आज कल के अखबार पढ़ कर बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न अवश्य उठता होगा कि यार, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो एच1एन1फ्लू को एक महामारी घोषित कर दिया है लेकिन इस से बचाव के लिये टीका सितंबर तक आने की बातें हो रही है, कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि तब तक इस की विनाश लीला बेरोकटोक चलती रहेगी।
इस बात का उत्तर जानने के लिये कि इस के टीका सितंबर तक आने की बात क्या बार बार कही जा रही है, विभिन्न प्रकार के टीकों के बारे में थोडा़ ज्ञान होना ज़रूरी लगता है।
मोटे तौर पर वैक्सीन दो प्रकार के होते हैं --- लाइव वैक्सीन एवं किल्ड वैक्सीन --- अब देखते हैं कि क्यों इन वैक्सीन को जीवित वैक्सीन या मरा हुआ वैक्सीन कहा जाता है। यह अपने आप में बड़ा रोचक मुद्दा है जिसे हमें दूसरे साल में माइक्रोबॉयोलॉजी के विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है।
तो सुनिये, सब से पहले तो यह कि इन वैक्सीन में रोग पैदा करने वाले विषाणु, कीटाणु अथवा वॉयरस ही होते हैं, यह क्या आप तो चौंक गये कि अब यह क्या नई मुसीबत है!! लेकिन इस में चौंकने की या भयभीत होने की रती भर भी बात नहीं है क्योंकि इन विषाणुओं, वॉयरस के पार्टिकल्ज़ के उस रूप को वैक्सीन में इस्तेमाल किया जाता है जिस के द्वारा वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में रोग-प्रतिरोधक शक्ति तो पैदा कर दें लेकिन किसी भी हालत में रोग न पैदा कर सकें। ( हुन मैंनू ध्यान आ रिहै इस गल दा ---पंजाबी वीर चंगी तरह जानदे हन कि खस्सी कर देना ---बस समझ लओ मितरो कि एस वॉयरस नूं या जर्म नूं खस्सी ही कर दित्ता जांदा )।
Antigenicity- हां and Pathogenicity- ना, को समझ लें ? ---- ये दो परिभाषायें वैक्सीन के संदर्भ में वैज्ञानिक लोग अकसर इस्तेमाल करते हैं। पैथोजैनिसिटी से मतलब है कि कोई जीवाणु अथवा वॉयरस को उस रूप में इस्तेमाल किया जाये कि वैक्सीन के बाद यह मरीज़ में वह बीमारी तो किसी भी स्थिति में पैदा करने में सक्षम हो नहीं लेकिन इस में मौज़ूद एंटीजैन की वजह से इस की एंटीजैनिसिटी बरकरार रहे। एंटीजैनिसिटी बरकरार रहेगी तो ही यह वैक्सीन किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंच कर उस रोग से टक्कर लेने के लिये अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर पाता है, मैडीकल भाषा में कहूं तो ऐंटीबाडीज़ तैयार कर पाता है। तो कोई भी वैक्सीन तैयार करने से पहले इन सब बातों का बेहद बारीकी से ख्याल रखा जाता है।
अब स्वाभाविक है कि आप सब को उत्सुकता होगी कि यह जीवित एवं मृत वैक्सीन का क्या फंडा है ---- इस के बारे में हमें केवल यह जानना ज़रूरी है कि लाइव वैक्सीन में तो जो जीवाणु अथवा वॉयरस पार्टिकल्ज़ इस्तेमाल होते हैं वे लाइव ही होते हैं, जी हां, जीवित होते हैं लेकिन बस उन्हें वैक्सीन में डाला उस रूप ( in medical term, we say it is used in an attenuated form ) में जाता है कि वे उस बीमारी से जंग करने के लिये सैनिक (ऐंटीबाडीज़) तो तैयार कर सकें लेकिन किसी भी हालत में बीमारी न पैदा कर पायें। और जहां तक डैड वैक्सीन ( इन्एक्टिव वैक्सीन)की बात है उस में तो मृत वायरस अथवा जीवाणु ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो कि मरे होने के बावजूद भी अपनी ऐंटिजैनिसिटी थोड़ी बरकरार रखे होते हैं यानि कि किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंचते ही ये उस के विरूद्ध ऐंटीबॉडीज़ तैयार करनी शुरू कर देते हैं। और हां, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हर वैक्सीन के लिये यह अवधि तय है कि वह शरीर में पहुंचने के कितने समय बाद अपना जलवा दिखाना ( ऐंटीबाडीज़ तैयार) शुरू करता है।
यही कारण है कि कईं बार हमें जब तुरंत ऐंटीबाडीज़ की आवश्यकता होती है तो हमें कोई ऐसा उपाय भी इस्तेमाल करना होता है जिस के द्वारा हमें ये ऐंटीबाडीज़ पहले से ही तैयार शरीर में पहुंचानी होती हैं ---ताकि वह समय भी नष्ट न हो जब कि कोई वैक्सीन ऐंटीबाडीज़ बनाने में अपना समय़ ले रहा है।
ऐंटीजन एवं ऐंटीबाडी की बात एक उदाहरण से और भी ढंग से समझ लेते हैं ( चाहे इस उदाहरण का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है ) --जब हमारी आंख में धूल का एक कण भी चला जाये तो यह तुरंत गुस्से में आ कर ( लाल हो जाती है) और आंख से पानी निकलना शुरू हो जाता है। आंख में धूल के कण को आप समझिये की यह एक ऐंटीजन है और आंख से निकल रहा पानी उस धूल-मिट्टी से आप को निजात दिलाने की कोशिश कर रहा होता है।
एक कीचड़ में छलांगे लगाते हुये नन्हें मुन्नों बच्चों का बहुत ही बढ़िया सा विज्ञापन आता है ना ----दाग अच्छे हैं ----तो हम कह सकते हैं कि वैक्सीन भी अच्छे हैं, ये अनगिनत लोगों का रोगों से प्रतिरक्षण करते हैं।
हां, तो महामारी अब घोषित हो गई और वैक्सीन सितंबर तक --- इस का जवाब यह है कि इतना सारा काम करने में समय तो लगता ही है ना ---- अब तो हम सब लोग मिल कर यही दुआ करें कि यह सितंबर तक भी आ जाये तो गनीमत समझिये। इस तरह की वैक्सीन की टैस्टिंग भी बहुत व्यापक होती है। एक बात और कि क्या न वैक्सीन को पहले ही से तैयार कर लिया गया ? ---इस का जवाब यह है कि जिस वॉयरस का पता चले ही कुछ अरसा हुआ है, तो पहले से कैसे इस के वैक्सीन को तैयार कर लिया जाता, आखिल वैक्सीन तैयार करने के लिये वॉयरस नामक का विलेन भी तो चाहिये।
अब मन में यह ध्यान आना कि ये वैक्सीन तैयार करने इतने ही आसान हैं तो एचआईव्ही का ही वैक्सीन क्यों नहीं अब तक बन पाया ----इस क्षेत्र में भी बहुत ही ज़ोरों-शोरों से काम जारी है लेकिन वहां पर समस्या यह आ रही है कि एचआईव्ही की वायरस बहुत ही जल्दी जल्दी अपना स्वरूप बदलती रहती है इसलिये जिस तरह की वायरस से बचाव के लिये कोई वैक्सीन तैयार कर उस का ट्रायल किया जाता है तब तक एचआईव्ही वॉयरस का रंग-रूप ही बदल चुका होता है जिस पर इस वैक्सीन का कोई प्रभाव ही नहीं होता। लेकिन चिकित्सा विज्ञानी भी कहां हार मान लेने वाली नसल हैं, बेचारे दिन रात इस की खोज़ में लगे हुये हैं। इन्हें भी हम सब की ढ़ेरों शुभकामनाओं की आवश्यकता है।
अभी जिस विषय पर लिखना जरूरी समझ रहा हूं ---वह है जैनेटिकली इंजीनियर्ज वैक्सीन ( genetically-engineered vaccines). इस पर बाद में कभी अवश्य चर्चा करेंगे।
आज जब मैं सुबह सुबह यह पोस्ट लिख रहा हूं तो मुझे अपनी गवर्नमैंट मैडीकल कालेज की अपनी एक बहुत ही आदरणीय प्रोफैसर साहिबा --- डा प्रेमलता वडेरा जी की बहुत याद आ रही है, उन्होंने हमें अपने लैक्चर्ज़ में इतने सहज ढंग से समझाया बुझाया कि आज पच्तीस साल भी आप तक अपनी बात उतनी ही सहजता से हिंदी में पहुंचा पाया। वह हमें नोट्स तो देती ही थीं लेकिन हम लोग भी उन्हें रोज़ाना दो-तीन बार पढ़ लेना अच्छा लगता था जिस से बेसिक फंडे बहुत अच्छी तरह से क्लियर होते रहते थे। वे अकसर मेरे पेपर का एक एक पन्ना सारी क्लास को दिखाया करती थीं कि यह होता है पेपर में लिखने का ढंग। थैंक यू, मैडम। मुझे बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत ही सम्मानीय,समर्पित मैडीकल टीचरों की क्रॉप के प्रोड्क्ट्स है जिन्हें हम लोग आज भी अपना आदर्श मानते हैं।
और हां, जहां तक एच1एन1 स्वाईन फ्लू की बात है , इस के लिये हम सब का केवल इतना कर्तव्य है कि बेसिक सावधानियां बरतते रहें जिन के बारे में बार बार मीडिया में बताया जा रहा है, बाकी जैसी प्रभुइच्छा। अब हम लोगों के लालच ने भी ने भी प्रकृति का दोहन करने में, उस का शोषण करने में कहां कोई कसर छोड़ रखी है अब उस का समय है हमें समझाने का। शायद कबीर जी ने कहा है --कभी नांव पानी पर, कभी पानी नांव पर !!
आज एक खबर जो सुबह अंग्रेज़ी के पेपर में दिखी जिस ने तुरंत इस पोस्ट लिखने के लिये उठा दिया ---वह यह थी कि दिल्ली में एक छः साल की बच्ची को फ्लू है जो कि विदेश से आई है-- उसे क्वारैंटाइन में रखा गया है और उस के दादू ने उस के साथ स्वेच्छा से रहना स्वीकार किया है।(उस बच्ची के साथ साथ उस महान दादू के लिये भी हमारी सब की बहुत बहुत शुभकामनायें)। पता नहीं, इस तरह की अनूठी कुरबानियों के बावजूद इन बुजुर्गों की इतना दुर्दशा क्यों है, कभी किसी ने सुना कि जब किसी बूढे़-बूढ़ी को बोझ की एक गठड़ी समझ कर ओल्ड-एज होम में पटक के आया जाता है तो उन के पोते-पोतियां भी उन के साथ रहने चले गये ------ मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना !!
इस बात का उत्तर जानने के लिये कि इस के टीका सितंबर तक आने की बात क्या बार बार कही जा रही है, विभिन्न प्रकार के टीकों के बारे में थोडा़ ज्ञान होना ज़रूरी लगता है।
मोटे तौर पर वैक्सीन दो प्रकार के होते हैं --- लाइव वैक्सीन एवं किल्ड वैक्सीन --- अब देखते हैं कि क्यों इन वैक्सीन को जीवित वैक्सीन या मरा हुआ वैक्सीन कहा जाता है। यह अपने आप में बड़ा रोचक मुद्दा है जिसे हमें दूसरे साल में माइक्रोबॉयोलॉजी के विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है।
तो सुनिये, सब से पहले तो यह कि इन वैक्सीन में रोग पैदा करने वाले विषाणु, कीटाणु अथवा वॉयरस ही होते हैं, यह क्या आप तो चौंक गये कि अब यह क्या नई मुसीबत है!! लेकिन इस में चौंकने की या भयभीत होने की रती भर भी बात नहीं है क्योंकि इन विषाणुओं, वॉयरस के पार्टिकल्ज़ के उस रूप को वैक्सीन में इस्तेमाल किया जाता है जिस के द्वारा वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में रोग-प्रतिरोधक शक्ति तो पैदा कर दें लेकिन किसी भी हालत में रोग न पैदा कर सकें। ( हुन मैंनू ध्यान आ रिहै इस गल दा ---पंजाबी वीर चंगी तरह जानदे हन कि खस्सी कर देना ---बस समझ लओ मितरो कि एस वॉयरस नूं या जर्म नूं खस्सी ही कर दित्ता जांदा )।
Antigenicity- हां and Pathogenicity- ना, को समझ लें ? ---- ये दो परिभाषायें वैक्सीन के संदर्भ में वैज्ञानिक लोग अकसर इस्तेमाल करते हैं। पैथोजैनिसिटी से मतलब है कि कोई जीवाणु अथवा वॉयरस को उस रूप में इस्तेमाल किया जाये कि वैक्सीन के बाद यह मरीज़ में वह बीमारी तो किसी भी स्थिति में पैदा करने में सक्षम हो नहीं लेकिन इस में मौज़ूद एंटीजैन की वजह से इस की एंटीजैनिसिटी बरकरार रहे। एंटीजैनिसिटी बरकरार रहेगी तो ही यह वैक्सीन किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंच कर उस रोग से टक्कर लेने के लिये अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर पाता है, मैडीकल भाषा में कहूं तो ऐंटीबाडीज़ तैयार कर पाता है। तो कोई भी वैक्सीन तैयार करने से पहले इन सब बातों का बेहद बारीकी से ख्याल रखा जाता है।
अब स्वाभाविक है कि आप सब को उत्सुकता होगी कि यह जीवित एवं मृत वैक्सीन का क्या फंडा है ---- इस के बारे में हमें केवल यह जानना ज़रूरी है कि लाइव वैक्सीन में तो जो जीवाणु अथवा वॉयरस पार्टिकल्ज़ इस्तेमाल होते हैं वे लाइव ही होते हैं, जी हां, जीवित होते हैं लेकिन बस उन्हें वैक्सीन में डाला उस रूप ( in medical term, we say it is used in an attenuated form ) में जाता है कि वे उस बीमारी से जंग करने के लिये सैनिक (ऐंटीबाडीज़) तो तैयार कर सकें लेकिन किसी भी हालत में बीमारी न पैदा कर पायें। और जहां तक डैड वैक्सीन ( इन्एक्टिव वैक्सीन)की बात है उस में तो मृत वायरस अथवा जीवाणु ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो कि मरे होने के बावजूद भी अपनी ऐंटिजैनिसिटी थोड़ी बरकरार रखे होते हैं यानि कि किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंचते ही ये उस के विरूद्ध ऐंटीबॉडीज़ तैयार करनी शुरू कर देते हैं। और हां, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हर वैक्सीन के लिये यह अवधि तय है कि वह शरीर में पहुंचने के कितने समय बाद अपना जलवा दिखाना ( ऐंटीबाडीज़ तैयार) शुरू करता है।
यही कारण है कि कईं बार हमें जब तुरंत ऐंटीबाडीज़ की आवश्यकता होती है तो हमें कोई ऐसा उपाय भी इस्तेमाल करना होता है जिस के द्वारा हमें ये ऐंटीबाडीज़ पहले से ही तैयार शरीर में पहुंचानी होती हैं ---ताकि वह समय भी नष्ट न हो जब कि कोई वैक्सीन ऐंटीबाडीज़ बनाने में अपना समय़ ले रहा है।
ऐंटीजन एवं ऐंटीबाडी की बात एक उदाहरण से और भी ढंग से समझ लेते हैं ( चाहे इस उदाहरण का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है ) --जब हमारी आंख में धूल का एक कण भी चला जाये तो यह तुरंत गुस्से में आ कर ( लाल हो जाती है) और आंख से पानी निकलना शुरू हो जाता है। आंख में धूल के कण को आप समझिये की यह एक ऐंटीजन है और आंख से निकल रहा पानी उस धूल-मिट्टी से आप को निजात दिलाने की कोशिश कर रहा होता है।
एक कीचड़ में छलांगे लगाते हुये नन्हें मुन्नों बच्चों का बहुत ही बढ़िया सा विज्ञापन आता है ना ----दाग अच्छे हैं ----तो हम कह सकते हैं कि वैक्सीन भी अच्छे हैं, ये अनगिनत लोगों का रोगों से प्रतिरक्षण करते हैं।
हां, तो महामारी अब घोषित हो गई और वैक्सीन सितंबर तक --- इस का जवाब यह है कि इतना सारा काम करने में समय तो लगता ही है ना ---- अब तो हम सब लोग मिल कर यही दुआ करें कि यह सितंबर तक भी आ जाये तो गनीमत समझिये। इस तरह की वैक्सीन की टैस्टिंग भी बहुत व्यापक होती है। एक बात और कि क्या न वैक्सीन को पहले ही से तैयार कर लिया गया ? ---इस का जवाब यह है कि जिस वॉयरस का पता चले ही कुछ अरसा हुआ है, तो पहले से कैसे इस के वैक्सीन को तैयार कर लिया जाता, आखिल वैक्सीन तैयार करने के लिये वॉयरस नामक का विलेन भी तो चाहिये।
अब मन में यह ध्यान आना कि ये वैक्सीन तैयार करने इतने ही आसान हैं तो एचआईव्ही का ही वैक्सीन क्यों नहीं अब तक बन पाया ----इस क्षेत्र में भी बहुत ही ज़ोरों-शोरों से काम जारी है लेकिन वहां पर समस्या यह आ रही है कि एचआईव्ही की वायरस बहुत ही जल्दी जल्दी अपना स्वरूप बदलती रहती है इसलिये जिस तरह की वायरस से बचाव के लिये कोई वैक्सीन तैयार कर उस का ट्रायल किया जाता है तब तक एचआईव्ही वॉयरस का रंग-रूप ही बदल चुका होता है जिस पर इस वैक्सीन का कोई प्रभाव ही नहीं होता। लेकिन चिकित्सा विज्ञानी भी कहां हार मान लेने वाली नसल हैं, बेचारे दिन रात इस की खोज़ में लगे हुये हैं। इन्हें भी हम सब की ढ़ेरों शुभकामनाओं की आवश्यकता है।
अभी जिस विषय पर लिखना जरूरी समझ रहा हूं ---वह है जैनेटिकली इंजीनियर्ज वैक्सीन ( genetically-engineered vaccines). इस पर बाद में कभी अवश्य चर्चा करेंगे।
आज जब मैं सुबह सुबह यह पोस्ट लिख रहा हूं तो मुझे अपनी गवर्नमैंट मैडीकल कालेज की अपनी एक बहुत ही आदरणीय प्रोफैसर साहिबा --- डा प्रेमलता वडेरा जी की बहुत याद आ रही है, उन्होंने हमें अपने लैक्चर्ज़ में इतने सहज ढंग से समझाया बुझाया कि आज पच्तीस साल भी आप तक अपनी बात उतनी ही सहजता से हिंदी में पहुंचा पाया। वह हमें नोट्स तो देती ही थीं लेकिन हम लोग भी उन्हें रोज़ाना दो-तीन बार पढ़ लेना अच्छा लगता था जिस से बेसिक फंडे बहुत अच्छी तरह से क्लियर होते रहते थे। वे अकसर मेरे पेपर का एक एक पन्ना सारी क्लास को दिखाया करती थीं कि यह होता है पेपर में लिखने का ढंग। थैंक यू, मैडम। मुझे बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत ही सम्मानीय,समर्पित मैडीकल टीचरों की क्रॉप के प्रोड्क्ट्स है जिन्हें हम लोग आज भी अपना आदर्श मानते हैं।
और हां, जहां तक एच1एन1 स्वाईन फ्लू की बात है , इस के लिये हम सब का केवल इतना कर्तव्य है कि बेसिक सावधानियां बरतते रहें जिन के बारे में बार बार मीडिया में बताया जा रहा है, बाकी जैसी प्रभुइच्छा। अब हम लोगों के लालच ने भी ने भी प्रकृति का दोहन करने में, उस का शोषण करने में कहां कोई कसर छोड़ रखी है अब उस का समय है हमें समझाने का। शायद कबीर जी ने कहा है --कभी नांव पानी पर, कभी पानी नांव पर !!
आज एक खबर जो सुबह अंग्रेज़ी के पेपर में दिखी जिस ने तुरंत इस पोस्ट लिखने के लिये उठा दिया ---वह यह थी कि दिल्ली में एक छः साल की बच्ची को फ्लू है जो कि विदेश से आई है-- उसे क्वारैंटाइन में रखा गया है और उस के दादू ने उस के साथ स्वेच्छा से रहना स्वीकार किया है।(उस बच्ची के साथ साथ उस महान दादू के लिये भी हमारी सब की बहुत बहुत शुभकामनायें)। पता नहीं, इस तरह की अनूठी कुरबानियों के बावजूद इन बुजुर्गों की इतना दुर्दशा क्यों है, कभी किसी ने सुना कि जब किसी बूढे़-बूढ़ी को बोझ की एक गठड़ी समझ कर ओल्ड-एज होम में पटक के आया जाता है तो उन के पोते-पोतियां भी उन के साथ रहने चले गये ------ मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना !!
dr.chopda ji,
जवाब देंहटाएंaapke vistrit aalekh k maadhyam se aaj bahut kuchh seekhne ko mila, itnee pechida baaten itne saral shabdon me kaha kar aapne ham paathkon par bada upkaar kiya hai.............aapko naman !
jai ho !
चलिए, इसी बहाने भारत में भी फ़्लू का वैक्सीन प्रचलित हो जाएगा.
जवाब देंहटाएंअरसा पहले बार बार के फ्लू अटैक से परेशान होकर अपने डॉक्टर से फ्लू वैक्सीन लगवाने के लिए परामर्श लेने गया तो उसने मुझसे उलटे पूछा था कि ये क्या होता है? - वो बेचारा डाक्टर अपनी अद्यतन जानकारियों के लिए मेडिकल प्रेक्टिशनरों पर जो निर्भर था!
लगता है हमारा देश ही नहीं विदेश भी सिर्फ अलोपथिक का ही दीवाना है , अरे भाई दूसरी pathy को भी मोका देना चाहये , अगर वैक्सीन सितम्बर मे आयेगी तो क्या तब तक हम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाये , मेरी नजर मे विदेश से आने वाले सभी यातियो को influnenzim 1m ( homeo ) ki 2 goli जरूर देनी चाहये , बाकि infected ( test kay bad )को Gelsemium, Arsenicum, Bryonia and Eupatorium Perfoliatum, 1M potency ki ३ दोसे देनी चाहए
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