सोमवार, 15 नवंबर 2021

पवाड़ा जूतों का ...

"एक तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि आप लोग जूते उतरवाने के पीछे क्यों इतना हाथ धो कर पड़े रहते हो हर वक्त" .. जब आईसीयू के बेड नंबर तीन पर ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रही एक दादी के पोते ने बड़ी बेरुखी से संदीप को यह कहा तो उसे कहना ही पड़ा -   " ताकि आप अपने मरीज़ को सही सलामत लेकर घर लौट सको!"

संदीप एक बहुत बड़े सरकारी अस्पताल के आईसीयू में एक मेल-नर्स है ...जिसे आज कर ब्रदर कहने का चलन है...बड़ी निष्ठा से अपना काम करता है ...यह जो एक दादी का पोता उसे कुछ कह गया, यह उस के लिए कुछ नया नहीं था। कभी किसी को आईसीयू के अंदर जाने से रोकने पर, कभी किसी को मरीज़ के पास ज़्यादा न रूकने की ताक़ीद करने पर, कभी जूता बाहर उतार कर आने के लिए कहने पर ...इस तरह की थोड़ी बहुत नोंक-झोंक होती ही रहती थी...

ख़ैर, किसी को बुरा लगे या अच्छा, संदीप किसी को अच्छा-बुरा लगने की परवाह किए बगैर कायदे से अपनी ड्यूटी करता था ताकि आईसीयू में किसी तरह के संक्रमण से मरीज़ों को बचाया जा सके...

संदीप को आज ऐसे ही बैठे बैठे ख़्याल आ रहा था कि जूतों की भी अजब चिक-चिक है...कभी न पहनने की बातें, कभी पहनने की ज़िद्द ....कभी फटे हुए, कभी सिले हुए...किसी के तीन सौ रूपये के ...किसी के छः हज़ार के ...

दो दिन पहले एतवार के दिन गांव से उस का चचेरा भाई बिट्टू उस से मिलने आया था...उसे शहर में कुछ काम था, बैंक के लोन-वोन का कुछ चक्कर था, किसी बड़े अफसर से कुछ सैटिंग करने आया था...सुबह संदीप से कहने लगा - भाई, सुना है यहां की रेस-कोर्स देखने लायक है ...अगर फ़ुर्सत हो तो मुझे भी दिखा दो। संदीप को आज फ़ुर्सत ही थी और वैसे भी बिट्टू इतने बरसों बाद आया था..।

 वे दोनों साढ़े बारह बजे के करीब पहुंच जाते हैं रेस-कोर्स ...संदीप ने मोटर साईकिल पार्किंग में खड़ी की और गेट पर पहुंच गए जहां अंदर जाने के लिए टिकट मिलती थी। संदीप को यह तो पता था कि टिकट लगती है लेकिन उसे लगा कि यही कोई सौ-दो रूपये की टिकट होगी..इसलिए उस की जेब में सात-आठ रूपये ही थे, एटीएम कार्ड भी था वैसे तो..लेकिन यह क्या !

टिकट के काउंटर पर पहुंचने से पहले ही दो दरबानों ने बिट्टू को अंदर जाने से रोक दिया...संदीप को एक झटका सा लगा...बिटटू ने कपड़े भी ठीक ठाक पहने हुए थे ..और लेदर की चप्पल भी नयी ही लग रही थी। लेकिन यही चप्पल का ही तो पंगा था...सिक्यूरिटि गार्ड ने कहा कि बिना शूज़ पहने अंदर नहीं जा सकते। दो चार बार संदीप ने उन से कहा कि कहा कि जाने दो ऐसे ही, पता नहीं था, लेकिन आप लोगों को पता ही है कि ये दरबान कहां मानते हैं...इन का रुआब तो बड़े बड़े को उनकी औकात याद दिला देता है...

संदीप मन ही मन सोच रहा था कि यार, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई बैठे-बिठाए...अब कहां से लाएं शूज़.... लेकिन बिट्टू का मन तो अंदर जाने के लिए मचल रहा था..उसने संदीप से कहा कि चलो, यार, कहीं से कोई चालू किस्म के शूज़ खरीद लेते हैं....

दस मिनट बाद वे लोगों मोटरसाईकिल पर बैठ कर एमजी रोड पहुंच गए...ऐसे ही छोटी-मोटी दुकाने थीं, दो तीन दुकानें घूम कर उन्होंने एक गुरगाबी खरीद ली...चार सौ रूपये में ....बिट्टू चाह तो रहा था कि सौ-दो सौ रूपये में ही कुछ मिल जाए...लेकिन उस के लिए उन लोगों को किसी चोर-बाज़ार में ही जाना पड़ता...शायद चले भी जाते, लेकिन वक्त न था।

वापिस लौटते हुए संदीप ने बिटटू को कहा कि अंदर जाने का टिकट ५०० रूपए है...अगर मोबाइल साथ लेकर अंदर जाना है...और दो सौ रूपये अगर मोबाइल बाहर ही रख कर जाना है...बिट्टू ने संदीप से कहा कि वह तो अपना फोन साथ ही रखे, आई फोन है,  वह (बिट्टू) अपना फोन बाहर ही रख देगा। संदीप ने उस से इतना ही कहा कि देखते हैं...

बाइक को दोबारा पार्किंग में खड़ी करने के बाद एन्ट्रेंस गेट की तरफ़ जाते हुए दोनों देख रहे थे जो लोग मर्सिडीज़ से नीचे उतर रहे थे  सिर्फ़ अपने थ्री-पीस सूट की वजह से और महंगी गाडि़यों में आने की वजह ही से उन की पहचान थी...वे दोनों आपस में मज़ाक कर रहे थे अगर इन सेठ लोगों ने यह थ्री-पीस न पहना हो और पैरों में चप्पल पहनी हो तो ये मोहल्ले की किसी किराना दुकान चलाने वाले लगें..उन की शख्शियत में ऐसा कुछ भी न था जिन की वजह से वे कुछ विशिष्ठ लग रहे हों....हंसते हंसते वे लोग अंदर घुस गए...

बिट्टू को उस की ब्राउन पैंट के साथ मैचिंग करती गुरगाबी पहने देख कर एक सिक्यूरिटि गार्ड ने इतना ही कहा ... " यह हुई न बात ! "...लेकिन उन दोनों ने उस की बात को सुना-अनसुना कर दिया...वे वैेसे ही खीज से रहे थे ...मन ही मन बिट्टू ने सिक्यूरिटी गार्ड को दो-तीन गालियां निकालीं और यही सोचा कि वे लोग ठीक हैं जो इन लोगों को इन की औकात का आइना दिखाते रहते हैं....ये लोग ज़्यादा मुंह लगने वाले नहीं होते। 

टिकट खिड़की पर संदीप ने टिकट लेने के लिए पर्स निकाला तो काउंटर पर बैठे स्टॉफ ने कहा कि एक टिकट एक हज़ार की है ...संदीप ने सोचा कि बिट्टू को ही टिकट दिलवा कर अंदर भेज देता हूं ..फिर पता नहीं उसके मन में क्या ख़्याल आया कि उसने दो हज़ार में दो टिकटें खरीद लीं और अंदर चले गए...रेस चल रही थीं ...और हां, अंदर जाने से पहले बिट्टू ने रेस की किताब खरीद ली थी ..चालीस रुपये में ..उसे रेस में बेटिंग करने का कुछ इल्म था...

एक रेस में बिट्टू ने १०० रूपये की बेटिंग की ...चार सौ रूपये जीत गया...फिर उसने एक बार सौ और एक बार दो सौ रूपये की बेटिंग की ...लेकिन वे डूब गये। बि्टटू ने मज़ाक मज़ाक में अपने मुंह पर हल्के से एक चपत लगाई कि मैंने कैसे इतना बेकार दांव लगा दिया..संदीप ने कहा, ज़्यादा सोचा मत कर, जो हो गया उसे बिसार दे, आगे की सुध ले ....गलतियों से सीखना ही आदमी का धर्म है। संदीप बिट्टू को खुश देख कर और भी खुश था...लेकिन वह जिधर भी नज़रें दौड़ा रहा था उसे यही लग रहा था कि यार, अगर यह बंदा सूट की जगह बनियान और पायजामा पहने हो तो रामू हलवाई से भी गया गुज़रा दिखे...और अगर देख, बिट्टू, देख, उस ग्रे-सूट वाले को देख....अगर यह महंगे सूट में न हो तो बाहर खड़े दरबान उसे माली समझ कर बाहर ही रोके रखें...

संदीप और बिट्टू का हंसी मज़ाक भी चल रहा था...संदीप बि्टटू से यही कह रहा था कि यार, हिंदोस्तान में दो देश बसते हैं....भारत और इंडिया ...इन दोनों का पहरावा, इन का रहन-सहन, इन की भाषा, इन की किताबें, इन की कलमें ......सब कुछ अलग अलग है..हम तो हिंदु-मुस्लमान के मुद्दे पर ही अटके पड़े हैं, लेकिन असल मुद्दे तो यही हैं ....असली पवाड़ों की जड़ तो ये सब बाते हैं....इन की फिल्में अलग, इन के नाटक अलग, रेस्ट्रां अलग, बातें अलग .......कुछ भी नहीं मिलता इन दोनों का आपस में ...यह असलियत है ......यही असलियत है....

यही सोचते सोचते वे लोग रेस खत्म होने पर बाहर आ गए...मोटरसाईकिल पर बैठ कर वापिस लौटते हुए संदीप यही सोच रहा था कि ऐसी टुच्ची जगह पर इतना रिजिड ड्रेस-कोड ---समझ से परे है.......अचानक उसे ख्याल आया कि दो दिन पहले जब देश के राष्ट्रपति महोदय पद्म अवार्ड से महान शख्शियतों को सम्मानित कर रहे थे तो जो लोग बिना जूतों के ही वहां पहुंच गये थे या हवाई चप्पल में ही अवार्ड लेने पहुंच गये थे, सारा देश उन की सरलता, उन के काम की विशालता, महानता और विनम्रता की तारीफ़ कर रहा था...और यहां ऐसी जगहों पर लोगों के पैसे की लूट मची हुई है लेकिन सलीके से उसे शूज़ पहना कर, उसे जेंटलमेन होने का मुखौटा पहना कर ....


और हां, अगले दिन जब शाम को संदीप बिट्टू को स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने गया तो उसकी नज़र बिट्टू के पास बैठे किसी युवक के सीमेंट में लिपे हुए शूज़ की तरफ़ गई तो वह सोचने लगा कि इस के शूज़ तो उन सफेदपोश लुटेरों से कहीं ज़्यादा चमकदार, शानदार हैं जो दूसरों का माल हड़प कर जाते हैं ....यह बंदा तो सुबह से शाम घरों की चिनाई-लिपाई-पुताई कर के खून-पसीने की खा रहा है...इस के जूते उन सब फरेबियों, जालसाज़ों, फांदेबाज़ों से कहीं ज़्यादा उम्दा हैं...क्योंकि इन पर चिपका हुआ  दिन भर की मेहनत का सबूत इन की शान बढ़ा रहा है...


शनिवार, 13 नवंबर 2021

जब टूटी चप्पलें घर लाना लाज़िम होता था...

मेरी पिछली पोस्ट शायद आपने देखी होगी...अगर नहीं देखी, तो कभी फ़ुर्सत में देख लीजिएगा...यकीं है आप बोर नहीं होंगे ...यह रहा उस का लिंक ...जब टूटी हुई चप्पलों को सिलवा लिया जाता था...

हां, तो बड़े भाई को बहुत पसंद आई ....और जो उन्होंने उस के ऊपर मुझे टिप्पणी लिख कर भेजी, मैं वह देख कर बहुत हंसा...क्योंकि इतने पते की बात पता नहीं मैं कैसे लिखनी भूल गया था...वैसे भी मैं तो अकसर कहता ही हूं अपनी बड़ी बहन से और बड़े भाई से जो मेरे से क्रमशः १० और ८ साल बड़े हैं कि हमारे माहौल में रहने का उन के पास मेरे से कहीं ज़्यादा ख़ज़ाना है ...तभी तो वे कभी कभी ऐसी बातें कह देते हैं कि मैं भी हैरान हो जाता हूं...

हां, तो भाई ने लिखा कि पोस्ट पढ़ कर उन्हें भी वह गुज़रा दौर याद आ गया...और वे लिखते हैं - चप्पल चाहे कितनी भी बुरी तरह से टूटी होती, लेकिन उसे उसी हालत में लेकर घर लौटना ज़रूरी होता था...और टूटी हुई चप्पल घर लाने के लिए बंदे को चाहे कितना भी आढ़ा-तिरछा, टेढ़ा-मेढ़ा  होकर चलना पड़ता, वह चलता ...कईं बार तो चप्पल हाथ में उठा कर नंगे पांव चलते हुए घर तक पहुंचते और कईं बार टूटी चप्पल से घिसट-घिसट कर चलते हुए और हाथ से साईकल के हैंडल को थामे हुए घर पहुंच कर ऐसी फीलिंग आती थी मानो कोई किला फतह कर के पहुंचे हों... 

भाई मुझे जब सामने बैठ कर यह बात करता है तो हंसते हंसते पूछता है कि उस माई हावी टुट्टी चप्पल नूं बाहर ही सुट्ट के फ़ारिग हो कर घर लौटने का रिवाज़ नहीं सी, न जाने क्यों...

भाई आगे लिखता है टूटी चप्पल घर पर पहुंचाने के बाद फिर लगभग घर के सारे लोग उसे देखते ताकि एक अहम फ़ैसला लिया जा सके कि चप्पल नई खरीदनी है या उसी को ही गंढवा (सिलवा) कर काम चल सकता है...और इस फ़ैसले में महीने के उस दिन का भी बड़ा अहम रोल था जिस दिन चप्पल टूटने का हादसा पेश आया होता ...क्योंकि राशन, स्कूल की फीसें, दूध-साग-सब्जी का जुगाड़ करते करते,  उस वक्त घरेलू बजट की हालत कितनी नाज़ुक है, इन सब से यह तय होता था  कि चप्पल नयी आयेगी या पुरानी ही से अभी काम चलेगा..ख़ैर, अगर तो चप्पल नयी आ जाती तो कम से कम कईं महीनों क्या, एक बरस तक तो फिर बंदा चैन की बंसी बजाते हुए चलता, उस चप्पल को पहन कर एक दो  महीने तो उस नई चप्पल की वजह से इतराता रहता क्योंकि यह नशा भी एक अलग किस्म का ही था, जिन्होंने इस नशे को कभी किया है, वे ही जान पाएंगे...लेकिन अगर उस टूटी चप्पल को गंढवा के ही काम चलाने का फ़ैसला ले लिया गया है तो फिर यही सिलसिला चप्पल टूटने का और घसीटते हुए उसे घर के आंगन तक पहुंचाने का आगे भी चलता ही रहता जब तक कि ..............आप नहीं समझेंगे, छोड़ो, आगे चलते हैं। यह सब भी भाई ने ही याद दिलाया है।एक बात जो क़ाबिलेतारीफ़ यह भी लिख दूं कि वह पीढ़ी इतनी समझदार थी कि मां-बाप के बिन कहे कि उन के हालात समझती थी...किसी भी चीज़ के लिए ज़िद्द नहीं करती थी....वाह, क्या दौर था वह भी!!

हां, तो भाई साहब को मैंने भी उन के टूटे हुए शूज़ की बात याद दिला दी...तो जनाब हुआ यूं कि भाई सात-आठ साल का रहा होगा...निक्कर, बुशर्ट पहन रखी है उसने....पापा के चार पांच दोस्तो ने एक फोटो खिंचवानी थी, भाई भी वहीं पास ही खेलता हुआ फोटो खिंचवाने के वक्त पापा के पास जा पहुंचा और उस फोटो में उस की भी फोटो है...मुझे वह फोटो बड़ी प्यारी लगती है ...मेरा तो शायद उस तरफ़ ख्याल भी न जाता, और मेरे लिए यह कोई ख़ास या मामूली बात भी नहीं कि उस फोटो में भाई के बूट आगे से फटे हुए हैं....लेकिन पहले घरों मे तस्वीरें कम ही होती थीं, जब भी घर में रखी तस्वीरें देखी जातीं तो मां अपनी तरफ़ से यह बात ज़रूर याद दिला देती सब को ..देखो, पपू तो वैसे ही खेल रहा था, और फटे बूट में ही पहुंच गया फोटो खिंचवाने।

मैंने मां से कभी नहीं पूछा...ज़िंदगी भर, और न ही भाई से कभी पूछा कि क्या इस आगे से फटे हुए बूट के अलावा भी भाई के पास कोई दूसरे बूट भी थे....लेकिन पूछना वहां होता है जहां कुछ पता न हो, मुझे यकीं है कि उस के पास कोई और जूता होगा ही नहीं....ख़ैर, कोई बात नहीं, बड़े लोगों के जूते कोई नहीं देखता....महान् साहित्यकार प्रेम चंद के भी जूते टूटे हुए थे...और परसों-नरसों जिन लोगों को पद्‌म सम्मान से सुशोभित किया गया है उनमें से एक देवी तो नंगे पांव ही महामहिम के पास पहुंची थी और दूसरी एक देवी जो पंजाब से आई थी उन्होंने पैर में हवाई चप्पल पहनी हुई थी ....यह सब क्या सिद्ध करता है, आप भी जानते हैं....

आज इस बात को यहीं पर विराम देते हैं. आगे की बातें फिर कभी करेंगे... खुश रहिए, मस्त रहिए...मैं हमेशा कहता हूं कि ज़िंदगी में पैर कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं, वे चलते रहने चाहिेए....इन चप्पलों, बूटों की ऐसी की तैसी ...ये हैं तो ठीक है, जिन के पास जूते नहीं होते क्या वे ज़िंदगी नहीं जीते....आप का क्या ख़्याल है?

डालडे दा वी कोई जवाब नहीं...

हमारे बचपन का साथी...डालडा घी...आज सुबह इस का ख्‍याल आ गया जब कल की अख़बार के पन्ने उलट रहा था तो एक हेल्थ-कैप्सूल दिख गया जिस में वनस्पति घी की जम कर बुराईयां की गई थीं...मुझे भी बचपन याद आ गया - वह दौर जब मां के द्वारा अंगीठी पर रखे तवे पर  डालडा घी में सिक रहे, नहीं, नहीं सिक नहीं ...तैर रहे परांठों को देख कर हमारे रोम-रोम में ख़ुशी की एक लहर दौड़ जाया करती थी..

सारा बचपन और जवानी इन्हीं डालडा घी के परांठों पर ही पले हैं..कम से कम हर रोज़ चार परांठे--दो सुबह स्कूल-जाने से पहले आम के अचार के साथ, साथ में चाय, या दही या बाद के बरसों में बोर्नविटा वाले दूध के साथ...चार परांठों का हिसाब भी तो दे दूं...दो घर में खाते थे और दो स्कूल-कालेज़ में खाने के लिए ले जाते थे ...साथ में आम का अचार और अधिकतर कोई न कोई सूखी सब्जी के साथ। 

इस वक्त मुझे लिखते लिखते डालडे में बने परांठों की ख़ुशबू का ख़्याल आ रहा है ...जैसे कि वह हमें घर के किसी कोने में बैठे हुए अपनी तरफ़ खींच लेती थी, वह मां का उस डालडे या रथ के डिब्बे से चम्मच की मदद से घी को निकालना और उसे तवे पर सिंक रहे परांठें पर चुपड़ना....और फिर जो उसमें से धुआं निकलना...हम तो बस उस दृश्य के दीवाने थे...दो तीन परांठे खाने के बाद पेट तो भर भी जाता लेकिन निगाहें न भरती थीं....पंजाबी में कहते हैं ढिड भर जाना पर नीयत न भरना...

मैं अभी लिखने लगा था कि ज़्यादातर घरों में यह डालडा ही इस्तेमाल होता था आज से चालीस-पचास साल पहले ...फिर मुझे लगा कि यार अपनी बात कर, अपने घर की बात कर...ऐसे ही दूसरे के घरों के बारे में ज़्यादा मत कुछ कहा कर। वैसे भी हम लोग दूसरे के घरों में जाते ही कितना था ..सिवाए इस के छुट्टी वाले दिन किसी यार दोस्त के घर जब सुबह सुबह जाते तो एक मंज़र देखने को मिलता ...उसकी मां अंगीठी पर बेतहाशा परांठे पे परांठे सिके जा रही है...क्योंकि उन के कुनबे में सात-आठ लोग तो कम से कम थे ही ..जहां ये लोग बरामदे में लंबी तान कर सोए रहते उस के बिल्कुल पास ही उन की मां ने अंगीठी पर तवा रखा होता ...वही धुएंधार डालडे के परांठे ..साथ साथ वह आवाज़ें देती जाती...वे टीटे उठ जा वे, परांठे तैयार ने ...वे बिट्टे तू वी उठ...। मुझे अच्छे से याद है कि हमारे दोस्त ने आंखे मलते हुए उठना....दांत साफ़ करना तो दूर, बिना हाथ मुंह धोए ही उस को दो तीन गर्मागर्म परांठे पीतल की एक थाली में डाल कर पकड़ा दिए जाते ...और साथ में पीतल के एक गिलास में गर्मागर्म चाय....हां, आम का अचार तो होना लाज़िम था ही ...अब वो लोग यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते जिन लोगों ने यह किल्लर कंबीनेशन देखा नहीं कभी ....

हमें उस दोस्त को परांठे छकते देख कर मन ही मन में यही लगता रहता कि ये लोग कितने अच्छे थे, घर वाले किसी को इतना सब खाने को देने से पहले पेस्ट करने को भी नहीं कहते ....बस, हम यह सोचते रहते ...दोस्त की मां हमें भी पूछ लेती कि तू भी खा ले...पता नहीं मैं क्या जवाब देता, याद नहीं इस वक्त....लेकिन इतना याद है कि मैं ऐसे कभी किसी के यहीं खाया नहीं....

देशी घी ....देशी घी का मतलब था पंजाब में वेरका देशी घी...और इसे ज़्यादातर देसी घी कहते थे, जैसे देशी दारू तो कहते हैं हिंदोस्तान में, लेकिन पंजाब में कहते हैं...देसी दारू। रोटी फिल्म के मुमताज़ और राजेश खन्ना पर फिल्माए गए उस ढाबे वाले यादगार सीन से किसी को भी उस दौर में देसी घी की अहमियत का अंदाज़ हो जाएगा। अगर कुछ नहींं भी याद आया तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद रोटी फिल्म देखिए। 

सच में घरों में ही कईं बार ऐसा ही होता था...देसी घी को चपातियां चुपड़ने के लिए या एक आध-चम्मच देसी घी दाल में डाल दिया जाता था, या काली तोरई को देसी घी में तैयार किया जाता था....ऐसी और भी बहुत सी बेकार की बातें हैं, लेकिन याद करना पडे़गा उन को। तवे पर डालडा घी में तैर रहे डालडा घी के परांठों का मंज़र तो मैंने पेश करने की कोशिश की ...लेकिन देसी घी में तैयार हो रहे परांठों की तो बात ही क्या करें....सारा घर उस रूहानी खुशबू से महक जाता था...कभी कभी हमें भी देसी घी का परांठा और देसी घी में तैर रहा हलवा नसीब हो जाता था...

कुछ लोग सब्जी भी देसी घी में बनाते थे और सारे मोहल्ले में जो लोग घर में देसी घी ही इस्तेमाल करते थे उन की रईसी का चर्चा दूर दूर तक होता था ...ऐसे ही थे पड़ोस के कपूर आंटी-अंकल...मोहल्ले में दूर-दूर तक उन के बारे में लोगों को पता था कि वे घर मे डालडा घुसने नहीं देते थे ( Another foolish status symbol of 1970s) ...और जब कभी लोग उन के सामने इस बात का ज़िक्र करते तो सच में वे दोनों ऐसे शरमा जाते या ऐसे इतरा देते कि मुझे उसी दौर का वह गीत याद आ जाता ...हाय शरमाऊं किस किस को बताऊं ....अपनी प्रेम कहानियां ...) 


लेकिन मैं डालडे पर पला-बड़ा, देशी घी के डिब्बे की तरफ़ क्यों ताक रहा हूं.....आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मुझे नील कमल फिल्म का वह गीत ...खाली डिब्बा खाली बोतल ...खाली सब संसार ...याद आ रहा है...उसमें डालडे का डिब्बा भी दिख रहा है।हमारे ज़माने में यह गीत रेडियो पर खूब बजा करता था...और महमूद के तो हम सब दीवाने हैं ही..

मुझे डालडे से याद आया कि मैं नवीं कक्षा में था, और नौमाही साईंस की परीक्षा में मुझे साईंस के पेपर में ४० में से ३८ अंक मिले थे,  उसमें एक सवाल यह भी था कि हाईड्रोजिनेटेड फैट्स (यही डालडा, वालड़ा) कैसे तैयार किया जाता है, उस को तैयार करने की रासायनिक प्रक्रिया लिखनी थी...हमें उन दिनों यह लिख कर ऐसे लगता था मानो हमने ही कोई आविष्कार कर दिया हो...और ऊपर से हमारे साईंस टीचर ने सारी क्लास को मेरी आंसर-शीट दिखा कर बताया कि पेपर लिखने का यह सलीका होता है ...मेरी १५ साल की ब्लागिंग के दौरान कभी इतनी हौंसलाअफ़ज़ाई नहीं हुई, जितनी उस दिन हुई थी। 

जब हम कालेज तक पहुंचे तो दिल्ली बंबई में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां पोस्टमैन रिफाँइड तेल की इस्तेमाल होते देख कर मां पोस्टमैन का एक बड़ा सुंदर सा चौकोर सा टीन का डिब्बा भी ले कर आने लगी... जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह डालडे की बनिस्पत कुछ या काफ़ी महंगा था, इसलिए डालडा के साथ यह भी आने लगा। फिर धीरे धीरे यही पोस्टमैन ही इस्तेमाल होने लगा...और अब तो बाज़ार में तेलों का एक अलग संसार ही है ...किसी भी दुकान पर तेलों की सजावट देख कर सिर चकरा जाता है ...पढा़ लिखा भी अनपढ़ महसूस करने लगता है ...ऐसे ऐसे लोग हैं जो ऑलिव ऑयल इस्तेमाल करते हैं लेकिन सारा दिन जंक भी खाते हैं...ऊपर से यह मेडीकल वैज्ञानिक ...कभी कुछ खाओ, कभी यह मत खाओ...कभी यह न करो, वो न करो....हमारे बड़े-बुज़ुर्ग यही कहते थे कि सरसों का तेल ही सब से बढ़िया है, खाने-पकाने के लिए...हम भी यही मानते हैं...लेकिन तवे पर परांठे कैसे तैर पाएंगे इस सरसों के तेल में ....जैसे स्कूल में सरसों के तेल से चुपड़े सिर -मुंह दूर से ही भांप लिए जाते थे...वैसे ही उन परांठों की बास भला कौन झेल पायेगा...तो फिर परांठे खाना ही बंद करिए....न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...न ही पेट बाहर निकलेंगे और न ही अँदर करने के जुगाड़ ढूंढने पड़ेंगे।

वैसे एक बात और भी गांठ बांध लेने वाली यह है कि सिर्फ एक ही चीज़ खाने या न खाने से कुछ होता नहीं...बेलेंस्ड डाइट चाहिए होती है सब को ...सब से पहले मैं अपनी बात ही करूं, फिर दूसरों की करूंगा....मैं कुछ अनाप-शनाप नहीं खाता, लेकिन सारा दिन मीठा खाता रहता हूं ...यह भी बहुत गलत है सेहत के लिए....बहुत से लोगों को जानता हूं सलाद, फल-फ्रूट खाते हैं...स्पराउट्स भी ....लेकिन इस के साथ सारा दिन बीड़ी-सिगरेट से फेफड़ों की सिंकाई भी चालू रहती है...आज के युवा ऑलिव आयल ही इस्तेमाल करेंगे, लेकिन सारा दिन जंक-फूड....गांव में महिलाएं कुछ खाना पका रही थीं, अभी वीडियो देखी, सब कुछ सरसों के तेल में तला हुआ ...डीप-फ्राई किया हुआ...यह भी गलत है, मैंने तो ज़िंदगी का एक ही सिट्टा निकाला है ...कि आप किसी एक भी बंदे की ज़िंदगी बदल नहीं सकते, जो जिस के मुकद्दर में लिखा है, उसे वह मिलेगा....यूं ही हर बंदे को खाने-पीने के उपदेश देने के चक्कर में खुद को हलकान करने की ज़रूरत नहीं, दुनिया जैसे चल रही है, वैसे ही चलेगी....अपने आप को खुश रखिए, मस्त रहिए....और नशे-पत्ते से दूर रहिए....महंगे से महंगे सिगरेट, महंगी से महंगी दारू, महंगे महंगे बॉडी-बिल्डिंग टॉनिक, मोटे शऱीर को पतले करने वाली और पतले को मोटा करने वाली दवाईयां, बिस्कुट सब के सब पंगे हैं....मानो या न मानो.....चाहे तो अपने ऊपर अजमा कर देख लो...