रविवार, 1 मई 2022

और बोरीवली स्टेशन आने का पता ही न चला...

कल शनिवार की दोपहर पौने तीन के करीब मैं दादर स्टेशन पर था...मुझे बोरीवली की फॉस्ट-लोकल पकड़नी थी...लेकिन यह क्या ट्रेन तो आ भी गई और मैं अभी तक स्टॉल वाले को ज़िम-ज़ैम बिस्कुट के पैकेट के दाम देने के लिए जेब से बटुआ निकाल रहा था ..खैर, मिल गई गाड़ी ... वैसे तो हमारा भी एक उसूल है कि गाड़ी एक बार चल पड़े तो चाहे वह कितनी भी धीमी हो, उसे भाग कर नहीं पकड़ना...क्या करें, और कुछ न सही, बूढ़ी हो रही हड्डियों की तो फ़िक्र खुद ही करनी पड़ती है...

लोकल ट्रेन के पहले दर्जे में बैठने की जगह मिल गई ...सब से पहले तो उस बिस्कुट के पैकेट पर हाथ साफ़ करना शुरू किया...अब पिछले डेढ़-दो साल से यह लत सी पड़ गई है कि लोकल ट्रेन में बैठने से पहले हल्दी राम या पार्ले जी या ब्रिटॉनिया का कुछ पैकेट लेकर ही चढ़ना है ...ये बिस्कुट विस्कुट के पैकेट ऐसे खाने तो मुझे अपने शरीर के साथ ज़ुल्म करने जैसा लगता है ...मुझे ख़्याल आता तो है कि मरीज़ों को तुम सारा दिन ये सब जंक खाने के लिए डांटते रहते हो ..और ख़ुद !! शायद इसी लिए अपनी बात कोई नहीं मानता..। मेरी दिक्कत यह है कि मुझे जब भूख लगती है तो मुझे वड़ा-पाव, भेल, पाव-भाजी, समोसा ..कुछ भी खाना अच्छा नहीं लगता...अगर खाता भी हूं कभी या ये लोग मंगवाते भी हैं तो बहुत ही गिनी-चुनी दुकानों से ...खैर, बिस्कुट का खाली लिफ़ाफ़ा अपने बैग में ठूंस कर अखबार निकाल ली ...इतने में सामने वाली सीट पर बैठा एक 10-12 बरस का बालक मेरी तरफ़ देख रहा था ..शायद सोच रहा होगा कि यह भी अजीब बंदा है, पूरे का पूरा पैकेट ही रगड़ गया....सत्संग में सुने प्रवचनों के आधार पर मैं उस बालक को देख कर मुस्कुरा दिया...लेकिन यह क्या, उस बेचारे ने भरपूर कोशिश तो की ..लेकिन वह एक अदद हल्की सी भी मुस्कुराहट का जुगाड़ ही न कर पाया...शायद अपने पास बैठे मां-बाप के डर से उसे लग रहा होगा कि खामखां बाद में डांट पड़ेगी..अनजान लोगों की मुस्कान का जवाब मुस्कान से देने के लिए...खैर, मुझे इस बालक पर बहुत तरस आया ..पता नहीं क्यों। हां, सत्संग में यह बताया गया था कुछ साल पहले जब लखनऊ में रहते थे कि किसी की मुस्कान पाने के लिए पहले ख़ुद मुस्कुरा दिया कीजिेए....खैर, बंबई में बहुत बार सब प्रवचन धरे के धरे रह जाते हैं...अब तो सत्संग जाना ही बंद है...वॉटसएप पर ही एक से एक धुरंधर ज्ञानी-ध्यानी टकर जाते हैं कि सच में रोम-रोम की सफ़ाई कम कर देते हैं ...मन को पुलकित कर देते हैं..बस, बस रूह को ही नहीं छू पाते.

खैर, मेरे बैग से निकली अखबार अभी मेरे हाथ में बिना खोले ही पकड़ी हुई थी कि मेरे कानों में साथ वाले पैसेंजर की फोन पर किसी से बात होने लगी.

हां, हां, छः पीस चाहिए...तुम्हें बताया न किस के लिए चाहिए... (मैं नाम नहीं लिख रहा हूं...) जो सेंटर में फलां-फलां मिनिस्टर है ...उस के लिए चाहिए और अर्जैंट है...क्या करें, उस के शहर में हमारा कोई डिस्ट्रीब्यूटर नहीं है, आर्डर यहीं से भिजवाना होगा...

इतना सुन कर मेरे तो भई कान खड़े हो गए...अब लिखने वालों का मसाला क्या है, सब से साथ मिल-जुल कर रहना, बोलना-बतियाना...अपने मन की कहना भी, दूसरों की सुनना भी, आते जाते दीन-दुनिया की ख़बर रखना, बिना किसी वजह के भी इधर उधर कहीं भी मटरगश्ती करने निकल पड़ना....(अभी गूगल पर इस का अर्थ देख कर इत्मीनान हुआ..वरना, पता नहीं न चलता किस बात का बतंगढ़ बन जाए...निश्चिंत होकर प्रसन्नतापूर्वक व्यर्थ इधर-उधर घूमने की क्रिया है कुछ और नहीं, गूगल ने भी बता दिया..

उस बडे़ केंद्रीय मंत्री का नाम सुनने के बाद और उस तक कोई माल पहुंचाए जाने की बात सुन कर फिर नीरस अखबार में किस का मन लगे ...लेकिन यहां बंबई मे ंरहते हुए यहां के तौर-तरीके सीखने भी तो ज़रूरी हैं....सीखने पड़ते नहीं, ज़माना ही सिखा देता है ...इसलिए किसी अनजान इंसान से उस की फोन पर हुई गुफ्तगू का ब्यौरा पूछना यह ऐसी बात है जिस का बंबई में तस्सवुर भी कर पाना नमुमकिन है ...खैर, कभी कभी ऐसे लगने लगा है कि ये ब्लॉग-व्लॉग लिखने वाले भी बड़े ढीठ किस्म के प्राणी होते हैं ....मन में चल रहा कौतूहल शांत करने के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं और यही हुआ....

......(उस मंत्री का नाम लेकर मैं पास बैठे बंदे पर एक सवाल दाग ही दिया..) क्या पहुंचा रहे हो जी उसे ?...मुझे अभी याद नहीं कि मैंने उसे पंजाबी में पूछा या हिंदी में ..लेकिन अगर हिंदी में भी पूछा होगा तो भी मेरा लहजा पंजाबी में पूछने जैसा ही रहा होगा..। मैंने झिझकते झिझकते सवाल तो दाग दिया .....लेकिन यह मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था..मुझे शायद कहीं न कहीं यही लगा होगा कि या तो वह जवाब दे देगा ...और मुझे कोई बेवकूफ समझ कर जवाब नहीं भी देगा तो मेरी सेहत पर कुछ खास असर  होगा नहीं...ज़िंदगी में वैसे ही इतनी ज़िल्लत झेल चुके हैं कि यह तो मामूली बात है ...

"थालीयां "........उस बंदे ने जवाब दे दिया...

वह राजसी ठाठ-बाठ...क्या कहने...सब कुछ टनाटन..

लेकिन मेरी जिज्ञासा भी तो ऐसे थोड़ा न शांत हो जाती ...उसने आगे बताया कि वह जिस कंपनी के लिए काम करता है ये उस की थालीयां हैं। मैंने पूछा कि क्या स्पैशल है इन थालियों में ....उसने झट से अपने मोबाइल में मुझे उन थालियों की तस्वीर दिखाई तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गई ...मैंने इस तरह की थालियां पहले नहीं देखी थीं..मैंने पूछा कि क्या वह मंत्री इस थाली में खाना खाता है ...उसने इस की पुष्टि की ..

हां, एक बात जिस तरह से उसने थालीयां कहा....उस से मुझे यह भान सा हुआ कि यह तो पंजाबी लग रहा है ...बस, एक बार यह पता चला तो आगे की सभी बातें हमारी पंजाबी में ही हुईं। हम दोनों ने फोन एक्सचेंज किए ...उसने अपना कार्ड दिया, मेरे पास तो कोई कार्ड-वार्ड है नहीं, सोच रहा हूं रिटायरमैंटी के बाद ज़रूर छपवा लूंगा...अभी तक तो इस की कोई ज़रूरत महसूस हुई नहीं कभी ....

अपनी जो मातृ-भाषा है यह भी एक ऐसी फेविक्विक है ..जो झट से लोगों को जोड़ देती है ...यह मैं नहीं कहता, ज़माना कहता है ..कोई भी कहे या न कहे लेकिन है यह बिल्कुल सच्चाई। हां, तो जब उसने मुझे अपनी कंपनी का नाम बताया...और वे बेहतरीन, आलीशान किस्म की इस तरह की थालीयां बनाते हैं, कटलरी बनाते हैं...

आगे की सारी गुफ्तगू पंजाबी में करते रहे ...यह पता चला कि है तो यह थाली आठ हज़ार की ...लेकिन कोई डिस्काउंट के चलते चार हजार की मिल जाएगी। उसे देखते ही मैंने मन तो बना लिया कि चार की हो या छः हज़ार की ...मैं तो यह ज़रूर खरीद ही लूंगा ...लेकिन फिर ख्याल खाया कि खरीद तो ले लूंगा...लेकिन इन का करूंगा क्या...वैसे ही मुझे एक वक्त में एक दाल या एक सब्जी ही तो अच्छी लगती है ...दाल या सब्जी कोई भी एक ..लेकिन अगर सब्जी सूखी है और साथ में थोडा़ रायता मिल जाए तो बस हो गया उस दिन के शुकराने का जुगाड़ ....ऐसे में मेरे जैसा बंदा इन थालियों को अपने सिर मारेगा ...पडी़ रहेंगी उन बेहतरीन लखनऊ से खरीदी कुछ मैलामाइन टाइप की थालियों की तरह जो खरीदी तो मैंने बड़े शौक से थी ..लेकिन उन में कभी भी रोटी खाने की इच्छा हुई ही नहीं..अभी आप को उन की फोटो दिखाता हूं ...

पता नहीं क्यों मुझे तो इन प्लेटों में रोटी खाते क्यों इतनी घुटन महसूस होती है ...कभी नहीं खाता हूं...

कुछ महीने पहले हम लोग ट्रेन में कहीं जा रहे थे तो एक परिवार को एक एल्यूमीनियम की  परातनुमा-थाली में  दाल-भात , रोटी तरकारी खाते देखा...मैंने उस वक्त कहा कि हमें भी ऐसी ही थालियां ले लेनी चाहिएं...मेरे साथ जो था, वह तो इस परात नुमा थाली पर इतना फिदा हुआ कि कहने लगा कि स्टेशन पर उतर कर पहले इस तरह की थाली ढूंढते हैं ...  जितना भी राशन-पानी चाहिए, एक बार इस में डाल कर बंदा बस पासे हो जाए ....और इत्मीनान से छकता रहे...

यह परात-नुमा थाली बहुत बढ़िया लगी ...

हम लोगों ने बिना वजह इतने तामझाम फैलाए हुए हैं...बात तो भूख की है, वह करोड़ों रूपये पास होते हुए भी कोई खरीद नहीं पाता ....जब किसी की भूख मर जाती है न तो उस के साथ साथ उस से जुड़े लोगों की भूख भी मर जाती है ...इसी तरह से जब अपनी मां की भूख ही मर गई , वह बेचारी सूख कर कांटा हो गई तो तिल तिल उसे अपने हाथों से फिसलने का दुःख देखा तो उस के बाद यही लगा कि दुनिया में सब से अच्छी बात है किसी बंदे को भूख लगना ...और उसे शांत करने के लिए वह हज़ारों की थाली ले या पत्तल या हाथ पर ही रख कर परशादे छक ले, कुछ भी फ़र्क पड़ता भी नहीं, हम ने देखा भी नहीं ...

यह क्या मैं तो बोरीवली जाता जाता कहीं का कहीं निकल गया...हां तो उस पैसेंजर से बातें चलती रहीं...मुझे इन थालियों को देख कर जो जिज्ञासा हुई तो मैंने उससे निवारण कर लिया। उसने बताया कि ये गोल्ड-कोटेड है ...गोल्ड नहीं ..बस कोटेड था, बता रहा था कि गोल्ड कोटेड हो तो आठ हज़ार की नहीं अस्सी हजार की मिलेगी। मैंने पूछा कि इसे कलई करवाने की कभी जरूरत पड सकती है ..उसने बताया नहीं। मैंने उसे इसलिए पूछा कि जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घरों में पीतल के ही बर्तन होते थे, जिन्हें कलई करने के लिए गली गली, मोहल्ले मोहल्ले में कली करने वाले घूमा करते थे ..मां को उड़ीक रहती कलई करवाने की और हमें रहती उस के साथ बैठ कर, उस की छोटी सी भट्ठी को निहारते अपना टाइम-पास करने की ...मुझे याद आ रहा है कि मैंने अपने पंजाबी ब्लॉग में अपनी कलई वाली यादें सहेजी हुई हैं, अगर पंजाबी पढ़ पाते हैं तो आप भी इसे पढ़ सकते हैं, यह रहा इस का लिंक ...वरना मैं इन कलई वालों के ऊपर फिल्माया गया पंजाबी का एक सुपर-हिट गीत यहां पर लगा देता हूं ....


हां तो बातें करते करते उस बंदे को एक फोन आया तो उसने ऐसी फर्राटेदार गुजराती में बात की ...कि मैंने पूछ ही लिया कि गुजराती भी इतनी धमाकेदार ...कहने लगा कि क्या करें, सेल्स से जुड़े हैं तो अलग अलग भाषाएं बोलनी पड़ती हैं..। फिर वह कहने लगा कि हम लोगों ने कभी पंजाबी घर में अपने माता-पिता से भी नहीं बोली...और उसने फिर कहा कि मैं पंजाबी न होते हुए भी कैसे पंजाबी बोल लेता हूं, मुझे पता नहीं ...उसने बताया कि वह मुल्तानी है... लेकिन उसे इस बात की समझ न थी कि मुल्तान जहां से उस के माता-पिता आए बंटवारे के वक्त वह भी तो पंजाब का ही हिस्सा था...खैर, मैंने उसे यही कहा । कहने लगा कि मां-बाप को गुज़रे तो अरसा हो गया...मैंने पूछा कि क्या वे यहीं रहते थे ...तो उसने कहा कि जी हां, हम उन के पास रहते थे, हमारी क्या बिसात कि हम उन्हें अपने आप रखते ...अच्छी लगी उस की बात ...

फिर अचानक पता नहीं उसे क्या ख्याल आया कि कहने लगा कि ये सब रईस लोगों के शौक हैं...जिन के पास भरपूर दौलत है, वरना थाली तो थाली है कोई भी ...रोटी ही खानी है ...उस वक्त मुझे वह बंदा बिल्कुल वैसा लगा जैसा मैं दूसरों को लगता होऊंगा जब मैं उन्हें बेकार में महंगे माउथ-वॉश न खरीदने के लिए कहता हूं ...इस की बजाए अच्छे से दो वक्त ब्रुश और रोज़ाना जीभ-छलनी से जीभ की सफाई करने की नसीहत दे डालता हू...

मैंने बताया कि मैं जहां नौकरी करता हूं ...पूछने लगा कि अभी भी करते हैं....आज कल जब से सवाल मुझ से लोग करने लगे हैं तो मुझे इस बात का डर लगने लगता है कि यार, क्या मैं सच मे ंइतना बूढा़ लगने लगा हूं कि लोगों को लगता होगा कि इसे तो रिटायर हुए बरसों हो गए होंगे...वैसे मैं रिटायर होने की सोच तो रहा हूं ...मुझे घर से, बच्चों की ओर से बड़ा प्रेशर है कि छोड़ो, अब हो गई न  नौकरी...देखता हूं क्या करता हूं...। और जब मैं कहता हूं कि मैं बोर हो जाऊंगा तो सब लोग इतने ठहाके लगाते हैं कि क्या कहूं ..कहते हैं आप और बोरियत....आप के इतने शौक हैं, इतनी हॉबी हैं, नित नईं हॉबी ....आप तो बोरियत से बचने के लिए किताब लिखने की बातें करते हैं...

खैक. अभी बातें और चलनी थीं...लेकिन जब गाड़ी रुकी तो देखा बोरीवली स्टेशन आ गया है ...मुझे यही महसूस हुआ कि किस तरह से अगर आस पास लोगों के साथ एक जुड़ाव महसूस करते हैं तो वक्त तो क्या, ज़िंदगी कैसे कट जाती है पता ही नहीं चलता...और हर वक्त तने तने से रह कर पेड़ के तने की तरह ऐंठे ही रहते हैं ...ख्याल है अपना अपना...लेकिन एक बात तो है आज जितनी जल्दी बोरीवली आ गया, उतनी जल्दी पहले तो कभी नहीं आया...अभी दस मिनट और भी लग जाते तो चलता था, चार बातें हम लोग और साझा कर लेते.. 😂 हम भी ठहरे पक्के नहीं तो छोटे मोटे उभरते हुए किस्सागो!!

दरअसल बात अपने अपने शौक की भी है...टेस्ट की है...कुछ लोगों की एस्थैटिक-सैंस और टेस्ट बहुत नफ़ीस होते हैं ...मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं ..वहां की जो मेडीकल-डायरेक्टर हैं...उन की एस्थैटिक-सैंस का भी जवाब नहीं....एक बात बताता हूं ..सरकारी अस्पतालों में कैलेंडर लगते हैं हर साल ..लेकिन अभी तक 30-32 बरसों से देख रहा था कि लकड़ी के फ्रेम से जब पुराना कैलेंडर निकाल कर नया कैलेंडर लगाना होता तो यह भी एक छोटा मोटा स्यापा ही लगता है ..पहले कोई सरकारी तरखान जी आएंगे ...अपने सहायक के साथ..फिर ठोका-पीटी होगी ...कभी कील निकल जाएगा...कभी गट्टी ढीली पड़ी मिलेगी, कभी कैलेंडर रखते हुए सरक जाएगा ....और दो-चार बाद याद दिलाने के बाद ही बढ़ई साहब पहुंचेंगे ...लेकिन हमारे अस्पताल में जिस तरह के फ्रेम्स में ये कैलेंडर अब लगे हुए हैं वैसे फ्रेम मैंने कभी नहीं देखा...कभी मेरा ध्यान इस तरफ़ गया नहीं था...लेकिन कुछ महीने पहले जब एक चपरासी कैलेंडर बदलने आया तो मुझे हैरानी हुई कि इस के पास ठोका-पीटी का जुगाड़ तो है नहीं ......लेकिन, नहीं, आधे मिनट में ही उसने वह कैलेंडर बदल दिया..बिना फ्रेम को दीवार से उतारे,  बिना उसे खोले ...वह बहुत ही बेहतरीन किस्म का है, बस आप समझ लीजिए कि किसी बच्चे के स्टील के टिफिन में परांठे पैक करते वक्त जितना वक्त लगता है उतने ही वक्त में कैलेंडर बदल दिया जाता है ......सब अपने अपने टेस्ट की बात है!! काश, मेरे पास इस वक्त उस कैलेंडर के फ्रेम की तस्वीर होती तो उसे आपसे साझा ज़रूर करता..और मैंने किसी से पूछा नहीं कि ये कैलेंडर फ्रेम किस की पसंद हैं, क्योंकि मुझे पता है कि उन के अलावा हमारे आसपास कोई इतनी बारीकी से चीज़ों को देख ही नहीं पाता...वह हम सब के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं..🙏

हां, स्टेशन से बाहर आते वक्त मैं उन महान सियासतकारों के बारे में सोच रहा था कि जो चांदी के चम्मचों के बीच पैदा होते हैं (born with silver spoon 😉 types!) घरों में खाना तो इस तरह की सजावटी, महंगी थालीयों में खाते हैं ...और जब वे किसी मजदूर के झोंपड़े मे जाते हैं तो कैसे मिट्टी के बर्तनों में दाल-रोटी का लुत्फ़ लेते हैं ...अब यह पता नहीं, लुत्फ सच में लेते भी हैं, या ........खैर, अकसर वे इन घरों में खाना खाते वक्त ज़मीन पर बैठे तो दिखाई देते हैं ..यही क्या कम है, वे महान हैं.......मेरे जैसे लोग तो पालथी मार कर ज़मीन पर ही नहीं बैठ पाते ....मैं किसी की क्या बात करूं😎...


हां तो बोरीवली जाते हुए सफर का पता नहीं चला जिस का ब्यौरा आपने पढ़ लिया ..लेकिन वापिस लौटते वक्त भी सफ़र का पता नहीं चला क्योंकि नसीब से ए.सी लोकल गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी मिल गई ... 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

ज़िंदगी ज़िंदाबाद....

मुझे कईं बार यह ख्याल आता है कि आदमी का क़द जितना बड़ा हो जाता है, उतना ही वह दुनिया से कटना शुरू हो जाता है...कद़ से मतलब यहां है रुतबा...इतने इतने नामचीन लोग हैं, कभी आप को फुटपाथ पर थोड़े न दिखेंगे ..हां, एक्टिंग करते वक्त आप उन्हें कभी फुटपाथ पर देख लें तो बात और है ...लेकिन एक्टिंग तो ठहरी एक्टिंग ...और असल ज़िंदगी की तो बात ही क्या है...

मेरी ख़्याल में किसी की शहर की ज़िंदगी उस के गली, कूचे, बाज़ारों, फुटपाथों पर देखी जा सकती है ...और बंबई जैसी जगह हो तो आप इस के रास्तों पर, फुटपाथों पर, लोकल स्टेशनों पर पूरे हिंदोस्तान के दीदार कर सकते हैं ..और सच में ऐसा ही है ...सब कुछ रास्तों पर ही दिखता है ...बहुत से सबक वहीं से सीखते हैं, इन्हीं रास्तों पर चलते हुए हमारी सोई हुए संवेदनाएं जब उठने लगती हैं पता ही नहीं चलता... वह ठीक है कि हम इतने बड़े समाज के हाशिया पर जी रहे लोगों के लिए कर कुछ ख़ास नहीं पाते ...लेकिन दुआ तो कर ही सकते हैं कि सब के दिन पलट जाएं...बदल जाएं, खुशनुमा हो जाएं...

मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि वैसे लिखने-विखने को मेरे पास है कुछ खास नहीं ...मुझे तो सच में लगता है कि मैं एक फ्रॉडिया किस्म का ही लेखक हूं, अगर अपने आप को लेखक कहूं भी तो .....क्योंकि मेरे पास बातें कुछ खास है नहीं कहने को, बस वही बातें इधर उधर से पकड़ कर जब लिख देता हूं मन हल्का हो जाता है ...हां, अभी मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं तो मुझे याद आ गया कि इस पर तो मैं शायद एक डेढ़ साल पहले कल्याण में रहते हुए भी कुछ तो लिख चुका था...ब्लॉग में सर्च किया तो मिल गया...लेकिन मुझे बिल्कुल एक हल्का सा अंदाज़ा ही होता है कि मैंने उसमें क्या लिखा होगाा....लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं उसे लिख कर कभी पढ़ूं नहीं....और खास कर के अगर मुझे अपने किसी पुराने आलेख का लिंक नए आलेख में साझा करना हो...उस हालत में तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि मैं लिखते वक्त ज़्यादा सोचता नहीं ...कुछ तो सोचता ही हूं ..क्या करूं बंदे की जात ही ऐसी होती है ..वरना लिखने को तो इतना कुछ है कि ...खैर, मैं पुराने लेख के लिंक शेयर करते वक्त इसलिए भी उन्हें नहीं पढ़ता क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि बरसों पहले मनोस्थिति कैसी रही होगी, किस घड़ी में क्या लिखा गया...बहुत सी व्यक्तिगत बातें भी लिख देता हूं, इसलिए कभी बाद में पढऩे के बाद मुझे थोड़ा असहज भी महसूस हो सकता है, इसलिए फिर से पढ़ने के लटंके में ही नहीं पड़ता......बस, इतना इत्मीनान तो होता है कि जितना लिखा होगा सच ही लिखा होगा...शायद कहीं कुछ कड़वा सच छुपा लिया हो, हो सकता ही नहीं, होता भी है.....क्या करें, कुछ भी परोसते वक्त स्वाद का भी तो ख्याल रखना पड़ता है ...

दरअसल बात यह है कि मैं अकसर फुटपाथों पर बैठे जब छोटे छोटे दुकानदार देखता हूं तो मैं बहुत हैरान होता हूं ....मैं अकसर यही सोचने लगता हूं कि यार, ये कितना कमा लेते होंगे, फिर भी सामान्य ढंग से रह रहे हैं, एक दूसरे के साथ प्यार-मोहब्बत से पेश आते हैं ...इन लोगों के साथ मोल-भाव कोई क्या करेगा, बड़े बड़े स्टोर्ज़ ने, बड़ी बड़ी ऐप्स ने तो सच में इन की पीठ पर ऐसी चोट मारी है कि वे किस के आगे फरियाद करें...

इसे भी ज़रुर पढ़िएगा कभी ...आम, खरबूज़ा, तरबूज फीका है, अंगूर खट्टे हैं..

जब कभी किसी फुटपाथ पर आप किसी बहुत ही बुज़ुर्ग औरत को सब्जी बेचते देखते हो और उस के अच्छे बर्ताव को देखते हो तो अच्छा लगता है...फिर किसी दिन वह अपनी सब्जियों के बीच में थकी-मांदी सी लेटी हुई दिखती है तो चिंता होती है ...दिल से उसकी सलामती की दुआ निकलती है ...अगले दिन वह अपने टिफिन से इत्मीनान से रोटी-दाल, सब्जी खाती दिखती है तो थोड़ा इत्मीनान होता है ..जब हम कुछ फुटपाथों से आए दिन गुज़रते हैं तो हम वहां पर काम कर रहे लोगों को पहचानने लगते हैं ...

मुुझे नहीं पता कि कितने लोग मेरी इस बात से रिलेट कर पाएंगे ...क्योंकि यह एक दिन का काम नहीं है कि हम फुटपाथ पर हो कर आ गए, बाज़ार टहल आए....सोचता हूं कि शायद ये आदतें जवानी से ही नहीं, बचपन से ही पड़ जाती होगी....रोज़ बहुत से लोगों को देखना, उनसे बतियाना, उन को समझना....होता क्या है, यह करते करते एक वक्त ऐसा आ जाता है कि आप को कोई भी बंदा बुरा या गलत लगता ही नहीं ...सब कुछ चंगा ही चंगा लगने लगता है ...किसी की ज़िंदगी में क्या चल रहा है, हम आसानी से उस की कल्पना कर सकते हैं ...

दादर स्टेशन के बाहर सैंकड़ों दुकानदार फुटपाथ पर अपनी दाल-रोटी कमाने का जुगा़ड़ करते हैं...मैं यह ढंके की चोट पर कह सकता हूं कि ये जो लोग दिन में हर चीज़ की शिकायत ही करते हैं ...अगर वे कुछ दिन इन को आते जाते देख लें न तो ये शिकायत करना तो दूर, मुंह खोलने से पहले कईं बार सोचने लगेंगे। इतनी मुफ़लसी, छोटे छोटे बच्चे...औरतें बेचारी कुपोषित ही नहीं, अनपोषित ही समझिए...मां ही नहीं कुछ खा रही तो गोद उठाए शिशु को कहां से कुछ मिलेगा...पसीने से लथपथ कपड़े...किसी का मर्द उस के सामान के पीछे ही लेटा पड़ा है ...ज़रूरी नहीं कि इस तरह से सोया हुआ हर बंदा बेवड़ा ही हो ..वह बीमार भी हो सकता है, काम धंधा न होने की वजह से परेशान भी हो सकता है ..कुछ भी ....पैसे की कमी भी तो सब से बड़ी बीमारी है ...

एक बुज़ुर्ग 70-75 साल की औरत को अकसर देखता हूं ...उस के पास ताड़गोला रहता है, मुझे यहां मुंबई में रहते हुए अच्छा लगने लगा है...जब भी उस के पास ताड़गोला दिखता है, ज़रूर लेता हूं ...उस के पास ही उस का 10-12 साल का पोता भी बैठा होता है जो या तो मोबाइल पर लगा रहता है ..और या फिर दादी को कुछ दिलाने के लिए तंग करता दिखता है ...यह कोई बड़ी बात नहीं है, वह फुटपाथ पर बैठा है तो मैं उस के बारे में लिखने की गुस्ताखी कर रहा हूं ...लेकिन घरों में आज कल कुछ अलग नहीं हो रहा...खैर, उस बुज़ुर्ग औरत की भी दरियादिली मैं देखता हूं ...कभी उस को पाव-भाजी, कभी पिज़्जा, कभी मैक्केन जैसे पैकेट दिलाती है ...कभी उसे मोबाइल न देखने के लिए कहती है तो वह चिल्लाने लगता है ...सुबह से शाम तक ऐसे ही बैठे रहना, कितना सब्र रखना पड़ता होगा..

अच्छे ऐसे ही बिना किसी मक़सद के कभी कभी अनजान राहों पर, अनजान बाज़ारों में थोड़ा टहल लेने के फायदे तो अनेकों हैं ही ..कोई भी किताब ही लिख दे इस मौज़ू पर ... लेकिन मुझे यह फायदा हुआ कि मैंने इसी आदत की वजह से कम से कम तीन फल चख लिए और अब मुझे जहां भी दिख जाते हैं, ले लेता हूं ...फनस, ताड़गोला, और अंजीर....इससे पहले मैंने कभी ये सब नहीं खाया था ...अगर आप फनस के बारे में मेरी बात पढ़ना चाहते हैं तो मेरा यह एक पुराना लेख पढ़िए...

फनस...  लाजवाब स्वाद!! 




ताड़गोले बेचने वाला...

ताड़गोला तो मैं तीस साल पहले भी मुंबई के बड़े बड़े स्टेशनों पर बिकते देखता तो था..लेकिन पता नहीं था कि यह कमबख्त है ..लेकिन एक दो साल पहले जब किसी ताड़गोले वाले के पास खड़े हो कर उस का कमाल देखा तो बात समझ में आई तो तब से उसे खाना भी भाता है ... 

ताज़ी अंजीर भी खा ली ....😂...अब बचा क्या!!

अंजीर तो मैंने कुछ शायद पहली बार दो चार दिन पहली ही खाई ...हमें तो यही लगता था कि अंजीर सूखी ही होती है ...जो कभी कभी सुबह स्मूदी में पड़ी हमें नसीब हो जाती थी ...लेकिन कभी नहीं सोचा था कि यह ताज़ी भी मिलती है ....बस, वह भी ऐसे बाज़ार में आते जाते ही देखा ....अब खरीद तो ली, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि इसे छिलके के साथ खाना है या छिलका उतार कर ..परसों अपने एक डाक्टर साथी से पूछा कि इस का छिलका भी खा लेते हैं तो उन्होंने कहा कि हां, खाते हैं ...

हर इंसान के कुछ सपने होते हैं ...मेरे भी हैं.........एक तो यह .......लेकिन फिर कभी तबीयत से शेयर करेंगे आपसे वह सपना...क्योंकि दिल से सदा आ रही है कि बस कर, अब चुप भी कर ..हो गया आज के लिए तेरा मन हल्का ..और कितना हल्का करेगा...इसलिए अब जाते जाते एक बहुत अच्छा गीत याद आ रहा है ...जो मेरे लिए दुनिया में सब से बड़ा भजन है ...अरदास है ..क्या नहीं है ...इस में कही एक एक बात से मैं इत्तेफ़ाक रखता हूं ...
 
अच्छा, अब इस पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते माहौल बड़ा अजीब सा हो गया है ...इस का इलाज यही है कि किशोर कुमार का एक गीत सुन लिया जाए ...जिसे मुझे हमारे एक साथी ने दो चार दिन पहले याद दिलाया...वाह...क्या बात है!! ज़िंदगी ज़िंदाबाद...ज़िंदगी ज़िंदाबाद......सहज बने रहिए....😎

और हां, जो बातें मैंने कल्याण में रहते हुए लिखी थीं इस लेख में ..वह भी लगे हाथ पढ़ कर छुट्टी कीजिए..

आज यह सब लिखने में ही अपने तो तीन-चार घंटे ..... 😂लग गए .. जी हां, इतना वक्त लग गया, नेटफ्लिक्स की भाषा में फिल-इन-दा-ब्लैंक्स भरने की कोशिश मत कीजिएगा... ऐसे ही जगह खाली जगह छूट गई थी....

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

दो रंग दुनिया के ...और जीने के दो रास्ते

श्री लाल शुक्ल का एक मशहूर नावल राग दरबारी पढ़ रहा था ..कुछ कुछ रचनाएं जब पढ़ते हैं तो कुछ बातें जैसे दिल में बस जाती हैं...उस नावल में एक वाक्या है पुलिस अधिकारी और उन के चपरासी किसी सड़क पर नाके बंदी किए हुए हैं...ट्रक रोक रहे हैं..और ड्राईवरों के साथ पूछताछ के सिलसिले में श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं ...अफसरनुमा चपरासी, और चपरासी नुमा अफसर....बड़ा मज़ा आया उसे पढ़ कर ...मैं उस को इतने अच्छे से लिख कर ब्यां नही ंकर पाया...देखता हूं अगर यह नावल कहीं सामने ही रखा होगा तो उस पेज की एक फोटो शेयर करूंगा...चपरासी जिस रूआब से बात कर रहे थे, अफसरान उतनी ही दबी आवाज़ में पूछताछ कर रहे थे ...खैर, यह बात मैंने इसलिए कही कि हम कुछ हैं, कोई भी तीसमार खां हैं या नहीं हैं, यह सब पता भी तो लगना चाहिए...लेकिन बहुत बार पता लग ही नहीं पाता...

जिस तरह से पढ़े-लिखे और अनपढ़ में भी कईं बार फ़र्क करना भारी गिरता है.....आप को किस ने कहा कि जाहिल लगने के लिए अनपढ़ होना भी ज़रुरी है ..हम बिना किसी मेहनत-मशक्कत के पढ़े लिखे होते हुए भी अपने जाहिल होने का प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं ...बस, कुछ खास करना नहीं है, बस खांसते और छींकते वक्त पास खड़े और बैठे किसी बंदे का ख्याल नहीं करना है, जितनी ज़ोर से छींक या खांस सकते हैं उस से भी ज़्यादा ज़ोर लगाइए ताकि फेफड़ों की गहराई तक बिल्कुल अंदर तक कुछ बचा न रह जाए....बस, इतना भर कर लेने से ही हमारे आसपास के लोग हमारे बारे में बिना कुछ कहे ही जान लेते हैं....और अगर कहीं नाक में अंगुली घुसा तो फिर तो कहने ही क्या....जाहिलता का पक्का ठोस प्रमाण, आधार कार्ड से भी ज़्यादा पुख्ता, आस पास खड़े-बैठे लोगों में बंट गया...


दुविधा अब यह है मेरे लिए कि सार्वजनिक जगहों पर मैं मॉस्क पहनूं या न पहनूं....क्योंकि मेरे साथ लगभग हर बार ऐसा होता ही है कि जब भी मैंने मॉस्क नहीं पहना होता तो सामने से कोई न कोई मेरे मुंह के ऊपर छींक देता है या खांस देता है ...सच बताऊं, इस कोरोना वरोना ने इतना डरा दिया है कि उस की छींक या खांसी की बौछार किसी ए.के-47 से निकली बौछार से कम नहीं लगती। एक बात और भी तो है कि हर खांसी या छींक की बौछार जो हमारे मुंह तक पहुंच रही है वह हरेक तो कोरोना या टीबी के कीटाणुओं से लैस नहीं है, लेकिन फिर भी डर तो लगता ही है ...मैडीकल साईंटिस्ट कहां सब कुछ जान गए हैं ...कितने रहस्य तो अभी तो प्रकृति ने अभी भी छिपा कर ही रखे हुए हैं ...नहीं तो क्या आप को लगता है हम चुप बैठे रहते, हम कुदरत से और पंग करने लगते ....रब से छेड़खानी करने लगते ...सिर्फ छेड़खानी ही होती तो भी रब सब्र कर लेता लेकिन हम तो रब के साथ वह करने लगते जैसे पंजाबी में लोग एक बात कहते हैं जो लिखने लायक है नहीं ..अगर तो आप ख़ालिस पंजाबी हैं तो समझ जाएंगे, वरना आप को इसे समझने की ज़रूरत ही क्या है, क्यों बेकार के पचड़े में पढ़ रहे है...

हां, आज कल इतनी उमस है कि अगर मॉस्क पहने रहते हैं तो दम घुटने लगता है ..सच में, पसीना, घुटन और पता नहीं क्या क्या। और बिना मॉस्क पहन कर निकलने का हाल तो मैंने ऊपर लिख ही दिया है ... जब पास ही कोई छींक-खांस देता है तो मेरा तो सिर फटने लगता है ...यह तो है अपने सब्र का थैशहोल्ड 😎....इसलिए अभी तक यही असमंजस में हूं कि बाहर निकलते वक्त मॉस्क पहन लिया करूं या अब इसे दूर कहीं फैंक के छुट्टी करूं...

वैसे भी मैं सोच रहा था कि हमारी ज़िंदगी दुविधाओ से भरी होती है ..हर दिन हम कितनी बार दुविधा में होते है, हमें एक रास्ता चुनना होता है ...दुविधा लफ़्ज़ से अच्छा शब्द है दो रास्ते ...हमें दिन में कईं बार एक रास्ता चुनना ही होता है ...अब वह रास्ता हमने सही चुना या गलत...घटिया या बढ़िया...ये सब अपनी अपनी राय है ...लेकिन यह हकीकत तो है कि दिन भर के ये छोटे छोटे फैसले ही हमारी तकदीर बनाते हैं या बिगाड़ते हैं....वैसे यह बात इतनी सीरियस्ली भी लेने वाली है नहीं ..कभी ऐसा नहीं देखा कि अच्छे, बडे़ तर्कसंगत फैसले लेने वाला 150 साल तक जी लिया और घटिया फ़ैसले लेने वाले जवानी ही में लुढक गया...बस, इसे आप तक़दीर कहिए या तदबीर ...लेकिन दिन में हमें रास्ते तो दो दिखते ही हैं हर मोड़ पर ...यही है ज़िंदगी। 

कल मैं हजामत करवाने निकला...रात का वक्त था...जिस भी शहर में रहते हैं वहां एक नाई चुन लेते हैं और उस का भी कोई एक कारीगर ...हजामत करवानी है तो उसी से ..अगर वह नहीं होता तो वापिस लौट आते हैं ...कल भी ऐसा ही हुआ, नाई की दुकान बंद ...ये जो मैं लिख रहा हूं न हजामत, नाई, नाई की दुकान ...इन सब अल्फ़ाज़ में बाल कटवाने की पूरी रस्म है ....इन्हें पढ़ने ही से लग रहा है कि हां, हजामत करवाना भी कुछ अच्छी बात है ...बचपन में हम हजामत ही कहते थे, फिर थोड़ा पढ़ गए और अंग्रेज़ी सीख गए तो कटिंग कहने लगे ..फिर हेयर-ड्रेसर के पास जा रहे हैं, यह कह कर निकलने लगे ....

अच्छा, नाई की दुकान बंद थी...तो मैंने सोचा इतनी दूर आया हं यहां पर एक सर्कुलेटिंग लाईब्रेरी है ...बहुत पुरानी दुकान है, चलिए वहां ही जाया जाए। पूछता, ढूंढता मैं पहुंच गया जी उस दुकान पर...बहुत ही अच्छा लगा...जो बंदा वहां बैठा हुआ था, यह उन के पिता जी के वक्त की दुकान है ...65 साल पुरानी ...बता रहे थे कि दुकान अपनी है, इसलिए बैठे हुए हैं ...वरना तो घर का खर्च निकालना ही मुश्किल हो जाए...हज़ारों किताबें ठूंसी पड़ी हैं, और हज़ारों ही सीडी, डीवीडी ...किताबों से इतनी ठसाठस भरी दुकान देख कर मेरा तो सिर भारी हो गया...लेकिन मेरा वहां से बाहर आने का मन ही नहीं कर रहा था ..दस-पंद्रह मिनट वहां बिताए...और आते वक्त बिना किसी ज़रूरत के भी 200 रूपये की किताबें खरीद लीं...वह बंदा बता रहा था कि उन की मैंबरशिप है ..300 रूपये महीना ...जितनी मर्ज़ी किताबें कोई ले जाए रोज़ और महीने में जितनी चाहे किताबें पढ़ ले...हिंदी की किताबें तो सौ-पचास ही थीं, मराठी और गुजराती की किताबें तो फिर भी थीं ....और अधिकतर 90 फीसदी किताबें इंगलिश की थीं...मैं उस से 50-60साल पुुराना इल्सट्रेटेड वीकली, धर्मयुग और फिल्मफेयर मांग रहा था, उसने नंबर ले लिया है, फोन करेगा...वैसे इन की एक एक कापी तो मैंने खरीदी हुई है ...


हां, इस बंदे के सामने भी दो रास्ते हैं...कह रहा था कि सोच रहे हैं कि उसे थोड़ी मॉड लुक दे कर ..अब सी.डी निकाल दें, और यहां पर स्नेक्स के साथ किताबें पढ़ने के लिए जगह बना दें...जैसा कि आज कल ट्रेंड चल रहा है ..फिर कहने लगा कि वहां पर भी खाने-पीने पर ज़्यादा फोकस रहता है ...उस के मन में भी दुविधा ही चल रही है, ऐसा मुझे लगा ..इस काम को कैसे आगे ले जाएं....वैसे बंदा कुछ इमोशनल सा ही था जिसे पिता जी धरोहर से भी मोहब्बत तो बहुत थी लेकिन आगे ज़माने के साथ चलने की मजबूरी थी ...बता रहा था कि दूसरे शहरों से भी लोग, बडे़ बड़े अधिकारी उन के बच्चे, दूसरे देशों के भी लोग आते हैं ..उन के लिए लाइब्रेरी के नियम अलग हैं, वे एक महीने तक भी किताबें रख सकते हैं....

वहां खड़े खड़े मुझे अच्छा तो लग रहा था ...लेकिन किताबों की इतनी भीड़ में मेरा सिर दुख गया...जो घर पहुंचने के बाद भी...सोने तक दुखता ही रहा ...हर इंसान के सामने दो रास्ते हैं ...उसे अपनी समझ, अपनी तजुर्बे, अपनी ज़रूरत, अपनी तकदीर के मुताबिक एक रास्ता तो सुनना ही होता है...


आज सुबह मैं सैर करने निकला तो मुझे दो रास्ते फिल्म याद आ गई...स्टोरी तो पुरी याद नहीं लेकिन फि्लम बहुत अच्छी थी...अभी मैं मोबाईल पर इस फिल्म का गीत सुन ही रहा था कि सामने वह जगह दिख गई जहां इस फिल्म के हीरो राजेन खन्ना का बंगला आर्शीवाद हुआ करता था ...अब तो वहां पर आलीशान बिल्डींग बन चुकी है ...



यह दिल है मेरा या है इक यादों की अल्मारी ....😎