रविवार, 21 मई 2017

२१ मई २०१७ (रविवार)

क्या शीर्षक दें यार रोज़ रोज़ अपनी पोस्ट को ...अपनी डायरी में लिख रहे हैं...मेरे विचार में जब मन चाहे बस तारीख लिख कर छुट्टी करनी चाहिए जैसा कि मैंने आज किया है।

इसलिए बत्ती गुल है ... अभी थोड़े समय पहले टाटास्काई के चैनल ८१६ पर सोनी मिक्स प्रोग्राम देख रहा था .. उस चैनल पर पुराने फिल्मी गीत इस समय रात में ९ से ११ बजे तक दिखाते हैं ..क्या बढ़िया सा नाम है उस कार्यक्रम का ..हां, रैना बीती जाए!!

अभी मैने उस पर तीन फिल्मी गीत सुने ...बेहतरीन एक दम ...अपने स्कूल के दिन याद आ गये .. जब ये गाने सुबह शाम रेडियो पर बजते रहते थे ...मैं इन तीनों गीतों को यहां एम्बेड करूंगा अभी पोस्ट पूरी करने से पहले।


पहला गीत सुना .. राम की लीला रंग लाई, शाम ने बंसरी बजाई...दिलीप कुमार साब पर फिल्माया गया है यह गीत ...कितनी तारीफ़ करें उन की और इस गीत की भी ..पिछले चालीस सालों में कम के कम सैंकड़ों बार यह गीत कानों में रस घोल चुका है ..फिर भी मन नहीं भरता...

उस के बाद आया लैला मजनूं का वह गीत ...कोई पत्थर से ना मारो ..मेरे दीवाने को ..जब १९७७ में नवीं कक्षा में पढ़ते हुए अमृतसर के ऐनम थियेटर में जाड़े के मौसम में यह फिल्म देखी थी..ठीक चालीस साल पहले ...उस समय कहां इन गीतों के अल्फ़ाज़ की तरफ़ ध्यान ही जाता है ज़्यादा ...लेेकिन जब इत्मीनान से सुनते हैं कईं सालों बाद तो शायर की दाद दिए बिना कैसे रह सकते हैं !



शब्दों के जादू की बात शुरू हुई है तो दाग फिल्म का गीत वह गाना याद आ गया...जब भी जी चाहे नईं दुनिया बसा लेते हैं लोग... साहिर लुधियानवी साहब के बोल हैं और यशराज बैनर तले १९७३ में बनी यह बेहतरीन फिल्म ...शर्मीला जी के ऊपर फिल्माया गया यह गीत ..



टीवी में आजकल देखने को कुछ ज़्यादा होता नहीं है ...कितने पागल बनते रहेंगे वही मिश्रा और केजरीवाल के पचड़ों के बारे में सुन सुन कर ...कमबख्त सिर दुःख गया है ...फिर ईवीएम मशीनों ने भी आंखें दुखा दी है ं...इस विषय का मैं जानकार नहीं हूं...n

सोच रहा हूं बंद करूं यह पोस्ट लिखना ...इच्छा सी नहीं हो रही..सोच रहा हूं जैसे इच्छा नहीं होने पर अपनी डॉयरी को बंद कर के मेज पर दूर सरका दिया जाता है, इस पोस्ट को भी ठेल कर आराम करूं...

लेकिन सोने से पहले इतना तो यहां दर्ज कर लूं कि आज टीवी पर दंगल फिल्म देखी ..यह मैंने पहले नहीं देखी थी...जितनी तारीफ़ की जाए कम है ...ऐसी फिल्में देख कर यह भी पता चलता है कि फिल्में बनाने के लिए कितनी मेहनत लगती है ...आमीर खान के बारे में तो मशहूर है कि वे दो साल में एक फिल्म बनाते हैं और ये होती हैं यादगार फिल्में ...सच में ..तारे ज़मीं पर ....थ्री-इडिटएस और अब दंगल ऐसी फिल्में हैं जिन्हें बच्चों को एक साथ स्कूलों के प्रेक्षागृहों में दिखाया जाना चाहिए...(मैं ब्लॉग में भयंकर शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज करता हूं ..इसलिए प्रेक्षागृहों का मतलब भी लिख दूं...ऑडीटोरियम )...ये पहले वाली दोनों फिल्में ऐसी हैं जिन्हें कईं बार बच्चों के पेरेन्ट्स को देखने के लिए कह देता हूं ...अब दंगल देखने की भी सिफारिश किया करूंगा...

बेहद इमानदारी से किया गया रोल ...और आमिर फिल्म के बाद एक कार्यक्रम में बता रहे थे कि उस हरियाणवी भाषा का एक्सेंट सीखने के लिए उन्हें पूरे छः महीने लग गये....ज़ाहिर है जितनी तपस्या ये लोग करते हैं, फिल्म भी जनमानस के दिलो-दिमाग को उद्वेलित भी उसी अनुपात में ही करती है ....हम लोग कह देते हैं कि इसे इतने सौ करोड़ की कमाई हुई ...उसे इतने की हुई.....इस तरह की साफ़-सुथरी फिल्में देख कर यह पता चल जाता है कि ये सब लोग इस के हकदार हैं!!

पता नहीं ..उमस भरी गर्मी की वजह से या फिर क्यों, आज इस पोस्ट को लिखते हुए बड़ी बोरियत महसूस हुई ...होता है यह भी कभी कभी ...होना भी चाहिए!!

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं भी कई बार सोचता हूँ कि लिख कर ठेल दूँ,पर ज्यादा लिखना ही नहीं हो पाता, आप वाकई लिखते हैं यह देखकर अच्छा लगता है

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    1. शुक्रिया विवेक जी...
      लेकिन आज कल जो आप के नियमित ताज़ा-तरीन विचार सोशल मीडिया पर धूम मचाए रहते हैं, उसे देख कर मैं भी खुश हो जाता हूं..

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इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...