रविवार, 16 जनवरी 2022

आनंद बक्शी साहब का जादू

बक्शी साहब पर लिखी यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध है ...इसे ज़रूर पढ़िए...

जादू भी कोई छोटा मोटा नहीं...3500 के करीब बेहतरीन फिल्मी नगमें - 650 फिल्मों के लिए लिख दिए...और लगभग सभी एक से बढ़ कर एक...आज कल उन पर लिखी एक किताब पढ़ रहा हूं...उन के बेटे राकेश बक्शी ने लिखी है ...बहुत अच्छी किताब है ....जो लोग भी फिल्मी गीतों से मोहब्बत करते हैं, 60-70-80 के दशक के फिल्मी गीतों के दीवाने हैं, उन सब को यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए...ज़िंदगी के हर जज़्बात में भीगे हुए गीत ..बक्शी साहब ने लिख दिए...और जब उन पर लिखी किताब पढ़ रहा हूं तो सोच रहा हूं कि जिस बंदे ने इतनी जद्दोजहद वाली ज़िंदगी जी हो, यह उसी की क़लम का जादू ही हो सकता है ...

फिल्मी गीतों से याद आया कि जब हम लोग बच्चे थे तो फिल्मी गीतों के पेम्फलेट मिलते थे ...यही कोई 15-20-25 पैसे का एक पन्ना मिलता था जिस पर किसी नई आई फिल्म के सारे गाने छपे होते थे ...कुरबानी फिल्म का ऐसा ही पेम्फलेट मुझे पिछले साल कहीं से मिल गया था ...बिल्कुल पहाड़े जैसे कागज़ पर ये गीत छपे होते थे ...पहाड़े समझते हैं न आप, जिसे फिरंगी में हम लोग टेबल कहने लगे थे बाद में ...सच में तब से पहाड़ों को याद करने, और तोते की तरह रटने का असल ज़ायका ही जाता रहा ...पहले स्कूलों की रौनक ही कक्षाओं से आने वाली पहाड़े रटने की ज़ोर-ज़ोर से आने वाली आवाज़ों की वजह से हुआ करती थी...

फिर बहुत साल बाद फिल्मी गीतों की छोटी छोटी किताबें बाज़ार में आने लगीं ...हम भी खरीद लेते कभी कभी ...लेकिन इन किताबों को खरीदने का इतना शौक नहीं था, शायद अपने स्कूल-कालेज की किताबों से ही फ़ुर्सत न मिलती थी ...बहरहाल, ये फिल्मी गीतों की किताबें 2-3 बरस पहले मेरी ज़िंदगी में आईं...कैसे, बताता हूं। मैं उर्दू पढ़ रहा था, रोज़ क्लास में भी जाता था....लेकिन कुछ ख़ास पल्ले पड़ नहीं रहा था...एक तरह से शर्म सी महसूस होने लगी ....एक तो 55 साल की उम्र में यह काम कर रहा था, उस पर कुछ बात आगे बढ़ नहीं रही थी ...यही हिज्जे समझ में न आ रहे थे, हुरूफ का आपस में मिलान कैसे करना है, कुछ भी पता न चल रहा था, उर्दू के उस्ताद जी भी जैसे एक बार खीझ ही गए थे ...जब मैं सवाल ज़्यादा करता लेकिन मुझे आता जाता कुछ था नहीं ....

उर्दू में लिखा है मेहदी हसन की गज़लें....😄

उर्दू में लिखा है किशोर के गीत ...इसने मुझे उर्दू सिखाने में बहुत मदद की ..😂

वह कहते हैं न इरादे पक्के हों तो ख़ुदा भी बंदे की मदद करने पर मजबूर हो जाता है ...मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ....एक दिन लखनऊ की सड़कों की खाक छानते हुए एक फुटपाथ पर मुझे फिल्मी गीतों की छोटी छोटी किताबें दिख गईं ....अब इतना तो मैं उर्दू जानता ही था कि यह पता लगा पाया कि ये फिल्मी गीतों की किताबें हैं ...लेकिन लिखी हुई वे उर्दू में थीं। कुछ गज़लों की किताबें मिल गईं ...मैंने दो चार खरीद लीं ...और मैं उन को धीरे धीरे पढ़ने लग गया ...मुझे थोड़ा बहुत समझ में आने लगा ..फिर एक आइडिया आया कि यार, अगर किसी तरह से हर गीत का मुखड़ा मैं पढ़ पाऊं ...थोड़ा बहुत जितना भी हो जाए...तो मैं उस को यू-टयूब पर मोबाइल पर सुनने लगता और सामने किताब रख लेता ....कुछ ही दिनों में बहुत से गीत सुनते सुनते मैं उर्दू पढ़ने लगा ...क्योंकि गीतों की ज़ुबान बिल्कुल आम बोल चाल की ज़ुबान हुआ करती थी उस दौर में ....और यही उन की इतनी लोकप्रियता का राज़ था...


मेरे वेहले कम ....टाइम नूं धक्के मारन लई!!😉

अभी मैं शाम को बिल्कुल निठल्ला बैठा हुआ था...यू-ट्यूब पर अपने आप ही एक गीत दिखा ...देख सकता हूं मैं कुछ भी होते हुए ...यह गीत बेहद लोकप्रिय है ..सुनने लगा ....सुनते सुनते एक फिल्मी गीतों की एक छोटी सी किताब उठा कर इस गीत को वहां से देख कर अपनी नोटबुक में लिखना शुरू कर दिया ..सोचा कि इस तरह से फाउंटेन पेन से लिखने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी...यह काम भी मैं अकसर कर लेता हूं ...वरना, कैलीग्रॉफी में भी दिक्कत होने लगती है ...

काश...ये नोट्स तैयार करने की मेहनत सही वक्त पर की होती...!!

मुझे हैरानी इस बात की हुई कि जो किताब में लिखा था वह मैंने लिख लिया ...लेकिन फिर उस गीत को सुनते हुए पाया कि उसमें जो एक लाइन है ....बाग़ में सैर को मैं गया एक दिन ...वह तो इस किताब में लिखी ही नहीं हुई ....एक आधा और छोटा मोटा लफ़्ज़ था जो किताब में लिखा हुआ था जब कि गीत में नहीं था...अभी इस बात पर हैरान हो ही रहा था कि अचानक पता चला कि यू-ट्यूब पर जो गीत सुन रहा हूं उस गीत से आखिरी पैरा ही गायब है ...

यह बात मैंने बहुत जगह नोटिस की है ...महान गीतकारों के गीत तो हमें नेट पर मिल जाते हैं, किताबों में भी मिल जाते हैं ...लेकिन बहुत सी त्रुटियों के साथ मिलते हैं ...ये गीत हमारी धरोहर हैं ...इन को यूं का यूं सहेज कर रखना हमारी जिम्मेदारी है ....कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं....जहां भी त्रुटि दिखे, उसे लिखने वाले के नोटिस में लाया जाए....यह सब इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि आनंद बक्शी साहब अपने सभी गीत हिंदोस्तानी भाषा में उर्दू स्क्रिप्ट में लिखते थे ... इसलिए उन को उन के मूल रूप में संभाल कर अगली पीढ़ीयों तक पहुंचाना भी तो हमारा काम ही है ....ये सब फिल्मी गीत कालजयी हैं, हमारी संवेदनाओं को झकझोड़ते हैं, हमें अलग दुनिया में ले जाते हैं ....इसलिए लिखने वालों ने इन में जो प्राण फूंके हैं, उन्हें हमें उसी हालत में ज़िंदा रखना है ... 😎...


रविवार, 9 जनवरी 2022

जब कभी मोबाइल घर पर रह जाता है ....

जब कभी मोबाइल घर पर रह जाता है ...तो मुझे किसी के भी फोन-मैसेज का इतना ज़्यादा मलाल कभी होता नहीं ...क्योंकि मैं वैसे भी कोई इतना सोशल-बर्ड हूं नहीं...शायद ही मैं किसी के साथ फोन पर कुछ सैकेंड से बात कर पाता हूं ...बस, बोरियत सी होने लगती हैत ...हां, कोई स्कूल-कालेज का साथी हो तो फिर पता ही नहीं हम ठहाके ठहाके मार मार के एक घंटे तक बतियाते रहते हैं, अपनी बेवकूफियों पर हंसते, दूसरों की बेवकूफियों पर खिलखिलाते ...वक्त का पता ही नहीं चलता, ऐसे लगता है कि हंसते हंसते पेट में बल पड़ जाएंगे ...जी हां, मुझे बहुत ही हंसमुख किस्म के लोग ही पसंद हैं....अब जो है, सो है ...जो हंसने का बहाना ढूंढते रहें ...

और रही बात किसी के ऊपर हंसने की ....उस का भी मुझ जैसे बंदे को पूरा हक है ...क्योंकि मैं अपनी बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी बेवकूफियां ब्यां करता रहता हूं और खूब हंसता हूं....मुझे कईं बार लगता है कि यह हमारी खानदानी खासियत है। कुछ दिन पहले मेरा बड़ा भाई अपनी ज़िंदगी में की गई गल्तियों को याद करके ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रहा था और साथ में अपने मुंह पर खुद ही चपेड़ें मार रहा था...मैं और वह ही थे कमरे थे ...हंस हंस कर मेरा बुरा हाल हो रहा था ...अब जो भी है, हम ऐसे ही हैं, हम बाहर किसी के भी साथ उतना ही खुलते हैं जितना ज़रूरी होता है लेकिन पर्सनल लाइफ में हम बिल्कुल अलग हैं...

आज थोड़ा यह सब कुछ लिखने का ख्याल इसलिए आया है क्योंकि मेरे बहुत से साथी इस वक्त कोरोना से जूझ रहे हैं ...आसपास बहुत सन्नाटा है, सोच रहा हूं कि इस वक्त माहौल को थोड़ा हल्का फुल्का बनाए रखने के लिए हम से जो भी बन पाए करना चाहिए..और मेरे जैसे बंदे के पास ऐसे ही कुछ भी बकवास बातें लिखने के अलावा और है ही क्या....

हां, तो आज जब मैं सुबह स्कूटर पर बांद्रा की सड़कों को मापने निकला तो मोबाइल घर पर ही छोड गया....मुझे मोबाइल ढोना बहुत बड़ी सिरदर्दी लगती है ....हर वक्त यही लगता है कि जितना यह महंगा है, अगर यह कभी इधर उधर हो गया तो कहीं शॉक की वजह से मुझे अपनी जान से ही हाथ न धोना पड़ जाए। इसलिए मैं बच्चों को कहता हूं कि मुझे पांच सौ हज़ार का एक मोबाइल खरीदवा दो ...जिस से कि मैं दुनिया से बस टच में रह सकूं...इस से ज़्यादा मुझे किसी बात की तमन्ना भी नहीं है। कह देते हैं, हां, बापू, दिलाते हैं, दिलाते हैं....पर बस हर कोई अपनी अपनी दुनिया में खोया हुआ है ....

एक बात बताऊं कभी घर में या काम पर मेरा मोबाइल कुछ सैकेंडों के लिए भी मेरी आंखों से ओझिल हो जाता है न तो सच में बिलकुल पागलों जैसी हालत हो जाती है...१० सैकेंड में प्राण फूलने लगते हैं जैसे मेरा गोद में उठाया हुआ शिशु लोकल गाडी़ की गर्दी में गाड़ी में ही रह गया हो ....सच, मैं इतने महंगे फोन से बहुत परेशान हूं ....लेकिन मजबूरी यह भी है कि मुझे बाज़ारों की, गलियों की, आम आदमी की, आते जाते रास्तों की बहुत सी तस्वीरें खींचनी होती हैं, फिर मैं पोस्टर बनाता हूं ....कैलीग्राफी की मदद से ....मुझे यही काम पसंद है....किसी का भी मज़ाक उड़ाना मेरा कभी भी मक़सद नहीं होता और न ही कभी भी होगा....बस, ज़िंदगी के हसीन लम्हों को कैद करना ही मकसद होता है...जो तस्वीरें मुझे गुदगुदाती हैं मैं चाहता हूं वह दूसरों को भी खूब हंसाएं....और मैं उस पर लोगों की प्रतिक्रियाएं भी लेता हूं उन के पोस्टर बनाने से पहले ....

इसीलिए मुझे पैदल चलना, भीड़ भाड़ वाली जगहों से गुज़र कर निकलना बहुत भाता है ...सारी की सारी ज़िंदगी वहीं है ...मेरे घुटने में दर्द होता है, मैं परवाह नहीं करता, जब ज़्यादा दुखते हैं तो एक दिन बैठ जाता हूं चुपचाप लेकिन ज़िंदगी का भीड़ भड़क्का मेरी ऑक्सीजन है....मुझे मेरे सारे किरदार वहीं बैठे, हंसते-खेलते दिखते हैं ....

अस्पताल वाले तो कह रहे हैं, कोरोना के बादल छंट जाएं तो आना...चल, यार, तू ही कुछ मेरी मदद कर दे ...

दो दिन पहले हास्पीटल से निकला...थोड़ी दूर पर एक पीपल के नीचे ....एक बुज़ुर्ग टांग पर टांग रख कर बड़े इत्मीनान से किसी फुटपाथिया कान रोग विशेषज्ञ से अपने कानों का इलाज करवा रहा था....ऐसी तस्वीरें देख कर बड़ी हंसी आती है ....लेकिन हमें उन में भी व्यंग्य ढूंढना होता है ... ताकि लोगों तक संदेश भी पहुंचे और हल्के फुल्के ढंग से वे बात को समझ भी जाएं। उस फोटो में सब से बात जो नोटिस करने वाली थी वह यही थी कि उस फुटपाथी विशेषज्ञ ने अपना ड्रेस कोड बिल्कुल परफैक्ट रखा हुआ था ...यह बात मेरे भाई ने भी नोटिस की कि इस की ड्रेस तो देख और साथ में भाई ने अपनी टिप्पणी भी जोड़ दी ...पंजाबी भाषा का सहारा लेकर ..क्या करे कोई पंजाबी भाषा का सहारा लिए बिना बात मज़ेदार बनती नहीं ....भाई ने पंजाबी में एक भारी भरकम गाली निकाली और साथ में कहने लगा कि, इस मरीज़ को देख .....इतने इत्मीनान से, बेफ़िक्री से कान से छेड़खानी करवा रहा है जैसे अंबेडकर अस्पताल के ईएटी के एचओडी के रूम में बैठा हो ....😂😂😂

जब भी मैं फोन घर पर रख गया हूं या रह गया है, मेरे से कोई न कोई तस्वीर लेना ज़रूर छूट जाता है जिस का मुझे बहुत मलाल होता है ...आज भी मैंने बीच बाज़ार में एक बंदे को देखा ...उसने तन पर सिर्फ़ एक कोट पहना हुआ था, बिना बनियान, बिना शर्ट के ...और गले में एक चमकती हुई मटरमाला और जिस तरह से हाथ में भजिया रख कर उन का लुत्फ़ उठा रहा था ...वह नज़ारा देखते ही बन रहा था ....मेरी भी उसी वक्त भजिया खाने की हसरत हुई ....कुछ मिनटों के बाद वह पूरी भी हुई जब गर्मागर्म परांठों के साथ आलू, प्याज़ के बढ़िया पकौड़े, आम का आचार और खूब मीठी चाय का नाश्ता किया ...श्रीमति जी का बहुत बहुत शुक्रिया ...हां, तो मैं जैसे ही उस बंदे के पास से गुज़रा मुझे यही अहसास हुआ कि मनवा बेपरवाह की यही तस्वीर है ...मैंने वह सुकून, वह तृप्ति, वह अहसास कब किसी के चेहरे पर देखा था, मुझे तो याद भी नहीं...

हां, मटर माला से अपनी मौसी सुवर्षा याद आ गई ...उन्हें खूब सारा सोना खरीदने और उसे दिखाने का बड़ा ज़्यादा शौक था ..उन के पास एक बहुत बड़ी सोने की मटरमाला थी ...खूब लंबी ...जिसे वह दो-तीन बार फोल्ड कर के गले में पहनती और बढ़िया बढ़िया सिल्क की साड़ी के साथ पहनती तो बिल्कुल महारानी लगतीं ....मैं अपनी मौसी को अकसर वह मटरमाला और उस का महारानी लगना ज़रूर याद दिलाया करता ....वह खूब हंसती..खूब हंसती ....और मैं बात को कोई बढ़ा-चढ़ा के भी न कर रहा होता....वह मौसी हमें बड़ा प्यार करतीं...बचपन में हमें कहा करती कि ये नंदन, चंदन, चंदामामा, लोटपोट खूब पढ़ा करो ....

बस, हो गया आज की सुबह के लिए इतना ही काफी है ...नीचे एक पसंदीदा गीत चिपका दूं, बस हो गया....बात इतनी सी है कि दूसरों पर हंसने की बजाए अपने पर हंसने की आदत डालिए....मुझे ऐसे लोगों से बहुत डर लगता है जो दूसरों पर ही हंसना जानते हैं...मैं कोसों दूर से ऐसे लोगों को भांप लेता हूं ....मुझे सभी हंसते-मुस्कुराते चेहरे बहुत भाते हैं ....मैं इन की तलाश करता रहता हूं ....हम लोग जहां काम करते हैं वहां भी दो चार चेहरे तो ऐसे होते हैं जो बिना किसी रस्म के, बिना किसी ख़ास कारण के, बिना किसी मतलब के हंसना-मुस्कुराना जानते हैं ....ऐसे चेहरों को तलाशिए....ये वो रब्बी लोग होते हैं जिन के दीदार के लिए कुछ भी बहाना ढूंढा करिए.....क्योंकि इन को देखते ही, इन से एक मिनट बात करते ही आप को इतना हल्कापन महसूस होने लगता है कि क्या कहें ....मैंने भी यह टीम ढूंढ रखी है ..लेकिन उसे उजागर करना ठीक नहीं, दुनिया की अच्छी-बुरी नज़र से बचा कर रखना होता है, संभाल कर रखना होता है , आप अपने लिए यह एक्सरसाईज़ खुद करिए... हा हा हा हा हा ...वक्त लगता है इसमें...😎😎😂😂😃😃

बुधवार, 5 जनवरी 2022

कोविड टेस्ट पॉज़िटिव - तब और अब..(व्यंग्य लेख)

२३ मार्च २०२० को पहली बार लॉक-डाउन लगा था ...उस से पांच दिन पहले लखनऊ के कुछ चौराहों पर लाल बत्ती शुरू हुई थी ...मैं इस तारीख को भला कैसे भूल सकता हूं ...क्योकि उन्हीं नई नईं लाइटों के चक्कर में चौराहों पर असमंजस की स्थिति थी ...मैं २०-३० की स्पीड से स्कूटर चलाने वाला ...मेरे आगे चल रहे थ्री-व्हीलर ने मारी ब्रेक ...और मैं धड़म से नीचे ....पांव की हड्डी टूट गई...पलस्टर लगा कईं हफ्तों के लिए...मैं सारा दिन अपने फ्लैट की बॉलकनी में एक खटिया पर लेटा लेटा रेडियो सुनता रहता और बीच बीच में वाट्सएप पर वॉयरल हो रही वीडियो देख कर सहम जाता ..यही लग रहा था उन दिनों की अब तो दुनिया खत्म होने की कगार पर है ....

कुछ दिन पहले हमारा एक कर्मचारी मुझे कहने लगा....मेरा टेस्ट पॉज़िटिव आया है, मैं अब निकल रहा हूं...मैंने इतना ही कहा कि अच्छा, भई, अपना ख्याल रखना...

इस बंदे ने तो मुझे ख़ुद सूचना दी ....लेकिन इस बीमारी के पहले चरण में कोई यह सूचना खुद देने के काबिल ही न होता था...आपने टीवी वीवी पर देखा होगा कि उन दिनों हमारा मीडिया सच में ओव्हर-टाइम कर रहा था ...

पता चला कि अमृतसर (यह देश का कोई भी शहर हो सकता था...)  की करमो-ड्योढी की फलां फलां गली में किसी कोविड पॉज़िटिव मरीज़ को उठाने सेहत महकमे की टीम पहुंची हुई है ...कैमरे लगे हुए हैं...इतनी चाक-चौबंद व्यवस्था तो धर्मा फिल्म में चंदन डाकू को पकड़ने के लिए न होती होगी जितनी मुस्तैदी उन दिनों सेहत विभाग की टीम किसी कोविड़ मरीज़ को "काबू" करने के दिखाती थी .... पूरी लाइव टैलीकॉस्ट चल रही होती....कि टीम अभी अभी पहुंची है, अब ये गली में जा रहे हैं, इन्होंने ने क्या पहना है, माजरा है क्या, बस अब ये मरीज़ को ऐम्बुलेंस में ठूंस ही देने वाले हैं...सुनसान सड़के, सुनसान रास्ते ....न कोई बंदा न बंदे की जात...तब ऐम्बुलेंस के वहां से वापिस चलने से शुरु कर के आंखों से ओझिल होने तक कमैंट्री चलती रहती। 

बेशक, यह तो वह दौर था २०२० में कि जिस किसी को कोरोना हो गया उसे यह अहसास हो जाता कि उससे कोई संगीन जुर्म हो गया...सरकारी ऐम्बुलेंस पकड़ने आ जाती, और आसपास के गली-मोहल्लों की खिड़कियों से देखने वाले सब कुछ लाइव देख रहे होते और पूरा मुल्क टीवी पर सब कुछ लाइव देख रहा होता ... और जो मरीज़ दुनिया से कूच कर जाते, उन की अन्तयेष्ठि बहुत दूर से टीवी पर ऐसे दिखाई जाती जैसे नॉरकोटिक्स वाले  कंट्राबैंड मिलने पर उसे नष्ट करते हुए बालीवुड फिल्मों में दिखाते हैं ....मुझे तो अपनी मां की अंत्येष्ठि की वह फोटो याद आ जाती जो श्मशान घाट से बाहर आकर हमने दूर से जलती हुई चिता की खींची थी ...

उस दिन इस हालत में हम मां को अलविदा कह कर अपनी रज़ाईयों में वापिस लौट आए थे...११ दिसंबर २०१७

कुछ महीने का दौर तो ऐसा था कि लोग खांसने से डरने लगे ...क्या पता कमबख्‍त पड़ोसी ही रिपोर्ट कर दे, टैस्टिंग के लिए विभाग की टीम आ जाए और उठा कर ले जाए...

कोरोना वार्ड में जेल से भी ज़्यादा सिक्यूरिटी दिखती थी उन दिनों ...बस, मोबाइल की सुविधा कोरोना कैदियों को दे दी गई...और हां, बीड़ी और बार-बार चाय पे चर्चा करने के लिए दो चार बंदे बाहर चाय के स्टॉल तक पहुंचने का जुगाड़ कर ही लेते ...उन्हें ऐसी हालत में बीड़ी फूंकने की बात जब अस्पताल के हैड तक पहुंचती तो कोरोना वार्ड में तैनात स्टॉफ की क्लास लग जाती कि ये लोग बाहर आए तो आए कैसे और सामान्य लोगों से बीच पहुंचे कैसे! शुरू के दिनों में तो कोविड अस्पतालों के बाहर मरीज़ों के रिश्तेदारों का तांता लगा देख कर परीक्षा केन्द्रों के बाहर खड़े अभिभावकों की भीड़ की यादें ताज़ा हो जातीं...सच यह बड़ा कठिन दौर था ...लोग नरक भुगत रहे थे, कोरोना योद्धा अपनी जानें गंवा रहे थे ...हर तरफ़ मौजूद डर के माहौल को और ज़्यादा खौफ़नाक बना रहे थे फेसबुक और वाट्सएप के गुमराह करने वाले फेक वीडियो कि किसी गरीब मुस्लमान ने अपने फलों पर अपना थूक चिपका कर कोरोना फैला दिया ....सच में यह फेक वीडियो जो लोग शेयर करते हैं यह भी एक लाइलाज बीमारी है ...उन को भी किसी वार्ड में ठूंसा जाना चाहिए....वरना यह बाज़ नहीं आते ...

हां, तो मैंने बात शुरू की थी कि अब लोग पॉज़िटिव होने पर भी इतने हट्टे-कट्टे दिखते हैं कि वे आसपास सूचित कर देते हैं कि हां, भई हम पॉज़िटिव हो गए हैं, और यहां से कट रहे हैं, बाकी, वाट्सएप पर हम बने रहेंगे ....उस की कोई टेंशन है नहीं। जैसे ही उस बंदे के साथियों को उस की पॉज़िटिव रिपोर्ट का पता चलता है तो वह इतने ज़्यादा नाटकीय अंदाज़ में 'ओह शिट् ' कहते हैं ....(यह थोड़ा ओल्ड वर्शन वाले कहते हैं...लेटेस्ट वर्शन वाले अपना दुःख और हैरानी ब्यां करने के लिए जिस चार एल्फाबेट के लफ्‍ज़ का इस्तेमाल करते हैं, वह टी-शर्ट पर तो लिखा दिखने लगा है ....लेकिन ब्लॉग में कहां लिख कर उसे मुसीबत मोल लूं!!) .... हां, जिस अंदाज़ में हैरानी, शॉक, दुःख, रोमांच, थ्रिल....कुछ भी ब्यां किया जाता है किसी परिचित, किसी साथी के पाज़िटिव आने पर ...उससे कईं बार दूसरों को ऐसे लगने लगता है कि यार, यह कुछ ज़्यादा ही ओव्हर रिएक्ट कर रहा है ...कहीं इस के मन में उसे मिलने वाली क्वारेंटाइन के बारे में जलन तो नहीं ....इधर इतना काम धरा पड़ा है और अब यह महाशय घर बैठ जाएंगे क्वारेंटाइन भोगने के लिए...अच्छा भला तो था, सुबह साथ में काफी पी थी....दूसरों को यही लगने लगता है कि कहीं इस के मन में यह क्वारेंटाइन लीव न मिल पाने की तो कसक नहीं है..

क्योंकि और तो किसी भी तरह की छुट्टी (आध्यात्मिक तक भी) भोगने और निचोड़ने में कोई कोर-कसर छोड़ता नहीं बंदा, अब यह जो क्वारेंटाइन तो तभी मिले अगर कोई पॉज़िटिव आए ...अब अगर किसी ने हिम्मत कर के टैस्ट करवाया है, पाज़िटिव पाये जाने पर उसे यह सुविधा मिल ही गई है तो यह तो भई उस का हक है ...किसी का कोई अहसान नहीं  ..लेकिन देखा भी यह गया इस बीमारी के विभिन्न चरणों में कि घर में क्वारेंटाइन हुए बंदे की और उस के रिश्तेदारों की जान निकली रहती है कि सब कुछ ठीक ठाक निकल जाए, बिना किसी जटिलता के ...लेकिन दफ्तर में उस के साथ काम कर रहे कुछ बाबूओं को तो जैसे ही बंदे के क्वारेंटाइन पर जाने का पता चलता है उन्हें तो सांप ही सूंघ जाता है जैसे वह बेचारा महाबलेश्वर छुट्टी मनाने निकल गया हो...और किसी बाबू को तो इस खबर से ही ऐसे हल्के जुलाब लग जाते हैं कि वह अपने साथी को पर्मिसिबल लीव के दिनों की केलकुलेशन के लिए दफ्तर में बैठ कर पुराने सर्कुलर छानने लगते हैं .....अरे भाई, इतनी कसक क्यों, इतना मलाल क्यों, हिम्मत कर के टैस्ट करवाओ, यह रोज़ रोज़ बदन दर्द के लिए अदरक वाली चाय के साथ कॉम्बीफ्लैम लेना कोई समाधान नहीं ....टैस्ट तो करवाना ही होगा...निगेटिव आए तो मौज मनाओ, पॉज़िटिव आए तो अपने हक से क्वारेंटीन लीव पर भई तुम भी निकल जाओ....और अगर कुछ नहीं भी करवा रहे तो भी ५० प्रतिशत हाज़री की सुविधा के घेरे में  तो अब आ ही चुके हो....

हज़ार बातों की एक बात यह है जो आप नीचे लिखे पोस्टर में पढ़ेंगे ...यह कल वाट्सएप पर हमें दिखा ...इसलिए इसे यहां चस्पा दिए रहे हैं...इस में कही बातों पर गौर करिए..डा साहिबा ने शत-प्रतिशत बातें सही कही हैं ...एक काम और किया जाए...सारी अखबार, सारा मीडिया कोविड से भरा पड़ा होता है तो ऐसे में अपने आप पर हंसने की आदत भी डाल लीजिए...खूब हंसिए....अपने आप पर हंसने से कोई आप को नहीं रोक सकता....


यह टापिक है ऐसा कि लिखते ही जाएं....लेकिन अब उठना पड़ेगा....बस, जाते जाते आप को अपना पसंदीदा गीत सुनाते हैं....पता नहीं यह गाना आज मेरे से यहां एम्बेड नहीं हो रहा ....इस गीत का लिंक मैं यहां शेयर कर रहा हूं ...आप को इसे सुनने के लिए लिंक पर क्लिक करना होगा..यह गीत मुझे बहुत अच्छा लगता है ....यह पौधे, ये पत्ते, ये फूल, ये हवाएं........वाह!