रविवार, 2 जनवरी 2022

झुर्रियां भी अच्छी लगती हैं...उन की अपनी ब्यूटी है!

अरसा हुआ एक विज्ञापन आया करता था ...दाग अच्छे हैं...बच्चे बारिश के खड़े पानी में उछल कूद करते हैं, कपड़े खराब कर लेते हैं...यह सब टीचर के घर के सामने हो रहा होता है ...टीचर जी किसी पर्सनल लॉस की वजह से बड़ी उदास सी बैठी दिखाई देती है लेकिन इन नन्हे-मुन्नों को कीचड़ में उछल कूद करते देखती है तो वह हंस पड़ती है ....दाग का क्या है, वह तो मां सर्फ-एक्सेल से साफ कर ही देगी....लेकिन उस विज्ञापन की टैग लाइन मुझे बहुत पसंद है...दाग अच्छे हैं।

ठीक उसी तरह झुर्रियां भी मुझे अच्छी लगती हैं...अपनी भी और दूसरों की भी....वाटसएप पर एक मैसेज आया था कईं बरस पहले एक बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर थी जिस के चेहरे पर अनेकों झुर्रियां थीं और वह बहुत सुंदर लग रही थी...और साथ में लिखा था कि चेहरे की इन सिलवटों का मतलब यह है कि उस इंसान ने ज़िंदगी को उतना भरपूर जिया है ....एक एक सिलवट ज़िंदगी के कड़वे-मीठे अनुभवों की संदूकची है .. और एक बात यह भी तो है झुर्रीदार चेहरों को देखते ही हमें अपनी नानी-दादी की गोद मे बिताए हसीन पल याद आ जाते हैं...

जैसे आज के बाज़ारवाद में कईं धंधे चल निकले हैं...वैसे ही इन झुर्रियों को मिटाने का भी एक नया धंधा चल निकला है...पहले सफेद बालों को काले करने का फितूर, फिर झुर्रियों को मिटाने की ललक, और कुछ सर्जन या प्लास्टिक सर्जन आज कल जो कारनामे कर रहे हैं उस के बारे में तो लिखते भी नहीं बनता,  वे शरीर के अंगों का कसाव बढ़ाने में लगे हुए हैं..😂..ईश्वर का शुक्र है कि ये सब काम सरकारी अस्पतालों में नहीं होते ...और मैं उन चमड़ी रोग विशेषज्ञों की दिल से इज़्ज़त करता हूं जो इन चक्करों से अभी भी दूर हैं...वरना प्रलोभन तो हर जगह बिखरे पड़े हैं। 

बाल काले हों या सफेद, ब्यूटी-पार्लर में कोई हो कर आया है या नहीं, झुर्रियां दो हैं, चार हैं या सैंकड़ों हैं ....इस का कुछ भी तो फ़र्क़ नहीं पड़ता....सच में मुझे ऐसे लोगों के ऊपर तरस आता है जिन को ये सब काम करवाने की ललक सवार हो जाती है ...लेकिन वे भी क्या करें, पैसा है तो खर्च कहां करें..

हर उम्र की अपनी सुंदरता है ...सफेद बालों की वजह से, झुर्रियों की वजह से ...उम्र के साथ साथ शरीर में कम होती शक्ति की वजह से भी एक अलग तरह की सुंदरता दिखने लगती है....यही कहीं मैंने वाटसएप पर पढ़ा था कि बुज़ुर्ग लोगों में सुंदरता कभी भी कम नहीं होती ...बस वह उन के चेहरों से सिमट कर उन के दिल में वास करने लगती है ...

उम्र के साथ होती कम ताकत से याद आया ...लखनऊ में मैं पुष्पेश पंत के एक प्रोग्राम मे शिरकत करने गया ....वह पाक कला के बारे में भी बहुत कुछ जानते हैं...वह बता रहे थे कि आटा गूंथने की मशीने आ गईं ...लेकिन जो बुज़ुर्ग महिलाएं अपनी कमज़ोर मुठ्ठियों के इस्तेमाल से आहिस्ता आहिस्ता आटा गूंथती हैं, उस का एक अलग ही लुत्फ है ...क्योंकि आटा को गूंथने के लिए उतनी ही सहजता और उतनी ही शक्ति दरकार होती है ...😎

ये झुर्रियां वुरीयां मिटाने-छिपाने-हटाने का धंधा भी बरसों पुराना है ...मेरे पास कईं एंटीक मैगज़ीन हैं ५०-६०साल पुराने, ऑनलाइन खरीदने की मुझे भी धुन सवार रहती है ...उन में भी इस तरह की चीज़ों के विज्ञापन ठूंसे पड़े हैं...हैरानी होती है सच में ...

दिक्कत यह है कि पहले तो शो-बिज़नेस से जुड़े लोग ...सिने तारिकाएं, हीरो, माडल ही ये सब काम करवाते थे ...कितनों की शक्लें ही बदल गईं, हम ने देखा ....लेकिन अब आम लोग भी जिन के पैसे की भरमार है वे भी इन चक्करों में पड़ने लगे हैं...लेकिन जो भी है, सुंदरता इन चीज़ों से तय नहीं होती, सुंदरता हमारी शख्शियत की होती है ....क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ हमारा बार बार बात करने को मन होता है ....और कुछ को देखते ही हमारी ब्लड-प्रैशर १५-२० डिग्री शूट कर जाता है...उन के हाव-भाव ही कुछ ऐसे होते हैं...

लोग आज़ाद हैं, कुछ भी करवाएं, कहीं भी पैसा खर्च करें ...लेकिन हम जैसे ओपिनियन-मेकर्स की भी तो एक छोटी सी ड्यूटी है...और हां, एक बात और भी ...ये जो लोग मेक-अप-वेक-अप के चक्कर में ज़्यादा रहते हैं ....उन्हें अगर बिना मेक-अप के कभी देख लेते हैं तो भई हम तो डर ही जाते हैं ....सोचने वाली बात यह भी है कि मैं डर जाऊं या कुछ भी हो मुझे ...यह तो मेरी एक खामखां वाली बात है ....जीने दो लोगों को जैसे लोग जीना चाहते हैं ....हर किसी को कोई न कोई फितूर है ..मुझे भी है सभी तरह की एंटीक चीज़ों को सहेजने का ....उसी सिलसिले में ही कहीं मैं झुर्रीदार चेहरों को भी तो नहीं ढूंढता रहता ...

शनिवार, 1 जनवरी 2022

आवारा भीड़ के खतरे ....

जैसे मुझे फिल्मो की कहानियां याद नहीं रहतीं...उसी तरह से मुझे साहित्यिक किताबों में लिखी बातें भी याद नही रहतीं...हरिशंकर परसाई हिंदी के एक नामचीन व्यंग्यकार हुए हैं...उन्हीं की एक किताब है मेरे पास ...आवारा भीड़ के खतरे ...मैंने पढ़ी थी बस इतना याद है...

सच बात है जब भी मॉब काबू से बाहर हुई है, तबाही के मंज़र ही देखे गये हैं....गुज़रात हो, पंजाब हो, दिल्ली हो, सिक्ख दंगे हों ...आवारा भीड़ के तो खतरे ही खतरे हैं .... देश की तकसीम के वक्त हमारी पिछली पीढ़ी ने आवारा भीड़ के कारनामे देखे, सुने और भुगते ...

कुछ दिन पहले हम लोगों ने देखा कि एक २०-२२ साल के युवक ने अमृतसर के हरिमंदिर साहब में जाकर बीढ़ की बेअदबी की ...बहुत निंदनीय बात है ...लेकिन जिस तरह से मेरे सरदार दोस्त यह कहते हैं कि चूंकि कानूनी रास्ते से तो किसी को अभी तक ऐसे गुरूघर की बेअदबी करने की सज़ा मिली नहीं ...इसलिए लोगों ने इस बार उस जवान का फैसला भी ख़ुद ही कर दिया...साध-संगत ने उसे मौके पर ही पीट पीट कर मार दिया....

मुझे यह बात बहुत ज़्यादा बुरी लगी...मैंने अपने सिक्ख दोस्तों से यह बात कही भी ...लेकिन उन का तर्क यही था जो मैंने ऊपर लिखा है ...मेरे भी फंडे बडे़ क्लियर हैं...मैं किसी से भी बहस कम ही करता हूं ...बस, हूं हां, हूं हां कर के बात वहीं छोड़ देता हूं...

इस युवक को इस तरह से मौके पर मार देने से कोई सबूत भी हाथ न लगेगा....अगर वह ज़िंदा रहता तो कुछ न कुछ तो उस से पता चलता ही और देश की न्याय व्यवस्था उस की जड़ों तक जाने की कोशिश करती ...लेकिन अफसोस उस का फैसला साध संगत ने ही कर डाला....अगर फैसले ऐसे ही होने लगें तो फिर कोर्ट-कचहरी की ज़रूरत ही कहां रही। जिस देश में अगर बाबा राम रहीम या आशा राम बापू को सज़ा हो सकती है, वहां कोई भी अपराधी बच नहीं सकता ...हम मोटे तौर पर तो यह कह ही सकते हैं....बाकी, अपवाद होते हैं, होते रहेंगे ....आप भी सब समझते हैं...

मेरे सिक्ख दोस्त यह कह रहे थे कि उस जवान को मौके पर ही मौत के घाट उतार देने से अब भविष्य में लोगों के मन में ऐसा करने के बारे में दहशत पड़ जाएगी....लेकिन मैं ऐसा कोई तर्क मानने के लिए तैयार नहीं हूं....मेरा दिल और दिमाग तो यही कहता है कि कानून के रास्ते से उस का फैसला होना चाहिए था...

और जो मुझे लगा इस वारदात के अगले दिनों में अखबारों को पढ़ते हुए कि इस बात पर कुछ हो-हल्ला नही हुआ ...कि जवान कैसे मौके पर ही मार दिया गया....हां, हां, बेअदबी की भी उच्च स्तरीय जांच ज़रूरी है ....बेशक...वह तो एक गंभीर मुद्दा है ही ..टीवी में क्या कुछ चला इस मुद्दे पर, इस का मुझे बिल्कुल भी इल्म नहीं है क्योंकि टीवी कईं साल से बंद पड़ा है...

आवारा भीड़ के खतरों से हम वाकिफ़ हैं ही ....लेकिन कईं बार एक आदमी का गुस्सा भी क्या कर जाता है....आज की टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर देख कर मन बड़ा दुःखी हुआ - एक बारह साल के बच्चे ने घर से ५० रूपये चुरा लिए ...और उस के बाप ने कल उसे पीट पीट कर मार डाला ...आज बड़ा मूड खराब हुआ यह खबर देख कर ...नए साल की तो न मुझे कोई खुशी है न गमी .....और सालों की तरह एक और नया साल आ गया है....जूझ लेंगे इस से भी 😎....लेकिन इस तरह की खबरें बड़ा दुःखी करती हैं...

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

जाने वाले साल को सलाम...

यह उस दौर की बात है जब हम लोगों के लिए नए साल का मतलब सिर्फ यह होता था कि साल के उन आखिरी दिनों में हमें अपने बाबा आदम के ज़माने वाले रेडियो पर रात के वक्त बिनाका गीत माला सुनाई देती थी ...और मुझे अच्छे से यह भी याद है कि अगर उन दिनों सिबाका गीत माला के दौरान हमारे रेडियो में सिग्नल ठीक से नहीं पहुंच पाता था तो हमारा मूड बहुत ज़्यादा खराब हो जाया करता था...बड़े होने पर पता चला कि वह दिलकश आवाज़ जिस शख्स की होती थी उस महान हस्ती का नाम अमीन सयानी है ... क्या बात थी उस की पेशकश में कि मैं उस दिनों यही कोई तीसरी-चौथी जमात में रहा हूंगा ...लेकिन रेडियो से तो जैसे चिपके रहते थे ...फिर अगले दिन हम लोग स्कूल में चर्चा करते थे कि कौन सा फिल्मी नगमा किस नंबर पर आया ...वह दिन भी क्या मज़ेदार दिन थे ...इस लिंक पर क्लिक करिए और उस दौर को याद करिए....

अच्छा, यह तो हुई बचपन की मासूम सी बातें...हमें कुछ ज़्यादा नए-पुराने साल से मतलब न होता था .. नए साल के आसपास २५ दिसंबर से २-३ जनवरी तक हमारी बड़े दिन की छुट्टियां होती थी, या ठंडी की छुट्टियां (विंटर-वकेशन) होती थीं ...और हमें उदासी थोड़ी सी यह भी होने लगती कि अब तो एक दो दिन में स्कूल खुल जाएंगे ... बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी...फिर वही हिसाब किताब की बातें, साईंस की नीरसता ...सब कुछ वापिस झेलना पडे़गा...ये आठ दिन तो अच्छे से कट रहे थे ...जब चाहे उठे, जब चाहे घूमने निकल गए, फिल्म देखने चले गए....और रेडियो सुनते रहते थे...और इस के इलावा कुछ था भी तो नहीं ...एक डालडे के डिब्बे में भरे कंचों के अलावा ...😂😂

लो जी, हम कालेज पहुंच गए ...१६-१७ साल की उम्र में घर में टी वी आ गया....नए साल का मतलब यह भी होता कि ३१ दिसंबर की रात को दूरदर्शन पर एक बहुत बढ़िया ख़ास प्रोग्राम आया करता था ...पहले दो घंटे शायद दस बजे तक तो जालंधर दूरदर्शन की पेशकश हुआ करती ...फिर दिल्ली से अगले दो घंटे प्रसारण होता ...वाह, क्या बात होती ...उस में देश भर के चुनिंदा कलाकार, गायक अपनी प्रस्तुति देते ...मुझे अच्छे से याद है गुरदास मान का भी उन्हीं दिनों नाम होना शुरू हुआ था ...

 

और हां, उषा उत्थुप को मैं कैसे भूल गया...किस किस का नाम लें....यह प्रोग्राम रात १२ बजे तक चलता था ...फिर हम लोग सो जाते थे ...सारे साल में यही एक दिन होता था जब हम लोग इतना लेट सोते थे ...वरना रात साढ़े नौ बजे या हद १० बजे तक थक-टूट कर नींद आ ही जाती थी ...क्या करते, घर में वही डॉयलाग बार बार सुनने को मिलते ...Early to bed and early to rise ....और मां भी अकसर गुनगुनाया करती ...उठ जाग मुसाफिर भोर भई..अब रैन कहां जो सोवत है....😎


और हां, यह वह दौर था जब लोग एक दूसरे को नये साल के कार्ड भेजा करते थे ...और डाकखानों में उन दिनों काम इतना बढ़ जाता था कि उन की व्यवस्था चोक हो जाया करती थी ...कईं कईं दिन बाद वे कार्ड मिलते थे ....बहुत बार लोगों को शिकायत होती थी कि मिलते भी नहीं थे। आज कल जिस तरह से हर नुक्कड पर मोमोज़ बिक रहे होते हैं ...उन दिनों ऐसे ही नए साल के कार्ड थोक रेट पर बिका करते थे ...यही कोई १५-२० रूपये के १२ ....और किसी को आर्चीज़ से महंगे कार्ड --उन दिनों में भी दस-पंद्रह रूपये वाले कार्ड - भिजवाना कईं बार लोगों की मजबूरी ही लगा करती थी ...जैसा मुझे लगा ... मेरी बात का मतलब आप समझ ही गए होंगे...मैंने कभी यह सब काम नहीं किए....क्या करते, इतने पैसे ही नहीं हुआ करते थे कि इस तरह की चौंचलेबाजी में पड़ा जाए....

फिर देखते ही देखते ....नए वर्ष की पूर्व-संध्या किसी जश्न की बजाए एक शोर में बदल गईं....हर तरफ शोर- शराबा, बे-वजह की दौड़, दिखावा, दारू-शारू....बस, यही सब कुछ....जब से यह चलन शुरु हुआ, तब से नए साल की शुरूआत का जो एक मासूम सा मक़सद अगर हुआ भी करता था वह भी नहीं रहा है....ऊपर से यह वाट्सएप पर नए साल की बधाईयां देने-लेने वालों का तांता...बड़ी चिढ़ है मुझे इन सब संदेशों से ...

मैं यह सोचता हूं कि सुबह उठ कर ...साल नया हो या पुराना....सब से पहले सारी कायनात की सलामती की दुआ कर दें तो उस में सभी लोग शामिल हो जाते हैं...😄मैं किसी को भी बहुत कम नए साल की बधाई भेजता हूं क्योंकि मैं सभी लोगों की सलामती, खुशहाली की दुआ दिल में ही कर लेता हूं ....कईं बार मेरा इन फ़िज़ूल बातों से सिर दर्द ही ट्रिगर हो जाता है और फिर सारा दिन बन्ने लग जाता है ...

अभी बज रहे हैं ११ बज कर ४५ मिनट ...पंद्रह मिनट अभी हैं नए साल के शुरू होने में ...इसलिए अभी यह फिल्मी गीत सुनता सुनता सो रहा हूं ......ताकि न मुझे कोई डिस्टर्ब करे, न ही मैं किसी को करूं ...मै किसी को नए साल की मुबारकबाद का फोन भी नही करता ...क्योंकि मुझे लगता है कि लोग पहले ही ढ़ेरों बधाई संदेशों से त्रस्त होंगे ...उन्हें थोड़ी सांस भी लेने दें...

अच्छा, दोस्तो, इस पोस्ट को पढ़ने वालो, आप सब के लिए २०२२ नईं खुशियां और उमंगे लेकर आए ...और सब से ज़रूरी आप सेहतमंद रहें, खुश रहें, खिले रहें ....और खुशियां बांटते रहें हमेशा ...गुड नाइट ....