साल 1974 - चलिए आज मेरे साथ पचास साल पहले वक्त की गलियों में टहलने चलिए...मैं आज बाहर टहलने नहीं जा रहा हूं..सोच रहा हूं यहीं पर ही टहल लूं..जी हां, उन दिनों मैं अमृतसर के डी.ए.वी स्कूल में छठी जमात में पढ़ता था।
तो जनाब हुआ ऐसे कि मुझे शुरु ही से पढ़ने लिखने का शौक तो था ही ...छुट्टी वुट्टी नहीं करता था ..मास्टरों की बात को अच्छे से सुनना और मानना मेरी आदतों मे शामिल था ..और वक्त पर स्कूल जाना भी होता था ..कुछ साल पैदल, बाद में साईकिल पर...
लेकिन छठी कक्षा में पढ़ते पढ़ते जैसे ही बीज-गणित (एलजेब्रा) पढ़ना शुरू किया तो मुझे कुछ मुश्किल सी महसूस हुई कुछ दिन... मेरे साथ बैटने वाले दोस्त मनीष से मैं पूछ लेता, वह बड़ा नेक बंदा था ...एलजेब्रा के सवाल हल करने मेंं खुशी खुशी मेरी मदद कर देता ...लेकिन फिर भी मुझे एलजेब्रा कुछ अजीब सा ही लग रहा था...
मैं एक दिन स्कूल से घर लौटने पर रोने लग गया...मेरे पापा ने पूछा ...मैं साफ़ साफ़ कह दिया कि पापा जी, मुझे हिसाब का सब्जैक्ट अच्छे से समझ नहीं आ रहा ...बस, फिर क्या था...पापा जी ने पूछा कि क्या वह मास्टर जी ट्यूशन पढ़ाते हैं...मुझे जो पता था वह मैंने बता दिया जो मुझे पता था क्योंकि ट्यूशन पढ़ने वालों पांच छः क्लास के साथियों से यह तो पता चल ही गया था कि वे स्कूल की छुट्टी होने के बाद शाम चार से पांच बजे मास्टर जी से ट्यूशन के लिए रुकते थे...महीने में कितने पैसे ट्यूशन के लगते हैं जितना इस के बारे में भी मुझे जितना पता था वह भी मैंने पापा जी को बता दिया...
पापा ने मेरी कापी का एक पन्ना फाड़ा ...उस पर चिट्ठी लिखी जिन्हें वह वैसे भी वह बड़े चाव से, इत्मीनान से लिखा करते थे ...चिट्ठी लिख कर उन्होंने उसे एक बार फिर से पढ़ा और उसे मेरे हवाले करते हुए कहा कि इस ख़त को कल मास्टर जी को दे देना...मैंने वैसा ही किया ...मुझे पता नहीं आज तक कि पापा ने उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा था - यार, पूरा पन्ना भरा हुआ था...खैर, उस दिन मास्टर जी ने स्कूल की आखरी घंटी के बाद मुझे भी अपनी उस ट्यूशन की क्लास में ही बैठने को कह दिया...बस, फिर क्या था, यकीन मानिए, मुझे दो चार दिन में ही एलजेब्रा बहुत अच्छे से समझ में आने लगा...और मैं खुश..
चाक एन डस्टर फिल्म देख कर पता चला कि एलजेब्रा कितना आसान है ...अभी इस गाने में ज़रीना बहाव को देखा तो उन से हुई मुलाकात याद आ गई....
चार पांच बरस पहले ज़रीना जी से लखनऊ में मुलाकात हुई तो बहुत अच्छा लगा...मैंने उन्हें यह भी कहा कि मैंने उन की सभी फिल्में देखी हैं बार बार ...चितचोर, घरौंदा...वह बहुत खुश हुई ...
खुशी मुझे भी बहुत हुई थी उस दिन...क्या है ना, पहले हमारा इस तरह के अज़ीम कलाकारों के साथ एक रिश्ता जुड जाता था जैसे...कोई हमें बड़ी बहन दिखती तो किसी की ममता में हमें अपनी मां की तस्वीर नज़र आती ...
ट्यूशन का एक महीना पूरा होने का था....पता चला कि महीने के 25 रूपये ट्यूशन की फीस है ...छठी क्लास के बाकी के जितने भी महीने रहते थे वह ट्यूशन जारी रही ...और पापा मुझे महीना पूरा होते ही एक सफेद लिफाफे में 25 रूपये के कड़कड़ाते नोट डाल कर देते कि मास्टर साहब को दे देना..और उन पैसों को लेकर स्कूल जाते वक्त मेरी तो भई जान ही निकली रहती जैसे कि मैं पता नहीं कितना बड़ा खजाना लेकर स्कूल की तरफ़ पैदल मार्च करने का कोई जोखिम उठा रहा हूं ...लेकिन मेरे बाल मन को इतना अहसास तो था कि यह रकम भी इन के लिए बडी़ ही है, कईं बरसों बाद यह लगता था कि पता नहीं कौन से खर्चे कम के उस वक्त उस ट्यूशन की इस फीस का जुगाड़ करते होंगे ...चलिए...मैं सारा दिन उस लिफाफे को अपने बस्ते में पड़े रहने देता...बार बार कईं बार चेक कर लेता ...लेकिन पता नहीं उन दिनों भी इतनी अक्ल कहां से थी कि देता मैं मास्टर साहब को ट्यूशन के पीरियड में ही था....
चलिए जी, यह तो थी अपनी पहली और आखरी ट्यूशन की दास्तां.....उस के बाद कभी भी ट्यूशन नहीं रखी ....कभी ख्याल मन में आया भी तो उस वक्त में तो जो ट्यूशन के रेट चल रहे थे उन दिनों, उस के बारे में मालूम पड़ता तो घर में आकर पापा से कहने की हिम्मत ही नहीं होती क्योंकि पहले बच्चे बोलते कम थे लेकिन मां-बाप की जेब के बारे में बिना किसी के कुछ कहे-सुने बहुत कुछ जान लेते थे ...
खैर, वह ज़िंदगी में मेरा ट्यूशन का तजुर्बा बहुत अच्छा रहा ...वह मास्टर जी ऐसे नेक कि कभी किसी भी छात्र को मजबूर नहीं किया कि उनसे ट्यूशन पढ़नी ही है। और हां, वह लिफाफे में 25 रूपये डाल कर मास्टर जी के भिजवाने वाली बात ..मैं बहुत बरसों बाद जब उस बात को याद करता तो मुझे यह अहसास होता कि मेरे पापा भी ज़माने के हिसाब से बहुत आगे थे कि उन्हें यह भी लगता कि मास्टर को पैसे देते वक्त भी तहज़ीब से देने होते हैं...
दो दूनी चार का यह दृश्य देख कर आप भी ऱोये थे न....मुझे पता है...क्योंकि मेरे साथ भी हर बार ऐसा होता है...
और यही प्रथा फिर आगे मैंने बच्चों की ट्यूशन के मास्टरों को उन की फीस भिजवाते वक्त भी चलाए रखी...हमेशा लिफाफे में डाल कर बड़ी इज़्ज़त से ही यह फीस दी जाती ... क्योंकि भाई हम भाजी मार्कीट से धनिया-पुदीना नहीं खरीद रहे ...और अगर फुटपाथ पर हम कुछ खऱीद कर पैसे उन के हाथ में इज़्ज़त से थमाने की बजाए उन के आगे किसी फलों के ढेर पर या भाजी के ढेर पर रख कर आगे भढ़ने लगते हैं तो मुझे तो बहुत बार किसी बुज़ुर्ग दुकानदार महिला ने कईं बार दम भर है कि यह तरीका नहीं होता..पैसे देने का ..मराठी में कहती हैं लेकिन मैं समझ लेता हूं ...कहती हैं कि पैसे हाथ में सलीके से पकड़ाने होते हैं...दो चार बार इन औरतों से डांट खाने के बाद अब मैं सुधर गया हूं ...किसी को भी पैसे थमाने वक्त पूरा ख़्याल रखता हूं..
अच्छा, जैसे जैसे वक्त आगे बढ़ता चला गया ..ट्य़ूशनों का चस्का मास्टरों को भी लगने लगा शायद लेकिन मां-बाप को तो ज़रूर लगने ही लगा ..मास्टरों के बारे में यह सुना जाने लगा कि वे बच्चों को उन के पास ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं ...लेकिन हमें तो कभी किसी ने ट्यूशन पढ़ने के लिए नही ंकहा ..जो सच है वह ज़रूर दर्ज कर देना चाहिए...ऐसे ही सुनी सुनाई बातों पर यकीं नहीं करना चाहिए।
लेकिन फिर भी ट्यूशन इस कद्र पढ़ी-पढ़ानी वाली चीज़ हो गई जैसे कोई फैक्ट्री चल रही हो ...हमारी कालोनी में हमारे स्कूल से साईंस टीचर रहते थे ..सुबह एक बैच स्कूल खुलने से पहले ..और शाम के वक्त छुट्टी होने के बाद तीन चार या दो तीन बैच पढ़ाते थे .. 1977-78 के दिनों की बातें हैं..हमारे नवीं-दसवीं के दिन ... उन के घर के बाहर बीसियों साईकिल खड़े रहते थे ...और मोहल्ले वाले खामखां टोटल मार मार के अपनी हालत खराब करते रहते कि इतने साईकिल दिन भर में खड़े रहते हैं ..अगर एक स्टूडेंट से इतने पैसे भी लेते होंगे तो इस का मतलब इतना तो कमा ही लेते होंगे...खैर, बहुत काबिल और नेक थे ...हमें स्कूल में ही अच्छे से पढ़ा देते थे और मुझे याद है नवीं कक्षा में जब साईंस के पेपर में मेरे 40 में से 38 अंक आए थे तो उन्होंने मेरे पेपर का एक एक पेज सारी क्लास को दिखा कर कहा कि पेपर में कैसे लिखा जाता है, यह देखो...और मैं बैठे बिठाए क्लास का हीरो नं 1 बन जाता....
अच्छा, एक बात और भी है कि उन दिनों लोगों के मन में यह भी था कहीं न कहीं कि ट्यूशन से होता हवाता कुछ नहीं ...बस, फेल होने वाले को पास करवा देती है....और वैसे भी जो पढ़ाकू किस्म के बच्चे होते थे ..वे कम ही दिखाई देते थे ऐसी ट्यूशन की महफिलों से...शेल्फ-स्टड़ी का सबक हमें घर ही से मिलता रहता था...भाई-बहन को पढ़ते देख कर।
खैर, यह वह दौर था ...पचास साल पहले ... जब ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर जिन्हें घर बुलाया जाता था उन का अपनी शिष्या को बीजगणित-रेखागणित पढ़ाते पढ़ाते कुछ ऐसा समीकरण बैठ जाता था कि बात शादी करने करवाने तक पहुंच जाया करती थी ..दो किस्से हमारी कॉलोनी में हो गये थे ..दसवीं क्लास की छात्राएं थीं और मास्टर जी से फिर उन की शादी हो गई ...मुझे अभी उन दोनों मास्टरों के चेहरे और उन छात्राओं के चेहरे भी याद हैं....और शादीयां सफल ही रहीं ...लेकिन उस दौर में लोग उस तरह के रोमांस की चर्चा करते वक्त किसी रूमानी नावल पढ़ने जैसा मज़ा लेते...सच कह रहा हूं...हमें भी उड़ती उड़ती बाते सुन कर कुछ कुछ होता तो था लेकिन यह पता न था कि यह है क्या ...
अब लगता है इस पोस्ट को बंद करूं ...अभी ट्यूशन की बातें बहुत सी बची हैं..कभी मूड हुआ...जैसे आज सुबह मूड बन गया तो इतना कुछ बिना किसी शर्म-संकोच के लिख दिया...कुछ तो अभी लिखने को बाकी है ...देखता हूं.....और हां, जाते जाते एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि ये जो ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर घरों में आते थे उन की छवि बड़ी रोमांटिक बनाने में हमारी हिंदी फिल्मों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है ..बेशक...पुरानी से पुरानी फिल्में देख लीजिए...जब भी कोई मास्टर किसी के घर में घुसा...उसने वहां जा कर कुछ पढ़ाया वढ़ाया या नहीं, लेकिन उन का नैन-मटक्का ज़रूर चल निकला...इसलिए जैसे ही फिल्मों में ट्यूशन लगाने की बात ही चलती अपने तो कान फौरन खड़े हो जाते ...कि अब चलेगी फिल्म सही ...
लिखते लिखते मुझे ख्याल आ गया कि आज की पोस्ट लिखते लिखते तो टीचर याद आ गये....ज़रूर टीचरों को याद रखना चाहिए...यह मिट्टी से सोना बनाने वाले कलाकार हैं....बीस-बाईस साल पुरानी बात है ...मैं फिरोजपुर में नौकरी कर रहा था...वहां तो अमृतसर का रास्ता बस में दो घंटे का ही है ...मैं कईं बार पुराने गली-कूचों को बिना वजह देखने, पुरानी यादों को ताज़ा करने चला जाता ..एक बार मैं पूछते पूछते अपने एक टीचर के घर पहुंच गया...संयुक्त परिवार में रह रहे थे ..मैं उनके लिए बर्फी का डिब्बा लेकर भी गया था ...क्योंकि मुझे लग रहा था कि मैं किसी मंदिर में भगवान के दर्शन करने जा रहा हूं ... मैंने उन का आशीर्वाद लिया...लेकिन वह अपनी यादाश्त लगभग खो चुके थे ...कड़ाके की ठंड थी उन दिनों ..एक पुराना, घिसा हुआ कंबल उन्होंने लपेटा हुआ था ...पेंशन नहीं होती प्राइवेट स्कूलो में ...बच्चे नौकरियां कर रहे थे ..मैं उन के साथ और उन के परिवार के साथ संपर्क में था...उन्होंने मुझे बंबई चिट्ठी भी लिखी थी...25 साल पहले ..मेरे पास अभी भी पड़ी हुई है ...उस दिन मुझे मिलने पर यही लगता रहा कि यह वह बंदा है जिस के पास एक ही गर्म सूट था, एक ही शूज़ थे ..लेकिन उन का सलीके से उन्हें रोज़ चमका कर पहनना और सूट को अच्छे से साफ़ रखना ..हमें उन की पर्सनेलिटि अच्छी लगती थी ...उस दिन मुझे लगा कि इन्हें जेब-खर्च तो यार अब भेजना बनता है ...उस के बाद मैं उन को हर महीने 500 रूपये का मनीआर्डर करता रहा ...जब तक वह जीवित रहे ...मैंने एक बार मनीआर्डर के साथ जो संदेश लिख भेजते हैं उस में लिख भी दिया था कि यह मास्टर साहब का जेब-खर्च है, उन के खाने-पीने का ख्याल रखिए... उन के जाने के बाद गुरू मां को भी मनीआर्डर भिजवाता था .....लेेकिन जब वह भी चल बसीं तो वह नाता भी टूट गया....
ये सब बातें लिखना मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था कि मैं बर्फी का डिब्बा ले कर गया ...500 रूपये का मनीआर्डर हर महीने करवाता था ..जो लोग मुझे अच्छे से जानते हैं वे जानते हैं, दूसरे इस लिखने को किस अंदाज़ में लेंगे मुझे रती भर भी फ़र्क नही पड़ता ..और हां, मेरी मां को जब मैंने यह मनीआर्डर वाली बात बताई थी तो उन्हें इतना अच्छा लगा था कि मैं क्या लिखूं...कहने लगी थीं कि बहुत ही अच्छा करते हो... शायद हमें अपने मां-बाप से, हमारे समाज से जो मिलता है, सारी उम्र हम वही लौटाते हैं ...आप को क्या लगता है। यह जेब-खर्च वाली बात इसलिए लिख दी क्योंकि पता नहीं हमे ंकहां से प्रेरणा मिल गई ...इसे पढ़ कर शायद किसी दूसरे को भी कुछ आइडिया आ जाए...इसलिए दिल की बातें शेयर कर देनी चाहिए...
पोस्ट को पढ़ कर थोड़ा इमोशनल हो जाएं तो हो जाने दीजिए...मैं ही इसे लिखते लिखते कितनी बार हुआ...चलिए, अब खुशी की वजह से जो आंखें नम हो गई हैं, उन्हें पोंछने के लिए आप को एक बढ़िया गीत सुनाते हैं... सुनिएगा ज़रूर ....पुराने रोमांटिक गीतों को जब मैं देखता हूं, सुनता हूं तो सोच पड़ जाता हूं कि कह तो तब भी सब कुछ देते ही थे लेकिन कहने का एक नफ़ीस सलीका था.😂😄😎 (उस दौर के गीतकारों की याद को सादर नमन) ...अब तो वेबसीरीज़ में ...गालीयां चेप देना ही कूलनैस का द्योतक हो गया हो जैसे...
कोई कोई पो्स्ट लिखने लगो तो सच में प्रसव पीडा़ को सहने जैसा काम होता है ...यह पीड़ा सही तो नहीं है लेकिन सुना बहुत है ..जब तक बात पूरी नहीं लिखी जाती, दर्द चैन से बैठने नहीं देता.....आज तो वैसे भी ऐसे लग रहा है जैसे कोई चित्रहार ही पेश कर रहा हूं 😎😎 -
मैं अकसर गुज़रे दौर की बातें करता रहता हूं ...इस विधा को हिंदी साहित्य में संस्मरण लेखन कहते हैं...हर कोई अपनी अपनी समझ से आप के लेखन को देखता है ...लेखन कोई इतनी बड़ी तोप भी नहीं ...बस, अपना दिल खोल के सब के सामने रख देने की एक कोशिश है ...धीरे धीरे जैसे जैसे दिल खुलता जाता है, यह काम ख़ासा आसां लगने लगता है...हां, मुझे एक बार मेरे एक कालेज के साथी ने लिखा कि चोपड़े, यार तुम पुरानी बातें याद करते रहते हो...। और बात आई गई हो गई...लेकिन मैं तो वैसे ही अपने दिल की बातें लिख कर हल्कापन महसूस करने का कायल हूं और इस में बहुत सहजता महसूस करता हूं...शायद आज से बीस साल पहले उतनी नहीं करता था जितनी आज करता हूं...
लेकिन कुछ दिन पहले मुझे पंजाबी की एक किताब मिली ...रंग बिरंगीयां...जिसे मेरे स्कूल-कालेज के एक साथी के पिता ने लिखा है ..वह साथी पंजाब का बहुत बड़ा नामचीन सर्जन है ...उस के पापा पंजाबी में लिखते हैं...93 बरस की उम्र में भी लिखते हैं, पेंटिंग करते हैं...वह साथी जब फेसबुक पर अपने पापा की लिखी पोस्टें डालता तो मुझे उन्हें पढ़ने में बड़ा लुत्फ़ आता ...हार कर उस के पापा ने मुझे अपनी लिखी दो किताबें ही भिजवा दीं...शुरू के पन्नों में लेखक ने लिखा है ....उस का हिंदी अनुवाद मैं यहां लिख रहा हूं...
"बेशक यादें मेरी निजी हैं और आप पढ़े-लिखे विद्वान और बुद्धिमान हो, फिर भी शायद कुछ अच्छी लगें, कुछ सिखा जाएं, कुछ ज्ञान में इज़ाफ़ा कर दें , सोचने पर मजबूर करें, हैरान ही कर दें और शायद होटों पर मुस्कान ही ले आएं, आप दूसरों को भी सुनाएं और आप को इन्हें पढ़ते पढ़ते आपकी अपनी पुरानी यादें हरी हो जाएं शायद..."
जब से मैंने उन बुज़ुर्गों की यह बात पढ़ी है, मुझे यह लगने लगा है कि यादों को सहेज कर रखना भी कोई इतनी बुरी बात नहीं है...
उसी सिलसिले में मैं आज कुछ और सहेजने की फ़िराक़ में हूं ...किस तरह से एक छत के नीचे रहते हुए उस दौर के भाई बहन आपस में किस क़द्र जुड़े हुए थे ...उस दौर में भाई बहन आपस में बातें करते थे ...बहुत सी कभी खत्म न होने वाली बातें ...भाई बहन की ज़िंदगी में जो भी चल रहा होता, वे आपस में बात कर लेते ...और मज़े की बात यह है कि भाई बहन की उम्र में काफ़ी फ़र्क होेते हुए भी यह मुमकिन था ...मैं घर में सब से छोटा था, बहन 10 साल बड़ी, भाई 8 साल बड़ा...
यह टीवी मोबाइल न होने की वजह से घर मे सब के पास सब के लिए वक्त ही वक्त था ... और भी कोई मनोरंजन का साधन खास न था...एक दो मैगज़ीन रहतीं जिस के पन्ने उलट लीजिए...और रेडियो जो किसी कमरे के किसी मेज़ पर सजा कर रखा होता...उस की मेहरबानी होती तो हम कोई फिल्मी गीत सुन लेते ...लेकिन अगर उस का मूड ही खराब है, गले में उसे भी खिचखिच होती तो हम परेशान होकर उसे भी आराम करने देते ...यह सोच कर कि सुबह उठ कर छत पर ईंट के नीचे दबी ऐंटीना की तार को हिला-ढुला के देखेंगे ...शायद चल पड़े ..लेकिन अगली दिन वही स्टोरी फिर से दोहराई जाती ...जिन लोगों ने वे सब दिन देखे हुए हैं, उन के लिए लेखक, शायर ...कुछ भी बनना कहां मुश्किल है ...लेख, आलेख खुद ही दिल से बाहर निकलते हैं...
हां, तो घर में भाई-बहनों की बात हो रही थी ...घर में आकर वे अपने स्कूल-कालेज की बातें करते ..बड़े आदर से अपने प्रोफैसरों के बारे में बताते कि वह कितना अच्छा पढ़ाते हैं...कईं बार अपने लिखे हुए नोट्स भी दिखाते कि देखो, आज सर ने कितना पढ़ा दिया...लिखते लिखते हाथ थक गए...मैं छठी-सातवीं में था और बड़ी बहन एम ए में थीं...यह 1973-74 की बातें हैं ...वह बहुत ज़्यादा मेहनत करती थीं...रोज़ का रोज़ पढ़ना और मेरे लिखे इंगलिश के निबंध भी चेक करना ...और मेरी खबर लेते रहना ...खबर लेने का मतलब पिटाई करना नहीं ...वह तो हमें पता भी नहीं था किसे कहते हैं ...हमें घर में किसी ने कभी गुस्से से छुआ तक नहीं.. ...पिटाई तो दूर की बात है ..मां को हम लोग आखिर तक छेड़ते थे कि बीजी, आप भी कैसी मां हो, किसी बच्चे को मारना नहीं, कभी डांटा नहीं, कभी आंखें नहीं दिखाई ...बस, वह हंस देती ...अब जिन बच्चों का बचपन ऐसा बीता हो, उन्हें बड़े होने पर कैसे सब लोग अपने न लगेंगे...
हमें अपने भाई-बहन के कालेज के प्रोफैसरों तक के नाम याद हो जाते थे ...इतनी बार उन के बारे में सुन रखा होता था...ये सब छठी सातवीं कक्षा की बाते हैं...घर के हर बाशिंदे को यह पता होता था कि कौन सा बंदा कहां गया है, कैसे गया है, कब तक आ जाएगा...और सब का इतना सकारात्मक रवैया कि जो भी घर से बाहर गया है वह लौट कर घर ही आ ही जाएगा...आज की तरह नहीं, मिनट मिनट की खबर देना-लेना कमबख्त इतना सिर दुखा देता है कि क्या कहें...
याद नहीं कभी भाई-बहनों ने आपस में कहा हो किसी को कि साईकिल ध्यान से चलाना, संभल कर जाना, वक्त पर आ जाना, स्कूल से सीधा घर ही आना, फ़िज़ूल की चीज़ें न खाना......कोई कुछ नहीं कहता था किसी को, सब अपना ख्याल खुद ही रखते थे ...सातवीं आठवीं कक्षा की बात होगी ..मैंने साईकिल पर नया नया जाना शुरू किया था ..अमृतसर गोल बाग के पास मुझे एक ट्रक आता दिखा तो मैंने अपनी साईकिल वहीं सड़क के बीच ही फैंक दी और खुद पीछे हट गया....साईकिल किसी स्कूटर वूटर के नीचे आ गई ...टेढ़ी सी हो गई ...मैं रिक्शे पर उसे रख कर घर लौट आया...मुझे अडो़स पड़ोस की सभी औरतें ऐसे देखने आईं जैसे मैं कोई जंग फतेह कर के आया हूं ...लेकिन कोई बात नहीं, शाम तक साईकिल को ठीक करवा लिया गया...और अगले दिन से फिर वही साईकिल यात्रा शुरु ---शायद किसी ने बिल्कुल नरमी से घर में यह कह दिया हो कि ट्रक, ट्राली का ख्याल रखा करो....
भाई-बहनों को एक दूसरे के एग्ज़ाम की डेटशीट, उन के सब्जैक्टस के नाम...कौन सा पेपर कैसा हुआ है, कौन सा खराब हुआ है...सब की जानकारी आपस में बांटते थे ...किस ने कहां नौकरी के लिए अप्लाई किया है, किस के रिश्ते की बात कहां चल रही है, बहन ने आज मां के साथ फोटो खिंचवाने जाने से पहले अच्छी सी साड़ी क्यों पहनी है...क्योंकि अब बहन की शादी की बातें घर में होने लगी हैं...मुझे यह बात बहुत उदास कर जाती थी ...अकसर ..कि बहनें बडी़ हो कर ऐसे कैसे दूर चली जाती हैं.......बाल मन की बातें थीं, फिर धीरे धीरे समझ आने लगी ...दिलोदिमाग में ठूंस ठूंस कर भर दिया गया हो जैसे कि बहनें, बेटियां तो पराया धन होता है .......ओह मॉय गॉड...
हां, अब मुद्दे की बात ...क्योंकि मैं भी अमृतसर के उसी कालेज में पढ़ा हूं जिस में बड़े बहन-भाई पढ़ते थे ...कुछ दिन पहले मैंने एक प्रोफैसर साहब का नाम देखा...याद आया कि यह तो बहन को पढ़ाते थे ...उन्हें प्रिंसीपल हो कर रिटायर हुए अरसा हो गया...मैं कल रात फेसबुक पर उन्हें फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेज दी ...उन्होंने तुंरत स्वीकार कर ली.....अब सोच रहा हूं आगे की प्लानिंग ...उन का नंबर लेकर बहन को दूंगा ...उन्हें अच्छा लगेगा कि उन की पढ़ाई हुई एक छात्रा भी यूनिवर्सिटी से प्रोफैसर हो कर रिटायर हो गई है..लेकिन यूनिवर्सिटी वाले अभी भी उन्हें छोड़ने को राज़ी नहीं हैं....बहन है, इसलिए नहीं कह रहा हूं ...वह एक बहुत अच्छी टीचर हैं, हमेशा क्लास में जाने से पहले पढ़ कर जाती हैं, यूनिवर्सिटी से जो कापियां जांचने के लिए आती हैं, उन्हें पूरा पढ़ कर जांचती हैं सुबह उठ कर ....जैसे इबादत कर रही हों..कहती हैं हर एक का सही मूल्यांकन ज़रूरी है...
और हां, मेरी मां के जाने के बाद मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, मेरी हौंसलाफ़जाई करती रहती हैं कि नियमित लिखते रहा करो, तुम बहुत अच्छा लिखते हो ...ख़ुदा करे उन की यह गलतफ़हमी बरकरार रहे और मुझे शाबाशी मिलती रहे ...😃
लेकिन ये सब उन दिनों की बात है जब मोबाइल, टीवी, वीसीआर....कोई झंझट नहीं था, हम सब लोग आपस में खूब बातें करते थे ...अंगीठी के दौर में उस के आसपास बैठ कर मूंगफली-रेवड़ी खाते खाते खूब हंसते थे ...खूब ठहाके लगाते थे..फिर भी हम सब 9 बजे तक सो ही जाते थे ...आज की तरह नहीं जैसे हम उल्लू बने होते हैं ..रात 12-1 बजे तक ..बिल्कुल दीवानों की तरह पर वाट्सएप पर टंगे रहते हैं...फिर वही पकाने वाली बातें की पता नहीं नींद नहीं आती, नींद पूरी नहीं होती, नींद गहरी नहीं होती.....काश, नींद की भी कोेई एप ही आ जाए उसे स्विच करते ही नींद भी आ जाए .....
परसों देर शाम मैं कफ-परेड प्रेज़ीडेंट हाटेल के पास एक बाग की तरफ़ से निकल रहा था ..मैंने देखा बहुत से बेंचों पर चार चार लड़के बैठे हैं..पेड़-पौधों को निहार नहीं रहे, खेल-कूद नहीं कर रहे ...भाग-दौड़ नहीं रहे .....लेकिन अपने मोबाइल पर सब के साथ खेल रहे हैं......बड़ा अजीबोगरीब नज़ारा लगा मुझे वह उस दिन ....
बोरीवली नेशनल पार्क के बारे में कल सुबह जब मैं लिखने बैठा ...लिख तो दिया ..लेकिन दिन भर यही लगता रहा कि बोरीवली नेशनल पार्क जैसे नैसर्गिक स्थल के बारे में बस इतना ही ...यह तो तूने रीडर्स को एक ट्रेलर दिखा दिया...जिस जगह पर जाने के लिए तुम बरसों बरस तरसते रहे - और वह भी खामखां ही ...इतना सुगम रास्ता, शहर के बीचोंबीच एक जंगल होते हुए भी तुम वहां लगभग 25 बरस बाद गए...जिस जगह पर 2-3 घंटे बिताए ...और वहां से बाहर आने की इच्छा ही नहीं हो रही थी, उस के बारे में बस इतना ही कपिल देव जैसे ब्लेड के बारे में कहता है कि पालमोलिव दा जवाब नहीं, तूने उसी तर्ज़ पर यह कह कर अपनी बात कह दी ...बोरीवली नेशनल पार्क दा जवाब नहीं..(इस लिंक पर क्लिक कर के आप पढ़ सकते हैं...)
रह रह कर मन में यह ख्याल भी आता रहा कि वैसे तो मुझे शहर के फुटपाथ नापते वक्त अगर कोई कान सफाई करने वाला कारीगर भी दिख जाता है तो मैं उस का भी पूरा तवा लगा देता हूं लेकिन बोरीवली नेशनल पार्क जैसे स्वर्ग के लिए तेरे पास बस कहने को इतना ही है! यही ख्याल आ रहा है कि लिखने वाले का मक़सद होता है कि पढ़ने वाले को इस हद तक मुतासिर करना कि वह भी वहां जाने का प्रोग्राम बना ले कम से कम अगले इतवार का - उससे पहले उसे छुट्टी लेने में दिक्कत है भी कोई अगर ...
सब कुछ तो लिख रखा है ..क्या है न बाहर से आने वाले लोगों को कुछ भी लिखा हुआ पढ़ने की बहुत उत्सुकता रहती है ...सुरेंद्र मोहन पाठक दो साल पहले मिले - 300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...बता रहे थे कि उन्हें शुरू ही से पढ़ने का इतना शौक था कि जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उस लिफाफे को भी पढ़ कर फैंकते थे ...
मराठी इतनी मुश्किल भी नहीं...जितना समझ में आ जाए, ठीक है, बाकी तुक्के लगा लीजिए...पेपरों में तो लगाते ही रहे हैं हम लोग ...
पार्किंग के रेट थोड़े ज़ाज़ती लगे ...और भी विदेशी सैलानियों के लिए अलग रेट ... क्या ऐसा करना ज़रूरी है....मैं तो अमेरिका के बाग-बगीचों में गया, अलग रेट की तो बात छोड़िए, कोई टिकट ही नहीं थी वहां ...
ज़रूरी बात है...फोटो पर क्लिक कर के पढ़ लीजिए...
अरे वाह...कमाल है..फिर भी हमें यहां आने की बजाए आलस की चादर ओड़े पड़े रहना क्यों इतना भाता है
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पढ़ लीजिए, डरिए नहीं...
अच्छा, तो यह बात है!!
बड़ी उम्र के लोग इस तरह के पंगों में पड़ते कम ही दिखते हैं....कल देखा तो बहुत अच्छा लगा ..इच्छा तो मेरी भी हुई ...लेकिन फिर वही ख्याल आ धमका ..लोग क्या कहेंगे!!😎
लीजिए, यह भी है अगर आप कुदरत से बिल्कुल भी वाकिफ़ नहीं है ...आप एक बार यहां पधारिए तो ...
तितलियों के बारे में जान कर तबीयत रंग-बिरंगी हो गई ...
यह वाली मराठी थोड़ी मुश्किल लगी ...कोई बात नहीं, बाद मे एक युवती को देखा को जो एसएलआर कैमरे की मदद से तस्वीरें ले रही थी ..
किस ज़ाविए से आप को लगता है कि यह तस्वीर मुंबई की होगी...इतनी हरियाली, रोशनी और सूरज देवता के साक्षात दर्शन
बाबा, मैं तो आप का मुरीद हो गया..आपको भी अपने फेफड़ों में इतनी हवा भरते देख कर मुझे पहुंचे हुए योगियों का ख्याल आ गया....इस ऑकसीजन की कमी ही तो थी कोवि़ड के दूसरे चरण में जिस ने लोगों को तड़फा तड़फा कर मौट के घाट उतार दिया....करिए, आप करते हुए, खुशी हुई आप को देख कर .. एक गीत भी याद आ गया.....चलती है लहरा के पवन कि सांस सभी की चलती रहे...
आंखों में समेट लेने के लिए इतने दिलकश नज़ारे.....लेकिन फोटोबाज़ी से मुझे जैसे को फ़ुर्सत मिले तभी तो कुछ और सहेंजें......बस, वही कुछ सहेज पाया जिसे कैमरे की आंखों ने देखा ..
घुटने वुटने का दर्द भी तो दर्द ही है ...मैं भी तब तक चलता रहा जब तक घुटनों ने इजाजत दी ..फिर जब लगा कि अब घुटनों को इस से आगे मत घसीट, लफड़ा हो जाएगा ...मैं भी वापिस हो लिया ... क्या करें, शरीर के साथ किसी तरह की जबरदस्ती कहां चलती है, वह हम लोगों से चला लेने की घोर मूर्खता कर बैठते हैं बस...
धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी ........लेकिन अभी बोटिंग का वक्त नहीं हुआ था ...
नौकाविहार में बिल्कुल भी रुचि नहीं है...डर लगता है कि कहीं नौका उलट पलट गई ..बेबुनियाद डर है, इन के पास सैलानियों की सुरक्षा के पूरे जुगाड़ हैं ..बहुत साल पहले चंडीगढ़ की सुखना झील में हम लोगों ने बोटिंग की थी, जिस में अपने पैरों से उसे चलाते हैं...लाइफ जैकेट पहन तो रखी थी, लेकिन डर ही लगता रहा ...हिंदी फिल्मी के हीरो-हीरोईनों को ही बोटिंग करते देखना अच्छा लगता है ..
वाह ..क्या खूब...कुछ जगहों पर फल एवं ता़ज़े गाजर-खीरे बिकते देख कर तो मज़ा ही आ गया...
और इन जगहों पर छोटे बच्चों को ताज़े फलों एवं सब्जियों का फल पीते देख कर तो और भी अच्छा लगा...
इस मंज़र ने मुझे अमेरिका के नियाग्रा फाल्स से पास वाला एक रास्ता याद दिला दिया...
भोर भए पंछी धुन से सुनाएं...जागो रे, गयी रूत फिर नहीं आए...
शहर के बीचों बीच खूबसूरत जंगल हैं लेकिन हम जिन कंकरीट के जंगलों में रहते हैं वहां भी परदे टांगे रहते हैं ...
बस, उस दिन पार्क में इसे देख कर थोड़ी फिक्र हुई कि कहीं विकास की ब्यार यहां तो चलने नहीं आ गई ...
समझ नहीं आता इन जगहों पर जा कर ......आखिर कितनी फोटों लें, हर लम्हे की आगोश में तो दिलकश मंज़र लिपटे पड़े हैं ..
कुछ जगहों पर इस तरह के गेट लगे हैं..
ऊपर वाले गेट के अंदर ऐसे दिख रहा था ..बाहर गार्ड बैठा था, उसने बताया कि यहां पर सफारी करने जाते हैं...मेरे पूछने पर उसने बताया कि शेर रात में यहां तक आ जाते हैं..
रास्ते में यह पिकनिक स्पाट है ...जहां पर लोग ताज़े फल-सब्जियों का लुत्फ उठाते दिखे ...
चाउमीन, बर्गर, पिज़ा, मोमोज़, डोनट्स पर पल रही जेनरेशन के इस खौफ़नाक दौर में साईक्लिंग कर रहे इन स्कूल-कालेज के बच्चों को फलो-सब्जियों-जूस के स्टालों पर खडे़ देख कर ही मेरी तो थकावट ही जाती रही ...
पार्क के बीचों बीच जो लोग रहते हैं वे भी कुदरती तरीके से ही रहते दिखे...जैसे उन्होंने जंगल के पौधों एवं जीवों के साथ शाँतिपूर्ण सहअस्तित्व का एक करार कर रखा हो......
थोड़ा है, थोडे की ज़रूरत है ...जिंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है ..
मुुझे याद नहीं कब पिछली बार मैंने बच्चों को इस तरह के खेल खेलते देखा होगा ...बरसों बरस पहले शायद कभी ...हां, बचपन में मैं कंचे का चेम्पियन ज़रूर हुआ करता था और डालड़े वाले डिब्बे में उन्हें सहेज कर रखता था...अकसर शाम के वक्त उन्हें धो भी ेलेता....बचपन के दिन भुला न देना... हा हा हा हा हा ...
कईं बोर्ड तो मेरी समझ में ही नहीं आए.....चलिए, यह ज़रूरी भी तो नहीं...थोड़ा बहुत नादानी भी तो रहनी चाहिए.. ज़मीन पर टिके रहने के लिए यह भी ज़ूरूरी है ..
यहां पहुंचते पहुंचते मेरे घुटनों ने तो कह दिया कि अपने पर नहीं भी तो हम पर तो तरस कर ...वरना तुम्हें भी पता है अगर हम अपनी पर आ गए तो क्या कर सकते हैं...तुझे कईं बार ये सबक सिखा तो चुके हैं ..हा हा हा ..मुझे लगा कि कन्हेली गुफाएं आ ही गई होंगी...गार्ड से पूछा तो उसने बताया कि यहां से अभी 4 किलोमीटर है ...आप किसी बस को हाथ दीजिए..वह रूक जाएगी..मैंने वहां से वापिस लौटना ही बेहतर समझा..
वापसी के वक्त भी इन्हें बेपरवाही से अपने खेल में मग्न देखा ...
ज़रूरी नहीं कि कुदरत की हर रमज़ को समझने की कोशिश की जाए....Many times at many places, just Being is the recipe of life! Just being a silent spectator!
Passion is a passion....lucky ones pursue their's!
माहौल, आबोहवा ऐसी कि उदास, ग़मग़ीन चेहरों पर भी फिर से जीने की तमन्ना लौट आए....
O Foolish self, don't hold on! Don't forget that beautiful message outside your neighbourhood church - When you let go, you grow !
Everything and everybody seemed to be at peace with itself!
पार्क के बीचों बीच जंगल में यह स्टेशन ...
बच्चों के लिए ट्रेन की सवारी का भी जुगाड़ ......शायद आजकल यह बंद है .
हर वह कुदरती जगह जिस के पास रह कर अपनी ख़ाकसारी का एहसास होता रहे, वह जगह मुकद्दस है ..
मुझे इन पेड़ों को देख कर मनाली की अपनी ट्रिप याद आ गई ....
यह बोर्ड मुझे भी थोड़ा कंफ्यूज़िंग ही लगा ...एक जगह लिखा था कि वाहन नहीं जा सकते ....पैदल जाने वालों के लिए कोई स्प्ष्ट हिदायत न दिखी.....इन लोगों का भी इसी मुद्दे पर मंथन चल रहा है कि आगे जाएं या नहीं...
बस, आज के लिए इतना ही ...क्योंकि यह तस्वीर लेते ही मेरे मोबाइल की बेटरी खत्म हो गई...मैं पावर-बैंक साथ लेकर गया तो था लेकिन मोबाइल चार्जिंग की वॉयर घर पर ही भूल गया था ... इसलिए वापिस लौटना ही मुनासिब था ..वैसे भी घर लौटते लौटते दोपहर बारह बज ही गए..
जाते जाते यह है मेरा आज का ख्याल.... आज जब मैं सुबह उठा तो उस देवी की आवाज़ में विविध भारती रेडियो पर उस देवी के भजन लगे हुए थे जिसे हमें लता मंगेश्कर कहते हैं...यह भजन चल रहा था ... गजानन जननी तेरी जय हो, तेरी जय हो जी जय हो .. ....(सुनने के लिए लिंक पर क्लिक करिए) ...सुबह सुबह इस कोयल की आवाज़ सुनने को मिली ......कल रात सोते वक्त सोशल मीडिया पर इस देवी के अस्पताल के प्रवास के दौरान किसी ने जो वीडियो बनाई होगी उसे देखा....बहुत बुरा लगा ...पहले तो उस बेवकूफ पर जिस ने इस देवी का वीडियो बनाया और वह भी इतनी बीमारी की हालत में ...और फिर उसे आगे शेयर भी किया ....ऐसे लगा कि हमारी मां की बीमारी का ही वीडियो किसी सिरफिरे ने सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया हो...और जिस देवी को हम सब ने 90 साल की उम्र पार होने पर भी एक अच्छे से बेहद सलीके से कपड़े-गहने पहने देखा...और मुंह से फूल झरते हुए देखे ...सच में वह देवी ही थी ..
ऐसे फिल्मी गीत भी मेरे लिए भजन ही हैं, जिन्हें बार बार सुनना मुझे बेहद सुकून देता है ...