आज सुबह मेरी इच्छा हुई कि साईकिल पर लखनऊ शहर को देखा जाए...ये सब जगहें पहले से देखी हुई हैं..लेिकन वैसे ही इच्छा हुई..कल बड़ा मंगलवार था ...यह यहां एक मेले की तरह होता है ..और सैंकड़ों जगह पर शहर में खाने-पीने के भंडारे लगते हैं...कैंट एरिया से गुज़रना हमेशा अच्छा ही लगता है घने पेड़ों की झुंड की वजह से ...फौजी लोगों से हमें पेड़ों के रख-रखाब की तहज़ीब सीखने की ज़रूरत है।
मीडिया में कुछ आ रहा था इन भंडारों से पहले की इस की वजह से प्लास्टिक कचड़ा बहुत बड़ी मात्रा में इक्ट्ठा हो जाता है ...लेकिन देखने में तो मुझे ऐसा कुछ विशेष दिखा नहीं...बहुत अच्छा लगा..
यह लखनऊ का चारबाग स्टेशन है ..मैं यहां से होते हुए अमीनाबाद के लिए निकला.. |
चारबाग स्टेशन से नाका चौराहा तक जाते हुए पाया कि बहुत सी जगहों पर ऐसे पत्ते बिक रहे हैं...देखते ही याद आया कि बट पूजन था...शायद उस से से कुछ लिंक हो...लेकिन मेरी फिज़ूल की उत्सुकता कहां ऐसे शांत हो पाती...इस बंदे से पूछ लिया कि ये कौन से पत्ते हैं...उस ने बताया कि यह महुआ के पत्ते हैं..रायबरेली, बछरावां आदि जगहों से लाते हैं..सौ सौ के बंडल हैं..२० रूपये में बिकते हैं...उसी ने ही बताया कि पान को इस में बांध कर दिया जाता है ...आप चाहें तो उसे दो तीन दिन रख लीजिए...सूखेगा नहीं..उस की ताज़गी जस की तस बनी रहती है ..अखबार-वार में तो पान खराब हो जाता है ...
चलिए, अच्छी बात है ..पेड़ों ने लोगों की इस तरह से भी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ किया हुआ है...
यह अमीनाबाद का गणेशगंज बाज़ार है ..मैने देखा है िक देश के सभी शहरों के पुराने इलाके सब एक जैसे ही लगते हैं..शांत से...अमृतसर, फिरोजपुर, जगाधरी, दिल्ली, बंबई, त्रिचरापल्ली...सब पुराने इलाके एक जैसे!! |
अमीनाबाद के गड़बड़झाला एरिया में यह बाज़ार कैसी सुबह सुबह...बीसियों मजदूरों ने इसे घेर रखा था..पास जाकर देखा तो यह शख्स एक मैजिक पर्स (बटुआ) बेच रहा था...बात केवल इतनी सी थी कि इस में पैसे रखते ही वे अपने आप जकड़े जाते हैं...२०-२० रूपये में बिक रहे थे...उस हाकर की बातों में इतना दम था कि मैं तो उस का वर्णन भी नहीं कर पाऊं...मेरी भी इच्छा तो हुई ..फिर ध्यान आया कि वैसे ही हमारा घर पहले ही से एंटीक चीज़ों की वजह से एक म्यूज़ियम सा बनता जा रहा है ..और पास ही उबले हुए चनों का थोड़ा नाश्ता-पानी भी चल रहा था..
अमीनाबाद के हनुमान जी के मंदिर भी बाहर देखा तो इसी तरह का मंजर ही दिखा..मैंने पहले भी लिखा कि मुझे इस तरह का बॉयोडिग्रेडेबल कचड़ा देख कर अच्छा लगा...लगभग जितना भी आज मैं घूमा वहां पर ९० प्रतिशत कचड़ा पत्तल से तैयार दोनों का ही था...
यह लखनऊ का प्रसिद्ध केसरबाग चौराहा है ...ऐतिहासिक महत्व की एक अहम् जगह... |
आज कर गोमती नदी के किनारे एक कारीडोर तैयार हो रहा है ...सैलानियों के टहलने के लिए...जोरों शोरों से काम चल रहा है बहुत सी जगहों पर एक साथ..गोमती के िकनारे, लखनऊ शहर में..
यहीं गोमती नदी के िकनारे से ही लौटने की इच्छा हुई..लेकिन बड़ा हनुमान मंदिर पास ही में ही था...उधर भी हो आया....लखनऊ का यह मंदिर हमेशा श्रद्धालुओं से खचाखच भरा रहता है..इस की बहुत अधिक मान्यता है ...बोलो बजरंग बली का जय!!
इस मंदिर के पास भी बिल्कुल कचड़ा नहीं दिखा ...इन पत्तल की प्लेटों को देख कर यही लगा कि क्यों लोग भंडारों में या लंगरों में बेकार में थर्मोकोल और घटिया और रिसाईकल्ड प्लेटों का पहाड़ खड़ा कर देते हैं...कईं बार लोकाचार के कारण मजबूरी होती है ..लेिकन मेरी इन जगहों पर कभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं होती...कोफ़त सी होती है ...आिखर दिक्कत है क्या इन प्लेटों में...सस्ती तो होती ही हैं बेशक..लेकिन इन का डिस्पोज़ल कितना बढ़िया से हो जाता है ...ठीक है, कुछ दाल इधर उधर गिर भी जायेगी तो उस के लिए हज़ारों प्लास्टिक की प्लेटों का अंबार लगाने से तो बच जायेगा...बहुत से लंगरों में भी अब स्टील की प्लेटें भी गायब होती जा रही हैं...शायद धोने वोने का चक्कर होता होगा, मेरे जैसों को तो लंगर लेकर वहां से भागने की जल्दी होती है ..लेिकन व्यवस्था करने वालों को तो सब कुछ देखना पड़ता है...हम तो बस नुक्ताचीनी करने में माहिर हैं......जो भी है, प्लेटें दोनें तो भई पत्तल के ही अच्छे लगते हैं..वरना तो सिर ही दुःखता है!
वापिस लौटते समय यह लक्खी दरवाजा दिख गया...देखा तो पहले भी इसे बहुत बार है ...अखबारों में भी इस के बारे में आता रहता है लेिकन यह शिलालेख जो ऊपर है ...इस पर कभी ध्यान नहीं गया...पता है क्यों?....हम जब मोटरकार या दो पहिया वाहन पर होते हैं तो हमें कहां यह सब देखने की फुर्सत होती है...आज सुबह इधर कुछ सन्नाटा था और मैं साईकिल पर था तो िदख गया...वरना तो ... वैसे लक्खी दरवाजे की फोटू कुछ ज़्यादा बढ़िया नहीं आई...रोशनी का चक्कर था..
और यह ऊपर तस्वीर है यह केसरबाग सफेद बारादरी की है ...लखनऊ के सांस्कृतिक आयोजनों की जान...फिल्म निर्मात्ता मुजफ्फर अली भी यहां पर अकसर कुछ प्रोग्राम करते रहते हैं...वैसे भी यहां कुछ न कुछ चलता ही रहता है ...
बस करता हूं अब....बस, जाते जाते यही ध्यान आ रहा कि किसी भी शहर की रूह को महसूस करने के लिए मेरे विचार में एक ही उपाय है ..पैदल नाप लीजिए इन सब जगहों को ...वरना, साईकिल तो है ही...बाकी, तो सब जुबानी जमा-खर्ची है, जितनी भी कर लें....आप सोच रहे होंगे कि अब तू हम से साईकिल चलवाएगा..I never meant that! Just shared my experience which has always been so blissful and invigorating!
इस पोस्ट को सील करते हुए और शहर को सुबह सुबह इतना सा देखने के बार मुझे एक ही प्रार्थना का ध्यान आता है ...जब भी यह गीत बजता है या मैं बजाता हूं तो मैं भी इस अरदास में सच्चे दिल से शामिल हो जाता हूं...एक एक शब्द दिल को छूता है ..प्रहार करता है.....आप भी पूरी तन्मयता से सुनिएगा...