछ अरसा पहले बंबई में हुआ कि ये बाहर वाले लोग हैं.......इन सब बातों का कोई आधार नहीं है, ये बातें करने वालों का ही आप देखिए चुनावों में पत्ता ही साफ़ हो गया। वैसे भी घर से बाहर रहना कोई आसान काम नहीं है, हम लोग सब सुविधाएं होते हुए भी घऱ से एक-दो दिन के लिए ही बाहर जाएं तो यही इंतज़ार रहती है कि यार कब लौटेंगे अपने ठिकाने पर...हर कोई अपने परिवेश में ही रहना चाहता है..जड़ों के पास...इन से जुड़ा हुआ, लेकिन फिर भी मजबूरियां कहां की कहां ले जाती हैं.....कभी इन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में भी सोचिएगा कि इन में से अधिकांश वहां पर किन परिस्थितियों में वहां रहते हैं...आखिर ये करें तो क्या करें, जहां रोज़ी-रोटी होगी, वहां लोग जाएंगे ही...और बेशक जाना भी चाहिए....पिछले दिनों मैंने नादिरा बब्बर द्वारा लिखा गया और निर्देशित एक नाटक देखा था....दयाशंकर की डॉयरी, इसी समस्या को दर्शाया गया था उस में भी।

ये लाइनें जर्नल (बिना आरक्षण) डिब्बों में बैठने वालों की है.......मैंने देखा कि जैसे ही जर्नल डिब्बों के दरवाजे खुले, ये लाइन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी......एक बार, जब वे डिब्बे भी ठसाठस भर गये, तो भीड़ ऐसा भागी कि जिस की लाठी उस की भैंस...जो दौड़ सकता था, उस ने कोशिश कर ली, वरना लोग फिर से लाइन में लग गए...गाड़ी छूटने के बाद जब मैंने इस नईं लाइन के पास जा कर एक शख्स से पूछा कि अब यह लाइन किस गाड़ी के लिए है.....तो उसने बताया कि यह १० बजे रात में छूटने वाली एक दूसरी सुपरफॉस्ट गाड़ी के लिए है, वह भी २४ घंटे में बंबई पहुंचा देती है।
लखनऊ से पुष्पक एक्सप्रेस छूटने से १० मिनट पहले का दृश्य 
जैसे ही जर्नल डिब्बे भर गये, फिर तो सारा हिम्मत का ही खेल दिखा......जो जीता वही सिकंदर.......जो भाग सका, उसने अपनी जगह कहीं न कहीं बना ली........यह वीडियो देखिए...



सपनों की सौदगरनी चल दी.......ठसाठस भरे सपनों को अपने कंधों पर उठाए
यह सौदागरनी किसी को कुछ नहीं कहती......सभी का स्वागत है!

पुष्पक छूटने के बाद ...एक दूसरे सपनों की सौदागर की इंतज़ार में
सुबह सुबह इस अमृत वेला में यहीं विराम लेता हूं ...इस प्रार्थना के साथ कि ईश्वर सब को सपने देखने की शक्ति तो दे ही, इन्हें साकार करने का हौसला और जुगाड़ भी दे...........आमीन।

इस लाइन में खड़े हर बश्र के जज्बे को सलाम करते हुए इन्हें समर्पित यह गीत.........




शनिवार, 6 दिसंबर 2014

ऐसे कैंप लगने ही नहीं चाहिए..

अभी मैं आज की हिन्दुस्तान अखबार का संपादकीय लेख पढ़ रहा था..

इस संपादकीय का शीर्षक है... स्वास्थ्य का अंधेरा पक्ष..... "पंजाब में आंखों के ऑपरेशन के एक कैंप में ऑपरेशन करवाने वाले ६० लोग अंधे हो गए हैं। छत्तीसगढ़ में नसबंदी कैंप में कईं महिलाओं की मौत के तुरंत बाद यह हादसा बताता है कि हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था में कितनी लापरवाही है।"
मैं चाहता हूं कि आप भी यह संपादकीय पढ़ें....इस का ऑनलाइन लिंक मैं नीचे दे रहा हूं।
इस की कुछ पंक्तियां मैं नकल कर के यहां लिख रहा हूं.....बस, ताकि ये बातें मेरे भी ज़हन में उतर जाएं.....
  • मोतियाबिंद के ऑपरेशन में सबसे बड़ा खतरा अगर कुछ हो सकता है, तो यह संक्रमण का है। अगर ऑपरेशन के बाद अच्छी गुणवत्ता की दवाएं दी गई हैं, तो इसमें कुछ भी गड़बड़ी होने का खतरा न के बराबर होता है। ऐसे ऑपरेशनों में अमूमन गड़बड़ी होती नहीं है, इसलिए डाक्टर और ऐसे कैंपों के आयोजक सफाई और सुरक्षा को लेकर लापरवाह होते जाते हैं। किसी दिन इस की कीमत इसी तरह मरीज चुकाते हैं, जैसे पंजाब के मरीज़ों ने चुकाई है। 
  • कुछ लापरवाही होती है और कुछ पैसे बचाने की जुगत। कायदे के इंतजाम में वक्त भी लगता है और पैसा भी। कैंपों में गरीब मरीज़ ही होते हैं, इसलिए उनका इलाज या ऑपरेशन भी एहसान की तरह ही किया जाता है। आयोजक ज़्यादा खर्च नहीं करना चाहते और डॉक्टर कम वक्त में ज्यादा ऑपरेशन कर डालना चाहते हैं। 
  • होना तो यह चाहिए कि इस तरह के कैंप लगे ही नहीं। किसी भी मरीज का इलाज और खार तौर पर ऑपरेशन किसी नियमित अस्पताल के कायदे के ऑपरेशन थिएटर में ही होना चाहिए। 
  • स्कूलों और धर्मशालाओं में कामचलाऊ ऑपरेशन थिएटर बनाकर टेंट वालों से किराये के बिस्तरों पर मरीज़ों को लिटाकर ऑपरेशन करना किसी भी सूरत में असुरक्षित है। लेकिन ऐसा होता इसलिए है कि गरीब मरीज़ों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं होती ही नहीं हैं। 
  • गरीब महिलाओं की नसबंदी सरकारी आदेश पर लगाए गए कैंपों में और गरीब वृद्ध लोगों को मोतियाबिंद का ऑपरेशन दान के पैसों पर लगे कैंपों में होते हैं। कोई इमरजेंसी न हो, तो ऐसे कामचलाऊ ऑपरेशन थिएटरों पर पाबंदी होनी चाहिए। लेकिन भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत इस हद तक खराब है कि इन हादसों के बावजूद निकट भविष्य में कुछ बदलने की उम्मीद भी नहीं है। 
(यह मैंने आज के हिंदुस्तान के संपादकीय से लिया है.......पूरा संपादकीय पढ़ने के लिए आप इस लिंक पर क्लिक करिए.. स्वास्थ्य का अंधेरा पक्ष)




हिंदु-मुस्लिम भाईचारे के रोशन चिराग...

अभी टाइम्स ऑफ इंडिया देखी तो वहां एक रिपोर्ट दिखी......Paramhans used to bring fruits, I carried roti and achaar. दरअसल मेरी मां ने मेरे से पहले यह इंटरव्यू पढ़ी, इस का सार मेरे से साझा किया और पेपर मुझे थमा दिया।

इस में हाशिम अंसारी साब का इंटरव्यू छपा है... ये साब बाबरी मस्जिद केस लड़ने वाले सब से पुराने शख्स हैं... ६५वर्ष तक कानूनी प्रक्रिया के बाद में अब इन्होंने केस की कमान अपने बेटे के हाथ सौंप दी है।

इस छोटी सी इंटरव्यू में अंसारी साब याद कर रहे हैं कि शुरूआती दौर में यह मामला कितना मामूली सा था... और बता रहे हैं कि ये १९४९ से इस केस की पैरवी कर रहे हैं।

इन्हें याद है कि १९५० में मंदिर की तरफ़ से रामचन्द्र दास परमहंस ने केस की कमान संभाली। फैज़ाबाद के सिविल जज के यहां केस की सुनवाई हुआ करती थी।

अंसारी साब याद कर रहे हैं कि वह और परमहंस एक ही टांगे पर कोर्ट जाया करते थे। सुनवाई के बाद, वे लोग अयोध्या और फैज़ाबाद के बीच जलपा नाले पर एक साथ बैठ कर खाना खाया करते थे। परमहंस कुछ फल लाया करता था और मैं रोटियां और आचार ले आया करता था और मिल कर खाना खाते थे। हम उस समय इस समस्या के शांतिपूर्ण हल की भी चर्चा किया करते। वे यह भी याद कर रहे हैं कि एक समय ऐसा भी आ गया था कि वे दोनों सोचने लगे कि अगर मस्जिद में नमाज और राम चबूतरे पर पूजा की सहमति बन जाती है तो हम केस ही वापिस ले लेंगे। 

लेकिन आगे लिखते हैं कि किस तरह से वोटों की राजनीति में इस समस्या का राजनीतिकरण हुआ और स्थिति बद से बदतर होती चली गई।

बहुत अच्छा लगां, अंसारी मियां का यह लेख देख कर......ऐसे लोग हैं हिंदु-मुस्लिम दोस्ती के प्रकाश-स्तंभ।

वेव-लेंथ की बात देखिए.......मैं यह लिख ही रहा था कि पांच मिनट पहले मेरी मां मेरे को यह कागज़ का टुकड़ा पकड़ा कर गई हैं कि इसे मेरे (उनके) ब्लॉग पर डाल देना (वे भी ब्लॉग लिखती हैं) .......इसलिए उस पेज़ को उसी रूप में यहां डाल रहा हूं....
अंसारी साब के नाम मां का संदेश

सच में हम लोगों की दोस्ती कितनी पुख्ता है, बस वोटों की राजनीति ने सारी गड़बड़ी कर रखी है......कोई बात नहीं, लोग अब बिल्कुल सचेत होने लगे हैं....किसी की बातों में नहीं आते अकसर........

आप इस इंटरव्यू पर यहां देख सकते हैं... Paramhans used to bring fruits, I carried roti and achaar

हो सके तो इसे भी देखिएगा.......बात आस्था की...

योगेन्द्र मुदगिल की ये पंक्तियां ध्यान में आ गईं.....
मस्जिद की मीनारें बोलीं,
मंदिर के कंगूरों से, 
हो सके तो देश बचा लो, 
इन मज़हब के लंगूरों से ।।

नफ़रत की लाठी को तोड़ देने की याद दिलाता यह सुपरहिंट गीत भी सुनिएगा........




पाकिस्तानी टीवी पर भी सेक्स गुरू

अभी मैं बीबीसी न्यूज़ पढ़ रहा था तो मेरी नज़र पड़ गई इस न्यूज़-स्टोरी पर ---Pakistan sex taboos challenged by TV Phone-in Show. 

जब आप इस रिपोर्ट को पढ़ेगे तो शायद यह आप के लिए रोचक होगा कि पाकिस्तान जैसे देश में भी किस तरह से यह शुरूआत हो चुकी है कि टीवी प्रोग्राम के द्वारा सैक्स के बारे में पाई जाने वाली भ्रांतियों को हटाया जाए।

रिपोर्ट में साफ साफ लिखा तो है कि डाक्टर वैसे तो सटीक जानकारी देता है लेकिन बीच बीच में इधर उधर की भी हांकने लगता है। रिपोर्ट के पिछले हिस्से में किसी ने बड़ा अच्छा लिखा है कि सैक्स के विषय पर भी कहां डाक्टर खुल कर बोल सकते हैं....धार्मिक गुरूओं को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, और बड़ी अच्छी बात यह भी लिखी है कि चर्चा करने वाले डाक्टर जिसे अपने विश्वास अथवा अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार ठीक समझता है, वही बातें करता है, साफ़ साफ़ िलखा है कि ऐसा करने से वैज्ञानिक पक्ष कहीं पीछे छूट जाता है।

मैं इस बात से सहमत हूं......मैंने भी पांच छः महीने पहले आप का एक इंडियन सैक्स गुरू से तारूफ़ करवाया था....अगर आपने उस लेख को देखा होगा तो उसे भूल तो नहीं पाए होंगे.......अगर नहीं भी देख पाए तो अब देख सकते हैं.....चलिए मिलते हैं आज 90 वर्ष के युवा सैक्स गुरू से..  मैं समझता हूं कि इस लिंक को आप को ज़रूर देखना चाहिए।

पांच दिन पहले की ही तो बात है कि एड्स दिवस था....देश की स्थानीय भाषाओं में एक दो लेख दिखे.....मैं हैरान रह गया कि किस तरह से पहले दो चार पैराग्राफ में वे सीधा सीधा असुरक्षित संभोग की जगह गल्त काम, गलती... जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे। हैरानी नहीं कि कुछ लोग इस की जगह पर पाप कर्म का उपयोग भी करने लगें या पहले ही करते हों....

अब ज़रा उस पाकिस्तानी गुरू की बात कर लें.......मुझे ऐसा लग रहा है कि यह कोई प्रायोजित किस्म का कार्यक्रम है...आप बीबीसी की स्टोरी में एम्बेड की गई एक वीडियो में देख सकते हैं कि एक अस्पताल का नाम भी पीछे लिखा गया है....इसलिए मुझे तो यह स्पांसर्ड कार्यक्रम का ही एक रूप दिखा......हम नहीं देखते क्या अपने यहां विभिन्न चैनलों पर विशेषतयः देर रात के समय और अमृत बेला में सुबह सुबह इस तरह के विषयों को विज्ञापन के रूप में सरेआम परोसते रहते हैं.....कभी कोई स्वामी, कभी कोई शाही हकीम......मकसद इन सब का एक कि सारा हिंदोस्तान कैसे भी एक बार उठ तो जाए, तन जाए, खड़ा हो जाए.........अरे भाई,  वे पहले ही से अच्छे से उठे हुए हैं, ऐसे ही थोड़ा १२५ करोड़ हो गये हैं।

वैसे सैक्स की सलाह देने वाले पाकिस्तानी टीवी के इस कार्यक्रम के बारे में मैं यह भी सोच रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि जो देश इतना रूढ़िवादी प्रथाओं में जकड़ा हुआ है ... वहां पर कैसे अचानक एक प्रोग्राम शुरू होता है और महिलाएं तक अपने सवाल इतनी बेबाकी से पूछ रही हैं..जिस तरह के प्रश्न आप बीबीसी स्टोरी में पढ़ेंगे।

पता नहीं बात मेरे तो हलक से नीचे नहीं उतर रही.......कुछ न कुछ तो लोचा है उस्ताद......वरना लोग क्या नहीं जानते कि सब कुछ अनानीमस होते हुए भी क्या प्रश्न पूछने वाले की आवाज़ से उन की शिनाख्त नहीं हो सकती.....अगर वे ऐसा नहीं समझते तो मैं उन की हिम्मत की दाद देता हूं और उन की इस पहल के लिए उन्हें बधाई देता हूं।

बस, इतना ही काफ़ी है इस पोस्ट में........इस गंदी बात का ज़िक्र कर के इस बात पर यहीं मिट्टी डाल देते हैं......





बिना ज़रूरत के एक्सरे वाला गोरखधंधा अमेरिका में भी ...

बचपन के दिनों की एक याद यह भी है कि जब कभी किसी डाक्टर के पास जाना होता तो अकसर देखा करता था कि वह लगभग हर मरीज़ को अच्छे से चैक कर रहा है, उस से दो-चार बातें कर रहा है उस की तकलीफ़ के बारे में, ज़रूरत पड़ने पर उसे कॉउच पर लिटा कर पेट एवं अन्य जांच भी करता था... इस में दो राय नहीं कि मरीज़ और डाक्टर के बीच में संवाद अलग किस्म का हुआ करता था।

अब एक जर्नल परसेप्शन सी बन चुकी है कि डाक्टर ज़्यादा बात नहीं करते.....हाथ तक लगा कर नहीं देखते। मैं इस बारे में सोचता हूं कि शायद कुछ डाक्टरों का क्लीनिकल अनुभव इतना होता है कि उन्हें मरीज़ से लंबी बातचीत की ज़रूरत ही नहीं होती, वे तुरंत मरीज़ का रोग समझ जाते हैं और नुस्खा लिख कर उसे थमा देते हैं। 

लेकिन फिर भी मरीज़ की संतुष्टि होनी बहुत ज़रूरी होती है। एक तो उसे यह आभास होना लाज़मी है कि उस की सभी बातें डाक्टर ने सुन ली हैं और दूसरा यह कि डाक्टर ने उस की अच्छे से जांच कर ली है। 

ऐसी भी एक धारणा बनती जा रही है कि डाक्टर लोग टेस्ट बड़े लिखते हैं......और अधिकतर डाक्टर किसी एक लैब के ही टेस्ट मानते हैं। यही नहीं, अब टेस्ट, एक्स-रे आदि भी ज़्यादा ही होने लगे हैं। 

शायद हमें लगता होगा कि विभिन्न कारणों की वजह से यह समस्या हमारे जैसे देशों की ही होती होगी......लेकिन कल मैंने देखा कि अमेरिका जैसे देश में भी किस तरह से बिना किसी ज़रूरत के ही बच्चों के एक्स-रे करवाये जा रहे हैं।
आप इस लिंक पर पहुंच कर डिटेल पढ़ सकते हैं..  Many kids exposed to unneeded x-rays. 

वहां पर हुए इस अध्ययन से पता चला कि लगभग 88 प्रतिशत केसों में जिन बच्चों के छाती के एक्स-रे किये गये, उन का उन बच्चों के इलाज के साथ कोई संबंध नहीं था.....कहने का अभिप्रायः यह कि उस एक्स-रे ने उन का इलाज का निर्णय करने में कुछ मदद नहीं मिली--  88% x-rays did not influence treatment. 

खर्च बढ़ने के साथ साथ बिना ज़रूरत के एक्स-रे किये जाना सेहत के लिए भी ठीक नहीं है क्योंकि इस से शरीर में रेडिऐशन्ज़ इक्ट्ठा होती रहती है जो हानिकारक है। 

समस्या तो यह भारत में भी है, लेकिन इस का कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता... और इस धंधे में नीम-हकीम भी बढ़ चढ़ कर लगे हुए हैं। 

इस तरह की प्रैक्टिस पर कैसे काबू पाया जाए, यह आसान काम नहीं है। कोई भी चिकित्सक किसी मरीज़ को जब कोई टेस्ट करवाने के लिए कहता है तो मरीज़ बेचारा या उस के मां-बाप कहां इतने दबंग होते हैं कि वे टेस्ट नहीं करवाएं। एक बार लिखा गया है तो टेस्ट हो कर ही रहेगा। 

भारत में इस तरह की बातों के बारे में काफ़ी लिखा जा रहा है.....लेकिन कुछ होता दिख नहीं होता। 
वैसे भी अगर हम अपने आप को मरीज़ का जगह पर रख कर देखें तो पाएंगे कि वह कितना मजबूर प्राणी है...उसे बिना किसी किंतु-परंतु के सारी बातें अच्छे बच्चों की तरह माननी ही हैं। 

सीधी बात यह है कि इस बात का समाधान इतना आसान नहीं है, क्योंकि मैं समझता हूं कि इस तरह की प्रैक्टिस का सीधा सीधा संबंध डाक्टर के मन से भी, मार्कीट शक्तियों के प्रभाव या दबाव से भी ज़रूर होता है........इतनी इतनी महंगी करोड़ों की मशीनें ये डॉयग्नोस्टिक पर पहुंचती हैं तो उन्हें मुनाफ़े के लिए भी कुछ हद तक यह सब करना/करवाना ही  पड़ता है....मुझे इस में कोई शक नहीं है। 

बात वही है कि आखिर मरीज़ करे तो क्या करे........मुझे ऐसा लगता है कि सब से पहले तो यह जो नीम-हकीम हैं ना, इन के चक्कर में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहिए। जगह जगह गांव, कसबों और बड़े शहरों में भी ये हर तरफ़ फैले हुए हैं, इन की लैब एवं एक्स-रे सैंटरों के साथ सांठ-गांठ एक दम पुख्ता होती है.(केवल इन्हीं की ही नहीं!!)......मैंने बहुत बार देखा है कि ये अपनी पर्ची पर जिस टेस्ट का नाम लिखते हैं, उस के बारे में जानना तो दूर, ये उस का नाम तक ढंग से नहीं लिख पाते। लेकिन मरीज़ का क्या है, उसे कहा गया है तो वह कैसे भी उसे करवा के ही लौटता है!! 

मैं सरकारी अस्पताल में हूं ...मरीज़ मेरे को कहते हैं ना कि सिर दर्द के लिए एक सी.टी स्केन ही करवा दीजिए, पेट के िलेए अल्ट्रासाउंड, पीठ दर्द के लिए एम आर आई तो मैं उन्हें यही कहता हूं कि कोई भी विशेषज्ञ यह बेहतर जानता है िक आप के लिए किस टेस्ट की ज़रूरत है। और मैं उन्हें यह भी कहता हूं कि बाहर प्राईवेट सेंटर में जा कर ऐसा कभी मत कहना अपनी इच्छा से कि मुझे यह टेस्ट करवाना है......यकीन मानिए अधिकतर निजी डॉयग्नोस्टिक केंद्रो में तुरंत हो जाएगा.......लेकिन क्या उस की ज़रूरत थी भी, यह केवल एक अनुभवी एवं प्रशिक्षित चिकित्सक ही बता सकता है। 

वैसे मैं इस विषय पर लिखता तो जा रहा हूं लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि क्या इस तरह की प्रैक्टिस पर कंट्रोल कर पाना आसान काम है!..और मुझे नहीं लगता कि विभिन्न कारणों की वजह से यह सब इतनी आसानी से कंट्रोल हो पाएगा। 

वैसे एक सुझाव है कि किसी भी टेस्ट के बारे में सटीक जानकारी पाने के लिए आप लैबटैस्टआनलाईन नामक साईट को भी विज़िट कर सकते हैं, यह रहा उस का लिंक... http://labtestsonline.org/

लैब टेस्टों की बात हुई तो ध्यान आ गया ....कल सुबह मैं भ्रमण कर रहा था, एफएम सुन रहा था.....किसी लैब का विज्ञापन चल रहा कि सर्दीयों का मौसम आ गया है..बहुत सी बीमारियां लेकर आया है यह मौसम इसलिए अपनी सभी जांचें एक पैकेज के रूप में घर बैठे करवाएं.......रक्त का सैंपल हम लोग घर से ही ले लेंगे। मुझे ध्यान आया कि यह सर्दी के मौसम से लोगों को डरा रहे हैं और देश के प्रधानमंत्री रेडियो पर मन की बात में सर्दी को स्वास्थ्य-वर्धक मौसम कह कर पुकारते हैं। 

सोचने वाली बात है कि सब कुछ बिक रहा है........बस खरीददार थोड़ा सचेत रहें, शायद इस से ही हालात कुछ बदल जाएं....काश!!

मौसम की बात छिड़ी तो अचानक मौसमों की बात करते इस गीत का ध्यान आ गया......सुबह सुबह आप भी सुनिए...पतझड़-सावन-बसंत-बहार... एक बरस के मौसम चार..पांचवा मौसम प्यार का......ये लोग बढ़िया बातें सुना रहे हैं.. 



गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

मेरी मैकबुक की तबीयत नासाज़ थी...

आज पांच दिन के बाद मेरी मैकबुक की तबीयत थोड़ी ठीक हो गई..अभी अभी ऐपल के सर्विस सैंटर से वापिस लौटी है... इतने दिन बड़ी परेशानी हुई ..कितना कुछ सा आप सब से शेयर करने के लिए..पिछले दिनों इधर लखनऊ लिटरेचर फेस्टीवल हुआ..३ दिन ...मैं छुट्टी लेकर वहीं बैठा रहा तीनों दिन...बहुत अच्छा अनुभव रहा..आप से शेयर करूंगा धीरे धीरे।

मेरी समस्या यह है कि मैं अपने मोबाइल पर ज्यादा कुछ लिख नहीं पाता...सिर भारी होने लगता है.. झुंझलाहट हो जाती है....बस व्हास्ट-एप और फेसबुक पर दो चार लाइनें लिखने तक ही ठीक है।

इन चार पांच दिनों में मैंने अपने पुराने डेल के लैपटाप को भी ढूंढा..२००७ में खरीदा गया था लेकिन पिछले दो सालों से ठीक से काम नहीं कर रहा था.....ना चार्जिंग ठीक होता है न ही ठीक से चलता है....कल मैं उसे डेल के सर्विस सेंटर ले गया...उन्होंने बताया कि यह तो बहुत पुराना माडल है.. अब इस की बेटरी भी नहीं मिलती और चार्जर भी खराब है..चार्जर दो दिन के बाद मंगवा के देने को कह रहे थे...लेकिन मुझे लगा कि अब इस का कुछ नहीं हो सकता।

२००५ में खरीदा गया .. एसर लेपटाप भी बिल्कुल कंडम पड़ा हुआ है। और २००२ में खरीदा गया ..कम्पैक का डैस्कटाप तो जैसे एंटीक पीस की तरह सजा हुआ है कंप्यूटर टेबल पर....वह खुल तो जाता है लेकिन स्पीड इतनी कम कि क्या कहें।

बात वही है कि लेपटाप, मोबाईल जैसी कुछ चीज़ें है ... जो जल्द ही इलैक्ट्रोनिक कबाड़ का रूप ले लेती हैं....लेकिन फिर भी इन की इमोशनल वेल्यू तो रहती है ही.....मैं ऐसा सोचता हूं......पता है कि अब डेल वाला लेपटाप कबाड़ है लेकिन उसे कहीं पर फैंका तो नहीं जा सकता.....इसी डैल पर मैंने लगभग ५ साल तक सुबह चार-पांच बजे उठ कर बहुत से लेख लिखे....

और जो डैस्कटाप है, उस पर बहुत कुछ लिखा...जब मैं प्रिंट-मीडिया के लिए लिखा करता था.....लेकिन अधिकतर तो उस पर हम लोग फिल्मी गीत, हिंदी फिल्में और पंजाबी गीतों को ही देखा करते थे। उन दिनों हंस राज हंस का एक गीत आया था.....अक्खियां लड़ीं ओ लड़ीं बीच बाज़ार...टोटे टोटे हो गया दिल टोटे टोटे हो गया....यह रोज़ाना कईं बार किसी आरती की तरह उस पर सुना-देखा जाता था...आप से लिंक ही शेयर कर देता हूं....



मैं यह कभी समझ नहीं पाया कि यार, लैपटाप कुछ ही समय के बाद नकारा क्यों हो जाते हैं, हम क्यों इसे अपग्रेड नहीं करवा पाते। इस का जवाब मेरे १२वीं कक्षा में पढ़ रहे बेटे ने दिया जो मुझे झट से समझ में आ गया....एक तो इन के स्पेयर-पार्ट्स नहीं मिलते और दूसरा यह कि जो इंटरनेट ब्राउज़र्स और विभिन्न ऐप्लीकेशन्ज़ हैं ...अपने यूज़र्स को बेहतर सेवा देने के लिए वे भी निरंतर अपग्रेड होते रहते हैं...इसलिए नये वर्ज़न वाले ये ब्राउज़र्स और ऐप्लीकेशन्ज़ पुराने लैपटाप, डैस्कटाप की कंफिग्रेशन पर चल नहीं पाते क्योंकि उन के चलने के लिए कंफिग्रेशन की डिमांड भी बढ़ जाती है। 

बहरहाल, इन पांच दिनों के दौरान ऐसा लग रहा था कि जैसा मेरे पास टाइम ही टाइम है....सुबह भी खूब समय खाली रहता था...इन दिनों रेडियो भी खूब सुना.......एक गीत जो परसों सुना अभी तक याद है.... लीजिए आप भी सुनिए....आ बता दें तुझे कैसे जिया जाता है.. (1974 Film Dost)....यह गीत सुनना मुझे बहुत भाता है....बचपन में रेडियो पर यह बार बार बजा करता था...गीतों के शहनशाह आनंद बक्शी के बोलों पर ध्यान दीजिएगा...



शनिवार, 29 नवंबर 2014

हिंदी चीनी भाई भाई..कोई शक?

हिंदी चीनी भाई भाई नारे के बारे में बचपन में सुना करते थे कि किस तरह से उन के फौजी एक तरफ़ तो हमला बोल देते थे लेकिन साथ ही मुंह से हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लगाया करते थे।

वैसे हिंदोस्तानियों का चीनी प्रेम भी कुछ कम नहीं है। हर शहर में शायद अगर बहुत सी तो नहीं तो एक अदद चाईना बाज़ार तो मिल ही जाता है...वहां पर चीन में बने खिलौनों से लेकर घर के बहुत सी चीज़ें सस्ते रेट में मिल जाती हैं। गारंटी कोई नहीं.. क्योंकि दुकान के बाहर निकलते ही खिलौना चलना बंद कर दे तो अपने टीटू-पप्पू को आप संभालें...यही बात हर तरह के इलैक्ट्रोिनक उपकरणों पर भी लागू होती है। 

दीवाली पर सारे बाज़ार में चीनी लड़ियां, बल्ब और अन्य सजावटी सामान देख कर ऐसे लगता है जैसे कि असली दीवाली तो चीन की हो रही है। हम लोग भी पांच सौ रूपये की लड़ियां खरीद कर जब घर में टांग देते हैं कि हम ने तो इतने सस्ते में लूट लिया......लेकिन असलियत से रू-ब-रू तब होते हैं जब अगले वर्ष उन्हें चालू करने की बीसियों कोशिशें नाकाम रहती हैं.....और फिर वही झुंझलाहट।

वैसे भी दीवाली आदि त्योहारों के दौरान जितना चीन में तैयार किया हुआ सामान बिक रहा होता है उसे देख कर तो यही लगता है कि दीवाली का असली जश्न तो चीनी लोग ही मनाते होंगे। 

कल मुझे एक पोस्ट-ऑफिस में काम था.....मैंने देखा कि उस के बाहर चीनी सामान के बहुत से फुटपाथ सजे हुए थे...अब तो यह सब हर तरफ़ ही दिखने लगा है, मेरे नाश्ते की प्लेट में भी। वैसे भी चाइनीज़ फूड इस देश में बेहद पसंद किया जाता है--हर जगह खोमचे, स्टाल, रेस्टरां में बिकती ढेरों चाईनीज़ डिशिज़। 

नाश्ते की प्लेट से याद आया....कल रात में घर में मनचूरियन बना था...इसे फ्राइड राइस के साथ खाना अच्छा लगता है... वैसे हमारे यहां नाम का ही फ्राइड होता है, घी नहीं होता उस में। मैंने यह खाना पिछले वर्ष ही शुरू किया था.....घर में तैयार हुआ तो बहुत अच्छा लगा। 

वैसे तो मैं चाइनीज़ आइट्म नहीं खाता.....मैदा की वजह से.......मैदा मेरे को पचता नहीं...बाकी लोग खाते हैं.......लेकिन यह मनचूरियन-फ्राइड राइस तो ऐसा मुंह लगा कि कुछ महीने पहले की बात बताऊं.... रविवार की दोपहर जब यह डिश बनी तो मैंने इतनी ज़्यादा मात्रा में खा लिया कि मैं क्या कहूं। शायद ही मैंने कभी इतनी ओव्हर-इटिंग की हो, बस, पेट ठसाठस भर कर ...हो गया लमलेट.....नींद आ गई..

लेकिन यह क्या, शाम होते होते ...बेचैनी, गैस, मतली जैसा होने लगा, सिरदर्द ....हे भगवान, जो उस दिन मेरी हालत हुई मैं ही जानता हूं...मैंने ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि बाबा जी, एस वार बचा लओ...इक वारी उलटी करवा देओ.........अग्गों तो ध्यान रखांगा.......लेकिन नहीं, उस समय तो उल्टी नहीं हुई लेकिन कुछ घंटों बाद जब उल्टीयां हुईं तो जैसे जान में जान आई। वह दिन भूले नहीं भूलता। 

अगले दिन मिसिज़ से बात हो रही थी कि ये मनचूरियन में आखिर होता क्या है। तो पता चला कि विभिन्न सब्जियों को मैदे में गूंथा जाता है......सारी बात मेरी समझ में आ गई.......उस िदन कसम खाई कि आज के बाद इन की तरफ़ देखूंगा भी नहीं। 

पिछले कुछ महीनों में कुछ बार बना होगा लेकिन मैंने इसे नहीं खाया.....मिसिज़ कहती कि थोड़ा-बहुत खाने से कुछ नहीं होता। लेकिन मैं नहीं माना। 

अच्छा तो दोस्तो कल रात में भी यह मनचूरियन ही बना था...पता नहीं खुशबू इतनी अच्छी लगी कि रहा नहीं गया और फ्राइड राइस के साथ सिर्फ़ तीन चार पीस ही लिए.....बहुत लुत्फ़ आया।

फ्यूज़न.....>>मूली वाली मक्के की रोटी ते मनचूरियन
आज जब नाश्ते में इसे मूली वाली मक्के की रोटी के साथ फिर से खाने का अवसर मिला तो हंसी आ गई.......यही लगा कि हिंदी-चीनी का कितना बढ़िया फ्रूज़न... मक्के की रोटी के साथ मनचूरियन.......खाना बीच में ही छोड़ कर यह तस्वीर खींची। 

मैं अभी मिसिज से पूछ रहा था कि आप इस डिश में ऐसा क्या डालते हो कि यह चाइनीज़ फूड की श्रेणी में आती है, जवाब मिला कि इस में जो सासेज़ (sauce)  soya sauce --सोया सॉस, टोमैटो सॉस आदि इस्तेमाल होती हैं वे चाईनीज़ डिश का ही हिस्सा होने के कारण शायद ......अब यह चीनी लोगों की डिश है तो है.......आगे उन्होंने कहा कि अब दाल तो हर जगह बिकती है......अब दाल को क्यों भारतीय डिश कहते हैं। झट से बात मेरी समझ में आ गई।

हिंदी चीनी दोस्ती का एक और प्रूफ यह भी रहा......


पेड़ पर अदब से कुल्हाड़ी चलाने का फन...

जहां तक मेरी यादाश्त जाती है...मैं ३०-४०वर्ष पुरानी बात लिख रहा हूं..हम लोग जिस घर में रहते थे, उस में बहुत बड़े बड़े पेड़ थे। हर साल इन की छंटाई होती थी। जाड़े के दिनों में काश्मीर से वहां से पुरूष लोग रोज़गार की तलाश में अमृतसर आ जाते थे....और भी शहरों में आते थे कि नहीं, मैं नहीं जानता लेकिन अमृतसर में तो आते ही थे।

उन्हें कुल्हाड़ी दी जाती .. वे पेड़ पर चढ़ कर पेड़ को काटते और फिर नीचे उतर कर लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़े करते। अच्छे से याद है मुझे --एक दो घंटे लगते थे उन्हें और बीस-तीस रूपये लिया करते थे। 

एक तरह से एक प्रतीक्षा हुआ करती थी कि कब हातो आएं...(इन्हें हातो कहा जाता था, मुझे नहीं पता इस का क्या मतलब होता है, बस हातो ही याद है).. और पेड़ काट कर धूप का जुगाड़ करें। 

वैसे एक बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहूंगा.....बचपन के अनुभव के आधार पर.....मैंने बचपन में आसपास के लोगों में पेड़ों के प्रति प्रेम का कोई विशेष अनुभव नहीं किया...हां, उन का प्यार सब्जी और फलों के पेड़ों से तो था, लेकिन घने छायादार पेड़ इन्हें हमेशा एक बोझ ही लगते दिखे......इन के पत्ते आंगन में गिरते हैं जिस से गंदगी फैलती है, ऐसी सोच अकसर अपने आसपास देखी बचपन में। 

जहां तक मेरी बात है मेरा हाथ में हो तो मैं किसी भी पेड़ की एक टहनी भी न काटूं और न ही काटने दूं......मेरे बच्चों का भी यही भावनात्मक रिश्ता पेड़ों से है। पेड़ों के साथ लोगों का लगाव मैंने चंडीगढ़, बंगलोर, बंबई आदि शहरों में खूब देखा। लखनऊ आने से पहले हम जिस घर में रहते थे वहां पर भी बहुत से घने पेड़ थे.....बेटा उन्हें कटवाने नहीं देता था, जब जाड़े के दिनों में उन की छंटवाई करवानी होती थी तो मिसिज़ यह काम मेरे और बेटे की अनुपस्थिति में करवाया करती थीं....कालेज से आने पर वह बहुत नाराज़ हुआ करता था, एक दो दिन तक यह नाराज़गी चला करती थी। 

अब मेरी मां की भी सुन लीजिए....हमारे गृह-नगर में जो मकान है, वहां पर एक बहुत बड़ा पेड़ था.....मां उधर कुछ दिन अकेली थीं.......पांच सात दिन.....सात वर्ष पहले की बात है... पेड़ कटवाने वालों की बातों में आकर मां ऩे उस शीशम के बड़े से पेड़ को जड़ से ही कटवा दिया.....सात सौ रूपये मां को देकर गये थे वे लोग...वैसे मां की पैसों में इतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी इस बात में कि पेड़ अपने आप काट गये और उठा कर भी ले गये....जब शाम तक सारा पेड़ कट गया ...मैं घर पहुंचा तो मुझे वह वीरानगी इतनी बुरी लगी कि मैं ब्यां नहीं कर सकता.......मुझे पता नहीं उस दिन क्यों लगा कि घर में मातम जैसा माहौल है। मुझे उस दिन अपनी मां पर बहुत ही गुस्सा आया था, लेिकन मां को कहना क्या था, कुछ नहीं। मैं चुपचाप ही रहा दो तीन दिन। 

पेड़ों से मुझे बेइंतहा मोहब्बत है.....मैंने कहा न कि मैं किसी को एक टहनी काटने की भी इजाजत न दूं....लेकिन यह तो एक इमोशनल पहलू है....वास्तविकता तो यह है कि घर में भी और सरकारी विभागों को भी यदा कदा विभिन्न कारणों से पेड़ थोड़े काटने-छांटने ही पड़ते हैं.. वाहनों के रास्तों में, बिजली, टैलीफोन की तारों के रास्ते में आने वाले पेड़ों की छंटाई तो होती ही रहती है। इस का सब से बढ़िया ढंग मैंने बंबई में देखा जिस में एक गाड़ी पर एक लंबी सी एडजेस्टेबल सीढ़ी फिट हुई रहती है.. और इस तरीके से पेड़ के किनारे लगे पेड़ों की नियमित छंटाई होती रहती है। 

यहां लखनऊ में भी मैंने कुछ व्ही-आई-पी एरिया में पेड़ इसी तरीके से बड़े सलीके से कटते देखे हैं। 

आज दोपहर जब मैं लखनऊ के एक एरिया में घूम रहा था तो अचानक मेरी नज़र पेड़ों की एक कतार पर पड़ी जिन की छंटाई बड़े ही अच्छे ढंग से (कम से कम) की गई थी .....आप देखिए कि बड़ी बड़ी टहनियों को बिल्कुल छुआ तक नहीं गया है। Well done!!




पेड़ों की अच्छे से छंटाई होने की ये बढिया मिसालें
पेड़ों की इतनी अच्छे से छंटाई शायद मैंने एक दो बार ही पहले कईं देखी थी। जो मैंने पंजाब हरियाणा में देखा ... शायद जो मैंने अनुभव किया कि कुछ घरों में सब से हट्टे-कट्टे लोंडे को कुल्हाडी देकर पेड़ पर चढ़ा दिया जाता है ...कि चला बेटा कुल्हाडी,  जितना आसानी से काट सकता है, छांग दे पेड़ को (पंजाबी में पेड़ की छंटाई को छांगना कहते हैं) ......ताकि धूप तो नीचे आए।   ऐसे पेड़ देख कर बहुत बुरा लगता था...ऐसा लगता था िसर मुंडवा दिए गये हों इन सब के...........कितने बदसूरत दिखा करते थे तब पेड़......बिना हरियाली के, बिना फूल-पत्तों के. धूप की चिंता हम लोगों को बड़ी सताती है ....और फिर जब गर्मी में छांव कम दिखती है तो झुंझलाते ही हमीं लोग हैं।

हां, जहां तक हमारे गृह-नगर वाले मकान की बात है, वह पेड़ हमारी बाउंडरी वाल के साथ गेट के साथ सटा हुआ था...शीशम का पेड़ था, अपने आप ही उग आया था.. उस के पत्ते नीचे गिरते थे, गार्डन में गंदगी फैलती थी, मां को लगता था.......इसलिए उस से छुटकारा पा तो लिया......लेकिन उस के बाद घर बड़ा सूना सूना लगने लगा. उस पेड़ के रहने से हमारे घर का कोई भी हिस्सा बाहर गेट से नहीं दिखता था.... 

तो हुआ यह कि पेड़ के कटने के कुछ ही महीनों के बाद उस मकान में ऐसी चोरी हुई कि घर के बर्तन तक चोर-उचक्के उठा कर ले गये, पंखे के पर तक काट कर ले गये, गैस के सिलेंडर...बस फर्नीचर छोड़ कर जाना शायद उन की मजबूरी रही होगी। मेरी मां को यही लगा िक पेड़ कटवाना अशुभ रहा ...इसलिए इतनी बड़ी चोरी हो गई.......और मैंने कभी नहीं कहा कि नहीं, नहीं, इस का पेड़ कटवाने से कुछ लेना देना नहीं है, मुझे लगता है कि मां की यही सजा है, उन का यही पश्चाताप है कि उन्हें लगे कि ऐसे पेड़ को जड़ से कटवाना बुरी बात है..........वैसे उस दिन के बाद उन्होंने कभी किसी पेड़ को नहीं कटवाया और कहती हैं कि न ही कटवाएंगी..

एक बात और याद आ गई........लखनऊ आने से पहले हम लोग जिस घर में रहते थे हरियाणा में, वह घर जिस महांपुरूष को अलाट हुआ तो सुना है कि उसने पहले तो सभी पेड़ कटवाए, फिर उस घऱ में रहने को आए वे लोग.....बाबा रामपाल की जय हो। 

मुंह के अंदर कोई भी दवाई लगाने से पहले

अकसर मेरे बहुत से मरीज़ मेरे पास पहुंचने से पहले टीवी पर ताबड़-तोड़ दिखाए जाने वाले उन दो-तीन फोरन में प्रैक्टिस कर रहे दंत चिकित्सकों के विज्ञापन द्वारा कही बातें मान कर वह पेस्ट कईं महीने इस्तेमाल कर के ही पहुंचते हैं। बड़ा अजीब लगता है कि हमारी बातें तो कोई पिछले ३०सालों से सुन नहीं रहा और उस विज्ञापन में बताई जाने वाली मुश्किल से नाम वाली पेस्ट का नाम अनपढ़ी महिलाएं भी रट लेती हैं......यह तो हुआ विज्ञापन का जादू, बाकी कुछ नहीं।

दरअसल जब हम लोगों ने पढ़ाई की तो इन पेस्टों को medicated toothpastes कहा जाता था ...जिन्हें किसी विशेष कारण से ही दंत चिकित्सक मरीज़ों को इस्तेमाल करने की सलाह दिया करते थे। बिना वजह ऐसे ही कोई भी पेस्ट मंजन इस्तेमाल करने से दांतों की तकलीफ़ का निवारण हो ही नहीं सकता...यह जस की तस तो बनी रहती है, वैसे बहुत से केसों में शायद इस के प्रभाव से लक्षण दब जाते हों और दंत रोग जटिल हो जाते हैं...अकसर। अकसर ये पेस्टें महंगी तो होती ही हैं।

टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच... भाग १
टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच..भाग२

(जैसे एक कहावत है ना कि हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता....मैं अकसर एक बार किसी लेख को लिखने के बाद दो एक दिन के बाद उसे नहीं पढ़ पाता.....कारण?... यही कारण कि लगता है कि ऐसा क्या लिख दिया कि उसे बार बार देखूं......क्योंकि यह इत्मीनान होता है कि जो भी लिखा है सच एवं अपने अनुभव पर आधारित ही लिखा है तो फिर मुझे क्यों इतनी हड़बड़ी बार बार उसे देखने की..)

विषय से और न भटक जाऊं.....वापिस लौट रहा हूं....हां, तो पेस्ट को अपनी इच्छा से (और आज के दौर में विज्ञापन में दिख रहे विलायती डाक्टरों की ताकीद पर)...लेकिन परेशानी की बात है कि मुंह में कुछ भी ज़ख्म, घाव या छाले आदि होने पर भी लोग अपनी मरजी करने से बाज नहीं आ रहे हैं।

यह पोस्ट लिखने का ध्यान मुझे इसलिए आया कि मैंने एक स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई (ओएंटमैंट) के ऊपर जब लिखा देखा कि इस मुंह के छालों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। नहीं, यह बिल्कुल गलत है, अकसर बिना दंत चिकित्सक की सलाह के इस तरह की दवाई इस्तेमाल की ही नहीं जा सकती है। यह जो स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई की मैं बात कर रहा हूं, इसे हम लोग ही बड़े सोच समझ कर लगाने की सलाह देते हैं और इस के लगाने की बहुत ही कम केसों में ज़रूरत पड़ती है।

एक बात और, मुंह में ज़ख्म, घाव या छाले किस वजह से...कब से हैं, यह तो केवल दंत चिकित्सक ही बता पाता है.....मुंह में छाले जलने से हो जाते हैं, खाने-पीने में किसी कैमीकल की वजह से होते हैं, किसी इंफैक्शन की वजह से, बिना किसी कारण के (idiopathic), किसी दांत की रगड़ से, तंबाकू-पान-गुटखा से होने वाली किसी बीमारी की वजह से, या फिर किसी दवा के रिएक्शन से ही मुंह में घाव हो गया हो.........बहुत से कारण हैं, चूंकि दंत चिकित्सकों ने इन सब तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ देख रखे होते हैं, अधिकांश केसों में उन्हें चंद सैकिंडों में पता चल जाता है कि क्या कारण है और उन के ऊपर कुछ लगाने की ज़रूरत है भी या ये अपने आप तीन-चार दिन में ठीक हो जाएंगे।
जुबान के ज़ख्म बहुत जल्द ठीक हो जाते हैं...

अब बुखार के बाद जो अकसर होंठ के किनारे पर जो एक छाला सा बन जाता है ...वह वायरस इंफैक्शन की वजह से होता है, किसी दवाई विशेष की ज़रूरत होती नहीं, दो दिन दिन में वैसे ही दुरूस्त हो जाता है....वैसे यह हरपीज़ सिंपलेक्स इंफैक्शन की वजह से होता है।

मरीज़ तो मुंह की हर तकलीफ़ को पेट की सफ़ाई से ही जोड़ लेते हैं, यह सरासर गलत है......वह अलग बात है कि पेट तो साफ़ रहना ही चाहिए, वह एक अलग मुद्दा है, लेकिन यह भी सदियों पुरानी एक भ्रांति है...कब्ज और मुंहों के छालों से संबंधित.....।

बाज़ार में बहुत से मसूड़ों की मालिश करने के लिए तेल मिलते हैं जिन्हें गम-पेन्ट कहते हैं......इन्हें आप चिकित्सक की सलाह अनुसार मसूडों पर लगा सकते हैं... कोई खराबी नहीं, लेकिन यह मसूडों के रोग को दुरूस्त नहीं कर पायेगा, वह तो इलाज से ही होगा, इस से शायद लक्षणों में ही थोड़ा-बहुत राहत मिल पाती है।

घाव पर लगाने वाली दवाईयों की बात करें तो तंबाकू-पान-गुटखा की वजह से होने पर ज़ख्मों में वे कोई असर नहीं करतीं, थोड़ा बहुत राहत मरीज़ को लगती होगी, लेकिन सच्चाई यह है कि इन का कुछ असर होता नहीं, कईं बार इन के चक्कर में मरीज़ बेशकीमती समय बरबाद कर देते हैं.....तंबाकू-वाकू हमेशा के लिए थूकना ही होगा और ऐसे ज़ख्मों, घावों या छालों को दंत-चिकित्सक को दिखाना ही होगा।

यह तो थी दवाईयों की बात हम लोग तो मरीज़ को लौंग का तेल घर पर अपने आप लगाने के बारे में भी सचेत करते रहते हैं क्योंकि इस का गलत इस्तेमाल भी कईं बार परेशानी पैदा कर देता है...

दांत में लौंग-तेल लगाने का सही तरीका

और मुंह में डिस्प्रीन की गोली को पीस कर लगाने से भी बहुत बार आफत हो जाती है..ऐसे प्रयोग से मुंह में बड़ा ज़ख्म हो जाता है जिसे ठीक होने में कईं दिन लग जाते हैं।

एक बात और .. अकसर मरीज़ मुंह में लगाने वाली कोई भी दवाई में भेद कर नहीं पाते, ऊपर मैंने जिस गम-पेन्ट की बात की है, उसे अगर मुंह के छालों में लगाया जाता है तो अकसर ये बुरी तरह से खराब हो जाते हैं।

लगता है अब यहीं पर विराम लगाऊं......काफ़ी लिख दिया है .......कुछ दिनों से बार बार ध्यान आ रहा था इस विषय पर लिखने के लिए.........बस, अगली बार मुंह में कोई भी दवा लगाने से पहले थोड़ा सोच-विचार कर लें या दंत चिकित्सक से पूछ लें.......या पेस्ट को सिलेक्ट करने से पहले "विलायती दंत चिकित्सकों" द्वारा दिए जा रहे विज्ञापनों के बारे में भी थोड़ा-सा सचेत रहिये ...हो सकता है कि आप को इन की ज़रूरत ही न हो, वैसे भी इन विज्ञापनों को देख कर ऐसा लगता है कि देश में साफ़-सफ़ाई की समस्या एक तरफ, और दांतों में ठंडा-गर्म लगने की समस्या दूसरी ओर.... विज्ञापन तो ऐसे कहते हैं कि जैसे १२५ करोड़ लोग ही दांतों में ठंडा-गर्म लगने से परेशान हैं..आइसक्रीम खा नहीं पा रहे हैं.........बस, वह पेस्ट करने से ही दांतों की तकलीफ़ें एक दम ठीक हो जाएंगी........ऐसा होता है क्या? मैंने तो कभी ऐसा होता देखा नहीं .......दांतों की झनझनाहट है तो उस का कारण खोज कर उसे ठीक कराएं......और याद रखने वाली बात है कि  इस झनझनाहट के भी एक नहीं, बहुत से कारण हैं।

बातें बहुत हो गईं.......एक गाना सुनते हैं.....शायद तीसरी-चौथी कक्षा में यह फिल्म देखी थी...महमूह साब भी मिलावटी चीज़ों का ही रोना रो रहे हैं.....अपने अनूठे अंदाज़ में.....खूब बजा करता था यह गाना भी रेडियो पर....आज सुबह सुबह पता नहीं कैसे इस का ध्यान आ गया....चालीस साल पहले भी बाज़ार के जो हालात थे, उस का साक्षी है यह गीत..



गुरुवार, 27 नवंबर 2014

जुबान साफ़ रखना माउथवाश से भी ज़्यादा फायदेमंद

आज बहुत वर्षों बाद शायद इस विषय पर हिंदी में लिख रहा हूं कि जुबान साफ़ रखना माउथवाश से भी ज़्यादा फायदेमंद है। अभी मैंने इस ब्लॉग को सर्च किया तो पाया कि कईं वर्ष पहले एक लेख लिखा था...सांस की दुर्गंध परेशानी। आप इसे इस िलंक पर जा कर देख सकते हैं।

फिर से इस विषय पर लिखने की ज़रूरत इस लिए महसूस हुई क्योंकि जुबान साफ़ करने के बारे में भ्रांतियों के बारे में पिछले कुछ अरसे में कुछ नया सामने आया जो आपसे शेयर करना ज़रूरी समझा।

टेस्ट बड्स कायम रहते हैं....

एक अच्छी पढ़ी लिखी महिला थी ...कल जब मैंने उस से पूछा कि क्या आप अपनी जुबान साफ़ करती हैं तो उस ने पलट कर मुझ से यह पूछ लिया कि हम ने तो सुना है डाक्टर कि जुबान साफ़ करने से जुबान की ऊपरी सतह पर लगे हुए टेस्ट बड्स (स्वाद की ग्रंथियां) घिस जाती हैं। मुझे बड़ी हैरानी हुई ..लेकिन उसी समय ध्यान आया कि यही प्रश्न कुछ अरसा पहले भी दो एक महिलाओं ने पूछा था।

तो इस का जवाब यह है कि नहीं, जुबान साफ़ करने वाली पत्ती का इस्तेमाल करने से आप के स्वाद में कोई फ़र्क नहीं पड़ता ...न ही यह टेस्ट बड्स को किसी तरह का नुकसान ही पहुंचाता है। बल्कि सच्चाई यह है कि जुबान की रोज़ाना सफ़ाई करने से सांस की बदबू तो दूर भाग ही जाती है ...साथ साथ आप की स्वाद की क्षमता अच्छी बनी रहती है।

टंग-क्लीनर यूज़ करने से उल्टी जैसा लगता है....

बहुत बार यह भी प्रश्न करती हैं ..विशेषकर महिलाएं कि हम तो जुबान नहीं साफ़ करतीं क्योंकि हमें उसी समय उल्टी जैसा होने लगता है। इस का कारण यह है कि कुछ लोग टंग-क्लीनर (जुबान साफ़ करने वाली पत्ती) को बहुत पीछे तक ले जाते हैं....इसलिए टंग-क्लीनर को वहां तक ले कर जाइए जहां तक आप सुविधा से ले जा पाएं.....िफर मतली जैसा नहीं लगेगा। कोशिश कर के देखिएगा... क्योंकि रोज़ाना जुबान की सफ़ाई करने का कोई विक्लप है ही नहीं.....महंगे महंगे माउथवाश भी नहीं।

टुथ-ब्रुश से ही जुबान साफ़ करने का चलन ..

आज कल बहुत बार सुनता हूं कि हम लोग तो टुथ-ब्रुश से ही जुबान भी साफ़ कर लेते हैं. यह ठीक नहीं है.....टुथब्रुश केवल दांतों की सफ़ाई के लिए बना है और कुछ ब्रुशों के हैड की पिछली तरफ़ को वे  अब कुछ खुरदरा सा बना तो देते हैं लेकिन इस से कैसे जुबान की सफ़ाई हो सकती है ?..इस से कैसे आप रोज़ाना जुबान की सतह पर जमने वाली काई को उतार पाएंगे। इसलिए अच्छे से टंग-क्लीनर का उपयोग तो बहुत ज़रूरी है ही।

घर के हर बंदे के लिए अलग टंग-क्लीनर ...

जी हां, घर में हर एक के लिए टंग-क्लीनर अलग हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि एक दूसरे का टंग-क्लीनर न इस्तेमाल न होने पाए। वैसे तो यह बहुत कम मेरे सुनने में आया लेकिन एक-दो बार मैंने यह भी सुना....कुछ सप्ताह पहले की ही बात है . एक कालेज पढ़ने वाली लड़की अपने पापा के साथ आई थी.....टंग-क्लीनर की बात छिड़ने पर जब उसने कहा कि हां, हम उसे धो कर ही यूज़ करते हैं ...तो मुझे लगा कुछ तो गड़बड़ है......पता चला कि घऱ में एक टंग-क्लीनर से सारा परिवार जुबान साफ कर लेता है। फिर उन्हें समझाया ... जो कि उन्हें तुरंत समझ में आ गया।

टंग-क्लीनर से जुबान छिल जाती है.....

कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे ही मुंह में अंगुली डाल कर ही जीभ और गला साफ़ कर लेते हैं.....टंग-क्लीनर के बार बार इस्तेमाल से बहुत बार जुबान छिल जाती है ..इसलिए ठीक नहीं लगता। इस का समाधान यह है कि पहले तो जब आप टंग-क्लीनर का चुनाव करें तो ध्यान दीजिए कि उस पत्ती के किनारे एकदम नरम हों, तीखे न हों.......वैसे तो आज कल बाज़ार में उपलब्ध अच्छे टंग-क्लीनरों में यह दिक्कत होती नहीं है, लेकिन फिर भी देख ही लिया करें। दूसरा, अगर आप बहुत ही ज़ोर से जुबान पर टंग-क्लीनर रगड़ेंगे तो दो एक बूंद खून तो निकलेगा ही......इसलिए इस टंग-क्लीनर को थोड़ा आराम और इत्मीनान से ही इस्तेमाल करिए। न ही जुबान छिलेगी और न ही खून निकलेगा।

  आज तक तो काफ़ी अच्छे अच्छे टंग-क्लीनर मिलने लगे हैं....

जंग लगे टंग-क्लीनर से डर लगता है.....

कईं लोग मुझे यह भी कहते हैं कि जब टंग-क्लीनर को जंग लग जाता है तो उसे मुंह के अंदर इस्तेमाल करने से डर लगता है। अब पता नहीं कितनी खराब क्वालिटी के टंग-क्लीनर की बात कर रहे होते हैं ये लोग ...क्योंकि मैंने तो यह जंग कभी नोटिस नहीं किया। बहरहाल, स्टील के टंग-क्लीनर पर तो जंग नहीं लगता कभी, फिर भी मैं उन के टैटनस हो जाने के डर को भांपते हुए उन्हें तांबे या प्लास्टिक का टंग-क्लीनर इस्तेमाल करने को कहता हूं तो वे सहर्ष मेरी बात मान लेते हैं।

अब जाते जाते ध्यान आया है कि जो ऊपर मैंने शीर्षक लिखा है ...जुबान साफ़ करना माउथवाश से भी ज़्यादा फायदेमंद..यह शीर्षक बढ़िया इसलिए नहीं है कि इन दोनों बातों की तुलना तो की ही नहीं जा सकती .. क्योंकि नित्य-प्रतिदिन अच्छे से जुबान साफ़ करने का विकल्प तो है ही नहीं और न ही कभी होगा शायद.....और न ही महंगे माउथवाश ही इस सदियों पुरानी हिंदोस्तानियों की इस बहुत अच्छी आदत की कभी जगह ले लकते हैं.....प्राचीन भारत में तो जुबान साफ़ रखने के लिए आम के पेड़ के पत्ते की डंडी का ही लोग इस्तेमाल कर लिया करते थे.....बचपन में देखते थे कि दातुन को बीच में से फाड़ कर उसे टंग-क्लीनर के तौर पर यूज़ भी किया करते थे........थे क्या, अब भी दातुन का इस्तेमाल करने वाले यह सब करते ही हैं।

ऐसा नहीं है कि लोग टंग-क्लीनर का इस्तेमाल नहीं करते......बिल्कुल करते हैं बहुत से लोग। मुझे ध्यान है बचपन में उस जमाने में जो प्लास्टिक के टंग-क्लीनर मिला करते थे.....वे झट से थोड़ा सी ही ज़ोर लगाने पर टूट जाया करते थे.....बिल्कुल कमज़ोर से हुआ करते थे......खिलौना टूटने से कम दुःख न होता था उस समय.. ....टाईम टाईम की बात है।

मेरे विचार में जुबान की सफ़ाई के लिए इतना ही काफ़ी है......वैसे एक मुंह की मैल और तरह की भी होती है, any guess?....... यह मैल भी भारतीयों में बहुत संख्या में पाई जाती है.......इस का इलाज है गपशप करना, गॉसिप करना .. इसलिए लोग कहते हैं कि किसी यार-दोस्त से बात कर के मन हल्का हो गया....मज़ाक में कह देते हैं कि मुंह की मैल भी उतारनी तो ज़रूरी है .....है कि नहीं?.......... पता नहीं यार, लेकिन जुबान की मैल नित्यप्रतिदिन उतारते रहेंगे तो तरोताज़ा रहेंगे, सांसें महकती रहेंगी।


बुधवार, 26 नवंबर 2014

गाल के अंदरूनी हिस्से के कैंसर की पूर्वावस्था...

मैं बीस वर्ष पूर्व डा राव जो टाटा कैंसर अस्पताल के उस समय निदेशक थे...उन का एक लेक्चर अटैंड कर रहा था...उस दिन उन्होंने इस बात पर भी विशेष ज़ोर दिया कि अगर देश के लोग रात को सोने से पहले अच्छे से कुल्ला कर के सोना शुरू कर दें, तो मुंह के कैंसर के केसों में ५०प्रतिशत की कमी आ जायेगी। उन के कहने का आशय था कि मुंह अच्छे से साफ़ करने के बाद फिर किसी का मन नहीं करेगा कि मुंह में गुटखा, तंबाकू, खैनी, या पान ठूंस कर सोए।

ऐसा नहीं है कि दिन के समय इस तरह के जानलेवा पदार्थों को गाल या होठों के अंदर रखने का कम नुकसान है। खतरनाक तो है ही यह सब भी लेकिन रात के समय भी इन्हें गाल या होंठ के अंदर दबा कर सोने से नुकसान दोगुना हो जाता है।

 इस मरीज़ के बाईं तरफ़ के गाल का अंदरूनी हिस्सा
 आज मेरे पास यह ५० व्यक्ति आया था.. उसे केवल तकलीफ़ यह थी कि उस के ऊपर वाले दो दांत हिल रहे हैं और कुछ भी चबाते वक्त दर्द करते हैं। इन के दांतों की अवस्था से आप अनुमान लगा ही सकते हैं कि ये पान-तंबाकू का भरपूर प्रयोग करते हैं। मेरे पूछने पर यह भी बताया कि कभी कभी बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, पानमसाला भी हो जाता है...मैंने हल्के से मजाक में कह ही दिया कि आप से बात करते हुए मुझे शोले की बसंती की मौसी की बातें याद आ रही हैं जब जय उस के पास वीरू और बसंती के रिश्ते की बात करने जाता है। हंसने लगा मेरी बात सुन कर।

मैंने पूछा िक आपने कभी अपने मुंह में देखा है....कहने लगा कि ऩहीं कभी नहीं। मैंने पहले तो उसे वाश-बेसिन के शीशे के पास ले जाकर टार्च मार कर उसे उस के दाहिने गाल का अंदरूनी हिस्सा िदखाया...फिर उस की फोटी खींच कर दिखाई तो वह अच्छे से समझ गया.......मेरे समझाने पर उसने तौबा कर ली कि आज से वह किसी भी ऐसी वैसी चीज़ को चबाना-चूसना तो दूर, छुऐगा तक नहीं!!

मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था......ओरल ल्यूको-प्लेकिया (दाईं गाल)
यह व्यक्ति भी अकसर पान, तंबाकू, गुटखा दाईं तरफ़ वाली गाल के अंदर ही टिकाए रखता था...आप देख सकते हैं कि दाईं और बाईं तरफ़ वाले गालों के अंदरूनी हिस्सों में कितना फर्क है....बाएं तरफ़ वाले गाल में इतनी ज़्यादा गड़बड़ी नहीं है..। यह जो ऊपर दाईं तरफ़ वाली गाल में सफेद रंग का एक घाव, चटाक या ज़ख्म सा देख रहे हैं ...इसे ओरल-ल्यूकोप्लेकिया कहते हैं और यह मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था है...... it is definitely a oral pre-cancerous lesion.
जितना ज़रूरी था उतनी इस बंदे को भी बताया...सब से पहले तो यह ज़रूरी है कि यह अब इन सब चीज़ों से तौबा कर ले (जो भी संभवतः उस ने कर ली)....अब इस तरह के घाव का इलाज होना चाहिए...अगर यह आज भी ये सब जानलेवा पदार्थ छोड़ दे तो भी कईं महीने लगेंगे इस चमड़ी को ठीक होने में। और बहुत बार तो इसे उतारना ही ज़रूरी होता है.......फिर इस टुकड़े की पैथोलॉजी लैब में जांच होगी..........यह कैंसर नहीं है यह तो लगभग निश्चित ही है...अभी यह पूर्वावस्था ही है।

अगर इस तरह की पूर्वावस्था का कुछ इलाज न किया जाए...और ऊपर से तंबाकू-गुटखा-पान निरंतर चालू रहे तो ऐसी पूर्वावस्था कब और कितने वर्षों में मुंह के कैंसर का रूप धारण कर लेगी, यह कहना बड़ा मुश्किल है। अभी चार िदन पहले ही एक ७५-८० वर्ष की बुज़ुर्ग महिला आई थी--अकेले ही आई थीं दांत दिखाने.....कह रही थीं कि मसूड़े थोड़े कटे कटे से लग रहे हैं.....मैंने देखा तो मुझे बेहद बुरा लगा था.......क्योंकि ऊपरी गाल के अंदरूनी हिस्से में पूरी तरह से विकसित कैंसर फैल चुका था.....मुझे उस दिन बहुत ही ज़्यादा दुःख हुआ था.....मैंने उस दिन तो उन्हें तो कुछ नहीं कहा लेकिन बेटे को साथ लाने को कहा और अपना फोन नंबर िदया.....बात हुई उस के बेटे से ...इलाज तो चल रहा है ........लेकिन....!!...... क्या लिखूं। मैंने कहा कि आपने आज से पान नहीं खाना, तो कहने लगीं कि बस सौंफ ही खाती हूं अब तो ......सामने ही शीशी थी उस के हाथ में......सौंफ में भी डली मिली हुई थी.....(यू पी में सुपारी को डली कहते हैं) .. मैंने समझाया कि सौंफ का मतलब सिर्फ़ सौंफ........डली मिलाने में तो वही बात है कि पानमसाला न खाया और इस तरह की सौंफ-डली खा ली।

मैं अब आज वाले ५० वर्ष की आयु वाले मरीज़ पर वापिस आता हूं..इस बात की तरफ़ आप ध्यान दें कि किस तरह से अपने मुंह में स्वयं झांकने से जब बंदा स्वयं कोई घाव या दाग आदि देखता है या उसे उसके मुंह के अंदर की तस्वीर दिखाई जाती है तो उस की ऐसे पदार्थों का त्याग करने की भावना प्रबल होती है......निःसंदेह यह बात तो पक्की है। 

अपने मुंह में झांकना कितना आसान है.....गाल, होंठ, तालू, जुबान, जुबान के नीचे वाला हिस्सा.......शीशे के आगे खड़े होकर देखते रहना चाहिए.......ज़रूरी है यह मुंह का स्वयं-निरीक्षण करना.......कुछ भी असामान्य दिखने पर दंत चिकित्सक के परामर्श करिए.......और इन सब घातक पदार्थों से हमेशा दूर रहें। 

शुक्र है रब्बा, सांझा चूल्हा बलया....

आज मैंने जब टाटा-स्काई ऑन िकया तो िकसी रोटी मेकर का विज्ञापन चल रहा था, यह विज्ञापन मुझे बेहद सस्ता लगता है ...जो इस विज्ञापन को पेश कर रही थी, वह रसोई में गैस या चूल्हे पर रोटीयां बनाने के काम को इतने बुरा भला कह रही थी कि उसे सुनना ही अजीब सा लग रहा था..इस से महिलाओं के शरीर में यह तकलीफ़ हो जाती है, वह तकलीफ़ हो जाती है, पूरे परिवार के लिए रोटियां बनाना तो बिल्कुल आफ़त है, ऐसा ही कह रही थी।

मैं उस विज्ञापन को देखते सोच रहा था कि अगर यह विज्ञापन हिंदोस्तानी गृहिणियां कुछेक बार देख लें तो कम से कम बगावत पर उतारू तो हो ही जाएं।

लेकिन असलियत इस तरह के रोटी मेकर की कुछ और ही है... हम लोगों ने भी कुछ महीने पहले एक अच्छी कंपनी का रोटी मेकर खऱीदा था.....एक या दो बार उसे इस्तेमाल किया गया, वापिस अब डिब्बे में बंद पड़ा है। हमारा यह अनुभव रहा कि इस में तैयार रोटियां बिल्कुल पतले कड़क पापड़ जैसे ---बिल्कुल गुजराती खाखरे की तरह-- होती हैं जिन्हें खा कर लगता ही नहीं है कि रोटी खाई है।

इस बात को तो यही फुल-स्टाप लगाते हैं....अब रोटी के बारे में अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं......मेरी उम्र के लोग अंगीठी, चूल्हे और स्टोव से लेकर तंदूर तक के दौर के साक्षी हैं। मुझे याद है कि उस दौर में स्टोव में जलने वाला मिट्टी का तेल (केरोसिन तेल) राशन के डिपो से मिलता था..अब राशन की दुकान से मिलने वाली चीज़ की बात है कि वह जब मिले तो मिले, ना भी मिले तो आप राशन की दुकानदार का क्या उखाड़े लेंगे......आज ही कुछ नहीं उखड़ता तो चालीस साल पहले लोग कितने मजबूर होंगे, इस की कल्पना आज की पीढ़ी नहीं कर सकती। वैसे हमारा राशन वाला भी कम हरामी ना था, बहुत चक्कर कटवाता था..।

इस से पहले कि यादों के पिटारे से ढक्कन उठाऊं एक बात साझा करना चाहता हूं कि मेरी बेहद पसंदीदा फिल्मों में से एक फिल्म है रोटी... राजेश खन्ना, मुमताज की.....कोई गिनती नहीं कि मैं इसे कितनी बार देख चुका हूं। इस में एक जगह राजेश खन्ना एक दादा को कहता है......ईज्जत दे रोटी को लाले, बाद में तो मैंने ही खानी है, यह संवाद किस परिप्रेक्ष्य में कहा गया, इस के लिए आप इस वीडियो को ज़रूर देखिए.....



हां, तो बात चल रही थी अंगीठी और स्टोव पर सिकने वाली रोटियों की ... फिर जब तेल नहीं होता था तो कभी कभार लकड़ियों से जलने वाला चूल्हा भी तो जला करता था। उन दिनों तंदूरों में भी रोटियां लगाई जाती थी.....कुछ घरों के घऱ के आंगन में या दीवार के बाहर तंदूर फिट हुआ रहता था..एक तंदूर जलता था तो गली मोहल्ले के कितने ही घरों की गृहणियां वहां पर रोटियों लगाती थीं.....एक तरह से यह एक सांझे चूल्हे का रूप ही ले लिया करता था...

हम लोग जब छोटे छोटे थे तो हमे यह सब देखना बड़ा रोमांचक लगता था कि कैसे हमारी मां, हमारी नानी...जलती आग में बेली हुई रोटियां पहले अंदर चिपकाती हैं, फिर एक लंबी लोहे की डंडी-नुमा सीख से उसे हिलाती डुलाती हैं और झट से कड़क रोटियां निकलते ही हमें आवाज़ दी जाती कि चलो,गर्मागर्म हैं रोटियां, बाद में ठंड़ी हो जाएंगी, खानी शुरू करो। यह काम करने वाली सभी महिलाओं को मेरा कोटि कोटि दंडवत् प्रणाम्।



लो जी, बात छिड़ी तो रेशमा जी का एक सुपर-डुपर गीत भी याद आ गया... शुक्र है रब्बा, सांझा चूल्हा जलेया...मुझे अच्छे से याद है कि १९८० के दशक में जालंधर दूरदर्शन से एक सीरियल भी आता था...सांझा चूल्हा ..उस की सिग्नेचर ट्यून भी रेशमा जी का यही गीत ही था......आप सुनना चाहेंगे?



शायद आज की पीढ़ी को लगता हो कि इस में क्या बड़ी बात है...बात है दोस्त, और वह बात वही जानता है जिस ने अपने घर की औरतों को जून के महीने शिखर दोपहरी में भी सिर पर कपड़ा रख कर यह काम करते देखा....गर्मी की वजह से लाल सुर्ख चेहरा और ऊपर से टप टप करता पसीना और शरीर के साथ चिपके हुए पसीने से भीगे पूरे कपड़े और ऊपर से धूप में तिड़कने वाली पित। इस सब के बावजूद १००० वॉट की बड़ी सी मुस्कान के साथ उन का रोटियां परोसने का अंदाज़.....और खाने वाले एक एक बशर की फिक्र। अब इस के आगे क्या कहें दोस्त, आगे कुछ कहने को बचता है क्या!!

मुझे याद है कि मेरी नानी जो इतनी जिंदािदल थी कि चालीस-पचास मेहमानों के लिए अकेली ही जूझ पड़ा करती थीं इस काम में....अब क्या क्या लिखें, क्या क्या छोड़े समझ भी तो नहीं आता। पूरी किताब लिखी जा सकती है उस दौर की महिलाओं के संघर्ष पर।

हां, यार, वह दौर भी शायद सत्तर-अस्सी के दशक का ही था कि जब पंजाब में जगह जगह जमीन पर तंदूर गढ़े हुआ करते थे....हम लोग कईं बार गूंथा हुआ आटा लेकर जाते थे और वह देवी जैसे दिखने वाली तंदूर वाली हमें रोटियां तैयार कर के दे दिया करती थीं.....जानते हैं वह एक रोटी तैयार करने का क्या लेती थीं?....मात्र पांच पैसे।

इस के साथ साथ वे भी दिन थे जब ये रोटियां लगाने का काम ढाबे वाली भी किया करते थे...आप आटा ले कर जाओ और वे रोटियां तैयार कर के आप को दे दिया करते थे।

मुझे याद है कि अगर ढाबे आदि में आटे नहीं भी लेकर गये किसी भी एमरजैंसी में आप वहां से रोटियां लेकर आ सकते थे ...साथ में दाल भी वहां से मिल जाया करती थी.... एक मज़े की बात, आप को याद हो न याद हो.....कि रोटियां खरीदने पर दाल मुफ्त में मिलती थीं, और जिसे घर लाकर घी में अपने ढंग से छोंक लगाई जाती थी। मुझे याद है कि जब कभी मेरी माता जी दो एक दिन के लिए बाहर गई होतीं तो मेरे पिता जी उस दाल को ऐसी छोंक लगाते कि आज भी उस जायके, उस अरोमा की याद  मुझे आनंद देती है।

एक चुटकला भी तो बना था उस दौर में.......एक आदमी एक ढाबे में जाता है और दाम पूछता है ... उसे बताया जाता है कि रोटी पचास पैसे की और दाल फ्री। वह तुरंत कहता है कि ऐसा करो कि मुझे दाल ही दे दो।

एक बात और, ढाबे में मिलने वाली रोटियों से कोई शिकायत नहीं हुआ करती थीं, घर जैसा ही आटा इस्तेमाल होता था ...अच्छी कड़क और पतली पतली तंदूरी रोटियां........लेकिन अब पता नहीं पिछले ३०-३५ वर्षों से ढाबे वालों को क्या तकलीफ़ हो गई है कि मुझे ऐसा लगता है कि ये अब आटे की नहीं, मैदे की रोटियां बनाते हैं जिस तरह से वह रबड़ जैसे टूटती हैं और बाहर से कड़क दिखते हुए भी अंदर से बिल्कुल कच्ची ही रह जाती हैं।

ऐसा नहीं है कि अच्छी रोटियां नहीं बिकतीं अब, बिकती हैं दोस्तो अब भी लेकिन वे ३५-४० रूपये की एक रोटी बेचते हैं.....आप की इच्छानुसार कड़क और सिकी हुई। अब तो बाहर खाते हैं कभी कभई तो ऐसी ही जगहों पर ही खाया जाता है..पता नहीं मैदे से तैयार रोटियां देखते ही भूख छूं-मंतर हो जाने जैसा फील होने लगता है।

बीस साल पहले हम लोग एक गैस-तंदूर भी लाए तो थे.....वह भी कुछ दिनों बाद रसोई की छत पर पड़ा हमें झांकने लगा... उस में तैयार रोटियों में वह बात ही न थी.... मिट्टी की खुशबू गायब थी शायद...अब विभिन्न प्रदर्शियों में इलैक्ट्रिक तंदूर देखते तो हैं, पर कभी खरीदने का मन किया नहीं......डर सा लगता है!

अब हम लोग लखनऊ में रहते हैं...कुछ दिन पहले हम लोगों ने अपने गृह-सेवक को पास ही के ढाबे-नुमा हाटेल में भेजा कि रोटियां सिकवा के ले आए... इस ढाबे ने तंदूर दुकान के बाहर ही लगाया हुआ था......गृह-सेवक बैरंग लौट कर आया .. कहने लगा कि तूदूरवाला कहता है कि सन्नाटे में आना?.....सन्नाटे में आना, सुन कर अजीब सा लगा ..शायद अगर हमारी बाई गई होती तो और भी सनसनीखेज लगते ये शब्द...लेकिन उस ने झट से बता दिया कि वह कहता है कि जब ढाबा चल रहा हो उस समय यह काम नहीं हो सकता... दो एक घंटे पहले या बाद में। मैं अपनी पत्नी से मजाक करने लगा कि लगता है कि दोपहर के खाने के लिए रोटियां सुबह ९-१० बजे और रात के खाने के लिए शाम को ही लगवानी पड़ेंगी........हा हा हा हा हा........उल्लू के पट्ठे।

हां, एक बात याद आई......मेरी मां जी की एक कज़िन थीं.....उन की बेटी दुबई में रहती थीं ... जब भी वे आतीं तो मां के हाथ की डेढ़-दो सौ रोटियां बनवा कर ले जातीं.....वहां पहुंच कर इन्हें फ्रिज़ में रख दिया करते और रोज़ाना कुछ निकाल कर गर्म कर के खाया करते। हैरान होने वाली बात तो है, हो लीजै, लेिकन है शतप्रतिशत सच।

लगता है, बस करूं.......बहुत हो गई इन रोटियों की बातें......फिर से वही बलवंत गार्गी जी की वही पंक्तियां चेते आ गईं..........शुक्र है रब्बा, सांझा चुल्हा बलेया....सांझा चुल्हा बलेया। चेते तो दोस्तो यह भी आ गया कि उन दिनों जब दोपहर में हम लोग गर्मागर्म तंदूरी रोटियों का लुत्फ़ उठाया करते थे....तो बाबा आदम के ज़माने के अपने रेडियो पर कभी कभी रोटी फिल्म का मुझे बहुत अच्छा लगने वाला यह गीत भी तो खूब बजा करता था......जो रोटी के स्वाद को चार चांद लगा दिया करता था..........

यादों का पिटारा थोड़े समय के लिए बंद कर रहा हूं... दिमाग पर लोड़ देते देते थोड़ा थक सा गया हूं.....सुप्रभात।



सोमवार, 24 नवंबर 2014

आप रोज़ाना कितने अंडे खा सकते हैं?

अभी मैं न्यू-यार्क टाइम्स देख रहा था तो मेरी नज़र एक रोचक स्टोरी पर पड़ गई ...जिस का शीर्षक था कि मैं रोज़ाना कितने अंडे खा सकता हूं।

देखते ही लगा कि यह इस प्रश्न का उत्तर तो आप सब से शेयर करना ही चाहिए क्योंिक जिस तरह से भारतवर्ष में काश्मीर से कन्याकुमारी तक अंडे के स्टाल हर तरफ़ नज़र आते हैं....आमलेट भी खूब बिकता है और उबले हुए अंडे भी दनादन बिकते दिखते हैं, इस से देशवासियों के अंडों के प्रति प्रेम का पता चलता है। 

लेकिन ध्यान देने योग्य बात बस इतनी है कि पहले तो अमेरिकी हार्ट संगठन अंडों को दिल की सेहत को ध्यान में रखते हुए खाने की सिफारिश नहीं करता था, लेकिन अब उन्होंने कहा कि रोज़ाना एक अंडा खाने से आदमी में कोल्स्ट्रोल की मात्रा में कुछ इज़ाफ़ा नहीं होता। 

चलिए जी, दारा सिंह की बात भी सुन लेते हैं......


मान लेते हैं जी अमेरिकी संगठन की बात ...क्योंिक ये अपनी रिसर्च बड़े वैज्ञानिक ढंग से करते हैं..

लेकिन आप खा कहां रहे हैं इस तरफ़ थोड़ा ध्यान देना होगा,  अगर आप बाहर किसी स्टाल या रेस्टरां आदि में ओमलेट खा रहे हैं तो वे लोग कौन सा घी-तेल इस्तेमाल कर रहे हैं, इस का ध्यान कौन रख सकता है?

मैंने आज तक अंडा नहीं खाया... बचपन में बताते हैं कि जब भी खिलाने की कोशिश की तो मैं थूक दिया करता था.... फिर जब मैं बड़ा हुआ आठ-दस वर्ष का तो मुझे याद है कि मुझे अंडे की भुर्जी से और उबले अंडे से इतनी बदबू आने लगी कि कभी हिम्मत ही नहीं हुई चखने की। कोई भी धार्मिक कारण नहीं है कि मैं कह सकूं कि मैं बहुत महान हूं क्योंिक मैं अंडा नहीं खाता.....मैं ऐसे व्यक्तव्यों से नफ़रत करता हूं। 

अगर आप अंडा खाते हैं तो चलने दें, लेकिन रोज़ाना एक से ज़्यादा नहीं........इस सिफ़ारिश को मूल रूप से आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं... How many eggs can i eat?

लिखना भी बढ़िया टाइम पास है.....जब लिखने बैठे तो पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं... अंडा तो मैंने कभी नहीं खाया लेकिन ग्याहरवीं कक्षा में जब इंगलिश के टीचर ने आमलेट के स्पैलिंग पूछे तो सारी कक्षा में मेरे ही ठीक थे....omelette....उस दिन बड़ी शाबाशी मिली थी.....पहले हमारे प्रोफैसर लोग यह काम खूब किया करते थे...रोज़ाना आठ दस स्पैलिंग लिखने को कहा करते थे.......अच्छा लगता है ......अब भी बच्चे लिखते तो हैं.....लेकिन व्हॉट्स-अप पर -- स्लैंग मार के ......है कि नहीं!

विविध भारती के पिटारे से निकलता है सेहतनामा

जी हां, विविध भारती रेडियो पर रोज़ाना शाम को चार बजे एक पिटारा कार्यक्रम आता है। सोमवार के दिन इस पिटारे से सेहतनामा प्रोग्राम निकलता है। यह एक घंटे तक चलता है...चार से पांच बजे तक। इस में किसी भी रोग के विशेषज्ञ को बुलाते हैं और उस से उस तकलीफ़ के बारे में प्रश्न उत्तर का दौर चलता है..बीच बीच में डाक्टर साहब की पसंद के फिल्मी गीत भी बजाये जाते हैं।

मैं थोड़ा भुलक्कड़ किस्म का आदमी हूं..लेकिन मुझे जब भी याद रहता है तो मैं सब काम छोड़ के इस प्रोग्राम को देखता हूं। इस प्रोग्राम की जितनी तारीफ़ की जाए कम है क्योंिक आने वाला विशेषज्ञ बड़ी सहजता से जटिल से जटिल प्रश्नों का जवाब देता है।

टीवी रेडियो और अखबारों में तो तरह तरह की हैल्थ जानकारी मिलती ही रहती है ..लेकिन अब हमें अनुभव हो चुका है कि कौन सा प्रोग्राम किस अस्पताल अथवा चिकित्सक के स्वार्थ भाव से प्रेरित है.....यह समझते देर नहीं लगती।

लेकिन यह जो विविध भारती के सेहतनामा की मैं बात कर रहा हूं इस में ऐसा कुछ भी नहीं......सब कुछ सटीक और बिना पब्लिक को उलझाए हुए अपनी बात कहते चिकित्सक जितने मैंने यहां देखे हैं, शायद ही कहीं देखे हों।

मैं अकसर कहता हूं कि अगर बड़े से बड़े अनुभवी डाक्टर को भी अपने अनुभव जनता से साझे करने हों तो उसे एक घंटे से ज़्यादा समझ नहीं चाहिए होता। मैं अपनी ही बात करता हूं......मुझे तो शायद एक घंटा भी न चाहिए हो। लेकिन आप देखिए कि अगर रेडियो पर देश के सुप्रसिद्ध चिकित्सक जब आपके लिए अपने चिकित्सीय ज्ञान का पिटारा एक घंटे तक खुला रखते हैं तो बाकी क्या बचता होगा!! सोचने वाली बात तो है !! मैं भी आल इंडिया रेडियो के काफी कार्यक्रमों में शिरकत कर चुका हूं, इसलिए पूरी प्रामाणिकता से यह बात रख रहा हूं।

इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि जैसे ही भो आप यह प्रोग्राम विविध भारती पर सोमवार शाम चार से पांच बजे तक ज़रूर सुना करिए...बेहद उपयोगी जानकारी जो और कहीं नहीं मिल सकती।

बदलते समय की दस्तक है ......मन की बात......देश के प्रधानमंत्री सारे देश से संवाद करते हैं आकाशवाणी के माध्यम से.......लेिकन एक दस्तक और भी होनी चाहिए...आज की युवा पीढ़ी की व्यस्तता को देखते हुए इस तरह के उपयोगी कार्यक्रमों की रिकार्डिंग विविध भारती की साइट पर भी आर्काइव में पड़ी होनी चाहिए। लेकिन अभी ऐसी कुछ व्यवस्था नहीं है।

जहां तक मुझे याद है....पहले कुछ जगहों पर इस सेहतनामा कार्यक्रम का पुनः प्रसारण अगली सुबह भी होता है ..लेकिन यहां लखनऊ में तो नहीं होता यह पुनः प्रसारित।