ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के इस्तेमाल के बारे में बार बार लोगों को सचेत किया जाता है कि आम छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिये इन्हें इस्तेमाल न किया करें लेकिन पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब हो तो तुरंत ऐंटिबॉयोटिक दवाईयों का कोर्स पूरा कर लेने में ही समझदारी है क्योंकि कईं बार एक बार यूं ही खराब हुआ गला सारी उम्र के लिये उस बच्चे को दिल का रोगी बना सकता है।
मैं जिस हास्पीटल में कुछ साल पहले काम किया करता था वहां पर रजिस्ट्रेशन काउंटर के पास ही एक बहुत बड़ा पोस्टर लगा हुआ था कि पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब हो तो उस का ठीक से इलाज करवायें वरना इस से दिल का रोग हो सकता है। दोस्तो, अगर किसी को देर उम्र में किसी अन्य कारण से दिल का रोग हो जाता है तो लोग शायद थोड़ा सब्र कर लेते हैं ---क्योंकि अकसर ऐसे केसों में थोड़ी बहुत जीवन-शैली में किसी चीज़ की कमी रह गई होती है । लेकिन अगर किसी व्यक्ति को बीस-तीस साल की उम्र में ही दिल का कोई गंभीर रोग हो जाये और उस के पीछे कारण केवल इतना सा हो कि बचपन में एक बार गला खराब हुआ था जिस का समुचित इलाज नहीं करवाया गया था ----तो उस मरीज़ को एवं उस के अभिभावकों को कितना बुरा लगता हो , शायद इस की हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर सकते।
मुझे याद है कि जिन दिनों मैडीकल कालेज के मैडीसन के प्रोफैसर साहब ने हमें 1982 में इस बीमारी के बारे में पढ़ाया था तो अगले कुछ दिनों के लिये मैंने भी एक चिंता पाले रखी थी ---क्योंकि मुझे याद था कि बचपन में मेरा भी दो-चार बार गला तो बहुत खराब हुआ था , गले में इतना दर्द कि थूक निगलना भी मुश्किल था---जबरदस्त दर्द !! मेरे से ज़्यादा परेशान मेरे स्वर्गीय पिता जी हो जाया करते थे --- थोड़ा थोड़ा डांट भी दिया करते थे कि स्कूल से टाटरी वाला चूर्ण खाना बंद करोगे तो ही ठीक रहोगे । साथ में किसी कैमिस्ट से दो-चार खुराक कैप्सूल –गोली की ले आते थे और उसे खाने पर एक-दो दिन में ठीक सा लगने लगता था- याद नहीं कभी पूरा कोर्स किया हो।
दोस्तो, जब हम लोग बच्चे थे तो कभी किसी तकलीफ़ के लिये किसी विशेष डाक्टर के पास जाने का इतना रिवाज कम ही था --- इस के बहुत से कारण हैं जो कि मेरे लिखे बिना ही समझ लिये जायें। पता ही नहीं तइतना डर क्यों था कि पता नहीं कितना खर्च हो जाये, कितने पैसे मांग ले ----- और दूसरी बात है कि लोगों इतने ज़्यादा सचेत नहीं थे । चलिये जो भी था, ठीक था, कभी कभी अज्ञानता वरदान ही होती है ----- कम से कम अपने आप से यह कह कर मन को समझाया तो जा ही सकता है।
एक बार तो मैं हिम्मत कर के अपने मैडीसन के प्रोफैसर साहब, डा तेजपाल सिहं जी के पास पहुंच ही गया कि सर, मेरे को भी बचपन में गला खराब तो हुआ था, दवा बस एक-दो दिन ही ली थी , अब जब मैं साइकिल को चलाता हुआ पुल पर चढ़ता हूं तो मेरी सांस फूलने लगती है। मुझे याद है उन्होंने मुझे अच्छे से चैक करने के बाद कहा कि सब ठीक है ---इसे सुन कर मुझे बहुत सुकून मिला था।
अच्छा तो अपनी बात हो रही थी कि पांच से पंद्रह साल के बच्चों का जब गला खराब हो उस का तुंरत इलाज किया जाना बहुत ही ज़रूरी है --- इस का कारण यह है कि कईं बार जिस स्ट्रैपटोकोकाई बैक्टीरिया ( streptococci bacteria) की एक किस्म के कारण की वजह से यह गला खराब होता है – हिमोलिटिक स्ट्रैपटोकोकाई ( haemolytic streptococci) --- उस का अगर तुंरत किसी प्रभावी ऐंटिबॉयोटिक से उपचार नहीं किया जाये तो मरीज़ को रयूमैटिक बुखार हो जाता है --- Rheumatic fever – हो जाता है। इस बुखार के दौरान जोड़ों में दर्द भी होता है ----लोग अकसर इस का थोड़ा बहुत इलाज करवा लेते हैं लेकिन शायद इस बात को भूल सा जाते हैं और इस का कभी ज़िक्र ही किसी से नहीं होता। लेकिन जब वही बच्चा बीस-तीस साल की उम्र में पहुंचता है तो जब उस की अचानक सांस फूलने लगती है ---हालत इतनी खराब हो जाती है कि वह थोड़ा भी चल नहीं पाता तो किसी फिजिशियन के द्वारा चैक-अप करने से पता चलता है कि उसे तो रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease) हो गई ---- उसे के दिल के वाल्व क्षतिग्रस्त हो चुके हैं --- ( valvular heart disease) --- तो उस की दवाईयां आदि शुरू तो की जाती हैं ---- आप्रेशन भी करवाना होता है -----कहने का भाव उस की ज़िंदगी बहुत अंधकारमय हो जाती है – कहां सब लोग आप्रेशन का खर्चा उठा पाते हैं, इतनी इतनी दवाईयां खरीदने कहां सब के बस की बात है ----- बहुत दिक्कतें हो जाती हैं , आप्रेशन जितने समय तक मरीज को ठीक रख पायेगा उस की भी समय सीमा है। पचास साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते ये इसी दिल की बीमारी की वजह से अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं।
मैं अपने हास्पीटल के फिज़िशियन डा हरदीप भगत से इस तकलीफ़ के बारे में कल ही बात कर रहा था ----वह भी यही कह रहे थे कि बच्चों का हर स्ट्रैपटोकोकल सोर थ्रोट ( streptococcal sore throat) केस ही रयूमैटिक बुखार की तरफ़ रूख कर लेगा ---- यह बात नहीं है ---लगभग दो फीसदी स्ट्रैपटोकोकल सोर थ्रोट के केसों में ही यह रयूमैटिक बुखार वाली जटिलता उत्पन्न होती है लेकिन दोस्तो, सोचने वाली बात तो यही है कि जब मैडीकल फील्ड में इस की पूरी जानकारी है कि बच्चों के गले खराब होने के बाद यह कंपलीकेशन हो सकती है तो कोई भी डाक्टर इस तरह का जोखिम पांच से पंद्रह साल की उम्र के बच्चे के साथ लेता ही नहीं है। इसलिये तुरंत उस के लिये चार-पांच दिन के लिये एक ऐंटीबॉयोटिक कोर्स शुरू कर दिया जाता है ।
वैसे हम लोगों के लिये यह कह देना कितना आसान है कि बच्चों के इस आयुवर्ग में गले खराब के लगभग दो फीसदी केसों में यह समस्या उत्पन्न होती है -----क्या करें , आंकड़े अपनी जगह हैं , यह भी तो ज़रूरी हैं लेकिन बात यह भी तो अपनी जगह कायम है कि जिस किसी के बच्चे को यह रोग हो जाता है उस के लिये तो इस का आंकड़ा दो-प्रतिशत न रह कर पूरा शत-प्रतिशत ही हो जाता है।
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि किसी पांच से पंद्रह साल के बच्चे का जब गला खराब हो तो पता कैसे चले कि इस के पीछे उस हिमोलिटिक स्ट्रैपटोकोकाई जीवाणुओं का ही हाथ है --- इस के लिये बच्चे के गले से एक स्वैब ले कर उस का कल्चर- टैस्ट करवाया जाता है। लेकिन अकसर ऐसा प्रैक्टिस में मैं कम ही देखता हूं कि लोगों को बच्चे के खराब गले के लिये इस टैस्ट को करवाने के लिये कहा जाता है -----अकसर डाक्टर लोग किसी बढ़िया से ब्रॉड-स्पैक्ट्रम ऐंटिबॉयोटिक का चार पांच दिन का कोर्स लिखने में ही बेहतरी समझते हैं और मेरे विचार में यह बात है भी बिल्कुल उचित है। फिज़िशियन अथवा शिशुरोग विशेषज्ञ अपने फील्ड में इतने मंजे हुये होते हैं कि उन्हें मरीज़ की हालत देख कर ही यह अनुमान हो जाता है कि इस केस में ऐंटीबॉयोटिक दवाई का पूरा कोर्स देने में ही भलाई है।
मुझे इस तरह के मरीज़ों के इलाज का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है लेकिन मैं एक मैडीकल राइटर होने के नाते इतनी सिफारिश ज़रूर करूंगा कि पांच से पंद्रह साल के बच्चे का अगर गला खराब है, गले में दर्द है , और लार निगलने में दिक्तत हो रही है , साथ में बुखार है तो तुरंत अपने फैमिली डाक्टर से अथवा किसी शिशु-रोग से मिल कर खराब गले को ठीक करवाया जाये ----- दोस्तो, यह केवल खराब गले की ही बात नहीं है, यह उस बच्चे की सारी लाइफ की बात है ---- कितनी बार किसी बच्चे का इस तरह का गला खराब होता है -----शायद बहुत कम बार, लेकिन ज़रूरत है तुरंत उस के इलाज की । उस समय अपनी सूझबूझ लगाना कि यह तो जुकाम की वजह है या यह तो इस ने यह खा लिया या वह खा लिया इसलिये किसी डाक्टर के परामर्श करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है , यह बात बिल्कुल अनुचित है। क्योंकि वह दो-फीसदी वाली बात कब किसी के लिये शत-प्रतिशत बन जाये , यह कौन कह सकता है !!
यह बात बिलकुल सही है कि इस आयुवर्ग में अधिकतर गले खराब के मामले वायरसों की वजह से ही होते हैं जिन की वजह से रियूमैटिक बुखार का जोखिम भी नहीं होता और इन के इलाज के लिये ऐंटीब़ॉयोटिक दवाईयां कारगर भी नहीं होतीं लेकिन वही बात है कि जैसी स्थिति चिकित्सा क्षेत्र की है – न तो मरीज़ अपने गले से स्वैब का कल्चर करवाने का इच्छुक है, और न ही इस की इतनी ज़्यादा सुविधायें उपलब्ध हैं इसलिये बेहतर यही है कि तुरंत अपने डाक्टर से मिल कर उस की सलाह अनुसार किसी प्रभावी ऐंटिबॉयोटिक कोर्स शुरू कर लिया जाये।
वैसे ग्रुप-ए स्ट्रैप्टोकोकल फरंजाईटिस( pharyngitis--- वही आम भाषा में गला खराब) – के लक्षण इस प्रकार हैं ---- अचानक गले में दर्द शुरू हो जाना, लार निगलते वक्त भी दर्द होना, और 101 डिग्री से ऊपर बुखार। बच्चों में तो सिरदर्द, पेट दर्द, दिल कच्चा होना( मतली लगना) और उल्टी भी हो सकती है। अगर यह इंफैक्शन रयूमैटिक बुखार की तरफ़ बढ़ जाती है तो इस के लक्षण हो सकते हैं --- बुखार, दर्दनाक, सूजे हुये जोड़, जोड़ों में ऐसा दर्द जो एक जोड़ से दूसरे जोड़ की तरफ़ चलता है, दिल की धड़कन का बढ़ जाना( palpitations), छाती में दर्द, सांस फूलने लगती है , चमड़ी पर छपाकी सी निकल आना ।
यह मुझे बैठे बिठाये आज इस विषय का ध्यान कैसे आ गया ---- क्योंकि दो एक दिन पहले मैं एक न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ रहा ता कि हमारे जैसे देशों में तो यह रोग है लेकिन अब अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी इन ने अपना सिर फिर से उठाना शुरू कर दिया है।