कल शनिवार की दोपहर पौने तीन के करीब मैं दादर स्टेशन पर था...मुझे बोरीवली की फॉस्ट-लोकल पकड़नी थी...लेकिन यह क्या ट्रेन तो आ भी गई और मैं अभी तक स्टॉल वाले को ज़िम-ज़ैम बिस्कुट के पैकेट के दाम देने के लिए जेब से बटुआ निकाल रहा था ..खैर, मिल गई गाड़ी ... वैसे तो हमारा भी एक उसूल है कि गाड़ी एक बार चल पड़े तो चाहे वह कितनी भी धीमी हो, उसे भाग कर नहीं पकड़ना...क्या करें, और कुछ न सही, बूढ़ी हो रही हड्डियों की तो फ़िक्र खुद ही करनी पड़ती है...
लोकल ट्रेन के पहले दर्जे में बैठने की जगह मिल गई ...सब से पहले तो उस बिस्कुट के पैकेट पर हाथ साफ़ करना शुरू किया...अब पिछले डेढ़-दो साल से यह लत सी पड़ गई है कि लोकल ट्रेन में बैठने से पहले हल्दी राम या पार्ले जी या ब्रिटॉनिया का कुछ पैकेट लेकर ही चढ़ना है ...ये बिस्कुट विस्कुट के पैकेट ऐसे खाने तो मुझे अपने शरीर के साथ ज़ुल्म करने जैसा लगता है ...मुझे ख़्याल आता तो है कि मरीज़ों को तुम सारा दिन ये सब जंक खाने के लिए डांटते रहते हो ..और ख़ुद !! शायद इसी लिए अपनी बात कोई नहीं मानता..। मेरी दिक्कत यह है कि मुझे जब भूख लगती है तो मुझे वड़ा-पाव, भेल, पाव-भाजी, समोसा ..कुछ भी खाना अच्छा नहीं लगता...अगर खाता भी हूं कभी या ये लोग मंगवाते भी हैं तो बहुत ही गिनी-चुनी दुकानों से ...खैर, बिस्कुट का खाली लिफ़ाफ़ा अपने बैग में ठूंस कर अखबार निकाल ली ...इतने में सामने वाली सीट पर बैठा एक 10-12 बरस का बालक मेरी तरफ़ देख रहा था ..शायद सोच रहा होगा कि यह भी अजीब बंदा है, पूरे का पूरा पैकेट ही रगड़ गया....सत्संग में सुने प्रवचनों के आधार पर मैं उस बालक को देख कर मुस्कुरा दिया...लेकिन यह क्या, उस बेचारे ने भरपूर कोशिश तो की ..लेकिन वह एक अदद हल्की सी भी मुस्कुराहट का जुगाड़ ही न कर पाया...शायद अपने पास बैठे मां-बाप के डर से उसे लग रहा होगा कि खामखां बाद में डांट पड़ेगी..अनजान लोगों की मुस्कान का जवाब मुस्कान से देने के लिए...खैर, मुझे इस बालक पर बहुत तरस आया ..पता नहीं क्यों। हां, सत्संग में यह बताया गया था कुछ साल पहले जब लखनऊ में रहते थे कि किसी की मुस्कान पाने के लिए पहले ख़ुद मुस्कुरा दिया कीजिेए....खैर, बंबई में बहुत बार सब प्रवचन धरे के धरे रह जाते हैं...अब तो सत्संग जाना ही बंद है...वॉटसएप पर ही एक से एक धुरंधर ज्ञानी-ध्यानी टकर जाते हैं कि सच में रोम-रोम की सफ़ाई कम कर देते हैं ...मन को पुलकित कर देते हैं..बस, बस रूह को ही नहीं छू पाते.
खैर, मेरे बैग से निकली अखबार अभी मेरे हाथ में बिना खोले ही पकड़ी हुई थी कि मेरे कानों में साथ वाले पैसेंजर की फोन पर किसी से बात होने लगी.
हां, हां, छः पीस चाहिए...तुम्हें बताया न किस के लिए चाहिए... (मैं नाम नहीं लिख रहा हूं...) जो सेंटर में फलां-फलां मिनिस्टर है ...उस के लिए चाहिए और अर्जैंट है...क्या करें, उस के शहर में हमारा कोई डिस्ट्रीब्यूटर नहीं है, आर्डर यहीं से भिजवाना होगा...
इतना सुन कर मेरे तो भई कान खड़े हो गए...अब लिखने वालों का मसाला क्या है, सब से साथ मिल-जुल कर रहना, बोलना-बतियाना...अपने मन की कहना भी, दूसरों की सुनना भी, आते जाते दीन-दुनिया की ख़बर रखना, बिना किसी वजह के भी इधर उधर कहीं भी मटरगश्ती करने निकल पड़ना....(अभी गूगल पर इस का अर्थ देख कर इत्मीनान हुआ..वरना, पता नहीं न चलता किस बात का बतंगढ़ बन जाए...निश्चिंत होकर प्रसन्नतापूर्वक व्यर्थ इधर-उधर घूमने की क्रिया है कुछ और नहीं, गूगल ने भी बता दिया..
उस बडे़ केंद्रीय मंत्री का नाम सुनने के बाद और उस तक कोई माल पहुंचाए जाने की बात सुन कर फिर नीरस अखबार में किस का मन लगे ...लेकिन यहां बंबई मे ंरहते हुए यहां के तौर-तरीके सीखने भी तो ज़रूरी हैं....सीखने पड़ते नहीं, ज़माना ही सिखा देता है ...इसलिए किसी अनजान इंसान से उस की फोन पर हुई गुफ्तगू का ब्यौरा पूछना यह ऐसी बात है जिस का बंबई में तस्सवुर भी कर पाना नमुमकिन है ...खैर, कभी कभी ऐसे लगने लगा है कि ये ब्लॉग-व्लॉग लिखने वाले भी बड़े ढीठ किस्म के प्राणी होते हैं ....मन में चल रहा कौतूहल शांत करने के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं और यही हुआ....
......(उस मंत्री का नाम लेकर मैं पास बैठे बंदे पर एक सवाल दाग ही दिया..) क्या पहुंचा रहे हो जी उसे ?...मुझे अभी याद नहीं कि मैंने उसे पंजाबी में पूछा या हिंदी में ..लेकिन अगर हिंदी में भी पूछा होगा तो भी मेरा लहजा पंजाबी में पूछने जैसा ही रहा होगा..। मैंने झिझकते झिझकते सवाल तो दाग दिया .....लेकिन यह मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था..मुझे शायद कहीं न कहीं यही लगा होगा कि या तो वह जवाब दे देगा ...और मुझे कोई बेवकूफ समझ कर जवाब नहीं भी देगा तो मेरी सेहत पर कुछ खास असर होगा नहीं...ज़िंदगी में वैसे ही इतनी ज़िल्लत झेल चुके हैं कि यह तो मामूली बात है ...
"थालीयां "........उस बंदे ने जवाब दे दिया...
वह राजसी ठाठ-बाठ...क्या कहने...सब कुछ टनाटन.. |
लेकिन मेरी जिज्ञासा भी तो ऐसे थोड़ा न शांत हो जाती ...उसने आगे बताया कि वह जिस कंपनी के लिए काम करता है ये उस की थालीयां हैं। मैंने पूछा कि क्या स्पैशल है इन थालियों में ....उसने झट से अपने मोबाइल में मुझे उन थालियों की तस्वीर दिखाई तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गई ...मैंने इस तरह की थालियां पहले नहीं देखी थीं..मैंने पूछा कि क्या वह मंत्री इस थाली में खाना खाता है ...उसने इस की पुष्टि की ..
हां, एक बात जिस तरह से उसने थालीयां कहा....उस से मुझे यह भान सा हुआ कि यह तो पंजाबी लग रहा है ...बस, एक बार यह पता चला तो आगे की सभी बातें हमारी पंजाबी में ही हुईं। हम दोनों ने फोन एक्सचेंज किए ...उसने अपना कार्ड दिया, मेरे पास तो कोई कार्ड-वार्ड है नहीं, सोच रहा हूं रिटायरमैंटी के बाद ज़रूर छपवा लूंगा...अभी तक तो इस की कोई ज़रूरत महसूस हुई नहीं कभी ....
अपनी जो मातृ-भाषा है यह भी एक ऐसी फेविक्विक है ..जो झट से लोगों को जोड़ देती है ...यह मैं नहीं कहता, ज़माना कहता है ..कोई भी कहे या न कहे लेकिन है यह बिल्कुल सच्चाई। हां, तो जब उसने मुझे अपनी कंपनी का नाम बताया...और वे बेहतरीन, आलीशान किस्म की इस तरह की थालीयां बनाते हैं, कटलरी बनाते हैं...
आगे की सारी गुफ्तगू पंजाबी में करते रहे ...यह पता चला कि है तो यह थाली आठ हज़ार की ...लेकिन कोई डिस्काउंट के चलते चार हजार की मिल जाएगी। उसे देखते ही मैंने मन तो बना लिया कि चार की हो या छः हज़ार की ...मैं तो यह ज़रूर खरीद ही लूंगा ...लेकिन फिर ख्याल खाया कि खरीद तो ले लूंगा...लेकिन इन का करूंगा क्या...वैसे ही मुझे एक वक्त में एक दाल या एक सब्जी ही तो अच्छी लगती है ...दाल या सब्जी कोई भी एक ..लेकिन अगर सब्जी सूखी है और साथ में थोडा़ रायता मिल जाए तो बस हो गया उस दिन के शुकराने का जुगाड़ ....ऐसे में मेरे जैसा बंदा इन थालियों को अपने सिर मारेगा ...पडी़ रहेंगी उन बेहतरीन लखनऊ से खरीदी कुछ मैलामाइन टाइप की थालियों की तरह जो खरीदी तो मैंने बड़े शौक से थी ..लेकिन उन में कभी भी रोटी खाने की इच्छा हुई ही नहीं..अभी आप को उन की फोटो दिखाता हूं ...
पता नहीं क्यों मुझे तो इन प्लेटों में रोटी खाते क्यों इतनी घुटन महसूस होती है ...कभी नहीं खाता हूं... |
कुछ महीने पहले हम लोग ट्रेन में कहीं जा रहे थे तो एक परिवार को एक एल्यूमीनियम की परातनुमा-थाली में दाल-भात , रोटी तरकारी खाते देखा...मैंने उस वक्त कहा कि हमें भी ऐसी ही थालियां ले लेनी चाहिएं...मेरे साथ जो था, वह तो इस परात नुमा थाली पर इतना फिदा हुआ कि कहने लगा कि स्टेशन पर उतर कर पहले इस तरह की थाली ढूंढते हैं ... जितना भी राशन-पानी चाहिए, एक बार इस में डाल कर बंदा बस पासे हो जाए ....और इत्मीनान से छकता रहे...
यह परात-नुमा थाली बहुत बढ़िया लगी ... |
हम लोगों ने बिना वजह इतने तामझाम फैलाए हुए हैं...बात तो भूख की है, वह करोड़ों रूपये पास होते हुए भी कोई खरीद नहीं पाता ....जब किसी की भूख मर जाती है न तो उस के साथ साथ उस से जुड़े लोगों की भूख भी मर जाती है ...इसी तरह से जब अपनी मां की भूख ही मर गई , वह बेचारी सूख कर कांटा हो गई तो तिल तिल उसे अपने हाथों से फिसलने का दुःख देखा तो उस के बाद यही लगा कि दुनिया में सब से अच्छी बात है किसी बंदे को भूख लगना ...और उसे शांत करने के लिए वह हज़ारों की थाली ले या पत्तल या हाथ पर ही रख कर परशादे छक ले, कुछ भी फ़र्क पड़ता भी नहीं, हम ने देखा भी नहीं ...
यह क्या मैं तो बोरीवली जाता जाता कहीं का कहीं निकल गया...हां तो उस पैसेंजर से बातें चलती रहीं...मुझे इन थालियों को देख कर जो जिज्ञासा हुई तो मैंने उससे निवारण कर लिया। उसने बताया कि ये गोल्ड-कोटेड है ...गोल्ड नहीं ..बस कोटेड था, बता रहा था कि गोल्ड कोटेड हो तो आठ हज़ार की नहीं अस्सी हजार की मिलेगी। मैंने पूछा कि इसे कलई करवाने की कभी जरूरत पड सकती है ..उसने बताया नहीं। मैंने उसे इसलिए पूछा कि जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घरों में पीतल के ही बर्तन होते थे, जिन्हें कलई करने के लिए गली गली, मोहल्ले मोहल्ले में कली करने वाले घूमा करते थे ..मां को उड़ीक रहती कलई करवाने की और हमें रहती उस के साथ बैठ कर, उस की छोटी सी भट्ठी को निहारते अपना टाइम-पास करने की ...मुझे याद आ रहा है कि मैंने अपने पंजाबी ब्लॉग में अपनी कलई वाली यादें सहेजी हुई हैं, अगर पंजाबी पढ़ पाते हैं तो आप भी इसे पढ़ सकते हैं, यह रहा इस का लिंक ...वरना मैं इन कलई वालों के ऊपर फिल्माया गया पंजाबी का एक सुपर-हिट गीत यहां पर लगा देता हूं ....
दरअसल बात अपने अपने शौक की भी है...टेस्ट की है...कुछ लोगों की एस्थैटिक-सैंस और टेस्ट बहुत नफ़ीस होते हैं ...मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं ..वहां की जो मेडीकल-डायरेक्टर हैं...उन की एस्थैटिक-सैंस का भी जवाब नहीं....एक बात बताता हूं ..सरकारी अस्पतालों में कैलेंडर लगते हैं हर साल ..लेकिन अभी तक 30-32 बरसों से देख रहा था कि लकड़ी के फ्रेम से जब पुराना कैलेंडर निकाल कर नया कैलेंडर लगाना होता तो यह भी एक छोटा मोटा स्यापा ही लगता है ..पहले कोई सरकारी तरखान जी आएंगे ...अपने सहायक के साथ..फिर ठोका-पीटी होगी ...कभी कील निकल जाएगा...कभी गट्टी ढीली पड़ी मिलेगी, कभी कैलेंडर रखते हुए सरक जाएगा ....और दो-चार बाद याद दिलाने के बाद ही बढ़ई साहब पहुंचेंगे ...लेकिन हमारे अस्पताल में जिस तरह के फ्रेम्स में ये कैलेंडर अब लगे हुए हैं वैसे फ्रेम मैंने कभी नहीं देखा...कभी मेरा ध्यान इस तरफ़ गया नहीं था...लेकिन कुछ महीने पहले जब एक चपरासी कैलेंडर बदलने आया तो मुझे हैरानी हुई कि इस के पास ठोका-पीटी का जुगाड़ तो है नहीं ......लेकिन, नहीं, आधे मिनट में ही उसने वह कैलेंडर बदल दिया..बिना फ्रेम को दीवार से उतारे, बिना उसे खोले ...वह बहुत ही बेहतरीन किस्म का है, बस आप समझ लीजिए कि किसी बच्चे के स्टील के टिफिन में परांठे पैक करते वक्त जितना वक्त लगता है उतने ही वक्त में कैलेंडर बदल दिया जाता है ......सब अपने अपने टेस्ट की बात है!! काश, मेरे पास इस वक्त उस कैलेंडर के फ्रेम की तस्वीर होती तो उसे आपसे साझा ज़रूर करता..और मैंने किसी से पूछा नहीं कि ये कैलेंडर फ्रेम किस की पसंद हैं, क्योंकि मुझे पता है कि उन के अलावा हमारे आसपास कोई इतनी बारीकी से चीज़ों को देख ही नहीं पाता...वह हम सब के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं..🙏
हां, स्टेशन से बाहर आते वक्त मैं उन महान सियासतकारों के बारे में सोच रहा था कि जो चांदी के चम्मचों के बीच पैदा होते हैं (born with silver spoon 😉 types!) घरों में खाना तो इस तरह की सजावटी, महंगी थालीयों में खाते हैं ...और जब वे किसी मजदूर के झोंपड़े मे जाते हैं तो कैसे मिट्टी के बर्तनों में दाल-रोटी का लुत्फ़ लेते हैं ...अब यह पता नहीं, लुत्फ सच में लेते भी हैं, या ........खैर, अकसर वे इन घरों में खाना खाते वक्त ज़मीन पर बैठे तो दिखाई देते हैं ..यही क्या कम है, वे महान हैं.......मेरे जैसे लोग तो पालथी मार कर ज़मीन पर ही नहीं बैठ पाते ....मैं किसी की क्या बात करूं😎...