बुधवार, 10 सितंबर 2025

सफ़र में पानी की सुराही साथ लेकर चलने वाले दिन ....


सफ़र के दौरान
 हर तरफ़ पानी की खाली प्लास्टिक की बोतलें देखना बड़ा कष्ट देता है ...कभी कभी अचानक हमें पुराना सुनहरा दौर याद आ जाता है ...दो दिन पहले मुझे कहीं वह एक लंबी सी ईगल की लंबी सी थर्मस दिख गई जिसमें हम लोग फ्रिज में जमाई हुई बर्फ लेकर चलने लगे थे ...लेकिन शुरुआत हमारी यहां से नहीं हुई थी...

चलिए...चलें ज़रा 1960 के दशक के आखिरी दौर में ....मुझे याद है जब भी कोई ट्रेन में यात्रा करनी होती तो हर परिवार साथ में एक स्टील का या पीतल का गिलास लेकर चलता था ...क्योंकि पानी वानी का कोई इतना झंझट नहीं होता था, सभी लोग स्टेशन पर लगे नलकों से ही अपनी प्यास बुझाते थे ....

अगर सफ़र पांच छः घंटे का होता या इस से थोड़ा ज़्यादा भी होता और दिन का सफ़र होता तो बस एक खाली गिलास साथ रख लिया जाता। जैसे हम लोग अमृतसर से गाड़ी में बैठते तो स्टेशन से पूरी-छोले की ज़रुरी डोज़ लेने के बाद, पानी को गले तक फुल कर लिया जाता...टंकी फुल कर के ही सीट पर बैठते थे ....

लेकिन पंजाब की गर्मी के लू-के थपेड़े के दिनों में वह टंकी जालंधर तक ही खाली हो जाती ...फिर प्यास से परेशान...इतने में स्टेशन आ जाता और सब की बस इसी बात का ख्याल रहता कि डिब्बा पानी के नलके के सामने रुका है या दूर ....अगर तो सामने ही होता तो मांएं हिम्मत कर के बच्चों को गिलास थमा देतीं कि जाओ पानी पी लो और एक गिलास ले आओ....भेज तो देतीं लेकिन सांसे उन की टंगी रहती जब तक बच्चा वापिस डिब्बे में चढ़ न जाता ....

मेरी मां जैसी साहसी औरते भी होती थीं कुछ ....मुझे याद है मैं बहुत छोटा था ....लेकिन याद पक्की है मुझे....डिब्बे में से कोई भी बंदा बाहर पानी पीने जा रहा होता तो मां, अकसर उसे कहती.....भरा जी, जरा ऐन्नूं वी पानी पिया के लै आओ...।(भाई साहब, ज़रा इस को भी पानी पिला लाओ).....और वह बंदा मेरा हाथ थाम कर नीचे ले जाता और मैं उन दिनों इतना छोटा था कि मेरा मुंह पानी के नल तक ही न पहुंच पाता ....और वह बंदा अपनी दोनों हथेलियां मिला कर उस में पानी भर कर मुझे पानी पिला देता ...और मुझे वापिस गाड़ी में ले आता ....इस तरह के साहसी काम ज़्यादातर लुधियाना स्टेशन पर ही होते थे जहां पर गाड़ी 10-15 मिनट रुकती थी ....और वही पानी पी कर लोगों का पकौड़ों, भटूरे-चने और पूरी-छोले के खोमचों पर टूट पड़ना....

अच्छा, एक बात और दर्ज करनी बहुत ज़रुरी है कि पानी स्टेशन पर मिलता तो था लेकिन अलग अलग किस्म का ...लुधियाना, जालंधर जैसे स्टेशन पर पानी ठीक ठाक मिल ही जाता था ....लेकिन कईं बार कुछ लोग पानी की सेवा करने वाले डिब्बे डिब्बे में पहुंच कर ठंडा पानी पिलाते थे ....

मैं बस लिखना यही चाहता हूं कि उन दिनों ये प्लास्टिक की बोतलें नहीं थी चाहे, लेकिन प्यास बुझाने में कोई दिक्कत न आती थी ....पानी मिल ही जाता था ....प्लेटफार्म पर या किसी न किसी स्वयं-सेवी संस्था द्वारा सेवा के रूप में ही ....भीषण गर्मी के दिनों में लोग अगले स्टेशन का इंतज़ार करते थे कि वहां पर तो ठंडा पानी मिल ही जाएगा...सब लोग तसल्ली से पीते थे और जिस किसी के पास कोई कैनी (छोटा-मोटा कैन) होती वह उसे थोड़ी बहुत भरवा भी लेता....

प्लेटफार्म पर हैंड-पंप भी बहुत काम के होते थे ......गाड़ी से यात्रा करने का जितना मेरा अल्प-ज्ञान है, उस के आधार पर मैं जब याद करता हूं तो यह जो दिल्ली से फिरोज़पुर लाईन पर बहुत से स्टेशन ऐसे थे जहां पर पानी की मुफ्त सेवा करने लोग पहुंचे होते थे और दूसरी बात यह की बहुत से स्टेशनों पर हैंड-पंप का ठंडा पानी भी उपलब्ध रहता था ....गाड़ी के रुकते ही वहां भीड़ जमा हो जाती थी ...कौन उस नल को गेड़ रहा है कौन पी रहा है, कोई हिसाब किताब नहीं...बस, गाड़ी जब तक खड़ी रहती, उस हैंड-पंप से ठंडा-मीठा पानी निकलता रहता......जब पानी पी पी के बंदों के पेट ऑफर से जाते .....मतलब और कोई गुंजाइश न होती ...तब लोग उस ठंडे जल से मुंह धोने लगते .....और अपने परने (अंगोछे) गीले करने लगते ....चूंकि अकसर ये हैंड-पंप किसी बहुत पुराने बरगद, शीशम के पेड़ के नीचे होता तो यह नज़ारा भी देखने लायक होता था .....उस पेड़ और उस हैंडपंप के लिए एक कृतज्ञता का भाव स्वतः पैदा हो जाता था ....

लिखते लिखते एक बात याद आ रही है कि कुछ स्टेशन वहां के खारे नमकीन पानी के लिए भी जाने जाते थे क्योंकि वहां पर पानी तो लोग जैसे तैसे मजबूरी में पी लेते थे लेकिन चाय वाय वहां की पसंद न की जाती थी- नमकीन पानी वाली चाय कोई कैसे पिए......

अच्छा, एक बात है जब लोग रात में सफर करते या लंबा सफ़र करते तो साथ में एक मश्क में पानी भर ले कर चलते...मेरी सब से पुरानी याद है 1967-68 के आस पास की ..हम लोगों ने अमृतसर से फ्रंटियर ट्रेन पकड़ी है, फर्स्ट क्लास के एक डिब्बे में हम सब एक साथ हैं...मेरे पिता जी एक बहुत बढ़िया एल्यूमिनियम की फ्लॉस्क लाए थे ...जिस का ढक्कन भी एल्यूमिनियम का होता था . एक चेन से बंधा हुआ ...बाहर एक मोटा सा फेल्ट जैसा कपड़ा लगता होता था ...एक तो उस में पीने का पानी था और दूसरी हमारे पास एक पानी की मश्क थी .. जिस में यही 1-2 लिटर पानी आता होती ...जिसे मेरे पिता जी रस्सी से उस डिब्बे की खिड़की के साथ बांध रहे हैं, ताकि हवा लगने से पानी ठंडा हो जाए.....यह नज़ारा मेरी यादों की स्क्रीन पर यूं का यूं मानो फ्रीज़ हुआ पड़ा है ....

अच्छा, 1970 के दशक के थोड़ा इधर उधर की बात याद करें तो लंबे सफर में पानी की सुराही लेकर चलने का रिवाज चल निकला था ....नहीं, मैंने यह क्या लिख दिया ...रिवाज.....

रिवाज वाज कुछ नहीं, उन दिनों सब कुछ ज़रूरत से तय होता था ....

हां, तो सुराही लेेकर सफर में चलना तो है लेकिन घर से जब रिक्शे या तांगे पर स्टेशन आते थे तो उस वक्त वैसे ही इतना भारी भरकम सामान - बड़े बड़े लोहे के 1-2 ट्रंक और एक बड़ा सा बिस्तरबंद और अगर हमारी दादी भी साथ होती तो एक दो पीपे भी साथ होते थे ...(पीपे तो आप समझते ही होंगे, वहीं बड़े बड़े टीन के घी के खाली डिब्बे जिन पर ढक्कन और कुंडा लगवा लिया जाता था ....वैसे लगवाने की ज़रूरत न पड़ती थी, ऐसे डिब्बे बाज़ार में मिलते थे और उस दौर के बुज़ुर्गों के ये हॉट-फेवरेट होते थे क्योंकि इन में छोटा सा ताला (नाम के लिए बस...) लग जाता था और अगर ताला न भी मिलता तो सिर की सूईं मरोड़ कर उस से ताले का काम ले लिया जाता ....) ...

तो फिर सुराही तो स्टेशन ही से खरीद ली जाती थी ....अकसर स्टेशन पर मिल जाती। नहीं तो अमृतसर स्टेशन के बाहर दुकान से ये सुराही 8-10 रूपए में मिल जाती थी ....और पानी डाल कर उस की लीकेज भी चेक करवा के आना पड़ता था ...लेकिन वक्त की कोई टेंशन नही होती थी ....वक्त खुल्लम खुल्ला रहता था....गाड़ी छूटने से लगभग पौन-एक घंटा पहले आ जाएगा कोई परिवार स्टेशन पर तो सब के पास अपने आप काम करने के लिए टाइम ही टाइम होता था ....मैं अपना 2 रुपए वाला स्कूटर लेकर खुश हो जाता, बड़ी बहन अपनी कोई मैगज़ीन खरीद लेती, बड़ा भाई पूरी छोले खाने में बिज़ी हो जाता ....मां ट्रंक पर बैठी रहती, पिता जी सिगरेट के छल्ले उडाते हुए प्लेटफार्म पर घूमते रहते ....रिजर्वेशन का जुगाड़ करने में लगे दिखते....जी हां, उन दिनों सब काम जुगाड़ ही से चलते थे ....गाड़ी के अंदर बैठने तक पता नहीं होता था कि रिज़र्वेशन कंफर्म है भी या नहीं.....

और  मेरा काम था प्लेटफार्म के नल से सुराही को भर के लाना और उसे एहतियात से रखना .....कहीं टूट-फूट गई तो पंगा ...पंगा वंगा वैसे कुछ नहीं, हमारे यहां किसी को, कभी भी, कुछ भी हो जाए डांट-वांट लगाने का कुछ चलन नहीं था, लेकिन सब लोग वैसे ही विचारशील थे ...छोटे, बड़े सभी। यही हमारी सब से सुखद यादें है। हां, भरी हुई सुराही पानी की होती थी तो सफ़र आराम से कट जाता था ... ज़रूरत न होने पर भी बार बार पानी पीने की इच्छा जाग जाती थी ...मानो उस में पानी न, शरबत भरा हो .... 

पहली बार प्लास्टिक की बोतल देखी 1977 में....

मई 1977 के दिन, बम्बई सेंट्रल स्टेशन ....मेरा भाई हमें स्टेशन पर छोड़ने आया था...हमने डी-लक्स ट्रेन से अमृतसर जाना था ...जब पानी की बात चली तो वह जाकर एक प्लास्टिक की पानी की बोतल ले कर आया ....यह एक ब़़ड़ी सी डेढ़-दो लिटर क्षमता की पानी की खाली बोतल थी.....बिल्कुल पतले से प्लास्टिक से तैयरा, ऊपर ढक्कन लगा हुई था और पकड़ने के लिए या कंधे पर लटकाने के लिए एक पतला सा स्ट्रैप था .....हम उस बोतल को देख कर बहुत खुश हुए.....लेकिन सफर के दौरान उस में रखा पानी इतना गर्म हो गया कि उसे पीना दुश्वार था ...फिर कभी हम लोग उस पानी का प्लास्टिक वाली बोतल को लेकर सफर में नहीं गए....लेकिन हिंदोस्तानी घरों में कोई भी चीज़ को आसानी से फैंका नहीं जाता....मुझे याद आ रहा है माता श्री ने उस में कच्चे चावल स्टोर करने शुरू कर दिए......

मैं अपने ब्लॉग में अकसर लोगों को कहता हूं कि कुछ न कुछ लिखते रहा करें....कम से कम डॉयरी ही लिखा करें....इस का सब से बड़ा फायदा यही होता है कि पता नहीं कहां पर दबी पड़ी यादें उभरने लगती हैं....जैसे कि मैं एक बात भूल ही गया था कि एक दौर वह भी आया था जब 1-2 लिटर की सफेद रंग की कैनीयां (जैसे हरिद्वार में गंगा जल लाने के लिए मिलती हैं) मिलने लगी थीं, सफर में पानी साथ लेकर चलने के लिए। बाद में तो बड़ी बड़ी पानी के कैन लेकर लोग देिख जाते थे .....अगर आप की उम्र भी पक चुकी है तो आप भी ये सब देखते देखते ही पके होंगे....

लेकिन हां, अगले कुछ ही सालों में वो एक,डेढ, दो लीटर वाली ईगल और सैल्लो की मजबूत सी बोतलें बिकने लगी थीं ....जिन्हें सफर में लेकर जाया जाता ....पानी अकसर ठीक ठाक ठंडा भी रह जाता.....हमने भी ऐसी ही एक ढ़ाई लीटर वाली बोतल भी खरीद ली, बाद में एक बढ़िया सी ईगल की पांच लिटर वाली बोतल भी खरीद ली.....जाते थे कभी कभी इन को सफर में साथ लेकर ....ठंडे पानी से भर कर। गाड़ी में एक दूसरे को पानी की ज़रूरत होती तो लोग आगे बढ़ कर उसे पानी दे देते.....किसी का बच्चा पानी की प्यास की वजह से अगर रो रहा होता, या गर्मी की वजह से किसी बुज़ुर्ग बीबी का दिल घटने लगता ....इन सब के लिए इस तरह की पानी की बोतलें बडे़ काम आती थीं.... 

एक बात और बहुत बार 1980 के आस पास की बातें हैं...एक ईगल की लंबी से फ्लास्क में हम लोग घर में फ्रिज में जमी बर्फ डाल कर उस में ले जाते थे ...पानी को अच्छे से ठंडा कर के पीने के लिए....। 

बस, सब कुछ सही सलामत चल रहा था कि अचानक ये 15-20 रुपए वाली पानी की बोतलें हमारी ज़िंदगी में आ गई ....हर तरफ़ प्लास्टिक के अंंबार लगे हुए हैं.....हर तरफ़ पहा़ड़ बन रहे हैं प्लास्टिक के ....जो फिर धीरे धीरे हमारी ज़िंदगी में ज़हर घोल रहे हैं...हवा, पानी के ज़रिए.......लेकिन हम हैं कि हमें किसी की कोई नसीहत असर नहीं करती, हमें माईक्रोप्लास्टिक वाली बात किताबी लगती है....

पोस्ट बंद करने का वक्त है...पानी की बातें हुईं तो बारिश याद आ गई ...और बारिश की याद आते ही बहुत से गीत याद आने लगते हैं....यह गीत भी मेरे दिल के बहुत करीब है ....जिस तरह की हूक से मेघ को बुलाया जा रहा है, उस का दिल तो पसीजना ही था.....


PS....यह जो मैंने ऊपर सुराही की फोटो चसपा की है, वह गूगल से ली है.....एक से एक बढ़ कर फैंसी सुराहीयां दिखीं मुझे गूगल सर्च के बाद ...लेकिन यह सुराही मुझे उस सुराही से मेल खाती दिखी जिसे हम लोग सफर पर चलने से पहले अमृतसर स्टेशन के बाहर की किसी दुकान से खरीदा करते थे ....सुनहरी, मीठी यादें....😎😂...आप भी इस टापिक से बावस्ता अपनी यादें नीचे कमेंट में लिखिएगा....अच्छा लगेगा...

गुज़रे दौर के लोग और बच्चे इतने सीधे थे कि जा कर ट्रेन के वॉशरूम से ही पानी पी लेते थे, मांं बाप बाद में उन को मना करने लगे कि वह पीने वाला पानी नहीं है।

 


 


देश के कईं हिस्से पानी की मार झेल रहे हैं इस वक्त....ईश्वर से प्रार्थना है कि सभी जगह पर सामान्य हालात हो जाएं, लोग सुखी और स्वस्थ रहें, उन का पशुधन भी स्वस्थ रहे .....पानी की दीवानगी से सभी बचे रहें, निदा फ़ाज़ली ने सही फरमाया है .....
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने....
किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है ....


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

क्या आप के पास अपनी जन्म-पत्री है?...

आज कल एचआईएमएस सिस्टम में मरीज़ों की दवाई लिखने के लिए उसकी सेहत से जुड़ी बहुत सी बातें इस ऑन-लाइन सिस्टम में लिखनी पड़ती हैं....क्या कहते हैं हम उसे....इलेक्ट्रोनिक मेेडीकल रिकार्ड ---इस से उस का ईएमआर तैयार होता रहता है ....

लेकिन यह सब लिखते हुए मुझे कोई मरीज़ बीच में बार बार डिस्टर्ब करता है तो मैं अकसर उसे कहता हूं ...यार, दो मिनट ठंड रखो, इस वक्त मैं तुम्हारी सेहत की जन्म-पत्री लिख रहा हूं ...जैसे पहले पंडित बनाते थे न जन्म-पत्री, वैसी अब हम भी सेहत-पत्री बनाने लगे हैं....दो मिनट बाद बात करता हूं....

इत्ती सी बात ही से वह थोड़ा हंसने-मुस्कुराने लगता है और बेकार में बोझिल हो रहा माहौल थोड़ा हल्का-फुल्का हो जाता है ...


जन्म-पत्री का ख्याल मुझे आज अचानक नहीं आया....परसों मैं एक ऐंटीक शॉप पर कुछ नई चीज़ें देख रहा था ...नहीं, नई चीज़ें मैंने गलत लिख दिया ....ऐंटीक शॉप में चीज़ें तो सारी पुरानी होती है, पुरानी से भी ढेर पुरानी, पुश्तैनी कहिए या बाबा आदम के ज़माने की कहिए ..कुछ भी कहिए... मुझे उस दिन वहां दो जन्म-पत्रियां दिख गईं....बस, आज उन के बारे में लिखने की इच्छा हो उठी...

जन्म-पत्री को पंजाबी में क्या कहते हैं....? नहीं पता तो भी कोई बात नहीं, मैंने कौन सा सही जवाब के लिए कोई इनाम रखा है ....जी हां, पंजाबी में इसे टेवा कहते हैं....यह बच्चे के जन्म के बाद बनवाया जाता है ....वैसे तो कभी भी बनवाया जा सकता है, अगर जन्म की तारीख और वक्त सही से याद हो ...

हमारे घर में कभी इन सब चीज़ों पर किसी ने विश्वास नहीं किया...सीधे सीधे कहूं तो इन लोगों के पास इस तरह की बातों पर गंवाने के लिए पैसे ही न थे ( मेरे माता-पिता का और आगे हमारा भी इन सब में कुछ भरोसा है नहीं....)...इसलिए हम लोग बचपन ही से इन सब भ्रमों से दूर ही रहे ....(वैसे यह भ्रम नहीं है, बात में उस के बारे में लिखूंगा)....

हम जब बड़े हो गए, स्कूल कॉलेज जाने लगे तो अगर कोई मेरी माता जी से हमारी सही जन्मतिथि और समय के बारे में पूछता तो उन के वही जवाब....हां, इस का तो मुझे याद है ...चीन के साथ हमारी लड़ाई वाले दिन थे....और नवरात्रोत्सव के दिन थे ...

और साथ में हंसते हुए यह भी ज़रूर कह देतीं कि हमें अपनी होश नहीं होती थी ...कुछ दिनों बाद जब याद आता कि कमेटी में जा कर नवजात शिशु का नाम दर्ज करवाना है तो ऐसे ही जा कर अंदाज़े से कोई भी तारीख लिखवा आते थे ...कईं बार तो उस की भी ज़रूरत नहीं होती थी, जब स्कूल की कच्ची-पक्की क्लास में दाखिला लेने जाते और बच्चे की सेहत, कद-काठी, समझ-बूझ देख कर मास्टर जी को जितनी उम्र ठीक लगती, वही टिका दी जाती ....

चलिए, हर वक्त के लोगों की अपनी मजबूरियां होती हैं, अपने मुद्दे होते हैं, इस पर कोई टिप्पणी करना भी हिमाकत होगी....

ज़ाहिर है, जब सब कुछ अंदाज़े से ही हो रहा था तो जन्म-पत्री बनाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था ....लेकिन इस अंदाज़े वाली बात से एक बात याद आ गई ...जब मेरी उम्र 30-40 बरस की थी तो मेरी मां ने एक बार मुझे बताया था कि दरअसल मैं तो एक और बच्चा चाहती ही नहीं थी। और इस काम के लिए मुझे आस-पड़ोस की सहेलियों ने जो भी खाने के लिए दवाईयां कहीं, मैं खाती रही, जो टोटके करने को कहतीं, मैं करती रहीं.....लेकिन इस का कोई नतीजा न निकला....ऐसे ही चार पांच महीने बीत गए.....फिर एक नेक पड़ोसन मिसिज़ कोल ने मां को समझाया ....बहन जी, अब बस करो.....होने दो। तब बात मेरी माता जी की समझ में आ गई.....(थैंक्यू,कोल आंटी जी, आपने तो मेरे को बचा लिया.... 😃.....वैसे वह कोल आंटी हमें बहुत प्यार करती थीं....बहुत प्यारी, नेक औरत ....लेकिन अभी हम स्कूल ही में थे कि स्तन-कैंसर से वह चल बसी थीं....बहुत बुरा लगा था....😌)....मुझे उन के कान में लटकने वाले झुमके बहुत अच्छे लगते थे ....मैं अब जब कभी अनुपम खेर की मां जी को सोशल मीडिया पर देखता हूं तो मुझे उन की याद आ जाती है....(वह भी कश्मीर की हैं, वैसे ही ज़ेवर पहनती हैं और कोल आंटी के जैसे ही बातें करती हैं)....

मां, इस बात से सब को सचेत किया करती थीं कि पहले कितनी अज्ञानता थी और अब गर्भावस्था में लोग एक दर्दनिवारक टिकिया लेने से पहले भी अपने डाक्टर से पूछते हैं....अच्छी बात है। 

हां, तो जन्म-पत्री बनवाने या न बनवाने की बात चल रही थी .....सब से पहला ज़िक्र इस का हमने 1972 के आस पास सुना....हुआ यूं कि मेरा बड़ा भाई प्री-मैडीकल में पढ़ रहा था ...बहुत इंटेलीजेंट....मैट्रिक की बोर्ड की परीक्षा में 100 में से 100 लाने वाला ....लेकिन उन दिनों उस का ध्यान खेल-कूद में कुछ ज़्यादा रहने लगा....खेल कर उसे खुशी मिलती ....लेकिन उस दौर में मां-बाप अपनी जगह सच्चे थे जो इस कहावत पर विश्वास करते थे .....पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे, कूदोगे होगे खराब। 

पढ़ाई अच्छे से करने का एक ही मक़सद होता था कि डाक्टर या इंजीनियर बनने पर नौकरी मिल जाएगी....(मेरा भी बीडीएस में एडमिशन बस इसी मक़सद से हुआ था कि कोर्स करने पर नौकरी लग जाएगी)....यह उस दौर के लोगों की सोच पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं है, जैसे देश-वक्त के हालात थे, वो जैसा सोचते थे ....अपनी एवेयरनेस और अपने संसाधनों के मुताबिक बिल्कुल सही ही सोचते थे ....

हां, मैंने लिखा कि मेरे बड़े भाई का मन पढ़ाई में लग नहीं रहा था ...तो एक बार हम जब नानी के पास अंबाला गए तो उसने उस का भी एक हल मेरी माता जी के सामने रखा। अंबाला छावनी में एक पंड़ित के पास ले गईं ...जिसने हिसाब किताब लगा कर बताया कि उस युवक पर साडे़-सत्ती (पंजाबी में साड़-सत्ती कहंदे ने)...है...पता नहीं, यह सुन कर मेरी मां और नानी की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई ....उसने कुछ उपाय बताया तो इन की जान में जान आई ....मुझे याद है हम लोग उस के नुस्खे को लेकर अमृतसर अपने घर चले गए....और याद है वह सामान इक्ट्ठा करने के चक्कर में घर में सब की हवा टाईट हो गई ....पता नहीं सात तरह के अनाज और भी पता नहीं कितना कितना अलग अलग मंहगा सामान जमा कर के किसी को दान में देना था ....

उपाय करना था ...सो किया ....

लेकिन .....उस का कुछ नतीजा निकला नहीं....

खैर, यह एक ऐपीसोड पहला और आखिरी है मेरे परिवार में जब हम लोगों ने इस तरह का कुछ उपाय-वॉय किया ....उस के बाद कभी हम लोग कभी इन सब चक्करों में पड़े नहीं.....

चलिए, पढ़ाई-लिखाई हो गई.....अब हम बहन-भाईयों की ब्याह-शादी का वक्त आया.....संयोगवश जिन परिवारों से नाते जुड़े वे भी जन्म-पत्री आदि में भरोसा न करने वाले थे .....और आगे बच्चों के भी न कभी टेवे बनवाए, न पत्रियां...

अभी मुझे लिखते लिखते ख्याल आया कि आज से शायद 25-30 बरस पहले की बात है, जब एक बात मुझे बड़ी अजीब लगती थी कि टेवा (जन्म-पत्री) अब कंप्यूटर पर भी बनने लगी है...किसी भी कंप्यूटर वाली दुकान से बन जाती है ....जो बचा खुचा भरोसा था वह इस कंप्यूटर वाली बात से चला गया।

हां, अभी तो राशि-फल का ख्याल आ रहा है ...जो अखबार में सप्ताह में एक दिन आता था कि फलां फलां राशि का  अगला सप्ताह कैसे बीतने वाला है ....रोमांचक लगता ....अच्छा लिखा होता तो मन खुश हो जाता....बिल्कुल रेलवे स्टेशन पर वज़न करने वाली मशीन पर लिखे संदेश की तरह ....जिसमें सब कुछ चंगा ही चंगा लिखा होता....खैर, 2007 में मैं एक ऐसे सत्संग से जुड़ा कि मैंने इस राशि-फल को पढ़ना भी बंद कर दिया ....और अभी भी नहीं पढ़ता हूं....

अब, एक बात और ....

यह जो मैंने लिखा कि हम लोग या मैं इन सब ज्योतिष-विद्या में, नक्षत्रों में विश्वास नही ं करते ....तो क्या इस से इस विद्या की अहमियत कम हो जाती है ...बस मैंने कह दिया ...और यह बात पक्की हो गई.....

नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है .....हम सब जानते हैं कि ज्योतिष-विद्या हो या नक्षत्रों का ज्ञान हो, ये सब विज्ञान है ...एक दम खरा विज्ञान ....लेकिन सीधी सपाट बात यह भी है कि इस विद्या को हम लोग समझ ही नहीं पाए,....या समझना ही नहीं चाहते हैं....बहुत से कारण है, बहुत सी स्वार्थी शक्तियां हैं जिन्होंने इस विद्या को जनमानस तक पहुंचने ही नहीं दिया.....आप का क्या ख्याल है ?.....यह मेरा पक्का विश्वास है ...मेरा क्या, साईंसदान आए  दिन सिद्ध कर रहें हैं कि भारतवर्ष की ज्योतिष-विद्या, खगोलविद्य .....नक्षत्र-गृहों का अध्ययन....यह सब प्राचीन काल से चर्मोत्कर्ष पर था ....बेशक मैं भी ऐसा मानता हूं....


लिखते लिखते ऐसे लगने लगा है कि विरोधाभास लग रहा होगा मेरी बातों में .....हां, वह तो मुझे भी लग रहा है ....सवाल यह की क्या मैं आस्तिक हूं या नास्तिक .....

मुझे भी नहीं पता इस का जवाब ....क्यों कि मैं किसी भी तरह के कर्म-कांड में विश्वास नहीं करता ....शायद यह इसलिए हो कि ये बातें मेरी समझ के परे की हैं ...मैं नास्तिक लग सकता हूं ...

लेकिन इतना भी यकीं पक्का है कि जो भी सत्ता इस कायनात को चला रही है उस की इजाज़त के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता .....आप कोशिश कर के देख लीजिए.....हम सब प्रारब्ध से बंधे हैं.... बेकार में एक दूसरे की टांग खींचते रहते हैं, मेंटल गेम्स खेलते हैं, मनूवरिंग करते हैं ........लेकिन होगा वही जो हमारे खाते में लिखा है ....मैं बस इतना ही समझ पाया हूं....

और हां, इस कायनात को चलाने वाली सत्ता पर अकीदा इतना पक्का है कि अगर यह न चाहे तो सिप और लिप के बीच की दूरी भी कोई माई का लाल तय कर के दिखा दे .....सच में वह जुमला ही नहीं, एक सांस बाहर गई लौट कर आएगी कि नहीं, हमारे हाथ में तो यह भी नहीं है......इसलिए हर श्वास के लिए अपने इष्टदेव का भरपूर शुकराना करते रहना चाहिए.....कोशिश करता हूं मैं भी ...लेकिन कभी कभी ......





जब पुरानी यादें उमड़-घुमड़ कर आने लगती हैं तो बहुत कुछ याद आ जाता है.....जैसे जन्मपत्री जब ब्याह-शादी के वक्त अदला-बदली की जाती है तो अकसर सुनने को मिलता था कि लड़के-लड़की के 36 में से 30, 32 या 36 गुण मिलते हैं....पर वही बात है ....पंजाबी में कहते हैं ...या राह पिया जाने, या वाह पिया जाने....

और हां, उस एंटीक शाप में मैंने जो जन्म-पत्री देखी, जितना में जल्दी जल्दी पढ़ पाया थो़डा बहुत ...उसमें यह भी लिखा था कि इस बालक का विदेश जाने का संयोग है, और आगे लिखा है, एक बार नहीं बार बार जाएगा.....मुझे याद आया कि हम लोग भी बचपन में अकसर सुनते थे कि फलां फलां की जन्मपत्री में विदेश यात्रा का संयोग है.....बस, सुनने वाले दंग रह जाते थे .....

और एक बात.....अगर टेवे में किसी लड़की या लड़के मंगलीक होने की बात लिखी होती तो बड़ा झमेला हो जाता ....सारे गली मोहल्ले में वह बात आग की तरह फैल जाती कि फलां फलां की लड़की मंगलीक है ....और जैसे हम उन दिनों सुनते थे कि ऐसी शादी बहुत अशुभ होती है और शादी के बाद दोनों में से एक ......... ..... । लोग इस कल्पना से सहम जाते थे ... 

भगवान भली करे। 

और हां, एक बात और ...कईं बार जन्मपत्री बदलवा के (नईं लिखवा के) भी भिजवा दी जाती थी ....मतलब, सब कुछ चंगा ही चंगा ..शुभ ही शुभ.....यह सब तो मसाला हिंदी फिल्मों में ज़्यादा देखा है, असल ज़िंदगी में तो इतना नहीं देखा। 

इस जन्म-पत्री में और क्या क्या दिखा और क्या क्या पढ़ा, उसे के बारे में लिखने बैठ गया तो एक पोस्ट और लिखनी पड़ेगी। बाद में फिर कभी देखूंगा.....जब दिल ने चाहा वह सब लिखने को .....। लेकिन रोचक जानकारी थी उस में....मैंने पूछा कि इस के कितने दाम हैं....कहने लगा, लिख कर लगा रखा है .....1947 की जन्म-पत्रिका है ....एक हज़ार की है....। मैंने कहा कि इतने दाम में कौन खरीदेगा.....वह कहने लगा, यहां सब कुछ बिक जाता है ....फिल्म वाले ले जाते हैं बहुत कुछ .....किराये पर .....किसी सीन में उस का क्लोज़-अप दिखाने के लिए.....। कहने लगा कि ऐसी चीज़ें दुर्लभ हैं, अब नहीं कहीं दिखने वाली.......।

मैंने सोचा ठीक कह रहा है वैसे तो यह बात ....मैंने उस की जन्म-पत्री की फोटो खींचनी चाही तो कहने लगा कि हमारे सेठ ने इस के लिए मना किया है .....लेेकिन मैंने उस से एक ऐंटीक पेंटिंग खरीदी थी, इसलिए उसने मुझे मजबूरी में शायद दो एक फोटो खींच लेने दी......

क्या करता, मेरी भी मजबूरी थी....बिना फोटो के इस पोस्ट को लिखता तो किसी को लग सकता था कि ऐसे ही बैठे-ठाले लपेट रहा है .....😂

एक बात मुझे लगता है कि मैं दिल से लिखना चाह रहा था और लिख नहीं पाया ...चलिए, उस को भी लिख कर सिर-दर्द से राहत पा लूं......ज्योतिष-विद्या प्रामाणिक है, विज्ञान है, लेकिन जैसे आम लोग डाक्टर के पास जाने में, वकील के पल्ले पड़ने से, पुलिस के झमेले में पड़ने से डरते हैं....वैसे ही वे ज्योतिषी के पास भी जाने से डरते हैं...क्यों डरते हैं, यह आत्मचिंतन का विषय़ है .....जगह जगह पर, फुटपाथ पर, खोमचों में जैसे नीम-हकीम डाक्टर फैले हुए हैं, वैसे ही ज्योतिष की दो किताबें और पिंजरे में तीन तोते रख कर अपने आप को ज्योतिषी कहने वाले भी यहां वहां फैले हुए हैं.....कितने लोग बीमार होने पर ब्रीच-कैंडी, जसलोक या एस्कॉर्ट अस्पताल के डाक्टर के पास जा पाते हैं......मजबूरीयां भी तो बहुत बड़ी हैं.....हाई-फाई, ख्याति-प्राप्त, सुशिक्षित, अपने फ़न के माहिर ज्योतिषाचार्य तक क्या आप पहुंचने की कल्पना भी कर सकते हैं....। 




मंगलवार, 19 अगस्त 2025

गुड़ जैसी मामूली चीज़ में भी मिलावट !

गुड़ खाने से जुड़ी मेरी सब से पुरानी याद वह है जब मैं नया नया स्कूल जाने लगा….बिना किसी क्लास के …(आज कल तो बाज़ारवाद ने इसे कईं नाम दे दिए हैं…प्ले-स्कूल, प्री-नर्सरी, प्री-के.जी आदि) …जिसे कहा जाता था कि नियाना (बच्चा) स्कूल जा के बैठने का वल (ढंग) सीख रहा है ….और मुझे याद है उन दिनों मुझे एक पीतल की छोटी सी चिब्बी सी हो चुकी डिब्बी में एक परांठा दिया जाता था जिस के अंदर मां गुड़ की एक डली दबा दिया करती थी….और पिता जी जाते वक्त मेेरे नन्हे से हाथ में एक दस पैसे का पीतल वाला बड़ा सा सिक्का रख देते ....


पढ़ाई-वढ़ाई, बैठने बिठाने का सलीका तो क्या सीखना था….बस, एक काम होता था कि वहां जाते ही उस डिब्बे में से उस परांठे और गुड़ का लुत्फ़ उठा कर घर लौट आना है ….खुशग़वार दौर की प्यारी यादें…


जब हम छोटे थे तो यह स्नैक्स वैक्स का कोई चक्कर नहीं होता था …बीच बीच में कच्चे चावल चीनी के साथ खा लेने और गुड़ की एक डली खा लेना …..यह भी हमारा ऐश करने का ढंग था…


गुड़ के मीठे चावल खाना, मक्की की रोटी के ऊपर देसी घी-गुड़ रख के खाना, कईं बार आम रोटी को भी ऐसे ही खाना, गुड़ से बनी शक्कर को भी ऐसे ही खाना……रोटी के साथ देसी घी और गुड़ खाना तो लगभग रोज़ होता था …खास कर जाड़े के मौसम में।


वैसे अभी मुझे लिखते लिखते याद आ रहा है कि यह गुड़-वुड की ऐश करने के दिन जाड़े के मौसम के ही होते थे …क्योंकि जाडे़ के दिनों में ही बाज़ार में नया गुड़ बिकने लगता था ….मुझे अच्छे से याद गर्मी के मौसम में हमें वैसे भी गुड़ खाना अच्छा नहीं लगता था …क्योंकि उस मौसम में पुराना सा अजीब सा थोड़ा थोड़ा अजीब सा सख्त और थोड़ा काले से रंग का गुड़ बाज़ार में बिकता था …इसलिए उस गर्मी के मौसम में घरों में गुड़ बहुत कम लाया जाता था …..सर्दियों का इंतज़ार रहता था ….


गुड़ की शक्कर को चावल में डाल कर खाने का भी मैं बहुत शौकीन रहा हूं …देशी घी के साथ ….जौ का सत्तू पीना हो तो भी पहले गुड़ को पानी में घोला जाता था ….भुने हुए चने हों या हो मूंगफली …उस दौर के शुरू हुए अभी तक यह सब ऐसे ही चलता रहा है ….दरअसल उत्तर भारत में ऐसा ही चलन है ..वहां पर मूंगफली या तो रेवड़ी के साथ (रेवडी़ जो गुड़ और तिल से बनती है …कईं बार चीनी से भी बनती है, लेकिन उस में वो मज़ा कहां)....और सर्दी के मौसम में गुड़ से तैयार तरह तरह की गज्जक (जिसे कईं जगह पर चिक्की या पट्टी भी कहते हैं).....यह भी खूब खाई जाती है …

जाडे़ के मौसम में तो गुड़ लोग किसी न किसी रूप में खा ही लेते हैं ….और कुछ नहीं तो खाने के बाद थोड़ा सा खा लेना …क्योंकि यह बात लोगों के दिलोदिमाग में घर कर चुकी है कि इस से खाना अच्छा हज़्म हो जाता है …..


सर्दी के दिनों में गुड़ दुकानों में ही नहीं बिकता…बाहर गली-मोहल्लों में घोड़ा-गाड़ियों (पंजाबी में इन को को गड्डे कहते हैं) में भी गुड़ के ढेर रख कर गुड़ बिक रहा होता है ….तरह तरह का गुड़ ….सौंठ वाला गुड़….सौंफ वाला गुड़ भी बिकता है जिसमें नारियल के टुकड़े भी पड़े रहते हैं…..ये सब सर्दियों में ही दिखता है …और लोग घरों में भी तैयार करवाते थे …मुझे याद है मैंने कईं रिश्तेदारों के घर देखा कि वे इस तरह का गुड़ तैयार करवा कर बडे़ से डिब्बे में (पीपे) में स्टोर कर रखते थे …जाड़े के मौसम तक चलने के लिए ….हां, चलने से भी बात याद आ गई …गुज़रे दौर के लोगों को इस बात का भी पक्का भरोसा था कि इस तरह के गुड़ से सर्दी दूर भाग जाती है, और सभी जोड़ों (joints कहते हैं इनको इंगलिश में) में गर्मी का अहसास बना रहता है …


गुड़ का एक और इस्तेमाल बहुत होता था …जब कभी ज़्यादा जाड़ा होता था …गुड़ को देशी घी में पिघला कर उस में सौंठ और बादाम (अधिकतर तो वही मूंगफली ही हुआ करती थी…झूठ लिखने से मुझे कौन सा अवार्ड मिल जाना है, मेरा सिर ही भारी हो जाएगा) डाल कर खाया करते थे ….


मुझे लगता है मैं गुड़ के बारे में जितना लिखना था, लिख दिया कि कैसे यह हम लोगों की ज़िंदगी में मिठास घोल रहा है …..हां, हमारे यहां कभी कभी गुड़ की चाय भी बनती थी …सब दीवाने थे उस चाय के ….जब हम नानी के पास अंबाला जाते थे वह तो सब से ज़्यादा दीवानी थी….लेकिन फिर कुछ समय के बाद गुड़ वाली चाय को ऐसी नज़र लगी कि गुड़ वाली चाय का स्वाद अजीब सा हो गया….बिल्कुल बेकार…..और इस का कारण यही होगा कि उस में तरह तरह के मसालों (कैमीकल्स) की मिलावट शुरू हो गई होगी….


हां, गुड़ की मिलावट से एक बात का और ख्याल आ गया ….कि जब हम 20 बरस के करीब उम्र के हुए …आज से 40 साल पीछे देखता हूं तो यह बात होने लगी थी कि मसाले वाला गुड़ जो मिलता है वह सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, न ही खाने में स्वाद होता है….इसलिए गुड़ किसी विश्वसनीय दुकान से ही लेते थे ….ये वे दुकानदार से जो ग्राहक को मना कर देते थे कि अभी नया गुड़ नहीं आया, पिछला गुड़ पुराना है ….(नया गुड़ जाड़े के दिनों के आस पास ही आता था)...


मैं अकसर अपने ब्लॉग में लोगों को प्रेरित किया करता हूं कि जो भी मन में विचार आएं उन को लिखते रहा करें….मुझे नहीं लगता कि आज कोई किसी की बात सुनने को तैयार है …खैर, लिखने का फायदा यह तो है कि लिखते लिखते कुछ ऐसे विचार आ जाते हैं जिन के बारे में कोई चित्त-चेता भी नहीं होता …जैसे मुझे आज लिखते लिखते यह ख्याल आया कि पहले तो बढ़िया गुड़ हम लोगों को जाड़े के दिनों में ही मिलता था …गुड़ ही नहीं, गुड़ वाली शक्कर भी जाड़े के तीन-चार महीनों में ही बिकती थी …और उस के बाद लोग खरीदते भी नहीं थे। 


लेकिन अब तो बंबई जैसे महानगरों में गुड़ तो सारा साल बिकता है। कभी भी कहीं से भी कितना भी खरीद लो। 


मौसमी सब्ज़ियों का भी तो यही हाल है …जो सब्ज़ियां, या फल साल में दो तीन महीने दिखते थे, वे अब सारा साल बिकते हैं….कोल्ड-स्टोर वाली बात तो ठीक है, लेकिन मुझे नहीं पता कि कितना कोल्ड-स्टोर से आती हैंं और कितनी अप्राकृतिक ढंग से कीटनाशकों के बलबूते पर पैदा की जाती हैं ….तैयार की जाती है …प्रोड्यूस की जाती हैं…जो मौसमी सब्ज़ियों का स्वाद जब वे साल के कुछ महीनों तक मिलती थीं, वह स्वाद अब बिल्कुल नहीं है, फोकापन है ….नाम है बस। लेकिन यह बात तो वही लोग तसदीक कर सकते हैं जिन्होंने वह स्वर्णिम दौर देखा है, जीया है …..आज की पीढ़ी तो सब्जी खाती नहीं, उन्हें क्या पता कि कोल्ड-स्टोर की है, बेमौसमी हैं या अप्राकृतिक ढंग से तैयार की गई हैं….


मैं गुड़ का इतना दीवाना रहा हूं …लगभग रोज़ किसी न किसी बहाने गुड़ खाना अभी हाल तक भी चालू था…और नहीं तो भुनी हुई मूंगफली के साथ, और रोटी के ऊपर रख कर खुशी खुशी खाने का सिलसिला चल रहा था ……..


लेकिन आज तीन महीने और तीन दिन हो गए हैं, मैंने गुड़ को हाथ नहीं लगाया….उस तरफ़ देखा भी नहीं ….


ऐसा क्या हो गया, आप भी जानना चाहेंगे…..


हुआ यूं कि 17 मई 2025 के दिन सोशल मीडिया के पार्क में घूमते हुए मुझे एक वीडियो मिल गया …..उसने मेरी आंखें खोल दी। अब तक मैं समझता था कि गुड की मिलावट यहां तक होती होगी कि उस में कुछ कैमीकल्स (जैसे मीठा सोडा, बेकिंग सोड़ा आदि) डाल देते होंगे उस को गोरा करने के लिए (जिस की वजह से कईं बार गुड़ खाने के बाद एसिडिटी जैसी फीलिंग होने लगती थी)….लेकिन इस व्हीडियो ने जैसे मेरी आंखें पूरी खोल दीं….मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी ….कि इस तरह से बेकार, सड़े- हुए, फंगल से ग्रस्त गन्ने, कैमीकल और चीनी का इस्तेमाल किया जा सकता है ..गुड़ बनाने में …..इस व्हीडियो को मैंने नीचे एम्बेड कर रहा हूं, आप भी देखिए ….इसे देखने के बाद मेरी तो हिम्मत न हुई फिर से गुड़ की तरफ देखने की भी ….और मैं यह सोच कर और भी हैरान परेशान हूं कि अगर पंजाब जैसे खाते-पीते प्रांत में यह सब हो सकता है तो फिर दूसरी जगहों की तो बात ही क्या करें....



जो इस तरह की व्हीडियो हो उसे मैं खुद को ही व्हाटसएप पर भेज देता हूं …आज भी इस का याद यूं आया कि आज फिर मिलावटी गुड कहूं या नकली गुड़ की एक व्हीडियो दिख गई ….कोशिश करता हूं उस को भी नीचे लगा दूं…यहां तो बिना गन्ने के रस के ही कैमीकल्स और रंगों से चीनी के सहयोग से गुड़

तैयार हो रहा है ...




मैं यह भी समझता हूं कि इन एक दो व्हीडियो के आधार पर किसी चीज़ को बिल्कुल ही छोड देना, यह कहां की समझदारी हुई। ठीक है, बेवकूफी ही सही …लेकिन मेरी हिम्मत नहीं होगी कभी भी गुड़ खाने की ….दिक्कत यहां यह भी तो है कि हर कोई यही क्लेम करता है कि वह तो सब कुछ शुद्ध ही बना रहा है …ऐसे में चोर-साध में कौन फ़र्क करता फिरे, शुद्ध-अशुद्ध को कौन देखता रहे, न तो इतना वक्त है किसी के पास न ही इतना सब्र है ……मैं ऐसा समझता हूं कि अगर एक बार मिलावटी वाली कोई बात देख ली, और उस इशारे को समझ लेना चाहिए…..पढ़ने वाले सोचें तो सोचें कि ऐसे अगर खाने-पीने की छोड़ने लगे तो हो गया काम………कोई बात नहीं, मन ही जब नहीं मानता तो क्या करे कोई, एक बार चाय में मक्खी देखने पर निगली नहीं जाती ….जिन्हें यकीं है कि वह तो सब कुछ खालिस खरीद रहे हैं….वे खुशी खुशी खाते रहें…….मौज करें….मेरे लिए तो वही बात है कि चावल पके हैं या नहीं, एक चावल को छूनेे से ही पता चल जाता है ..

शनिवार, 16 अगस्त 2025

बस एक निवाले की ख़ातिर...

आज सुबह से झमाझम बरसात हो रही थी …बाज़ार में पहुंच कर, बाद दोपहर एक चौराहे पर मैं जैसे ही गाड़ी से बाहर निकला…मुझे एक फड़फड़ाहट जैसी कुछ तेज़ आवाज़ सुनी…आवाज़ कुछ अजीब सी थी …इधर उधर देखा …

और पास ही एक मुर्गा बेचने वाले का स्टॉल था …उस के काउंटर के पीछे एक प्लास्टिक का ड्रम पड़ा हुआ था…ड्रम मीडियम साइज़ का ही था…एक लम्हे के लिए एक मुर्गा ऊपर तक उछला….मैंने समझा यह गलती से गिर गया है ….लेकिन तभी अगले ही पल बिल्कुल सन्नाटा…


मैं उधर पास ही खड़ा हो कर देखता रहा ….प्लास्टिक के नीले ड्रम से आप समझ गए होंगे जिन के ऊपर ढक्कन लगा रहता था और अकसर हम आते जाते देखते हैं लोग उन में पानी जमा कर के रखते हैं ….और वैसे छुट्टियों के भीड़-भड़क्के में जब लोग उन में सामान भर कर ठसाठस भरी गाडि़यों में अपना सामान लेकर चलते हैं और किसी तरह भी धक्कम-पेल कर के उन को गाड़ी में ठूंस देना चाहते हैं तो इस तरह की हरकतों से कैसे भगदड़ में मौतें भी हो जाती हैं…..दिल्ली स्टेशन का हादसा याद आ गया होगा आप को ….


ये ड्रम ही मनहूस हैं ….अभी लिखते लिखते यह ख्याल आया ….हादसे हुए इन की वजह से….पहले से इन में कैमीकल होते हैं और फिर लोग इस में पीने का पानी भी स्टोर करने लगते हैं….खतरा तो है ही ….लेकिन आज दोपहर देखा कि बेचारे मुर्गों की तो इन की वजह से आफ़त है …खैर, मुर्गे तो इन ड्रमों के बिना भी कत्ल होते रहे हैं ….इन बदनसीबों का नसीब ही ऐसा हुआ…..


कहीं पढ़ा था ….

जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की, उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया…

मुर्गा बांग देता है दुनिया को जगाने का काम करता है और मारा जाता है ….


बात सटीक है बिल्कुल ….इस की अनेक उदाहरणें हमारे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं….चाटुकार लोग रस मलाई खाते दिखते हैं …और ……..(और क्या, सब जानते ही हैं….) 


हां, तो उस ड्रम से आवाज़ आनी बंद हो गई….उस स्टाल पर एक ग्राहक खड़ा हुआ था ….मैं भी थोड़ी दूर एक मिनट के लिए खड़ा हो गया…इतना तो मैं समझ चुका था कि इन मुर्गों की अब खैर नहीं… अब उस ड्रम से निकाल कर इन की चमड़ी उधेड़ कर, काट कर ग्राहक के हवाले कर दिया जाएगा…..जा, बना ले सेहत, कर ले हासिल जबरदस्त ताकत और फिर ….। 


इतने में पास ही की एक गली से वह दुकानदार आता दिखा….उस के हाथ में चार-पांच मुर्गे थे, टांगों से पकड़ कर उसने उन को उलटा किया हुआ था …आते ही उसने उन को काउंटर के नीचे पटक दिया….वे बंधे नहीं हुए थे …लेकिन अधमरे से लग रहे थे जैसे इतने बीमार हों कि जद्दोजहद करने की ताकत ही खो चुके हों….


अब तक तीन-चार ग्राहक और आ चुके थे …बरसात का मौसम हो ..झमाझम बरसात, ज़्यादा ठंडी पड़ रही है तो नॉन-वेज और दारू की दुकानों पर तो खरीदारों का तांता लग जाता है …अब उस दुकानदार ने पहले एक मुर्गा उठाया, चाकू से एक झटके से उस के गले पर वार किया…और उसे ड्रम के अंदर पटक दिया….वह एक बार छटपटाया। फिर एक और मुर्गे का भी यही हश्र हुआ…उस के बाद उसने एक मिनट से भी कम के लिए उस ड्रम के ऊपर ढक्कन रखा और उस के ऊपर बैठ गया….जैसे ही उसने ढक्कन खोला, माल बिकने के लिए पूरी तरह से तैयार ….


यह सब देख कर मन बहुत विचलित हुआ….बहुत ज़्यादा ….


वैसे जिस तरह से बड़े बड़े ट्रकों में सैंकडे मुर्गों-मुर्गियों को ट्रांसपोर्ट किया जाता है ….एक दूसरे से सटे हुए, डरे सहमे हुए …और शायद स्टीरॉयड दवाईयों के टीकों से त्रस्त….अपनी जान छूटने का इंतज़ार करते ये परिंदे ….


फिर ये ट्रक अलग अलग बाज़ारों में मीट-मुर्गे की दुकानों के सामने रुकते हैं …माल उतारने के लिए….और फिर जिस तरह से इन को बेरहमी से बाहर निकाल कर, तराज़ू के ऊपर तोलने के लिए फैंका जाता है, वह मंज़र भी देखते नहीं बनता….


और कईं बार मैंने दस-बीस मुर्गों को उन की टांगों से बांध कर किसी मजदूर के कंधों पर एक लंबी रस्सी की मदद से टंगे देखा है जो इन को इन की मंज़िल तक पहुंचाने का काम करता है। कईं बार साईकिल के कैरियर पर भी दोनों तरफ़ उल्टे टंगे मुर्गे आपने भी ज़रुर देखे होंगे और बहुत बार मैंने स्कूटर की पिछली सीट पर भी इसी तरह से मुर्गे ढोए जाते देखे हैं…उन की टांगें बंधी हुईं और उल्टे लटकाए हुए….


अब जब इन की ढुलाई देखता हूं …इस तरह से उल्टे लटके हुए और टांगों से बंधे हुए तो मैं क्या कर सकता हूं….?


मैं कुछ नहीं कर सकता …..न ही कुछ कह सकता हूं ….पता लगे मैं ही कहीं उल्टा लटका पड़ा हुआ …पर एक काम तो मैं हर बार तबीयत से करता हूं ….मेरे पास जो भी पंजाबी गालियों का एक अच्छा-खासा खज़ाना है ….उन में से दो चार पांच निकाल कर इस्तेमाल कर लेता हूं ….दिल ही दिल में और अगर अभी अकेला हूं तो बहुत धीमी आवाज़ में ….


मैं जानता हूं ये लोग भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए यह काम कर रहे हैं….लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जो तर्क-वितर्क से परे होती हैं …


यह सब लिख रहा हूं ….इस की कोई धार्मिक वजह नहीं है ….मुझे पता है सभी धर्म-मज़हब के लोग ये सब खाते हैं …..और वैसे भी दुनिया में जो भी वैज-नॉन वैज चीज़ें उपलब्ध हैं, सारी दुनिया में वे सब खाई जाती हैं….दुनिया में लोगों का खान-पान, पहरावा, बोली …..सब कुछ अलग थलग है ….यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है ….इस तरह के खानपान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना बिल्कुल हिमाकत है ….मैं यह भी सोचता हूं ….जो किसी को पसंद है, खा रहा है …..


मैं नहीं खाता नॉन-वेज पिछले 30-32 बरसों से तो यह मेरा व्यक्तिगत मामला है …. इस से न तो मैं कोई बहुत बड़ा धर्म का ठेकेदार हो गया ….न ही मैं इस से आदरणीय फौजा सिंह की तरह 100 साल तक जीने की उम्मीद कर सकता हूं ….हर इंसान के कुछ खाने या न खाने की अपनी वजह है ….बस, इतनी सी बात है ….


मेरी वजह जानना चाहते हैं आप ….!!

तो सुनिए, 1994 में इन्हीं दिनों की बात है …हम लोग पूणा गये हुए थे …एक होटल में गए, वहां पर और कुछ समझ नहीं आया तो नॉन-वेज मंगवा लिया ….

लेकिन यह क्या, यह कमबख्त कैसा नॉन-वेज था, चबाया ही नहीं जा रहा था ….

हम लोग बिना खाए, बिल चुकता कर बाहर आ गए…

जब हम लोगों ने बंबई में आ कर कुछ दोस्तों से बात की तो उन से हमें पता चला कि हमें क्या परोसा गया होगा…….बस, उस दिन से कभी मटन-मुर्गा खाया नहीं, छूआ नहीं …और ताउम्र छूने की कोई मंशा नहीं है ….


बात धर्म-मज़हब की नहीं है …..वैज्ञानिक तौर पर भी हमारे दांतों की, हमारी आंतों की संरचना इस तरह की है कि उस परवरदिगार ने हमें शाकाहारी ही बना कर भेजा है ….और संसार में आकर हमारा मन यह सब खाने को मचलने लगा ….


बहुत सुनता हूं कुछ लोगों की मजबूरी है यह सब खाना….भई, मैं किसी को मना नहीं कर रहा हूं….जो किसी को पसंद होगा वह वही खाएगा….लेकिन क्या कोई मुझे मेरी बात कहने से रोक सकता है…..मेरे मन की जो बात है वह तो मैं ढंके की चोट कर कह कर ही रहता हूं ….यह तो हम सब का हक है। 


अपनी बात ही नहीं हांकते रहना चाहिए….दूसरों की भी करनी चाहिए…..कल मेरा बेटा बता रहा था कि उसने किसी अच्छी जगह से कोई वेज-सैंडविच आर्डर किए….

आ गया सैंडविच …..

लेकिन उसने जैसे ही एक बाइट ली ….उसे पता चल गया कि यह तो नॉन-वैज है …

उसने शिकायत की, पैसे वापिस हो गए …यह तो कोई मुद्दा ही नहीं है, और इन कंपनियों के लिए कितनी सामान्य सी बात होती होगी….जब उसने बताया कि उन का जो फीडबैक फार्म था, उस पर एक कॉलम ही था कि क्या आप को वैज मील की जगह नॉन-वैज मील भेजा गया……लेकिन जो भी है, अगर किसी ने बरसों से यह सब खाना छोड़ रखा है और गलती से वह इस का एक निवाला भी खा ले तो उस के लिए कितना ट्रामैटिक हो सकता है ….जान दीजिए….हां, निवाले से मुन्नवर राणा की लिखी बात याद आ गई ….

एक निवाले के लिए मैंने जिेसे मार दिया,

वह परिंदा भी कईं दिन का भूखा निकला ….


( जी हां, भूखे ही होते होंगे ये परिदें कईं दिनों से …..अकसर खबरें दिखती रहती हैं कि इन को तरह तरह के स्टीरॉय़ इंजैक्ट किए जाते हैं, और फीड भी एनाबॉलिक स्टीरायड से लैस होती हैं ….ये सब मीडिया में दिख जाता है ..लेकिन इस से इन का वज़न तो बढ़ जाता होगा, भूख इन की कहां मिटती होगी…!!


मौके-बेमौका देख कर मैं शाकाहारी खाने की हिमायत करता हूं और साथ में कह देता हूं कि इस बात में बिना वजह धर्म-मज़हब न घुसाएं….सुन है तो सुुनिए, अगर एक कान से सुन कर दूसरे कान से बाहर निकाल फैंकनी है, यह भी उन का अधिकार है …और जो खाना चाहते हैं, खा रहे हैं ….उस का फैसला करना उन का अधिकार है, अगर हम किसी रास्ते पर चल रहे हैं कुछ अरसे से तो जो उस रास्ते पर चलने की कोशिश करना चाहते हैं उन को एक इशारा करना तो अपना फ़र्ज़ बनता है, दोस्तो. …..



और ये इशारे भी सोच समझ कर करने होते हैं ….अब जैसे मैंने कुछ महीनों से मिल्क-और मिल्क प्रोडक्ट्स को लगभग त्याग रखा है ….लगभग न के बराबर ….सिर्फ चाय में बिल्कुल जो थोड़ा दूध जाता है, उस के बिना मैं नहीं रह सकता….और दूध से बनी कोई चीज़ नहीं लेता….कभी कभी जब कहीं पर बेसन के लड्ड़ू पड़े दिख जाते हैं तो यह नियम भी टूट जाता है ….जैसे आज शाम भी टूट गया ….जब चाय के साथ तीन बेसन के लडडू खा लिए ….क्या करें, कुछ आदतें छूटती नहीं …..लेेकिन देसी घी, मक्खन, दही….आईसक्रीम, रबड़ी, लस्सी….. पिछले चार महीनों से इच्छा ही नहीं …..


क्या कारण था यह सब छोड़ने का?


कोई खास नहीं, बस वितृष्णा सी ही हो गई इन सब चीज़ों से ….क्योंकि मिलावट की, नकलीपन की इतनी खबरें देख लीं कि इन सब से किनारा ही कर लिया…..


लेकिन हां, इस तरह के फैसले का जो भी अंजाम होगा, देखा जाएगा…..एक प्रयोग ही सही….लेकिन अभी तो इन सब चीज़ों की तरफ़ लौटने का कोई इरादा नहीं है ….बाकी, मुझे भी नहीं पता कि इस के कितने नुकसान होंगे, कोई एक फायदा होगा भी या नहीं….जो होगा, देखा जाएगा…..शायद इसीलिए मैंने किसी दूसरे को मिल्क या मिल्क प्रोडक्ट्स का त्याग करने की सलाह कभी न दी है और न ही दूंगा…..वैसे यह मेरा अधिकार क्षेत्र भी नहीं है, हां मैं अनुभव ज़रूर साझा कर सकता हूं….


PS....1. पोस्ट में जितने भी मंज़र (आज वाला भी) मैंने ब्यां किए हैं, उन सब से जुड़ी तस्वीरें मेरी फोटो गैलरी में हैं, लेकिन मैंने जानबूझ कर नहीं चस्पा कीं क्योंकि बेकार में ये किसी को भी विचलित कर देंगी...




मैं इस पोस्ट में कहीं यह भी लिखा है कि मैंने इतने बेसन के लड्डू एक साथ खा लिए चाय के साथ और मैं अपराध बोध से ग्रस्त हूं…वह इसलिए कि मुझे लगा कि ये भी देशी घी से तैयार हुए हैं…लेकिन पोस्ट पब्लिश करने के बाद यूं ही इस डिब्बे को (जिस की फोटो ऊपर है) उठा कर इधर उधर कर के देखने लगा तो यह अपराध बोध भी कुछ तो कम हुआ….इसलिए कि इस को तैयार करने में वनस्पति तेल ही इस्तेमाल किया गया है। जो भी हो, इतने लड्डू एक साथ खाने, और वे भी शक्कर, तेल से भरपूर….यह भी तो इस उम्र में एक बेवकूफ़ी ही कही जा सकती है, समझता हूं ….लेकिन कभी कभी निदा फ़ाज़ली की बात याद आ जाती है ….


दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है….

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला ….


शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

50 बरस पहले देखी "शोले" से जुडी़ यादें....








पिछले कुछ दिनों से अखबार में शोले से जुड़ी बहुत सी बातें पढ़ रहा था, यू-ट्यूब पर कुछ कुछ देख रहा था इस फिल्म से जुड़ा हुआ….मुझे ऐसे ही ख्याल आया कि हम सब के पास एक कहानी है और वह कहानी हमें कहनी चाहिए….


अच्छा, शोले से जुड़ी मेरी यादों से पहले गांधी जी की यादों की एक बात कर लूं….एक किताब है गांधी जी की आत्मकथा…सत्य के साथ मेरे प्रयोग। इस किताब के बारे में भी बचपन से ही जानते थे …और मज़े की बात है कि मैंने इस किताब को शायद चार या पांच बार ज़रूर खरीदा भी होगा….लेकिन पता नहीं कभी एक दो पन्ने पढ़ कर रख दी ….और फिर वे ऐसे गुम हो जातीं कि कभी फिर दिखी ही नहीं….खैर, असल बात यह थी कि इसे पढ़ने की कभी इच्छा हुई ही नहीं….



लेकिन कल क्या हुआ कि मुझे यही किताब इंगलिश में लिखी हुई मिल गई…यह किताब ठीक 100 बरस साल पुरानी लिखी है …गांधी जी इस आत्मकथा का परिचय भी ज़ाहिर सी बात है बापू ने ही लिखा है …और चार पन्ने के उस परिचय को गांधी जी ने साबरमती आश्रम में 26 नवंबर 1925 को लिखा है ….



बेहद रोचक किताब है…रोचकता के साथ साथ यह प्रेरणात्मक है, मैं सोच रहा था कि यह हर उम्र के इंसान को पढ़नी चाहिए….मैंने तो सब तरह की किताबें देखता-पढ़ता रहता हूं और इस आधार पर कह सकता हूं कि एक बार इसे पढ़ने लगें तो फिर इस को छोड़ने का मन नहीं करता …ऐसी ऐसी बातें हैं…रोचक, सूचनापरक…..और सब से बड़ी बात यह कि जब कोई सोलह आने सच बात कह रहा हो तो उस की विश्वसनीयता को तो चार चांद लगने ही हैं….

अभी मैंने 15-20 बीस पन्ने ही पढ़े हैं….दो पंक्तियां आप भी सुनिए…..


…..मैं राजकोट से पोरबंदर जाने के लिए तैयार हो गया…उन दिनों रेलवे होती नहीं थी, बैल-गाड़ी से जाने पर पांच दिन लग जाते थे …मैंने धोराजी तक तो एक बैल-गाड़ी कर ली और वहां से पोरबंदर जाने के लिए मैंने एक ऊंठ कर लिया ताकि मैं पोरबंदर एक दिन पहले पहुंच सकूं….पहली बार मैं ऊंठ के ऊपर यात्रा कर रहा था….

आखिर मैं पहुंच गया पोरबंदर …
(यह बात तब की है जब बापू की आयु 15-16 बरस की थी).....


अब आप देखिए, अगर इस तरह की मज़ेदार जानकारी से भरपूर बातें किसी ने 100 साल पहले लिखीं तो न यह हमारे पास पहुंची हैं, और हमने इस को सहेज कर रखा है ….


कट-टू-शोले फिल्म की यादें…


साल 1975 अगस्त का महीना ….मैं 12-13 साल का था, आठवीं में पढ़ रहा था …उन दिनों मेरी बड़ी बहन की सगाई की तैयारियां चल रही थीं और उस के बाद दिसंबर में होने वाली शादी की तैयारियां जोरो शोरों पर थीं…आज के जैसे शापिंग नहीं होती थी …शादी के लिए एक एक चीज़ के लिए बाज़ार अलग से जाना पड़ता था …तीन चार महीने चक्कर ही लगते रहे (कभी दुपट्टे पर गोटा, किनारी, कभी साड़ी की कढ़ाई, कभी गहने देखने जाना, कईं बार, फिर खरीदने जाना, कभी बेडशीट्स, कभी रज़ाईयां, फिर बर्तन, कभी सिलाई-मशीन, तो फिर फर्नीचर आइटम.....😂….कभी एक साथ सभी के, कभी मैं और मेरी बड़ी बहन ही जाते …यह वह दौर था जब लड़कियों को घर से बाहर जाने के लिए या तो सहेलियों का साथ होना ज़रुरी था या फिर घर का कोई सदस्य साथ ज़रूर जाता था …और यह सब तब था जब वह एम.ए (इक्नॉमिक्स) की पढ़ाई अच्छे से कर चुकी थीं….


खैर, जुलाई 1975 में हमारा दिल्ली जाना हुआ….वहीं से खबर मिली थी हमें कि शोले फिल्म आ रही है ..क्योंकि मैंने देखा कि हमारी एक बड़ी कज़िन …टेपरिकार्ड लेकर हर वक्त शोले फिल्म के डॉयलाग और गाने सुनती रहती थी….पहले एक चपटा सा टेपरिकार्डर होता था ..बस वह हर वक्त उस के पास ही होता ….और इतनी तन्मयता से वह उस टेप को सुनती थीं जैसे कोई सिलेबस का पाठ सुन रही हो ….10 साल के करीब हम से उम्र में बड़ी थी…और जब भी मैं या दूसरा कोई भी उन के कमरे में जा कर थोड़ा सा भी शोर करने लगता तो वह हमें कभी डांटती न थी , बस अपने होठों पर उंगली रख कर चुप रहने का इशारा ज़रूर कर देती थीं…..और हम भी सोचते कि पता नहीं क्या है इस टेप में …..


खैर, अगस्त 1975 में देश के दूसरे हिस्सों की तरह अमृतसर में भी शोले लग तो गई होगी…ज़रूर लग गई होगी…वैसे तो कुछ शहरों में फिल्म पहले लगती थी और कुछ में थोड़े हफ्तों के बाद ….लेेकिन अमृतसर शहर में तो कोई भी फिल्म कभी भी देर से नहीं लगी….जितना मुझे याद है …


थियेटर में लग फिल्म लग गई ….

स्कूल में जाते तो वही चर्चा …कोई सहपाठी देख आए, वे उस की बातें किया करते ….हमें भी था कि हम भी देर सवेर देख ही लेंगे…वैसे तो कोई बड़ी फिल्म लगने के कुछ दिनों तक तो अधिकतर लोग नहीं जाते थे …क्योंकि टिकटों की कालाबाज़ारी सरेआम होती थी …पांच रुपए की टिक्ट ..20 में, 30 में…खरीदने वाले थे ..लेकिन उन दिनों में हम ने कभी ब्लैक में टिकट नहीं खरीदी….हम लौट कर घर आ जाते थे …भुनते-कोसते उन ब्लैकियों को ….


जैसे कि मैंने लिखा कि शोले को देखने का तो उन महीनों में कोई चांस ही नहीं था क्योंकि दीदी की शादी की तैयारियों जोरों पर थी….(फिल्म के उतरने की कोई चिंता न होती थी उस दौर में...कईं कईं महीने एक थियेटर में लगी रहती थी फिल्म।)

लेकिन इन दिनों भी …जब तक शोले देखी नहीं, सिर पर सवार रही …

क्यों, वह कैसे ?

लीजिए, सुनिए…..मैं डीएवी स्कूल अमृतसर में पढ़ता था और दोपहर में लंच-ब्रेक के बाद हमारा साईंस का पीरियड हुआ करता था ….बोरियत से भरपूर….मिरर फार्मूला, कंकेव, कंवेक्स और बिजली की घंटी की संरचना और उस की कार्य-प्रणाली…..मैं तो वैसे ही साईंस के नाम से ही ऊब जाता था …और ऊपर से मास्टर जी का पढ़ाने का तरीका नीरसता से भरा हुआ….

लेकिन कहते हैं न कि हर बादल में सिल्वर लाईनिंग होती है …उम्मीद का दामन नही छोड़ने के लिए कहते हैं यह बात ….

वह हमारी भी बात बन गई….

उन दिनों बडे़ बड़े लाउड-स्पीकरों पर फिल्मी गीत बजाने का बड़ा रिवाज था …हमारी क्लास में ठीक उसी वक्त बाहर से शोले फिल्म के गाने बजने लगते ….सभी गाने ..एक के बाद एक ….वक्त का पता नहीं चलता …जब तक मास्टर जी अपने पास बुला कर बिजली की घंटी की संरचना पर रोशनी डालने को न कह देते …
फिर आगे क्या…..

वही, जिस का डर होता था ….

एक करारा सा तमाचा…..उन का हाथ भारी था और एक सोने की मोटी सी अंगूठी भी वह इस प्रक्रिया के दौरान पहने रहते थे ….किसी न किसी का रोज़ नंबर आ जाता था…..ज़ाहिर सी बात है मेरा भा आने ही था ….आया कईं बार …….लेकिन साईंस मुझे कभी समझ न आई आठवीं कक्षा तक …..नवीं कक्षा में मास्टर जी बदले और इंगलिश मीडियम में पढ़ाई शुरू हुई तो सब कुछ अच्छे से समझ आने लगा…..


अच्छा, बहन की शादी दिसंबर में हो गई तो उस के बाद मैंने अपनी मां को कहा कि मुझे भी शोले फिल्म देखने ले चलो…….वह कभी किसी काम के लिए मना नहीं करती थीं…कभी नहीं….ले गईं मुझे वह प्रकाश टाकीज़ (अमृतसर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने) में शोले फिल्म दिखवाने ….


मैं बड़ा डर गया……हां, डरने से याद आया …कुछ दिन पहले इसी शोले के बारे में मेरी बात एक मित्र से हो रही थी …उसने बताया कि उन के पापा को तो किसी भी थियेटर में फिल्म देखने के लिए पास मिला करते थे …लेकिन वह बच्चों को फिर भी फिल्म दिखाने नहीं ले कर गए क्योंकि यह फिल्म डाकूओं और डकैती के बारे में थी …..अब यहां से आप यह अंदाज़ा लगाइए कि पहले बच्चों को क्या देखना या क्या दिखाना है उस का भी कितना मजबूत सेंसर उपलब्ध था ….और अब देखिए अबोध बच्चों के हाथ में मोबाईल है …किसी को पता ही नहीं कि अगली रील में उसे किस नज़ारे के दीदार हो जाएं…..


फिल्म के गाने सभी मुझे बहुत बढ़िया लगे ….और मेहबूबा ओ मेहबूबा का म्यूज़िक तो मुझे आज भी 50 साल बाद भी बेहद पसंद है …..(और बाबी फिल्म के उस गीत के म्यूज़िक की तरह ….अंदर से कोई बाहर न आ सके…..) आर डी बर्मन - दा ग्रेट…..ग्रेट नहीं, ग्रेटेस्ट।


चलिए, फिल्म देख ली….और जैसे पहले होता था कोई भी फिल्म देखने के बाद अगले पांच-सात दिन तक दिलो-दिमाग़ पर उस का नशा तारी रहता था …..और देखने के बाद ही कहां, कोई फिल्म देखने से पहले कईं कईं दिन तक उस के बारे में सोचना,और स्कूल कालेज आते जाते रास्ते में उसके पोस्टर निहारने, और कभी उस थियेटर की तरफ से निकलना होता तो कुछ छोटे छोटे ट्रेलर टाइप पोस्टर (लेमिनेटेड तस्वीरें) देख कर ही मन को तसल्ली दे दी जाती कि देख लेंगे, जल्दी देख लेंगे.... हा हा हा हा हा ...मज़ेदार दिन, और चाश्नी से भी मीठी उस दौर की यादें....


रेडियो और लाउड-स्पीकर ….लेकिन दूसरी फिल्मों की तरह रेडियो पर शोले के गाने बजते थे तो मज़ा आता था….और हर गली-मोहल्ले में मौके-बेमौके (लाड़ले के मुंडन हों, या पीर बाबा पर मीठे चावल चढ़ाने हों या रामलीला या कोई ब्याह-शादी-सगाई…रिटायरमैंटी की पार्टी हो या कुछ भी जश्न- उन दिनों लोग मौके ढूंढ लिया करते थे) ….बडे़ बडे़ लाउड-स्पीकर लगा कर गीत बजते थे ….बस, फिर जब तक वह लाउड-स्पीकर बजता था, हमारी पढ़ाई चौपट और हमें यह राहत मिलने से बड़ा सुकून हासिल होता था ….और हम बीच में मौका मिलने पर उस लाइड-स्पीकर वाले के पास जा कर देख आते…कईं बार उसके पास ही बैठ जाते थोड़ी देर कि हमारी पसंद वाला रिकार्ड लगा दे…..( और वह लगा भी देता था…..उस का रुतबा वैसा था या उस से भी बड़ा जैसे आज कल डी.जे का होता है …) …और हां, होली के दिन भी इस तरह के रिकार्ड बजते थे ….और शोले का वह गीत भी …होली के दिन दिल मिल जाते हैं…. 


टीवी आ गया…..

हमारी तकलीफ आसान हो गई शोले फिल्म के दो तीन साल बाद ही ….टीवी आ गया …और उस के चित्रहार में उस गीत दिखने-सुनने को मिल जाते ….मुझे यह याद तो नहीं इस वक्त कि टीवी पर शोले फिल्म कब पहली बार दिखाई गई थी लेकिन इतना पक्का याद है कि जब लोकसभा या विधानसभा चुनावों का रिजल्ट आना होता था …मतगणना चलती थी जिस दिन उस दिन दूरदर्शन में सुबह से शाम तक 3-4 सुपर हिट फिल्में दिखाई जाती थीं ….और मुझे लगता है उसी सिलसिले में शोले भी ज़रूर दिखाई गई होगी…..


टेपरिकार्ड - तब तक वेस्टन-सोनी के टेपरिकार्ड भी आ गए थे और हम लोग हिंदी फिल्मी के गानों की टेप भी ले आते थे …मैंने 1978 में टेपरिकार्डर खरीदा था ….मैंने एक दिन इच्छा ज़ाहिर की और मेरे बडे़ भाई ने मुझे 2000 रुपए दिए कि जो पसंद हो ले आओ। उन दिनों मैं प्री-यूनिवर्सिटी में पढ़ता था ….शायद 16 या 17 सौ कर आया था, वेस्टन टेपरिकार्डर  ….अकेले बाज़ार जा कर वह मेरी पहली खरीदारी थी …फिर मैंने उसे अगले 8-10 तक बहुत घसीटा….


यह सिलसिला तब तक चला जब तक वीसीपी वी सी आर नहीं आ गए….फिर तो मनोरंजन की दुनिया ही बदल गई …आगे तो आप सब जानते हैं ….एमपी थ्री, सी डी, डीवीडी…..


लेकिन पुरानी फिल्मों के साथ - शोले, रोटी, दुश्मन, तलाश, रोटी कपड़ा और मकान, शोर, बॉबी, लव-स्टोरी…..चितचोर, घरौंदा, प्रेमरोग, हिना , डान, पलकों की छांव में, यादों की बारात, जूली, अखियों के झरोखों से, तपस्या…..परवरिश, अमर-अकबर-एंथोनी के साथ नाता जुड़ा रहा …..एक दम पक्के से ……..और यह आज भी बरकरार है। 


शोले फिल्म ने पूरे किए 50 बरस ……संयोग देखिए, महात्मा गांधी की किताब ने 100 साल पूरे किए और शोले ने 50 बरस…..पिछले कुछ दिनों से कुछ न कुछ खबर शोले के बारे में दिख जाती थी ..इस फिल्म से इतना ज़्यााद भावनात्मक जुड़ाव है कि अखबार के उस पन्ने की वह कतरन काट कर रखता रहा ….और एक बात, जो यह ब्लॉग पढ़ रहे हैं और इसे पढ़ते पढ़ते यहां तक पहुंचे हैं उन को यह बताना चाहता हूं कि आज की टाइम्स में भी शोले के बारे में दो-तीन पन्नों में सहेजी गई बहुत रोचक जानकारी है …..अगर ज़रूर देखिए और सहेज लीजिेेए, अगर चाहें तो …


शोले फिल्म मेरे लिए कुछ उन चंद फिल्मों में से है जिन को मैं कितनी बार भी देख सकता हूं …..चलिए, मैंने तो अपनी 50 साल पुरानी इस फिल्म के साथ जुड़ी यादें पाठकों के साथ साझा कर दीं….आप भी कुछ तो साझा करिए, अपने यादों के झरोखों से ….अच्छा लगेगा, और किसी को लगे न लगे, आप को ज़रूर लगेगा…..एक तरह से वे पुराने लम्हें फिर से जीने जैसा मौका मिलता है ….यादों की कड़ाहे में खोमचे मारने जैसा है ….पता नहीं कहां कहां से यादें उमड़-गुमड़ कर उभर आती हैं….


हां, एक बात तो लिखनी भूल ही गया….कुछ साल पहले मैंने एक किताब खऱीदी थी, यही कोई पांच सात साल पहले ….मेकिंग ऑफ शोले ….इंगलिश में लिखी यह बड़ी रोचक किताब है ….सोच रहा था कि आज ब्लॉग में उस में से भी कुछ लेकर शेयर करूंगा …लेकिन मेरे कबाड़खाने में मुझे कब कहां कुछ मिलता है वक्त पर ….नहीं मिली किताब। वैेसे भी शोले टॉपिक ही ऐसा है कि इस पर ब्लॉग तो क्या कोई भी एक किताब लेिख दे, वह भी कम पड़ेगी।


फिल्म में एक डॉयलाग था .....जब गब्बर पूछता है ....होली कब है ....उस के बाद आता है यह सुपर डुपर गीत ....तो चलिए, देख लेते हैं फिर एक बार ....यह गीत और इस तरह के गीत मैं एक बार दस-बीस बार एक साथ सुन सकता हूं ....पहले तो टेप को आगे पीछे करना पड़ता था, अब तो यू-ट्यूब के बटन के प्ले-बटन पर क्लिक ही करना है ....यह आसानी हो गई है .... हा हा हा हा हा हा हा ....



यह सब लिखने के बाद यही लग रहा है कि कुछ बढ़िया नहीं लिख गया….बस इत्मीनान है, जब डॉयरी में लिख रहे हैं तो जो भी दर्ज हो रहा है, मुबारक है। इस कुव्वत के लिए भी ईश्वर का तहेदिल से शुक्रिया ….