एक शख़्स जिस फैक्ट्री में काम करता वह अंदर आते जाते वक्त बाहर खड़े वॉचमैन को देख कर मुस्कुरा देता ...वॉचमैन को भी अच्छा लगता क्योंकि नज़रे तरेर कर उसे देखने वालों की भीड़ में एक शख्स को था जो उस के वजूद की कद्र करता था....यह कोई कोल्ड-स्टोर टाइप की फैक्ट्री थी जिस में बड़े बड़े डीप-फ्रीज़र लगे हुए थे...तो हुआ यूं, दोस्तो, कि एक दिन वह शख्स अपने काम के सिलसिले में एक ऐसे ही फ्रीजर में काम कर रहा था ..कमरों जैसे बड़े बड़े फ्रीजर ही थे वे ...तभी फैक्ट्री बंद होने का सायरन बजा और गलती से उस फ्रीज़र का दरवाजा बंद करने वाले ने उसे किया बंद और सारा स्टॉफ बाहर चला गया..
बाहर बैठा वॉचमैन सोचने लगा कि सारा स्टॉफ तो बाहर आ गया है लेकिन वह ख़ास बंदा तो आया नहीं ..दूसरा कोई होता तो उसे पता भी न चलता लेकिन यह बंदा ख़ास क्यों था वह तो मैं आप को बता ही चुका हूं। उसे यह भी अच्छे से याद था कि सुबह तो वह मुझे देख कर मुस्कुरा कर हाथ हिला कर अंदर गया था। लो जी, वॉचमैन से रहा न गया ....उस की बेचैनी ने उसे चाबी उठाने के लिए मजबूर कर दिया ...भाई, उसने चाभीयां उठाई और अंदर जा कर कमरे चैक करने लगा ......अरे यह क्या, एक कमरे में उसे वह शख्स दिख गया जो कि बस जमने की कगार पर ही था ...
उस बंदे के पास जाते ही वह उसे पहचान गया ....उसने फ़ौरन उसे बाहर निकाला ...साथ ही लकड़ियों को जलाने का प्रबंध किया ...कुछ वक्त के बाद वह सुध-बुध खोया हुआ बंदा हिलने ढुलने लगा ...सचेत हो गया...नेक वॉचमैन ने तब तक उस के लिए कॉफी का प्रबंध कर दिया....कॉफी पीते ही और उस अलाव की गर्मी मिलते ही उस बंदे ने सब से पहले चौकीदार से यही पूछा कि यार, तुमने मुझे ढूंढ कैसे लिया....चौकीदार ने कहा कि साब, इतनी बड़ी फैक्ट्री में सिर्फ़ ही हैं जो सुबह शाम मेरी तरफ़ देख कर आते जाते हैं...इसलिए मुझे याद था कि आप आज सुबह अंदर तो गये हैं लेकिन बाहर नहीं आए....बस, साब, इसी शक ने मुझे आप तक पहुंचा दिया...फैक्ट्री में काम करने वाला इस से आगे उस के कुछ कह ही न सका.....क्योंकि उस की आंखें ढबढबाई हुई थीं और गला रूंधा हुआ था ...वैसे भी कुछ बातें आंखें ज़्यादा अच्छे से ब्यां कर जाती हैं....ज़रूरी नहीं कि एहसान का इज़हार अल्फ़ाज़ के हार पहना कर ही किया जाए.....
दोस्तो, जब भी अलाव की बात छिड़ती है न तो मुझे गोपाल दास नीरज जी की कही यह बात याद आ जाती है...गोपाल दास नीरज को नहीं जानते?.... तुम लोग भी न आज के जवान लोग ....उस गीत को तो जानते होंगे ...शोखियों में घोला जाए..., देख भाई ज़रा देख के चलो. .....बस, इस तरह के अनेकों फिल्मी गीत लिखने वाले गोपाल दास नीरज... बहरहाल, उन की कही बात जो मैंने किसी ज़माने में अपनी डॉयरी में लिख ली थी, वह पेशेख़िदमत है ...पढ़िए...इत्मीनान से पढ़िए, कोई जल्दी नहीं, वैसे भी वोटों का मौसम है ....इसलिए सब के लिए ज़रूरी है इन बातों को समझ पर पल्ले बांध लेना ...
लखनऊ की मेरी खुशनुमा यादों में एक यह भी है कि मैं गीतों के दरवेश नीरज जी को पास से देख पाया ..उन से मिल पाया...🙏 |
दोस्तो, वॉटसएप इतना बुरा भी नहीं है ..लेकिन हर वक्त इस से साथ चिपके रहने की आदत ने इसे बुरा बना दिया है ...यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि कईं बार कुछ किस्से इस में पढ़ लेते हैं तो वे ताउम्र हमारे साथ रहते हैं....यह जो किस्सा या सच्ची घटना, जो भी है, दिल को छूती है ...यह मैंने कईं साल पहले वाट्सएप पर ही पढ़ी थी ...मेरी आंखें एक बार तो भर आई थीं इसे पढ़ कर ...
इस का ख्याल मुझे दो दिन पहले सुबह सुबह अखबार पढ़ते आया जब मैंने पढ़ा कि मुंबई के बांद्रा इलाके में एक 83 साल की बुज़ुर्ग अपनी रसोई में गिरने के बाद सुबह 9 बजे से शाम चार बजे तक वहीं गिरी पड़ी रही. तो हुआ यह दोस्तो कि यह 83 साल की बुज़ुर्ग अकली फ्लैट में रहती हैं ...परिवार वाले बाहर रहते हैं...विलायत में रह रहे हों या चिंचपोकली में, क्या फर्क पड़ता है ...चलिए, आगे की बात सुनिए ...यह बेचारी चाय बनाने के लिए उठी...किचन के नीचे कुछ गिरा हुआ था और यह ड्.रम से नीचे...शारीरिक कमज़ोरी इतनी थी बेचारी में वह गिर कर उठ भी न पा रही थी और आसपास किसी पड़ोसी को भी बुलाए तो बुलाए कैसे।
पड़ी रही बेचारी ऐसे ही ...दोपहर बीत गई ...तभी उस बिल्डिंग के चौकीदार ने देखा कि उस बुज़ुर्ग महिला का दोपहर का जो टिफिन आता है वह अभी भी बाहर ही पड़ा है ...उस का माथा ठनका...उसने बिल्डींग में दूसरे लोगों को इत्लिा दी ...कुछ लोग आगे आए...फ्लैट का दरवाज़ा खुलवाया गया ...उस महिला को यूं रसोई घर में अंदर दर्द से कराहते हुए पड़ा देखा तो उसे फ़ौरन पास ही के होली फैमिली अस्पताल तक पहुंचाया गया...वहां सब जांच हुई ...उस की टांग टूट गई थी ...खैर, इलाज तो शुरू हो गया है, ख़तरे से बाहर है .......वही बात हो गई ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए...
इस मुल्क में बड़े बुज़ुर्गों की सच में बड़ी आफत है ...बहुत से लोगों को अकेले रहना पड़ता है ...कुछ के बच्चे बाहर नौकरी करते हैं, कुछ ने पुराने पुश्तैनी मकान को संभालना होता है और कुछ का दकियानूसी ख्याल कि बेटा नहीं है, बेटी के पास नहीं रहेंगे ...ऐसे माहौल में जिन बेटियों के पास - उन के बुज़ुर्ग मां-बाप रहते हैं उन के जज़्बे की मैं कद्र करता हूं ...उन के ही नहीं, उन के परिवार के जज़्बे की भी ...अब यार किसी के बेटा नहीं है तो उस में उन का तो कोई कसूर नहीं न.....कि है, या बेटा किसी भी कारण से उन का हाथ थामने के लिए आगे नहीं आ पा रहा तो ऐसे में कहां छोड़ दें उन दिन-ब-दिन कमज़ोर हो रहे मां-बाप को ...
खैर, यह फिलासफी झाड़ने का वक्त नहीं है ...बात पूरी करनी है और मुझे जल्दी से ड़्यूटी पर जाने के लिए तैयार होना है ...अखबार में एक फोटो थी जिस में होली फैमली अस्पताल में भर्ती महिला के बेड पर पुलिस का कोई सब-इंस्पेक्टर केक-काटने पहुंच गया क्योंकि जब अस्पताल में पुलिस बुलाई गई और वह सारी लिखा-पढ़ी कर रही थी तो पता चला कि दादी का तो कल जम्म दिन है ...बस, अगले दिन सब-इंस्पेक्टर पहुंच गया केक लेकर दादी के पास ...फोटो देख कर मुझे भी अच्छा लगा ....लेकिन फिर भी इसे इस ब्लॉग पोस्ट में चस्पा नहीं कर रहा हूं क्योंकि मेरे ख्याल में फोटो उस चौकीदार का भी होना ज़रूरी था जो इस असहाय औरत के लिए एक फरिश्ता साबित हुआ ...वरना, यहां बंबई में किसे फुर्सत है कि कोई देखे कि किस का अखबार शाम तक बाहर क्यों टंगा है, दूध क्यों अभी तक किसी ने उठाया नहीं ...लेकिन कुछ फरिश्ते होते हैं जिन्हें खुदा ऐन मौके पर भेज देता है ...अपने दूत बना कर ...सच में 😎
आए दिन ऐसे घटनाएं होती रहती हैं बुज़ुर्ग के साथ, कभी अपने घर के अंदर ही खत्म हो गए या कोई मार के चला गया..किसी को तब तक कोई खबर नहीं जब तक उन के घर के अंदर से बास बाहर नहीं पहुंचती ....ये जो नेबरहुक वॉच है या सिटिजन वॉच नाम के प्रोग्राम हैं कि बुज़ुर्गों की सलामती की खबरसार लेते रहें , खास कर के जो अकेले रहते हों. अखबारों में ही पढ़ते हैं कि कहीं कहीं पुलिस यह काम करती है ...और कहीं कहीं किसी एरिया में रहने वालों ने ही ऐसी व्यवस्था कर रखी होती है ..चलिए, अब कह रहे हैं तो कुछ तो होगा ही, मान लेते हैं ...नाम ही के लिए ही सही ...लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर ज़िंदगी की सांझ में अपने ही न अपने न रहें तो दूसरों से क्या कोई गिला करे ......अपने तो अपने होते हैं, अब क्या यह भी फिल्मी नगमों में ही सुनने को मिलेगा!
फिल्मी नगमों से मुझे याद आया ...आज के मौज़ू से मेल खाता एक गीत ..वह गीत मुझे बहुत पसंद है ....2011 की बात है, फरवरी का ही महीना था, बहुत ठंडी थी अंबाला छावनी में ...मैं अंबाला छावनी के सदर बाज़ार में एक चाय के खोखे पर बढि़या अदरक वाली चाय का लुत्फ़ उठा रहा था तो पास ही की दुकान में अचानक देखता हूं कि एक बुज़ुर्ग महिला जो शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर सी दिख रही थी अपने जवान बेटे के साथ, यही कोई 30-35 साल का होगा वह बेटा, जिसे कुछ भी दिख नहीं रहा था .....वे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे हुए इत्मीनान से चलते चलते उस पास की ऊन की दुकान पर पहुंचे ...बेटा खड़ा रहा मैं के पास ...मां ने अच्छे से देख भाल कर, ऊन के गोले और लच्छियां ऊपर नीचे कर के कुछ ऊन खरीदी और वे दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे निकल गए...मैं वही अपनी बढ़िया चाय के साथ बेसन के लड्डू खाने में लगा रहा ...और उस वक्त उस दुकान के एफएम पर जो गीत बज रहा था वह वैसे भी मुझे बेहद पसंद है ....बहुत ज़्यादा ....इस के बोल, म्यूज़िक, इस का फिल्मांकन, और अपने अशोक कुमार ....सब कछ बढि़या है इस गीत का .....वह गीत बज रहा था उस वक्त रेडियो पर ...एक तरफ़ मैं उस लाचार मां और बेटे को जाते देख रहा था सहजता से चले जा रहे थे ...उस वक्त मुझे यही लग रहा था कि यह गीत उस जोड़ी के लिए ही बज रहा है ...जिस में शारीरिक बल तो बेटे का काम कर रहा है और आंखों की बिनाई मां की काम आ रही है और इसी से उन दोनों के जीवन की गाड़ी चल रही है ....बस, उस दिन से वह गीत मेरे साथ पक्के तौर पर हो लिया ...मैं इसे हज़ारों नहीं तो सैंकडो़ं बार ज़रूर देख और सुन चुका हूं ...और आज भी दस-बीस बार तो सुनने-देखने ही से चैन पडे़ेगा ..कितने फिल्मी हैं गुज़रे दौर के हम जैसे लोग भी ...अब जो है सो है ..क्या करें !!😉
बहुत ही सुंदर सर। बडी रोचक बातें व भाषा। बधाई सर।
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