सातवीं-आठवीं कक्षा के दौरान एक दिन बैठा मैं समाचार-पत्र पर निबंध लिख रहा था ..मेरे पिता जी साथ ही बैठे हुए थे...पहले पेरेन्ट्स के पास बच्चों के लिए समय भी होता था...उन्होंने कहा कि शुरू में यह भी लिखो ...
निकालो न कमानों को, न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो..
अगले दिन हिंदी के हमारे उस्ताद कृष्ण लाल तलवाड़ जी बहुत खुश हुए वह निबंध को देख कर...
उस निबंध में यह भी लिखा था कि किस तरह से हर तरह की ख़बर के लिए अखबार में जगह सुरक्षित होती है ...विकास कार्य, शिक्षा संबंधी, सेहत, वैवाहिक विज्ञापन, अन्य विज्ञापन, खेल-कूद, राजनीतिक खबरें, बवाल, ज़ुर्म आदि। जी हां, होती हैं अभी भी ये सब ख़बरें लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि हर पन्ना खून और नफ़रत से लथपथ है ..
हमेशा की तरह अभी मैंने अखबार उठाया तो मुझे हर रोज़ की तरह यही लगा कि आज कल की अखबारें हैं या क्राइम-रिपोर्टर ...हर पन्ना खून, खौफ, ज़ुर्म से रंगा हुआ...
ऐसी ऐसी खबरें देखने-सुनने को मिल रही हैं जिन की कल्पना करना भी दुश्वार होता है - ज़ुर्म के नये नये तौर तरीके!
अखबारों का इस में .कोई दोष नहीं है...मीडिया तो अपने समय का आईना होता है, वह वही दिखाता है जो समाज में उस समय घट रहा होता है..
मुझे याद है बचपन में हम लोग अखबार में कोई ज़ुर्म की खबर पढ़ लेते थे तो एक तरह से सहम जाया करते थे...लेकिन अब तो कुछ असर ही नहीं होता ..आए दिन कोई न कोई बुज़ुर्ग आदमी या औरत, या दोनों या कोई भी अकेली महिला , यहां तक की पुरूष ..ज़ुर्म की चपेट में आ ही जाता है...
बु़ुज़ुर्ग लोगों की भी आफ़त है आज के दौर में ...घर वालों से बचे तो बाहर वालों की जद में आ जाते हैं, और उन से भी बच गए तो कमबख्त मधुमक्खियों ने ही सफाया कर दिया ...
घपलेबाजी की ख़बरें अब नीरस लगती हैं!
औरतों की सोने की चेन झपट ली जाती है ..हम दोष देते हैं कि उन्हें पहन कर निकलना ही नहीं चाहिए था..लेकिन अगर कोई महिला अपने ही घर-आंगन में रात पौने आठ बजे तुलसी पर दिया जला कर मुड़े और उसे वहीं पर चार लोग आ कर धर-दबोचें तो इसे आप क्या कहेंगे! लूटपाट हुई ...और उस के ७४ साल के पति को जब गोली मारने लगे तो वह गिड़गिड़ाई कि सब कुछ लूट ले जाओ, लेकिन इन्हें मत मारो....बदमाशों ने वह बात मान ली ..जाते समय महिला से माफ़ी भी मांग कर गये कि लूटपाट हम मजबूरी में कर रहे हैं...
कल नेट पर कहीं पढ़ रहा था कि एक बुज़ुर्ग महिला का शव कईं महीनों तक घर में छिपाए रखा ताकि उस को मिलने वाली पेंशन चलती रहे...अब बैंकों वाले जीवन-प्रमाण पत्र मांगते हैं तो लोगों को उस से भी शिकायत है ..
अभी तो हम लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस तरह के डाटा लीक मामलों का हम पर असर क्या पड़ेगा, अभी तो हम लोग पहले हिंदु-मुस्लिम मामलों को सुलटा लें, जाति-पाति की नोंक-झोंक से फ़ारिग हो जाएं, फिर इन सब मामलों को समझने की कोशिश करेंगे...अभी हिंदु-मुस्लिम के मसलों में उलझते रहने का समय है!!
हम लोग वाट्सएप पर देखते हैं कि लोग बड़ा मज़ाक उड़ाते हैं लोगों का कि अब वे घर के बाहर तखती टांग देते हैं कि कुत्तों से सावधान....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसा न करें तो आखिर वे करें क्या, अब तो दिन-दिहाड़े लोग बेखौफ़ लूटपाट करने लगे हैं.. हम बड़े खतरनाक समय में जी रहे हैं...कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है ...
यह सिर्फ़ लखनऊ का ही हाल नहीं है ...मुझे लगता है कि देश के किसी भी शहर का अखबार अगर हम देखेंगे तो उस में यही कुछ बिखरा पाएंगे ....इन जुर्म करने वालों को इस बात से क्या लेना कि किस की सरकार है या कानूनी व्यवस्था कैसी है .
पेशेवर बदमाश तो बदमाश, हम लोगों के अपने भी तेवर चढ़े हुए रहते हैं ..छोटी छोटी बातों पर हम देखते हैं कि हम लोग तनाव, अवसाद, क्रोध के चलते दूसरों की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं ..अगर नहीं ले पाते तो अपनी जान लेने से भी नहीं कतराते।
इतनी बड़ी बड़ी घटनाएं हो रही हैं, ऐसे में टप्पेबाजी कितना टु्च्चा काम लगता है!
Add caption
यह मुद्दा बडा़ संजीदा है, हमें मिल जुल कर इस का हल ढूंढना ही होगा..
पच्चीस साल पहले जिस सत्संग में जाता था वहां पर हमें अखबार पढ़ने के लिए मना किया करते थे कि क्या तुम लोग सुबह सुबह अपने दिमाग में सारा कचड़ा भर लेते हो...कुछ समय के लिए अखबार पढ़ना छोड़ भी दिया था ..लेकिन फिर मन में विचार आया कि यह तो कोई हल न हुआ ...और हम जैसे लोग जो कंटेंट-एनेलेसिस करते हैं, वे अखबार पढ़ेंगे तो ही दीन-दुनिया का पता चलेगा वरना तो दो दिन अगर अखबार नहीं देखते तो कूप-मंडूक जैसी हालत होने लगती है .. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि सुबह उठते ही अखबार पढ़ने का वक्त गल्त है ...वह समय अपने आप के लिए रखना चाहिए..कोशिश करूंगा इस आदत से छुटकारा पाने की..
हर तरफ गुस्सा, विरोध, ताकत का इस्तेमाल, लूट-पाट, चोरी-डाका, आगज़नी, जालसाज़ी, हत्याएं, हंगामे....सुबह उठते ही यह सब अपने अंदर ठूंस लेने से शरीर की बेचारी हारमोन प्रणाली का क्या होता होगा! -इतना सब कुछ ग्रहण करने के बाद, इन सब की ओव्हर-डोज़ के बाद यह कैसे सही रह सकती है ...आप को क्या लगता है?
कुछ साल पहले अमेरिकी स्कूलों में ही यह सब होता था!
मुझे तो वह संपादक वाला और उस के साथ वाला पन्ना ही भाता है ..लेकिन वही मेरे से अकसर छूट जाता था!
इस तरह की जुर्म की जुल्मी ख़बरें देखने के बाद अखबार के आखिर पन्ने पर यह ख़बर भी दिख गई...जैसे वह समाज को कोई सबक सिखा रही हो कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ...
वैसे ये सारी खबरें आज की अखबार की ही हैं...और अगर किसी खबर को तवसील से पढ़ने का मन कर ही जाए, तो उस तस्वीर पर क्लिक कर के उसे आप पढ़ सकते हैं...
दो तीन दिन पहले मैं मुंबई के क्रॉसवर्ड में कुछ किताबें खरीद रहा था ..अचानक मेरी नज़र एक किताब पर पड़ी...उस का शीर्षक ही बड़ा आकर्षक लगा...किताब का टाईटल था ..गुरू- भारत के जाने-माने बाबाओं के किस्से..
वैसे तो कहां यह सब बातें शेयर करने की फ़ुर्सत रहती है कि हम लोग कौन सी किताब पढ़ रहे हैं, कौन सा सीरियल देख रहे हैं...पहले यह रिवाज होता था जब मेरी मौसी पोस्ट-कार्ड में लिख भेजती थी कि उन्होंने घरौंदा देख ली, खिलोना दो बार देख ली, तलाश के गाने गजब के हैं...आज कल हम लोग खामखां दूसरे वाट्सएप जैसे कामों में अधिक व्यस्त रहते हैं!
जी हां, मैं दो तीन दिनों से ही इस किताब को ही पढ़ रहा हूं...इस में किन किन बाबाओं के किस्से दर्ज हैं, इस की लिस्ट आप यहां देख सकते हैं...
इस किताब में भय्यू जी महाराज पर भी एक चेप्टर है ..इसलिए भी मुझे इस किताब के बारे में लिखने की जिज्ञासा प्रबल हुई... यह जो साथ में लिखा है शहराती सिद्ध, इस का अर्थ मुझे उर्दू डिक्शनरी में भी नहीं मिला ..
(आज इन्हें भी राज्य मंत्री बनाया गया है)
और मैं चाहता हूं कि इस किताब के बेक-कवर पर लिखी टिप्पणी को भी आप अच्छे से पढ़ें...अगर ठीक से न पढ़ा जाए तो इस तस्वीर पर क्लिक करेंगे तो आराम से पढ़ पाएंगे..
मैं तीन चार बाबा लोगों के बारे में ही अभी तक पढ़ पाया हूं...और हैरान हूं ..(बहुत हल्का शब्द है हैरान, मैं एक तरह से Shocked ही हूं) इस किताब के किस्सों को देख-पढ़ कर ... पहली बात तो यह कि जो पिछले कुछ दशकों से कुछ बाबा लोगों के बारे में सुनते आ रहे हैं, वे सब बातें सच ही हैं...ऐसा मुझे यह किताब पढ़ने पर ही पता चल रहा है।
मन ही मन मैं ऐसी किताब लिखने वाले लेखक की हिम्मत की दाद देता हूं..वरना मेरे जैसे लोग तो अपने ब्लॉग पर भी तोल-तोल के लिखते हैं।
इस पढ़ते हुए मुझे यह भी ध्यान आ रहा है कि इस तरह की किताबें आमजन तक पहुंचनी चाहिए...यह निहायत ज़रूरी बात है ...किताबें पढ़ने से ही हम बहुत सी बातों से रू-ब-रू हो पाते हैं...किताब की डिटेल्स तो आपने देख ही ली होगी..अगर आप को किताब कहीं से नहीं भी मिले तो मेरी सलाह है कि इन बाबा लोगों के बारे में आप नेट से भी विकिपीडिया जैसी जगह से पढ़ सकते हैं...इस किताब में जो बातें दर्ज हैं, उन का संदर्भ भी किताब के आखिर में लिखा गया है। यह किताब की विश्वसनीयता को बढ़ाता है।
मुझे यह किताब पढ़ते पढ़ते यही लगा कि ये सब कितना बड़ा खेल होता है, ये बाबा लोग कितने शक्तिशाली होते हैं, कैसे सत्ता के केंद्र बन जाते हैं, सत्ता के गलियारों तक इन की पहुंच...ये बातें इतनी डिटेल में मैं पहले नहीं जानता था।
संयोग भी क्या है देखिए कि आज मैंने यह शेयर करने की सोची कि मैं कौन सी किताब पढ़ रहा हूं..और आज ही मध्य-प्रदेश में पांच बाबाओं के राज्यमंत्री की खबर दिख गई...अभी टीवी लगाया तो एनडीटीवी पर रवीश भी सारी बात समझाने की कोशिश कर रहा था...
यही सोच रहा हूं कि ये लेखक, पत्रकार लोग भी ग्रेट होते हैं...ये हमारी आंखे और कान हैं....हम तक वे बातें पहुंचाते हैं जिन्हें हम अपने स्तर पर शायद कभी जान ही न पाते ...फिर भी सुनिए सब की, पढ़िए सब कुछ, देखिए भी ... फिर भी अपनी आंखे, कान और दिमाग खुला रखिये...सब कुछ आप के विवेक पर भी निर्भर करता है ...और रही बाबा लोगों की बात, किसी को परिवार में भी कोई रास्ता दिखाने-समझाने की कतई कोशिश मत करिए...हर किसी को अपने हिस्से का सच तलाशने का हक है। है कि नहीं?
किसी भी जगह जाऊं तो वहां का पुराना शहर, पुराने घर और उन की घिस चुकीं ईंटें, वहां रहने वाले बुज़ुर्ग बाशिंदे जिन की चेहरों की सिलवटों में पता नहीं क्या क्या दबा पड़ा होता है और इस सब से साथ साथ उस शहर के बड़े-बड़े पुराने दरख्त मुझे बहुत रोमांचित करते हैं।
आज दरख्तों की बात करते हैं...पंजाब हरियाणा में जहां मैंने बहुत अरसा गुज़ारा...वहां मैंने दरख्तों के साथ इतना लगाव देखा नहीं या यूं कह लें कि पेड़ों को सुरक्षित रखने वाला ढांचा ही ढुलमुल रहा होगा ..शायद मैंने वहां की शहरी ज़िंदगी ही देखी है..गांवों में शायद दरख्तों से मुहब्बत करते हों ज़्यादा... पता नहीं मेरी याद में तो बस यही है कि जैसे ही सर्दियां शुरू होती हैं वहां, बस वहां पर लोग पेड़ों को छंटवाने के नाम पर कटवाने का बहाना ढूंढते हैं..
मुझे बचपन की यह भी बात याद है कि दिसंबर जनवरी के महीनों में अमृतसर में हातो आ जाते थे (कश्मीरी मजदूरों को हातो कहते थे वहां ...जो कश्मीर में बर्फबारी के कारण मैदानों में आ जाते थे दो चार महीनों के लिए काम की तलाश में)...वे पेड़ों पर चढ़ते, कुल्हाड़ी से पेड़ों को काटते-छांटते और और फिर उस लकड़ी के छोटे छोटे टुकडे कर के चले जाते ...इन्हें जलाओ और सर्दी भगाओ....इस काम के लिए वे पंद्रह-बीस-तीस रूपये लेते थे .. यह आज से ४०-४५ साल पहले की बात है।
हां, तो बात हो रही थी दरख्तों की ....मैं तो जब भी किसी रास्ते से गुज़रता हूं तो बड़े बडे़ दरख्तों को अपने मोबाइल में कैद करते निकलता हूं और अगर वे पेड़ रास्तों में हैं तो उस जगह की सरकारों की पीढ़ियों को मन ही मन दाद देता हूं कि पचास-सौ साल से यह पेड़ यहां टिका रहा, अद्भुत बात है, प्रशंसनीय है ...वह बात और है कि इस में पेड़ प्रेमियों के समूहों का भी बड़ा योगदान होता है...वे सब भी तारीफ़ के काबिल हैं...
हम लोग कहां से कहां पहुंच चुके हैं ...कल मैंने एक स्क्रैप की दुकान के बाहर एक बढ़िया सा फ्रेम पडा़ देखा...बिकाऊ लिखा हुआ था ... खास बात यह थी कि इस फ्रेम में एक बुज़ुर्ग मोहतरमा की तस्वीर भी लगी हुई थी .. पुराने फ्रेम को बेचने के चक्कर में उन्होंने उस बुज़ुर्ग की तस्वीर निकाल लेना भी ज़रूरी नहीं समझा...होगी किसी की दादी, परदादी , नानी तो होगी..लेकिन गई तो गई ...अब कौन उन बेकार की यादों को सहेजने के बेकार के चक्कर में पड़े..
ऐसे माहौल में जब मैं घरों के अंदर घने, छायादार दरख्त लगे देखता हूं तो मैं यही सोचता हूं कि इसे तो भई कईं पीढ़ियों ने पलोसा होगा... चलिए, बाप ने लगाया तो बेटे तक ने उस को संभाल लिया..लेकिन कईं पेड़ ऐसे होते हैं जिन्हें देखते ही लगता है कि इन्हें तो तीसरी, चौथी और इस से आगे की पीढ़ी भी पलोस रही है ....मन गदगद हो जाता है ऐसे दरख्तों को देख कर ...ऐसे लगता है जैसे उन के बुज़ुर्ग ही खड़े हों उस दरख्त के रूप में ...
मैं जब छोटा सा था तो मुझे अच्छे से याद है मेरे पापा मुझे वह किस्सा सुनाया करते थे ...कि एक बुज़ुर्ग अपने बाग में आम का पेड़ लगा रहा था, किसी आते जाते राहगीर ने ऐसे ही मसखरी की ...अमां, यह इतने सालों बाद तो फल देगा... तुम इस के फल खाने तक जिंदा भी रहोगे, ऐसा यकीं है तुम्हें?
उस बुज़ुर्ग ने जवाब दिया....बेटा, मैं नहीं रहूंगा तो क्या हुआ, मेरे बच्चे, बच्चों के बच्चे तो चखेंगे ये मीठे आम!
मुमकिन है यह बात आप ने भी कईं बार सुनी होगी..लेकिन जब हम लोग अपने मां-बाप से इस तरह की बातें बचपन में सुनते हैं तो वे हमारे ऊपर अमिट छाप छोड़ जाती हैं...
बडे़ बडे़ पेड़ घरों में लगे देख कर यही लगता है कि इस घर में सब के पुराने संस्कार अभी अपनी जगह पर टिके हुए हैं ..नहीं तो पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने में देर लगती है क्या, बस बहाना चाहिए और एक इशारा चाहिए.. यकीनन इन पेड़ों को कईं पीढ़ियों ने प्यार-दुलार से पलोसा होगा, तभी तो आज वे गर्व से सीना ताने खड़े हैं!!
कल मैंने जब एक बंगले में इन पेड़ों की यह हालत देखी तो मुझे राहत इंदौरी साहब की यह बात याद आ गई ...
यही विचार आ रहा है कि हम लोग अाज के बच्चों को पेड़ों से मोहब्बत करना सिखाएं....दिखावा नहीं, असली मोहब्बत ...दिखावा तो आपने बहुत बार देखा होगा ..
एक दिखावे की तस्वीर दिखाएं ... इसे अन्यथा न लें (ले भी लें तो ले लें, क्या फ़र्क पड़ता है!😀) शायद ऐसा होता ही न हो, एक लेखक की कल्पना की उड़ान ही हो...जैसा भी आप समझें, एक बार सुनिए ...जी हां, फलां फलां दिन पेड़ लगाए जायेंगे। जब पेड़ लगाने कुछ हस्तियां आती हैं.. उन के साथ उन का पूरा स्टॉफ, पूरे ताम-झाम के साथ, किसी ने पानी की मशक थामी होती है, किसी ने उन के नाम की तख्ती, किसी ने डेटोल लिक्विड सोप, किसी ने तौलिया ...और ऊपर से फोटो पे फोटो ...अगले दिन अखबार के पेज तीन पर छापने के लिए....अब मेरा प्रश्न यह है कि वे पेड जो ये लोग लगा कर जाते हैं वे कितने दिन तक वहां टिके रहते हैं...कभी इस बात को नोटिस करिएगा....
पिछले दिनों मैंने कुछ पेडो़ं के ऊपर कोलाज तैयार किए थे, सोच रहा हूं उन की नुमाईश भी यहीं लगा दूं... आज तो मौका भी मिला हुआ है ... 😀😂😎
यह बिल्कुल पेज थी टाइप इवेंट होता है ...शायद उस स्वच्छता मुहिम के जैसा जहां दस लोग झाड़ू पकड़ कर दस पत्तों के साथ फोटो खिंचवाने आ जाते हैं... फोटो देखने वाले को यह पता ही नहीं चलता कि यार, यहां पर गंदगी तो लग ही नहीं रही, सब कुछ तो चमाचम वैसे ही है ...इसीलिए एक स्कीम भी आई थी कि सफाई से पहले और बाद की फोटो भी शेयर की जाएं...उसी तरह का कुछ पोधारोपण के बारे में भी होना चाहिेए... आधार को जैसे हम जगह जगह लिंक किए जा रहे हैं, उसी तर्ज़ पर जिस व्यक्ति की उन पौधों को पालने की जिम्मेवारी बनती हो उन की Annual Confidential Report भी इन पौधों की सुरक्षा के साथ जोड़ दी जानी चाहिए..
यह तो हो गई औपचारिकता....और दूसरी तरफ़ एक बच्चा घर से ही सीख रहा है ...कि कैसे पौधे को रोपा जाता है, कैसे उसे पानी दिया जाता है, कितना पानी चाहिए, खाद की क्या अहमियत है .. और ऐसी बहुत सी बातें ...
बात लंबी हो रही है, बस यही बंद कर रहा हूं इस मशविरे के साथ कि ....We all need to celebrate trees!! दरख्त हमारे पक्के जिगरी दोस्त हैं, इन के साथ मिल कर जश्न मनाते रहिए, मुस्कुराते रहिेए...
मैं मीट, मछली, अंडा नहीं खाता, इस का बिल्कुल भी धार्मिक कारण नहीं है ...एक तो मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा मुझे मैडीकल/वैज्ञानिक नजरिये से भी (इस को भी आप अधिकतर पर्सनल ही समझिए) ठीक नहीं लगता ....जिसे ठीक लगता हो, वह खाये, पिए...हर एक की अपनी मरजी है .. क्या ख्याल है? लेकिन मुझे यह सब खाने वालों से रती भर का कोई परहेज नहीं है ... परिवार में ही कुछ खाते हैं, कुछ नहीं खाते ...पर्सनल च्वाईस..!!
उसी तरह से मैं बाहर कुछ भी खाना पसंद नहीं करता हूं जाहिर सी बात है इस का भी कोई ऐसा-वैसा कारण नहीं है.....बिल्कुल भी नहीं है, खूब खाते ही रहे हैं....लेकिन मुझे पता है कुछ लोग धर्म-जाति के फ़िज़ूल के चक्कर में भी बाहर नहीं खाते .. लेकिन मैं यह जानता हूं कि कारण कुछ भी हो, जो लोग बाहर नहीं खाते वे बड़े बुद्धिमान होते हैं ....यह मैं ५५ साल की उम्र में कह रहा हूं....सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जाती है जैसे, बिल्कुल वैसे ही ....इतनी उम्र हो गई बाहर से बहुत कुछ खाया ..लेकिन अब विभिन्न कारणों की वजह से बाहर का कुछ भी अच्छा नहीं लगता... कुछ अहम् कारण तो ये हैं .. मिलावटखोरी, गंदा घी, नकली घी, मिलावटी तेल, नकली दूध....लालच और इस के साथ साथ हमारी लगातार गिरती हुई सोच ...मुझे मुनाफ़ा चाहिए, किसी की सेहत का मैंने ठेका नहीं ले रखा ...
मुझे अपने पेशे की वजह से बहुत से लोगों के साथ उन के खाने-पीने के बारे में बात करने का मौका मिलता है .. कुछ तो इतने कट्टर मिलते हैं ..विशेषकर पुराने लोग ...जो बाहर चाय भी नहीं पीते ...मैं इस की छानबीन कभी नहीं करता कि उन का बाहर न खाने का क्या कारण है ...कारण कुछ भी हो, लेकिन मेरी नज़र में वे सब लोग बहुत समझदार होते हैं...
नये नये नौकरी पर लगे युवक आते हैं....सारे बताते हैं कि वे स्वयं खाना बनाते हैं, जो लोग मिल कर रहते हैं वे मिल जुल खाना बना लेते हैं...दरअसल आज की तारीख में यह दकियानूसी सोच की रोटी बनाना औरतों का ही काम है, इसलिए बेटों को यह सब सीखने-करने की कोई ज़रूरत नहीं है, यह बिल्कुल सड़ी-गली सोच है, इस से हम लोग भविष्य में होने वाली दुश्वारियों के चलते लाड़लों की सेहत ही खराब करते हैं .. ऐसी भी दर्जनों उदाहरणें देखी हुई हैं मैंने ..
बाहर कुछ ढंग का नहीं मिल सकता ...घर में साधारण खाना भी पौष्टिकता से भरपूर होता है और बाहर का दो दिन पुराना शाही पनीर भी बीमारी का कारण!
दो दिन पहले यादव जी आए ...६५ के करीब की उम्र थी ..रिटायर्ड थे ...अच्छे हृष्ट-पुष्ट थे...मैंने उन के पूछने पर बताया कि मैं अमृतसर से हूं ...कहने लगे कि मैं भी १९७० के दशक के आसपास वहां रहा था .. क्या गजब की जगह है, बताने लगे कि रिश्तेदार अभी भी वहीं हैं...बता रहे थे कि बाहर से कुछ भी नहीं खाता, लईया-चना-सत्तू ही लेकर चलता हूं सफर में भी ...एक रोचक बात बताई उन्होंने जो विरले लोगों के लिए प्रैक्टीकल हो सकती है ..बताने लगे कि ड्यूटी पर बाहर भी जाता था ..दिल्ली विल्ली कभी ...तो मेरे बैग में थोड़े से चावल, दाल, नमक, मिर्च, हल्दी....एक प्याज, एक दो आलू, धनिया..होता ही है..किसी भी बाग-बगीचे के चौकीदार से पतीली मांग कर वहीं पर तहरी तैयार कर लेता हूं ..उसी समय उसे पतीली लौटा देता हूं....मैंने कहा कि आग का क्या जुगाड़ ?.....हंस के कहने लगा कि लकड़ीयों की क्या कमी है साहब यहां पर, यहां वहां से उठा कर काम चल जाता था।
ऐसा अनुभव मैंने पहली बार सुना था ...और ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया ...और अगर अमृतसर में कुछ खाना हो तो ... तो वह उछल पडा़ ...साहब, वहां की तो बात ही कुछ और है ...वहां की तो मुझे मिट्टी मिले तो मैं वह भी खा जाऊं...
अमृतसर की मिट्टी से इतना लगाव देख कर मैं भी भाव-विभोर हो गया ...मैंने कहा कि यह तो मेरे जैसी सोच है ...मैं भी बाहर कुछ नहीं खाता...लेकिन अमृतसर में जा कर मैं कुछ भी खा सकता हूं..
यहां लखनऊ में हम लोग आए तो शुरू शुरू में दो तीन बहुत बड़े रेस्टरां में गये .. एक बार खाने में एक कीड़ा निकला और दूसरी बार एक छोटा सा कॉकरोच ...मसाला डोसा खाते वक्त यह हुआ....उस दिन के बाद मैंने तो तौबा कर ली ...फिर दूसरी चीज़ें तो खाते-पीते ही रहे ...बस, खाना ही नहीं खाते थे ...लेकिन इधर कुछ समय से मिलावट के ऐसे ऐसे किस्से सुन लिेये हैं कि अब तो खौफ़ लगता है कुछ भी बाहर खाने से ...और फूड-हैंडलिंग की बात न ही करें तो ठीक है!
जब भी बाहर खाया...अच्छे से अच्छे रेस्टरां में भी , हर बार तबीयत खराब ही करवाई ...कईं बार अगले दिन सुधर गई और कईं बार हार कर चार पांच दिन दवाईयां खाने की सिरदर्दी पल्ले पड़ गई ...
और लोगों को भी यह सब समझाते रहते हैं...लेकिन हमारे कहने से लोग गुटखा-पान मसाला नहीं छोड़ते तो बाहर से खाना कैसे छोड़ सकते हैं!!
मेरे ख्याल में बंद करूं इस बात को यहीं पर ....ऐसे ही आज इस पर लिखने लग गया ....दरअसल अपने अमृतसर के स्कूल वाले ग्रुप में हमारे एक साथी ने अमृतसर के एक नामचीन रेस्टरां में पूड़ी-छोले की प्लेट की वीडियो भेजी जिसे मैं यहां एम्बेड कर रहा हूं... आप भी देखिए ....इस तरह का बाहर खाते-पीते हमारा ध्यान कभी आचार की तरफ़ तो जाता ही नहीं है, क्या ख्याल है, हम इस तरह के कीड़े वीड़े तो अमरूदों में ढूंढते फिरते हैं ...किस तरह से आचार में कीड़े पड़े हुए थे....इस वीडियो को सहेज कर रख लिया है ....अगली बार यादव जी आए तो उन के संज्ञान में भी लाना ज़रूरी है .... वे भी गल्तफहमी से बाहर निकलें ....और मैं तो इस गल्तफहमी से बिलकुल बाहर आ गया कि अमृतसर में तो मैं कहीं से भी कुछ भी खा-पी सकता हूं ...
शुक्रिया, सुनील भाई, इस वीडियो के लिए .. और हां, जब मुझे यह वीडियो मिली तो मुझ से खुली नहीं, नेटवर्क नहीं था शायद, वीडियो से पहले सुनील का संदेश दिखा कि फलां फलां रेस्टरां के पूडी़-छोले छके जा रहे हैं....मैंने कोशिश की कि उसे वह वीडियो भेजूं ...कि खाओ, पियो, ऐश करो मितरो, दिल पर किसे दा दुखायो ना...शुक्र है यह वीडियो मैंने उसे भेज नहीं दी ...क्योंकि असली माजरा तो उस की पूड़ी-छोले वाली वीडियो और गाजर का अचार देख कर ही समझ में आया...
और मुझे यहां यह भी बताना ज़रूरी लगता है कि मैं जब एक दो दिन कहीं बाहर होता हूं तो क्या करता हूं....फ्रूट चाट बनाता हूं, सलाद बना लेता हूं ... और सूखी भेल, और कोई ब्रांडेड चिवड़ा खा लेता हूं...मिष्ठी दही लेता हूं ...चाय बना लेता हूं, खिचड़ी भी बना लेता हूं ...घर में ...भगवान का शुक्र है कि यादव जी जैसा जुगाड़ करने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी ....रब्बा वे, तेरा लख लख शुकर है ....
अब इस पोस्ट के मूड के साथ मिलता जुलता गाना लगा दें ?
आज सुबह मेरे पास यहां लिखने के कुछ खास है नहीं...बस, अपने उस्ताद की बात याद आ गई..
दरअसल आज से १६-१७ साल पहले मैं केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा आयोजित एक नवलेखक शिविर में शामिल होने आसाम के जोरहाट में गया हुआ था ..पंद्रह दिन तक चला था यह शिविर...
उस दौरान लिखने-पढ़ने की बहुत सी बारीकियां सीखने का मौका भी मिला ... एक बहुत बडे़ लेखक ने उन दिनों हमें बताया कि उन के दादा जी पुराने ज़माने में एक कागज़ पर चीनी,घी, आटा, चावल, दाल आदि खाने-पीने वाली वस्तुओं के दाम लिखते रहते थे .. बस, सौ साल बाद वह एक विश्वसनीय दस्तावेज़ बन गया ...यह भी साहित्य ही है ...वे हमें समझाते थे कि रोज़ लिखो, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखो और जो मन में आए अपनी डॉयरी में दर्ज करते जाइए... अब यही मशविरा मैं नये लेखकों को देता हूं ...रोज़ डॉयरी में एक सफ़ा भी लिखेंगे तो साल में हो गये ३६५ सफ़े....यकीं मानिए इन में ५०-६० तो कहीं छपने लायक भी ज़रूर होंगे ...बस, रोज़ाना कुछ भी लिखना लाज़मी है ..
डायरी वायरी में तो कुछ साल सब कुछ दर्ज किया ..फिर २००७ से जो कुछ भी कहना होता है अपने आप से या दूसरों से इसी ब्लॉग में ही सहेज लेने की फ़िराक में रहता हूं...
आज की इस पोस्ट में भी आप को चंद तस्वीरों और कुछ रेट-लिस्टों के अलावा कुछ नहीं दिखने वाला .. बंबई में आज घर कितने में मिलता है, क्या रेट है, कूरियर के क्या रेट हैं, मैडीकल जांच करवाने के लिए कैसे तैयार किया जा रहा है ...इन तस्वीरों पर नज़र फेर कर आप जान पाएंगे ...जान तो क्या पाएंगे, आप सब तो सुधि पाठक हैं, पहले ही से बहुत कुछ जानते हैं, बस मेरे कैमरे में बंद कुछ तस्वीरें देख लेंगे ....और हां, कुछ तस्वीरें बोलती तो हैं ही ...
कल मैंने बांद्रा एरिया की एक चर्च के बाहर यह बात पढ़ी.....मैंने इस का मतलब समझने की बहुत कोशिश की ..लेकिन मेरी समझ में अभी तक तो यह बात आई नहीं....मुझे चर्च के बाहर इस तरह के मैसेज पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, इन में ज़िंदगी को जी लेने की कला छिपी होती है .. पता नहीं, इस गधे वाले शख्स की बात मेरे पल्ले क्यों नहीं पड़ रही ...
अगर आप को इस बात का मतलब पता हो तो कमैंट में लिखिएगा...
आज सुबह टहलने निकले तो अपनी बिल्डिंग में हर तरफ़ बसंत ऋतु का नज़ारा देखने लायक था ...हरे भरे वृक्ष और फूलों से लदे हुए जैसे कुदरत मौसम के मिजाज का लुत्फ उठा रही हो ..
अभी बिल्डिंग से बाहर निकले ही थे तो बाहर इस तरह से पेड़ पर पहली बार कटहल लगे हुए देखा ....जर्नल-नालेज कमज़ोर ही है मेरा भी ...मैं बिल्कुल भूल गया था कि कटहल भी पेड़ पर ही उगते हैं...सोच कर हैरानी भी होती है कि जितने बड़े बड़े कटहल बाज़ार में बिकते हैं वे कैसे पेड़ पर टिके रहते होंगे ...
आगे बढ़े तो देखा कि किडनी स्टोन और प्रोस्टेट ग्लैंड की जांच का एक इश्तिहार टंगा हुआ है जगह जगह ....३५०० रूपये के टैस्ट फोकट में करने की बात पची तो नहीं .. लेकिन फिर भी एक फोटो खींच ही ली... यहां चसपा करने के लिए ...
अभी थोडा़ आगे बढ़े थे कि किसी मकान बिकाऊ का एक इश्तिहार दिख गया ... पास जा कर देखा तो यह किसी बैंक के द्वारा किया गया किसी नीलामी का नोटिस था किसी फ्लैट का .. आप भी देखिए और इसे इत्मीनान से पढ़िए...यह जानने के लिए मुंबई में पाली हिल इलाके में इन दिनों प्रापर्टी का रेट क्या चल रहा है..
आगे चलते हैं ...एक छोटे से दुकानदरा की क्रिएटिविटी कुछ ऐसी दिखी ....मैंने फोटो खींची तो वह हंसने लगा ...कहने लगा कि इस के दो फ़ायदे हैं, एक तो बैठने की जगह मिल गई और दूसरा आते जाते हुए वाहन मेरे स्टाल के दरवाजे से टकरा कर उसे बंद नहीं कर पाते अब ... सही ही कहते हैं ..Necessity is the mother of invention!
उसी स्टाल पर ही एक कूरियर कंपनी का इश्तिहार पड़ा हुआ था ...उत्सुकता हुई मुझे देखने की ...क्योंकि मैं कूरियर के मामले में अभी भी बीस साल पहले के रेटों में ही कहीं अटका पड़ा हूं...जब कभी कोई चिट्ठी कूरियर करवाने जाता हूं और वह सौ रूपये मांग लेता है तो मेरे शरीर में एक हल्का सा करंट दौड़ पड़ता है ... फिर ध्यान आता है कि अब बीस-तीस रूपये वाली बात भी तो बीस साल पुरानी हो गई है ....इसलिए इस कूरियर की रेट-लिस्ट की भी फोटो खींच ली ..ताकि भविष्य में मुझे कूरियर रेट सुन कर लगने वाले हल्के करंट का प्रभाव कुछ कम हो सके ....यकीं मानिए, इसे पढ़ कर मुझे नहीं लगता कि मुझे भविष्य में ऐसी कोई तकलीफ़ कभी होगी...
आते वक्त इस पेड़ पर जब नज़र पड़ी तो हमेशा की तरह बचपन में बडे़-बुज़ुर्गों द्वारा घुट्टी की तरह पिलाई गई बात याद आ गई कि इस तरह के पेड़ों के इन खाली "खुड्डों" में सांप छिपे होते हैं...हा हा हा हा हा .....😀😁😂....अब तो मैं दांत निकाल रहा हूं लेकिन बचपन में ऐसी बात सुन कर ही हम लोग सहम जाया करते थे..
अच्छा, आज के दिन के लिए गप्पबाजी इतनी ही काफ़ी है ... सोच तो आप भी यही रहे होंगे कि तुम टहलने गये थे या तस्वीरें खींचने....मैं अपने आप से भी यही पूछ रहा हूं ...जब कि मैं भी जानता हूं कि मेरा टहलना तो बस फोटो खींचने का एक बहाना होता है ...वरना .. टहलना!!
अब मैं वापिस अपनी किताब की तरफ़ लौट रहा हूं ...मैं आजकल इसे पढ़ रहा हूं ...यह रूपा पब्लिकेशन की किताब है ...बहुत ही बढ़िया है ..
जाते जाते सोच रहा हूं कि रामनवमी के उपलक्ष्य में आज के दिन एक भक्तिगीत लगा दूं....यह गीत मुझे बेहद पसंद है ....शायद मैंने १९७३-७४ के आसपास जब अमृतसर में दूरदर्शन आया ही था....तब इसे टीवी पर ही देखा था ...बाद में तो कईं बार देखा ..और गली-मोहल्लों में लाउड-स्पीकरों पर तो यह गीत उस दौर में अकसर बजता ही रहता था .. राम चंदर कह गये सिया से ...ऐसा कलयुग आयेगा !! .....आयेगा क्या भईया, आ चुका है..!!
नकली दांतों की बात करता हूं तो बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं अकसर ...जब हम लोग ननिहाल में गये होते ...नाना जी खाना खाने के बाद हैंडपंप के पास पहुंचते और बच्चों में से किसी को एक इशारा ही मिल जाता कि अब नाना जी कुल्ला करेंगे ...हैंडपंप को गेड़ना है दो मिनट के लिए हमें...मुझे अभी भी याद है अच्छे से कि किस तरह से वह हर खाने के बाद कुल्ला करने से पहले नकली दांतों का पूरा सैट मुंह से निकाल कर उसे भी हैंडपंप के पानी से जल्दी से धोते और खटाक से मुंह के अंदर बिठा लेते और हमारा कौतूहल भांप कर मुस्कुराते हुए कोई उर्दू की किताब पढ़ने में मशगूल हो जाते .. वे एक उर्दू अखबार के संपादक भी थे ...
समय का चक्का आगे चला ...नकली दांतों के बारे में पढ़ने, समझने, तैयार करने और उन्हें मरीज़ के मुंह में फिट करने का प्रोफैशन मिल गया ...इस दौरान तमाम तजुर्बात हुए ..हर तरह के .... कुछ दिन पहले नकली दांतों के पांच सैट वाला एक शख्स मिला तो सोचा कि चलिए, इस पर ही कुछ कहते हैं।
जब हम लोग डैंटिस्ट्री करते हैं तो पढ़ते हुए भी हमें मरीज़ों के नकली दांतों के सैट -शायद दस मरीज़ों के -- तैयार करने होते हैं...अब, इतनी प्रैक्टिस तो उस समय होती नहीं है ...ऐसे ही जल्दबाजी में कोटा पूरा करने के चक्कर में लगे रहते थे ... सरकारी कॉलेज था, फिर को मरीज़ों को नकली दांत लगवाने के लिए शायद १००-२०० रूपये जमा तो करने ही पड़ते थे ...अस्सी के दशक में भाई यह रकम भी काफी होती थी ..
किसी को दांत फिट नहीं हुए, किसी को चुभ रहे हैं, किसी का मुंह अजीब सा हो गया है ...ये सब आम समस्याएं होती हैं नये दांतों के साथ ... एक किस्सा जो मुझे ताउम्र याद रहेगा कि हमारी एक सीनियर थी...उसने एक बुज़ुर्ग महिला का डेंचर तैयार किया ...उसे फिट नहीं आ रहा था ...बार बार आ रही थी, वैसे भी नकली दांतों का सैट लगवाने के लिए मरीज़ को पांच छः बार तो आना ही होता था, वह हमारी सीनियर जब भी उसे दूर से देखती तो उस के पसीने छूटने लगते ...उस दिन भी जैसे ही बेबे आई ...उसने कहा कि यह दांत किसी काम के नहीं हैं....लेकिन सीनियर ने अपनी दलील दी कि हो जाएंगे रवां होते होते ... इतने में बेबे ने ज़ोर से उन दांतों को वहीं कमरे में पटका और ज़ोर से कहा ...लै रख ऐन्ना नूं वी, मेरे तो किसे कम दे नहीं, मैं समझांगी १०० रूपये दी सवा तेरे सिर च पा दित्ती..." (यह ले रख ले इन दांतों को, मेरे लिए तो किसी काम के हैं नहीं, मैं तो यही समझूंगी कि मैंने तेरे सिर पर १०० रूपये की राख डाल दी.).....और बुदबुदाते हुए वह बेबे चली गईँ....
इतने सालों में हर तरह के मरीज़ के साथ पाला पड़ा और पड़ भी रहा है ...कुछ एक दम ज़िंदगी से संतुष्ट ...कुछ ऐसे जो सब कुछ होते हुए भी हर समय शिकायत की मोड में दिखे .. कुछ बिना दांतों के भी या दो चार दांतों के साथ भी एकदम खुशी से लबरेज दिखे ...जब उन्हें दांत लगवाने के लिए कहा भी गया तो उन का जवाब यही था कि क्या करने हैं, अपना काम चल रहा है, कोई दिक्कत नहीं है ...दांत नहीं हैं तो क्या है, चने तक भी मैं इन इन चंद दांतों और टूटी फूटी दांत की जड़ों से चबा लेता हूं...कुछ कहते हैं कि अब क्या करना है, कितने दिन बचे हैं ज़िदगी में ...ऐसे ही गुजर-बसर हो जायेगी, चल रहा है अपना काम...उस दिन एक बुज़ुर्ग महिला मेरे पास अकेले आई थी जिसने कहा कि बेटा कहता है अब नकली दांतों पर इतना खर्च करोगी, तुम रहने ही कितने दिन वाली हो....उस की बात सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ।
ऐसे ऐसे मरीज़ दिखे जिन के नकली दांत देखने में ही लगता था कि यार, इन में को बहुत गड़बड़ है, इन्हें बनाते समय किसी से कुछ चूक हो गई है, लेकिन नहीं, वे मज़े में दिखे, सब कुछ खा पी रहे थे उन दांतों से ... (उन्हें कभी उन दांतों की कमियां गिनाने की हिमाकत कभी नहीं की मैंने)...और कुछ ऐसे नकली दांतों वाले जिन के दांत एकदम परफैक्ट हैं, लेकिन उन्हें उन से बीसियों शिकायते हैं ... इस के पीछे दांतों की कुछ कमी तो हो सकती है लेकिन बुज़ुर्ग लोगों की कुछ अन्य समस्याएं भी होती हैं...जैसे एक उम्र के बाद मुंह में लार का बनना कम हो जाना ...आदि आदि ... लेकिन कुछ यह सब हैरतअंगेज़ तरीके से स्वीकार कर लेते हैं .. और कुछ (बहुत कम) शिकायत ही करते रहते हैं .. जब हम लोग पढ़ते थे तो ऐसे मरीज़ों को साईकिक कह देते थे जब डाक्टर हम लोग आपस में बात करते थे ...व्यक्तिगत तौर पर मुझे किसी के लिए यह शब्द कहने में गुरेज़ ही रहा है ...दांतों से कोई संतुष्ट नहीं है , बार बार आ रहा है तो हम उसे कह दें कि वह तो पगला गया है....नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होता, कुछ तो दुश्वारियां उस की भी होंगी!!
अपने आस पास भी देखा .. नानी पहनती थीं डेंचर, मेरे पापा भी पहनते थे ...लेकिन याद नहीं कभी इन्होंने ने कोई शिकायत की हो, इन दांतों के बारे में ... मेरे कहने का आशय यही है कि अगर कोई खुश है अपने नकली दांतों से या नाखुश है तो इस के पीछे बहुत से अन्य कारण होते हैं.... which are beyond the scope of this light article! But, yes, there are many such reasons like his/her mental make-up, their personal life, self-esteem, social life ... ये सब बातें तय करती हैं कि कोई अपने नकली दांतों से ही क्या, ज़िंदगी से भी खुश है या वक्त को धक्का ही दिया जा रहा है बस!!
यह तो कोई मैडीकल पोस्ट नहीं लग रही है, किस्सागोई जैसा मामला लग रहा है ...हां, तो बहुत से किस्से ऐसे भी नज़रों में आए कि रात को बिल्ली, चूहा नकली दांत खाट के पास पडे़ हुए ले कर चला गया, नहाते समय दांत नीचे गिरे और सैट टूट गया, किसी ने चलती बस में थोड़ा मुंह बाहर निकाल कर खांसा तो डेंचर गायब.....ये सब किस्से अपने मरीज़ों को भी सुनाने पड़ते हैं उन्हें आगाह करने के लिए....
पंजाबी में एक कहावत है ...जब पैसा ज़्यादा होता है तो लड़ने लगता है ...लड़ने लगता है का मतलब कि उसे यहां-वहां-कहां भी खर्च करने की खुजली होने लगती है ... किसी ने नकली दांतों का सैट लगवाया हुआ है ..खुश है...लेकिन किसी रिश्तेदार ने जबड़े में फिक्स दांतों का सैट डेढ़-दो लाख रूपये खर्च कर लगवा लिया है ...इसलिए अब उसे भी वैसा ही पक्का काम करना है ....अपनी तरफ़ से तो समझा देते हैं ऐसे लोगों को भी ....शायद समझ भी जाते होंगे!
कुछ दिन पहले एक बुज़ुर्ग से मुलाकात हुई ... पिछले दस सालों से नकली दांतों का सैट पहन रहे हैं... दस साल पहले जो सैट लगवाया था वह जब थोडा़ घिस सा गया तो नया सैट बनवा लिया ... चंद साल पहले ... वैसे बता रहे थे कि उन नकली दांतों से शिकायत कुछ भी नहीं है अभी तक ...बस, फिर लखनऊ के किसी दूसरे इलाक में जा कर नया सैट बनवा लिया ... इतने में किसी ने कहा कि मेडीकल कालेज से बनवा लो ... उस के बारे में कहते हैं कि उन्होंने बहुत दौड़ाया लेकिन वह सैट किसी काम का नहीं है, एक दिन भी नहीं पहना ... इतने सालों से वह सैट न. २ ही पहन रहे थे कि उन्हें लगा कि नया सैट ही बनवा लिया जाए ... तो उन्होंने एक सैट और बनवा लिया ... और फिर उसमें कुछ प्राबल्म सी लगी (बताता हूं अभी उस के बारे में भी, थोड़ा सब्र रखिए जनाब) तो उसी डाक्टर से एक और सैट लगवा लिया ... लेकिन उस से भी मज़ा नहीं आया....मज़ा उन्हें नहीं आया कि किसी और को नहीं आया, अभी सुनाएंगे आप को पूरा किस्सा ...
इन में से एक सैट इन के मुंह में था, और दो जेब में
इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि इन बुज़ुर्ग साहब के पास कुल मिला कर नकली दांतों के पांच सैट हैं...जिन में तीन तो वे मुझे दिखाने लाये थे .. अभी पिछले कुछ महीनों में इन तीन सैटों पर बाईस हज़ार के करीब खर्च कर चुके हैं,...रिटायर सरकारी मुलाजिम हैं, उम्र ७५ के करीब. लेकिन नकली दांतों से अभी भी खुश नहीं हैं..
मुझे इन की बातचीत से लगा कि इन्हें इन सब नकली दांतों के सैट से कोई विशेष शिकायत नहीं है शायद.... लेकिन इन के बच्चों को है...शिकायत यह है कि एस सैट तो ऐसा बन गया है कि मुंह में लगाते पता ही नहीं चलता कि लगाया भी हुआ है या नहीं, और दूसरा सैट ऐसा है कि वह लगाते ही इन का ऊपर वाला होंठ थोड़ा सा ऊपर उठ जाता है, नकली दांत थोड़े बाहर की तरफ़ हैं... इन के बच्चे ऐसा मानते हैं .... मैंने पांच मिनट लगा कर यह सैट की वजह से होंठ ऊपर उठने वाली समस्या तो सुलटा दी .... खुश हो गये, लेकिन मुझे पता है कि वह समस्या अधिकतर मानसिक/काल्पनिक ही थी ...
उस दिन मैं एक ऐसे शख्स से पहली बार मिला था जिस के पास नकली दांतों के पांच सैट थे .. लेकिन वह फिर भी नाखुश था ... उस से बात करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि खुशी भी कितनी सब्जैक्टिव है, हर बंदे के अपने अपने मयार हैं खुशी को मापने-नापने के ...मुझे उस दिन वह भी याद आ रहा था कि हम लोगों ने वह भी मंज़र देखे हैं जब लोग फुटपाथ पर नकली दांतों के सैट रख कर बेचा करते थे .. जो जिसके नाप का हो, डाल कर देखे और ले जाए ...(इस का मैं चश्मदीद गवाह हूं) ...बेशक, यह एक गलत ही नहीं बेहद खतरनाक प्रैक्टिस रही है ... दांत एक दूसरे के फिट नहीं आ सकते .. और इन में रेडीमेड वाला कोई कंसेप्ट नहीं हो सकता ...और मैंने तो कईं बार देखा है लोग चश्मे भी ऐसे ही पुराने खरीद कर चढ़ा लेते हैं...जी हां, नज़र के चश्मे ...यह तो अभी भी होता देखा है मैंने कईं बार ...
यह भी एक अलग तरह की खाई है ...किसी के पास नकली दांतों के पांच पांच सैट और फिर भी पैसा लड़ रहा है ...मन मचल रहा है कि कुछ इस से भी उम्दा हो तो वही करवा लें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोग जो एक सैट के लिए तरसते हुए इस दुनिया से रूख्सत हो जाते हैं ...और कुछ को बच्चे यह कह कर टाल देते हैं कि अब तुम्हारी बची ही कितनी है, और कितना जिओगे!!
चलिए, बहुत हो गई किस्सागोई, अब अपनी पसंद का एक गीत लगा रहा हूं, शायद यह आप की भी पसंद हो ...just check this out!
सुबह अखबार देखा तो एक पूरी फेहरिस्त भी दिखी थी कि आज के दिन विश्व जल दिवस के मौके पर कौन कौन से प्रोग्राम कहां कहां होने जा रहे हैं...मैं आज के दिन के बारे में शायद भूल ही गया होगा अगर आज सुबह छोटी सी साईकिल यात्रा के दौरान मुझे खास देखा न होता...
ऐसा भी क्या खास देख लिया मैंने? -- आपने देखा होगा कि कुछ घरों के बाहर बहुत सारा पानी इक्ट्ठा हो जाता है ... पानी गंदा होता है, काई जमी होती है ...जानवर भी वहां पर पानी नहीं पीते, बिल्कुल बदबूदार, बीमारीयां परोसने वाला और मच्छरों की कॉलोनी होता है यह पानी ...आप ने ज़रूर देखे ही होंगे ऐसे मंज़र...इसे आप छप्पड़ से कंफ्यूज़ नहीं कर सकते ...
छप्पड़ क्या होते हैं...पहली बात तो यह है कि शायद यह पंजाबी का लफ़्ज है ...हिंदी में पोखर, तालाब कहते होंगे ...अकसर ये बरसाती पानी से गांव में या शहरों की खाली जगहों पर बन जाते थे ...बचपन में हम देखते थे हमारे साथी लोग उन छप्पड़ों में कूद कूद कर मज़ा किया करते थे और हम बस किनारे पर बैठ कर उन की हिम्मत की दाद दिया करते, शायद थोड़ी जलन भी होती लेकिन बस वहां किनारे पर मन ममोस कर बैठे ही आते ....उन छप्पड़ों में गाय, भैंस भी तैरने का आनंद ले रही होतीं...वे भी क्या दिन थे!
एक तो मैं बात को खींचने बड़ा लगा हूं... सीधी सी बात है कि आज सुबह मैंने देखा कि ऐसे ही एक गंदे पानी के तालाब के पास एक धोबी मैले कपड़ों की गठरियां खोलने में मशगूल था .. दोष उस का भी नहीं है, अब धोबीघाट तो पुरानी फिल्मों में ही दिखते हैं...उसने भी पूरी रिसर्च कर ही रखी होगी...वह भी अपना काम करे तो आखिर करे कहां...पापी पेट का सवाल है ...और सब से बड़ी बात जब ग्राहक को कोई शिकायत नहीं है तो आप और हम कौन होते हैं टांग अड़ाने वाले ....बस, ध्यान यही आ रहा था कि ऐसे पानी से धुले कपड़ों की साफ़-सफ़ाई का क्या म्यार होता होगा! यह एक लखनऊ की नहीं, सारे देश की समस्या होगी शायद!
मैंने अपने अनुभव और आबज़र्वेशन के आधार पर कह सकता हूं कि पर्यावरण की जितनी सेवा ऐसे लोग करते हैं जिन्हें हम कम पढ़ा लिखा, कम अवेयर कहते हैं या वे लोग जो कम साधन-संप्पन होते हैं ... वही लोग पेड़ों को काटने से गुरेज करते हैं... कम पानी में अपना निर्वाह करना जानते हैं... मजबूरी वश ही शायद, लेकिन वे लोग सीमित में भी खुश रहते हैं....पहाड़ों का ही देखिए, वहां के लोग तो प्राकृतिक संसाधनों को सहेज कर रखते हैं ...लेकिन पूंजीपति ही वहां जा कर कंकरीट के जंगल तैयार कर के पर्यावरण संतुलन में गड़बड़ कर देते हैं...
इसलिए मुझे हमेशा लगता है कि तरह तरह के दिन मनाने के नाम पर जो लोग या संस्थाएं पेज-थ्री जैसे आयोजन करती हैं ...वे सिर्फ़ पब्लिसिटी बटोरने का काम करते हैं ..अधिकतर ....(जेन्यून भी हैं बहुत से लोग) ... मुझे बड़ी चिढ़ होती है ऐसे प्रोग्रामों के नाम से ...मैं जानता हूं कुछ प्रभावशाली लोगों ने इन मौकों को नेटवर्किंग का बहाना बनाया हुआ है ...फंड्स मिलते हैं, मशहूरी होती है....रसूखदार लोगों के साथ उठना-बैठना होता है ...अखबारों में फोटो छपती हैं...बस...
लेकिन मेरा यकीन है कि सारा काम तो ज़मीन से जुड़ा हुआ आदमी ही करता है ...पेड़ अधिक लगाता है, मोह करता है उनसे, पानी का संरक्षण भी करता है ... शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में यकीन भी ज़्यादा रखता है ... एक तरह से पर्यावरण का संतुलन जितना भी बचा हुआ है उसी के भरोसे बचा हुआ है ...मुझे इस समय उस महान पर्यावरण संरक्षक सुंदर लाल बहुगुणा की याद आ रही है जो पहाड़ी क्षेत्रों में जब कोई पेड़ काटने पहुंचता था तो वह पेड़ों से चिपक जाता था कि पहले मुझे पर कुल्हाड़ी चलाओ, फिर पेड़ पर चलाना! ..अनगिनत ऐसे उदाहरण पड़े हुए हैं...
दरअसल पानी दिवस की बात होगी तो और भी बहुत सी बातें होंगी, सब कुछ आपस में गुंथा हुआ है ... पानी के बचाव की बात होगी, संरक्षण की बात भी ज़रूरी है और पानी अधिक से अधिक बरसे, इस का भी मंथन होगा...पेड़ों के संरक्षण की बातें होंगीं, नदियों को सुरक्षित रखने की चर्चा होगी, प्रदूषण कम करने की बात भी जुड़ेगी....कार्बन ईमिशन कम करने की चर्चा, पेट्रोल का कम इस्तेमाल, ए.सी आदि का कम से कम उपयोग.....सब मुद्दे इतने जुड़े से हैं कि इन के जुड़ाव का सम्मान करना और इन के बारे में सचेत रहना भी पर्यावरण की सेवा ही है ...
शहरी लोग तो शेव और ब्रुश करते समय पानी की टूटी ही बंद रखें, कार और बागीचे में अगर रिसाईक्लड पानी से काम चला लिया करें तो यह भी एक सेवा ही है ... बड़ी बड़ी बातें बड़े लोगों के बड़े बड़े वादों पर छोड़ते हैं.. कुछ पता नहीं लगता कौन जेन्यून है और कौन जुमलेबाजी में माहिर है बस ...जैसे कईं बार हम असली नकली में फ़र्क पता नहीं कर पाते ...आज सुबह मैं घर के बाहर गया तो यह फूल देखा ....मुझे लगा कि इस बहार के मौसम में कितने रंग-बिरंगे रंग रंग के फूल खिल रहे हैं... लेकिन मैंने उठाया तो मुझे तब पता चला कि यार, यह तो नकली है!
इसी बात पर यह गीत याद आ गया, इसे सुनने लगा हूं...लेख-वेख को यही छोड़ते हैं... जितना कह दिया उतना ही काफ़ी है !!...
आज सुबह पहली मरीज़ थी एक महिला ५० साल के करीब की उम्र की ... आध घंटे पहले अपने पति के साथ अस्पताल ही आ रही थी कि लखनऊ के ईको गार्डन के पास दो लुक्खे आए ...और उसके एक कान की सोने की बाली खींच के हवा में उड़ गये ...(ईको गार्डन यहां का एक पॉश एरिया है)...
पति ने बताया कि वह अकसर ३५-४० की स्पीड से ही स्कूटी चलाते हैं...और जो दो लुक्खे आये उन की पल्सर मोटरसाईकिल की स्पीड बहुत तेज़ थी .. उन्होंने एक झपट्टे में ही यह काम कर डाला ... पीछे से आ रहे एक मोटरसाईकिल वाले को उन्होंने कहा कि इन का पीछा करो भाई ... कुछ दूर तक उसने उन लुक्खों का पीछा तो किया ..लेकिन लुक्खे तो ठहरे लुक्खे, कहां किसी की पकड़ में आते हैं...
इस महाशय ने १०० नंबर पर फोन किया ...दारोगा अपनी कार में पहुंच गये .. और डॉयरी वॉयरी में कुछ रपट लिख ली उन्होंने ...
यह सब बातें एक सरदार जी सुन रहे थे जो भी एक मरीज़ थे ...उन्होंने अपना अनुभव शेयर किया कि जिस एरिया में वे लोग रहते हैं वहां तो मियां-बीबी सैर कर रहे होते हैं ...तो पीछे से अचानक मोटरसाईकिल सवार लुक्खे आते हैं और धक्का देकर आदमी को गिरा देते हैं और औरत के ज़ेवर नोच कर उड़ जाते हैं..
सरदार जी ने बताया कि अभी हाल का ही एक वाकया है कि एक औरत से चैन और कंगन की झपटमारी हुई ...उसके साथ उस की एक सहेली थी .. अभी वे लूट कर जा ही रहे थे और सहेली ने ज़ोर२ से शोर मचाया तो उस ने उसे कहा ...चुप कर, नकली ही थे। जैसे ही यह आवाज़ उन लुटेरे के कानों में पड़ी, वे लोग वापिस लौटे और महिला के मुंह पर कस के दो कंटाप मार गये कि नकली ज़ेवर पहन कर निकलती हो ...
बात वही है रोज़ ये जेवर लूटे जा रहे हैं...और हर शहर में ये घटनाएं हो रही हैं....अखबारें गवाह हैं ...शायद अब तो लोग ऐसी खबरें पढ़ते भी नहीं ... यह एक आम सी बात हो गई है ... और आज में सोच रहा था कि जो लोग इस तरह की लूट का शिकार औरतों से सहानुभूति दिखाते हैं वह भी काफ़ी हद तक सतही ही होती है ...कहीं न कहीं मन में सब के यही रहता है कि सारी दुनिया जानती है कि इस तरह की लूट अब बहुत आम बात हो गई है, ऐसे में हम लोग गहने-ज़ेवर पहन कर निकलते ही क्यों हैं....
बात सुनने में बड़ी अजीब सी लगती है कि लूट की घटनाएं होती हैं इसलिए औरतें ज़ेवर पहनना ही बंद कर दें ... ठीक है, अगर नहीं कर सकतीं तो ऐसी लूट के लिए तैयार भी रहें ... कानून व्यवस्था हम सब जानते हैं..कितने लुटेरे कब पकड़े जाते हैं और कितना माल उनसे बरामद होता है, यह आप और हम जानते हैं .... सरकार को Z plus security देनी है ...व्ही आई पी लोगों को भी ऐसे माहौल में सुरक्षित रखना है ...और भी बहुत से इंतजाम करने होते हैं...!!
मुझे कभी यह समझ नहीं आता कि इस तरह के हालात में लोग ज़ेवर पहनते ही क्यों हैं....बात सिर्फ़ लूट की ही नहीं है, जो लूटने निकला है ...वह पूरी तैयारी से निकला है ... और जो शिकार है वह एकदम निहत्था...वह शख्स कह रहा था कि हम तो शुक्र मनाते हैं कि हम लोग स्कूटर से गिरे नहीं ...अगर इस को (बीवी की ओर इशारा कर के कह रहा था) ब्रेन-हेमरेज हो जाता तो हम क्या कर लेते! आम आदमी कैसे अपने मन को तसल्ली दे लेता है!!
उसने बताया कि कुछ समय पहले उस की बेटी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ ..वह लड़कियों को स्कूटर चलाना सिखाती हैं और काफी साहसी है, ऐसे ही मोटरसाईकिल पर तीन लुक्खे आए, उस की सोने की चेन झपट कर दौड़ने लगे ...उसने भी अपनी स्कूटी तेज़ की और उन के पास जैसे ही पहुंची, एक ने तमंचा उस की तरफ़ कर दिया ...बस, वह अपनी जान बचाने के चक्कर में पीछे हट गई।
यह दोनों मियां बीबी मेरे पास अपने दांत उखड़वाने आए हुए थे ... दांत तो वे उखड़वा ही गये ... लेकिन बीच में एक बार झल्ला कर कहने लगा वह शख्स कि मैं तो कहता हूं कि असली सोना पहनना ही नहीं चाहिए... नकली ही पहनना चाहिए...
मैंने कहा कि पहनना ही क्यों चाहिए, और क्या गारंटी है कि नकली सोना पहनने वाले सुरक्षित रहेंगे ....जो भी इस तरह के सिरफिरे होते हैं वे पूरी तैयारी के साथ आते हैं... मैंने कहा कि हमारी तो एक अंगूठी पहनने की हिम्मत नहीं होती.... कब, कौन, कहां रोक ले क्या भरोसा....वैसे भी हम कौन सा "शक्तिमान" हैं...
हां, तो इस से बचने का एक ही उपाय है कि लोग सोना पहन कर बाहर निकलना बंद कर दें ...अगर मेरी बात बुरी लगे तो अपनी सेफ्टी का इंतज़ाम भी स्वयं ही कर के निकलिए ....वरना उस शख्स की तरह उम्मीद ज़िंदा रखिए जैसे वह मुझे जाता जाता कह गया ..डाक्साब, मैंने भी उन्हें देख तो लिया है, आते जाते ध्यान रखूंगा ...और कभी तो मेरे हत्थे चढ़ ही जाएंगे....उस की इस बात से आज फिर लगा कि सच कहते हैं दुनिया आस पर टिकी है ..हम सब के अपने घरों में या बिल्कुल आसपास इक्का दुक्का किस्से हो चुके हैं, लेकिन हम हैं कि बाज़ ही नहीं आते सोना पहनने से .. अपनी जान तो जोखिम में डालते ही हैं, साथ में जाने वाले के लिए भी मानो खतरे की माला पहन कर चलते हैं... क्या ख्याल है आपका?
PS...सोने वोने से मुझे तो लगता नहीं कि कुछ होता है ...कुछ लोग पांच रूपये की मोती की माला में भी चमकते हैं और कुछ सोने लादे हुए भी ....Thank God beauty is not skin deep! Beauty is a very holistic concept...you know what I want to convey!
बर्फी फिल्म के इस गीत की तरह ही हम सब लोगों की हंसी-खुशी है ....क्या आप को ऐसा नहीं लगता? It has a very big message!!
मुझे ऐसा लगता है कि यह सवाल बड़ा अहम है ...कि हमें कितना पानी पीना चाहिए और कब पीना चाहिए...इस के बारे में बिन मांगी सलाह देने वालों का तांता लगा हुआ है ... इतने लोग आप को इस सवाल का जवाब अपने अपने तरीके से देने वाले मिल जाएंगे कि सिर ही भारी हो जाए!
मुझे याद है कि कुछ साल पहले मेरे पास एक बुज़ुर्ग आए थे ओपीडी में ...और सलाह देने लगे कि सुबह उठते ही दस पंद्रह गिलास पानी पीने चाहिए..मुझे अजीब सी बात लगी ...मैंने कहा कि इतना पानी कोई पी भी सकता है सुबह सुबह ...कहने लगे कि मैं तो पीता हूं ..इसे हाइड्रोथैरेपी कहते हैं... और मैं एक दम फिट रहता हूं...जिस बात के बारे में मुझे वैज्ञानिक तर्क नहीं मिल पाता उसे मैं एक कान से डाल कर दूसरे से निकाल दिया करता हूं...
और मजेदार बात यह होती है कि इस तरह के सलाह-मशविरे देने वाले लोगों को मैडीकल साईंस की ABC भी नहीं पता होती ...इसीलिए जब भी मुझे कोई मैसेज किसी विशेषज्ञ से मिलता है तो अकसर मैं समझ जाता हूं कि इस बात पर उस विशेषज्ञ की मोहर लगी हुई है ...
अभी बैठा हुआ था तो अपने एक पुराने ज़माने के स्कूल से दिनों से साथी डा चावला का एक वाट्सएप मैसेज आया ...जिसे मैंने यहां अपलोड किया है ... यू-ट्यूब के ज़रिये यहां लगाना चाहा तो अपलोड नहीं हुआ... मैंने ऐसे ही यू-ट्यूब पर हिंदी में यह लिख कर सर्च किया कि हमें कितना पानी पीना चाहिए और कब पीना चाहिए....बस, फिर क्या था, लाइन लग गई वीडियोज़ की .. कोई बाबा, कोई एक्सिविस्ट, कोई फलाना कोई ढिमका ... मैंने तो एक ही खोली और यू-ट्यूब बंद कर के डा चावला से मिली वीडियो पर ही फोकस करने लगा ...
मैं चाहता हूं कि आप यह जानकारी अच्छे से देखें और इस पर अमल भी करें ...
दरअसल इस तरह की पोस्टें शेयर करने के पीछे मेरा स्वार्थ भी छिपा होता है ...मैंने कहीं पढ़ा था और बहुत बार सुना भी है कि सीखने का सब से बढ़िया तरीका यह भी है कि आप पढ़ाना शुरू कर दीजिए...खैर, मैंने तो क्या पढ़ाना है, इस का मतलब आप यह ले लें कि जो बात या जो इल्म आप तक पहुंचा है आप उसे आगे बांटना शुरू कर दें ..क्योंकि जितनी बार आप उसे आगे भेजते हैं ..उतनी बार वही बात आप अपने आप से भी कह रहे होते हैं ...किसी भी बात पर अमल करने के लिए यह बड़ा ज़रूरी है ..
जब मैं यह वीडियो देख रहा था तो बीच में मैंने एक स्क्रीन-शॉट लिया जो जानकारी मुझे बड़ी सटीक लगी ...आप से भी शेयर करता हूं अभी ...
लेकिन लगता है यह स्क्रीन-शॉट ज़्यादा क्लियर नहीं है ...चलिए, पैन से लिख कर आप से शेयर करते हैं....क्योंकि यह जानकारी काफी अहम है याद रखने के लिए...आप के लिए भी और मेरे लिए भी ...
ज़्यादा गर्मी होने पर, एक्सरसाईज़ करते वक्त पानी की डिमांड बढ़ना नेचुरल है
बातें हम लोग जानते हैं ...शायद ज़रूरत से ज़्यादा जानते हैं लेकिन इस्तेमाल नहीं करते, कर नहीं पाते या इस्तेमाल कर पाने की तमन्ना ही नहीं होती ... इसीलिए बार बार कुछ अच्छी बातों को दोहराया जाना ज़रूरी होता है ...
मैं भी इस हिसाब से दिन भर की ज़रूरत का लगभग आधा या उससे थोड़ा ज्यादा ही पानी पीता हूं ....गलत बात है ...सुधर जाना ज़रूरी है ...यह जो सुबह उठते ही दो गिलास पानी पीने वाली बात है ..यह मुझे जब याद आ जाती है तो मैं ज़रूर पी लेता हूं ...फिर एक दो महीने की छुट्टी ...हां, खाने से बाद ३०-४० मिनट बाद ही पानी पीता हूं जैसा कि इस वीडियो में बताया गया है ..लेकिन खाना खाने से ४० मिनट एक गिलास पानी पीने वाली बात को नज़रअंदाज़ करता हूं...
शायद आप भी मेरी तरह पानी तभी पीते हैं जब प्यास लगती है लेकिन मैडीकल विशेषज्ञ यही कहते हैं कि जब आप को प्यास लगती है तो इस का मतलब है कि आप के शरीर में पानी की कमी होने लगी है (डीहाईड्रेशन) ...इसीलिए यह नौबत आने ही नहीं देनी चाहिए....
आज से आप भी पानी पीने के बारे में सचेत रहिए...मैं भी कोशिश करूंगा .. अभी लिखते लिखते ही मुझे ध्यान आया शाम के समय पानी पीने वाली बात का तो मैंने अभी एक गिलास पानी पिया ...
और हां, बच्चों को भी छुपटन से ही ये आदतें डाल दीजिए...क्योंकि बचपन की आदतें ही आगे चल कर पक्की होती हैं....कईं लोगों से सुनता हूं कि गुनगुना पानी पीना चाहिए सर्दी में ...लेकिन वह मेरे से बिल्कुल नहीं पिया जाता ... इतना अजीब लगता है कि क्या बताएं! और बचपन से ही आदत है कि खांसी-जुकाम होने पर बस नमक वाले पानी से गरारे करने हैं, मुलैठी चूसनी है ...बेसन का सीरा पीना है ....बस, यही परफैक्ट इलाज समझता हूं आज तक ...कभी भी ऐंटीबॉयोटिक लेने की इच्छा ही नहीं हुई खांसी जुकाम के लिए ....अगर कभी शुरू भी कर दिया तो महज़ एक ही खुराक के बाद छोड़ दिया ....क्योंकि गरारे और मुलैठी से ही ठीक लगता है ....वही बात है, बहुत सी आदतें बचपन से ही पड़ जाती हैं...
तो ठीक है, दोस्तो, आज से हम सब अपनी पानी पीने की आदतों को देखेंगे .... सुधारेंगे ...और पानी पीने के लिए प्यास लगने का इंतज़ार नहीं करेंगे ...यह बहुत ज़रूरी है .. और हां, ज़रूरत से बहुत ज़्यादा पानी पीने के क्या नुकसान हैं....वह भी आपने वीडियो में देख ही लिए...इस से गुर्दे साफ़ नहीं होते, उन पर लोड पड़ता है ...और हां, कुछ शारीरिक व्याधियां ऐसी होती हैं जिन में डाक्टर लोग स्वयं मरीज़ को कम पानी पीने के लिए कहते हैं ..विशेषकर कुछ गुर्दे की बीमारियों में ...
बस अपना ध्यान रखिए ...और इन बातों को याद रखिए ..
एक बाबा है जो अकसर टीवी पर दिख जाता है ...उसे अचानक गुलाब जामुन दिखने लगते हैं, हलवा दिखने लगता है...खीर दिखने लगती है ..बस, मुझे भी पानी पर लिखते लिखते मोहम्मद रफी साहब का यह सुपरहिट पंजाबी गीत याद आ रहा है ...जिसे २०-२५ साल की उम्र तक शायद सैंकड़ों-हज़ारों बार आल इंडिया रेडियो जालंधर से सुन चुका हूं...
मैं किसी भी काम के माहिरों की बहुत कद्र करता हूं और यह ज़रूरी भी है ... ये लोग अपनी सारी ज़िंदगी अपने काम में महारत हासिल करने में गुज़ार देते हैं...इसलिए जब भी वाट्सएप पर कोई भी पोस्ट किसी माहिर की शेयर की हुई मिलती है तो मैं उसे बड़ी संजीदगी से पढ़ता हूं और समझने की कोशिश करता हूं...
और अगर यह माहिर कोई डाक्टर हो और वह अपने पेशे से जुड़ी कोई बड़ी अहम् बात शेयर कर रहा हो तो बात ही क्या है! यकीन मानिए देखने में आप को वह बात बिल्कुल छोटी लगेगी लेकिन उस का हमारी सेहत पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है ...
चुटकुले, मज़ाक, व्यंग्य, सरकारों की नुक्ताचीनी, ट्रोल ....इन सब से अलग कुछ समय संजीदा किस्म की बातें भी पढ़ने समझने में बिताना ठीक होता है ...
मैंने अभी अभी वाट्सएप पर देखा कि हमारे अपने डीएवी स्कूल के ग्रुप में हमारे एक प्रिय साथी डा चावला ने एक पोस्ट शेयर की है ...यह एक अनुभवी सर्जन हैं...और जब मैंने उसे देखा तो यही सोचा कि इतनी अहम बात तो आगे भी ज़्यादा से ज्यादा लोगों के साथ शेयर करनी चाहिए... ये माहिर लोग दिन भर पेट की तकलीफ़ों से जूझ रहे परेशान लोगों को देखते हैं...वही मस्से, कब्ज, भगंदर, नासूर, फिस्चुला ....इसलिए अगर एक सर्जन की तरफ़ से ऐसी हिदायत आई है कि जैसे हम लोग पहले नीचे बैठ कर शौच किया करते थे वही तरीका बिल्कुल सही था ....तो यह बात मानने में ही हमारी भलाई है ..
इस वीडियो को मैं यहां एम्बैड भी कर रहा हूं .... आप देखिए कि किस तरह से इंगलिश टॉयलेट पर बैठने से हमारी आंतड़ियों की सफाई में रूकावट पैदा होती है ... और फिर हम तरह तरह की तकलीफ़ों से रूबरु होने लगते हैं....
और हां, इंगलिश टॉयलेट ही है अगर घर में या किसी कारणवश आप नीचे बैठ ही नहीं पाते हैं तो आप अपने पैरों के नीचे एक स्टूल रख सकते हैं जैसा कि इस वीडियो में दिखाया गया है ...
मैं तो इसे आज से ही लागू करने का मन बना लिया है ....आप देखिए, एक तो हमारा बैठने का तरीका सही नहीं, ऊपर से हाथ से मोबाईल या बुरी खब़रों से ठूंसा हुई अखबार ....फिर हम कहते हैं कि पेट अच्छे से साफ़ नहीं होता ... आप खुद ही समझदार हैं....अपनी सेहत से जुड़े फ़ैसले आपने खुद ही करने होते हैं...
मुझे ध्यान आ रहा है कि मैंने भी कुछ महीने पहले एक पोस्ट लिखी थी टॉयलेट में साफ़-सफ़ाई के बारे में ...उस का लिंक भी यहां लगा रहा हूं, देखिएगा....
जाते जाते ध्यान आ रहा है कि बहुत से मैडिकल विशेषज्ञ तो कुछ बोलते ही नहीं सोशल मीडिया पर ....और जो कुछ कहते हैं कम से कम उन की बातों को ही हम पकड़ लिया करें....शुक्रिया डा चावला ...आप की इस वीडियो से बहुत लोगों को फ़ायदा होगा...
लिखते लिखते पैडमैन फिल्म का ध्यान आ रहा है ....अभी तक देखी नहीं वह फिल्म तो देखिए...