गुरुवार, 27 नवंबर 2025

सपने में देखा इक सपना....!!

बड़े बुज़ुर्गों एक सीख दिया करते थे ...सीख क्या दिया करते थे, वे इस बात पर अमल किया करते थे कि रात में हल्का खाना चाहिए....और कईं लोग तो सूर्यास्त होने से पहले ही जो भी खाना हो खा लेते हैं, उस के बाद नहीं....हम ने देखा है जब भी इस बात क नज़रअंदाज़ किया ...घर में, किसी पार्टी या किसी रेस्टरां में रात के वक्त कुछ भारी खा लेते हैं तो फिर रहिए करवटें बदलते...उठिए फिर देर रात ईनो पीने के लिए....

अब रात में अगर मक्की की रोटी के साथ राजमाह छक लिए जाएंगे तो बड़ी उम्र में कैसे पचा पाएंगे....(बाल काले करने से जवां नहीं हो जाते, उम्र तो अपने रंग दिखलाती ही है...) ...कल यही हुआ...यह सब खा लिया, उस के बाद नींद ही उड़ गई...यह बहुत कम होता है मेरे साथ...एलसीडी पर यू-ट्यूब पर पाकिस्तानी पंजाबी के कॉमेटी सीरियल  भी देख लिए....बाद में किसी लाइव शो पर गाने भी सुन लिए...और कुछ इस तरह के व्हीडियो भी देख लिए जिन में कुछ नौजवान लड़के 100 किलो दूध से देशी घी, मावा, पनीर, और रसगुल्ले बना रहे थे...इस तरह के व्हीडियो कईं बार ऑटोसुजेशन से ही दिख जाते हैं....बस, देखने लगा तो उन में ऐसा रम गया कि दो व्हीडियो देख कर ही दम लिया...बाद में लिखता हूं कि उन में क्या देखा...नीचे लिंक भी लगा दूंगा......

उस के बाद भी नींद के आने का नामोनिशान नहीं, कल अखबार नहीं पढ़ी थी, वह पढ़ने लग गया ....अखबार खत्म हो गई और पौन तीन बज गए....सोचा कि अगर अब भी जबरदस्ती नींद को काबू न किया तो कल छुट्टी ही करनी पडे़गी...खैर, जैसे तैसे आंख लगी लेकिन एक घंटे बाद उठना पड़ा...क्योंकि सपना ही ऐसा था ....

सपने की सेटिंग थी ...1974 की...हम सब लोग अपने घर के बरामदे में बैठे हुए हैं...असार्टेड फर्नीचर पर ...मैं चारपाई पर, पिता जी डाईनिंग टेबल की चेयर पर, और घर के दूसरे सदस्य भी कोई दीवान पर, कोई स्टूल पर.....मैं अपनी किताब के पन्ने उलट-पलट रहा हूं क्योंकि अगले दिन मेरा इम्तिहान है ....मैं बहुत परेशान हूं ...साईंस की किताब खोल रखी है ..कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा ...और साथ में यह खयाल भी आ रहा है कि मेरा तो हाल गणित में भी ऐसा ही है ....

मैं हाथ में पकड़ी उस किताब के पन्ने उलटते पलटते इतना परेशान हूं कि मुझे लगा कि आत्म-समर्पण ही करने में भलाई है ...

"पता नहीं इस बार पढ़ाई हुई नहींं, न तो साईंस में कुछ समझ आया है और न ही गणित में ....डर लग रहा है, इम्तिहान में क्या होगा."..मैने उस बरामदे में बैठे सभी लोगों की तरफ़ देखते हुए यह डिक्लेयर कर दिया...

अकसर इस तरह का ब्यान मैं किसी भी पेपर से पहले दिया करता था कि पेपर है, डर लग रहा है तो मेरे माता-पिता का हमेशा यही जवाब होता था कि इस में डरने की क्या बात है, जो आता होगा, लिख आना....बेडर हो कर जाओ...लो ये दही चीनी खा के जाओ....सब ठीक होगा....बस, बाकी काम दही चीनी ही कर देती होगी...कुछ बरसों बाद जब मैंने यह कहना नहीं छोडा़ तो मेरे पिता जी ने यह कहना शुरु कर दिया कि यार, तुम हमेशा कहते यही है और नंबर तुम इतने बढ़िया ले कर आते हो .... 

खैर, कल रात के सपने पर वापिस लौटता हूं...मैंने जब यह डिक्लेयर किया कि डर लग रहा है ...पता नहीं क्या होगा..कुछ नहीं आता-जाता, कुछ पढ़ाई हुई ही नहीं इस बार...तो मैं भी अपने माता-पिता के फ़िक्रमंद चेहरे देख कर परेशान सा हो गया....इतना परेशान कि नींद ही खुल गई...

ज़ाहिर है सपना भी टुूट गया ...शुक्र है ....वरना पता नहीं आगे क्या हो जाता ....

नहीं, नहीं, ऐसा वैसा कुछ नहीं, पिटाई विटाई का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, हमें हमारे पेरेन्ट्स ने ज़िंदगी में कभी पिटाई करना तो दूर, कभी सख्ती से कुछ कहा भी नहीं.....यही मधुर यादें होती हैं, दोस्तो....मैं अकसर सोचता हूं कि जैसे किसी के साथ घर में, दुनिया में  बर्ताव हुआ होता है, वह बाद में वही वापिस लौटाता है ....खैर, यह तो फलसफे की बात हो गई....

सपना टूट गया...नींद लगी थी मुश्किल से पौने तीन बजे और पौने चार बजे ...सपने के टूटने से जाग गया....फिर से सोना ही था, और  उठ गया पौने छः बजे....सात आठ घंटे की नींद की जगह तीन घंटे की नींद लेने से जितना तरोताज़ा कोई महसूस कर सकता है, उतना ही मैं भी कर रहा हूं .... 

मैट्रिक में इतने अच्छे स्कोर से मनोबल इतना बढ़ गया कि .....चक ते फट्टे
....48 साल पहले का ज़माना था यह ...😂

सपने भी क्या चीज़ हैं....ऐसे लगता है जैसे सब कुछ असल में ही चल रहा है ....बाद में बहुत से सपने याद भी नहीं रहते ...मुझे एक सपना अकसर अभी भी यही आता है कि मेरी दसवीं की परीक्षा चल रही है और मेरे से कोई भी सवाल हल ही नहीं हो रहा ..(जब कि मैं सभी सवाल ठीक कर के आया था ..लेकिन खौफ़ ही इतना था दसवीं की परीक्षा का....)....अभी प्रूफ के तौर पर अपनी मैट्रिक की मार्क-शीट भी दिखाऊंगा आप को ...मेरिट होल्डर था, नेशनल मैरिट स्कालरशिप भी ....आज से पचास साल पहले इतने नंबर कम ही देखने को मिलते थे .....

खैर, एक सपना और अकसर आता है कि किसी रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी है ....और मैं पानी पीने के लिए नीचे उतरता हूं और ट्रेन चल पड़ती है ....बस, तभी अचानक मेरी नींद खुल जाती है और मेरी जान में जान आती है ... बचपन में ऐसी एक घटना हुई थी लुधियाना स्टेशन पर ....ठीक है, मैं भाग के जैसे तैसे किसी डिब्बे में चढ़ तो गया लेकिन वही नाईट-मेयर के रूप में मन के किसी कोने में अभी भी छिपा बैठा है ....

वैसे तो जो मुझे कल रात में सपना आया ...वैसी बात मेरी असल ज़िंदगी में भी हुई थी....

सन 1974 ..छठी कक्षा में पढ़ता था उन दिनों...एक दिन मैंने घर आकर रोते रोते अपने पिता जी को बताया कि मुझे हिसाब की कक्षा में कुछ भी समझ में नहीं आता....उन्होंने दिलासा दिया कि कोई बात नहीं, सब ठीक होगा। मैंने उन को यह भी बताया कि मास्टर जी स्कूल के बाद हिसाब की ट्यूशन भी लेते हैं....अगले दिन स्कूल जाते वक्त पिता जी ने मेरे मास्टर जी के लिए एक चिट्ठी लिख कर दी ....और मैं उसे मास्साब को दे दिया। उस दिन छुट्टी के बाद मास्टर जी ने मुझे भी ट्यूशन के लिए रुकने के लिए कहा ....बस, फिर क्या था, मैं कुछ ही दिनों में गणित में चल पड़ा....

बस, चल पड़ा? नहीं, भई, मैं तो लगा भागने ...फिर कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा....

उस से जुड़ी एक बात और याद आई..हर महीने मेरे पिता जी टुयूशन के पैसे एक सफेद एन्वेल्प में डाल कर मुझे देते थे ...मास्टर जी को देने के लिए....वह मेरे लिए पहला सबक था कि किसी को पैसे देने का क्या तरीका होता है, क्या सलीका होता है .....। सारी क्लास में मैं ही फीस इस तरह से देता था, मास्साब उसे लेकर अपने ब्रॉउन कोट की जेब में रख लेते थे ....बिना गिने....

खैर, सपनों की बातें चल रही है....मैं अकसर सपने देखता हूं और अगर मुझे सुबह तक याद रह जाते हैं तो मैं उन के ऊपर एक पोस्ट तो ठेल ही देता हूं ..जैसा कि इस वक्त कर रहा हूं....लेकिन ज़्यादातर सपने सुबह तक याद नहीं रहते ...या धुंधले से याद रह जाते हैं....जैसे सपने में अपनी दिवंगत माता जी के साथ बाज़ार में, अनजान जगहों पर खूब घूमता हूं ..सुबह याद नहीं रहता कुछ याद ...सिवाए इस के कि कल हम दोनों खूब घूमे....

बस, अपनी बड़ी बहन को इतना ज़रूर बता देता हूं कि कल बीजी सपने में आए और मैं उन के साथ खूब रहा ...इतना सुनने पर वह बीजी से गिला करने लगती हैं कि देखो, प्रवीण, बीजी को गए आठ बरस हो गए....लेकिन मेरे सपने में एक बार भी नहीं आए....

खैर, सपने भी अजीब होते हैं...मेरी मां को अपनी मां के बहुत सपने आते थे ...और एक बात भी लिखूं कि जब बड़ी उम्र में बड़े-बुज़ुर्गों को दिवंगत लोगों के सपने बार बार आने लगें तो वे थोड़ा डर सा जाते हैं और अकसर कहने लगते हैं कि वे तो जैसे उन को बुला रहे हैं.....यह सच्चाई है ....

सच्चाई ेेसे मतलब? - मतलब भई इतना ही कि यह एक धारणा है, सच्चाई है या नहीं, यह मैं नहीं जानता....ये मनोवैज्ञानिकों का काम है, मेरा नहीं...हां, इतना मैंने ज़रूर देखा है आसपास जब किसी बुज़ुर्ग को बार बार उस का साथी सपने में आने लगे तो वह थोडा़ सा ही सही, डर तो जाते ही हैं....हां, वह न भी डरें, घर के दूसरे लोग तो डर ही  जाते हैं कि कहीं लाडली मां भी पिता जी के पास जाने के लिए न चल पड़े....

हर उम्र के सपने अलग होते हैं....

मुझे कलाम साहब की वह बात अकसर याद आती है कि सपने वे नहीं जो आप सोते हुए देखते हैं, सपने वे होते हैं जो आप जागते हुए देखते हैं और जिन को पूरा करने के लिए आप की नींद उड़ जाती है....

हर उम्र के सपने ...

जवानी के सपने अलग, बुढापे के अलग ....इस में किसी को शक नहीं होना चाहिए, जवानी में किस तरह के सपने आते हैं, हर कोई जानता है ...बताना नहीं चाहते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन जानते सब हैं, सभी देखते हैं....

हां, कईं सपने बार बार आते हैं...मां अकसर एक सपना बताया करती थीं....कि वह अकेली कहीं पर जा रही हैं,जाते जाते आगे बहुत बडे़ पहाड़ हैं, खाईयां है, कोहरा है, वह रास्ता भूल गई हैं। वह डर के उठ जाती थीं....और एक मज़ेदार बात ...जब दूर नज़दीक के रिश्तेदार जिन को गए ज़माना गुज़र चुका था, वे भी मां के सपनों में बार बार आते ....तो मैं परेशान  तो हो जाती होगी....लेेकिन मज़ाकिया उस की इतनी तबीयत कि हमें सपने सुनाती वक्त यह अकसर कहती .....हुन ओ मरे-खपे खेहड़ा ही नहीं छड़दे....पिच्छे ही पए होए ने। (अब वे मर-खप चुके लोग पीछा ही नहीं छोड़ रहे, पीछे ही पड़ गए हैं....) ...कहीं न कहीं यह सुन कर हम भी परेशान हो जाया करते ....क्योंकि सुन तो हमने भी रखा था कि इस तरह के बार बार दिवंगत लोगों को सपने में आना अच्छा नहीं होता..........कितनी विडंबना है!!

हां, मैं उस विडियो की बात बता रहा था जो 100 किलो शुद्ध घी से देशी घी निकाल रहे हैं, अगर देखना चाहें तो इस लिंक कर क्लिक करिए....कुल आठ किलो घी निकला और कह रहें कि फायदे का सौदा है ....इतने लोग लगे रहे घी को निकालने में ...इतनी मेहनत, गैस इस्तेमाल हुई....और इतना बखेड़ा करने के बाद भी इतना ही घी निकला....और कुछ तो हुआ या नहीं, लेकिन मेरा विश्वास यह तो और भी पक्का हो गया कि अगर शुद्धता के लिए इतनी मेहनत लगती है तो पता नहीं जो हम तक पहुंच रहा है, वह क्या होगा....क्या नहीं....

अगर आप सपनों के सौदागर से मिलना चाहेंगे तो इस लिंक पर क्लिक करिए....सपनों का सौदागर आया ...वैसे तो मैं नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेडिंग अपने आप डिसेबल हो जाती है...गीत गायब हो जाता है ...

सोमवार, 24 नवंबर 2025

जब कोई स्कूल का साथी मिलता है ...पचास बरस बाद ..

50 बरस तो नहीं ...दो तीन बरस कम ही हैं...1978 में दसवीं की पढ़ाई के बाद हमारे रास्ते अलग हो गए....राकेश अपने रास्ते पर चल निकला और मैं अपने.... हायर सैकंडरी करने के बाद भारतीय नेव्ही में इंजीनियरिंग डिग्री के उस का सलेक्शन हो गया ...और नेव्ही में सर्विस के दौरान वह अलग अलग जगहों पर तैनात रहा। नेव्ही की सर्विस के बाद उसने मर्चेंट नेव्ही ज्वाईन कर ली.....

हां, तो मैं यह सोच रहा हूं कि अभी ब्लॉग पोस्ट को मैंने लिखना शुरू तो कर दिया है लेकिन इस टॉपिक पर लिखने के लिए कुछ ख़ास है ही नहीं....चलिए, देखते हैं...राकेश को मिलने के बाद पांच छः घंटे का वक्त ऐसे उड़ गया जैसे दस मिनट बीत जाते हैं...

वैसे तो दस बीस बिताने भी किसी अनजान इंसान के साथ बिताने बहुत कठिन हो जाते हैं....क्या बात करनी है, कितनी करनी है, किस बात का जवाब देना है, किस के जवाब में चुप रहना है ....बस, यही सोच विचार करने में ही वक्त बीत जाता है ..और इतने सोचने से भी कुछ हासिल होता नहीं ....हां, सिर ज़रूर भारी हो जाता है ....अपने काम से जुड़ी किसी मीटिंग में भी तो यही सब कुछ होता है ....

अचानक हमें खयाल आया कि हमनें कोई सेल्फी तो ली नहीं....लेखक (बाएं) के साथ राकेश (दाएं) 

लेकिन इस तरह से स्कूल के साथी को जब 50 बरस बाद मिलते हैं तो बस फिर से उसे देखने की जो खुशी होती है, उसे कैसे अल्फ़ाज़ में ढाले कोई......कोई टॉपिक नहीं , कोई मु्द्दा नहीं, कोई राजनीति की चर्चा नहीं, कोई धर्म-कर्म  की नहीं, कोई मौसम की बात नहीं ...फिर भी पांच छः घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चलता ...और हां, किसी की भी कोई बुराई नहीं की ....बस, एक दो मास्टर जो बड़े खूंख्वार किस्म के थे, उन की याद की ...और खूब हंसे। 

इन पांच छः घंटों में हम लोग इतना हंसे कि मज़ा आ गया...हर बात पर हंसी, बात शुरू करने से पहले हंसी, बात के दौरान हंसी और बात पूरी होने के बाद ठहाके.... हा हा हा हा ....यह सब इतने पुराने संगी-साथियों के साथ ही मुमकिन होता है ....इतने वक्त मिलने के बाद मुझे एक दो बार खयाल नहीं रहा और मैंने उसे तुसीं (आप) कह दिया....और फिर मैंने तुरंत स्पष्ट भी किया कि मैं तुम्हें तू की बजाए तुसीं कह गया....गलती हो गई....और हम लोग ठहाके लगाने लगे ....

 न हमने किसी की कोई बुराई की ...क्योंकि स्कूल के दिनों में कोई बुरा लगता ही नहीं...और होता भी नहीं, न हमने किसी नेता-अभिनेता की बात की. न ही धर्म, जात-बिरादरी की कोई बात और न ही किसी दंगे-फसाद की बात ....सोचने वाली बात यह है अगर इन सब पर बात नहीं की तो आखिर फिर किस बात पर चर्चा की .....

चर्चा तो हुई पर कोई टॉपिक न था....

न उसके पास ...न मेरे पास......

बस बात से बात निकलती गई ...और कब उस के जाने का वक्त आ गया पता ही नहीं चला...और हां, हमारी सारी बातें अमृतसर शहर की थीं, सारी की सारी गुफ्तगू जैसे दो चार किलोमीटर के दायरे में सिमट गई हों.....उस दो चार किलोमीटर के दायरे में आने वाले बाज़ार, कूचे, स्कूल, पोलिस-स्टेशन, कुएं, सब्जी वाले, मटन वाले.....और हां, बढ़िया ढाबे (फुलके के साथ दाल फ्री वाले भी 😂) ...डाकखाने, रेलवे के फाटक, कुएं.....इन सब के ऊपर चर्चा हुई ....न कोई बात कहने और पुछने में कोई झिझक और जवाब देने में भी तो कोई झिझक का मतलब ही नहीं....

हम लोग उस वक्त बुहत हंसे जब मैंने उसे बताया कि अपने प्राईमरी स्कूल में कक्षा चार तक कैसे मैं पैदल स्कूल जाते वक्त रास्ते में पड़ने वाले पानी से भरे हुए एक भयंकर से कुएं में झांकना नहीं भूलता था ...और यह कितनी बेवकूफ़ी वाला काम था....और मैं यह काम रोज़ करता था ....यह कुआं उस के घर के पास ही था, उसने उस इलाके में दो दूसरे कुओं के बारे में भी मुझे याद दिलाने की कोशिश तो की ...लेकिन मैंने शायद उन में कभी झांका नहीं था, मुझे याद नहीं आए...

कुएं याद नहीं आए तो क्या, और सब कुछ ठहाकों के बीच इतना अच्छे से याद आ गया....हमारा वह मास्टर जो चाचा नेहरू का कोई फैन रहा होगा ...वैसे ही अचकन, पायजामी और टोपी और शेरवानी पर गुलाब का फूल भी वैसे ही ....लेकिन था वह मास्टर बड़ा सख्त  ...कविताएं भी लिखता था, लेकिन बात बात पर गर्म हो जाता था ...एक बार छठी कक्षा की वार्षिक परीक्षा में उस की परीक्षा-केंद्र पर ड्यूटी थी....मुझे नकल मारने की न कोई मजबूरी थी और न ही इतनी हिम्मत .....

तो फिर हुआ क्या, क्यों पड़ा था एक ज़ोरदार तमाचा....

मेरे आगे पीछे की सुीटों पर कुछ पर्चियों का लेन देन चल रहा था और एक पर्ची मेरे बेंच के पास गिर गई ...बस, कमरे में टहलते हुए जैसे ही उन्होंने देखा, मुझे खड़े कर के मुझे ज़ोर से तमाचा जड़ दिया और मेरी उत्तर-पुस्तिका मुझ से छीन कर मुझे बाहर कर दिया, उस वक्त मेरा पेपर लगभग पूरा हो चुका था....लेकिन फिर भी डर था कि यार, कहीं फेल ही न कर दें....बैठे बिठाए पंगा हो जाएगा...

मैं बड़ा परेशान...शाम तक मुझे बुखार हो गया....पिता जी को सारी बात बताई ....अमृतसर शहर के जिस इलाके में उन का घर था, वह हमारे घर से थोडी़ दूर ही था....मेरे पिता जी मुझे साईकिल पर बिठा कर उन के घर ले गए....लेकिन मैं उन के घर पहुंच कर अपने पिता जी की हलीमी (विनम्रता) देख कर दंग रह गया....उन्होंने उन को एकदम आहिस्ता से इतना ही कहा कि मास्टर जी, इसे तो पूरा पेपर आता है, आप चाहें तो फिर से लिखवा कर देख लें, वह पर्ची तो किसी दूसरे की फैंकी हुई थी...मास्टर जी का भी जितना नर्म रवैया मैंने उस दिन देखा, पहले कभी दिखने का सवाल ही न था, कहां दिखता, स्कूल में!!😀.... पिता जी ने उसे कहा कि आपने इस का पेपर ले लिया है, यह उस से डरा सहमा हुआ है ....उसने मेरे पिता जी को आश्वासन दिया कि फ़िक्र न करें, ऐसी कोई बात नहीं है....आप इत्मीनान रखें...। और हम लोग घर लौट आए...।  

हम दोनों ने क्लास के लड़कों के नाम याद किए....कुछ के नाम तो बीसियों बरसों बाद याद आए....जो पिछले बैंचों पर बैठते थे ...लेकिन एक बात और हमने ज़रूर याद की...हमें किसी के भी दूसरे नाम से कोई सरोकार नहीं होता था...हमारे लिए पहला नाम ही काम का हुआ करता था....आप देखिए मैंने इस पोस्ट में कहीं भी राकेश का दूसरा नाम (क्या कहते हैं सरनेम) नहीं लिखा ....उसी रिवायत को निभाते हुए तो है ही .........लेकिन कहीं न कहीं मेरे मन में यह भी है कि पूरा नाम लिखने से लोग गूगल करने लगते हैं ....ढूंढ़ने लगते हैं किसी बंदे को ....वह मैं बिल्कुल नहीं चाहता किसी की भी प्राईव्हेसी पर कोई आंच आए....

और हां, राकेश 70 देशों में घूम चुका है....मैंने कहा कि लिखा कर अपनी यात्राओं के बारे में ...तो हंसने लगा ....नहीं लिखेगा वह कभी, पता होता है हमें अपने स्कूल के साथियों का ....क्योंकि अब न मास्टरों की मार का डर कि होम-वर्क न किया तो अगले दिन होने वाली कुटाई की चिंता .....अब वह आज़ाद पंछी है ..समंदर में लगातार कईं कईं हफ्ते रहता है ...बिना किसी पोर्ट पर रुके...। 

 उस की शिप की दिनचर्या सुन कर मुझे अच्छा लगा ..एक दम अनुशासन से हर काम करना...और अपने काम के बारे में अभी भी स्टडी करते रहना। 

यह पोस्ट मैंने यहां तक तो आज सुबह लिखी थी ...फिर मेरा काम पर जाने का वक्त हो गया और मैं अभी इस वक्त इस को पूरा करने के लिए बैठा हूं....मेरे आलस की इंतहा देखिए कि मैंने ऊपर जो लिखा है सुबह...मेरे को उसे पढ़ने तक में आलस आ रहा है ...यही लग रहा है ठीक है, जो दिल से निकला, लिख दिया....अब क्या उसे पढ़ना....और क्या लिखा हुआ कुछ बदलना....जो लिखा गया, ठीक है ..

हम लोगों ने इतनी बातें कर डाली उन पांच छः घंटों में कि क्या कूहूं...फिर भी बहुत कुछ अभी रहता है ....उसने हैंडराईटिंग अच्छी करने के लिए उस चाचा नेहरू जैसे दिखने वाले मास्साब की बात बताई कि वह उस की उंगलियों में पैंसिल फंसा देते थे अगर साफ नहीं लिखा होता था ....50-60 पुराने ज़माने की यह एक आम सी बात थी....मानो मास्टरों को लगता होगा कि उंगलियों की बनावट ही बदल डालें तो लिखावट अपने आप सुंदर हो जाएगी....

बात लिखावट की चली तो तखती लिखने की बात होनी ही थी ...किस तरह से कक्षा चार तक हम लोग तखती लिखते थे...मैंने उसे बताया कि मैंने 8-9 साल पहले तख्ती के ऊपर एक व्हीडियो बनाई थी जिसे बहुत देखा जा रहा है और अब तो लोग उस के क्लिप्स लेकर अपनी पोस्ट में डालते हैं....मैंने कहा कि गूगल सर्च में नंबर वन है ..अगर कोई  इंगलिश में भी takhti लिख कर भी गूगल करेगा तो पहला रिज़ल्ट मेरी व्हीडियो का ही आता है ... वह बहुत खुश हुआ और उसने गूगल कर के यह कंफर्म भी किया ....

 

हम दोनों ने अपनी दो तीन किलोमीटर की अपनी हद में रहते हुए किसी हलवाई को बिना याद किए नहीं छोड़ा, किसी बेकरी को नहीं, किसी भुजवा-भुजवाइन को नहीं छोड़ा .... लोहगढ़ के रामू हलवाई का नाम मुझे याद नहीं था, उसने याद दिलाया....बाकी उस के ज़ायके मुझे सभी याद थे ....अमृतसर के रास्तों की, अटारियों की, चौंकों की....खूब बातें याद की ....और एक दूसरे को याद दिलाई....

दो तीन लोगों की बात न लिखी तो कुछ छूट जाएगा....अमृतसर के उस डाकखाने के डाकबाबू तक को हमने याद कर डाला ..वह इसलिए कि वह सरदार जी बहुत ही ज़्यादा भारी शरीर वाले थे (आज यह आम बात है...) लेकिन उन दिनों भारी शरीर वाले लोग बहुत टांवे टांवे ही हुआ करते थे ..इसलिए वह याद रह गया...उस का स्वभाव बहुत अच्छा था ...बाहर डिब्बे से अगर डाक निकल भी गई होती तो हम से चिट्ठी पकड़ कर अंदर स्टाफ को दे देता कि इसे डाल दो थैेले मेें। वैसे भी जब कभी अकेले डाकखाने मेरे जैसे बच्चे जाते तो उन को बडे़ प्यार से फार्म भरना भी सिखला देते .....राकेश को तो अपनी गली के डाकिये का नाम तक पता था और किस तरह से उस के पिता जी उस डाकिये को दूर से बुला कर अपने साथ चाय पिलाया करते थे ...ये सब दर्ज करना भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ जैसा ही है कि कैसे हम लोग दूसरे लोगों से व्यवहार करते थे ....

बात वही है कि राकेश से जितनी भी बातें हुईं हंसी से शुरु हुई ...बीच में भी हंसी और बात खत्म होने पर ज़ोर के ठहाके....मुझे नहीं लगता कि हम लोग एक मिनट के लिए भी कहीं रुके हों...निरंतर बात से बात निकालने का सिलसिला ऐसा चला कि क्या कहूं...😄

मैंने जब उसे याद दिलाया कि राकेश तेरे घर के बाहर जो पुलिस थाना था उस के सिपाही बड़े ज़ालिम किस्म के, जल्लाद किस्म के लगते थे तो उसने भी मेरी बात में हामी भर दी। दरअसल होता यह था कि स्कूल जाते वक्त हमारा उस थाने से निकलना होता था ...और बहुत बार ऐसा होता था कि उन्होंने किसी संदिग्ध बंदे को पकड़ पर उस को अच्छे से फैंटने का इंतजाम किया होता था ...यह लगभग सामने ही होता था....लॉक-अप हमें सड़क से ही दिखता था ...उस की बड़ी बड़ी सलाखें....और किसी एक सिपाही के हाथ में मोटे चमड़े का एक टुकडा़ हुआ करता था जिस से वह पकड़े हुए किसी शख्स की खातिर किया करते थे ....एक बात को मुझे पता नहीं था, राकेश पास ही में रहता था ..उसने बताया कि उस चमड़े के टुकडे़ पर वे लोग अकसर तेल भी लगा कर धूप में रखा करते थे ...ताकि सेवा करने का निशान भी तो पडे़ ......वैसे देखा जाए तो लगता है कि पहले क्या ज़माना था ...सोच रहा हूं कि क्या इस लिहाज से मुजरिमों या संदिग्धों के दिन बदल गए हैं......अगर आप को लगे तो ऐसा कुछ है, इस का मतलब आप कोई अच्छी अखबार नहीं पढ़ते .....

चलिए, एक आखिरी बात कर के इस पोस्ट को बंद करूं....बुहत सी बातें हैं अभी, लेकिन अब मैं थक गया हूं लिखते लिखते ...ठठेरा की  बात चली ...ठठेरा उस को कहते हैं जो बर्तन बनाता है और जो बर्तनों आदि की मुरम्मत किया करता है ...वह ठठेरा भी हम दोनों को अच्छी तरह से याद था...एक छोटी कद काठी वाला सरदार था वह ठठेरा...लेकिन अपने काम में एकदम परफेक्ट....नखरा इतना कि डी.सी भी आ जाए तो उसे भी इंतज़ार करने के कह दे...मैं उस की दुकान पर अपनी मां के साथ कभी कभी जाया करता था...किसलिए?- मेरी उम्र के लोग ही इस बात से रिलेट कर पाएंगे कि पहले घरों में लोहे की बाल्टियां होती थी, लोहे के टब होते थे जिनमें पानी भरा जाता था .....और जब उन का थल्ला (बेस) या नीचे वाला हिस्सा कभी टूट भी जाता था जाते थे और वे लीक करने लगती थीं या उन की वजह से चोट लगने का अंदेशा होता था तो उसे ठठेरा साहब के पास इलाज के लिए ले जाया जाता था जो उस थल्ले को रिपेयर करते थे या बदल दिया करते थे.....एक दम परफेक्ट काम...और हां, लिखते लिखते कितना कुछ याद आ जाता है...पहले सब आटे को भी लोहे की छोेटे से ड्रम या छोटी पेटी में रखते थे, कईं बार उन की भी रिपेयर करवाते लोग दिख जाते थे ....मुझे नहीं याद कभी हमें यह सब करवाने की ज़रूरत पड़ी हो .....एक बात और ....ठठेरा साहब किसी भी घी के बड़े डिब्बे को या किसी दूसरे बडे़ से लोहे के डिब्बे को अंगीठी, तंदूर या पीपे की शक्ल दे दिया करते थे ...(पीपे बनाने के लिए घी के बड़े डिब्बे पर ढक्कन लग जाता था).....यह ठठेरा वाला काम मुझे इतना बढ़िया लगता था ...और उस ठठेरे का निरंतर हाथ में एक लकड़ी की हथौडी लिए रहना ....मुझे यह देख कर इतना मज़ा आता था कि मेरा भी यही काम सीख कर वैसा ही ठठेरा बनने के लिए मन मचल जाता था ...लेकिन यह हसरत भी 😎 मेरे दिल ही में रह गई....

राकेश और मैं ऐसै ही कल थोड़ा टहलने निकल गए ....और मैं रास्ते में एक दो फोटो खींची तो वह हंसने लगा कि अब तुम इन पर ब्लॉग लिखोगे....मैं भी हंसने लगा कि हां, राकेश, अब ये तस्वीरें मेरे अंदर कईं दिनों तक कुलबुलाहट पैदा करेंगी...धीमे आंच पर चढ़ी रहेंगी ...और फिर अगर कुछ पकवान अगर बन पाया तो वह ब्लॉग में परोसा जाएगा....
अभी तो पकवान तो नहीं बना, लेकिन मैं दोनों तस्वीरें शेयर कर रहा हूं ....
 ये टेलीफोन के खाली डिब्बे दिख गए ...कभी इन के इर्द-गिर्द हमारी दुनीया घूमा करती थी ....लेकिन अब इन की हालत यह हो चुकी है ....Change is the law of Nature!!

एक बहुत बडे़ शो-रूम में बहुत भीड़ देख कर अंदर चले गए...खरीदना तो कुछ न था, बस यूं ही ...अंदर जब ये बैल-बाटम देखा तो फिर वही 50-60 पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गईं कि कैसे उस दौर में भी शौकीन लोग अपनी बैल-बॉटम पर यह टाकी (पीस) लगवा लेते थे ..आज यह एक फैशन स्टेटमैंट बन कर हमारे सामने है ....


फिर जब हम बाहर आए तो हम एक बात पर बहुत ज़्यादा हंसे - यह याद कर के कि पहले हमें अपने माप के कपड़े पहनने को मिलते ही न थे....जब भी दर्जी के पास लाइन-हाज़िर किया जाता तो बडा़ बहन, बडी बहन,  पेरेन्ट्स उसे यह हिदायत ज़रूर देते कि लूज़ बनाना और इसे आगे खुलवाने के लिए गुंजाईश भी रखना.....इसी चक्कर में इतने अजीब अजीब किस्म के खुले खुले ढीले ढाले कपड़े पहनते रहे कि. .................कि क्या? सब कुछ लिखा नहीं जाता ....फिर हम लोग अमृतसर स्टेशन के बिल्कुल सामने ही एक बाज़ार - जिसे लंडा बाज़ार कहते हैं... उस को याद कर के इतना हंसे कि क्या बताएं....

बस, ऐसे ही वक्त कब बीत गया पता ही नहीं चला...पिछले 60 साल का भी पता नहीं चला ...और कल के छः घंटे भी हंसते-खिलखिलाते कैसे बीत गए ..पता ही नहीं चला...राकेश बिल्कुल सही कह रहा था कि बचपन की ये सारी बातें कल ही की बातें लगती हैं...बातों बातों में बिलासपुर का ज़िक्र जब चला और मैंने उसे बताया कि मैं बिलासपुर भी हो आया हूं ...तो हम दोनों को यह याद था कि हमें नहीं पता था बिलासपुर कहां है, यह कौन सी जगह है ..हम ने तो बचपन से देखा कि शाम के वक्त एक गाडी़ छत्तीसगढ़ एक्सप्रैस चला करती थी जो अमृतसर से बिलासपुर के चलती थी ..और हम उस पर लिखे बोर्ड देख कर हैरान हुआ करते थे कि कहां होगा यह शहर .....हिस्ट्री-ज्योग्राफी में हम लोग एक दम कमज़ोर ही रहे ..और अभी भी कोरे ही हैं....

बातें तो बुहत सी हुईं...लेेकिन जब इस तरह के स्पैशल पुराने यारों-दोस्तों के साथ हों तो कितना लिखना है, क्या लिखना है और मुट्ठी कितनी बंद रखनी है ....यह सब उम्र सिखा देती है ....क्या कहते हैं उम्र का तकाज़ा है....

चलिए बंद करते वक्त बार बार खयाल धर्मेंद्र जी की तरफ़ जा रहा है ....उन को भावभीनी श्रद्धांजलि....बहुत अच्छे इंसान थे ...1984 में एक फिल्म आई थी. ..राजतिलक ....उसमें एक गाना था देवता से मेेरा प्यार पुकारे ....उस की शूटिंग मैंने उसी साल या 1983 में आर के स्टूडियो में देखी थी जहां पर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी के दर्शन हुए थे ... धर्मेंद्र इसी तरह ज़ंजीरों में बंधे हुए हैं और हेमा मालिनी नृत्य कर रही है.....काफी समय मैं वहां रुका रहा ....मैं उन दिनों बंबई घूमने गया हुआ था और बडे भाई के साथ वहां गया था ...राज कपूर और मेरे चाचा की गहरी दोस्ती थी ...पड़ोसी भी थे ...इसलिए आर के स्टूडियो में आने जाने में कोई दिक्कत न थी....

चलिए, वह गीत सुनते हैं....मुझे वह दिन आज बार बार याद आ रहा है ....


रविवार, 23 नवंबर 2025

यूं ही होनी चाहिए हर रोज़ दिन की शुरुआत....


सोते वक्त मेरे हाथ में अकसर एक किताब होती है ...गूढ़ ज्ञान वाली कोई आध्यात्मिक किताब के अलावा कोई भी ...कल रात भी सोते वक्त मुझे कहीं पर बच्चों की रामायण (इंगलिश में ..) नवनीत पब्लिकेशन की दिख गई ...मैं कुछ पन्ने ही उलट-पलट पाया कि मुझे नींद ने चारों तरफ़ से घेरा डाल लिया....फिर किसी की कहां चलती है, मैं कर भी क्या सकता था ...


खैर, सुबह उठा चार बजे...फिर सोने लगा तो मोबाईल पर विविध भारती लगा लिया...संगीत का कोई बढ़िया प्रोग्राम चल रहा था....शायद दो चार मिनट ही सुना होगा कि नींद के फरिश्ते आ धमके....फिर जब साढ़े पांच बजे के करीब उन के चंगुल से छूटा तो विविध भारती पर कबीर, रहीम और तुलसी दास जी के दोहे सुनाए जा रहे थे ...उस के बाद तो सोने का मतलब ही न था...

कबीर, रहीम, तुलसीदास जी के दोहों में इतनी कशिश है कि एक बार सुनने लगते हैं तो दिल भरता नहीं ....ऐसे लगता है कि एक के बाद एक आते ही जाएं। ज़िंदगी से जुड़ी इतने ज्ञान की बातें, इतने गूढ़ रहस्य को दो एक लाईनों के दोहे में समेट कर हमें दे कर चले गए ये रब्बी पुरुष ....यह तो आप को पता होगा कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब में बहुत से जिन गुरुओं, पीरों, दरवेशों की वाणी दर्ज है ....उन में से कबीर जी और रहीम जी भी हैं .क...

कबीर जी और रहीम जी की याद करें तो हमें अपने स्कूल की हिंदी की किताबें याद आ जाएंगी (अगर हिंदी पढ़ने की हम ने कभी परवाह की हो तब...) जिनमें कबीर जी और रहीम जी के दोहों का भी एक पाठ हुआ करता था .....एक  चैनल पर अब जावेद अख्तर एक एक दोहे की व्याख्या करते हैं...बहुत बढि़या लगता था यह प्रोग्राम....लेकिन इस के लिए एक अलग से एक सब्सक्रिप्शन लेनी पड़ती थी ......हमारे स्कूल के मास्टरों ने तो हमें बिल्कुल फ़ोकट में एक एक दोहे को हमें रटा दिया, और इतने दिल से उन के अर्थ और भावार्थ हमें समझा दिए कि वे सब ता-ज़िंदगी के लिए हमारे साथ हो लिए....एक एक दोहे में ज़िदगी के इतने बड़े सबक लिख कर चले गए ये दरवेश, ये रब्बी लोग कि हम अगर उन में से एक दो बातें भी मान लें, अपने जीवन में उतार लें तो बात बन जाए....

अच्छा ये सब दोहे हमारे स्कूल के गुरुओं ने तो हमारे समझाए ही ...इन में से बहुत से हम अपने बड़े बुज़ुर्गों से भी सुनते आ रहे हैं....मुझे अच्छे से याद  है अगर पढ़ाई करते वक्त कोई पाठ याद न हो रहा होता तो मां अकसर वह वाली कहावत ज़रूर याद दिलाया करती ......करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जावत ते सिल पर पड़त निशान ...(मुझे उम्मीद है मैंने इस के सभी शब्दों को सही लिखा होगा.....

इसलिए ये दोहे बहुत कुछ हैं....सीख तो हैं ही ....पथ-प्रदर्शक भी हैं, गिरते हुए को थाम लेने की ताकत रखते हैं ....सब से बड़ी बात बेहतरीन किस्म के रिमाईंडर हैं.....मैंने भी कबीर जी, रहीम जी और तुलसीदास के दोहों की कम से कम बीस किताबें तो अब तक ज़रूर खरीदी होंगी ...लेकिन अगर ढूंढने लगूं तो एक भी नहीं मिलेगी...मुझे इन की ये किताबें इतनी आकर्षक लगती हैं कि कहीं भी दिख जाएं तो खरीद लिया करता था ....

और तो और रिमाईंडर की बात करूं तो सुबह विविध भारती पर दोहे सुनते वक्त यह ख़याल भी आ रहा था कि शायद 15-20 सालों से मेरी आदत रही है कि अगर मुझे कोई भी दोहा या कथन कहीं पर अच्छा सुनने को मिलता है तो मैं उसे किसी नोटबुक में या किसी डॉयरी में लिख लेता हूं ....बस, लिखने ही से वह अपना सा लगने लगता है ....बाद में कभी वह नोटबुक या डॉयरी कितने अरसे बाद दिखेगी....यह कोई भरोसा नहीं....एक डॉयरी हो तो कोई संभाल कर रखे, जहां डॉयरीयां ही डॉयरीयां हों , वहां कौन रखे हिसाब इन का .....बस,  इतना इत्मीनान ज़रूर होता है कि हां, लिखने से वह बात थोड़ी याद सी हो जाती है....निदा फ़ाज़ली साब के दोहे भी मैंने किसी नोटबुक में लिख रखे हैं....एक लिंक यह भी रहा ...

कबीर जी हों या हों रहीम जी....इन की वाणी हमें बार बार सुनाई देती ही रहती है....मैं पाठकों को यह बताना चाहूंगा कि उर्दू ज़ुबान में एक बहुत बढ़िया रिवायत है कि बैंतबाजी के दौर चलती है ...यानी के छोटे बड़ों सभी में शेरो-शायरी का मुकाबला चलता है ....जैसे हम लोग अंताक्षरी न खेलते थे ...बस, उसी तरह ही ...लेेकिन यहां बात शे'र के ज़रिए करनी होती है ...मैं जब लखनऊ में था तो ऐसे कईं तरह के प्रोग्रामों का पता चलता रहता था...एक दो बार गया भी था...मैं लिखते वक्त सोच रहा हूं कि इन दोहों को लेकर भी स्कूलों -कॉलेजों में प्रोग्राम होने चाहिए ....जहां तक मुझे याद आ रहा है इस तरह का एक ही प्रोग्राम हुआ था एक फिल्म में जिसने ऐसी धूम मचा दी कि अभी भी हम उसे ही सुन रहे हैं.... यह रहा अखियों के झरोखों से फिल्म के उस गीत का लिंक ...नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेडिंग डिज़ेबल की होती है किसी कंपनी ने ....

ज्ञान तो ठूंस ठूंस कर भरा ही रहता है इन रब्बी लोगों की बातों में, दोहों में ....हर बात एक से बढ़ कर एक ...लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जो हम अल्पज्ञों के दिल में सीधा उतर जाती हैं...उन को हमें कहीं लिख लेना चाहिए....बिना मांगे मशविरा दे रहा हूं...क्योंकि मैं ऐसा अकसर करता हूं ...लिखने के चक्कर ही में वे याद रह जाते हैं....याद रहने भर से ही बात कहां बनेगी, प्रवीण बाबू, उन को ज़िंदगी में भी उतार के देख, खुद को समझा लेता हूं ...लेकिन चंचल मन कहां इतनी आसानी से .......

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...पंडित भया न कोए...

ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए....


आज तो हमें इतनी सुविधा हो गई है कि हम लोग यू-ट्यूब पर कुछ भी देख-सुन सकते हैं....एक और दोहा याद आ गया....

शब्द सम्हारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव ...

एक शब्द औषध करे, एक करे घाव ....

अब आप देखिए इतनी अच्छी बातें इतनी सहजता से हमारे तक पहुुंचा दी गई कि इन को समझने में कौन सी राकेट-साईंस का ज्ञान हमें चाहिए....आए दिन हम देखते हैं कि बोलचाल से दंगे हो जाते हैं और अच्छी वाणी एक अचूक दवाई का भी काम कर गुज़रती है ......लेकिन बात वही है कि हम सुनें तो पहले किसी दूसरे की ....आज की पीढ़ी कया कहते हैं उसे जैन-ज़ी या अल्फा....उन के पास तो बातें ही नहीं हैं करने के लिए....बिल्कुल भी नहीं हैं....ये दोहे, कहावतें, लोकोक्तियां, लोक गीत तो बहुत दूर की बाते हैं....

ये दोहे सदियोंं का ज्ञान हम तक पहुंचाते हैं....और इन में दर्ज सारी की सारी बातें शाश्वत सत्य हैं.....लिखते लिखते कईं बातें उमड़ घुमड़ कर याद आने लगती हैं ....जैसे इसरार कर रही हों कि हमें भूल गया ....लिख हमें भी ....😀....कबीरवाणी एक पोथी तो मिलती ही है....कबीर जी के दोहे उसमे संकलित हैं....आज से बारह-तेरह बरस पहले मैं कलकत्ता गया ....2013 में ...एक दिन शाम को किसी बाग के पास से गुज़र रहा था तो देखा कोई सत्संग-कीर्तन चल रहा था ...मैं भी वहां चला गया .... खुले में चल रहा था प्रोग्राम ....उन्होंने मेरा भी स्वागत किया ...मैं वहां बैठ गया और अगले डेढ़ दो घंटे कबीर जी की वाणी सुन कर मंत्र-मुग्ध होता रहा....मैंने वहां से कबीर जी की कुछ किताबें भी खरीद लीं...किसी चंदे की उगाही नहीं कर रहे थे, किताबें खरीदने के लिए आग्रह नहीं कर रहे थे ....बस, वे कबीरवाणी का पाठ कर रहे थे ....अभी सोच रहा हूं कि इस शहर में भी ज़रूर कोई ऐसी ग्रुप होगा, कोशिश करता हूं जु़ड़ जाऊं उन से ....अभी तो कौन सा देर हो गई है.....जैसे मैं अकसर कहता हूं ....जब जागो तभी सवेरा....

अच्छा, एक बात और है ....इन रब्बी लोगों की तो वाणी दर्ज है ही ...सदियों सदियों के लिए....पत्थरों पर लिखी इबारत की तरह ...लेकिन प्रेरणा हमें कहीं से भी मिल सकती है ...ये जो फिल्मी गीत हैं, उन में से कुछ ऐसे हैं जो एक गीत नहीं हैं, वे भी किसी बीमार को तंदरुस्त कर दें, उसमें जीने की तमन्ना पैदा करने की कुव्वत रखते हैं, हारे हुए को फिर से  उठ कर कोशिश करने का पैगाम देते हैं ....

उसी तरह बडे महान् शायर हैं, कवि हैं...जो अपने शब्दों को घोल कर ऐसा रुह-अफ़ज़ा तैयार करते हैं कि क्या कहें.....ऐसे लगता है सुनते ही जाएं.....मुझे दस साल पुरानी अपनी एक नोटबुक में यह सब दिख गया...आप भी देखिए....लिखा तो और भी बहुत कुछ है उसमें लेकिन आखिर कितना कोई साझा करें ....










एक फिल्मी गीत ....




मेेरे खयाल में बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बात लंबी हो गई है ...सुबह कबीर और रहीम जी के दोहे सुन कर जो खुशी मुझे मिली, मैं उस खुशी को आप सब तक पहुंचाना चाहता था ...बात तो इतनी सी थी, लेकिन इतनी लंबी चल पड़ी ..... 

शनिवार, 22 नवंबर 2025

....ए.सी ट्रेन कोच में उसने तो चूल्हा-चौका ही कर दिया शुरु

कुछ खबरें, कुछ वीडियो डरा देते हैं...बहुत ज़्यादा खौफ़ज़दा कर देते हैं ...जैसे आज सुबह जैसे ही मैंने अखबार उठाई टाईम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर एक खबर दिखी कि एक महिला की वीडियो वॉयरल हुई है जिसमें वह ट्रेन के ए.सी के डिब्बे में बिजली से चलने वाली केतली से नूडल्स तैयार कर रही है ...और यह भी लिखा है कि वह 15 लोगों के लिए चाय पानी का इंतज़ाम भी कर चुकी थी ...

दोस्तो, है कि नहीं यह एक डरावनी खबर....

टाइम्स आफ इंडिया मुंबई 22 नवंबर 2025 

मुझे 22-23 बरस पहले की एक घटना याद आ गई....बात 2002 या 2003 की है, केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा मुझे असम के जोरहाट में एक नवलेखक शिविर के लिए डेढ़ दो हफ्ते के लिए भेजा गया था....वापिस आने के लिए जोरहाट से गुवाहाटी तक ओवरनाईट यात्रा करने के बाद , सुबह यही कोई सात आठ बजे गुवाहाटी से राजधानी ट्रेन मिली....कुछ समय बाद एक स्टेशन आता है ...शायद न्यू-जलपाईगुड़ी था....यह एक बहुत अहम् स्टेशन है ....ट्रेन के अंदर बहुत से चीज़ें बेचने वाले आ गए....शायद वहां से कोई देश का बार्डर नज़दीक पड़ता है ...या पता नहीं चाईनीज़ सामान ही था ...लेकिन बहुत सी चीज़ें बिक रही थीं....मुझे भी एक रेडियो पसंद आ गया ...मैंने उन दिनों उसे 250 रुपए में खरीदा ...वह बिजली से चलने वाला था और सैलों से भी ...अभी सैल डाल कर एक फेरीवाला उसे चैक करवा ही रहा था कि ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें आने लगीं...

क्या हुआ....?

कुछ खास नहीं.....!!

एक चाय बेचने वाला जो अपनी अंगीठी के साथ अंदर एसी के डिब्बे में अपनी चाय बेच रहा था ...कहीं भीड़ भड़क्के में उस की अंगीठी थोड़ी टेढी़ हो गई और उस में से कुछ जलते हुए कोयले नीचे कोच की फ्लोर पर गिर गये ...ज़ाहिर है वह फ्लोर तो जलनी ही थी, उस जगह पर आग लग गई ...जिसे कपडे़ वपड़े की मदद से तुंरत बुझा दिया गया....

उस चाय वाले के लिए या कोच के स्टॉफ के लिए वह कोई बड़ी बात न थी...आम सी बात उन को लग रही थी ..क्योंकि कोच का फर्श लगभग एक फुट जलने के बाद भी वह एक मिनट के बाद चाय बेचने के लिए अगले कैबिन की तरफ़ चला गया....

मुझे....मुझे क्या, बुहत से लोगों को यह हादसा देख कर बहुत हैरानी हुई ...आखिर वह अंगीठी समेत चाय बेचने के लिए अंदर घुसा कैसे ....

खैर, ये सब बुद्धिजीवी लोगों के बेकार के सवाल.....जिन का काम ही है उठना और फिर बैठ जाना...। 

जहां तक मुझे ख्याल आ रहा है कुछ साल पहले भी किसी गाड़ी में भीषण आग लगी थी तो मीडिया में यही आया था कि कोई यात्री इसी तरह से फोन चार्ज करने वाली सॉकेट में पानी गर्म करने वाली केतली को लगा कर अपनी मूर्खता का प्रदर्शन कर रहा था ....

इस तरह की ज़रूरी खबर को टाइम्स के पहले पन्ने पर जगह दी गई....यह इस पेपर के सामाजिक सरोकार को दर्शाता है ...

 
मुझे नही ं लगता कि यह पहली बार हुआ होगा....इतने तरह के गैजेस्टस की सिरदर्दी हम लोग साथ लेकर चलते हैं....किसे कितना करैंट चाहिए, किसे कितना...हमें न तो यह समझ है और न ही हम समझना चाहते हैं....हम जैसे टिकट खरीद कर रेलवे पर एहसान कर चुके हैं....सौ दो किलो का वज़नदार सामान और साथ में बिजली का इस तरह से दुरुप्रयोग ...

दुरुप्रयोग बडा़ छोटा शब्द है इस तरह के दुःस्साहस के लिए ....इस वीडियो में अंकल जी भी बड़े चाव से नूडल्स खा रहे हैं...रेलवे ढूंढ ही लेगी इन को ....लेकिन ऐसी हरकत से हज़ारों लोगों की जान को ख़तरे में डाल दिया ....तुम लोगों ने तो नूडल्स और चाय का मज़ा ले लिय़ा ........लेेकिन इस चक्कर में सोते-जागते, लेटे हुए, बतियाते  तो लोगों का काम स्वाहा हो सकता था ....

रेलवे ने वैसे ही सेवा में कोई कोर कसर न छोड़ रखी है ...अधिकतर ट्रेनों में अच्छी केटरिंग सर्विस है ....जो भी ज़रुरी चीज़ होती है मिल ही जाती है ..ऐसे में ट्रेन के डिब्बे में चूल्हा-चौका चलाने का क्या ख़याल भी कैसे आया....

यह खबर देखने के बाद मैं सोच नहीं पा रहा हूं कि इस तरह की हरकतें न हों, यह सुनिश्चित करना किस की जिम्मेदारी है ...ट्रेन की स्टॉफ की, या सब से ज़्यादा तो यात्री की है ...आज कल कोई इतना भी अनाड़ी नहीं है कि उसे पता न हो कि इस तरह की हरकत से चलती ट्रेन पलक झपकते ही आग की लपटों का रूप ले सकती है ....

सीधी सी बात है ...अगर रेलवे ने फोन चार्ज करने की एक बढ़िया सुविधा दी है तो उसे उसी काम के लिए इस्तेमाल करिए..मुझे तो यह भी नहीं पता कि क्या इस तरह के बिजली के प्वाईंट दूसरी तरह के बीसियों गैजेट्स की चार्जिंग करने के लिए उपर्युक्त हैं भी या उन को भी इसी तरह के प्वाईंट्स में चार्ज करने से आग लगने का ख़तरा तो रहता ही है ....मुझे यह भी याद आ रहा है कि किसी ट्रेन में मैंने इस तरह के स्टिकर भी देखे थे इन प्वाईंट्स के पास लगे हुए कि इस प्वाईंट में मोबाईल चार्ज के अलावा और कुछ चार्ज न करें ...केतली का भी लिखा हुआ था.....

रेलवे भी कितना कुछ सके.....कुछ तो यात्री भी जिम्मेदारी लें ....पढ़े लिखे हैं.....पढ़े लिखों की हरकतें अगर इस तरह की होंगी तो फिर कैसे चलेगी इतनी बड़ी रेल के ताने बाने की विराट व्यवस्था........। 


इस खबर ने तो मुझे मेरे कालेज के दिनों की सुपरहिट फिल्म और उस के सुपरहिट गानों की भी याद दिला दी ....दा बर्निंग ट्रेन.....मेरे लिए 1980 वाला वह बहुत से सुनहरे सपनों से लदा हुआ साल ....😀

शनिवार, 15 नवंबर 2025

कल्याण जी- आनंद जी का म्यूज़िक शो बढ़िया रहा ....

मुंबई में म्यूज़िक शो तो होते ही रहते हैं...दूसरे शहरों में भी होते होंगे...लेकिन मुंबई चूंकि मायानगरी है ...यहां पर इस तरह के जो प्रोग्राम होते हैं उन में कुछ तो अलग ज़रूर रहता है ...

मैंने पिछले कुछ सालों में लखनऊ और यहां मुंबई में इतने म्यूज़िक शो देख लिए हैं कि अब मुझे इन का ज़्यादा क्रेज़ नहीं रहा ...लखनऊ में तो किशोर कुमार या मोहम्मद रफी की सालगिरह आदि पर इस तरह के कार्यक्रम होते थे ...मैंने सब से पहले वहीं पर यह सब देखा ...

लेकिन यहां मुंबई में तो बहुत से म्यूज़िक-शो देखने का मौका मिला ....यहां पर तो इतवार की अखबार में आने वाले हफ्ते में होने वाले शो के इश्तिहार भरे पड़े होते हैं....अब मेरे लिए यह चुनाव करना कि कहां जाना है, कहां नहीं.....बहुत आसान हो गया लगता है ....मैं जिस तरह के प्रोग्राम में एक बार हो आता हूं दोबारा उसमें नहीं जाता....कितना भी अच्छा एक्पिरिएंस रहा हो, मैं दोबारा नहीं जाता.....जैसे कि कुमार शानू, अभिजीत, उदित नारायण, आशा भोंसले, सुखविंदर ....आदि आदि ...एक बार इन के फ़न का जादू देख लिया ...तो फिर से इन के किसी प्रोग्राम में नहीं जाता...अभी मुझे लिखते लिखते यही लग रहा है कि जैसे मैं इन के फ़न को एक बार लाइव देखने जाता हूं ...टिकट-विकट का कोई चक्कर नहीं है, वैसे भी मैं एक हज़ार-बारह सौ रुपए तक की टिकट वाले शो में ही जाता हूं....चार पांच हज़ार रुपए के टिकट वाले शो में कभी नहीं गया....तो यह हुआ मेरा अपना निर्धारित किया हुआ एक्सक्लूज़न क्राईटिरया.....कैसा लगा....और हां, जो कलाकार इन प्रोग्रामों में आने वाले हैं, कईं बार उन के नामों पर भी मेरा वहां जाना या न जाना मयस्सर करता है ....

और एक बात ...यहां पर मो.रफी साहब या किशोर कुमार की सालगिरह के मौके पर तो इस तरह के प्रोग्राम होते ही हैं. ..वैसे भी विभिन्न फिल्मी गायकों के लाइव शो होते रहते हैं....इन प्रोग्रामों में मेरी जाने की इच्छा ज़्यादा होती है (अगर मैं पहले उस गायक के किसी प्रोग्राम में नही ंगया हूं...) ...गायकों के अलावा, कईं बार म्यूज़िक डायरेक्टर्स जैसे लक्ष्मी कांत-प्यारे लाल, कल्याण जी-आनंद जी, आर डी बर्मन, भप्पी लहरी 

....जैसे शो भी होते हैं.....और कईं बार गुलज़ार म्यूज़िक शो, मजरुह सुल्तानपुरी ...( इन दोनों शो में तो मैं शिरकत कर चुका हूं...)....मेरा कहने का आशय यह है कि म्यूज़िक शो बहुत से अलग अलग थीम पर होते रहते हैं.....


कुछ दिनों से मैं अखबार में कल्याणजी-आनंद जी के म्यूज़िक शो का इश्तिहार देख रहा था ...14 नवंबर को था...कल्याण जी तो परलोक सिधार गए हैं....मैं शो में इसलिए जाना चाहता था क्योंकि मुझे लाईव-शो के दौरान आनंद भाई के दर्शन भी करने थे ....ऐसे प्रोग्रामों के दौरान सदी के ऐसे महान कलाकारों की बातें सुनने लायक होती हैं....

कल प्रोग्राम बहुत बढ़िया रहा ....इस पोस्ट में मेरी कोशिश यही रहेगी कि आनंद जी भाई ने जो अपनी यादें साझा की, उन के बारे में जितना मुझे याद रह पाया, उन को लिखूं....लेकिन उस से भी पहले यही ख़याल आ रहा है कि आखिर कल्याण जी आनंद जी से मेरा लिंक क्या ....

मेरा कल्याण जी-आनंद जी से लिंक कुछ खास नहीं .....

मेरा या मेरी उम्र के लोगों का इन दिग्गजों के साथ खास लिंक नहीं, बस सिर्फ इतना ही ....

- जब से हमने होश संभाली, हम ने इन का नाम रेडियो पर बजने वाले फिल्मी गीतों के साथ सुना...कल्याण-जी, आनंद जी, लक्ष्मी कांत-प्यारे लाल, शंकर जै किशन ....याद नहीं दिन में ये नाम रेडियो पर कितनी बार सुन जाते थे...

- फिर स्कूल जाते वक्त रास्ते पर जो फिल्मी पोस्टर दिखते थे, जब हिंदी पढ़ना लिखना सीख रहे थे तो इन का नाम उन पोस्टरों पर ज़रूर पढ़ लेते थे.....कुछ पता नहीं था कि ये काम क्या करते हैं...इन का फिल्म में काम क्या होता है ...लेकिन  ये नाम जैसे दिलोदिमाग में बसे हुए हैं ...कब से ..........बचपन से ....(इसे लिखते लिखते मुझे बचपन में अमृतसर के हाथी गेट, हाल गेट आदि जगहों पर लगने वाले फिल्मी पोस्टर याद आ रहे हैं....जिन को मैं स्कूल कालेज जाते वक्त ज़रूर अच्छे से देख कर आगे बढ़ता था ...) पैदल होता तो कोई दिक्कत नहीं, साईकिल पर होता तो उसे रोक कर इश्तिहार ज़रूर पढ़ता....

-अखबार में जो फिल्मी विज्ञापन छपते थे उन मे ं भी इन का नाम लिखा होता था ....

-और जब खुशकिस्मती से किसी रोज़ कोई फिल्म देखने चले ही जाते तो थियेटर के बाहर लगे बहुत बड़े पोस्टर पर भी इन की नाम लिखा रहता था ..

-फिर आगे चलते हैं,...कैसेट चल पड़़ीं...फिल्मी गीतों की ...उन पर भी इन का नाम ....

-टीवी पर भी कभी कभी किसी विशेष प्रोग्राम में इन को अपनी टीम के साथ लाइव प्रोग्राम देते देखा...

-आगे सीडी आ गईं डीवीडी आ गईं .........हर जगह इन का नाम पढ़ते पढ़ते इन के नाम की आदत पड़ गई....

- फिर यू-ट्यूब ने तो कमाल कर दिया....मैं नवंबर 2007 से ब्लॉगिंग कर रहा हूं और अपनी पोस्ट को बंद करते वक्त जब किसी फिल्मी गीत को पोस्ट में एम्बेड करने के लिए  सलेक्शन करनी होती है तो दो चार गाने से सुनने ही पड़ते हैं और इस सिलसिले में भी इन दिग्गजों का नाम बार बार दिन में कईं बार अभी भी दिखता है और सुनता भी है क्योंकि मैं विविध भारती का नियमित श्रोता हूं ....रेडियो का मतलब मेरे लिए विविध भारती रहा है, और शायद हमेशा रहेगा...

1960 या 1970 के दशक में इन महान संगीतकारों के गीत सुन कर मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ज़िंदगी में कभी ऐसा भी मौका मिलेगा जब इन को यह सब लाइव कंडक्ट करते देख पाऊंगा ....हां तो मेरे लिए इन दिग्गजों के दर्शन ही कर लेना ऐसे सपने साकार होने जैसा है जो मैंने कभी सपने में भी नहीं देखे थे ....अब अगर मेरा या मेरी पीढ़ी का कल्याण जी आनन्दजी के साथ इतना लिंक भी खास ना लगे तो खास की परिभाषा आज ही बदल देनी चाहिए! 

हर फिल्मी गीत की एक नहीं अनेकों दास्तानें हैं ....

हर फिल्मी गीत से जुड़े हर शख्स की उस के बारे में अलग दास्तान है ...जिस की कलम से वे शाहकार कृतियां निकलीं, उन के अपने अनुभव हैं, जिन्होंने इन को लाजवाब म्यूज़िक दे कर अमर बना दिया, उन के किस्से उस गीत के बारे में अलग, जिसने उन गीतों को गाया, जिसने फिल्माया, जिन पर फिल्माया .....सब के अलग अलग किस्से एक गीत के बारे में ........और सब से बड़ा किस्सा तो उस गीत के दर्शक के पास, श्रोता के पास ...........यह कैसा किस्सा हुआ........हम सब की यादें जुड़ी होती हैं फिल्मी गीतों के साथ, ये रेफरेंस प्वाईंट होते हैं हमारी ज़िंदगी के ....जब अचानक किसी गीत को सुनते हैं तो हमें 50 साल पहले का कोई दिन याद आ जाता है, 40 साल पुराना कोई वाक्या याद आ जाता है, स्कूल-कालेज की क्लास याद आ जाती है जब बाहर से उस गीत के अकसर लाउड-स्पीकर पर बजने की आवाज़ आने लगती थी ....मां का, पिता जी का, भाई का पसंदीदा गीत और बहन का किसी गीत को अकसर गुनगुनाना ....बहुत कुछ याद आ जाता है...ये सब दास्तानें ही तो हैं....

32 फिल्मी गीत सुनाए गए - 

कल के प्रोग्राम में 32 फिल्मी गीत पेश किए गए...एक से बढ़ कर एक ...इतना काम करने के बाद भी आनंद जी भाई में बच्चों जैसा उत्साह और उन के खुशमिज़ाज स्वभाव से हाल में जैसे रौनक आ गई।






शुरुआत हुई लावारिस फिल्म के उस सुपर हिट गाने के म्यूज़िक से .....अपनी तो जैसे तैसे कट जाएगी.....

डॉन, लावारिस, कुर्बानी, हसीना मान जाएगी, मुकद्दर का सिकंदर, सफ़र, हाथ की सफाई, सच्चा-झूठा, धर्मात्मा, जानी मेरा नाम, कालीचरण, राज़ .....इन फिल्मों के अलावा भी बहुत से गीत पेश किए गए...मुझे उन की फिल्मों का नाम पता नहीं, लेकिन गीत कुछ जो पेश किए गए....

बड़ी दूर से आए हैं प्यार का तोहफ़ा लाए हैं...

चांद आहें भरेगा, फूल दिल थाम लेंगे ...

आ जा तुझ को पुकारें मेरे गीत रे ...

पल पल दिल के पास तुम रहती हो ...

किसी राह में किसी मोड़ पर ...कहीं चल न देना तू छोड़ कर ...

फुल तुम्हें भेजा सा खत में ...

सलामे इश्क मेरी जां ज़रा कुबूल कर ले लो ....

प्रोग्राम के दौरान आनंद जी भाई ने धर्मेंद के सेहतयाब होने की शुभकामना की और बताया कि धर्मेंद और राजेश खन्ना की पहली फिल्म के म्यूज़िक डायरेक्टर वही थे। 

कह रहे थे कि बस ईश्वर की कृपा से नाम हो गया...कह रहे थे मुझे म्यूज़िक के अलावा कुछ आता ही नहीं था, न गाना, न बजाना....कहने लगे कि फिर हमने म्यूज़िक डायरेक्टर बनने का फैसला कर लिया....दादी अकसर पूछती कि तुम स्टेज पर खडे़ होकर यह क्या हाथ हिलाते रहते हो ...तो आनंद भाई ने जवाब दिया ....कुछ नहीं, बस मक्खियां उड़ानी पड़ती हैं...। दादी ने कहा कि वहां ंपर मक्खियां तो होती नहीं हैं....।  

जो ्र्रआर्टिस्ट गीत गा रहे थे, उन सब को वह ईमानदारी से फीडबैक दे रहे थे ...एक बांसुरी वादक और एक आर्टिस्ट (गायक) को उन्होंने नगद ईनाम भी दिया....एक सिंगर ने जब यह गीत गाया ....अकेले हैं चले आओ...जहां हो ....तो उसे कहा कि इसे गाने के लिए अपनी आवाज़ में दर्द लेकर इसे गाओ....उस के बाद उसने फिर से उसे गाया और आनंद भाई न खूब तारीफ़ की ...

जेटसेन दोहना....सारे गा मा लिटिल चैम्प विनर ...

वहां पर जो आर्टिस्ट गीत गा रहे थे उन में से एक जेटसेन दोहना भी थी....यह सारेगामा की लिटिल चैम्प की तीन साल पहले की विजेता है...12साल की हैं...लेकिन इन की गायकी ..लाजवाब है ...मैं रिकार्ड तो नहीं कर पाया ..क्योंकि मैं कल दूसरी बालकनी पर था ..लेकिन अभी मैंने यू-ट्यूब पर देखा तो वही गीत मिल गया जो जेटसेन ने कल गाया था - प्यार ज़िंदगी है ..प्यार बंदगी है .....संयोगवश इस प्रोग्राम में भी आनंद जी भाई इस बच्ची को दाद दे रहे हैं....इस से पहले भी उस बच्ची ने जो गीत गाया ..उस को भी लोगों ने बहुत पसंद किया....इक तो कम ज़िंदगानी...उस से भी कम है जवानी....प्यार दो प्यार लो ....

जेटसेन दोहना कल के प्रोग्राम में परफार्म करते हुए....



सारे प्रोग्राम के दौरान आनंद भाई का उत्साह देखने लायक था ....बस उम्र जैसे साथ नहीं देती कईं बार बिंदास डांस करने के लिए ..वही बात थी ..लेकिन हर गीत के ऊपर उन का दिल झूम रहा था .....और उन्होंने एक बार कह भी दिया...मेरी उम्र पर मत जाओ, मेरे दिल को देखो....और उन्होंने फिर बताया कि एक एक गाने के पीछे पूरी कहानी होती है...

प्रोग्राम के दौरान यह भी बताया गया कि 1950 में ( जी हां, 75 साल पहले) देश में कल्याण जी आनंद जी के द्वारा ही लाईव आर्केस्ट्रा की शुरूआत की गई थी ....स्टेज पर लाइव शो करने की परंपरा भी उन के द्वारा ही शुरू की गई थी ...वाह, बहुत खूब। दर्शकों के बहुत अनुरोध करने पर उन्होंने दो मिनट के लिए गाने के लिए माईक हाथ में ले लिया....और यह गीत सुनाया...बड़ी दूर से आए हैं, प्यार का तोहफ़ा लाए हैं.....

खुशमिज़ाज हैं आनंद भाई..जैसे ही गीत गाना शुरु किया तो हंसते हंसते कहने लगे ....तालियां ..तालियां....और बाद में जब पानी पीने लगे तो कहने लगे ....देखिए, आनंद भाई को पानी पीते देखिए.....ऐसे ही खुश रहना, खुश रखना....और आसपास खुशियां फैलाने ऐसे महान फ़नकारों का स्वभाव होता है तभी तो ये ऐसा बेमिसाल काम कर गुज़रते हैं जिस को सदियों तक याद रखा जाता है ..बात बात पर हंसी, मज़ाक, मुस्कुराना .....दूसरों का मनोबल बढ़ाना, बढ़िया काम की तारीफ़ करना.......यही तो है ज़िंदगी....



शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

ज़र्रे ज़र्रे में हैं किस्से-कहानीयां ...बात तो समेटने भर की है ...



दरियादिली …..


“उस लेडी को मैंने जानबूझ कर मना किया”….मैं जिस आटोरिक्शा में बैठा, उस का ड्राईवर मेरे बैठते ही अपने आप बोलने लगा…


मैंने दूर से देखा तो था कि एक महिला उस से कुछ पूछ रही थी, फिर अचानक पिछले रिक्शा की तरफ़ चली गई…


“ऐसा भी क्या हो गया कि मना कर दिया….?”


“यह मैडम जब भी रिक्शा में बैठती है, हैरान कर देती है, तेज़ चलाओ, और तेज़ चलाओ…जब तक अपने ठिकाने तक आटो पहुंच नहीं जाता, इन का बार बार चिल्लाना - देखो, वह गाड़ी भी आगे निकल गई, और तुम कुछ कर ही नहीं रहे हो..”


“अच्छा…यह बात है …”


“हां, जब तक वह रिक्शा में बैठी होती हैं, उन की इस बार बार की चिक-चिक से मेरा सर दुखने लगता है…मैंने कुछ दिन पहले यह ठान लिया कि आगे से इस मैडम की सवारी नहीं लेनी….

बार बार एक ही बात कि मैं लेट हो जाऊंगी…

लेट हो जाएंगी तो भई वक्त पर निकलिए घर से ….मेरे पास तो एक रिक्शा ही है, मैं इसे कैसे उड़ा कर पहुंच दूं….

चाहे भाड़ा तो 200 रुपए का हो जाता है, लेकिन जहां पर मैडम का ऑफिस है वहां से वापसी पर भाड़ा नहीं मिलता….” बस, इतनी बात कर के वह चुप हो गया…


मुझे लगा उसे अपने मन की बात बाहर निकाल के सुकून सा मिल गया …

लेकिन मुझे क्या पता था…कि यह तो ट्रेलर था, पिक्चर तो अभी बाकी थी….


जाते जाते अचानक एक निर्माणाधीन बिल्डींग की तरफ़ इशारा कर के बताने लगा

“मेरे पास सिर्फ़ रिक्शा चलाने के लिेए आधा घंटा ही है, उस के बाद मैं इस बिल्डिंग वालों के लिए काम करता हूं….”


“क्या वहां पर सिक्योरिटी का काम करते हो…?”


“नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं….यह बिल्डिंग उस हीरोईन की बन रही है…वह तो बाहर गांव रहती हैं, उन की बेटी ही यह बिल्डिंग का काम करवा रही हैं….बिल्डिंग बन रही है, इसलिए वह पास ही किराये पर रहती हैंं…”


उस हीरोईन की बेटी को संबोधन करते वक्त वह उस के नाम के साथ दीदी हर बार लगा रहा था….


“वैसे वहां पर काम क्या करना होता है …?”


“कईं काम हैं, गाय के लिए चारा लेने जाना, कुत्तों को टहलने ले कर जाना, तरह तरह के घरेलू इस्तेमाल की चीज़ें लाना ….इत्यादि …

दीदी, मुझे ठीक सुबह साढ़े चार बजे फोन कर देती हैं….एक तरह से अलार्म होता है …वह तो तीन बजे उठ जाती हैं….

मैं उठ कर फ्रेश हो कर नहा धो कर दीदी के यहां पहुंच जाता हूं…

वहां से दीदी मेरे रिक्शा में बैठ कर वहां जाती हैं जहां पर गाय के लिए चारा बिकता है ….गोरेगांव से घास आता है वहां पर …पांच हज़ार रुपए का घास लिया जाता है …”


“पांच हज़ार रुपए का घास महीने का …?”


“नहीं, नहीं, रोज़ पांच हज़ार रुपए का घास ….और मेरा वहां काम होता है, घास के जो बड़े बड़े पैकेट होते हैं उन की गिनती करना और उन को गाय के मालिकों में बांट देना….”



(बहुत से लोगों को नहीं पता होगा कि मुंबई में जगह जगह पर, चौराहों के पास, या बाज़ारों में गाय बंधी हुई दिखती हैं….जिन के पास उन के मालिक या मालकिन बैठी होती है, बहुत से लोग गाय के चारा खिलाने के लिए वहां आते हैं, दस, बीस, पचास रुपए का चारा अपने हाथों से खिलाकर पुण्य के भागी बनते हैं और आगे निकल जाते हैं….उस गाय के स्वामी ने अपने पास इस घास के चारे के साथ साथ गाय के लिए अलग तरह की खाद्य सामग्री भी रखी होती है …जैसे भूसे से बने लड्डू टाइप के मिष्ठान, और भी कुछ कुछ चीज़ें …स्वामी ने पैसे लेने हैं और पुण्याभिलाषी ने यह सब कुछ गाय को खिला देना है ….शाम तक अच्छी कमाई हो जाती है गाय के स्वामी की, और गाय को दोहने से जो दूध मिलने वाला है, वह तो हुआ बोनस….


यह इतनी लंबी बात मैंने इसलिए लिखी कि यह जो गाय के स्वामी घास बेचते हैं यह भी उन को इसी तरह से किसी दानवीर ने दान ही में दिया होता है, मुझे आज उस ड्राईवर की बात सुन कर यही लगा….)


“और घास वाला काम निपटाने के बाद फिर और क्या काम करते हो…?”


“कईं काम होते हैं घर में …बाज़ार से कुछ खरीदारी कर के लाना, मैडम के पास जो कुत्ते हैं उन में से कुछ को मैं टहलाने ले जाता हूं….”


“कितने कुत्ते हैं..?”


“35 कुत्ते हैं…”


“बेचने का काम भी करते हैं…?”


“नहीं, नहीं, उन का शौक है, जानवरों से बहुत प्रेम करते हैं….35 कुत्ते हैं और 29-30 बिल्लीयां हैं….अब कभी किसी कुत्ते की तबीयत ठीक नहीं, कभी किसी बिल्ली की ….उन को डाक्टर के पास भी मैं ही लेकर जाता हूं….”


“अच्छा, यह सब तुम करते हो …!”


“और यही नहीं, इस इलाके के आसपास जितने भी स्ट्रीट डॉग्स हैं उन सब के लिए दीदी दिन में दो बार मटन बनवा कर उन के खाने का इंतजाम करती हैं….”


“वैसे तुम्हें क्या मिलता है उन के यहां से …?”


“मेरा यही है कि मैं जैसे ही वहां जाता हूं, जहां तक वहां रहता हूं और उन के काम करता रहता हूं, मेरे रिक्शे का मीटर डाउन ही रहता है, कभी रोज़ के एक हज़ार मिल जाते हैं, कभी डेढ़ हज़ार…”


“बहुत अच्छे…”


मेरी मंज़िल आ चुकी थी, मैं उसे भाड़ा दे भी चुका था…लेकिन उस की बात लगता है अभी पूरी नहीं हुई थी, मुझे भी इतनी जल्दी नहीं थी कि मैं उस की बात बीच ही में काटने की गुस्ताखी कर देता …


“दीदी बहुत अच्छी हैं, गरीबों के साथ बहुत हमदर्दी रखती हैं, मेरे भी कपडे़, जूते …सभी वही दिलाती हैं, कुछ अरसा पहले मेरे गांव के एक रिश्तेदार की टांग टूट गई, मैं दीदी के पास ले कर गया तो दीदी ने उस के इलाज का पूरा खर्च उठाया …दो ढ़ाई लाख रुपए लग गए थे ….दीदी का दिल उन की मम्मी से भी बड़ा है ”


“इस पूरी बिल्डिंग में वे लोग खुद ही रहेंगे या भाड़े पर उठा देंगे…?”


“खुद ही रहेंगे, तीन चार माले तो उन लोगों को अपने लिए चाहिए. एक कुत्तों के लिए रखेंगे और एक नौकरों के रहने के लिए…..”


“बढ़िया है ….लगे रहो इस काम पर …बढ़िया लोग नसीब से मिलते हैं…वैसे यह आटोरिक्शा अलग से इस तरह कब चलाने का वक्त निकाल पाते हो ?”


“जी हां, जैसे ही वहां दीदी के यहां कोई काम नहीं होता, मैं एक दो घंटे के लिए बीच में रिक्शा चला लेता हूं…”


उस को मिलने के बाद मैं सोच रहा था कि महानगरों में इन रिक्शा वालों की भी कितनी बड़ी भूमिका है, घर-बाहर छोड़ कर कैसे परदेस में रोज़ी-रोटी के लिए पहुंच जाते हैं और अपने अच्छे व्यवहार से, ईमानदारी से लोगों के दिलों में जगह बना लेते हैं….यह ड्राईवर से बात करने के बाद मुझे उस रिक्शा वाले का ख्याल आ गया जो घायल हालात में सैफ अली खां को रात के दो बजे अस्पताल लेकर गया था…..


अच्छा, पूरी स्टोरी खत्म हुई …अभी के लिए …लेकिन बात यह है कि हर इंसान के पास बहुत सी स्टोरीयां हैं, जिन्हें वह कहने को बेताब है …लेकिन सुनने वालों के पास वक्त नहीं है…..कहानीयां, किस्से सिर्फ़ इंस्टाग्राम पर, फेसबुक पर ही नहीं बुनी जाती, असल ज़िंदगी में भी एक से एक प्रेरणादायी कहानी-किस्से हैं, जिन्हें अभी कहा नहीं गया, सुना नहीं गया….शायद इस का कारण यह भी है कि लोग अब बेमतलब के किसी के साथ बोलना-बतियाना नहीं चाहते….अगर बात ही नहीं करेंगे तो भी बात आगे कैसे चलेगी, बात से बात कैसे निकलेगी…..मुझे पंजाबी की एक बहुत बड़ी प्रोफैसर मिसिज़ बराड़ की बात याद आ रही है जिस में वह कहती हैं कि आज कल की पीढ़ी के पास बातें हैं ही नहीं, बस हूं, हांं, यस, नो, हॉय, बॉय हैलो…..और कुछ नहीं, इसलिए इस पीढ़ी की बातें एक दम सिमट गई हैं…..सुकड़ गई हैं।


यह जो ऊपर मैंने उस रिक्शेवाले से हुआ वार्तालाप आप तक पहुंचाया, मैंने इसमें न कुछ जो़ड़ा है न ही घटाया है ….क्योंकि उस से मुझे क्या हासिल …और जितने विश्वास से वह यह बातें बता रहा था, उस दौरान भी मुझे नहीं लगा कि कुछ बना रहा है…..उसे भी यह सब गढ़ने से क्या मिलने वाला था….रिक्शा के भाड़े के सिवाए…..।


अभी मैंने यह लिखते लिखते गूगल से भी पूछ लिया ….जितनी बातें गूगल ने बताईं उन से रिक्शा वाले की कही बातों की पुष्टि ही हुई….अब यह तो गूगल बताने से रहा कि किस के घर में कितने कुत्ते हैं और कितनी बिल्लीयां. …..


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

क्यों निकल आईयां हड़बां....

 हड़बां 


पंजाबी भाषा दा इक पुट्ठा लफ़्ज़ हड़ब, 

पुट्ठा ही तो हुआ अगर यह किसी को परेशान कर दे, 

जबड़े की कहें या गाल की हड़्डी उसे कहते हैं हड़ब…

दोनों तरफ़ की जब हो बात तो हड़ब से बन गया हड़बां…

किसी के गाल जब जाएं पिचक 

ज़ाहिर है चेहरे पर जैसे नज़र पड़ती है सिर्फ़ दिखती हैं…

जबड़े की हड्डीयां …

और इसे पंजाबी अपने शटल्ली अंदाज़ में फरमाते हैं..

हड़बां निकल आईयां ने उस दीयां…..


युवावस्था की दहलीज़ पर अकसर लड़कों की निकली ही दिखती थीं हड़बें

फिर सुनना पड़ता जने-खने से, सवालों से भरी उन की आंखों से, 

मां-बापू, दादी, नानी, बुआ से …

क्यों निकल गई हैं हड़बें तुम्हारी…..कुछ करो…। 


शारीरिक बदलाव, मानसिक उथल-पुथल, 

अपने ही में सिमटे, सकुचाते, सुनहरी सपने उधड़ने-बुनने की कच्ची उम्र  

हारमोन लोचे से, काल्पनिक बीमारियों से जूझता…

क्या ही कर लेता इस का लेकिन 

बार बार ये हड़बां-हड़बां सुन 

काका और भी रहने लगता परेशान ….

कुदरत का प्यारा निज़ाम देखिए….

अगले दो चार बरसों में गालें भी भर जातीं और शरीर भी ….


खैर, हर पिचके हुए गालों की दास्तां जुदा है …

स्कूल-कॉलेज वाले लड़कों की बात हो गई ….

फिर हम लगे देखने …बड़े बड़े खिलाड़ीयों को भी, 

टॉप माडल, हॉलीवुड स्टार भी …

हड़बें उन की भी निकली दिखतीं…


ज़िंदगी के सफ़र में फिर आगे देखा 

डाईटिंग, फैशन, स्टाईल के दीवाने 

जब चाहते हड़बां निकाल लेते 

जब चाहते भर लेते उन पिचके गालों को …

ज़रूरत पड़ने पर भरवा भी लेते फिल्लर से ….

पैसे वालों के लिए दिखा यह एक खेल….


दांत निकल जाने से गाल जाते ही हैं पिचक 

हड़बां आती हैं निकल …

नकली दांतों तक हर किसी की नहीं होती पहुंच 

पूरी उम्र गुज़ार देते है पिचके गालों के साथ अमूमन 

पोपले बने हुए, हड़बां निकली हुईं …

दांत नहीं हैं तो क्या जीना छोड़ दें….

गजब की बात यह कि सब कुछ खा-चबा लेते हैं…

मौज करते है,  खुल कर बेपरवाह हंसते भी दिखते हैं…

किसी से कोई शिकायत नहीं….

जिंदगी से राज़ी दिखते हैं, समझौता कर लेते हैं…

इन की बेपरवाह रुह से निकली हंसी सब को लेती है मोह ….

चिढ़ाती हो जैसे उन लोगों को 

जिन्होंने लाखों लगा दिए दांतों के इंप्लांट पर, 

चेहरे पर बोटॉक्स लगवाने में, 

गालों का ज़रा भी अंदर धँसना रोकने के लिए, 

हरेक मसल को पूरा एकदम टनाटन टाईट रखने के वास्ते, 

किसी मसल की क्या मजाल की चेहरे पर ज़रा ढिलका दिख जाए…

इन सब जुगाड़ के बावजूद….

कुछ लोगों की हंसी इतनी कैलकुलेटेड, डरावनी, बनावटी और मज़ाक उड़ाती ही दिखीं….

दूसरों की खिल्ली उड़ाती....😂


दास्तां जुदा हैे हर पिचके गालों की….

नशा-पत्ता करने वालों की भी उभर आती हैं हड़बें…

कल शाम एक एक अधेड़ उम्र की बहन दिखी ट्रेन में चढ़ती…

एक दम पिचके गाल, हड़बां ही हड़बां दिखतीं, 

इस तरह की हड़बें निकली हुईं देखने वाले को कर देती हैं फ़िक्रमंद…

इन हड़बों के साथ बीमार शरीर भी दिखता है इक मुट्ठी हड्डियों जैसा, 

अंदर धंसी आंखे, उम्मीद की मंद किरणों से रोशन, 

इस तरह की हड़बों को चाहिए …

दवा के साथ दुआ….बढ़िया खाना, मुकद्दर भी चाहिए अच्छा….

यह सब हरेक को कहां हो पाता है मयस्सर,

इसीलिए टावां टावां ही ….🙏



प्रवीण चोपड़ा 

28.10.25 


पुट्ठा (पंजाबी लफ्ज़)- उल्टा, 

टावां-टावां (पंजाबी) ….कोई कोई 


अभी मैं जब इस पोस्ट को बंद कर रहा हूं, विविध भारती पर यह गीत बज रहा है …. सुपर-डुपर हिट गीत …हमारे कॉलेज के दिनों की यादों का एक अहम् हिस्सा …