मुझे पता था कि आप शीर्षक देख कर यही कहने वाले हैं कि क्या यार, जुम्मा जुम्मा दो रोज़ हुये नहीं नेट पर लिखते हुये और तू हम धुरंधरों को बतायेगा ये दांव-पेच कि नेट पर कैसे लिखना होगा। लेकिन बात तो सुनिये ---हमें हर एक की बात सुन तो लेनी ही चाहिये --मानना ना मानना तो आप के हाथ में है।
तो सुनिये मुझे आज सुबह ही विचार आया है कि मुझे इंटरनेट लेखन के ऊपर थोड़ा बहुत लिखना चाहिये। कारण? ---दरअसल यह विषय मेरे दिल के करीब है। कुछ अरसा पहले जर्मनी की स्टेट ब्राडकॉस्टिंग (Deutsche welle) से विशेषज्ञ आये.. और दिल्ली में मुझे उन से एक महीने की इसी वेब-राइटिंग पर ट्रेनिंग लेने का अवसर मिला। बहुत कुछ सीखने का मौका मिला और अब मैं उन सब अनुभवों को आप के साथ बांटने के लिये तैयार हूं।
इस तरह से यह ज्ञान बांटने के पीछे मेरा एक स्वार्थ भी है ---मेरा पाठ भी पक्का हो जायेगा क्योंकि वहां उस ट्रेनिंग के दौरान बहुत ही ऐसी बातें सीखी हैं जिन्हें मैं अभी प्रैक्टिस नहीं कर पा रहा हूं।
मैं भी दोस्तो पिछले लगभग अढाई साल से नेट पर लिख रहा हूं। आज कल जो लिख रहा हूं ---मैं कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं ---वो तो जैसा भी होता है हरेक के मन की मौज है---लेकिन मैं प्रस्तुति की बात कर रहा हूं------ हां, तो अपने लिखने के बारे में कह रहा हूं कि जब मैं अपने आज कल के लेखों की शुरूआती दौर के लेखों से तुलना करता हूं तो पाता हूं कि यार, हिम्मत है उन शुभचिंतकों की जिन्होंने उन्हें पड़ने की मशक्कत की और फिर टिप्पणीयां भी लिखीं। कभी मौका मिला तो इन सब शख्शियतों का व्यक्तिगत रूप से शुक्रिया करूंगा।
सब से पहले तो बात करते हैं ---लिखने के अंदाज़ की। ऐसा भी नहीं कि जो बातें मैं लिखूंगा वे कोई नई बातें हैं, बिल्कुल मामूली बातें हैं ---लेकिन कईं बार इन्हें बार बार दोहराना ज़रूरी सा हो जाता है।
यह तो हम सब जानते ही हैं कि जो बंदा इंटरनेट पर बैठा है वह बहुत जल्दी में है, पूरी संभावना है कि वह एक तो नेट पर म्यूज़िक का आनंद ले रहा है--यू-ट्यूब पर,साथ में शायद अपने दोस्तों के साथ चैटिंग पर मसरूफ है--- साथ में शायद कुछ अपने मतलब की गूगल-सर्च भी कर रहा है---और इतनी मसरूफीयत के बावजूद अगर उस ने हमारे ब्लॉग की भी विंडो खोल कर हमारा लेख पढ़ने की हिम्मत जुटा ही ली है तो हम आखिर क्यों उस के सब्र का इम्तिहान लें?
दरअसल होता यह है कि नेट पर बड़े बड़े लेख देख कर अकसर कोई भी झट से क्लिक मार से कहीं से कहीं निकल जाता है। इसलिये नेट पर कंटैट के साथ साथ लेखों की लंबाई-चौड़ाई की तरफ़ ध्यान देना भी बहुत ज़रूरी है। लंबाई तो हो गई लेकिन यह लेख की चौड़ाई का क्या चोंचला है, इस के बारे में भी बात करेंगे।
नेट पर लिखते समय बिल्कुल बोलचाल वाली भाषा हो तो मजा ही आ जाए---- दरअसल किसी लेख को पढ़ते वक्त मेरे जैसे को कुछेक शब्द ऐसे मुश्किल से मिल जाते हैं जिन के शब्दार्थ के बारे में मैं कोई तुक्का भी नहीं मार सकता ---तो मैं जैसे तैसे अगले पैराग्राफ में झांकने की कोशिश करता हूं --लेकिन अगर वहां पर भी यह समस्या दिखती है तो आप को पता ही है कि हम लोगों के पास सब से बढ़िया हथियार जो हमें किसी भी विपदा से बचा लेता है ---माउस ---- बस क्लिक करते ही पहुंच गये कहीं के कहीं और मिल गया सभी मुसीबतों से छुटकारा। क्या ख्याल है हम सब लोग यह हथियार इस काम के लिये भी इस्तेमाल करते हैं ना ---है कि नहीं ?
इसलिये नेट पर लिखते समय बिल्कुल छोटे छोटे वाक्य, छोटे छोटे पैराग्राफ हों तो ठीक रहता है। मैं हाथ जोड़ कर सभी चिट्ठाकारों से क्षमाप्रार्थी हूं कि चाहते हुये भी मुझे बहुत ज़्यादा पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता ---सर्विस की वजह से मसरूफ रहना, फिर अपने लेख लिखने के लिये रिसर्च करना ....। लेकिन मुझे इस समय समीर लाल जी की उड़न तश्तरी और रवि रतलामी जी के ब्लाग का ध्यान आ रहा है ---वाक्यों की रचना में और पैराग्राफ की लंबाई में वे इस के बारे में बहुत सजग हैं। लेखों की लंबाई के बारे में फिर कभी सोचेंगे।
क्या है ना ---वेब पर बैठा आदमी इतनी जल्दी से है कि उसे तो बस बुलेटेड लि्स्ट के माध्यम से जानकारी चाहिये ---यानि 1,2,3 ........और यह गया लेख और वह हो गया फ्री। ऐसे में यह काफी हद तक हमारे ऊपर है कि कैसे कम उस का ध्यान अपने लेख की तरफ़ लेकर आएं और उसे वही टिकने पर मजबूर कर दें।
इस पोस्ट को इधर ही खत्म करता हूं --कहीं आप यह ही न समझ लें कि यार तू दांव पेच क्या दिखायेगा ---तुम तो स्वयं ही उन्हें फॉलो नहीं करते । सो, इसी डर के साथ यहीं विराम लेता हूं ---अगली पोस्ट कुछ घंटों के बाद।