बुधवार, 8 जून 2016

चलिए, लखनऊ को थोड़ा जानते हैं!



आज सुबह मेरी इच्छा हुई कि साईकिल पर लखनऊ शहर को देखा जाए...ये सब जगहें पहले से देखी हुई हैं..लेिकन वैसे ही इच्छा हुई..कल बड़ा मंगलवार था ...यह यहां एक मेले की तरह होता है ..और सैंकड़ों जगह पर शहर में खाने-पीने के भंडारे लगते हैं...कैंट एरिया से गुज़रना हमेशा अच्छा ही लगता है घने पेड़ों की झुंड की वजह से ...फौजी लोगों से हमें पेड़ों के रख-रखाब की तहज़ीब सीखने की ज़रूरत है।

मीडिया में कुछ आ रहा था इन भंडारों से पहले की इस की वजह से प्लास्टिक कचड़ा बहुत बड़ी मात्रा में इक्ट्ठा हो जाता है ...लेकिन देखने में तो मुझे ऐसा कुछ विशेष दिखा नहीं...बहुत अच्छा लगा..
यह लखनऊ का चारबाग स्टेशन है ..मैं यहां से होते हुए अमीनाबाद के लिए निकला..





चारबाग स्टेशन से नाका चौराहा तक जाते हुए पाया कि बहुत सी जगहों पर ऐसे पत्ते बिक रहे हैं...देखते ही याद आया कि बट पूजन था...शायद उस से से कुछ लिंक हो...लेकिन मेरी फिज़ूल की उत्सुकता कहां ऐसे शांत हो पाती...इस बंदे से पूछ लिया कि ये कौन से पत्ते हैं...उस ने बताया कि यह महुआ के पत्ते हैं..रायबरेली, बछरावां आदि जगहों से लाते हैं..सौ सौ के बंडल हैं..२० रूपये में बिकते हैं...उसी ने ही बताया कि पान को इस में बांध कर दिया जाता है ...आप चाहें तो उसे दो तीन दिन रख लीजिए...सूखेगा नहीं..उस की ताज़गी जस की तस बनी रहती है ..अखबार-वार में तो पान खराब हो जाता है ...

चलिए, अच्छी बात है ..पेड़ों ने लोगों की इस तरह से भी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ किया हुआ है...
यह अमीनाबाद का गणेशगंज बाज़ार है ..मैने देखा है िक देश के सभी शहरों के पुराने इलाके सब एक जैसे ही लगते हैं..शांत से...अमृतसर, फिरोजपुर, जगाधरी, दिल्ली, बंबई, त्रिचरापल्ली...सब पुराने इलाके एक जैसे!!



अमीनाबाद के गड़बड़झाला एरिया में यह बाज़ार कैसी सुबह सुबह...बीसियों मजदूरों ने इसे घेर रखा था..पास जाकर देखा तो यह शख्स एक मैजिक पर्स (बटुआ) बेच रहा था...बात केवल इतनी सी थी कि इस में पैसे रखते ही वे अपने आप जकड़े जाते हैं...२०-२० रूपये में बिक रहे थे...उस हाकर की बातों में इतना दम था कि मैं तो उस का वर्णन भी नहीं कर पाऊं...मेरी भी इच्छा तो हुई ..फिर ध्यान आया कि वैसे ही हमारा घर पहले ही से एंटीक चीज़ों की वजह से एक म्यूज़ियम सा बनता जा रहा है ..और पास ही उबले हुए चनों का थोड़ा नाश्ता-पानी भी चल रहा था..




अमीनाबाद के हनुमान जी के मंदिर भी बाहर देखा तो इसी तरह का मंजर ही दिखा..मैंने पहले भी लिखा कि मुझे इस तरह का बॉयोडिग्रेडेबल कचड़ा देख कर अच्छा लगा...लगभग जितना भी आज मैं घूमा वहां पर ९० प्रतिशत कचड़ा पत्तल से तैयार दोनों का ही था...
यह लखनऊ का प्रसिद्ध केसरबाग चौराहा है ...ऐतिहासिक महत्व की एक अहम् जगह...


आज कर गोमती नदी के किनारे एक कारीडोर तैयार हो रहा है ...सैलानियों के टहलने के लिए...जोरों शोरों से काम चल रहा है बहुत सी जगहों पर एक साथ..गोमती के िकनारे, लखनऊ शहर में..





 यहीं गोमती नदी के िकनारे से ही लौटने की इच्छा हुई..लेकिन बड़ा हनुमान मंदिर पास ही में ही था...उधर भी हो आया....लखनऊ का यह मंदिर हमेशा श्रद्धालुओं से खचाखच भरा रहता है..इस की बहुत अधिक मान्यता है ...बोलो बजरंग बली का जय!!


इस मंदिर के पास भी बिल्कुल कचड़ा नहीं दिखा ...इन पत्तल की प्लेटों को देख कर यही लगा कि क्यों लोग भंडारों में या लंगरों में बेकार में थर्मोकोल और घटिया और रिसाईकल्ड प्लेटों का पहाड़ खड़ा कर देते हैं...कईं बार लोकाचार के कारण मजबूरी होती है ..लेिकन मेरी इन जगहों पर कभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं होती...कोफ़त सी होती है ...आिखर दिक्कत है क्या इन प्लेटों में...सस्ती तो होती ही हैं बेशक..लेकिन इन का डिस्पोज़ल कितना बढ़िया से हो जाता है ...ठीक है, कुछ दाल इधर उधर गिर भी जायेगी तो उस के लिए हज़ारों प्लास्टिक की प्लेटों का अंबार लगाने से तो बच जायेगा...बहुत से लंगरों में भी अब स्टील की प्लेटें भी गायब होती जा रही हैं...शायद धोने वोने का चक्कर होता होगा, मेरे जैसों को तो लंगर लेकर वहां से भागने की जल्दी होती है ..लेिकन व्यवस्था करने वालों को तो सब कुछ देखना पड़ता है...हम तो बस नुक्ताचीनी करने में माहिर हैं......जो भी है, प्लेटें दोनें तो भई पत्तल के ही अच्छे लगते हैं..वरना तो सिर ही दुःखता है!


वापिस लौटते समय यह लक्खी दरवाजा दिख गया...देखा तो पहले भी इसे बहुत बार है ...अखबारों में भी इस के बारे में आता रहता है लेिकन यह शिलालेख जो ऊपर है ...इस पर कभी ध्यान नहीं गया...पता है क्यों?....हम जब मोटरकार या दो पहिया वाहन पर होते हैं तो हमें कहां यह सब देखने की फुर्सत होती है...आज सुबह इधर कुछ सन्नाटा था और मैं साईकिल पर था तो िदख गया...वरना तो ... वैसे लक्खी दरवाजे की फोटू कुछ ज़्यादा बढ़िया नहीं आई...रोशनी का चक्कर था..

और यह ऊपर तस्वीर है यह केसरबाग सफेद बारादरी की है ...लखनऊ के सांस्कृतिक आयोजनों की जान...फिल्म निर्मात्ता मुजफ्फर अली भी यहां पर अकसर कुछ प्रोग्राम करते रहते हैं...वैसे भी यहां कुछ न कुछ चलता ही रहता है ...

बस करता हूं अब....बस, जाते जाते यही ध्यान आ रहा कि किसी भी शहर की रूह को महसूस करने के लिए मेरे विचार में एक ही उपाय है ..पैदल नाप लीजिए इन सब जगहों को ...वरना, साईकिल तो है ही...बाकी, तो सब जुबानी जमा-खर्ची है, जितनी भी कर लें....आप सोच रहे होंगे कि अब तू हम से साईकिल चलवाएगा..I never meant that! Just shared my experience which has always been so blissful and invigorating!

इस पोस्ट को सील करते हुए और शहर को सुबह सुबह इतना सा देखने के बार मुझे एक ही प्रार्थना का ध्यान आता है ...जब भी यह गीत बजता है या मैं बजाता हूं तो मैं भी इस अरदास में सच्चे दिल से शामिल हो जाता हूं...एक एक शब्द दिल को छूता है ..प्रहार करता है.....आप भी पूरी तन्मयता से सुनिएगा...

मंगलवार, 7 जून 2016

लिखना शुरू कैसे करें?

कुछ याद आया?...मुझे तो आया...बस, लिखने के लिए ऐसा जुनून चाहिए, और कुछ नहीं...
बहुत बार इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं कि हम लोग लिखना तो चाहते हैं लेकिन झिझक होती है...बात है भी ठीक, अपनी ज़िंदगी की किताब कैसे अचानक लोगों के सामने खोल दी जाए!

लेिकन हर काम के लिए एक सतत प्रयास और अभ्यास तो चाहिए ही ...लिखना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है...सन् २००० से पहले जब मैं विभिन्न पत्रिकाओं के लिए अपने क्षेत्र से जुड़े लेख भेजा करता था तो मुझे यही लगता था कि मेरे पास तो बस २०-३० विषय ही हैं, जिन पर मैं कुछ कह सकता हूं..उस के बाद क्या लिखूंगा?...१५ साल घिसने के बाद अब सैंकड़ों बातें हैं करने के लिए...बातों से बातें स्वतः ही निकलने लगती हैं...लेकिन वक्त की कमी, आलस्य और उमस भरी गर्मी की वजह से वे मन में ही रह जाती हैं। 

इतने में क्या हुआ...यह शायद २००१ या २००२ की बात है...केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने एक प्रतियोगिता रखी ...नवलेखक अपनी अपनी रचनाएं भेजें..चयनित लेखकों को हम लोग नवलेखक शिविरों में भेजेंगे..

उन दिनों मुझे कंप्यूटर पर हिंदी में लिखना नहीं आता ..वैसे कंप्यूटर था भी नहीं उन दिनों हमारे पास...मैंने भी एक लेख लिख कर पोस्ट कर दिया...डाकिया डाक लाया...यह भी लेख संस्मरणों पर ही आधारित था..

कुछ दिनों बाद चिट्ठी आ गई कि आप को आसाम के जोरहाट में दो हफ्ते के लिए नवलेखक शिविर के लिए आमंत्रित किया जाता है ...जोश होता है उस उम्र में..फिरोजपुर से दिल्ली, दिल्ली से गुवाहाटी और वहां से जोरहाट की ओवर-नाइट यात्रा ...पहुंच गये जी जोरहाट...

वे पंद्रह दिन मेरे लिए बहुत अहम् थे...देश भर के प्रसिद्ध लेखक और हिंदी विद्वान उन्होंने वहां बुलाए हुए थे..सुबह से शाम तक हिंदी लेखन के बारे में बाते ही बातें...अपनी बात खुले से कहने की सीख....

एक तिवारी जी थे ..उन से हमने हिंदी की डिक्शनरी देखने का सलीका सीखा...सच में हम लोग हिंदी की डिक्शनरी में कुछ ढूंढ ही नहीं पाते थे पहले...उन्होंने ही प्रेरित किया कि कुछ भी लिखो...रोज एक पन्ना लिखो...साल में ३६५ पन्ने हो जायेंगे ...उन में से सौ पचास तो कहीं छपने लायक होंगे...अगर नहीं भी होंगे तो आप लिखते लिखते अपनी बात कहनी सीख जाएंगे...

मुझे उन की बातें बड़े काम की लगीं...वे अकसर कहते कि आप जो भी लिखते हैं रोज़ वह भी आने वाले समय में साहित्य ही कहलायेगा...वे अपने नाना की बात सुना रहे थे कि दशकों पहले उन के नाना जी ने एक जगह पर सब्जियों, दालों, चाय, शक्कर, घी के भाव लिखने शुरू किए...वे उम्र भर इसे लिखते रहे...और वह बता रहे थे कि आज की तारीख में वे प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं, यह भी साहित्य ही है...

पंडित नेहरू बेटी इंदिरा के नाम जो खत लिखते थे ..किसे पता था कि वे छपेंगे, किताब की शक्ल ले लेंगे....ऐसी अनेकों अनेकों उदाहरणें हैं....

बस, सुझाव यही है कि रोज़ कुछ न कुछ लिखने की आदत डाल लीजिए...रोज़ का मतलब रोज़....छुट्टी आप को चाहिए ही क्यों?...

मुझे कोई कहता है ना कि लिखें तो लिखें क्या, मैं अकसर उन्हें यह भी कहता हूं कि चलिए..आप शुरूआत इस तरह से करिए कि दिन भर में हमारे पास सैंकड़ों नहीं भी तो बीसियों वाट्सएप मैसेज आते हैं...इन में से दर्जनों ऐसे होते हैं जिन्हें हम अगले ही क्षण आगे शेयर करते हैं...मुझे तो कईं बार यह बड़ी फिक्र होती है कि यार, अब इन्हें फिर से पढ़ना होगा तो कैसे हो पायेगा?

आप स्वयं देखिए कि कितनी बार आपने वाट्सएप मैसेजों को पीछे पीछे सरका के देखा...कितनी बार?...शायद कभी यह मैं कर लेता हूं...लेकिन बहुत बार मेरी आलसी प्रवृत्ति मुझे ऐसा करने से रोक देती है ...छोड़ो यार, जो गया सो गया, अब आगे इतने मैसेज इक्ट्ठा हो गये हैं...इन्हें देखते हैं...

बिल्कुल शुरुआत में आप एक काम कर सकते हैं...एक बड़ी सी डायरी लगा लीजिए..उस में उन सभी मैसेजों को लिखना शुरू करें जिन्होंने आप को गुदगुदाया, हंसाया, कुछ सोचने पर मजबूर किया या फिर आप की आंखें ही नम कर दी हों... 

अच्छा, आप यह काम शुरू करिए..और मुझे बताइए कि आपने शुरू कर दिया है ...आगे की क्लास उस के बाद...

अभी ध्यान आया कि मैंने कुछ साल पहले इंटरनेट लेखन की वर्कशाप के बाद कुछ ज्ञान भी बांटा था..अगर कभी फुर्सत हो तो देखिएगा..मुझे तो उन्हें देखते हुए डर लग रहा है, पता नहीं क्या कुछ टिका दिया होगा... मैं उन्हें वापिस नहीं देखता क्योंकि फिर मैं उन में गुम हो जाता हूं... 

उन लेखों के िलंक यह रहे ..वैसे ये खूब पापुलर हुए थे उस ज़माने में .... 

चलिए, अपनी कापी खोल लीजिए..और मोबाइल से अच्छे अच्छे मैसेज निकाल कर लिखना शुरू करिए... and start exploring this wonderful of words! 

आप भी समझ लीजिए कि इस मस्ती की पाठशाला में आज आप का पहला दिन है...

लखनऊ शहर के बदलते मिजाज...

यह मौसम की बात नहीं है...मौसम तो अब हर जगह एक जैसा ही हो रहा है ...गर्मी में तंग करने वाली उमस-वुमस तो अब हमारे साथ ही जायेगी...इस का कोई क्विक-फिक्स उपाय नहीं है, हम सुधरने वाले हैं नहीं..

मैं तो मिजाज की बात कर रहा था इस शहर की ...कुछ समय पहले हम ने अपने एक साथी से ऐसे ही पूछ लिया कि यहां इस शहर में इतनी वारदातें क्यों होती हैं!...चलिए, वारदातें भी अब लगभग सभी जगहों पर होने ही लगी हैं..लेिकन जिस तरह के वारदातें यहां दिन-दिहाड़े होती हैं उस से यही लगता है कि यहां पर गुंड़ों को किसी का खौफ़ ही नहीं है..

हमें यह जवाब दिया गया कि आप को यू.पी के दूसरे शहरों का नहीं पता... भाग्यशाली हैं वे लोग जिन्हें लखनऊ पोस्टिंग मिल जाता है ...यहां आने के लिए तो लोग सोर्स लगवा २ के हार जाते हैं...ठीक है, हम मान गये..

दूसरे शहरों से अचानक याद आ गया कि हमें भी बरेली और सुल्तानपुर भिजवाए जाने की पूरी तैयारियां थीं...पूरी फिल्मी स्टोरी है...लेकिन Central Administrative Tribunal (CAT) ने बचा लिया..क्या करेंगे, मजबूरी में CAT की चौखट तक जाना ही पड़ा। कारण यह था जो किसी फाइल में नहीं है, ३-४ साल के मेरे बेटे से badmintom खेलते हुए वह बच्चों वाली छोटी सा प्लास्टिक शटल एक उच्च अधिकारी की बेगम के सिर पर जा लगी ...बस, तब से हमारे बुरे दिनों की शुरूआत हो गई...

मैं भी किधऱ की बात िकधर ले गया...वे किस्से बताने को उम्र पड़ी है!

दरअसल आज कल जगह जगह बोर्ड दिख जाते हैं...लखनऊ बदल रहा है....लखनऊ सुधर रहा है...

मैंने पिछले दो तीन दिनों में अपनी साईकिल यात्राओं के दौरान मैट्रो का काम पूरे ज़ोरों शोरों से होते देखा है ..सोचा कि वे फोटू ही आप से शेयर कर दूं... मैं कितना लिखूंगा?..A picture is worth 1000 words!

यह जो तस्वीर है यह आलमबाग एरिया के मवैया एरिया की फोटो है ..परसों की है ..सुबह सुबह यहां पर खूब तेज़ी से काम चल रहा होता है ...पहले चरण में मैट्रो लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन तक चलने वाली है इसी वर्ष के दिसंबर से पहले ... यह मैट्रो स्टेशन चारबाग मैट्रो स्टेशन से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ही है...यहां पर मैट्रो के काम के लिए कुछ न कुछ पंगा ही रहा ...मुश्किल था ... प्रशासनिक नज़र से ...आप इस तस्वीर में देख रहे हैं...एक रेलवे लाइन है पहले से जिस पर से एक गाड़ी गुज़र रही है...अब मैट्रो का ट्रेक उस के ऊपर बनेगा...कुछ ग्रेडिएंट की दिक्कत थी..लेकिन रेलवे के इंजीनियरों को और विशेषकर उस महान शख्शियत श्री धर जी को सलाम...मैं आज सुबह सोच रहा था कि इस तरह के इंसानों को तो ईश्वर को ५० साल की उम्र बोनस में और दे देनी चाहिए...९० साल की उम्र में उन का उत्साह देखने को बनता है ...सादगी से भरा उम्दा जीवन..

कल और आज सुबह की साईकिल यात्रा के दौरान कुछ और तस्वीरें खींची मैट्रो रूट की आप तक हाल चाल पहुंचाने के लिए...


ये जो ऊपर दो तस्वीरें हैं ये कानपुर रोड़ की हैं..अमौसी एयरपोर्ट से दो तीन किलोमीटर पहले की हैं...ज़ोरों शोरों से काम चालू है ..

हां, परसों शाम कथाकारों के एक जमावड़े की तरफ़ जाते हुए अचानक हज़रतगंज एरिया में यह मैट्रो का बोर्ड िदख गया..यहां यह बताना चाहूंगा कि दूसरे चरण में काम चारबाग रेलवे स्टेशन से चलेगा और हज़रतगंज एरिया से होते हुए आगे जायेगी मैट्रो... लेकिन अभी यहां पर आज पहली बार मैंने यह बोर्ड देखा ...पता नहीं क्यों मुझे अचानक बचपन के दिनों में मिलने वाले लालीपॉप का ध्यान आ गया...समझने वाले को इशारा ही काफ़ी है...जो न समझे वो अनाडी है!

एक बात ज़रूर शेयर करना चाहूंगा कि हज़रत एरिया का मतलब जैसे अमृतसर के लिए लारेंस रोड़, दिल्ली की कनाट प्लेस, बंबई का फ्लोरा फाउंटेन एरिया....लखनऊ के लिए यह एरिया वैसा ही है ...यह जिस जगह पर आप इस मैट्रो का बोर्ड देख रहे हैं यह उत्तर रेलवे लखनऊ मंडल के बिल्कुल सामने हैं...इस एरिया में शाम को बेवजह तफरीह करने के लिए एक शब्द भी सुनते हैं......गंजिंग...Ganjing...  यहां तक कि अखबार वालों ने भी यह कंसेप्ट पकड़ कर हर रविवार के दिन गंजिंग फेस्टीवल करना शुरू कर दिया है ...उस दिन यहां ट्रैफिक की नो-एंट्री होती है .. लेकिन खूब धूम-धमाका, संगीत...खाने, मौज-मस्ती का मेला लगता है ...

दरअसल मेरी कोई पोस्ट पेड़ या पानी के मटके डाले िबना पूरी होना ही नहीं चाहती..क्या करूं..मजबूरी है ...
   कुछ दिन पहले शहर के ऐशबाग एरिया में शाम कुछ ऐसी दिखी थी.

इस तरह की तस्वीरें शायद आप को भी इस उमस भरी सुबह में कुछ ठंडक पहुंचा दें...मुझे तो मिल गई!

पता नहीं पिछली बार कब किसी पैदल यात्री को इतनी मस्ती से चलते देखा...पीछे से किसी बाईक के ठुक जाने के डर से बेपरवाह..
लखऩऊ की वी आई पी रोड़ पर आज सुबह से यह देख कर मैंने भी १९ जून की डेट झट से ब्लॉक कर दी...


पैदल चलने वालों के लिए अलग जगह, साईकिल वालों के लिए अलग, क्या करूं ..इतनी खुशी समा नहीं पा रहा हूं..



लगता है अब इस पोस्ट के िलफाफे को बंद करूं...और ड्यूटी पर निकल पड़ूं...बातों का क्या है...बातें ही बातें तो हैं अपने जैसे लोगों के पास...मेरे Nexus5 में हज़ारों फोटू हैं.....और हर फोटो एक दास्तां ब्यां करती है.......लेकिन कितना कुछ ब्यां करें, अब मैं भी बुड़्ढा होने लगा हूं....थक जाता हूं ..लिखते लिखते.. 😊

मेरा बेटा एंटरटेन इंडस्ट्री में हैं...creative head है....और बहुत बार मजाक करता है कि बाप, मुझे फिल्मी बनाने में तेरा बड़ा हाथ है, जब हमारी उम्र के बच्चे पढ़ने में लगे रहते थे तो तू हमें फिल्में दिखाता रहा ..हिंदी-पंजाबी के फिल्मी गीत सुनाता रहा, पंजाबी के लोकगीत सुनाता रहा, भगवंत मान की सीडियां दिखाता रहा ...रिजल्ट (Product)  तेरे सामने हैं ...मैं भी उसे कहता हूं कि मुझे फिल्मी बनाने में मनमोहन देसाई जैसे गजब फिल्म निर्मात्ताओं का हाथ है ... जिन्हें देखते- सुनते मैं अब भी किसी दूसरे ही संसार में खो जाता हूं .. 😊

सोमवार, 6 जून 2016

नमक हो टाटा का टाटा नमक..

नहीं ना, यह कोई स्पांसर्ड पोस्ट नहीं है...बस, कुछ बात करने की इच्छा हुआ टाटा नमक के बारे में .

आज शाम एक मित्र से बात हो रही थी..पता नहीं कैसे बातों से बात निकली कि उसने कहा कि प्रवीण, मैं टाटा नमक के कुछ पैकेट ले कर आया..उसी दिन वह दालें भी खरीद कर आया था...और उस दिन के बाद जब उन के घर में दालें बनने लगीं तो वे काली होने लगीं...उन लोगों को लगा कि सारी दालें खराब हैं...लेकिन नहीं दालें तो ठीक थीं...

मित्र बता रहा था कि वह नमक के पैकेट वापिस करने चला गया...और फिर बाबा रामदेव वाले नमक के पैकेट ले कर आया...बाबा की तारीफ़ कर रहा था..मैंने कहा ठीक है, बाकी तो कुछ भी उस का ले आना, पतंजलि की दंत कांति पेस्ट और मंजन से बच के रहना......मैं सैंकड़ों मरीज़ों के दांतों पर इस का प्रभाव देख चुका हूं..

अच्छा, जब मैंने उस की यह दालों के काला होने की बात सुनी तो मैंने उसे इतना पूछा कि तुम टाटा का नया वाला नमक ले कर आए होंगे, कहने लगा ..हां, तो मैंने उसे कहा कि उस में आयरन है ..(लोह युक्त नमक है वह) ..इस लिए दालों आदि में जब इस तरह का नमक डाला जाता है तो वे काली पड़ ही जाती हैं, उस के बारे में चिंता नही करनी चाहिए..

दरअसल मुझे याद आ रहा था उस से बात करते हुए कि लगभग तीन महीने पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी...लोहयुक्त नमक के ऊपर...इस का लिंक यह रहा ..आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं...लोह युक्त नमक 

अपने पुराने लेख मैं लगभग कभी देखता नहीं...मुझे एम्बेरेसमेंट सी होती है ...पता नहीं क्यों, यह सब मैंने क्यों लिख दिया...पूरी किताब ही भला क्यों खोल के रख दी, बस, इसी चक्कर में मैं अपने पुराने लेखों को कभी पढ़ना नहीं चाहता...हां, बिल्कुल जैसे हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता..

मुझे ध्यान आ रहा था कि मैंने उस लेख में कुछ प्रश्न रखे थे..लेकिन अब ध्यान आता है कि यह कोई इश्यू नहीं है ... कि अगर किसी का हीमोग्लोबिन सही है तो उसे यह नमक नहीं लेना चाहिए... वैसे भी कहां एक आम भारतीय इतनी अच्छे से पोषित है कि उसे इस तरह से लोहयुक्त नमक की ज़रूरत नहीं है ...सब ले सकते हैं..और वैसे भी इस से किसी भी बंदे की दिन भर की आधी ज़रूरत ही पूरी होती है ...

एक विचार यह भी है कि टाटा जैसी कंपनी को इस तरह के मुद्दों को अच्छे से प्रचारित करना चाहिए था..इस मित्र ने मेरे से बात कर ली, मैंने अपनी तरफ़ से उस के संशय का समाधान कर दिया.....लेिकन अगर उसे पहले से पता होता या उस टाटा प्लस वाले पैकेट के ऊपर ही लिखा होता तो सब लोग पहले से ही तैयार होते ...कि दाल अाज थोड़ी काली बनने वाली है...है कि नहीं?

यह तो कमी रह गई ...टाटा कंपनी से ..और वैसे वेबसाइट पर यह लिखा हुआ कि यह नमक जब दालों आदि में डाला जायेगा तो उन का रंग डार्क हो जायेगा...

टाटा कंपनी की वेबसाइट पर एक प्रश्न है कि टाटा प्लस नमक (यानी लोह एवं आयोडीन युक्त नमक) से क्या भोजन के स्वाद में फर्क पड़ता है?..
Using Tata Salt Plus doesn't affect food taste. Some food items like pulses, rice, potato and vegetables may turn dark on addition of Tata Salt Plus. This is due to iron availability in Tata Salt Plus. For example, when an apple is cut and kept exposed, it turns dark due to its iron content, but is still edible and absolutely safe to use. 
जानकारी के लिए लिखना चाहता हूं कि १०० ग्राम टाटा प्लस नमक में .. सोडियम ३८ग्राम के लगभग, ऑयरन ८५ मिलीग्राम, और आयोडीन की मात्रा १५ppm से ज़्यादा होती है ..

अभी मैंने घर में पूछा तो मुझे Tata Salt Lite दिख गया... इस में सोडियम की मात्रा कम होती है ..३३ ग्राम के लगभग...लेिकन इस में ऑयरन नहीं है लेिकन आयोडीन तो है ही ...



नींद आ रही है, जल्दी से इसे खत्म कर रहा हूं...मुझे ध्यान आ रहा है कि कुछ िदनों के बाद नमक पर कुछ न कुछ लिखने का बहाना मिल ही जाता है ...आज भी मैंने हिन्दोस्तान पेपर के संपादकीय पन्ने पर नमक को कम करने के बारे में एक अच्छा लेख पढ़ा था, कल आप से वह भी शेयर करूंगा...

लेकिन जाते जाते एक आग्रह कि हो सके तो टाटा नमक प्लस ही इस्तेमाल करिए...हम लोगों ने भी अभी तक इसे इस्तेमाल नहीं किया...चलिए, हम लोग भी इसे इस्तेमाल करेंगे....जिस तरह से जब टाटा कंपनी का आयोडीन नमक आया था... तो लोग अनाप शनाप कुछ कहने लगे थे......लेिकन वह एक वरदान सिद्ध हुआ....निःसंदेह यह टाटा प्लस नमक भी एक बड़ा वरदान सिद्ध होगा....क्योंकि आज कल जिस तरह से लोगों का खान-पान हो गया है, एनीमिया थोड़ा बहुत तो बहुत सी महिलाओं में, बच्चों, बुज़ुर्गों में भी देखा ही जा रहा है ...

मेरी पिछली पोस्ट के प्रश्नों पर ज़्यादा गौर मत कीजिएगा और मेरे विचार में इस नमक का इस्तेमाल करने में ही समझदारी है ...मुझे यह प्रचारित करने का कुछ पैसा नहीं मिला ..और मैं कभी भी पैसे के लिए इस तरह का काम करूंगा भी नहीं.....आश्वस्त रहिए....अगर आप इस नमक का इस्तेमाल शुरू करने से अपने फैमली डाक्टर से बात भी कर लें तो और भी अच्छा रहेगा...

OK...Good night....शुभरात्रि, शब्बा खैर, रब राखा......Take care!

Related post...        लोहयुक्त नमक के बारे में आप का क्या ख्याल है? (पढ़ने के लिए यहां क्लिक करिए)

गाना यहां एम्बेड करते समय मुझे ध्यान आया कि नमक के ऊपर तो कोई गीत याद नहीं आ रहा ...फिर ध्यान आ गया नमक हराम का, नमक हलाल का भी ......सोचा, वैसे भी आज के दौर में नमक हरामी ज़्यादा चलन में है, उस ग्रेट फिल्म का यह गीत ही शेयर करते हैं...a wonderful and captivating song!


मथुरा कांड की जन्मपत्री पढ़िए...

पिछले कुछ दिनों से मैं टीवी पर खबरें नहीं देख रहा था..कोई विशेष कारण नहीं था..बस, ऐसे ही किसी न किसी काम में व्यस्त था..

मेरी मां ने ही दो तीन दिन पहले एक बार ऐसे ज़िक्र किया कि मथुरा में बहुत बुरा हो रहा है ...मुझे कुछ पता नहीं था..मैंने ऐसे ही कह दिया...जी हां।

कुछ समय बाद उसी दिन या अगले दिन किसी खबरिया चैनल पर एक टिक्लर चल रहा था ...रामवृक्ष के बारे में कुछ...

अब अफवाहें, अंधविश्वास, डर, खौफ़, तथाकथित बाबाओं के बारे में सुन सुन कर अपनी भी कुछ इस तरह की कंडीशनिंग हो चुकी है कि हम कुछ इस तरह के नाम सुन कर अपनी ही राय तुरंत बना लेते हैं...

रामवृक्ष का नाम मैंने जैसे ही सुना ..मुझे लगा यह भी किसी वृक्ष-रिक्श का चक्कर होगा...ढूंढ लिया होगा किसी पुरातन पेड़ को ..वैसे भी पर्यावरण दिन आने वाला है ...लेकिन तभी देखा कि वहां पर आगजनी हो रही है, लाठियां भंाजी जा रही हैं...सब कुछ अजीब सा लग रहा था..

अगले दिन पेपर में पढ़ लिया...कुछ कुछ समझ में आया...बहुत से खबरिया चैनलों पर अब विश्वास पूरा होता नहीं है..

दो दिन से खूब देख रहे हैं कि किस तरह से वहां मथुरा के उस पार्क में एक अलग सत्ता केन्द्र उस बंदे रामवृक्ष ने स्थापित कर रखा था..

एक बात और भी है कि हम वही देखते हैं वही सुनते हैं ..जो मीडिया हमें दिखाना चाहता है ...सब टीआरपी का चक्कर तो है ही, पैसों का भी चक्कर है ...बड़ा अजीबोगरीब बिजनेस माडल है हिंदोस्तान में मीडिया का ...सच्चाई जनता तो कहां पहुंच पाती है !


और कुछ दिखे न दिखे...ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी के बारे में सनसनीखेज खबरें ज़रूर देख-सुन ली कि उस के लोकसभा क्षेत्र में इतनी आगज़नी हो रही थी और वह अपनी शूटिंग के बारे में तस्वीरें ट्विट करती रही....वैसे सुनील दत्त को छोड़ कर सभी फिल्मी सितारे जो लोकसभा राज्यसभा पहुंचे, उन का ट्रैक रिकार्ड ऐसा ही है...यह मैंने एक रिपोर्ट में पढ़ा आज..शायद नवभारत टाइम्स में ...पूरे आंकड़ों के साथ उन सब का रिपोर्ट कार्ड लगा हुआ था...

मेरे मन में पिछले दो तीन दिन से कईं प्रश्न उठते रहे कि यार, यह बंदा रामवृक्ष ...शरीर से भी इतना हृष्ट-पुष्ट नहीं लग रहा..लेकिन इस की बॉडी-लैंग्वेज ..और इतना दुःस्साहस ...पता नहीं कौन इस के पीछे है...अकेला आदमी ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता...कुछ तो ताकतें पीछे होंगी...

कल एक मंत्री का ब्यान टीवी में देख रहा था जिसके बारे में सत्ताधारी पार्टी के एक व्यक्ति ने टिप्पणी की थी ...उस का ब्यां सुना तो उसने साफ़ कहा कि जांच तो होने दो, सच सामने आ जायेगा...

कल रात और आज सुबह उस पार्क में विनाशलीला की तस्वीरें दिखती रहीं...क्योंकि कल मीडिया को उस पार्क के अंदर जाने की अनुमति मिल गई थी...

चलिए, आप के सब्र का और इम्तिहान नहीं लेता हूं.. बस, इस पोस्ट के माध्यम से मैं एक सुझाव देना चाहता हूं हम लोग सारा दिन कुछ न कुछ इधर से उधर और उधर से इधर वाट्सएप पर शेयर करते रहते हैं...ऐसा ही है ना?...लेकिन संवेदनशील मुद्दों के बारे में शेयर करते समय हमें उस जानकारी के स्रोत के बारे में भी बता देना चाहिए...

इतना कुछ आता रहता है ...गु्र्दे खराब है, कैंसर जैसा रोग है ..तो फलां फलां जगह पर फलां फलां नंबर पर फोन करिए... उसे मिलिए...शर्तिया इलाज है, कुछ कुछ सरकारी जानकारी भी कभी कभी मिल जाती है ...लेकिन मैं गूगल पर जा कर या उस मंत्रालय की वेबसाइट पर विज़िट करने के बाद पुष्टि होने के बाद ही उसे आगे किसी से शेयर करता हूं....अगर उस में कुछ शेयर करने लायक होता है तो ...

दरअसल हम जो कुछ भी वाट्सएप पर शेयर करते हैं...चाहे वह माल हमें पीछे से आया है या अपने दिमाग की ही उपज हो ..एक बार हमारे हाथ से वह निकल गया तो उस पर हमारी मोहर लग गई...और अगर वह बात गलत निकली तो हमारी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न लग जाता है ...इसलिए वाट्सएप पर अपनी छवि इस तरह की बनाईए कि अगर आप कुछ शेयर कर रहे हैं तो आप के संपर्क में आने वाले लोगों को लगे कि यह बंदा यह बात शेयर कर रहा है तो ज़रूर सच ही होगी... He/she is a no-nonsense type of person!

अपनी बात की विश्वसनीयता के लिए एक अच्छा उपाय यह भी है कि आप जो भी शेयर कर रहे हैं उस के नीचे उस का स्रोत भी लगा दें...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है....आज मैं एक ग्रुप में रामवृक्ष के इतिहास के बारे में कुछ पढ़ने लगा....उस पढ़ते हुए लग रहा था कि अब यह बात ठीक है या गलत, इस का कौन फैसला करे....इसे आगे शेयर करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता....लेकिन तभी देखा उस पोस्ट के अंत में उस वेबसाइट का लिंक था जहां से उसे लिया गया था...

तुरंत उस महानुभाव की प्रशंसा की ...उन की इस शेयरिंग की वजह से इतनी अहम् जानकारी हासिल हुई...यह आदत आप भी डाल लीजिए...किसी की वाजिब प्रशंसा करने से कुछ कम नहीं हो जाता ...जो दिल में हो कह डालिए.

मैं उस लिंक पर भी गया ...और उस का लिंक आप के लिए यहां भी लगा रहा हूं...इसे अवश्य पढ़िए...और अच्छे से मेरी तरह दो बार पढ़िए....हम राजनीति नहीं करते ..लेकिन खबरों की खबर तो ले ही सकते हैं...उस में तो कोई बुराई नहीं...

यह जो मैं स्रोत को quote करने की बात कह रहा हूं...(attribution) ..वह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम लोग वाट्सएप पर जब भी कोई वाकया शेयर करते हैं उस समय हम लोग एक सिटिजन जर्नलिस्ट की भूमिका में हैं...

और सीधी सी बात ...बाकी बातों को दरकिनार भी कर दीजिए..तो भी अपनी विश्वसनीयता की खातिर केवल और केवल वही शेयर करें जिस के बारे में आपने पुष्टि कर ली हो.....वरना लोग आप को भी गंभीरता से लेना बंद कर देते हैं....

और एक सुझाव जाते जाते ..कईं बार ५०० शब्दों की जगह आप की टूटी फूटी टाइपिंग के माध्यम से कही दो पंक्तियां ज़्याद प्रभावशाली हो जाती हैं...और इस से अपनी बात को खुल कर कहना भी आने लगता है ....

रामवृक्ष के बारे में जानिए इस लिंक पर जाकर ....  जयगुरूदेव के साम्राज्य पर कब्जे को लेकर हुआ मथुरा में महाभारत     ....इस रिपोर्ट को पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि जो लोग इस तरह की रिपोर्ट तैयार करते हैं वे निःसंदेह बहुत निर्भीक होते हैं...वरना अखबारों से तो मुझे इस तरह की कोई सूचना इन दिनों में दिखी नहीं...सब की मजबूरियां हैं..चुनाव सिर पर खड़े हैं, और इस तरह का लफड़ा सत्ताधारी पार्टी कहां अफोर्ड कर सकती है!

पोस्ट का उद्देश्य केवल यही था कि किसी खबर को शेयर करते समय उस का सोर्स भी बता दिया करिए....यह बात मैंने दस -बारह साल पहले सीखी थी...आज ध्यान आया आप से साझा की जाए...it add to your credibility!


रविवार, 5 जून 2016

आप्रेशन ब्लु-स्टार की धुंधली यादें...


मुझे इस आप्रेशन की वर्षगांठ जैसा शब्द िलखने में कष्ट हो रहा है ... लेिकन सच्चाई यह है कि कुछ यादें अमिट छाप छोड़ जाती हैं..

मुझे अच्छे से याद है कि आज के ही दिन ५ जून १९८४ की रात में उस दिन मैं और मां ही घर में थे..मैं २१-२२ वर्ष का था, मेरे एग्ज़ाम होने वाले थे उन दिनों....हम लोग आंगन में चारपाईयों पर सोने की इंतज़ार में थे..अचानक लाइट गुल हुई...और टैंकरों, तोपों की भयंकर आवाज़ें शुरू हो गईं...हम लोग अमृतसर के गोबिंदगढ़ किले से सटी कॉलोनी में रहते थे...यह जगह गोल्डन टेंपल से बस दो-अढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर है..

पहले तो हमे लगा कि आर्मी की कोई एक्सरसाईज़ होगी...होती थी कभी कभी गोलाबारी ..आवाज़ें आया करती थीं...चंद मिनटों के लिए रुक रूक के...लेकिन उस दिन की तोपों, गोलों और गोलियों की आवाज़ बहुत अलग थी...भयंकर आवाज़ें थीं...किसी अनहोनी की आवाज़ें...

१९७१ की भारत पाक जंग को नज़दीक से देखा था...अचानक लड़ाकू हवाई जहाजों का आ जाना..कालोनी में भूमिगत बंकरों का बन जाना दो िदनों में, शाम के समय ब्लैक-आउट हो जाना, बीड़ी-सिगरेट वालों की खिंचाई होना...सब कुछ देख रखा था उन दो-तीन हफ्तों में...

लेकिन उस ५ जून १९८४ की रात तो उस से भी भयंकर थी...सारा आकाश लाल हो चला था..धूल-मिट्टी और लाली का गुब्बार...ऐसे लग रहा था कि जैसे दो देशों की जंग लग गई है ...वह रात बहुत भारी थी..सारे पंजाब पर, देश पर ..सारी दुनिया पर ...दुनिया ग्वाह है कि इसी के कारण बहुत सा इतिहास ही बदल गया ...उस रात ऐसा लग रहा था जैसे आज तो अमृतसर फनाह हो जायेगा....जहां तक मुझे याद है अगले कईं दिन कर्फ्यू लगा रहा ..

शायद उस दिन सारा अमृतसर जागता ही नहीं रहा होगा...सुबकता रहा होगा...हर कोई सदमे में था... लेिकन उस के कुछ दिन बाद भी हम लोगों ने कुछ ऐसी बातें सुनीं और देखीं भी जिन्हें याद भी नहीं किया जाना चाहिए...संक्षेप में कहें तो ब्लू-स्टार एक काला धब्बा था...कुछ भी कारण रहे हों, हर कोई एक आवाज़ में यही कह रहा था कि सरकार ने ऐसे हालात पैदा होने ही क्यों दिए कि अमृतसर जैसी पवित्र नगरी के इस महान स्थान पर इस तरह की कार्यवाही की आखिर ज़रूरत पड़ी!

श्री दरबार साहब, गोल्डन टेंपल या श्री हरिमंदिर साहिब ...ये सारे पंजाबियों की एक पहचान है...मैं तीन चार साल से लखनऊ में हूं...बहुत से मरीज़ों से बातें होती रहती हैं...तो वे बहुत बार पूछ भी लेते हैं ...आप कहां से हैं, मैं बताता हूं कि मैं अमृतसर से हूं...तो वे झट से चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान ला कर कहते हैं...अच्छा, हम भी गोल्डन टैंपल गये हुए हैं..फिर वे श्री दरबार साहिब की तारीफ़ें करने लगते हैं...वहां की साफ़-सफाई, वहां के अटूट लंगर की, वहां के सेवा-भाव की ...वहां के खुलेपन की ...वहां की रहमतों की ...क्या क्या दर्ज करूं, समझ नहीं आ रहा....

मेरी बचपन की यादों में गोल्डन टेंपल पूरी तरह से रचा बसा है ...किस तरह से हम लोग रिश्तेदारों के आने पर रिक्शों पर बैठ कर वहां ज़रूर जाया करते ...आधा दिन वहीं बिताना...परिक्रमा करनी, स्नान करना, लंगर छकना ...दुखभंजनी बेरी के दर्शन करना...

 मेरे प्यारी नानी...(स्व.)श्रीमति मेला देवी..पढ़ाई से कईं गुणा ज़्यादा गुढी हुई...त्याग और सहनशीलता की देवी!
शायद मैं पांचवी कक्षा में रहा होऊंगा..दरबार साहिब की कार सेवा की घोषणा हुई ...मुझे याद है मेरी नानी विशेष रूप से अंबाला से अमृतसर इस सेवा के लिए आईं...और जितने दिन वह रहीं...उतने दिन रोज़ाना वह कार सेवा में भाग लेती रहीं...दो तीन बार तो वह मेरी मां के साथ गईं...बाकी दिन, वह मेरे स्कूल से आने का इंतज़ार किया करतीं... जैसे ही मैं स्कूल से आकर खाना खा लेता, मुझे कहतीं...चलो, सेवा के लिए चलो...हम लोग दस-पंद्रह मिनट में कार सेवा के लिए पहुंच जाते...अच्छा, मुझे तो वहां चिकनी मिट्टी से कभी कभी फिसलने का डर भी लगता ..लेकिन उस देवी का विश्वास फौलाद की तरह पक्का, वह बिल्कुल परवाह नहीं करती थीं।

कार सेवा का मतलब?.... दोस्तो, बरसों के बाद जब हरिमंदिर साहब के सरोवर में गार (मिट्टी) इक्ट्ठी हो जाती थी तो उस को निकालने की सेवा की जाती थी...इसे कार सेवा कहते थे...आज से चालीस साल पहले इतने फिल्टर-विल्टर भी नहीं थे, गार तो इक्ट्ठी हो ही जाती थी..कुछ बरसों बाद फिर कार सेवा होती थी..हां, तो उस में क्या किया जाता था...हज़ारों की संख्या में साध-संगत (श्रद्धालु) नीचे तालाब में उतर जाते थे...(पानी तो उस से पहले निकाल लिया जाता था) ..फिर वहां पर सारा काम कस्सियों से होता था...जमी हुई गार को उखाड़ने का ...उसे तसलों में डाल कर बाहर निकालने का ....साध-संगत का इतना जमावड़ा देख कर लगता था जैसे लोगों का समुद्र हो वहां....मैंने उस समय से पहले इतने ज़्यादा लोग कभी नहीं देखे थे...

मुझे गार का रंग भी याद है ..लगभग काले रंग की गार ...मेरी नानी रोज़ थोड़ा सी गार वहां से लेकर चलने को कहतीं...उसे मिट्टी के गोले की शक्ल दे देती ..लगभग एक किलो का तो होता ही होगा...ऐसे कईं गोले उन्होंने उन दिनों में अंबाला में अपनी सहेलियों के लिए इक्ट्ठा कर लिए थे...जाते समय वे उन्हें ले गईं ...और जहां तक मुझे याद है..अगले दस सालों तक जब भी हम लोग अपनी नानी के यहां रहने गये...हमें उन के ट्रंक में वह हमेशा गोले दिखते...धीरे धीरे उन का साईज़ कम हो रहा था...
यह किसी दूसरे गुरूद्वारे के सरोवर की कार सेवा की तस्वीर है .
क्या करती थीं वह या उन की सहेलियां उन गार के गोलों का ...उन के लिए वह साधसंगत के चरणों की धूल थी ...बहुत पवित्र मिट्टी थी...

यह जो आस्था है ना, यह बहुत पर्सनल सी बात है ...मुझे बहुत बार लगता है कि ज़्यादा पढ़ाईयों ने हम लोगों का दिमाग खराब ज़्यादा और दुरुस्त कम किया है ...यह मेरा पर्सनल ओपिनियन है...

दरबार साहिब के लंगर की कितनी बातें करें...छोटा मुंह और बड़ी बात...वहां जब भी बैठा होता हूं तो रोम-रोम रोमांचित हुआ रहता है ...इतनी सेवा, इतना अपनापन, इतना समर्पण...no words can describe that feeling!

Sunday Times ..June5' 2016
पता है मुझे आज आप्रेशन ब्लू-स्टार का ध्यान कैसे आ गया?...मैं तो बस यही सोच रहा था कि आज सावित्री बट पूजन है, विश्व पर्यावरण दिवस है ..आज के टाइम्स के पहले पन्ने पर एक snippet दिखी कि ब्लू-स्टार की वर्षगांठ से मीडिया को बाहर रखा गया है ...मेरे विचार यह उन का निर्णय ठीक है, मीडिया को इस में जाकर लेना क्या है, ये विश्व भर के पंजाबियों के लिए विशेषकर सिक्ख समुदाय के लिए बड़ी संवेदनशील घड़ियां होती हैं...आप को उन लम्हों में घुस कर करना क्या है, आप में से अधिकतर चैनलों को तो बस टीआरपी चाहिए..उस के लिए आप इसी दिन के दो साल पुराने वीडियो चला दीजिए....जब वहां हुई एक झड़प को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया गया.......कुछ समय हर बंदे को अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए, बहुत से पुराने ज़ख्मों के भरने के लिए डाक्टर भी यही कहते हैं....अब इसे खुला छोड़ दो, हवा लगने दो....उसी तरह से उन लोगों को भी आज के दिन के लिए अपने तरीके से अरदास कर लेने दीजिए....शुक्रिया...

मुझे यह पोस्ट लिखने के बाद एक फिल्म का ध्यान आया है ..Punjab 1984...मेरे बेटे ने मुझे बंबई से आते वक्त डाउनलोड कर के दी थी..मैंने उसे ट्रेन में देखा था...लेिकन उस दिन मेरे ऊपर क्या गुजरी, मैं ब्यां नहीं कर सकता...अभी मैं देख रहा था..यू-ट्यूब पर पड़ी हुई है ...just search on Youtube ... "Punjab 1984" by Diljit Dosanjh and if possible, watch this movie to understand what really went wrong with Punjab thereafter! Please do watch!




शनिवार, 4 जून 2016

आज तो तुलसी जी स्वयं आंगन में आ गई...

सफाई अभियान चल रहा है जगह जगह ..बहुत अच्छी बात है..लेकिन कुछ जगहों पर दस लोगों के आठ सूखे पत्तों को हाथों में झाडू थमाए साफ करती हुई तस्वीरों का खूब मजाक उडाया जा रहा है ...क्या है ना, आज कल सब कुछ साफ़ से दिख जाता है ...पहले वाला ज़माना तो रहा नहीं, जो आपने कहा, मान लिया....लोगबाग आज कल बाल की खाल खींच लेते हैं...वैसे ठीक भी है!

फिर एक बात कुछ इस तरह की व्यवस्था भी शुरू हुई कि हां, सफाई अभियान की तस्वीरें तो डालिए लेकिन एक सफाई से पहले की और दूसरी बाद की...लेिकन इस तरह की तस्वीरें कम ही दिखती हैं अकसर.

कल विश्व पर्यावरण दिवस है ...वैसे तो उस के उपलक्ष्य में मैंने पोस्ट कल ही डाल दी थी...पानी की बोतलें बंद होंगी.. An eco-friendly move! 

लेिकन पर्यावरण एक ऐसा विषय है इस के ऊपर जितना लिखा जाए कम है, जब तक हम लोग अच्छे से सुधर नहीं जाएं...

आज सुबह टाइम्स आफ इंडिया पढ़ रहा था तो देखा कि उसमें िलखा है कि आज से नवभारत टाइम्स एक ग्रीन पहल कर रहा है ..उस के साथ तुलसी के बीज आएंगे..

सुन कर अच्छा लगा ..नवभारत टाइम्स की इस पहल के बारे में जानने की इच्छा हुई...ड्यूटी पर जाते समय नवभारत टाइम्स की दो कापियां ले लीं..


अोपीडी में काम कर रहा था तो एक मरीज़ आया...उस का नाम पढ़ा, साथ में लिखा था..माली...मैंने कहा, एक छोटा गमला ला सकते हो?..वह तुरंत ले आया...पेपर को खोला, उस के साथ लगी स्ट्रिप को काटा...लेकिन कोई बीज नहीं निकले....फिर दूसरे पेपर को भी काटा...उसमें से भी बीज नहीं निकले...

मुझे लग रहा था कि उस में से कुछ सरसों के बीज जैसे कुछ निकलेंगे...माली को भी समझ नहीं आ रहा था...मैं फिर पेपर को ध्यान से देखा...उस खबर को पढ़ा ..उस में लिखा था कि उस स्ट्रिप को काट कर खोलने की ज़रूरत नहीं है, उस के छोटे छोटे टुकड़े काट के गमले में बो देने हैं...फिर, माली ने वैसा ही किया....

अब देखिए इन बीजों को बो तो दिया है ...देखते हैं...इस की देखभाल भी करेंगे...जैसा बताया गया है ...

फिर भी मुझे आज दोपहर सोते समय सत्संग में सुनी एक बात याद आ रही थी ...

माली दा कम बूटे लाना, 
भर भर मश्का पावे,
मालिक दा कम फल-फुल लाना, 
भावें लावे या न लावे
(माली का कर्म है कि उसने पौधे रोपने हैं, उन्हें नियमित पानी देना है...मश्कां एक चमड़े का बैग सा हुआ करता था पहले जिसमें पानी भर कर माली पानी दिया करते थे...लेकिन पौधे को फल फूल लगने हैं या नहीं लगने हैं, यह काम परमपिता परमात्मा का है )...

जब माली को बीजों का कुछ पता नहीं चल रहा था तो वह कहने लगा कि मेरे पास तुलसी के बहुत से पौधे हैं...लेकर आता हूं ..मैंने कहा नहीं, अगर अखबार वाले इतनी सुंदर पहल कर रहे हैं तो उन की बात भी तो हमें माननी चाहिए...

मुझे ध्यान आ रहा था कि क्या इस तरह से तुलसी के चंद बीज गमले में रोप देने से ही बस पर्यावरण ठीक हो जायेगा!

लेिकन कोई भी शुभ काम करने के लिए शुरुआत तो होनी ही चाहिए....मैं यही सोच रहा था कि इसी बहाने जनजन में पर्यावरण के लिए थोड़ा बहुत उत्सुकता, जागरूकता बढ़ेगी...कम से कम कुछ तो कोमल संवेदनाएं पैदा होंगी अपने आस पास के वातावरण के प्रति...मुझे लगता है कि अगर यह भी हो जाए तो काफ़ी है, शायद हमारी सुप्त संवेदनाओं को जगाना भी इस तरह के छोटे छोटे प्रयासों का मकसद होता होगा!

कोई भी प्रयास कम नहीं है..छोटे से छोटे प्रयास भी बहुत सुंदर हैं.....बस, अब हम लोग बिना वजह की नौटंकी करनी बंद दें, फोटू खिंचवाने के लिए...उन्हें आस पास शेयर करने से गुरेज करें, अपनी मन की सुना करें, छोटी छोटी बातों के प्रति संवेदनशील होते जाइए....

मैंने भी पिछले दिनों कुछ निर्णय किये हैं....अभी शेयर कर रहा हूं कि कभी भी प्लास्टिक आदि के दोने में मिले प्रसाद को नहीं खाया करूंगा..इस के बारे में अकसर लोगों को जागरुकता तो करता ही रहता हूं...और बाज़ार जाते वक्त हमेशा कपड़े का थैला ले कर चला करूंगा...पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर अपने आप से मैंने ये वायदे किए हैं..


थोड़ी मिलावट की बात भी कर ली जाए... आज ही घर में आई ब्रेड से पता चला कि अब वे घोषणा करने लगे हैं कि हानिकारक तत्व नहीं हैं उनमें.....लेकिन मैं तो ब्रेड वैसे ही नहीं खाता..

तुलसी की बातें हो रही हैं...मुझे यह गीत बार बार ध्यान में आ रहा है ...लीजिए आप भी सुनिए..

आज मुझे बशीर बद्र जी के ये अशआर याद आए...


शुक्रवार, 3 जून 2016

बोतल बंद पानी नहीं दिखेगा...An eco-friendly move!

10-15 वर्ष पहले मैं कोंकण रेलवे पर सफर कर रहा था..विभिन्न स्टेशनों पर पानी के टोटियों के साथ एक नोटिस लगा हुआ था...आप को यहां बोतल बंद पानी खरीदने की ज़रूरत नहीं है, यहां पर नल में जो पानी सप्लाई हो रहा है, इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार जांचा परखा गया है। आप इस की शुद्धता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगा था उस दिन वह नोटिस पढ़ कर।

आप से एक प्रश्न पूछना है...आप किसी मीटिंग में जाते हैं..आप देखते हैं स्टेज पर जितने लोग हैं, हर माननीय के सामने एक बोतल रखी है ...कुछ लोग बोतल खोलते हैं..पानी की एक चुस्की लेते हैं..बस...बाकी बोतल वही...बस, कचड़ा हो गया जमा...और नीचे पंडाल में बैठे लोगों के िलए कोई छबील तो क्या, मई जून के महीने में गर्म पानी के पानी की टोटियां भी नहीं दिखतीं कईं बार...पीना है तो खरीद कर पियो....नहीं तो प्यास को दबाए रखो...आक्रोश की तरह!


हां, तो प्रश्न यह है कि अगर इस तरह के पंडाल या सभागृह में बैठे हों तो आप को कैसा महसूस होता है, चलिए, जवाब किसी को बताने की भी ज़रूरत नहीं...अपने मन में ही रखिए...आप की चुप्पी से मैं आप का जवाब समझ गया।

मैं भी जब कुछ मीटिंगों, वर्कशापों, सैमीनारों में इस तरह की व्यवस्था देखा करता था कि स्टेज पर सब के सामने एक एक बोतल पानी की ...मुझे तो बहुत अजीब या भद्दा दिखता था यह सब कुछ....क्यों भाई..कईं तरह के विचार भी मन में आते थे जिन्हें मैं भी आप की तरह मन में दबा के रखना चाहता हूं..

लेकिन आज सुबह सुबह मुझे वाट्सएप पर एक सरकारी सर्कुलर देख कर बहुत अच्छा लगा..पेयजल मंत्रालय की तरफ़ से था .. सभी सरकारी विभागों को एक रिक्वेस्ट की गई है कि सभी मीटिंगों, वर्कशापों एवं सैमीनारों में बोतलबंद पानी नहीं दिया जायेगा....बहुत बहुत बधाई ..इतना बोल्ड स्टेप लेने के लिए..

दरअसल वाट्सएप ने हमें शक्की भी बहुत बना दिया है ...हम अपने स्कूल के दोस्तों के चुटकुलों एवं उन की बातों के अलावा किसी पर भरोसा ही नहीं करते ... मैं भी किसी सरकारी सूचना को बिना वैरीफाई किए किसी के साथ आगे शेयर नहीं करता...क्योंकि फिर यह हमारी सिरदर्दी बन जाती है ..कुछ महीने पहले एक बार किसी ने  मार्फ्ड दस्तावेज (morphed) अपलोड कर दिया था...बिना वजह का झंझट...

मैंने गूगल सर्च से वेरीफाई कर के ही यह पोस्ट लिखनी शुरू की...मुझे बहुत अच्छा लग रहा है...

कुछ सुझाव भी हैं... like a bottled message in a sea! लिख रहा हूं...
  • अब यह न हो कि बोतलों की जगह वे प्लास्टिक के सीलबंद गिलास मिलने शुरू हो जाएं इन मीटिंगों में...वे भी उतने ही भद्दे लगते हैं और पर्यावरण के लिए बेहद खराब तो है ही यह सब कचड़ा...
  • सभागार में बैठे श्रोताओं के लिए भी किसी कोने में जो पानी का डिस्पेन्सर रखा है, उस के पास भी प्लास्टिक के डिस्पोज़ेबल गिलास नहीं रखे जाने चाहिए....क्यों भई, कांच के दो चार गिलास रख दीजिए..जिसे प्यास होगी, थोड़ा धो के पी लेगा..तो कौन सा शान कम हो जायेगी!
  • डेलीगेट्स के लिए छोटी छोटी मिनी बोतलबंद पानी की बोतलों का भी चलन बहुत खराब है ...ऐसी ही सैंकड़ों भरी हुई और खाली बोतलों का अंबार मेरे आधे सिर के दर्द के ट्रिगर करने के लिए काफी होता है, चलिए, मेरे पुराने सिर दर्द से किसी को क्या लेना-देना, लेकिन एन्वार्यनमैंट से तो है...यह सिलसिला भी खत्म होना ही चाहिए..
  • यह जो सर्कुलर है यह एक निवेदन जैसा है...मुझे ऐसा लगता है कि अब सभी मंत्रालयों एवं विभागों को इस तरह के सर्कुलर निकालने होंगे...और आदेश वाली भाषा में ...निवेदन-वेदन क्या, सरकारी नौकर हैं सभी ..ऊपर से नीचे तक...जैसा आदेश होगा, उस की पालना करनी ही होगी..
  • कहीं पर भी सरकारी दफ्तरों में डिस्पोजेबल गिलास भी न खरीदे जाएं...न पानी के लिए न चाय के लिए...बिना वजह हम लोग कचड़े के अंबार लगाते रहते हैं...थर्मोकोल भी तो खराब ही है ..कांच और चीनी के बर्तनों में चाय-वाय पिलाई जाए...जिसे पीनी हो पिए, वरना कोई बात नहीं घर जा के पी लेंगे..
  • और क्या लिखना है, जितना लिखें कम है..टॉपिक ही ऐसा है, हम सब कि ज़िंदगी से जुड़ा हुआ..जितनी जल्दी हम लोग अपनी आदतें सुधार लें, बेहतर होगा हमारे लिए भी और अगली पीढ़ी के लिए भी ...वरना वे भी हंसेंगे हमारे बाद कि ये बुड्ढे लोग भी कचड़े के ढेर पर बिठा कर चले गये..
  • एक सुझाव और भी है ...ये जो राजधानियां और शताब्दीयां चलती हैं..इन में भी रोज़ाना लाखों पानी की बोतलें बांटी जाती हैं...यह सब भी बंद होना चाहिए...हम कोई फिरंगी साहब लोग नहीं हैं...देश की आम जनता है सब लोग..बिना वजह के शोशेबाज़ी, फिज़ूल के नखरे (इस महान प्रजातंत्र में एक चाय बेचने वाला अगर प्रधानमंत्री बन सकता है..इस से बड़ा और मजबूत प्रजातंत्र का और क्या प्रमाण चाहिए), जिसे ज़रूरत होगी पानी खुद खरीद लेगा ...आज से तीस चालीस साल पहले ट्रेन के पहले दर्जे के डिब्बों में एक किनारे पर एक स्टील की टंकी सी पड़ी होती थी पीने वाले पानी की...वरना लोग अपनी अपनी बोतलें, मश्कें और सुराहियां साथ ही ले कर चला करते थे......एक सुझाव है..एक आईडिया देने में, जनमत तैयार करने में अपना क्या जाता है! वैसे भी मन की बात कहने को आज कल अच्छा समझा जाता है। 
जब मैं इस बोतलबंद पानी की बोतलों को मीटिंग से दूर भगाने वाली खबर गूगल कर रहा था तो कुछ और खबरें भी मिल गईं...पढ़ रहा था कि मिक्स रिस्पांस है, वह तो होगा ही ....Change is always traumatic.... लेकिन फिर जो काम करना हो तो करना ही होता है...No ifs and buts! Just orders, that's all! हम लोग ऐसे ही सुधरेंगे...फिरंगियों ने हमें इसी तरह से ही सुधरने की आदतें डाल दी हैं, क्या करें, हमारी भी मजबूरी है!

पानी ही बोतलें ही नहीं, हर जगह ध्यान रखें कि हम किस तरह से नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल कचड़े को कम कर सकते हैं...प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर सकते हैं...थर्मोकोल हटा सकते हैं...To add fuel to fire...हम लोग इन चीज़ों के अंबार लगा देते हैं..फिर उन्हें जला देते हैं...ताकि फेफड़ों तक इन के तत्व आसानी से पहुंच जाएं...जिस सत्संग में जाते हैं, वहां हलवे जैसा प्रसाद भी प्लास्टिक लाईनिंग वाले दोने में मिलता है, क्या करें, कह कह के थक गये हैं...कुछ कहते ही नहीं,अब चुप ही रहते हैं...अगर पत्तल के दोने नहीं भी मिलते तो हाथ में प्रसाद देने में क्या दिक्कत है, मेरी समझ में यह नहीं आता... लंगर के दौरान चाय भी प्लास्टिक या थर्मोकोल के गिलासों में ही होती है ...और तो और लखनऊ में बड़े मंगलवारों(यहां ज्येष्ठ माह में आने वाले मंगलवारों को बड़े मंगलवार कहते हैं..फिर कभी इन के बारे में बात करेंगे)  के दिनों लाखों टन कचड़ा प्लास्टिक और थर्मोकोल इक्ट्ठा हो जाता है.....बहुत बड़ा मुद्दा है शहर में यह कि इसे कौन उठायेगा.......इन्हें चिंता होती है उठवाने की, मुझे चिंता होती है इस कचड़े के हश्र की .....उठवा के कहीं भी जला देंगे..

इसलिए मुझे इस तरह के भंडारे बहुत अच्छे लगते हैं जिस में पत्ते के दोनों में प्रसाद दिया जाता है ...इन का क्या है, यहां से उठाए जाने के बाद दो दिन में मिट्टी में िमट्टी हो जाएंगे....

आज यहां लखनऊ में इतनी उमस है, इतनी चिलकन और गर्मी है कि क्या बताऊं...ऊपर से मैं पोस्टमार्टम के लिए विषय ऐसा शुष्क सा लेकर बैठ गया...जो भी हो, पेय जल मंत्रालय के इस सर्कुलर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है...मुझे सरकार के इस तरह के कदम बहुत भाते हैं....अब कहने वाले कह रहे हैं कि इस से क्या होगा...क्यों नहीं होगा...There is a chinese proverb...Journey of 3000 miles start with a first step!.... हो जायेगा सब कुछ होगा धीरे धीरे, शुरूआत तो हुई...किसी को यह भी लग रहा होगा कि यह भी कोई PR exercise के तहत हो रहा होगा...just a publicity gimmick... चलिए, अगर किसी को यह भी लग रहा है तो भी क्या बुराई है....कुछ भला ही तो हो रहा है हमारे और हमारे बच्चों के लिए...

कुछ ज्यादा brain-storming करने की ज़रूरत नहीं, चुपचाप इस तरह के छोटे छोटे काम पर्यावरण के लिए आप भी करते रहिए...एक एक बूंद से भी घड़ा भर जाता है....

अब इतनी ड्राई पोस्ट के बाद अगर मैं कोई डिप्रेसिंग सा गीत चला दूंगा तो बहुत अन्याय होगा...कुछ ऐसा याद करते हैं जिस में थोड़ी ठंडक हो, कुछ मस्ती हो...आप चंद लम्हों के लिए घमौरियों को भूल जाएं.....ठंडी हवाओं ने गोरी का घूंघट उठा दिया...यह गीत कैसा रहेगा! Again, one of my favorites since childhood!