सोमवार, 29 सितंबर 2025

चूरन, सलेटी, ईमली और खट्टी-मीठी गोली पर मौज करता बचपन ...

 मैं स्वभाव से एक आलसी प्राणी हूं…मुझे रेडियो पर फिल्मी गीत, गज़लें सुनना और लेटे लेटे कुछ भी पढ़ते पढ़ते, बार बार चाय पीने में और ख्याली पुलाव बनाने में जो सुख मिलता है, वह कहीं और नहीं…..लेकिन कभी कभी लिखने के लिए उठना पड़ता है …क्योंकि कुछ दिन इसे न करिए तो फिर बहुत भारी भरकम काम लगता है …


कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम लिखते नहीं, वे कुछ अपने आप को लिखवा लेती हैं….कुछ बात ही ऐसी होती है…अब देखिए, यह जो मैं आज लिख रहा हूं, इस का ख्याल मुझे कल बाद दोपहर अपने एक सहपाठी की रील देख कर आया ….


स्कूल के दिनों से मेरे सहपाठी डा नवराज सिंह पंजाब में एक नामचीन सर्जन हैं….वे अकसर बड़े ज़रूरी मुद्दों पर रीलें बना कर डालते रहते हैं जैसे सांप का काटना, प्रोस्टेट ग्रंथी की समस्या, पित्ते की पत्थरी………और कल उन्होंने पीका नामक एक मेडीकल अवस्था पर रील डाली …कोशिश करूंगा, अगर वह रील आप से साझा कर सकूं ….


उन्होंने लिखा कि उन के अस्पताल में जो नर्सेस काम करती हैं, उन में से एक के बारे में उन को पता चला कि वह सलेटियां खाती हैं….(सलेटी को आज कल चॉक भी कहने लगे हैं, लेकिन पंजाब में तो इसे अभी भी सलेटी ही कहा जाता है …) ..


सलेटी यानि वह पतली सी सफेद रंग की एक पेंसिल नुमा पत्थर की शक्ल में मिलने वाली चॉक जिस से हम लोग स्लेट में लिखा करते थे ….अभी भी लिखने वाले लिखते होंगे….


2008 में मैंने मेरी स्लेट नाम से एक ब्लॉग शुरु किया था, पर्सनल ब्लॉग, अभी भी है ..लेकिन प्राईव्हेट, एक डॉयरी जैसा....

हां, तो जब इन को पता चला कि फलां फलां बच्ची सलेटी खाती है, तो इन्होंने उन सब बच्चियों का ब्लड-चैक करवाया, सब को पेट के कीड़े मारने वाली दवा दी और बाद में ऑयरन की गोली शुरू करवाई….खाने-पीने में ज़रूरी एहतियात बरतने की सलाह देते हुए ताकि शरीर में ऑयरन की कमी न हो….


जो लोग भी स्लेटी खाएं या मिट्टी खाएं, यह अकसर शरीर में रक्त की कमी की वजह से खाने लगते हैं…इसे मेडीकल भाषा में पीका (Pica) कहते हैं…ऐसा वह शौक से नहीं करता, वह मजबूर हो जाता है यह सब खाने के लिए….इस का उपचार यही है कि उस की रक्त की कमी को दूर किया जाए, खाने पीने का सही मशविरा दिया जाए और अकसर सरकारी संस्थानों में मुफ्त मिलने वाली ऑयरन की गोली लेने की सलाह दी जाए….



जैसा मैंने अनुभव किया है यह समस्या अधिकतर युवतियों और महिलाओं में पाई जाती है क्योंकि उन में खून की कमी पैदा हो जाने के बहुत से कारण हैं, जिन का समय रहते समाधान तो दूर, निदान तक नहीं हो पाता …..और वे ये सब खाने लगती हैं….


मुझे अभी याद नहीं आ रहा कि मैंने कुछ महीने पहले बंबई में, औरंगाबाद में या अहमदाबाद में कहीं पर सख्त सी मिट्टी की ढलियां रेहडी पर बिकती देखी थीं….फोटो भी खींची थी..लेकिन अब फोटो गैलरी में 35500 के करीब फोटो हैंं, आधा घंटा मशक्कत करता रहा, नहीं मिली, मैंने सोचा दफा करो….फोटो लगा कर मुझे कौन सा पदम-श्री मिल जाना है …लिख रहा हूं, लिख कर अपनी बात रख दूंगा…


हां, तो उस रेहडी पर दूसरा सामान जो बिक रहा था, वह तो अकसर हम लोग देखते ही हैं …ईमली सी, कैरी थी (छोटे छोटे कच्चे आम), छोटे छोटे खट्टे बेर, और भी कुछ कुछ जिन का मुझे नाम नहीं आता…लेकिन एक तरफ़ काली मिट्टी के सख्त से ढेर भी थे, दूर से पत्थर लग रहे थे ….लेकिन नर्म थे. मेरे मुंह से इतना तो निकल ही गया कि क्या यहां यह सब भी बिकता है ….


बिकता है तभी तो रेहडी़ पर सजा हुआ है ….यह भी कोई पूछने वाली बात हुई….

जो महिलाएं उम्मीद से होती हैं, उन को ईमली या खट्टी चीज़ें खाना अच्छा लगता है ..इस से उन को मार्निंग-सिकनेस (सुबह सुबह उल्टी होने जैसी फीलिंग) से निजात मिलती है…..हिंदी फिल्मों में नहीं देखा कि जब किसी का पांव भारी दिखाना होता है तो उस बहुरिया से एक उल्टी करवा देते हैं या फिर उस को थोड़ी सी ईमली खाते दिखा देते हैं …….बस, इतनी सी बात जब दादी सास तक पहुंचती है तो यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है ….


जो महिलाएं उम्मीद से हैं उन में से भी कुछ चाक, स्लेटी, मिट्टी खाने लगती हैं या वैसे भी जिन में खून की  कमी होती है, वे ये सब खाती हैं और यहां तक की कोयला भी खा लेती हैं….लकड़ी वाला कोयला….और मैंने तो एक दो महिलाएं ऐसी भी देखी हैं जो मटके का या किसी मिट्टी के बर्तन को तोड़ कर उसे भी खा जाती हैं….


बार बार एक ही बात दोहराए जा रहा हूं ….यह एक रोग है …पीका और इस का समाधान है कि उस महिला में खून की कमी को दूर किया जाए जिस की वजह से उसे यह सब खाने की चाहत होती है….


अभी मैं इस टापिक पर लिखने लगा तो मुझे तो बहुत सी यादें आ गईं, इन सब चीज़ों की, चलिेए, इन को ब्लॉग में सहेज लेता हूं आज …


सलेटी, चॉक खाने वाले दिन …..


कोई माने या न माने हम लोगों में से अधिकतर ने कभी न कभी सलेटी तो खाई ही होगी….मैंने भी एक दो बार इस का लुत्फ़ उठाया है ….लेकिन हमारी क्लास में कुछ लड़के-लड़कियां अकसर स्लेटी खा जाते थे ….और कुछ नाक या कान में फंसा लेते थे ….दोस्तो, यह वह दौर जब यह सलेट-सलेटी स्कूल के बस्ते में लेकर जाने की दौर था या मजबूरी थी, यह भी कह लें…आज कल तो हम बहुत ऊपर उठ चुके हैं…..अकसर मैं भूल जाता हूं कि शायद अभी भी दूर-सुदूर इलाकों में ऐसे स्कूल होंगे जहां पर यह अभी भी चालू होगा ….शायद।


जहां तक मुझे याद है एक बार मैं भी यह स्लेटी नाक में फंसा बैठा था, और डाक्टर के पास जाना पड़ा था ….सब खुराफाती किस्म के बच्चों के कारनामे, और क्या। मां-बाप बेचारे डर-सहम जाते थे ….


लेकिन उन दिनों एक बात याद है कि जिस किसी का भी पता चलता कि वह स्लेटी या मिट्टी खाता है या खाती है, तो अकसर मेरी माता जी कहती कि उस के पेट में कीड़े होंगे …लेकिन यह बात अकसर कोई नहीं कहता कि उस में खून की कमी है, इसलिए वह यह सब खाता है …ठीक है जितनी उन दिनों अवेयरनैस थी, उस हिसाब से सब ठीक है। 


अब लगता है इस चाक मिट्टी सलेटी वाली बात को यहीं छोड़ना होगा …सीधी सीधी बात यह है कि अगर कोई इस तरह से कुछ भी ऐसा वैसा खा रहा है तो यह एक मेडीकल अवस्था है …पीका …जिस में खून की कमी होने की वजह से उसे इस तरह का अनाप-शनाप खाने की तलब होती है …उस का कसूर नहीं है, उस में खून की कमी पूरी की जानी चाहिए…। और इस के इलाज के लिए सब से पहले तो डाक्टर पेट के कीड़े मारने की दवा देते हैं और फिर उस की खून की कमी दूर करने के लिेए ऑयरन की दवाई शुरू होती है….


एक होता था जबरदस्त खट्टा चूरन ….


यह हमारे स्कूल में पुडिया में मिलता था….उन दिनों मिलने वाला सारा माल होता यही पांच दस पैसे का ही था…पांच पैसे में चूरन ले लिया…और फिर उसे खा लिया …इतना खट्टा, इतना जबरदस्त खट्टा कि मैं उस की खट्टास को ब्यां नहीं कर सकता….खाते वक्त तो मज़ा आ जाता था …लेकिन उसी वक्त दांत खट्टे हो जाते थे …और अकसर शाम होते होते गले में दर्द और रात तक बुखार हो जाता था और गले में दर्द इतना बढ़ जाता था कि थूक निगलना भी मुश्किल हो जाता था ….अकसर यह चूरऩ मैं कभी कभी ही खाता है लेकिन अकसर उस की वजह से बीमार पड़ जाता था….


मेरे पिता जी को यह पता था कि जब यह चूरन खाता है, तो इसकी तबीयत बिगड़ जाती है, इसलिए मुझे यही कहते थे कि तुमने चूरऩ खाया होगा। थोड़ी सी भी तबीयत ढीली होती तो परेशान हो जाते …साथ ही में रेलवे अस्पताल था, वहां कभी न ले कर जाते, क्योंकि उन के पास दवाईयां नहीं होती थीं…बस, दो चार दवाईयां होती थीं वहां….


पिता जी कैमिस्ट की दुकान से टैरामाईसिन कैप्सूल लेकर आते …और एक कैप्सूल लेते ही मेरी तो जान में जान आ जाती ….हां, साथ में मैं नमक वाले गर्म पानी से गरारे वरारे भी कर लेता, उन दिनों बच्चे बात मान लेते थे, मां मुलैठी चूसने को देती तो वह भी अनमने से दिल के साथ चबा जाता, लेकिन उस से बहुत राहत मिलती…और आज भी वह आदत बनी हुई है,….बेसन का पतला शीरा भी, बादाम-वाम डाल कर मां बना दिया करती थी….उसे लसबी कहते थे ….पता नहीं अपने घर के अलावा तो मैंने यह नाम कहीं सुना नहीं…..


लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तो पता चला कि वह चूरन कितना खतरनाक किस्म का होता था, उस में टारटेरिक एसिड मिला रहता था, (घर में कहते तो थे कि इस में टारटी मिली होती है, लेकिन बचपन में कौन सुनता है ये बातें)…..ऐसे चूरन को खाना कितना जोखिम का काम था, बड़े होने पर जाना….


हम ईमली, आमपापड़ भी खूब खाते थे ….


आज से 50-60 साल पहले ईमली की टॉफी मिला करती थी ….एक प्लास्टिक की पन्नी में मिलती थी ..रेट वही …सब चीज़ों का फिक्स रेट …पांच पैसे ..अब तो यह भी याद नहीं कि ये तो शायद पांच पैसे में 1-2 या ज़्यादा भी मिल जाती होंगी….लेकिन उसे खा कर मज़ा बहुत आता था ….एक दम खट्टा-मीठा स्वाद, मुंह का ज़ायका इतना बढ़िया हो जाता था….


और भी तो कितनी ऑप्शन्ज़ हुआ करती थीं….लेकिन अब तो उस ज़माने जैसा आम-पापड़ भी नहीं मिलता ....जब वह दुकानदार एक बड़े से टुकडे़ से उसे खींच कर देता और साथ में नमक छिड़क देता .... बल्ले बल्ले हो जाती....


पांच दस पैसे में ईमली भी मिल जाया करती थी, उस के ऊपर नमक छिड़क कर …..खाते रहो आधी छुट्टी के वक्त आराम से …और अगर एक आधा बीज खाते वक्त अंदर निकल गया और घर में आ कर कभी ऐसे ही बता दो कि आज ईमली की गिटक अंदर चली गई  तो कोई न कोई यह कह देता कि अब तो भई तुम्हारे अंदर एक ईमली का पेड़ उग जाएगा…जहां तक याद आता है यह शरारत मेरे साथ मेेरे पिता जी ही करते थे …लेकिन मैं तो सच में भई डर-सहम सा जाता था कि कितना बड़ा पेड़ होगा …कहां से निकलेगा ….कहां तक फैल जाएगा….


मैं एक जगह अपने ब्लॉग में कहीं लिखा है कि हम लोगों के वक्त ज़्यादा स्नैक्स-वैक्स नहीं होते थे, होते होंगे बाज़ार में, लेकिन हमारे लिए नहीं थे, इसलिए हम लोग बीच बीच में भूख लगने पर कुछ भी खा लेते थे …जैसे एक मुट्ठी में कच्चे चावल भरे, दूसरी में चीनी भरी और हो गए शुरु चबाने…..मुझे यह खाना बहुत पसंद था …और जब कभी ईमली दिख जाती तो उसे उठा लेते और एक हाथ में नमक रख लेते और मज़े से खाने लगते ….लेकिन ईमली की लफड़ा यही है कि दांत खट्टे हो जाते थे एक-आधे दिन के लिए…लेकिन उस उम्र में कौन परवाह करता है न अपने दांत खट्टे होने की और न ही दूसरों के दांत खट्टे करने की ….बस, छोटी छोटी चीज़ों पर मौज करने के दिन थे….।


पिपरमिंट की चकरी ….


पहले पिपरमिंट की गोलियां भी बहुत बढ़िया मिलती थीं, मुझे बहुत पसंद थीं….बॉय-गॉड एक गोली चूस लेने पर आत्मा तक ठंडक पहुंच जाती थी जैसे बनारस वाला पान खाने पर डॉन की अकल का ताला खुल जाता था…बेहद पसंद थी मुझे ये पिपरमिंट की गोलियां ….मुझे लगता है कि यह इसलिए था कि पहले उन गोलियों में पिपरमिंट की मात्रा अच्छी खासी होती होगी, अब तो पता भी नहीं चलता…..दाम वही सब के पांच या दस पैसे …सारी दुनिया जैसे हमारे लिए उन दिनों पांच दस पैसे के इर्द-गिर्द घूमा करती थी….और हां, पिपरमिंट की सफेद गोली गोल आकार की हुआ करती थीं….


मेरी सब से पहली याद है कि एक ऐसी पिपरमिंट की गोली जिस में एक धागा पिरोया होता था …चकरी कहते थे उसे….वही पांच पैसे में दो चार मिलती थीं….हथेली भर जाती थी पूरी ..स्कूल के पहले दिन पहली बार यह खरीद करना याद है अच्छे से मुझे ….हां, पहले तो उस चकरी को अपने हाथों में घुमा कर खेलते, थक जाने पर, धागा तोड़ कर खा लेेते….

वाह, मज़ा था पूरा उन दिनों में भी ….न कोई फ़िक्र, न फाका….


अब भी जब कभी ऐसे ही गले में ठंडक करने की तलब होती है तो इस विक्स से काम चला लेते हैं ….लेकिन इस 50 रुपए वाले पैकेट में वह पांच पैसे वाली गोली जैसी बात कहां….दूर दूर तक इन की कोई तुलना नहीं….न ही हो सकती है… चलिए, छोड़ते हैं उन हसीं यादों को ….


संतरे वाली गोली ….


वाह, भई वाह….संतरे वाली गोली भी अपनी फेवरेट हुआ करती थी …पांच पैसे की पांच, दस पैसे की दस ….एक दम ऐसे लगता था जैसे पूरे का पूरा एक संतरा उस गोली में घुस गया है …इतना मज़ा, बहुत खाते थे ….



बडे़ होने पर भी संतरे वाली गोली तो अपनी फेवरेट रही …मैं क्या, मेरी बहन क्या, मेरी मां क्या, इन लोगों को तो सफर शुरु करने से पहले संतरे वाली गोली चाहिए ही होती थी ….वरना मेरी बहन की तो तबीयत ही खराब हो जाती थी….इसलिए मैं जब भी उन को बस में चढ़ाने जाता तो पहले वह संतरे वाली गोली का एक पैकेट ज़रुर खरीद कर उन्हें दे देता…बस, उन की आंखों में चमक आ जाती…. हा हा हा हा हा …


बहुत लंबे अरसे तक ये दस बीस गोली के पैकेट 50 पैसे या एक रुपए में बिकते मिलते थे ….अकसर खाते रहते थे ….


इस में भी नहीं वह वाली बात ....बचपन की गोली वाली 😁

लेकिन फिर बदकिस्मती से थोड़ी बहुत डाक्टरी पढ़ ली ….एक रेत के कण के बराबर डाक्टरी के बारे में पता चला तो यह लगने लगा कि पता नहीं इसमें क्या डालते होंगे, किस हालात में इन को बनाते होंगे और कैसे हैंडलिंग करते होंगे ….बस, फिर वह संतरे वाली खट्टी मीठी गोली भी गई हाथ से ….कुछ अरसा पहले एक बहुत बड़े स्टोर में मिल गई ….वही पांच पैसे वाली संतरे वाली गोली …50 रुपए वाले पैेकेट में ….लेकिन स्वाद एक दम बेकार ….अभी याद आया तो फ्रिज में देखा तो अभी भी पड़ी हुई मिली……बस, खत्म करने के लिए खा लीं….कोई मज़ा नहीं आया …..


हेल्दी स्नैक्स …..


ऐसा नहीं था कि हमें 50-60 साल पहले स्कूलों में यही कचरा-पट्टी ही मिलती थी, बहुत कुछ हेल्दी भी मिलता था ….जैसे एक बट के पत्ते पर उबली हुई लाल या सफेद चावली (लोबिया और रोंगी कहते हैं हम उसे पंजाबी में) मिलती थीं, उस पर वह मां जैसी लगने वाली प्यारी सी माई उस पर नींबू निचोड़ कर देती थी। अब देखिए, जिस पीढ़ी ने इस तरह के स्नैक्स स्कूल में खाए हों, उन को मोमोज़ कौन खिला सकता है भला …..नहीं, खाये कभी …और न ही कभी खाने की इच्छा है ….


इस अपनी पसंदीदा शकरकंदी को मैं कैसे भूल गया ....यह भी तो मिलती थी हमें स्कूल में आधी छुट्टी के वक्त .



अभी इन पुरानी यादों की संदूकची यही कर रहा हूं बंद ….बाद में कभी खोलेंगे …किन्हीं दूसरी यादों को तलाशने के लिए …तब तक यह गीत सुनिए…(लिंक) ..यह गाना अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि इस में चूरन, गोली का ज़िक्र है ……इसलिए अपना सा लगता है यह गीत …..वैसे स्लेट-सलेटियां अब बातें हो गई बीते युग की ....ऐसे लगता है जब अपने परिवार के इस 9 महीने के बालक को एक टॉय-लैपटाप पर कुछ कोडिंग जैसा काम करते देखता हूं....


लगे रहो, भाई .....कल की तैयारी आज से ...



गुरुवार, 25 सितंबर 2025

चलिए, आज उस 40 साल पुरानी स्पोर्ट्स्टार मैगजीन में झांकते हैं....

 पिछले रविवार के दिन एक प्रेत-लेखक से साथ सारा दिन बिताने का मौका मिला  …प्रेत-लेखक यानि गोश्त राईटर …जो लेखक लिखता तो है लेकिन कहीं भी उस का नाम नहीं आता…नाम उस का आता है जो उसे लिखने के लिए हॉयर करता है ….


यह प्रेत-लेखक भी 80-85 के आस पास के हैं….नाम मैं नहीं लिख रहा, ज़रूरी नहीं है, उन्होंने मुझे मना नहीं किया लेकिन मुझे खुद ही लगता है….राज़ को राज़ रहने दो …जाने महफिल में फिर क्या हो!😀


उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने किन किन हस्तियों के लिए प्रेत-लेखन किया है ….किन पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी लोगों ने उन से लेखन करवाया है …कहीं पर भी जो भी छपा उन के नाम से नहीं छपा….लेकिन उन्हें इस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता….उन्होंने भरपूर लिखा है ….और अभी भी लिख रहे हैं…और मज़े में बंबई के जुहू इलाके में बढ़िया से फ्लैट में रहते हैं…


ये लेखक मेरे फूफा जी के छोटे भाई हैं….मेरे दिवंगत फूफा जी साउथ मुंबई के एक कॉलेज के प्रिंसीपल रह चुके थे, एक बहुत नामचीन ईकानमिस्ट ….और रिटायर होने के बाद उन्होंने बंबई में बहुत से शिक्षण संस्थानों के खड़े होने में अपनी निष्काम सेवाएं दी थीं…मैं जब भी उन को मिलने जाता तो उन के घर भी किताबों की अलमारियां देख कर दंग रह जाता था…


हां, तो उस प्रेत-लेखक के पास बैठ कर, उन की बातें सुन कर मज़ा आ रहा था ….उन के पूरे फ्लैट में किताबें, पत्रिकाएं और अखबारें ही फैली हुई थीं….चाय की चुस्कियां लेते लेते मेरी नज़र एक स्पोर्टस्स्टार मैगज़ीन पर पड़ गई …


मैंने उसे उठा लिया ….यह लगभग 40 चालीस पुरानी मैगज़ीन थी ….शायद मैं कल ज़िंदगी में पहली बार किसी खेल मैगज़ीन के पन्ने उलट-पलट रहा था …मैंने आजतक कभी भी एक भी खेल मैगज़ीन नहीं खरीदी…..क्योंकि मेरी खेलों में बिल्कुल भी रूचि ही नहीं, कोई समझ ही नहीं….अखबारों में भी जो स्पोर्टस के पन्ने होते हैं, मैंने उन को न तो पढ़ने की कोशिश की है न ही मेरी समझ में कुछ भी आएगा…काला अक्षर भैंस बराबर …..


खैर, कल जब मैं इस पत्रिका के पन्ने उलटा-पलटा रहा था …तो यह क्रिकेट और फुटबाल खेल की कवरेज से भरा हुआ था ….मुझे नहीं था उन से कुछ भी वास्ता…..लेकिन हां, एक बात मज़ेदार रही कि मुझे चालीस साल पुराने जो विज्ञापन दिख गए, उन को देख कर मुझे बहुत मज़ा आया….उन के बारे में आप से कुछ साझा करना चाहता हूं….




थम्स-अप …..


फ्रंट-कवर के अंदर वाला साईड में थम्स-अप का इश्तिहार दिखा जिस में सुनील गवास्कर और इमरान खां एक साथ बैठे थम्स-अप की बोतल का मज़ा ले रहे हैं। कांच वाली बोतल जो हमें बहुत लुभाती थी। उन की फोटो देख कर मैं यही सोच रहा था कि दोनों देशों के हालात भी इतने बरसों में कहां से कहां पहुंच गए हैं……





अवंती-गैरेली मोपेड


इस का विज्ञापन भी देख कर मज़ा आया…पुराने दिन याद आ गए…हालांकि जहां तक मुझे याद है उत्तर भारत के जिस हिस्से में मैं बहुत बरसों तक रहा ….वहां पर यह मोपेड नहीं चलती थी…वहां पर तो ज़्यादातर हीरो-मैजेस्टिक मोपेड ही चलती थी। चलती क्या थी, खूब चलती थी, दौड़ती थी…..जहां तक मेरी यादाश्त साथ दे रही है, उस के विज्ञापन के साथ लिखा रहता था कि यह एक लिटर में 65 किलोमीटर चल जाती है ….जब कि यह अवंती-गैरेली के एक लिटर में 81 लिटर तक चलने का लिखा है…यह विज्ञापन देख कर मुझे पता चला कि इसे केल्वीनेटर कंपनी बनाती थी …मैं तो समझता था कि केल्वीनेटर के केवल रेफ्रिजरेटर ही आते हैं….





लूना भी दिख गई यहां तो ….


इस मैगज़ीन में लूना के भी दर्शन हो गए …कितना अरसा हो गया था लूना को देखे ….लेकिन पंजाब में लूना भी खूब चलती थी ….सीधी सीधी सी बात थी ….यह अस्सी के दशक का वह दौर था जिन दिनों जिस की स्कूटर लेने की हैसियत नहीं होती थी, वह मोपेड ले लेता था …यानि हीरो-मैजस्टिक या लूना ….। और खास कर के कामकाजी महिलाओं के लिेए यह एक वरदान साबित हुई थी। पैट्रोल के खर्च की बचत तो थी ही ….


कुछ लघु-उद्योग करने वालों ने भी मोपेड खरीद ली थी ..जैसे जो लोग घर में पापड़-वडीयां बनाते थे या लिफाफे बनाते थे या कोई भी और काम-धंधा करते थे, वे अपना सामान मार्कीट में बेचने के लिए इस पर लाद लेते थे…..


एक खास बात जो मुझे बार बार खटक रही है …..आज से चालीस साल पहले लोग इतने भारी-भरकम नहीं थे, लोग दुबले-पतले, स्लिम-ट्रिम होते थे जो ये हल्की-फुल्की मोपेड उन को आसानी से ढो लेती थी ….एक बंदे को क्या, उस के पीछे उस की बीवी भी बैठ जाती थी….लेकिन अगर कोई तगड़ा बंदा बैठ कर चला रहा होता और पीछे उस के बीवी भी थोड़ी ज़्यादा तंदरुस्त सी ही होती …तो यह मोपेड इतना लोड न लेने के कारण बिल्कुल धीमी स्पीड से चलती …..फिर भी रास्ते में जिस का भी ध्यान इस मोपेड और इन की सवारियों की तरफ़ चला जाता, यह उन के लिए एक मनोरंजन जैसा होता …मानो कह रहे हों कि …अब क्या मोपेड की जान ले लोगे?


मैं जब इस मैगजीन में से इतनी तस्वीरें खींच रहा था तो वह प्रेत-लेखक हंसने लगे ….क्या करोगे इन तस्वीरों का। 


मैंने बताया कि इन की मदद से एक कहानी बुनूंगा ….तो बहुत खुश हुए….हां, हां, यह बात बढ़िया है …जो भी कंटेट मिले, उस में वेल्यू-एडिशन करते रहना चाहिए। 




व्ही-आई-पी ब्रांडो और क्रिस्टल स्पोर्ट …


वह दौर था जब मर्दों के अंडरवियर-बनियान के विज्ञापन भी पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे …इस मैगजीन में भी ये दोनों छपे हैं …मुझे एक और विज्ञापन जो उन दिनों खूब दिखता था ….व्हीआईपी…फ्रैंची। 


उस दौर के युवाओं की अंडरवियर की च्वाईस भी इन विज्ञापनों से ही प्रभावित हुआ करती थी….मैं सोच रहा था कि इन विज्ञापनों की तस्वीरें यहां ब्लॉग में लगाऊं या रहने दूं….फिर मुझे यही लगा कि एक तो लगा ही दूं…..मेरी उम्र के लोगों को तो वो दिन याद आ ही जाएंगे जब इतने बोल्ड विज्ञापन आते थे ….यह जो तस्वीर मैं यहां लगा रहा हूं, अगर हो सके तो उसमें पूरा लिखा वार्तालाप पढ़िए…


हम अकसर कह देते हैं कि आज कल मीडिया में, ओटीटी पर, फिल्मों में यह हो रहा है, वह हो रहा है …..लेकिन पहले भी कुछ कम न था, अपने वक्त के मुताबिक वे भी वक्त के आगे ही थे ….




बाटा का पावर ब्रॉंड - 


इस मैगज़ीन में एक विज्ञापन देख कर तो मज़ा ही आ गया…बाटा के पावर शूज़। मैंने यह भी खूब पहने हैं, लेकिन शायद इस से पहले नार्थ-स्टार के शूज़ आते थे …और मैंने इन को 1979 में खरीदा था…मैं ग्याहरवीं में पढ़ता था…अपनी बड़ी बहन के साथ बाज़ार गया तो उन्होंने मुझे नार्थ-स्टार के शूज़ दिलाए थे …125 रुपए के। आज 15-20 हज़ार तक के शूज़ पहनने के बाद भी उस नार्थ-स्टार वाले शूज़ नहीं भूला….क्योंकि उन दिनों मेरे पास दो ही जोड़ी शूज़ थे, एक तो लैदर के काले शूज़ और दूसरे यह नार्थ-स्टार के। और जहां तक मुझे याद है मैंने उन को अगले चार पांच सालों तक लगातार पहना….अब भी मैं जब बहन को मिलता हूं तो बातों बातों में उस के वह वाले तोहफे का ज़िक्र आ ही जाता है ….और मैं अकसर उसे कहता हूं कि मुझे उस दौर में उन दिनों उस शूज़ की बहुत ज़रूरत थी ….


पहले एक दो शूज़ होते थे …हम उन को पहन पहन कर घिस देते थे, जब वे फट जाते थे तो कईं बार मोची से मुरम्मत भी करवा लेना कोई बड़ी बात न होती थी….अब घरों में शूज़ रैक भरे होते हैं…कईं कईं महीने तक जिन शूज़ को पहनते नहीं, जब कभी पहनने के लिए उठाएं तो फटे मिलते हैं, पेस्टिंग उखड़ी पाते हैं, सोल क्रैक हुआ मिलता है …..महंगे से महंगे शूज़ का यही हाल है…। 




कावासाकी बजाज मोटरसाईकिल …


इस मैगज़ीन के बैक कवर पर कावासाकी बजाज मोटरसाईकिल का विज्ञापन भी देख लीजिेए….कैसे स्टंट किया जा रहा है, उसे भी देखिए….बस, जैसा आज कल लिखते हैं कि इस तरह से स्टंट मत करिए, यह प्रोफैशनल ने किया है, यह जोखिम का काम है….इस विज्ञापन में ऐसा कुछ नहीं लिखा है….


खैर, उस दौर में जिस दौर का यह मैगज़ीन है हमें तो तीन मोटरसाईकिल का ही पता था…एक तो राजदूत जिसे कहा जाता था दूध वाले खरीदते हैं, दूसरा फैशनुबेल येज्दी…और तीसरा थोड़ा रूआब वाले खरीदते थे …बुलेट …। मेरे बड़े भाई से मुझे 1986 जनवरी में येज़्दी मोटरसाईकिल मिल गया था ….मुझे उसे चलाने में बड़ा मज़ा आता था ….बस, उन सुनहरी यादों की तहें इस वक्त नहीं खोल रहा हूं….अभी उन को ठप्पे ही रहने देते हैं, बाद में फिर कभी देखते हैं….बाकी मुझे उस की आवाज़ बहुत पसंद थी…, मैंने उसे पांच-छः साल तक खूब चलाया….फिर वह आए दिन रिपेयर मांगने लगा और मुझे ऐसे लगने लगा कि वह पैट्रोल से चलता नहीं, पैट्रोल पी जाता है…..इसी चक्कर में सिर्फ 6500 रूपए में वह बिक गया 1990 में…..किसी आटो-मैकेनिक ने खरीदा था, उसने उसे बिल्कुल नया जैसा कर लिया और कईं सालों तक उसे मैं चलाते देखा करता था।  


तो चलिए, बहुत हुई बातें आज एक चालीस साल पुराने मैगज़ीन के ऊपर …..यह तो मात्र एक ट्रेलर ही रहा ….उस सब्जेक्ट के बारे में तो मैंने कोई बात की नहीं जिस के बारे में वह मैगज़ीन था, क्योंकि स्पोर्ट्स के मामलों में मैं बिल्कुल कोरा हूं….अंगूठाछाप …मैं अकसर कहता हूं कि जैसे किसी लेखक की किताब पढ़ना उसे मिलने के बराबर है, किसी पुरानी मैगजीन को देखना, उस में छपे कंटैंट को पढ़ना भी उस गुज़रे दौर की बहुत सी मीठी यादें को फिर से जी लेने जैसा अनुभव है…..


अब इन किताबों मैगज़ीनों की बातें चली हैं तो मैं दो बातें भी यहां दर्ज करना चाहता हूं…..


कपूर साहब मौसा जी…..


दिल्ली में हम लोग 1990 में श्रीमती जी के जी मौसा जी कपूर साहब के घर गए….वह दिल्ली में अध्यापक थे, रिटायर हो चुके थे, बहुत खुश-मिज़ाज इंसान, एक रात ही उन के पास ठहरे …बहुत अच्छा लगा था। पढ़ने-लिखने के शौकीन, कपूर साहब के कमरे में देखा तो हर तऱफ़ किताबें ही किताबें, इंगलिश के टीचर थे, अधिकतर इंगलिश की किताबें, मेज़ के ऊपर किताबें, नीचे किताबें, परछत्ती पर किताबें, पलंग के बॉक्स में किताबें, पलंग पर बिछे गद्दों के नीचे किताबें…..और उन किताबों के बारे में सुन कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, लगभग सभी जॉनर की किताबें थीं उन के पास…..चलो जी, सोने का वक्त आ गया…सो तो मैं गया उन के ही कमरे में …लेकिन सच मानिए मुझे रात में करवट लेते हुए भी डर लगता रहा कि कहीं दो चार किताबें ही न फट-फटा जाएं….


वह बहुत नेक इंसान थे, अभी नहीं रहे, लेकिन उस के बाद जब कभी किसी भी पारिवारिक समारोहों में मिले, मैं उन के साथ उन की किताबों के बारे में अपनी यादें साझा करता तो हम खूब हंसते। और अब उन के बेटे के साथ जब भी मुलाकात होती है तो उन के बुक-लवर डैड का ज़िक्र तो जरूर होता ही है ….


 देहरादून वाले चाचा जी ..


यह भी बात 1990 की है …हम लोग देहरादून वाले नाना जी (नाना जी के छोटे भाई) के घर गए….आलीशान घर ….देहरादून के पॉश इलाके में….उस वक्त उन की उम्र इतनी हो चुकी थी कि उन्हें ज़्यादा कुछ समझ नहीं आ रहा था ….उन्हें वन-विभाग के उच्च अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए बरसों बीत चुके थे …पढ़ते बहुत थे और किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं को संभाल कर भी रखते थे ….सामने एक बहुत बड़ा लोहे का ट्रंक पड़ा हुआ था ….(लोहे के बडे़ ट्रंक का मतलब ज़्यादातर हिंदोस्तानियों के लिए वह ट्रंक जिस में पांच सात रज़ाईयां, कंबल, बीसियों स्वैटरें, जैकटें सर्दी खत्म होने के बाद रख दी जाती हैं…) …लेकिन चाची जी ने बताया कि इस ट्रंक में इन की किताबें हैं, पुराने मैगज़ीन हैं, और बहुत पुरानी पुरानी अखबारों की कतरने हैं…., लेकिन रद्दी में नहीं देने देते, कहते कहते हंसने लगी…। 


अभी उस स्पोटर्स-मैगज़ीन में में छपी कुछ और तस्वीरें यहां साझा कर रहा हूं…




अप्रैल 1987 




और हां, पद्मिनी कोल्हापुरे भी दिख गईं एक विज्ञापन में ....




सोमवार, 22 सितंबर 2025

बरसों बीत गए भुट्टा खाए...

मुझे लगता है शायद बीस बरस हो गए होंगे …भुट्टा खाए हुए…कारण, ऐसा वैसा कुछ नहीं है …इसे हम लोग कभी भुट्टा नहीं कहते …हमारी ज़ुबान में इसे छल्ली कहते हैं….हां, काऱण, सिर्फ़ इतना है कि अब ये छल्लीयां जहां भी बिकती हैं, उन में वह पुराने वाला तो छोड़िए, कुछ भी स्वाद नहीं है ….बिल्कुल बकबकी सी लगती हैं अब छल्लीयां….क्या करें, अब उन को खाने की इच्छा ही नहीं होती तो कैसे खा लें….

कुछ दिन पहले मैं सोच रहा था कि मैं भी खाने-पीने के मामले में बड़ा ज़िद्दी हूं….अगर एक बार कुछ ठान लेता हूं कि नहीं खाना तो नही खाना….और मैं यही सोच रहा था कि बहुत सी खाने की चीज़ें मेरी ज़िंदगी से मिलावट की वजह से निकल गईं…..और बहुत सी ऐसी हैं जिन के स्रोत के बारे में अगर मैं आशवस्त नहीं होता तो मैं नहीं खाता ऐसी चीज़ों को …कोई बुरा मनाए, अच्छा मनाए….मैं तो दिल की आवाज़ सुनता हूं….


और हां, कुछ कुछ चीज़ें बदले हुए, बेकार हो रहे स्वाद की वजह से भी छूट गईं…यह सब इसलिए है कि हमने बचपन और युवावस्था में खानेपीने का सुनहरी दौर देखा है …अमृतसर में ….अमृतसर क्या और मथुरा क्या, उस दौर में लोगों को खाने के लिए अच्छा सी मिल जाता था…लालच नहीं था, कोई कीटनाशक इतने नहीं थे, स्प्रे न थे, गोबर की खाद ….और यह सब जेनेटिक्ली मॉडीफाईड का भी कुछ झँझट नहीं था…



यह छल्ली इसी वजह से छूट गई ….बंद गोभी, तोरई मुझे बहुत पसंद थीं, अब कभी कभी ठीक ठाक मिल जाती है तो खा लेते हैं…नहीं खाया जाता ….एक तो बात यह की पहले ये सब चीज़ें सारा साल नहीं बिकती थीं, साल के कुछ महीने ही होते थे बंद गोभी सर्दियों में, तोरई गर्मियों में ….और छल्लीयां भी गर्मी और मानसून के दिनों में ही बिकती थीं….अब तो पता ही नहीं कोल्ड-स्टोर से निकाल कर, अंधाधुंध कीटनाशकों का स्प्रे कर के सब कुछ सारा साल बिकने लगा है ….बस उन की रुह ही गायब है ….


दिक्कत यह है कि जिन लोगों की उम्र मेरे जितने पक चुकी है वही मेरी इस पोस्ट में लिखी बातों से रिलेट कर पाएंगे ….बाकी जिन लोगों ने वह दौर देखा ही नहीं, जो पले-बढ़े ही ये अजीब सी छल्लीयां भुट्टे खा कर हुए हैं, उन को मेरी बातें बोझिल लग सकती हैं….


पांच पैसे की छल्ली ….


आज से 50-55 बरस पहले की बात याद करता हूं तो छल्ली हमें पांच पैसे में मिल जाती थी …छोटी पांच पैसे में और बडी़ दस पैसे में …अब स्कूल से आते वक्त छोटे बच्चों के लिए वह छोटी छल्ली सी नहीं खत्म होती थी…


पूरी ईमानदारी से लिख रहा हूं कि वैसी छल्लीयां जो बचपन और युवावस्था में खा लीं, उन जैसी कभी नहीं खाई…….अब तो कोई स्कोप ही नहीं है ….अब तो भुट्टे इस तरह के बिक रहे होते हैं जैसे किसी खेत से नहीं सीधा किसी फैक्ट्री से निकल कर आ रहे हैं….उधर देखने की इच्छा नहीं होती, क्योंकि बे-स्वाद चीज़ को कोई क्या देखे, जो आदमी रूखा है, ऐंठन-अकड़ के रोग से ग्रस्त है, जब किसी को उस से ही मिल कर खुशी नहीं होती तो फिर यह तो ठहरा एक भुट्टा…..


कैसे तैयार होती थी छल्ली….


उन दिनों अमृतसर में मैं 50-55 साल पहले की बात कर रहा हूं….ये छल्लीयां बेचने का काम उत्तर-प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी लोग किया करते थे…..लकड़ी के कोयलों के बारे में तो आप जानते ही होंगे….उन पर ये छल्लीयां भुनी जाती थीं …और पान-चबा रहे उस छल्ली वाले या वाली के होंठ पान से लाल हुए होते थे ….पान चबाना साथ साथ चलता रहता था और हाथ में एक पंखी से हवा की जाती थी ….और एक दो मिनट में बेहतरीन छल्ली तैयार….फिर उसे अच्छे से साफ कर के, उस पर नमक-नींबू लगा कर हमे दे दिया जाता था …


बेहतरीन यादें….


बहुत बाद फिर हम देखते थे भुट्टे को जिस भट्टी पर भुना जाता था, उस पर हवा करने के लिए वह मशीन इस्तेमाल होने लगी जिसे कलई करने वाले इस्तेमाल किया करते थे …लेकिन शायद वह थोड़े वक्त के बाद बंद हो गई…..या मुझे ही नहीं दिखी….लेकिन एक छोटी सी अंगीठी पर छल्ली भुनने का दौर चलता रहा ….आज भी ऐसे ही भुनती होगी लेकिन अब कभी उस तरफ़ जाते ही नहीं ….

कहां कहां खाईं ये छल्लीयां…..


उन दिनों में पिकनिक स्पॉट पर, टूरिस्ट स्पॉट पर छल्लीयां बिका करती थीं …जैसे गिरगांव चौपाटी, जुहू चौपाटी और ऐसे सभी पर्यटक स्थलों पर ये बिकती ही थीं…और सब लोग बड़े चाव से खाते थे….जैसे बाद की पीढ़ी नूडल्स और मोमोज़ की दीवानी हो गई, हम लोग भुट्टे के दीवाने थे ….और यहां तक कि मनाली के आगे रोहतांग पास है ...सुना होगा आपने नाम....जहां बर्फ जमी रहती है ...15 बरस पहले जब हम लोग वहां पर गए तो वहां पर बिहार से आया एक प्रवासी व्यक्ति भुट्टे बेच रहा था ....बस से आता था सुबह मनाली से दोपहर में लौट जाता था बस में ...सारा सामान साथ लेकर आता था ...वहां वे भुट्टे खा कर अच्छा लगा था, भूख लगी हुई थी, यही भुट्टे थे जो आजकल मिलते हैं...बेस्वाद से .बकबके से.......लेकिन वहां पर ठीक लग रहे थे, शायद कमाल भूख का भी होता होगा....😎 हम लोग यही बात करते हुए हंस रहे थे कि पंजाब में तो हम ऐसे भुट्टों को देखते नहीं।


गर्म रेत में भुनी हुई छल्ली ….


रेत में भुनी हुई छल्ली का भी अपना ही ज़ायका होता था…जिसने यह सब खाया है वही जानता है। मुझे यह भी बहुत पसंद थीं……गर्मरेत में दबा कर इसे भूना जाता था…नमक-नींबू लगा कर मज़े से खाना …..वाह क्या दिन थे भई वो भी ….


और वह उबली हुई छल्ली ….


यह मैं पानी में उबली हुई छल्ली को कैसे भूल गया….यह या तो पूरी खा सकते थे जिस पर वह भुट्टे वाला बढ़िया सा मसाला और ईमली की चटनी लगा कर देता था और याद है बचपन में हम लोग उस ईमली की चटनी को चूसते हुए उसे खा जाया करते थे …


और हमेशा जब भी अमृतसर के दुर्ग्याणा मंदिर के बाहर लगने वाले नवरात्रि मेले में जाते थे तो वहां पर दोने में डाल कर छल्ली के उबले हुए दाने मसाले और मीठी चटनी के साथ मिलते थे …बहुत स्वादिष्ट …..


मक्का भुनवाने वाले दिन …


मक्का भी बचपन और जवानी का ऐसा साथी रहा कि इस से जुड़ी सभी बातें याद हैं….उस दौर में स्नैक्स का मतलब यही होता था कि भुजवा (भड़भूंजा पंजाबी में) के पास जा कर मक्का भुनवा कर लाते थे …शहर में कईं जगह इस तरह की भट्ठीयां होती थीं ..जहां पर अधिकतर महिलाएं यह काम बड़ी मेहनत से किया करती थीं….मैं पंजाबी में भी ब्लॉग लिखता हूं और पंजाबी में लिखना मुझे सब से अच्छा लगता है ….जो मैं कहना चाहता हूं सीधा कागज़ पर उतर जाता है ….हां, तो उस पंजाबी ब्लॉग में मैंने छः साल पहले 2019 में एक पोस्ट में ऐसी ही एक भट्ठीवाली बीबी के बारे में अपनी यादें दर्ज की थीं…..अगर आप पंजाबी पढ़ लेते हैं तो इसे मेरे पंजाबी ब्लॉग के इस लिंक कर पढ़ सकते हैं….


ਬਚਪਨ ਦੀ ਭੱਠੀ ਵਾਲੀ ਬੀਬੀ - बचपन की भट्ठी वाली बीबी …..उस के बारे में इतनी यादें हैं कि उन के लिए एक पोस्ट अलग से लिखनी होगी…लेकिन वैसे करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, लिख दिया है पंजाबी में …देखेंगे कभी अनुवाद करना हुआ तो हो जाएगा…..लिखना भी कभी कभी बोझिल काम लगता है ..जैसे मैंने इस भुट्टों के किस्से तो शुरु कर लिए हैं…लेकिन नींद आ रही है, लिखने की बिल्कुल इच्छा नहीं है, लेकिन मैं जैसा हूं मुझे पता है, अगर बात पूरी हो गई तो हो गई, वरना फिर रह जाती है ….बीसियों पोस्टें ऐसे ही आधी अधूरी पड़ी हैं लैपटाप में….. 


पंजाब में लोग मक्का खरीदते थे लेकिन पहाड़ी मक्का पंसद किया जाता था ….वह मीठा होता था….अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मक्का भी जैसे हमारे खान पान का अभिन्न अंग था…जब बरसात के बाद सर्दियों में छल्लीयां मिलनी बंद हो जाती थीं तो फिर सूखे मक्के को भुनवा कर ….फुल्ले खाए जाते थे …फुल्ले ..वही जिन्हें अब लोग पॉप-कॉर्न कहते हैं…..पंजाबी में हम फुल्ले ही कहते थे …थे वे कुछ नहीं, ज़ुबान थोड़े न बदलती है…अभी भी फुल्ले ही कहते हैं….सर्दी में ताज़े फुल्ले और साथ में गुड़ शाम के वक्त खाने का क्या नज़ारा होता था, मेरे पास लफ़्ज़ ही नहीं है उस को ब्यां करने के लिए….


मक्की की रोटी ….


मक्की की रोटी और सरसों का साग , यह मैं कैसे भूल गया…..बचपन ही से सरसों के साथ तो मक्की की रोटी खाते ही रहे हैं और साथ में मक्की की रोटी पर देशी घी या मक्खन रख कर गुड़ की शक्कर या गुड़ मेरा मनपसंद खाना रहा है ….अभी हाल तक ….कुछ महीने पहले गुड़ की मिलावट पर एक ऐसी दिल दहला देने वाली वीडियो देखी कि कईं महीने हो गए हैं गुड़ को हाथ नहीं लगाया…वैसे भी इसी बहाने मीठा खाना थोड़ा तो कम हुआ मेरा…..


लो जी 34 वर्ष पहले दिख गए कॉर्न-फ्लैक …..


1991 में पहली बार मैंने कॉर्न-फ्लैक खाए ….कुछ दिन जहां पर रहे वहां पर नाश्ते में ये दिख जाते थे …दूध साथ में रहता था, चीनी भी। अच्छा लगा था पहली बार खाना….फिर कभी कभी खाने लगे ….


शायद थोड़ा बहुत आईडिया तो हो ही गया होगा कि ये मक्के से ही बने हैं…

फिर तो कुछ बरसों तक ये कॉर्न-फ्लैक्स छाए रहे …खाते रहे हम लोग भी …फिर धीरे धीरे जब समझ आई कि जो चीज़ ताजा़ मिल रही है वह फूड है और जो पैकेट में आ गई वह प्रोड्क्ट हो गई ….


बस, ऐसे ही धीरे धीरे कॉर्न-फ्लैक्स से भी मोहभंग हो गया….एक तो कारण यही कि ये प्रोसैस्ड फूड है, दूसरा यही कि इसमें बहुत शक्कर डालनी पड़ती थी…धीरे धीरे छूट गया यह भी खाना….अब तो तरह तरह के फ्लेवर आ गए हैं, चाकलेट वाले, और भी पता नहीं रंग बिरंगे कौन कौन से ..लेकिन मैंने अगर कुछ छोड़ दिया तो फिर छोड़ ही दिया….


भुट्टे की सब्जी ..


पिछले कुछ बरसों से भुट्टे की सब्जी भी बनने लगी है …..लेेकिन हमें जैसे अब भुने हुए भुट्टे खाने में कोई रूचि नहीं है, वैसे ही अब भुट्टे की सब्जी में भी कोई दिलचस्पी नहीं है। बस, यही ख्याल आता है कि जो सब्जी है ही इतनी बेस्वाद सी, बकबकी सी ….वह कितना पोषण दे देगी……

और ये जो बेबी-कॉर्न हैं, ये भी अजीबोगरीब किस्म के दिखते हैं बाज़ार में ….ये कितनी बड़ी तोपे हैं कह नहीं पाऊंगा क्योंकि कभी इन को खाने का शौक नहीं रहा….


छल्ली के फ़ौरन बाद पानी पीने की मनाही ....मां की सीख


बातें याद आती हैं तो पहले उन को लिख देना चाहिए…हमारी माता श्री को हमारे भुट्टे खाने की आदत से कोई एतराज़ न था….लेकिन उन्हें बस यही फिक्र रहती थी कि छल्ली खाने के बाद कहीं यह पानी पी कर अपना पेट न दुखा ले …वैसे, उस दौर में एक और बात लोगों के दिलोदिमाग में थी कि तरबूज खाने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए वरना बीमार हो जाते हैं….फिर तो हमारी आदत ही बन गई कि छल्ली और तरबूज़ खाने के फ़ौरन बाद पानी नहीं पीना है ….


दूसरी बात यह भी कि जैसे घरों में समोसे, कचौरियां आती थीं -अकसर गिन कर …ऐसे ही दोपहर में बहुत बार सब के लिए एक एक छल्ली लेकर आते थे ….भुट्टे के पत्ते में रखा कर, और कभी कोई भुट्टे वाले के पास कोई कागज़ होता तो वह उन में रख कर दे देता….


घर में सिके भुट्टों में कहां वह बात .....


बात और ...बाज़ार में कच्चे भुट्टे भी बिकते थे ...लेकिन घर में लाकर उन को अंगीठी पर सेंक कर वह मज़ा नहीं आता था जो बाज़ार में बिक रहे भुट्टे खाने से आता था....और बाद में जब ये भुट्टे कुकिंग गैस पर घर में कभी सेंके जाते तो ........तो क्या, भई, एक दम बेकार.....अभी लिखते लिखते याद आई एक बात कि हम लोगों ने स्टोव पर घर में सिके हुए भुट्टे भी खाए हैं, कमबख्त भुट्टों में घासलेट की बास आया करती थी....


वैसे छल्लीयां उन दिनों मीठी ही होती थीं….यह तो मैं पहले ही कितनी बार लिख चुका हूं….अभी एक बात याद आ रही है कि घर में कभी कभी कॉर्न-फ्लोर की बात होती है ….मेरे विचार में कस्टर्ड पावडर में भी यह होता होगा…..उस के ऊपर शायद कुछ लिखा तो रहता है ….मुझे कस्टर्ड खाना बहुत अच्छा लगता था लेेकिन जब से मिल्क और मिल्क प्रोडक्ट्स से किनारा किया है …कस्टर्ड भी छूट गया …


चलिए, अब एक बात लिख कर बंद करूं …बहुत हो गया….पढ़ने वालों को बोरिंग लग सकता है .. क्या करूं, मैं तो जब अपनी डॉयरी लिख रहा हूं तो उसमें सभी बातें जो भी याद आती हैं, दर्ज कर देने को उतावला रहता हूं…जाते जाते यह भी लिखना होगा कि ये जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं और मल्टीप्लेक्स में 400-500 रुपए में मीठे-कोटेड-फ्लेवर्ड पॉप-कार्न वाले टब की बातें क्या एक ही संसार की लगती हैं….