मंगलवार, 19 अगस्त 2025

गुड़ जैसी मामूली चीज़ में भी मिलावट !

गुड़ खाने से जुड़ी मेरी सब से पुरानी याद वह है जब मैं नया नया स्कूल जाने लगा….बिना किसी क्लास के …(आज कल तो बाज़ारवाद ने इसे कईं नाम दे दिए हैं…प्ले-स्कूल, प्री-नर्सरी, प्री-के.जी आदि) …जिसे कहा जाता था कि नियाना (बच्चा) स्कूल जा के बैठने का वल (ढंग) सीख रहा है ….और मुझे याद है उन दिनों मुझे एक पीतल की छोटी सी चिब्बी सी हो चुकी डिब्बी में एक परांठा दिया जाता था जिस के अंदर मां गुड़ की एक डली दबा दिया करती थी….और पिता जी जाते वक्त मेेरे नन्हे से हाथ में एक दस पैसे का पीतल वाला बड़ा सा सिक्का रख देते ....


पढ़ाई-वढ़ाई, बैठने बिठाने का सलीका तो क्या सीखना था….बस, एक काम होता था कि वहां जाते ही उस डिब्बे में से उस परांठे और गुड़ का लुत्फ़ उठा कर घर लौट आना है ….खुशग़वार दौर की प्यारी यादें…


जब हम छोटे थे तो यह स्नैक्स वैक्स का कोई चक्कर नहीं होता था …बीच बीच में कच्चे चावल चीनी के साथ खा लेने और गुड़ की एक डली खा लेना …..यह भी हमारा ऐश करने का ढंग था…


गुड़ के मीठे चावल खाना, मक्की की रोटी के ऊपर देसी घी-गुड़ रख के खाना, कईं बार आम रोटी को भी ऐसे ही खाना, गुड़ से बनी शक्कर को भी ऐसे ही खाना……रोटी के साथ देसी घी और गुड़ खाना तो लगभग रोज़ होता था …खास कर जाड़े के मौसम में।


वैसे अभी मुझे लिखते लिखते याद आ रहा है कि यह गुड़-वुड की ऐश करने के दिन जाड़े के मौसम के ही होते थे …क्योंकि जाडे़ के दिनों में ही बाज़ार में नया गुड़ बिकने लगता था ….मुझे अच्छे से याद गर्मी के मौसम में हमें वैसे भी गुड़ खाना अच्छा नहीं लगता था …क्योंकि उस मौसम में पुराना सा अजीब सा थोड़ा थोड़ा अजीब सा सख्त और थोड़ा काले से रंग का गुड़ बाज़ार में बिकता था …इसलिए उस गर्मी के मौसम में घरों में गुड़ बहुत कम लाया जाता था …..सर्दियों का इंतज़ार रहता था ….


गुड़ की शक्कर को चावल में डाल कर खाने का भी मैं बहुत शौकीन रहा हूं …देशी घी के साथ ….जौ का सत्तू पीना हो तो भी पहले गुड़ को पानी में घोला जाता था ….भुने हुए चने हों या हो मूंगफली …उस दौर के शुरू हुए अभी तक यह सब ऐसे ही चलता रहा है ….दरअसल उत्तर भारत में ऐसा ही चलन है ..वहां पर मूंगफली या तो रेवड़ी के साथ (रेवडी़ जो गुड़ और तिल से बनती है …कईं बार चीनी से भी बनती है, लेकिन उस में वो मज़ा कहां)....और सर्दी के मौसम में गुड़ से तैयार तरह तरह की गज्जक (जिसे कईं जगह पर चिक्की या पट्टी भी कहते हैं).....यह भी खूब खाई जाती है …

जाडे़ के मौसम में तो गुड़ लोग किसी न किसी रूप में खा ही लेते हैं ….और कुछ नहीं तो खाने के बाद थोड़ा सा खा लेना …क्योंकि यह बात लोगों के दिलोदिमाग में घर कर चुकी है कि इस से खाना अच्छा हज़्म हो जाता है …..


सर्दी के दिनों में गुड़ दुकानों में ही नहीं बिकता…बाहर गली-मोहल्लों में घोड़ा-गाड़ियों (पंजाबी में इन को को गड्डे कहते हैं) में भी गुड़ के ढेर रख कर गुड़ बिक रहा होता है ….तरह तरह का गुड़ ….सौंठ वाला गुड़….सौंफ वाला गुड़ भी बिकता है जिसमें नारियल के टुकड़े भी पड़े रहते हैं…..ये सब सर्दियों में ही दिखता है …और लोग घरों में भी तैयार करवाते थे …मुझे याद है मैंने कईं रिश्तेदारों के घर देखा कि वे इस तरह का गुड़ तैयार करवा कर बडे़ से डिब्बे में (पीपे) में स्टोर कर रखते थे …जाड़े के मौसम तक चलने के लिए ….हां, चलने से भी बात याद आ गई …गुज़रे दौर के लोगों को इस बात का भी पक्का भरोसा था कि इस तरह के गुड़ से सर्दी दूर भाग जाती है, और सभी जोड़ों (joints कहते हैं इनको इंगलिश में) में गर्मी का अहसास बना रहता है …


गुड़ का एक और इस्तेमाल बहुत होता था …जब कभी ज़्यादा जाड़ा होता था …गुड़ को देशी घी में पिघला कर उस में सौंठ और बादाम (अधिकतर तो वही मूंगफली ही हुआ करती थी…झूठ लिखने से मुझे कौन सा अवार्ड मिल जाना है, मेरा सिर ही भारी हो जाएगा) डाल कर खाया करते थे ….


मुझे लगता है मैं गुड़ के बारे में जितना लिखना था, लिख दिया कि कैसे यह हम लोगों की ज़िंदगी में मिठास घोल रहा है …..हां, हमारे यहां कभी कभी गुड़ की चाय भी बनती थी …सब दीवाने थे उस चाय के ….जब हम नानी के पास अंबाला जाते थे वह तो सब से ज़्यादा दीवानी थी….लेकिन फिर कुछ समय के बाद गुड़ वाली चाय को ऐसी नज़र लगी कि गुड़ वाली चाय का स्वाद अजीब सा हो गया….बिल्कुल बेकार…..और इस का कारण यही होगा कि उस में तरह तरह के मसालों (कैमीकल्स) की मिलावट शुरू हो गई होगी….


हां, गुड़ की मिलावट से एक बात का और ख्याल आ गया ….कि जब हम 20 बरस के करीब उम्र के हुए …आज से 40 साल पीछे देखता हूं तो यह बात होने लगी थी कि मसाले वाला गुड़ जो मिलता है वह सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, न ही खाने में स्वाद होता है….इसलिए गुड़ किसी विश्वसनीय दुकान से ही लेते थे ….ये वे दुकानदार से जो ग्राहक को मना कर देते थे कि अभी नया गुड़ नहीं आया, पिछला गुड़ पुराना है ….(नया गुड़ जाड़े के दिनों के आस पास ही आता था)...


मैं अकसर अपने ब्लॉग में लोगों को प्रेरित किया करता हूं कि जो भी मन में विचार आएं उन को लिखते रहा करें….मुझे नहीं लगता कि आज कोई किसी की बात सुनने को तैयार है …खैर, लिखने का फायदा यह तो है कि लिखते लिखते कुछ ऐसे विचार आ जाते हैं जिन के बारे में कोई चित्त-चेता भी नहीं होता …जैसे मुझे आज लिखते लिखते यह ख्याल आया कि पहले तो बढ़िया गुड़ हम लोगों को जाड़े के दिनों में ही मिलता था …गुड़ ही नहीं, गुड़ वाली शक्कर भी जाड़े के तीन-चार महीनों में ही बिकती थी …और उस के बाद लोग खरीदते भी नहीं थे। 


लेकिन अब तो बंबई जैसे महानगरों में गुड़ तो सारा साल बिकता है। कभी भी कहीं से भी कितना भी खरीद लो। 


मौसमी सब्ज़ियों का भी तो यही हाल है …जो सब्ज़ियां, या फल साल में दो तीन महीने दिखते थे, वे अब सारा साल बिकते हैं….कोल्ड-स्टोर वाली बात तो ठीक है, लेकिन मुझे नहीं पता कि कितना कोल्ड-स्टोर से आती हैंं और कितनी अप्राकृतिक ढंग से कीटनाशकों के बलबूते पर पैदा की जाती हैं ….तैयार की जाती है …प्रोड्यूस की जाती हैं…जो मौसमी सब्ज़ियों का स्वाद जब वे साल के कुछ महीनों तक मिलती थीं, वह स्वाद अब बिल्कुल नहीं है, फोकापन है ….नाम है बस। लेकिन यह बात तो वही लोग तसदीक कर सकते हैं जिन्होंने वह स्वर्णिम दौर देखा है, जीया है …..आज की पीढ़ी तो सब्जी खाती नहीं, उन्हें क्या पता कि कोल्ड-स्टोर की है, बेमौसमी हैं या अप्राकृतिक ढंग से तैयार की गई हैं….


मैं गुड़ का इतना दीवाना रहा हूं …लगभग रोज़ किसी न किसी बहाने गुड़ खाना अभी हाल तक भी चालू था…और नहीं तो भुनी हुई मूंगफली के साथ, और रोटी के ऊपर रख कर खुशी खुशी खाने का सिलसिला चल रहा था ……..


लेकिन आज तीन महीने और तीन दिन हो गए हैं, मैंने गुड़ को हाथ नहीं लगाया….उस तरफ़ देखा भी नहीं ….


ऐसा क्या हो गया, आप भी जानना चाहेंगे…..


हुआ यूं कि 17 मई 2025 के दिन सोशल मीडिया के पार्क में घूमते हुए मुझे एक वीडियो मिल गया …..उसने मेरी आंखें खोल दी। अब तक मैं समझता था कि गुड की मिलावट यहां तक होती होगी कि उस में कुछ कैमीकल्स (जैसे मीठा सोडा, बेकिंग सोड़ा आदि) डाल देते होंगे उस को गोरा करने के लिए (जिस की वजह से कईं बार गुड़ खाने के बाद एसिडिटी जैसी फीलिंग होने लगती थी)….लेकिन इस व्हीडियो ने जैसे मेरी आंखें पूरी खोल दीं….मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी ….कि इस तरह से बेकार, सड़े- हुए, फंगल से ग्रस्त गन्ने, कैमीकल और चीनी का इस्तेमाल किया जा सकता है ..गुड़ बनाने में …..इस व्हीडियो को मैंने नीचे एम्बेड कर रहा हूं, आप भी देखिए ….इसे देखने के बाद मेरी तो हिम्मत न हुई फिर से गुड़ की तरफ देखने की भी ….और मैं यह सोच कर और भी हैरान परेशान हूं कि अगर पंजाब जैसे खाते-पीते प्रांत में यह सब हो सकता है तो फिर दूसरी जगहों की तो बात ही क्या करें....



जो इस तरह की व्हीडियो हो उसे मैं खुद को ही व्हाटसएप पर भेज देता हूं …आज भी इस का याद यूं आया कि आज फिर मिलावटी गुड कहूं या नकली गुड़ की एक व्हीडियो दिख गई ….कोशिश करता हूं उस को भी नीचे लगा दूं…यहां तो बिना गन्ने के रस के ही कैमीकल्स और रंगों से चीनी के सहयोग से गुड़

तैयार हो रहा है ...




मैं यह भी समझता हूं कि इन एक दो व्हीडियो के आधार पर किसी चीज़ को बिल्कुल ही छोड देना, यह कहां की समझदारी हुई। ठीक है, बेवकूफी ही सही …लेकिन मेरी हिम्मत नहीं होगी कभी भी गुड़ खाने की ….दिक्कत यहां यह भी तो है कि हर कोई यही क्लेम करता है कि वह तो सब कुछ शुद्ध ही बना रहा है …ऐसे में चोर-साध में कौन फ़र्क करता फिरे, शुद्ध-अशुद्ध को कौन देखता रहे, न तो इतना वक्त है किसी के पास न ही इतना सब्र है ……मैं ऐसा समझता हूं कि अगर एक बार मिलावटी वाली कोई बात देख ली, और उस इशारे को समझ लेना चाहिए…..पढ़ने वाले सोचें तो सोचें कि ऐसे अगर खाने-पीने की छोड़ने लगे तो हो गया काम………कोई बात नहीं, मन ही जब नहीं मानता तो क्या करे कोई, एक बार चाय में मक्खी देखने पर निगली नहीं जाती ….जिन्हें यकीं है कि वह तो सब कुछ खालिस खरीद रहे हैं….वे खुशी खुशी खाते रहें…….मौज करें….मेरे लिए तो वही बात है कि चावल पके हैं या नहीं, एक चावल को छूनेे से ही पता चल जाता है ..

शनिवार, 16 अगस्त 2025

बस एक निवाले की ख़ातिर...

आज सुबह से झमाझम बरसात हो रही थी …बाज़ार में पहुंच कर, बाद दोपहर एक चौराहे पर मैं जैसे ही गाड़ी से बाहर निकला…मुझे एक फड़फड़ाहट जैसी कुछ तेज़ आवाज़ सुनी…आवाज़ कुछ अजीब सी थी …इधर उधर देखा …

और पास ही एक मुर्गा बेचने वाले का स्टॉल था …उस के काउंटर के पीछे एक प्लास्टिक का ड्रम पड़ा हुआ था…ड्रम मीडियम साइज़ का ही था…एक लम्हे के लिए एक मुर्गा ऊपर तक उछला….मैंने समझा यह गलती से गिर गया है ….लेकिन तभी अगले ही पल बिल्कुल सन्नाटा…


मैं उधर पास ही खड़ा हो कर देखता रहा ….प्लास्टिक के नीले ड्रम से आप समझ गए होंगे जिन के ऊपर ढक्कन लगा रहता था और अकसर हम आते जाते देखते हैं लोग उन में पानी जमा कर के रखते हैं ….और वैसे छुट्टियों के भीड़-भड़क्के में जब लोग उन में सामान भर कर ठसाठस भरी गाडि़यों में अपना सामान लेकर चलते हैं और किसी तरह भी धक्कम-पेल कर के उन को गाड़ी में ठूंस देना चाहते हैं तो इस तरह की हरकतों से कैसे भगदड़ में मौतें भी हो जाती हैं…..दिल्ली स्टेशन का हादसा याद आ गया होगा आप को ….


ये ड्रम ही मनहूस हैं ….अभी लिखते लिखते यह ख्याल आया ….हादसे हुए इन की वजह से….पहले से इन में कैमीकल होते हैं और फिर लोग इस में पीने का पानी भी स्टोर करने लगते हैं….खतरा तो है ही ….लेकिन आज दोपहर देखा कि बेचारे मुर्गों की तो इन की वजह से आफ़त है …खैर, मुर्गे तो इन ड्रमों के बिना भी कत्ल होते रहे हैं ….इन बदनसीबों का नसीब ही ऐसा हुआ…..


कहीं पढ़ा था ….

जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की, उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया…

मुर्गा बांग देता है दुनिया को जगाने का काम करता है और मारा जाता है ….


बात सटीक है बिल्कुल ….इस की अनेक उदाहरणें हमारे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं….चाटुकार लोग रस मलाई खाते दिखते हैं …और ……..(और क्या, सब जानते ही हैं….) 


हां, तो उस ड्रम से आवाज़ आनी बंद हो गई….उस स्टाल पर एक ग्राहक खड़ा हुआ था ….मैं भी थोड़ी दूर एक मिनट के लिए खड़ा हो गया…इतना तो मैं समझ चुका था कि इन मुर्गों की अब खैर नहीं… अब उस ड्रम से निकाल कर इन की चमड़ी उधेड़ कर, काट कर ग्राहक के हवाले कर दिया जाएगा…..जा, बना ले सेहत, कर ले हासिल जबरदस्त ताकत और फिर ….। 


इतने में पास ही की एक गली से वह दुकानदार आता दिखा….उस के हाथ में चार-पांच मुर्गे थे, टांगों से पकड़ कर उसने उन को उलटा किया हुआ था …आते ही उसने उन को काउंटर के नीचे पटक दिया….वे बंधे नहीं हुए थे …लेकिन अधमरे से लग रहे थे जैसे इतने बीमार हों कि जद्दोजहद करने की ताकत ही खो चुके हों….


अब तक तीन-चार ग्राहक और आ चुके थे …बरसात का मौसम हो ..झमाझम बरसात, ज़्यादा ठंडी पड़ रही है तो नॉन-वेज और दारू की दुकानों पर तो खरीदारों का तांता लग जाता है …अब उस दुकानदार ने पहले एक मुर्गा उठाया, चाकू से एक झटके से उस के गले पर वार किया…और उसे ड्रम के अंदर पटक दिया….वह एक बार छटपटाया। फिर एक और मुर्गे का भी यही हश्र हुआ…उस के बाद उसने एक मिनट से भी कम के लिए उस ड्रम के ऊपर ढक्कन रखा और उस के ऊपर बैठ गया….जैसे ही उसने ढक्कन खोला, माल बिकने के लिए पूरी तरह से तैयार ….


यह सब देख कर मन बहुत विचलित हुआ….बहुत ज़्यादा ….


वैसे जिस तरह से बड़े बड़े ट्रकों में सैंकडे मुर्गों-मुर्गियों को ट्रांसपोर्ट किया जाता है ….एक दूसरे से सटे हुए, डरे सहमे हुए …और शायद स्टीरॉयड दवाईयों के टीकों से त्रस्त….अपनी जान छूटने का इंतज़ार करते ये परिंदे ….


फिर ये ट्रक अलग अलग बाज़ारों में मीट-मुर्गे की दुकानों के सामने रुकते हैं …माल उतारने के लिए….और फिर जिस तरह से इन को बेरहमी से बाहर निकाल कर, तराज़ू के ऊपर तोलने के लिए फैंका जाता है, वह मंज़र भी देखते नहीं बनता….


और कईं बार मैंने दस-बीस मुर्गों को उन की टांगों से बांध कर किसी मजदूर के कंधों पर एक लंबी रस्सी की मदद से टंगे देखा है जो इन को इन की मंज़िल तक पहुंचाने का काम करता है। कईं बार साईकिल के कैरियर पर भी दोनों तरफ़ उल्टे टंगे मुर्गे आपने भी ज़रुर देखे होंगे और बहुत बार मैंने स्कूटर की पिछली सीट पर भी इसी तरह से मुर्गे ढोए जाते देखे हैं…उन की टांगें बंधी हुईं और उल्टे लटकाए हुए….


अब जब इन की ढुलाई देखता हूं …इस तरह से उल्टे लटके हुए और टांगों से बंधे हुए तो मैं क्या कर सकता हूं….?


मैं कुछ नहीं कर सकता …..न ही कुछ कह सकता हूं ….पता लगे मैं ही कहीं उल्टा लटका पड़ा हुआ …पर एक काम तो मैं हर बार तबीयत से करता हूं ….मेरे पास जो भी पंजाबी गालियों का एक अच्छा-खासा खज़ाना है ….उन में से दो चार पांच निकाल कर इस्तेमाल कर लेता हूं ….दिल ही दिल में और अगर अभी अकेला हूं तो बहुत धीमी आवाज़ में ….


मैं जानता हूं ये लोग भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए यह काम कर रहे हैं….लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जो तर्क-वितर्क से परे होती हैं …


यह सब लिख रहा हूं ….इस की कोई धार्मिक वजह नहीं है ….मुझे पता है सभी धर्म-मज़हब के लोग ये सब खाते हैं …..और वैसे भी दुनिया में जो भी वैज-नॉन वैज चीज़ें उपलब्ध हैं, सारी दुनिया में वे सब खाई जाती हैं….दुनिया में लोगों का खान-पान, पहरावा, बोली …..सब कुछ अलग थलग है ….यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है ….इस तरह के खानपान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना बिल्कुल हिमाकत है ….मैं यह भी सोचता हूं ….जो किसी को पसंद है, खा रहा है …..


मैं नहीं खाता नॉन-वेज पिछले 30-32 बरसों से तो यह मेरा व्यक्तिगत मामला है …. इस से न तो मैं कोई बहुत बड़ा धर्म का ठेकेदार हो गया ….न ही मैं इस से आदरणीय फौजा सिंह की तरह 100 साल तक जीने की उम्मीद कर सकता हूं ….हर इंसान के कुछ खाने या न खाने की अपनी वजह है ….बस, इतनी सी बात है ….


मेरी वजह जानना चाहते हैं आप ….!!

तो सुनिए, 1994 में इन्हीं दिनों की बात है …हम लोग पूणा गये हुए थे …एक होटल में गए, वहां पर और कुछ समझ नहीं आया तो नॉन-वेज मंगवा लिया ….

लेकिन यह क्या, यह कमबख्त कैसा नॉन-वेज था, चबाया ही नहीं जा रहा था ….

हम लोग बिना खाए, बिल चुकता कर बाहर आ गए…

जब हम लोगों ने बंबई में आ कर कुछ दोस्तों से बात की तो उन से हमें पता चला कि हमें क्या परोसा गया होगा…….बस, उस दिन से कभी मटन-मुर्गा खाया नहीं, छूआ नहीं …और ताउम्र छूने की कोई मंशा नहीं है ….


बात धर्म-मज़हब की नहीं है …..वैज्ञानिक तौर पर भी हमारे दांतों की, हमारी आंतों की संरचना इस तरह की है कि उस परवरदिगार ने हमें शाकाहारी ही बना कर भेजा है ….और संसार में आकर हमारा मन यह सब खाने को मचलने लगा ….


बहुत सुनता हूं कुछ लोगों की मजबूरी है यह सब खाना….भई, मैं किसी को मना नहीं कर रहा हूं….जो किसी को पसंद होगा वह वही खाएगा….लेकिन क्या कोई मुझे मेरी बात कहने से रोक सकता है…..मेरे मन की जो बात है वह तो मैं ढंके की चोट कर कह कर ही रहता हूं ….यह तो हम सब का हक है। 


अपनी बात ही नहीं हांकते रहना चाहिए….दूसरों की भी करनी चाहिए…..कल मेरा बेटा बता रहा था कि उसने किसी अच्छी जगह से कोई वेज-सैंडविच आर्डर किए….

आ गया सैंडविच …..

लेकिन उसने जैसे ही एक बाइट ली ….उसे पता चल गया कि यह तो नॉन-वैज है …

उसने शिकायत की, पैसे वापिस हो गए …यह तो कोई मुद्दा ही नहीं है, और इन कंपनियों के लिए कितनी सामान्य सी बात होती होगी….जब उसने बताया कि उन का जो फीडबैक फार्म था, उस पर एक कॉलम ही था कि क्या आप को वैज मील की जगह नॉन-वैज मील भेजा गया……लेकिन जो भी है, अगर किसी ने बरसों से यह सब खाना छोड़ रखा है और गलती से वह इस का एक निवाला भी खा ले तो उस के लिए कितना ट्रामैटिक हो सकता है ….जान दीजिए….हां, निवाले से मुन्नवर राणा की लिखी बात याद आ गई ….

एक निवाले के लिए मैंने जिेसे मार दिया,

वह परिंदा भी कईं दिन का भूखा निकला ….


( जी हां, भूखे ही होते होंगे ये परिदें कईं दिनों से …..अकसर खबरें दिखती रहती हैं कि इन को तरह तरह के स्टीरॉय़ इंजैक्ट किए जाते हैं, और फीड भी एनाबॉलिक स्टीरायड से लैस होती हैं ….ये सब मीडिया में दिख जाता है ..लेकिन इस से इन का वज़न तो बढ़ जाता होगा, भूख इन की कहां मिटती होगी…!!


मौके-बेमौका देख कर मैं शाकाहारी खाने की हिमायत करता हूं और साथ में कह देता हूं कि इस बात में बिना वजह धर्म-मज़हब न घुसाएं….सुन है तो सुुनिए, अगर एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल फैंकनी है, यह भी उन का अधिकार है …और जो खाना चाहते हैं, खा रहे हैं ….उस का फैसला करना उन का अधिकार है, अगर हम किसी रास्ते पर चल रहे हैं कुछ अरसे से तो जो उस रास्ते पर चलने की कोशिश करना चाहते हैं उन को एक इशारा करना तो अपना फ़र्ज़ बनता है, दोस्तो. …..



और ये इशारे भी सोच समझ कर करने होते हैं ….अब जैसे मैंने कुछ महीनों से मिल्क-और मिल्क प्रोडक्ट्स को लगभग त्याग रखा है ….लगभग न के बराबर ….सिर्फ चाय में बिल्कुल जो थोड़ा दूध जाता है, उस के बिना मैं नहीं रह सकता….और दूध से बनी कोई चीज़ नहीं लेता….कभी कभी जब कहीं पर बेसन के लड्ड़ू पड़े दिख जाते हैं तो यह नियम भी टूट जाता है ….जैसे आज शाम भी टूट गया ….जब चाय के साथ तीन बेसन के लडडू खा लिए ….क्या करें, कुछ आदतें छूटती नहीं …..लेेकिन देसी घी, मक्खन, दही….आईसक्रीम, रबड़ी, लस्सी….. पिछले चार महीनों से इच्छा ही नहीं …..


क्या कारण था यह सब छोड़ने का?


कोई खास नहीं, बस वितृष्णा सी ही हो गई इन सब चीज़ों से ….क्योंकि मिलावट की, नकलीपन की इतनी खबरें देख लीं कि इन सब से किनारा ही कर लिया…..


लेकिन हां, इस तरह के फैसले का जो भी अंजाम होगा, देखा जाएगा…..एक प्रयोग ही सही….लेकिन अभी तो इन सब चीज़ों की तरफ़ लौटने का कोई इरादा नहीं है ….बाकी, मुझे भी नहीं पता कि इस के कितने नुकसान होंगे, कोई एक फायदा होगा भी या नहीं….जो होगा, देखा जाएगा…..शायद इसीलिए मैंने किसी दूसरे को मिल्क या मिल्क प्रोडक्ट्स का त्याग करने की सलाह कभी न दी है और न ही दूंगा…..वैसे यह मेरा अधिकार क्षेत्र भी नहीं है, हां मैं अनुभव ज़रूर साझा कर सकता हूं….


PS....1. पोस्ट में जितने भी मंज़र (आज वाला भी) मैंने ब्यां किए हैं, उन सब से जुड़ी तस्वीरें मेरी फोटो गैलरी में हैं, लेकिन मैंने जानबूझ कर नहीं चस्पा कीं क्योंकि बेकार में ये किसी को भी विचलित कर देंगी...




मैं इस पोस्ट में कहीं यह भी लिखा है कि मैंने इतने बेसन के लड्डू एक साथ खा लिए चाय के साथ और मैं अपराध बोध से ग्रस्त हूं…वह इसलिए कि मुझे लगा कि ये भी देशी घी से तैयार हुए हैं…लेकिन पोस्ट पब्लिश करने के बाद यूं ही इस डिब्बे को (जिस की फोटो ऊपर है) उठा कर इधर उधर कर के देखने लगा तो यह अपराध बोध भी कुछ तो कम हुआ….इसलिए कि इस को तैयार करने में वनस्पति तेल ही इस्तेमाल किया गया है। जो भी हो, इतने लड्डू एक साथ खाने, और वे भी शक्कर, तेल से भरपूर….यह भी तो इस उम्र में एक बेवकूफ़ी ही कही जा सकती है, समझता हूं ….लेकिन कभी कभी निदा फ़ाज़ली की बात याद आ जाती है ….


दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है….

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला ….


शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

50 बरस पहले देखी "शोले" से जुडी़ यादें....








पिछले कुछ दिनों से अखबार में शोले से जुड़ी बहुत सी बातें पढ़ रहा था, यू-ट्यूब पर कुछ कुछ देख रहा था इस फिल्म से जुड़ा हुआ….मुझे ऐसे ही ख्याल आया कि हम सब के पास एक कहानी है और वह कहानी हमें कहनी चाहिए….


अच्छा, शोले से जुड़ी मेरी यादों से पहले गांधी जी की यादों की एक बात कर लूं….एक किताब है गांधी जी की आत्मकथा…सत्य के साथ मेरे प्रयोग। इस किताब के बारे में भी बचपन से ही जानते थे …और मज़े की बात है कि मैंने इस किताब को शायद चार या पांच बार ज़रूर खरीदा भी होगा….लेकिन पता नहीं कभी एक दो पन्ने पढ़ कर रख दी ….और फिर वे ऐसे गुम हो जातीं कि कभी फिर दिखी ही नहीं….खैर, असल बात यह थी कि इसे पढ़ने की कभी इच्छा हुई ही नहीं….



लेकिन कल क्या हुआ कि मुझे यही किताब इंगलिश में लिखी हुई मिल गई…यह किताब ठीक 100 बरस साल पुरानी लिखी है …गांधी जी इस आत्मकथा का परिचय भी ज़ाहिर सी बात है बापू ने ही लिखा है …और चार पन्ने के उस परिचय को गांधी जी ने साबरमती आश्रम में 26 नवंबर 1925 को लिखा है ….



बेहद रोचक किताब है…रोचकता के साथ साथ यह प्रेरणात्मक है, मैं सोच रहा था कि यह हर उम्र के इंसान को पढ़नी चाहिए….मैंने तो सब तरह की किताबें देखता-पढ़ता रहता हूं और इस आधार पर कह सकता हूं कि एक बार इसे पढ़ने लगें तो फिर इस को छोड़ने का मन नहीं करता …ऐसी ऐसी बातें हैं…रोचक, सूचनापरक…..और सब से बड़ी बात यह कि जब कोई सोलह आने सच बात कह रहा हो तो उस की विश्वसनीयता को तो चार चांद लगने ही हैं….

अभी मैंने 15-20 बीस पन्ने ही पढ़े हैं….दो पंक्तियां आप भी सुनिए…..


…..मैं राजकोट से पोरबंदर जाने के लिए तैयार हो गया…उन दिनों रेलवे होती नहीं थी, बैल-गाड़ी से जाने पर पांच दिन लग जाते थे …मैंने धोराजी तक तो एक बैल-गाड़ी कर ली और वहां से पोरबंदर जाने के लिए मैंने एक ऊंठ कर लिया ताकि मैं पोरबंदर एक दिन पहले पहुंच सकूं….पहली बार मैं ऊंठ के ऊपर यात्रा कर रहा था….

आखिर मैं पहुंच गया पोरबंदर …
(यह बात तब की है जब बापू की आयु 15-16 बरस की थी).....


अब आप देखिए, अगर इस तरह की मज़ेदार जानकारी से भरपूर बातें किसी ने 100 साल पहले लिखीं तो न यह हमारे पास पहुंची हैं, और हमने इस को सहेज कर रखा है ….


कट-टू-शोले फिल्म की यादें…


साल 1975 अगस्त का महीना ….मैं 12-13 साल का था, आठवीं में पढ़ रहा था …उन दिनों मेरी बड़ी बहन की सगाई की तैयारियां चल रही थीं और उस के बाद दिसंबर में होने वाली शादी की तैयारियां जोरो शोरों पर थीं…आज के जैसे शापिंग नहीं होती थी …शादी के लिए एक एक चीज़ के लिए बाज़ार अलग से जाना पड़ता था …तीन चार महीने चक्कर ही लगते रहे (कभी दुपट्टे पर गोटा, किनारी, कभी साड़ी की कढ़ाई, कभी गहने देखने जाना, कईं बार, फिर खरीदने जाना, कभी बेडशीट्स, कभी रज़ाईयां, फिर बर्तन, कभी सिलाई-मशीन, तो फिर फर्नीचर आइटम.....😂….कभी एक साथ सभी के, कभी मैं और मेरी बड़ी बहन ही जाते …यह वह दौर था जब लड़कियों को घर से बाहर जाने के लिए या तो सहेलियों का साथ होना ज़रुरी था या फिर घर का कोई सदस्य साथ ज़रूर जाता था …और यह सब तब था जब वह एम.ए (इक्नॉमिक्स) की पढ़ाई अच्छे से कर चुकी थीं….


खैर, जुलाई 1975 में हमारा दिल्ली जाना हुआ….वहीं से खबर मिली थी हमें कि शोले फिल्म आ रही है ..क्योंकि मैंने देखा कि हमारी एक बड़ी कज़िन …टेपरिकार्ड लेकर हर वक्त शोले फिल्म के डॉयलाग और गाने सुनती रहती थी….पहले एक चपटा सा टेपरिकार्डर होता था ..बस वह हर वक्त उस के पास ही होता ….और इतनी तन्मयता से वह उस टेप को सुनती थीं जैसे कोई सिलेबस का पाठ सुन रही हो ….10 साल के करीब हम से उम्र में बड़ी थी…और जब भी मैं या दूसरा कोई भी उन के कमरे में जा कर थोड़ा सा भी शोर करने लगता तो वह हमें कभी डांटती न थी , बस अपने होठों पर उंगली रख कर चुप रहने का इशारा ज़रूर कर देती थीं…..और हम भी सोचते कि पता नहीं क्या है इस टेप में …..


खैर, अगस्त 1975 में देश के दूसरे हिस्सों की तरह अमृतसर में भी शोले लग तो गई होगी…ज़रूर लग गई होगी…वैसे तो कुछ शहरों में फिल्म पहले लगती थी और कुछ में थोड़े हफ्तों के बाद ….लेेकिन अमृतसर शहर में तो कोई भी फिल्म कभी भी देर से नहीं लगी….जितना मुझे याद है …


थियेटर में लग फिल्म लग गई ….

स्कूल में जाते तो वही चर्चा …कोई सहपाठी देख आए, वे उस की बातें किया करते ….हमें भी था कि हम भी देर सवेर देख ही लेंगे…वैसे तो कोई बड़ी फिल्म लगने के कुछ दिनों तक तो अधिकतर लोग नहीं जाते थे …क्योंकि टिकटों की कालाबाज़ारी सरेआम होती थी …पांच रुपए की टिक्ट ..20 में, 30 में…खरीदने वाले थे ..लेकिन उन दिनों में हम ने कभी ब्लैक में टिकट नहीं खरीदी….हम लौट कर घर आ जाते थे …भुनते-कोसते उन ब्लैकियों को ….


जैसे कि मैंने लिखा कि शोले को देखने का तो उन महीनों में कोई चांस ही नहीं था क्योंकि दीदी की शादी की तैयारियों जोरों पर थी….(फिल्म के उतरने की कोई चिंता न होती थी उस दौर में...कईं कईं महीने एक थियेटर में लगी रहती थी फिल्म।)

लेकिन इन दिनों भी …जब तक शोले देखी नहीं, सिर पर सवार रही …

क्यों, वह कैसे ?

लीजिए, सुनिए…..मैं डीएवी स्कूल अमृतसर में पढ़ता था और दोपहर में लंच-ब्रेक के बाद हमारा साईंस का पीरियड हुआ करता था ….बोरियत से भरपूर….मिरर फार्मूला, कंकेव, कंवेक्स और बिजली की घंटी की संरचना और उस की कार्य-प्रणाली…..मैं तो वैसे ही साईंस के नाम से ही ऊब जाता था …और ऊपर से मास्टर जी का पढ़ाने का तरीका नीरसता से भरा हुआ….

लेकिन कहते हैं न कि हर बादल में सिल्वर लाईनिंग होती है …उम्मीद का दामन नही छोड़ने के लिए कहते हैं यह बात ….

वह हमारी भी बात बन गई….

उन दिनों बडे़ बड़े लाउड-स्पीकरों पर फिल्मी गीत बजाने का बड़ा रिवाज था …हमारी क्लास में ठीक उसी वक्त बाहर से शोले फिल्म के गाने बजने लगते ….सभी गाने ..एक के बाद एक ….वक्त का पता नहीं चलता …जब तक मास्टर जी अपने पास बुला कर बिजली की घंटी की संरचना पर रोशनी डालने को न कह देते …
फिर आगे क्या…..

वही, जिस का डर होता था ….

एक करारा सा तमाचा…..उन का हाथ भारी था और एक सोने की मोटी सी अंगूठी भी वह इस प्रक्रिया के दौरान पहने रहते थे ….किसी न किसी का रोज़ नंबर आ जाता था…..ज़ाहिर सी बात है मेरा भा आने ही था ….आया कईं बार …….लेकिन साईंस मुझे कभी समझ न आई आठवीं कक्षा तक …..नवीं कक्षा में मास्टर जी बदले और इंगलिश मीडियम में पढ़ाई शुरू हुई तो सब कुछ अच्छे से समझ आने लगा…..


अच्छा, बहन की शादी दिसंबर में हो गई तो उस के बाद मैंने अपनी मां को कहा कि मुझे भी शोले फिल्म देखने ले चलो…….वह कभी किसी काम के लिए मना नहीं करती थीं…कभी नहीं….ले गईं मुझे वह प्रकाश टाकीज़ (अमृतसर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने) में शोले फिल्म दिखवाने ….


मैं बड़ा डर गया……हां, डरने से याद आया …कुछ दिन पहले इसी शोले के बारे में मेरी बात एक मित्र से हो रही थी …उसने बताया कि उन के पापा को तो किसी भी थियेटर में फिल्म देखने के लिए पास मिला करते थे …लेकिन वह बच्चों को फिर भी फिल्म दिखाने नहीं ले कर गए क्योंकि यह फिल्म डाकूओं और डकैती के बारे में थी …..अब यहां से आप यह अंदाज़ा लगाइए कि पहले बच्चों को क्या देखना या क्या दिखाना है उस का भी कितना मजबूत सेंसर उपलब्ध था ….और अब देखिए अबोध बच्चों के हाथ में मोबाईल है …किसी को पता ही नहीं कि अगली रील में उसे किस नज़ारे के दीदार हो जाएं…..


फिल्म के गाने सभी मुझे बहुत बढ़िया लगे ….और मेहबूबा ओ मेहबूबा का म्यूज़िक तो मुझे आज भी 50 साल बाद भी बेहद पसंद है …..(और बाबी फिल्म के उस गीत के म्यूज़िक की तरह ….अंदर से कोई बाहर न आ सके…..) आर डी बर्मन - दा ग्रेट…..ग्रेट नहीं, ग्रेटेस्ट।


चलिए, फिल्म देख ली….और जैसे पहले होता था कोई भी फिल्म देखने के बाद अगले पांच-सात दिन तक दिलो-दिमाग़ पर उस का नशा तारी रहता था …..और देखने के बाद ही कहां, कोई फिल्म देखने से पहले कईं कईं दिन तक उस के बारे में सोचना,और स्कूल कालेज आते जाते रास्ते में उसके पोस्टर निहारने, और कभी उस थियेटर की तरफ से निकलना होता तो कुछ छोटे छोटे ट्रेलर टाइप पोस्टर (लेमिनेटेड तस्वीरें) देख कर ही मन को तसल्ली दे दी जाती कि देख लेंगे, जल्दी देख लेंगे.... हा हा हा हा हा ...मज़ेदार दिन, और चाश्नी से भी मीठी उस दौर की यादें....


रेडियो और लाउड-स्पीकर ….लेकिन दूसरी फिल्मों की तरह रेडियो पर शोले के गाने बजते थे तो मज़ा आता था….और हर गली-मोहल्ले में मौके-बेमौके (लाड़ले के मुंडन हों, या पीर बाबा पर मीठे चावल चढ़ाने हों या रामलीला या कोई ब्याह-शादी-सगाई…रिटायरमैंटी की पार्टी हो या कुछ भी जश्न- उन दिनों लोग मौके ढूंढ लिया करते थे) ….बडे़ बडे़ लाउड-स्पीकर लगा कर गीत बजते थे ….बस, फिर जब तक वह लाउड-स्पीकर बजता था, हमारी पढ़ाई चौपट और हमें यह राहत मिलने से बड़ा सुकून हासिल होता था ….और हम बीच में मौका मिलने पर उस लाइड-स्पीकर वाले के पास जा कर देख आते…कईं बार उसके पास ही बैठ जाते थोड़ी देर कि हमारी पसंद वाला रिकार्ड लगा दे…..( और वह लगा भी देता था…..उस का रुतबा वैसा था या उस से भी बड़ा जैसे आज कल डी.जे का होता है …) …और हां, होली के दिन भी इस तरह के रिकार्ड बजते थे ….और शोले का वह गीत भी …होली के दिन दिल मिल जाते हैं…. 


टीवी आ गया…..

हमारी तकलीफ आसान हो गई शोले फिल्म के दो तीन साल बाद ही ….टीवी आ गया …और उस के चित्रहार में उस गीत दिखने-सुनने को मिल जाते ….मुझे यह याद तो नहीं इस वक्त कि टीवी पर शोले फिल्म कब पहली बार दिखाई गई थी लेकिन इतना पक्का याद है कि जब लोकसभा या विधानसभा चुनावों का रिजल्ट आना होता था …मतगणना चलती थी जिस दिन उस दिन दूरदर्शन में सुबह से शाम तक 3-4 सुपर हिट फिल्में दिखाई जाती थीं ….और मुझे लगता है उसी सिलसिले में शोले भी ज़रूर दिखाई गई होगी…..


टेपरिकार्ड - तब तक वेस्टन-सोनी के टेपरिकार्ड भी आ गए थे और हम लोग हिंदी फिल्मी के गानों की टेप भी ले आते थे …मैंने 1978 में टेपरिकार्डर खरीदा था ….मैंने एक दिन इच्छा ज़ाहिर की और मेरे बडे़ भाई ने मुझे 2000 रुपए दिए कि जो पसंद हो ले आओ। उन दिनों मैं प्री-यूनिवर्सिटी में पढ़ता था ….शायद 16 या 17 सौ कर आया था, वेस्टन टेपरिकार्डर  ….अकेले बाज़ार जा कर वह मेरी पहली खरीदारी थी …फिर मैंने उसे अगले 8-10 तक बहुत घसीटा….


यह सिलसिला तब तक चला जब तक वीसीपी वी सी आर नहीं आ गए….फिर तो मनोरंजन की दुनिया ही बदल गई …आगे तो आप सब जानते हैं ….एमपी थ्री, सी डी, डीवीडी…..


लेकिन पुरानी फिल्मों के साथ - शोले, रोटी, दुश्मन, तलाश, रोटी कपड़ा और मकान, शोर, बॉबी, लव-स्टोरी…..चितचोर, घरौंदा, प्रेमरोग, हिना , डान, पलकों की छांव में, यादों की बारात, जूली, अखियों के झरोखों से, तपस्या…..परवरिश, अमर-अकबर-एंथोनी के साथ नाता जुड़ा रहा …..एक दम पक्के से ……..और यह आज भी बरकरार है। 


शोले फिल्म ने पूरे किए 50 बरस ……संयोग देखिए, महात्मा गांधी की किताब ने 100 साल पूरे किए और शोले ने 50 बरस…..पिछले कुछ दिनों से कुछ न कुछ खबर शोले के बारे में दिख जाती थी ..इस फिल्म से इतना ज़्यााद भावनात्मक जुड़ाव है कि अखबार के उस पन्ने की वह कतरन काट कर रखता रहा ….और एक बात, जो यह ब्लॉग पढ़ रहे हैं और इसे पढ़ते पढ़ते यहां तक पहुंचे हैं उन को यह बताना चाहता हूं कि आज की टाइम्स में भी शोले के बारे में दो-तीन पन्नों में सहेजी गई बहुत रोचक जानकारी है …..अगर ज़रूर देखिए और सहेज लीजिेेए, अगर चाहें तो …


शोले फिल्म मेरे लिए कुछ उन चंद फिल्मों में से है जिन को मैं कितनी बार भी देख सकता हूं …..चलिए, मैंने तो अपनी 50 साल पुरानी इस फिल्म के साथ जुड़ी यादें पाठकों के साथ साझा कर दीं….आप भी कुछ तो साझा करिए, अपने यादों के झरोखों से ….अच्छा लगेगा, और किसी को लगे न लगे, आप को ज़रूर लगेगा…..एक तरह से वे पुराने लम्हें फिर से जीने जैसा मौका मिलता है ….यादों की कड़ाहे में खोमचे मारने जैसा है ….पता नहीं कहां कहां से यादें उमड़-गुमड़ कर उभर आती हैं….


हां, एक बात तो लिखनी भूल ही गया….कुछ साल पहले मैंने एक किताब खऱीदी थी, यही कोई पांच सात साल पहले ….मेकिंग ऑफ शोले ….इंगलिश में लिखी यह बड़ी रोचक किताब है ….सोच रहा था कि आज ब्लॉग में उस में से भी कुछ लेकर शेयर करूंगा …लेकिन मेरे कबाड़खाने में मुझे कब कहां कुछ मिलता है वक्त पर ….नहीं मिली किताब। वैेसे भी शोले टॉपिक ही ऐसा है कि इस पर ब्लॉग तो क्या कोई भी एक किताब लेिख दे, वह भी कम पड़ेगी।


फिल्म में एक डॉयलाग था .....जब गब्बर पूछता है ....होली कब है ....उस के बाद आता है यह सुपर डुपर गीत ....तो चलिए, देख लेते हैं फिर एक बार ....यह गीत और इस तरह के गीत मैं एक बार दस-बीस बार एक साथ सुन सकता हूं ....पहले तो टेप को आगे पीछे करना पड़ता था, अब तो यू-ट्यूब के बटन के प्ले-बटन पर क्लिक ही करना है ....यह आसानी हो गई है .... हा हा हा हा हा हा हा ....



यह सब लिखने के बाद यही लग रहा है कि कुछ बढ़िया नहीं लिख गया….बस इत्मीनान है, जब डॉयरी में लिख रहे हैं तो जो भी दर्ज हो रहा है, मुबारक है। इस कुव्वत के लिए भी ईश्वर का तहेदिल से शुक्रिया ….


सोमवार, 12 मई 2025

डालडा कुक बुक ....


डालडा---यह नाम सुनते ही जैसे मेरे कान खड़े हो जाते हैं यह सुनने के लिए आतुर के डालडे के बारे में क्या कहा जा रहा है ...मैंने हिंदी और पंजाबी के अपने ब्लॉग में डालडे के बारे में बहुत कुछ लिखा है ...जितनी भी खुशनुमा यादें हैं मां की रसोई और उस में हमेशा दिखने वाले डालडे के डिब्बे के बारे में.....किस तरह से रोज़ाना डालडे में तैर रहे नमक-अजवायान वाले परांठे और आम के आचार के साथ, साथ साथ शरबत जैसी मीठी चाय की चुस्कियों से भरा अपना बचपन और जवानी का नाश्ता हुआ करता था ...

आज एक बार फिर में कोई किताब ढूंढ रहा था ....लेकिन नज़र में यह किताब पड़ गई ....डालडा-कुक बुक ... बस, वही बात हुई, डालडा नाम पढ़ते ही मैं जिस किताब को ढूंढ रहा था, उसे तो भूल गया और इस के पन्ने उलटने लगा....इस में ८३ पन्ने हैं और इस पर कीमत एक रुपया लिखी हुई है...मेेरी समझ मुताबिक यह कम से कम ६०-७० साल पुरानी लिखी हुई किताब है...नेट पर चेक कर रहा था तो अब इस की कीमत ६५०० रुपए है ....खैर, मैंने तो इतनी महंगी नहीं खरीदी थी....खऱीदा तो किसी ऐंटीक-शाप ही से था...


कुछ अरसे से मेरे पास यह किताब है ...लेकिन मैंने इसे न तो पढ़ा है न ही कभी पढ़ने की इच्छा है। मैं होती तो इसे शायद पढ़ती लेकिन हिंदोस्तानी माताओं को इतनी प्रैक्टीकल नॉलेज होती है कि वे इस तरह की गाइड-बुक्स को पढ़ने-वढ़ने के चक्करों में पड़ती कभी देखी नहीं.... हां, पहले प्रेस्टीज़ का कुकर लेते थे तो उस के साथ भी कुकिंग गाइड आती तो थी लेकिन कभी किसी को इसे पढ़ते देखा नहीं...

मैं कईं बार यह सोचता हूं कि डालडा, रथ.....ये सब हाईड्रोजिनेटेड वेजीटेबल ऑयल्स ही थे और हमें पता तो था कि खा क्या रहे हैं, अब तो मिलावट का बाज़ार ऐसा गर्म है कि पता ही नहीं चलता कि हम लोग खा क्या रहे हैं....२० साल पहले की बात है एक हॉकर हमारी कॉलोनी में आता था....बेकरी के बिस्कुट, खारी, भुजिया....आदि चीज़ें बेचने आता था ....कईं बरसों बाद पता चला कि इस तरह की चीज़ों में बहुत बार एनीमल-फैट्स इस्तेमाल किए जाते हैं....एनीमल-फैट्स यानी के जिन जानवरों का मीट बिकता है उन की चर्बी से तैयार हुआ घी......तब से यह बात मन में बैठ गई है, इसलिए कुछ भी खरीदते वक्त इस बात का थोड़ा बहुत ध्यान रहता ही है ....समझदार को इशारा काफ़ी है...

उस दिन मैं एक वीडियो में डा त्रेहन हृदय रोग विशेषज्ञ को सुन रहा था ...घी के बारे में कुछ बता रहे थे ..लेकिन अकसर ऐसी बातें सुन कर हम भूल जाते हैं.....वैसे भी जिन को याद रहता भी होगा वे भी कहां सब कुछ मान ही लेते हैं, जितनी किसी की जेब इजाज़त देती है, वह वैसा ही खरीदता है ....ऐसा मैं समझता हूं....जो दो जून रोटी के लिए मशक्क्त कर रहा है, उसे कहां इन सब के बारे में सोचने की फ़ुर्सत है ....वैसे भी वह मेहनत ही इतनी कर लेता है कि सब कुछ हज़्म हो जाता है .....ये सब बारें ज़्यादा पढ़े-लिखे बुद्धिजीवि लोगों के लिए हैं....जो गिन गिन कर सब कुछ करते हैं , हिसाब लगा लगा कर ....गाना याद आ गया.....कतरा कतरा जीने दो ......

 

मैं कल यह गाना सुन रहा था ...अच्छा लगता है ....लेकिन यू-ट्यूब पर सर्च करते वक्ते मैं कतरा कतरा भूल गया...मुझे तुबका-तुबका याद रह गया....तुबका तुबका पंजाबी का लफ्‍ज़ है....जिस का मतलब है...बूंद बूंद .....उस पर क्लिक किया तो किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया....जिस में पीने-पिलाने की बात हो रही थी ....बब्बू मान का एक सुपर-हिट पंजाबी गीत .....

अच्छा, अब मैं वह किताब ढूंढने में लगता हूं जिसे सुबह से ढूंढ रहा था ....यह डालड़े वाली पोस्ट तो बीच में एक डिस्ट्रेक्शन बन कर आ गई.....😎

रविवार, 12 जनवरी 2025

भूख न जाने बासी भात……

प्रवीण चोपड़ा 

“नहीं, नहीं, पैसे रहने दीजिए”….दुकान के मालिक ने कहा

“नहीं, , पैसे तो देने ही हैं….” डा जगजीत ने साफ़ साफ़ कह दिया। 


“नहीं, आप तो इतने बडे़ डाक्टर साहब हैं सर…”


“उस में क्या है, वह तो हमारा काम है…पैसे तो आप को लेने ही पडेंगे, वरना ….” यह कहते ही उन्होंने पांच सौ रुपये का नोट कैशियर की तरफ़ कर दिया। 


मुंबई के सॉयन अस्पताल के बिल्कुल पास ही एक मशहूर दुकान है जहां पर समोसे-छोले बहुत बढ़िया मिलते हैं….डा जगजीत उस अस्पताल के वरिष्ठ डाक्टर हैं, उन के साथ उन का एक जूनियर डाक्टर था…


दुकान के बाहर तीन-चार मेज़ लगे हुए थे …साथ में स्टूल पड़े हुए थे…दुकानदार के मालिक के कहने पर जब वेटर ने मेज़ पर दो डिस्पोज़ेबल प्लेटों में समोसे- छोले रख रहा था तो मालिक भी उस के साथ उस टेबल तक आ गया था….और थोड़े वक्त के लिए  डाक्टर साहब के सामने ऐसे झुका हुआ सा खड़ा रहा जैसे कि वह अपना एहसान जतला रहा हो कि डाक्टर साब उस की दुकान पर आए...….


दोनों डाक्टर स्टूल पर नहीं बैठे, खड़े खड़े ही समोसे-छोले का आनंद ले रहे थे…


“सुनील, यह क्या है, देखो कोई भी चला आता है …तुम देखते नहीं हो,” ….जब मालिक ने थोड़ी ही दूर पर हाथ जोड़ कर खड़े एक कमज़ोर, बेबस, अस्त-व्यस्त बंदे को देखा जो देखने से बिमार के साथ साथ भूखा भी लग रहा था…..वैसे तो गुरबत भी अपने आप में एक भयंकर बीमारी है …..लेकिन जब गुरबत, बीमारी और लाचारी एक साथ मिल जाए तो किसी को भी पगला देती है…वक्त का मारा वह बंदा भी कुछ ऐसा ही लग रहा था…


इतने में उस मालिक के कहने पर उन डाक्टरों के सामने रखी टेबल पर गाजर के हलवे का बड़ा सा दोना भी पहुंच गया…जिस का उन्होंने आर्डर नहीं दिया था…डाक्टरों ने थोड़ी आना-कानी भी की…लेकिन…..


“सर, आप इस को भी ज़रूर ट्राई करिए, यह हमारी स्पैशलिटी है, बहार का मेवा है…”- यह कह कर मालिक अंदर जा कर अपने काम में व्यस्त हो गया….


डाक्टरों ने खड़े खड़े अपनी अपनी समोसों की प्लेट निपटा दी ….


“डा पंकज, लो..यह भी लो, यू ऑर सो यंग….यू कैन हैव इट…”- डा जगजीत ने मुस्कुराते हुए कहा..

“नहीं, सर, इट इज़ टू हैवी …ऑयली”,  उसने लकड़ी के एक छोटे से चम्मच से थोड़ा सा गाजर का हलवा उठा कर मुंह में रखते हुए कहा …

“सर, आप भी लीजिए “….

“यार, तुम्हें पता है ना मॉय स्वीट टुथ हैज़ प्लेड हैवक विद मॉय हेल्थ” ….डा जगजीत ने हंसते हंसते कहा …और अपने बहुत भारी शरीर को लगभग धकेलते हुए डा पंकज के साथ वॉश-बेसिन की तरफ़ चले गए…


गजरेले का भरा हुआ दोना उन का मुंह ताकता रह गया…कि शायद उस से कुछ गुस्ताखी हो गई हो …


उन के वहां से हटते ही मेज़ पर फटका मारने वाला, पानी रखने वाला और जूठे बर्तन उठाने वाला छोटू आ गया….एक बात जो बहुत कटोचती है कि होटल-रेस्टरां चाहे कितने भी बड़े हों, खूब चलते हों …इन में इस तरह के काम करने वाले छोटू अकसर फटेहाल छोटी उम्र के बच्चे होते हैं …कईं बार उन की हालत देख कर मन विचलित भी होता है कि इन के हिस्से में यह ज़िंदगी जो आई है, इस में इन का क्या कसूर….


खैर, छोटू आया …सब से पहले उसने प्लेटें उठाई और साथ ही उसने वह गाजर के हलवे वाला दोना भी उठा लिया…


पास ही पड़े एक बड़े से नीले रंग के कचरेदान नुमा ड्रम की तरफ़ बड़ गया….देखता है वही दीन-हीन सा बंदा उस ड्रम के पास अभी भी खड़ा है….कमज़ोर, असहाय लोगों के बीच भी एक अभाव का रिश्ता होता है , तिरस्कार झेलने की सांझ सी होती है …


अब सारा फ़ैसला छोटू का था, सारा दारोमदार उस की समझ पर था ….छोटू ने एक नेक काम किया…ऊपर तक भर चुके उस ड्रम के भीतर उसने डिस्पोज़ेबल प्लेटें तो जैसे तैसे ठूंस दी, लेकिन उस दोने को भी लापरवाही से फैंकने की बजाए, उस गाजर के हलवे वाले दोने को उसने एक जूठी प्लेट के ऊपर एक पेपर नेपकिन रख कर टिका दिया….जैसे किसी को परोस रहा हो ….


जैसे ही छोटू वहां से हटा, उस निढाल हो चुके बेहाल बंदे ने गाजर के हलवे से लगभ भरा हुआ दोना जल्दी से उठा लिया और पास ही फुटपाथ पर बैठ गया….