मेरे ही तरह आप ने भी शायद सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि बाज़ार में बिकने वाले अनानास( पाइन-एप्पल) में भी मिलावट हो सकती है। मैंने कल दिल्ली में देखा कि तीन-चार रेहड़ीयों पर बहुत से लोग जमा हैं ----वहां पर लोग अनानास के पीस कटवा कर उन का लुत्फ़ उठा रहे थे।
अनानास के उन टुकड़ों का कुछ अजीब सा रंग---बिलकुल गहरा पीला सा- देख कर मेरे से रहा नहीं गया। मैंने रेहड़ीवाले से पूछ ही लिया कि अनानास का रंग कुछ अजीब सा लग रहा है। तब उस ने कहा कि इन फलों से मक्खी को दूर रखने के लिये इन पर रंग लगा हुआ है। एक बार तो यही सोचा कि जिस खाने पर मक्खीयां भी बैठना अपनी तौहीन समझती हों, उन्हें पब्लिक को परोसा जा रहा है।
मेरी खोजी पत्रकार वाली उत्सुकता यूं ही भला कैसे शांत हो जाती !—उस ने आगे बताया कि यह खाने वाला मीठा रंग है ---क्या आप लड्डू में, अमरती में, जलेबी में नहीं देखते कि यही रंग पड़ा होता है ?—कहने लगा कि एक शीशी को पानी की एक बाल्टी में घोल कर अनानास के स्लाईसिज़ को इस बाल्टी में बस डाल कर निकाल लिया जाता है ----बस, उन पर रंग चढ़ जाता है और मक्खीयां फिर इस के पास नहीं फटकती । पता नहीं मैं यह कैसे उस से पूछना ठीक नहीं समझा कि जलेबियों और अमरती से तो मक्खीयां भिनभिनाने से हटती नहीं, तो फिर यह माजरा क्या है !!
अपनी एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि एक डाक्टर मित्र के छोटे बेटे के जब गुर्दे फेल हो गये तो सारी जांच की गई ---कुछ पता ही नहीं चल रहा था ---आखिरकार आल इंडिया इस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंसज़ के डाक्टरों को पता चला कि बच्चा तरबूज़ बहुत खाया करता था और उस में एक लाल-रंग ( red dye) का टीका लगा होने की वजह से उसे इन सारी तकलीफ़ों से दोचार होना पड़ा था। यह भी दिल्ली की ही बात है ।
मेरे दिल्ली लिखने का यह मतलब तो नहीं कि बाकी जगहें किसी तरह से इन से बची हुई हैं। कुछ दिन पहले हम लोग पानी-पूड़ी ( गोलगप्पे) खा रहे थे ---बहुत मशहूर दुकान है----अचानक एक हरे रंग का गोलगप्पा देख कर बहुत हैरानी हुई, हमने खाया तो नहीं , लेकिन दुकानदार ने बताया कि इस तरह के रंगीन गोल-गप्पे बनाने का हम एक्सपैरीमेंट कर रहे हैं।
जिस तरह का इन कृत्तिम रंगों का चलन चल निकला है ---यह बहुत ही चिंता का विषय है। कुछ हद तो इस से बचा जा सकता है अगर हम लोग इस के बारे में अपनी जानकारी बढ़ायें। बात गोल-गप्पों की हो रही तो अब उन में डलने वाला पानी भी कहां पहले जैसा रह गया है !
एक दिन अपनी श्रीमति जी से पूछ बैठा कि यह बाज़ार में बिकने वाला गोल-गप्पों का पानी कुछ अजीब सा स्वाद देने लगा है। चूंकि मैं इमली का भाव नहीं जानता था और न ही अभी भी जानता हूं तो श्रीमति ने सचेत किया कि अब ये लोग इस पानी को तैयार करने के लिये इमली-विमली कहां इस्तेमाल करते हैं ---इस के लिये ये टाटरी( ?tartaric acid----क्या टाटरी को ही टारटैरिक एसिड कहते हैं, मेरे ध्यान में नहीं है), और फ्लेवर्ज़, क्लर्ज़ और इसेंस (flavours , colours and essence) का ही इस्तेमाल करते हैं।
बंबई के उपनगरीय स्टेशनों के बाहर बड़े बडे टबों में बिकने वाली फलों के रसों का तो मैंने पहले एक बार खुलासा किया था लेकिन कल भी नोटिस किया कि जलजीरा भी कुछ इस तरह का ही बिक रहा था। लेकिन धूप से त्रस्त लोगों को खींचने के लिये इस धंधे के खिलाड़ी उस बड़े से मटके के बाहर एक गीला लाल कपड़ा लपेटने के साथ साथ पुदीने की कुछ टहनियां उस पर लगानी कभी नहीं भूलते ---ताकि हम सब को गुमराह किया जा सके। मैं समझता हूं कि जलजीरे का रैडीमेड पावडर बाज़ार में बिकता है ---अगर वे उस का ही इस्तेमाल कर रहे होते तो सुकून हो जाता, लेकिन मुझे यकीन है कि जितने गहरे रंग का ये रेहड़ीवाले यह जलजीरा बेचते हैं उस में हरा रंग तो अवश्य ही पड़ा रहता होगा ---बिल्कुल गोल-गप्पे के हरे पानी की तरह।
हां, तो बात शुरू हुई थी अजीब से पीले रंग के अनानास से---सोचने की बात यही है कि आखिर इन खोमचे वालों ने अब खाने-पीने की इतनी कोमल सी वस्तुओं को भी क्यों नहीं बख्शा----- यह बात तो उस की ठीक नहीं लगती कि केवल मक्खियों को दूर रखने के लिये ही इस रंग का इस्तेमाल किया जाता है। और उस की बात सच भी है तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरती कि सभी खोमचे वाले इतने जागरूक हो गये कि हम सब की सेहत के लिये रोज़ाना 10-15 रुपये का रंग ही इस्तेमाल करने लग जायें। इसलिये इस बात की तो और भी बहुत संभावना है कि पीला रंग जो इस्तेमाल भी किया जाता हो वह बेहद चीप, सस्ता, चालू किस्म का , बिना किसी कंपनी की पैकिंग वाला, घटिया और सेहत के लिये और भी नुकसानदायक टाइप का होता हो।
मक्खियों की ये खोमचे-वाले इतनी परवाह करते कहां हैं----बस थोड़ी धूप-बत्ती जला कर काम चला लिया करते हैं, वरना एक बारीक सा जालीदार कपड़ा डाल देते हैं -----तो फिर क्यों रंग इस्तेमाल किया जा रहा है ----इस का कारण जो मुझे लगता है वह यही है कि एक तो ग्राहकों को अपनी माल की तरफ़ आकर्षित करने के लिये और दूसरा यह कि उस के इस गहरे पीले रंग के चड़ते उस के माल में छोटी मोटी खराबी किसी की नज़र में आये ही नहीं।
मैं आज कल इन कृत्तिम रंगों, फ्लेवर्ज़ आदि पर शोध कर रहा हूं ---- बाहर के देशों में तो इन के इस्तेमाल के बारे में लोग बहुत ही ज़्यादा सजग हैं और इन से संबंधित कानून भी बहुत कड़े हैं क्योंकि इन के अनियंत्रित इस्तेमाल से खतरनाक बीमारियां ---यहां तक कि कैंसर भी – दस्तक दे सकती हैं। इसलिये आमजन का यह सोचना कि ये तो मीठे कलर हैं ----अर्थात् खाने में इस्तेमाल किये जा रहे हैं, इसलिये बिना सोचे-समझे इन का जितना मन चाहे सेवन कर लिया जाए ----यह सोचना खतरे से खाली नहीं है।
लेकिन अफसोस इसी बात का है कि आम आदमी इस के बारे में ज़रा भी सचेत नहीं है। बंबई में रहते हुये हमारा एक संबंधी बम्बई-सैट्रल की एक दुकान से पिस्ते की बर्फी ले कर आया----अब पिस्ता इतना महंगा कि एक हज़ार के पिस्ते पिसने के बाद भी उतना बढ़िया रंग न दे पायें जितना उस पिस्ते की बर्फी का लग रहा था ---लेकिन स्वाद उस का इतना बेकार कि क्या लिखूं ----बिल्कुल बक-बका सा, पिस्ते के स्वाद जैसी कोई खास बात ही नहीं ----आज समझ आ रही है कि उस बर्फी में भी चंद पिस्तों के साथ साथ पिस्ते के रंग से मिलता जुलता हल्का हरा रंग ही पिसा होगा।
बस, भई अब किस किस चीज़ की पोल खोलें ---अपने यहां तो बस सबकुछ गोलमाल ही है---मुझे तो लगता है कि हम सब लोगों को बहुत जल्दी ही घर में बनी दो चपातियों, दाल-साग-सब्जी के इलावा इधर-उधर देखना भी खौफ़नाक लगेगा---इस में मेरा क्या दोष है ?--- जो देखा आप के सामने रख दिया ।
वैसे पता नहीं मेरा छोटा बेटे की हिंदी फिल्म गोलमाल रिटर्ऩज़ में इतनी रूचि क्यों है ---गोलमाल रिटर्नज़ ----अर्थात् गोलमाल लौट कर आ गया ----यहां तो दोस्तो दशकों से सब कुछ गोलमाल ही है , आज भी है और कल भी रहेगा, लौटता तो वही है जो कहीं चला गया हो ।
PS -- कल भी मैंने नोटिस किया कि लोग पाईन-एपल के स्लाईसिज़ पर भी खूब नमक लगवा कर खा रहे थे। केले को काट कर, शकरकंदी काट कर---इन सब खाध्य पदार्थों पर इतना इतना नमक लगवा के खाना हाई-ब्लडप्रैशर को एकदम खुला निमंत्रण है। इसलिये यह आदत जितनी जल्दी छोड़ सकें, उतनी ही बेहतर होगा।