मेरी पिछली पोस्ट शायद आपने देखी होगी...अगर नहीं देखी, तो कभी फ़ुर्सत में देख लीजिएगा...यकीं है आप बोर नहीं होंगे ...यह रहा उस का लिंक ...जब टूटी हुई चप्पलों को सिलवा लिया जाता था...
हां, तो बड़े भाई को बहुत पसंद आई ....और जो उन्होंने उस के ऊपर मुझे टिप्पणी लिख कर भेजी, मैं वह देख कर बहुत हंसा...क्योंकि इतने पते की बात पता नहीं मैं कैसे लिखनी भूल गया था...वैसे भी मैं तो अकसर कहता ही हूं अपनी बड़ी बहन से और बड़े भाई से जो मेरे से क्रमशः १० और ८ साल बड़े हैं कि हमारे माहौल में रहने का उन के पास मेरे से कहीं ज़्यादा ख़ज़ाना है ...तभी तो वे कभी कभी ऐसी बातें कह देते हैं कि मैं भी हैरान हो जाता हूं...
हां, तो भाई ने लिखा कि पोस्ट पढ़ कर उन्हें भी वह गुज़रा दौर याद आ गया...और वे लिखते हैं - चप्पल चाहे कितनी भी बुरी तरह से टूटी होती, लेकिन उसे उसी हालत में लेकर घर लौटना ज़रूरी होता था...और टूटी हुई चप्पल घर लाने के लिए बंदे को चाहे कितना भी आढ़ा-तिरछा, टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलना पड़ता, वह चलता ...कईं बार तो चप्पल हाथ में उठा कर नंगे पांव चलते हुए घर तक पहुंचते और कईं बार टूटी चप्पल से घिसट-घिसट कर चलते हुए और हाथ से साईकल के हैंडल को थामे हुए घर पहुंच कर ऐसी फीलिंग आती थी मानो कोई किला फतह कर के पहुंचे हों...
भाई मुझे जब सामने बैठ कर यह बात करता है तो हंसते हंसते पूछता है कि उस माई हावी टुट्टी चप्पल नूं बाहर ही सुट्ट के फ़ारिग हो कर घर लौटने का रिवाज़ नहीं सी, न जाने क्यों...
भाई आगे लिखता है टूटी चप्पल घर पर पहुंचाने के बाद फिर लगभग घर के सारे लोग उसे देखते ताकि एक अहम फ़ैसला लिया जा सके कि चप्पल नई खरीदनी है या उसी को ही गंढवा (सिलवा) कर काम चल सकता है...और इस फ़ैसले में महीने के उस दिन का भी बड़ा अहम रोल था जिस दिन चप्पल टूटने का हादसा पेश आया होता ...क्योंकि राशन, स्कूल की फीसें, दूध-साग-सब्जी का जुगाड़ करते करते, उस वक्त घरेलू बजट की हालत कितनी नाज़ुक है, इन सब से यह तय होता था कि चप्पल नयी आयेगी या पुरानी ही से अभी काम चलेगा..ख़ैर, अगर तो चप्पल नयी आ जाती तो कम से कम कईं महीनों क्या, एक बरस तक तो फिर बंदा चैन की बंसी बजाते हुए चलता, उस चप्पल को पहन कर एक दो महीने तो उस नई चप्पल की वजह से इतराता रहता क्योंकि यह नशा भी एक अलग किस्म का ही था, जिन्होंने इस नशे को कभी किया है, वे ही जान पाएंगे...लेकिन अगर उस टूटी चप्पल को गंढवा के ही काम चलाने का फ़ैसला ले लिया गया है तो फिर यही सिलसिला चप्पल टूटने का और घसीटते हुए उसे घर के आंगन तक पहुंचाने का आगे भी चलता ही रहता जब तक कि ..............आप नहीं समझेंगे, छोड़ो, आगे चलते हैं। यह सब भी भाई ने ही याद दिलाया है।एक बात जो क़ाबिलेतारीफ़ यह भी लिख दूं कि वह पीढ़ी इतनी समझदार थी कि मां-बाप के बिन कहे कि उन के हालात समझती थी...किसी भी चीज़ के लिए ज़िद्द नहीं करती थी....वाह, क्या दौर था वह भी!!
हां, तो भाई साहब को मैंने भी उन के टूटे हुए शूज़ की बात याद दिला दी...तो जनाब हुआ यूं कि भाई सात-आठ साल का रहा होगा...निक्कर, बुशर्ट पहन रखी है उसने....पापा के चार पांच दोस्तो ने एक फोटो खिंचवानी थी, भाई भी वहीं पास ही खेलता हुआ फोटो खिंचवाने के वक्त पापा के पास जा पहुंचा और उस फोटो में उस की भी फोटो है...मुझे वह फोटो बड़ी प्यारी लगती है ...मेरा तो शायद उस तरफ़ ख्याल भी न जाता, और मेरे लिए यह कोई ख़ास या मामूली बात भी नहीं कि उस फोटो में भाई के बूट आगे से फटे हुए हैं....लेकिन पहले घरों मे तस्वीरें कम ही होती थीं, जब भी घर में रखी तस्वीरें देखी जातीं तो मां अपनी तरफ़ से यह बात ज़रूर याद दिला देती सब को ..देखो, पपू तो वैसे ही खेल रहा था, और फटे बूट में ही पहुंच गया फोटो खिंचवाने।
मैंने मां से कभी नहीं पूछा...ज़िंदगी भर, और न ही भाई से कभी पूछा कि क्या इस आगे से फटे हुए बूट के अलावा भी भाई के पास कोई दूसरे बूट भी थे....लेकिन पूछना वहां होता है जहां कुछ पता न हो, मुझे यकीं है कि उस के पास कोई और जूता होगा ही नहीं....ख़ैर, कोई बात नहीं, बड़े लोगों के जूते कोई नहीं देखता....महान् साहित्यकार प्रेम चंद के भी जूते टूटे हुए थे...और परसों-नरसों जिन लोगों को पद्म सम्मान से सुशोभित किया गया है उनमें से एक देवी तो नंगे पांव ही महामहिम के पास पहुंची थी और दूसरी एक देवी जो पंजाब से आई थी उन्होंने पैर में हवाई चप्पल पहनी हुई थी ....यह सब क्या सिद्ध करता है, आप भी जानते हैं....
आज इस बात को यहीं पर विराम देते हैं. आगे की बातें फिर कभी करेंगे... खुश रहिए, मस्त रहिए...मैं हमेशा कहता हूं कि ज़िंदगी में पैर कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं, वे चलते रहने चाहिेए....इन चप्पलों, बूटों की ऐसी की तैसी ...ये हैं तो ठीक है, जिन के पास जूते नहीं होते क्या वे ज़िंदगी नहीं जीते....आप का क्या ख़्याल है?