यह गीत मेरे स्कूल कालेज के दिनों में रे़डियो पर तो खूब बजता ही था..फिर जब हम लोगों ने टीवी लेिया 1980 में ...तो फिर आए दिन चित्रहार पर यह बहुत ही सुंदर गीत सुनने को मिला करता...बहुत पसंद है यह गीत ...जैसे ज़िंदगी के फलसफे को आनंद बख्शी साहब ने गीत में पिरो कर रख दिया हो ...आदमी मुसाफिर है, आता है जाता है ...आते जाते रस्ते में ...यादें छोड़ जाता है...
सही बात है ..हम यादें छोड़ जाते हैं ...अच्छा, हम लोग गुज़रे दौर में देखा करते थे कि जब लोग ट्रेन के सैकेंड क्लास में सफर कर रहे होते तो जैसे ही कोई स्टेशन आता तो कुछ महिलाएं ऐसे ही ज़रूरत से ज़्यादा चौड़े हो कर बैठने की फिराक में रहतीं, बच्चा अगर खिड़की से चिपका हुआ बाहर का नज़ारा लूट रहा है, तो उसे पास की सीट पर लेट जाने को कहतीं, और नहीं तो सिर पर दुपट्टा कस कर बांध कर खुद ही लेट जाती ...और भी बहुत तरह के जुगत करते हम देखते लोगों को ...मकसद सिर्फ इतना तो कोई और सवारी उन के पास आ कर बैठ न पाए... सब से ज़्यादा तो मुझे यह देखना बड़ा रोचक लगता था कि ठीक ठाक आराम से बैठे हुए लोग टांगे ज़्यादा से ज़्यादा फैलाने की कोशिश करते दिखते ...और फिर भी अगर कोई ढीठ बंदा या बीबी आ ही गई ...कि थोडा़ आगे हो जाओ, हमें भी बैठना है तो वही चिक चिक शुरू हो जाती ...चाहे होती वह दो एक मिनट के लिए ही लेकिन उस से भी खुशनुमा माहौल में खामखां की टेंशन सी आ जाती...
हमने यह भी देखा कि बहुत से लोग बहुत अच्छे से बातचीत करते करते सफर कर लेते...हमारी बीजी भी ऐसी ही थीं, झट से पास बैठी अनजान औरते के साथ बातचीत शुरू हो जाती...घर का पता, बच्चे क्या करते हैं, कहां जा रही हैं...ये सब बातें महिलाएं आपस में करने लगतीं....और आधे एक घंटे में ऐसा नज़ारा दिखने लगता जैसे कि पूल-लंच हो रहा है..किसी की आलू की सब्जी, किसी के मटर, किसी के पकौड़े, और हां, किसी का आम का आचार..किसी की पूरीयां, किसी के परांठे, और किसी की रोटियां ...सब ऐसे मिल कर खाने लगते ....बहन जी, आप यह तो ले ही नहीं रही, ये देखिए गाजर-शलगम का आचार....घर के पुरूष लोग और मेरे जैसे संकोची बच्चे चाहे दूसरी तरफ़ देखते रहते ...लेकिन महिलाओं की तो जैसे किट्टी पार्टी चल रही होती ....अच्छा, खाना होने के बाद, फिर नया टापिक ... अकसर सारी औरतें जो स्वैटरें बुन रही होतीं, वह निकाल कर बुनने लगतीं और बड़े चाव से एक दूसरे का नमूना (डिज़ाईन) समझने लगतीं.....क्या मज़ेदार दिन थे लोगों में बहुत अपनापन था ...चलिए, इस बात को यहीं छोडते हैं...
तीस बरस पहले की बात है मैं यहां मुंबई में जिस सत्संग में जाया करता था ..उसमें एक बात चल निकली कि जब आप ट्रेन या बस में सफर करते हैं तो जो भी महिला या पुरूष आप के पास बैठा हुआ है ...ज़रा यह सोचिए कि क्या कोई चांस है कि वह ज़िंदगी में फिर कभी आप को सफर के दौरान ऐसे मिलेगा...अगर चांस है तो कितना चांस है...ज़ाहिर सी बात है कि चांस न के बराबर है.....समझने वालों को इशारा ही काफी होता है .....उस दिन वह यही समझाने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं भी, कभी भी ..हर किसी से बहुत अच्छे से पेश आया करिए......नदी नाम संयोगी मेले .....पता नहीं फिर उसने आप से कभी ज़िंदगी मे कभी मिलना भी है कि नहीं...
हर इंसान अपनी अपनी यात्रा पर निकला हुआ है ...और अपने अपने स्टेशन पर सब उतरते चले जाएंगे ...बाबा बुल्ले शाह ने भी कितनी सुंदर बात कही है ...
बाबा बुल्ले शाह फरमाते हैं कि यहां पर सब मुसाफिर हैं, किसी ने यहां टिके नहीं रहना, सब को अपना अपना सफर तय करने के बाद लौटना ही है .... बात है तो छोटी सी ..लेकिन कहते हैं न ...छोटी छोटी बातों की हैं यादें बड़ी ...हमें हमारा अहम् बड़ा तंग किेेए रहता है ...हमारे सिर चढ़ा होता है ...लेकिन बहुत से लोगों को देखता हूं ...देखता हूं कहां, यही अखबार में जब उन की मौत की या क्रिया-कर्म की ख़बर छपती है तो मैं अकसर सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि यह बंदा तो बड़ी शांति से अपना वक्त निकाल गया...कहीं पर बेवजह की लाइम-लाइट नहीं....बस, सहजता से जिया और यह गया ...वो गया.... कुछ कुछ आदते पड़ जाती हैं ....मुझे भी टाइम्स आफ इंडिया के उस पेज को पढ़ने की आदत है जिस में शोक-समाचार होते हैं ... क्या है ना, उस पेज़ में भी कई स्टोरियां छुपी पड़ी होती हैं...घर परिवार वाले जितने भी मुस्कुराते चेहरों की तस्वीरें छपवाने के लिए दे दें...उस से क्लॉक भी फर्क नहीं पड़ता ...असल बात है जो हम लोग जीते जी किसी के साथ कैसे पेश आते हैं ...उसे खुश रख पाते हैं या नहीं ...यही बात अहम् है...बाकी दुनिया से किसी के चले जाने के बाद उस के लिए कुछ भी करने-कराने से हमारा अपराध-बोध (कि हम किसी के साथ अच्छे से पेश नहीं आए...) तो शायद कम हो भी जाए , दिल को एक झूठी तसल्ली देने के लिए ..बाकी, जाने वाले को इन सब चीज़ों से क्या हासिल ...इसलिए जीते जी अगर किसी के साथ हम हंस खेल लेते हैं तो बाद में घड़ियाली आंसू बहाने की भी नौबत नहीं आती ...या दिखावे के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत पड़ती नहीं अकसर... मैंने आज एक शख्स की प्रार्थना सभा की सूचना पढ़ी अख़बार में ... नाम जाना पहचाना लगा...90 साल की उम्र में बंदा चल बसा है...चार साल चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ रहा, और सात-आठ साल पंजाब का गवर्नर....यह भी मुझे उस विज्ञापन से ही पता चला... पंजाब के गवर्ऩर इस नाम से कोई था, इस का ख्याल भी उन का नाम पढ़ कर ही आया...जो बात मैं कहना चाह रहा हूं कि कुछ लोग कितनी शांति से अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर लेने का फ़न रखते हैं...पिछले दस-बारह सालों में कभी इन के बारे में कुछ सुना नहीं, कुछ पढ़ा नहीं...हम यही क्यास लगा सकते हैं कि एक शांत ज़िंदगी गोवा में रह कर बिता कर चले गये। ऐसे महान् लोगों की पुण्य याद को सादर नमन... बडे़ बडे़ महान कलाकारों, नेताओं, वैज्ञानिकों की जीवनीयां देखता-पढ़ता हूं जब भी, यू-ट्यूब पर इन के इतने इतने ज़िंदादिल वीडियो देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं ....कुछ दिन पहले एक उच्चाधिकारी ने अपनी इनकुंबैंसी बोर्ड की फोटो शेयर की मेरे साथ ..पिछले 90-92 साल में उस जगह पर लगभग पचास लोग काम कर चुके हैं.....कौन कहां, कब गया,..पीछे क्या छोड़ गया, क्या साथ ले गया...पीछे कोई नाम लेने वाला भी है कि नहीं अब ...किसी को कोई पता नहीं ....लेकिन वही बात है जब हम लोग किसी कुर्सी पर बिराजमान होते हैं तो अकसर हम ज़िंदगी की कड़वी सच्चाईयां याद नहीं रख पाते...हमें यही लगने लगता है कि ऊपर खुदा है और नीचे मैं हूं..बाकी और कुछ नहीं...बस, इसी बात को याद रखने की ज़रूरत है कि हर बंदे का एक वक्त है ...किस्मत उसे झूला झुला कर एक बार नीचे ले कर जाती है, फिर वापिस नीचे तो आना ही है ......लेकिन एक कहावत है कि जब आदमी ऊंचाई की सीढ़ियां चढ़ रहा होता है तो उसे रास्ते में मिलने वालों से अच्छे से पेश आना चाहिए..क्योंकि जब वह सीढ़ियां नीचे उतरने लगेगा तो उन्हीं लोगों से उसे फिर मिलना होगा ... मैं भी आज क्या लिखने बैठ गया...यही वजह है कि मैं एक बार लिखने के बाद अपना लिखा कुछ नहीं पड़ता ...बिल्कुल हलवाई की तरह जो अपनी तैयार की हुई मिठाई नहीं खाता...क्योंकि उसे पता होता है कि उसने क्या घाला-माला किया है ...उसी तरह मुझे भी पता होता है कि मैंने भी बस गिल्ला-पीन ही पाया है .. और कुछ नहीं किया ...इसी आदत के चलते मेरे से कोई मेरी किसी भी पुरानी पोस्ट की बात करता है तो मैं झेंप जाता हूं क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि मैंने उस में क्या लिख दिया होगा...कईं बार असहज भी लगता है ..दो तीन दिन पहले मुझे एक मित्र मिलने आए...कहने लगे कि आप की डालड़ा घी वाली पोस्ट बड़ी मज़ेदार थी ...मैं उस वक्त सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या मैंने लिख दिया होगा उस में ..क्योंकि डालडे का मतलब मुझे दो ही बातें याद हैं ...एक तो बीजी के हाथ के बने डालडा घी के अंगीठी पर बने परांठों की दिव्य महक ...आम के अचार के साथ और दूसरी बात यह कि डालडा़ के डिब्बे के खाली होने का मुझे इंतज़ार रहता था क्योंकि मुझे उस में अपने ढेरों कंचे भरने होते थे ... 😄😄...मैं यही सोचने लगा कि बातें तो मेरे पल्ले ये दो ही थीं, डालडे के बारे में ...और यह लेख की बात कर रहे हैं ...इसलिए उन के जाते ही मैंने सब से पहले अपने उस लेख को ढूंढ कर पढ़ा .....तो मुझे चैन आया ...आप भी पढ़ना चाहें तो यह रहा लिंक ... डालडे दा वी कोई जवाब नहीं.. |