अगर बीते ज़माने के चिकित्सकों के पास ऐसा हुनर था कि वे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी की शारीरिक एवं मानसिक हालत का पता लगा लिया करते थे तो क्या आज के चिकित्सक के पास यह क्षमता ही नहीं है ?
चिकित्सा क्षेत्र भी बाज़ारवाद से अनछुआ नहीं रह पाया और यह संभव भी नहीं था। जब महिलाओं के लिये बोन-स्कैन (हड्डी स्कैन) आदि के लिये कैंप आदि लगते हैं तो मुझे यह सब देख कर बड़ा अजीब सा लगता है कि जहां पर अधिकांश महिलायें ढंग का खाना तो खा नहीं पातीं, ऐसे में इन की हड्डीयों का स्कैन करने से क्या हो जाएगा? महिलाओं में रक्त की कमी तो सालों-साल दूर होती नहीं और ये बोन-स्कैन .....।
बात क्लोरोक्विन से भी कड़वी है लेकिन अब है तो है ... इस से कैसे मुंह फेर लें .. चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी बड़ी मशीनें आ गई हैं तो उन पर जंग तो कोई लगने नहीं देगा, खूब पैसा लगा है उन पर, इसलिये टैस्ट तो होंगे ही ... अब कौन सा टैस्ट ज़रूरी है और कौन सा नहीं, इस प्रश्न का उत्तर अगर पश्चिमी देशों में निरंतर ढूंढा जा रहा है तो हमारी तो बात ही छोड़ दें....यह एक विकराल समस्या तो है ही जैसा कि इस से पहली दोनों पोस्टों में यह डिस्कस किया जा चुका है।
आज आम आदमी भी ऐसा ही सोचने लगा है कि पांच-सितारा होटलों जैसी सुविधाओं से लैस टनाटन हास्पीटल खुल तो गये हैं ... खैरात बांटने के लिये तो खुले नहीं, इन के बिस्तरों पर सड़कछाप आम आदमी तो सुस्ताने से रहा ... अब इन अस्पतालों में महंगे महंगे आप्रेशन होंगे, भारी भरकम पर्स वाले इन के बैडों पर कुछ दिन स्वास्थ्य लाभ पाएंगे, भारी भरकम बिल आएंगे तो बात बनेगी ......वरना, ये तो बंद पड़ जाएंगे।
हां, तो बात हो रही थी चिकित्सक के हुनर की ... अब चर्चा होने लगी है कि लगातार प्रगति करती तकनीकों की वजह से चिकित्सक एवं मरीज़ के संबंध पहले जैसे नहीं रहे, काफ़ी कमज़ोर पड़ गये हैं। ताली एक हाथ से नहीं बजती ...उसी तरह न तो मरीज़ के पास टाइम है, उस के अपने फंडे हैं, वह सोचता है कि धन के बलबूते पर वह सब कुछ खरीद लेगा ..महंगे से महंगा इलाज करवा लेगा ...लेकिन ज़रूरी नहीं कि महंगा इलाज ही उस के लिये उपर्युक्त हो और उस से सब कुछ ठीक भी हो जाए..।
सारा सिस्टम इस तरह का हो गया है कि कईं बार लगता है कि चिकित्सकों के पास भी पहले ज़माने के चिकित्सकों की तरह समय नहीं है, और इस में केवल उन का दोष नहीं है ... एक एक दो दो मिनट में मरीज़ “निपटाएं जाएंगें” तो फिर न तो मरीज़ की ही संतुष्टि होती है और न ही डाक्टर की प्रोफैशनल संतुष्टि... अकसर देखने में आता ही है कि अब मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट बिताने की फुर्सत कहां? …..क्या कहा, फुर्सत ही फुर्सत है, डाक्टर लोग इतना समय आराम से दे देते हैं, तब तो बहुत बढ़िया बात है।
कहने को तो हम कह देते हैं कि पहले चिकित्सक बहुत लायक हुआ करते थे .. हों भी क्यों न? उन्हें अपने मरीज़ों की शारीरिक अवस्था के साथ साथ पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक, पारस्परिक संबंधों, और भी जितनी अवस्थायें हो सकती हैं, उन सब का ज्ञान होता था। ऐसे में वे मरीज़ का होलिस्टिक इलाज (holistic health care) कर पाते थे क्योंकि वे अंदर की भी सभी बातें जानते थे, अब सब कुछ हो गया.... छिन्न छिन्न, ऐसे में किसी भी चिकित्सक से कहां वैसे हुनर की अपेक्षा की जा सकती है। ज़रूर होंगे ऐसे भी चिकित्सक कहीं तो लेकिन सुना है उन की संख्या नित-प्रतिदिन घटती जा रही है।
यह पोस्ट लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि आखिर दोष किस का है? मरीज़ का, डाक्टर का, समाज का, सामाजिक व्यवस्था का, बाज़ारवाद का, आधुनिकता की बेतहाशा अंधी दौड़ का, हमारे लगातार बिगड़ते सामाजिक संबंधों का, धार्मिक असहिष्णुता का ........ यकीनन दोष इन सब का ही है, केवल यह कहना कि डाक्टर अपनी जगह पर ठीक हैं, मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं......इतना कह देना ही काफ़ी नहीं है...क्योंकि किसी भी समाज का स्वास्थ्य ऐसी अनेकों बातों पर भी निर्भर करता है जिन का मैडीकल क्षेत्र से कुछ लेना देना होता ही नहीं है। यह एक जटिल एवं विषम मुद्दा है ...जो भी है, एक अभिलाषा है कि कम से कम यह क्षेत्र बाज़ारवाद की मार से बच पाए....।
पोस्ट समाप्त करते करते ध्यान आ रहा है हमारे एक महान् प्रोफैसर का जो अकसर हमें कहा करते थे ... Listen to the patient, he is giving you the diagnosis ! (मरीज़ को ध्यान से सुना करो, वह अपना डॉयग्नोसिस स्वयं तुम्हें बता रहा होता है) ……और आज भी चिकित्सक पूर्णतयः सक्षम है ....क्या आप को पता है कि चिकित्सक किसी भी मरीज़ की बीमारी का पता यह देख कर लगाना शुरू कर देता है कि मरीज़ किस ढंग से चल कर उस के कमरे में आया है, मरीज़ का चेहरा, उस की सांसों की महक, उस की चमड़ी की हालत, उस के हाथों का तापमान.......अनेकों अनेकों तरीके हैं मंजे हुये चिकित्सक के पास उस की तकलीफ़ ढूंढने निकालने के लिये .....लेकिन इस सब के लिये उस के हाथों को छूना भी पड़ेगा, उस के कंधे पर हाथ भी रखना होगा, ज़रूरत पड़ने पर उस का पेट को हाथ भी तो लगाना होगा......इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं कि क्या यह सब उतने अच्छे ढंग से हो पाता है जहां बीसियों मरीज़ों लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं और साथ में उन की टिप्पणी बार बार चिकित्सक के कान में पड़ती रहती है ... यह डाक्टर नया है क्या ? इतना समय लगता है क्या दवाई लिखने में ?
सच्चा कौन है –डाक्टर या मरीज़? --इस पोस्ट का उद्देश्य केवल एक बात को रेखांकित करना है कि ताली दोनों हाथों से बजती है, ज़रूरत है समाज के सभी अंगों को अपने आप को टटोलने की....... बस, मुझे अभी इतना ही कहना है, अगर आप के मन में भी कुछ बातें हैं तो टिप्पणी में लिखियेगा।