रविवार, 12 जनवरी 2025

भूख न जाने बासी भात……

प्रवीण चोपड़ा 

“नहीं, नहीं, पैसे रहने दीजिए”….दुकान के मालिक ने कहा

“नहीं, , पैसे तो देने ही हैं….” डा जगजीत ने साफ़ साफ़ कह दिया। 


“नहीं, आप तो इतने बडे़ डाक्टर साहब हैं सर…”


“उस में क्या है, वह तो हमारा काम है…पैसे तो आप को लेने ही पडेंगे, वरना ….” यह कहते ही उन्होंने पांच सौ रुपये का नोट कैशियर की तरफ़ कर दिया। 


मुंबई के सॉयन अस्पताल के बिल्कुल पास ही एक मशहूर दुकान है जहां पर समोसे-छोले बहुत बढ़िया मिलते हैं….डा जगजीत उस अस्पताल के वरिष्ठ डाक्टर हैं, उन के साथ उन का एक जूनियर डाक्टर था…


दुकान के बाहर तीन-चार मेज़ लगे हुए थे …साथ में स्टूल पड़े हुए थे…दुकानदार के मालिक के कहने पर जब वेटर ने मेज़ पर दो डिस्पोज़ेबल प्लेटों में समोसे- छोले रख रहा था तो मालिक भी उस के साथ उस टेबल तक आ गया था….और थोड़े वक्त के लिए  डाक्टर साहब के सामने ऐसे झुका हुआ सा खड़ा रहा जैसे कि वह अपना एहसान जतला रहा हो कि डाक्टर साब उस की दुकान पर आए...….


दोनों डाक्टर स्टूल पर नहीं बैठे, खड़े खड़े ही समोसे-छोले का आनंद ले रहे थे…


“सुनील, यह क्या है, देखो कोई भी चला आता है …तुम देखते नहीं हो,” ….जब मालिक ने थोड़ी ही दूर पर हाथ जोड़ कर खड़े एक कमज़ोर, बेबस, अस्त-व्यस्त बंदे को देखा जो देखने से बिमार के साथ साथ भूखा भी लग रहा था…..वैसे तो गुरबत भी अपने आप में एक भयंकर बीमारी है …..लेकिन जब गुरबत, बीमारी और लाचारी एक साथ मिल जाए तो किसी को भी पगला देती है…वक्त का मारा वह बंदा भी कुछ ऐसा ही लग रहा था…


इतने में उस मालिक के कहने पर उन डाक्टरों के सामने रखी टेबल पर गाजर के हलवे का बड़ा सा दोना भी पहुंच गया…जिस का उन्होंने आर्डर नहीं दिया था…डाक्टरों ने थोड़ी आना-कानी भी की…लेकिन…..


“सर, आप इस को भी ज़रूर ट्राई करिए, यह हमारी स्पैशलिटी है, बहार का मेवा है…”- यह कह कर मालिक अंदर जा कर अपने काम में व्यस्त हो गया….


डाक्टरों ने खड़े खड़े अपनी अपनी समोसों की प्लेट निपटा दी ….


“डा पंकज, लो..यह भी लो, यू ऑर सो यंग….यू कैन हैव इट…”- डा जगजीत ने मुस्कुराते हुए कहा..

“नहीं, सर, इट इज़ टू हैवी …ऑयली”,  उसने लकड़ी के एक छोटे से चम्मच से थोड़ा सा गाजर का हलवा उठा कर मुंह में रखते हुए कहा …

“सर, आप भी लीजिए “….

“यार, तुम्हें पता है ना मॉय स्वीट टुथ हैज़ प्लेड हैवक विद मॉय हेल्थ” ….डा जगजीत ने हंसते हंसते कहा …और अपने बहुत भारी शरीर को लगभग धकेलते हुए डा पंकज के साथ वॉश-बेसिन की तरफ़ चले गए…


गजरेले का भरा हुआ दोना उन का मुंह ताकता रह गया…कि शायद उस से कुछ गुस्ताखी हो गई हो …


उन के वहां से हटते ही मेज़ पर फटका मारने वाला, पानी रखने वाला और जूठे बर्तन उठाने वाला छोटू आ गया….एक बात जो बहुत कटोचती है कि होटल-रेस्टरां चाहे कितने भी बड़े हों, खूब चलते हों …इन में इस तरह के काम करने वाले छोटू अकसर फटेहाल छोटी उम्र के बच्चे होते हैं …कईं बार उन की हालत देख कर मन विचलित भी होता है कि इन के हिस्से में यह ज़िंदगी जो आई है, इस में इन का क्या कसूर….


खैर, छोटू आया …सब से पहले उसने प्लेटें उठाई और साथ ही उसने वह गाजर के हलवे वाला दोना भी उठा लिया…


पास ही पड़े एक बड़े से नीले रंग के कचरेदान नुमा ड्रम की तरफ़ बड़ गया….देखता है वही दीन-हीन सा बंदा उस ड्रम के पास अभी भी खड़ा है….कमज़ोर, असहाय लोगों के बीच भी एक अभाव का रिश्ता होता है , तिरस्कार झेलने की सांझ सी होती है …


अब सारा फ़ैसला छोटू का था, सारा दारोमदार उस की समझ पर था ….छोटू ने एक नेक काम किया…ऊपर तक भर चुके उस ड्रम के भीतर उसने डिस्पोज़ेबल प्लेटें तो जैसे तैसे ठूंस दी, लेकिन उस दोने को भी लापरवाही से फैंकने की बजाए, उस गाजर के हलवे वाले दोने को उसने एक जूठी प्लेट के ऊपर एक पेपर नेपकिन रख कर टिका दिया….जैसे किसी को परोस रहा हो ….


जैसे ही छोटू वहां से हटा, उस निढाल हो चुके बेहाल बंदे ने गाजर के हलवे से लगभ भरा हुआ दोना जल्दी से उठा लिया और पास ही फुटपाथ पर बैठ गया….