रेल-गाड़ी की विभिन्न श्रेणीयों के शौचालय के बारे में जब हम सोचते हैं तो हमें वैल्यू-एडड सर्विस ( value added service) का फंडा एकदम क्लियर हो जाता है। चलिये, शुरू करते हैं....ए.सी फर्स्ट क्लास के डिब्बे से .....कुछ ऐसे कोच हैं जिन में डिब्बे के यात्री को अपने ए.सी कैबिन में बैठे बैठे एक हरी या लाल बत्ती से यह पता चल जाता है कि कौन सा शौचालय( कौन सी साइड का –इंडियन अथवा वैस्टर्न ) खाली है अथवा आक्यूपाईड़ है। शायद यह इसलिये कि सुबह सुबह पानी वानी पी कर अगर आदमी किसी भी शौचालय का रूख करे तो उसे किसी किस्म की निराशा न हो.....निराशा तो उस स्केल पर सब से नीचे टिकी पड़ी है, जिस के सब से ऊपर है......आप समझ ही गये हैं, अब हर बात लिखनी थोड़े ही ठीक लगती है।
यहां तक कि अगर आप ने अपने कैबिन में नोटिस नहीं भी किया तो शौचालय के दरवाजे के बाहर चिटकनी पर भी इस तरह का इंडीकेटर सा आ जाता है कि बाथ-रूम खाली है या यूज़ में है। अंदर गये हुये बंदे को भी कितना सुकून है कि वह इतमीनान से अपना टाइम ले सकता है---नहीं तो कईं बार हम लोग बिना वजह उस चिटकनी को यूं ही इधर उधर कर के अपनी एमरजैंसी का संदेश अंदर बैठे महांपुरूष तक पहुंचाना चाहते हैं......कि शायद इस से उस की आंतड़ियों की सफाई की चाल में कुछ फर्क पड़ जाये।
तो ठीक है, बंदा एसी फर्स्ट क्लास के शौचालय में पहुंच गया है ....लेकिन पहली बार अंदर जाने वाला अंदर का वातावरण ऐसा फील करता है कि यार, यह बाथरूम ही तो है ना.....उस में तरह तरह के स्विच, तरह तरह के नलके, डिब्बे पड़े होते हैं और इतनी तरह की हिदायतें दी गई होती हैं कि आदमी सोचता है कि इन्हें समझने के चक्कर में क्या पड़ना। बस अपने काम से फारिग हो कर बाहर निकलें। एसी फर्स्ट के बाथरूम की जो मैं बातें कर रहा हूं,ये सब खासकर राजधानी गाड़ियों पर ज़्यादा लागू होती हैं।
यात्रियों की सुविधा का इतना ख्याल कि बाथरूम के ऊपर एक छोटी सी खिड़की भी होती है ताकि ताज़ी हवा का आनंद लूटने की ख्वाहिशमंद आत्मायें इस का भी भरपूर आनंद ले सकें।
हां, हां,साबुन-पानी की तो कोई दिक्कत ही नहीं.......टिश्यू पेपर भी पड़ा है, लिक्विड-सोप भी है और एक सोप की टिकिया जो यात्रा शुरू करने से पहले अकसर आप को दी जाती है, वह भी है----यानि पूरा इंतजाम।
चलिये, बहुत हो गया.....चाहे एसी फर्स्ट का ही बाथ-रूम है, लेकिन टाइम कुछ ज़्यादा ही लगा दिया है। अब आते हैं, सैकेंड एसी के बाथरूम की ओर। बस उस कोच में मैंने बहुत अरसा पहले एक इंडीकेटर देखा था गेट के पास कि शौचालय खाली है या कोई उस में गया हुया है। वैसे सैकेंड एसी में भी पानी वानी की तो कोई खास दिक्कत होती नहीं.....हां, साबुन का जुगाड़ आप को पहले से कर के रखना होगा। लेकिन राजधानी गाड़ीयों में सैकेंड एसी में भी साबुन वगैरह की व्यवस्था रहती ही है।
अच्छा, अब आगे समझने वाली बातें शुरू हो रही हैं.....वैल्यू-एडड सर्विस की बातें समझनी शुरू करें ?---हां, तो कुछ सैकेंड एसी के शौचालयों में लिक्विड सोप का कंटेनर लगा होता है , कुछ में नहीं और कुछ में खाली या .......!! यानि कि सैकंड एसी में सफर करने वाले अपनी साबुनदानी घर पर न ही भूलें तो बेहतर है वरना उस कागज़ी-साबुन (पेपर-सोप) से ही हाथ धोने की रस्म निभानी होगी।
अब आते हैं थर्ड-एसी के डिब्बे के शौचालय में....सीटें काफी बढ़ गई हैं ...इसलिये सुबह सुबह शौचालय के बाहर वेटिंग-लिस्ट में खड़े लोग दिख जाते हैं। कुछ कोशिश करते हैं कि बगल वाले सैकंड एसी के शौचालय में जाकर ही फारिग हो आया जाये। हां, हां, पानी की कोई दिक्कत नहीं.....बस साबुन का जुगाड़ पहले से रखो, भाई।
अब चलते हैं उस स्लीपर कोच की तरफ़ जिस में सब लोग रिजर्वेशन करवा कर ही चलते हैं.....उस में भी अधिकतर कोई प्राबलम होती नहीं। पानी वानी अकसर मिल ही जाता है.......हां, थोड़ा खिड़की-विड़की के कांच को जरूर चैक कर लेना होता है कि यह कहीं टूटा वूटा तो नहीं है या कहीं पारदर्शी कांच ही तो नहीं लगा हुया है। चिटकनी की तरफ़ भी पहले से थोड़ा ध्यान दे ही लें तो बेहतर होगा। और अंदर घुसने से पहले दोनों कानों में थोड़ी रूईं ठूंसनी होगी ताकि बाहर खड़ी जनता की किच-किच आप की दैनिक दिनचर्या को किसी तरह से बाधित न कर पाये। इस स्लीपर में दिक्कत आती है तब जब लोग बिना रिजर्वेशन वाले भी इस में जबरदस्ती घुस जाते हैं और फिर सुबह तो हर तरफ़ सामान भरा होता है और ट्रंकों के ऊपर ट्रंक पड़े रहते हैं जिस से दूसरे यात्रियों को काफ़ी परेशानी होती है.....लेकिन मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ रेलों में सफर कर रहे एक आम भारतवाशी के इत्मीनान को याद करते हुये एक सलाम ठोंके। उस बाथरूम के बाहर खड़े सब की एमरजैंसी एक सी है, लेकिन फिर भी वे एक-दूसरे की बात सुन लेते हैं और जो केस बिल्कुल होप-लैस लगते हैं उसे परायरटी बेस पर तुरंत अंदर भिजवा दिया जाता है।
इन स्पीलर क्लासेस के पश्चिमी शौचालयों का तो और भी बुरा हाल लोगों नें उस के ऊपर चप्पलों समेत बैठ बैठ कर किया होता है। इसलिये वही लोग उस तरफ का मुंह करते हैं जो नीचे नहीं बैठ सकते।
रेल गाड़ी से संबंधित तो नहीं , लेकिन अपने ज्ञानदत्त् जी पांडे की ब्लाग मानसिक हलचल पर मैंने लगभग एक साल पहले एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढ़ी थी जिस में उन्होंने हिंदोस्तानी बाथ-रूम के बारे में बहुत बढ़िया कुछ लिखा था।
अच्छा तो अब हम चलते हैं बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे की तरफ़ जिस में लोग बोरों की तरह से ठसे हुये हैं और उस में मेरी नानी/दादी, मेरी मां, मेरी बीवी , मेरी बहन और हमारी बेटियां की उम्र की औरतें भी ठसाठस भरी होती हैं..........मैं जब इन डिब्बों को इतना ठसाठस भरे हुये देखता हूं तो सोचता हूं कि यार, जब इन में से किसी को बाथ-रूम जाना होना होता होगा तो क्या हाल होता होगा...........इन लोगों को विशेषकर हर उम्र की महिलाओं को क्या तकलीफ़ें पेश आती होंगी, शायद इस की तो हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर पायें..........आप स्वयं सोचिये ठसा ठस भरे डिब्बे में से चल कर किसी महिला के लिये बाथरूम जाना कैसा अनुभव होता होगा। और यह भी हो सकता है कि उस डिब्बे में दो-चार लोग ऐसे हों जो डायबिटीज़ से परेशान हों। अकसर इन डिब्बों के शौचालयों की हालत भी कुछ इस तरह की हालत होती है कि चिटकनी का पूरा ध्यान रखना होगा और पानी तो पहले से ही देख लिया जाये कि चल रहा है कि नहीं ...................वरना बाद में तो ...अब पछताये होत क्या.....!!!
ये जो थोड़ी दूरी की पैसेंजर गाड़ियां होती हैं इन के शौचालयों को तो लोगों ने इतना मिसयूज़ कर रखा होता है कि क्या कहें---कईं बार इन के बल्ब तक उतरे होते हैं....अंदर सब तरफ गंदगी बिखरी पड़ी होता है, ऐसे में इस बात की तो बिल्कुल हैरानगी करें नहीं कि गोलू की अम्मा गई तो गोलू को गोद में उठा कर उसे साफ करने लेकिन यह क्या उसे तो वहां गंदगी की हवाड़ से शुरू हो गई मतली और गोलू बेचारा रह गया वैसा का वैसा ही .....लेकिन वह फिर भी मस्त है और दूसरे यात्रियों को देख कर किलकारियां मारता जा रहा है । और सामने वाले बाथरूम में से शहर जा कर आधा-दूध आधा-पानी बेचने वाले अपनी कैनीयों में बाथरूम से पानी भर भर उंडेलने में व्यस्त हैं क्योंकि शीघ्र ही उन का स्टेशन आने वाला है।
दो-चार महीने पहले एक बार रात को मैं और मेरा बेटा अंबाला स्टेशन पर बैठे हुये थे तो हमारे बैंच के सामने एक सैकेंड क्लास का ऐसा डिब्बा रुका जिस के शौचालय की खिड़की न थी ....लेकिन उस में भीड़ इतनी थी कि लोग इस बात की परवाह किये बिना उस का इस्तेमाल किये जा रहे थे। मेरे बेटे ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में मुझे कुछ कहा, तो मैंने उसे प्यार से समझा दिया कि यार, तू एक बार अपने आप को इन लोगों की जगह पर रख कर के देख......बात केवल इतनी ही कही कि यार, इन लोगों की इस अवस्था के बारे में एक फीकी सी मुस्कान भी चेहरे पर लाना घोर जुल्म है। और हम लोग वहां से उठ खड़े हुये।
लेकिन इतना लिखते लिखते लगता है कि वैल्यू-एडड सर्विस का कंसैप्ट मैं समझा पाया हूं........key words are …..इंडीकेटर्स, लिक्विड सोप, चिटकनियां, टूटी खिड़कियां, टूटे बल्ब ।
मैं इन सब श्रेणियों में सफर करने का फर्स्ट-हैंड तजुर्बा रखता हूं।
और जितना अब तक सीखा है वह यही है कि हमारी रेलें हमें बहुत कुछ सिखाती हैं....आपस में एक दूसरे की ज़रूरत का ध्यान रखना और सब से बड़ी बात जो मैंने बहुत शिद्दत से ऑब्जर्व की है और जिस बात में मेरा विश्वास पत्थर पर खुदे नाम जैसा है ....वह यह है कि जैसे जैसे ट्रेन की श्रेणी बढ़ती है........सुविधा तो बेशक बढ़ती ही है ....लेकिन हमारी टोलरैंस, हमारी सब्र, हमारा ठहराव, हमारी इत्मीनान......यह सब कुछ पता नहीं क्यों कम होता जाता है। ये सब विशेषतायें मैंने दूसरे दर्जे के बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे के यात्रियों के चेहरे पर बहुत अच्छी तरह से पढ़ी हैं........किसी के पैर में घिसी चप्पल है, किसी का कुर्ता छः जगह से टांका हुया है, कोई शायद समझता है कि उसे बात करने का ढंग नहीं है, कोई अपनी बढ़ी दाढ़ी या दूसरे किसी बाबूनुमा व्यक्ति की बढ़िया कमीज़ की वजह से बिना वजह अपने आप को छोटा समझ रहा है बिना यह जाने की यह उस ने आज ही स्टेशन के बाहर फुटपाथ से सैकेंड-हैंड खरीदी है, कोई अपनी मां के हाथ की रोटियां और आचार खाने में बिना वजह झिझक महसूस कर रहा है...........लेकिन कोई परवाह नहीं,दोस्तो, इन सब छोटी छोटी बातों का कोई मतलब है ही नहीं....असली हीरो इस देश के यही लोग हैं जिन में इतनी टॉलरैंस है, इतना सब्र है कि मैं तो भई इन की आंख में आंख डाल कर बात ही नहीं कर सकता। इस के इतने सब्र के पीछे कारण यही है कि इन सब के सपने एक से हैं.....ये एक दूसरे की तकलीफ़ समझते हैं और उस की मदद करने के लिये आगे आते हैं।
यहां तक कि अगर आप ने अपने कैबिन में नोटिस नहीं भी किया तो शौचालय के दरवाजे के बाहर चिटकनी पर भी इस तरह का इंडीकेटर सा आ जाता है कि बाथ-रूम खाली है या यूज़ में है। अंदर गये हुये बंदे को भी कितना सुकून है कि वह इतमीनान से अपना टाइम ले सकता है---नहीं तो कईं बार हम लोग बिना वजह उस चिटकनी को यूं ही इधर उधर कर के अपनी एमरजैंसी का संदेश अंदर बैठे महांपुरूष तक पहुंचाना चाहते हैं......कि शायद इस से उस की आंतड़ियों की सफाई की चाल में कुछ फर्क पड़ जाये।
तो ठीक है, बंदा एसी फर्स्ट क्लास के शौचालय में पहुंच गया है ....लेकिन पहली बार अंदर जाने वाला अंदर का वातावरण ऐसा फील करता है कि यार, यह बाथरूम ही तो है ना.....उस में तरह तरह के स्विच, तरह तरह के नलके, डिब्बे पड़े होते हैं और इतनी तरह की हिदायतें दी गई होती हैं कि आदमी सोचता है कि इन्हें समझने के चक्कर में क्या पड़ना। बस अपने काम से फारिग हो कर बाहर निकलें। एसी फर्स्ट के बाथरूम की जो मैं बातें कर रहा हूं,ये सब खासकर राजधानी गाड़ियों पर ज़्यादा लागू होती हैं।
यात्रियों की सुविधा का इतना ख्याल कि बाथरूम के ऊपर एक छोटी सी खिड़की भी होती है ताकि ताज़ी हवा का आनंद लूटने की ख्वाहिशमंद आत्मायें इस का भी भरपूर आनंद ले सकें।
हां, हां,साबुन-पानी की तो कोई दिक्कत ही नहीं.......टिश्यू पेपर भी पड़ा है, लिक्विड-सोप भी है और एक सोप की टिकिया जो यात्रा शुरू करने से पहले अकसर आप को दी जाती है, वह भी है----यानि पूरा इंतजाम।
चलिये, बहुत हो गया.....चाहे एसी फर्स्ट का ही बाथ-रूम है, लेकिन टाइम कुछ ज़्यादा ही लगा दिया है। अब आते हैं, सैकेंड एसी के बाथरूम की ओर। बस उस कोच में मैंने बहुत अरसा पहले एक इंडीकेटर देखा था गेट के पास कि शौचालय खाली है या कोई उस में गया हुया है। वैसे सैकेंड एसी में भी पानी वानी की तो कोई खास दिक्कत होती नहीं.....हां, साबुन का जुगाड़ आप को पहले से कर के रखना होगा। लेकिन राजधानी गाड़ीयों में सैकेंड एसी में भी साबुन वगैरह की व्यवस्था रहती ही है।
अच्छा, अब आगे समझने वाली बातें शुरू हो रही हैं.....वैल्यू-एडड सर्विस की बातें समझनी शुरू करें ?---हां, तो कुछ सैकेंड एसी के शौचालयों में लिक्विड सोप का कंटेनर लगा होता है , कुछ में नहीं और कुछ में खाली या .......!! यानि कि सैकंड एसी में सफर करने वाले अपनी साबुनदानी घर पर न ही भूलें तो बेहतर है वरना उस कागज़ी-साबुन (पेपर-सोप) से ही हाथ धोने की रस्म निभानी होगी।
अब आते हैं थर्ड-एसी के डिब्बे के शौचालय में....सीटें काफी बढ़ गई हैं ...इसलिये सुबह सुबह शौचालय के बाहर वेटिंग-लिस्ट में खड़े लोग दिख जाते हैं। कुछ कोशिश करते हैं कि बगल वाले सैकंड एसी के शौचालय में जाकर ही फारिग हो आया जाये। हां, हां, पानी की कोई दिक्कत नहीं.....बस साबुन का जुगाड़ पहले से रखो, भाई।
अब चलते हैं उस स्लीपर कोच की तरफ़ जिस में सब लोग रिजर्वेशन करवा कर ही चलते हैं.....उस में भी अधिकतर कोई प्राबलम होती नहीं। पानी वानी अकसर मिल ही जाता है.......हां, थोड़ा खिड़की-विड़की के कांच को जरूर चैक कर लेना होता है कि यह कहीं टूटा वूटा तो नहीं है या कहीं पारदर्शी कांच ही तो नहीं लगा हुया है। चिटकनी की तरफ़ भी पहले से थोड़ा ध्यान दे ही लें तो बेहतर होगा। और अंदर घुसने से पहले दोनों कानों में थोड़ी रूईं ठूंसनी होगी ताकि बाहर खड़ी जनता की किच-किच आप की दैनिक दिनचर्या को किसी तरह से बाधित न कर पाये। इस स्लीपर में दिक्कत आती है तब जब लोग बिना रिजर्वेशन वाले भी इस में जबरदस्ती घुस जाते हैं और फिर सुबह तो हर तरफ़ सामान भरा होता है और ट्रंकों के ऊपर ट्रंक पड़े रहते हैं जिस से दूसरे यात्रियों को काफ़ी परेशानी होती है.....लेकिन मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ रेलों में सफर कर रहे एक आम भारतवाशी के इत्मीनान को याद करते हुये एक सलाम ठोंके। उस बाथरूम के बाहर खड़े सब की एमरजैंसी एक सी है, लेकिन फिर भी वे एक-दूसरे की बात सुन लेते हैं और जो केस बिल्कुल होप-लैस लगते हैं उसे परायरटी बेस पर तुरंत अंदर भिजवा दिया जाता है।
इन स्पीलर क्लासेस के पश्चिमी शौचालयों का तो और भी बुरा हाल लोगों नें उस के ऊपर चप्पलों समेत बैठ बैठ कर किया होता है। इसलिये वही लोग उस तरफ का मुंह करते हैं जो नीचे नहीं बैठ सकते।
रेल गाड़ी से संबंधित तो नहीं , लेकिन अपने ज्ञानदत्त् जी पांडे की ब्लाग मानसिक हलचल पर मैंने लगभग एक साल पहले एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढ़ी थी जिस में उन्होंने हिंदोस्तानी बाथ-रूम के बारे में बहुत बढ़िया कुछ लिखा था।
अच्छा तो अब हम चलते हैं बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे की तरफ़ जिस में लोग बोरों की तरह से ठसे हुये हैं और उस में मेरी नानी/दादी, मेरी मां, मेरी बीवी , मेरी बहन और हमारी बेटियां की उम्र की औरतें भी ठसाठस भरी होती हैं..........मैं जब इन डिब्बों को इतना ठसाठस भरे हुये देखता हूं तो सोचता हूं कि यार, जब इन में से किसी को बाथ-रूम जाना होना होता होगा तो क्या हाल होता होगा...........इन लोगों को विशेषकर हर उम्र की महिलाओं को क्या तकलीफ़ें पेश आती होंगी, शायद इस की तो हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर पायें..........आप स्वयं सोचिये ठसा ठस भरे डिब्बे में से चल कर किसी महिला के लिये बाथरूम जाना कैसा अनुभव होता होगा। और यह भी हो सकता है कि उस डिब्बे में दो-चार लोग ऐसे हों जो डायबिटीज़ से परेशान हों। अकसर इन डिब्बों के शौचालयों की हालत भी कुछ इस तरह की हालत होती है कि चिटकनी का पूरा ध्यान रखना होगा और पानी तो पहले से ही देख लिया जाये कि चल रहा है कि नहीं ...................वरना बाद में तो ...अब पछताये होत क्या.....!!!
ये जो थोड़ी दूरी की पैसेंजर गाड़ियां होती हैं इन के शौचालयों को तो लोगों ने इतना मिसयूज़ कर रखा होता है कि क्या कहें---कईं बार इन के बल्ब तक उतरे होते हैं....अंदर सब तरफ गंदगी बिखरी पड़ी होता है, ऐसे में इस बात की तो बिल्कुल हैरानगी करें नहीं कि गोलू की अम्मा गई तो गोलू को गोद में उठा कर उसे साफ करने लेकिन यह क्या उसे तो वहां गंदगी की हवाड़ से शुरू हो गई मतली और गोलू बेचारा रह गया वैसा का वैसा ही .....लेकिन वह फिर भी मस्त है और दूसरे यात्रियों को देख कर किलकारियां मारता जा रहा है । और सामने वाले बाथरूम में से शहर जा कर आधा-दूध आधा-पानी बेचने वाले अपनी कैनीयों में बाथरूम से पानी भर भर उंडेलने में व्यस्त हैं क्योंकि शीघ्र ही उन का स्टेशन आने वाला है।
दो-चार महीने पहले एक बार रात को मैं और मेरा बेटा अंबाला स्टेशन पर बैठे हुये थे तो हमारे बैंच के सामने एक सैकेंड क्लास का ऐसा डिब्बा रुका जिस के शौचालय की खिड़की न थी ....लेकिन उस में भीड़ इतनी थी कि लोग इस बात की परवाह किये बिना उस का इस्तेमाल किये जा रहे थे। मेरे बेटे ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में मुझे कुछ कहा, तो मैंने उसे प्यार से समझा दिया कि यार, तू एक बार अपने आप को इन लोगों की जगह पर रख कर के देख......बात केवल इतनी ही कही कि यार, इन लोगों की इस अवस्था के बारे में एक फीकी सी मुस्कान भी चेहरे पर लाना घोर जुल्म है। और हम लोग वहां से उठ खड़े हुये।
लेकिन इतना लिखते लिखते लगता है कि वैल्यू-एडड सर्विस का कंसैप्ट मैं समझा पाया हूं........key words are …..इंडीकेटर्स, लिक्विड सोप, चिटकनियां, टूटी खिड़कियां, टूटे बल्ब ।
मैं इन सब श्रेणियों में सफर करने का फर्स्ट-हैंड तजुर्बा रखता हूं।
और जितना अब तक सीखा है वह यही है कि हमारी रेलें हमें बहुत कुछ सिखाती हैं....आपस में एक दूसरे की ज़रूरत का ध्यान रखना और सब से बड़ी बात जो मैंने बहुत शिद्दत से ऑब्जर्व की है और जिस बात में मेरा विश्वास पत्थर पर खुदे नाम जैसा है ....वह यह है कि जैसे जैसे ट्रेन की श्रेणी बढ़ती है........सुविधा तो बेशक बढ़ती ही है ....लेकिन हमारी टोलरैंस, हमारी सब्र, हमारा ठहराव, हमारी इत्मीनान......यह सब कुछ पता नहीं क्यों कम होता जाता है। ये सब विशेषतायें मैंने दूसरे दर्जे के बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे के यात्रियों के चेहरे पर बहुत अच्छी तरह से पढ़ी हैं........किसी के पैर में घिसी चप्पल है, किसी का कुर्ता छः जगह से टांका हुया है, कोई शायद समझता है कि उसे बात करने का ढंग नहीं है, कोई अपनी बढ़ी दाढ़ी या दूसरे किसी बाबूनुमा व्यक्ति की बढ़िया कमीज़ की वजह से बिना वजह अपने आप को छोटा समझ रहा है बिना यह जाने की यह उस ने आज ही स्टेशन के बाहर फुटपाथ से सैकेंड-हैंड खरीदी है, कोई अपनी मां के हाथ की रोटियां और आचार खाने में बिना वजह झिझक महसूस कर रहा है...........लेकिन कोई परवाह नहीं,दोस्तो, इन सब छोटी छोटी बातों का कोई मतलब है ही नहीं....असली हीरो इस देश के यही लोग हैं जिन में इतनी टॉलरैंस है, इतना सब्र है कि मैं तो भई इन की आंख में आंख डाल कर बात ही नहीं कर सकता। इस के इतने सब्र के पीछे कारण यही है कि इन सब के सपने एक से हैं.....ये एक दूसरे की तकलीफ़ समझते हैं और उस की मदद करने के लिये आगे आते हैं।