शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

बीबीसी न्यूज़ का फेक पेज और करिश्माई दवाओं की जालसाजी

मैंने जब तीन चार साल पहले नेट पर गुप्त रोगों के लिए बिकने वाली दवाईयों का ज़िक्र किया तो मुझे लगा कि इस से आगे लोगों को क्या उखाड़ लेते होंगे इस तरह के लोग, लेकिन ऐसा नहीं है, ये किसी भी हद तक जा सकते हैं।

कल मुझे एक मित्र की ई-मेल आई..हम दोनों ने इंटरनेट लेखन का कोर्स इक्ट्ठा किया था...एक अजीब सी पंक्ति लिखी हुई थी और साथ में लिंक था कि पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक कर क्लिक करिए।

ज़ाहिर सी बात है कि जब आप को किसी परिचित से कोई मेल आती है तो आप कुछ सोचते नहीं...मैंने उस लिंक पर क्लिक किया और एक पेज आया जिस पर मुझ से पासवर्ड पूछा गया.....मैंने नहीं दिया......वापिस उस लिंक पर क्लिक किया तो बीबीसी का एक पेज खुल गया....यह पेज बीबीसी हेल्थ का था.....और किसी पतले होने के लिए बिकने वाले प्रोडक्ट के बारे में जानकारी दी गई थी।

उस पेज को देखते ही मुझे लगा कि उस बंदे को पता है कि मैं सेहत संबंधी विषयों पर बक-बक करता रहता हूं तो उसे रिपोर्ट रोचक लगी हो और मेरी जानकारी के लिए इस का लिंक भेज दिया हो...शायद।

मैंने उस पेज को पढ़ने से पहले ही उन्हें शुक्रिया करते हुए एक ई-मेल दाग दी..और एम.जे.अकबर के साथ जो फोटू उन्होंने मेरी खींची थी, उसे भिजवाने के लिए उन्हें कह दिया।


जी हां, अब उस पेज को पढ़ना शुरू किया... तो वह इतना अच्छा लगा कि यकीन नहीं हो रहा था कि यह बात सच हो सकती है। फिर भी अगर बीबीसी न्यूज़ के पन्ने पर यह सब कुछ छपा है तो इस पर शक कौन कर सकता है!

इस लेख में मोटापा कम करने की बात कही गई थी..और उन के प्रोडक्ट के एक महीने के इस्तेमाल से २३ पांड मोटापा कम करने की बात....बार बार शक होता कि यार, अगर ऐसा कोई प्रोडक्ट, इतना विश्वसनीय आ चुका है तो हमारी नज़र से कैसे बचा रहा।

बहरहाल, उस पेज पर बताया गया था कि इस पतले करने वाले प्राकृतिक उत्पाद को बीबीसी की हेल्थ राइटर ने अपने ऊपर आजमाया और हर सप्ताह के अपने अनुभव उस में साझा किए हैं......बहुत ही ज़्यादा अजीब सी बात लगी कि इस तरह के टुच्चे काम बीबीसी न्यूज़ जैसी संस्था कब से करने लगी!

पेज थोड़ा लंबा था, पूरा पढ़ा नहीं, बीच बीच में देखा......लेकिन इमानदारी से शेयर करूं तो एक बार तो लगा कि यार, इसे तो मैं भी एक महीने इस्तेमाल कर ही लूं, एक दम नेचुरल प्रोडक्ट है, मेरी भी तो तोंद निकलने लगी है...(खुशफहमी की इंतहा.... अभी भी सोच रहा हूं ...निकलने लगी है!!....निकली ही हुई है, दोस्तो...) ... आठ-दस किलो मुझे भी तो कम करने की बहुत ज़रूरत है, पैंट टिकती नहीं अपनी जगह! और जैसे कि मैं पहले लिख चुका हूं कि किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाईश तो थी नहीं क्योंकि  बीबीसी न्यूज़ का हेल्थ पेज यह सब जानकारी शेयर कर रहा था।

मैंने जस्ट तफरीह के लिए एक लिंक पर क्लिक किया जिस पर लिखा था कि आप को दवाई भेजने के लिए शिपिंग चार्जेज नहीं लिए जाएंगे, लेकिन फिर वहां जा कर पता चला कि वही दो हज़ार दो, तीन हज़ार रूपये दो.....अलग अलग साइज के डिब्बों के लिए.....बात कुछ हज़म हुई नहीं, इसलिए मुझे लगा कि छोड़ो यार, इन के चक्कर में क्या पड़ना, बीबीसी न्यूज़ का पेज कुछ कह रहा है तो क्या अपने दिमाग को ताला लगा दें!



इसी लिए मैंने उस पेज को बंद करने की कोशिश की तो मुझे स्क्रीन पर एक मेसेज आया कि क्या आप सच में यह पेज बंद करना चाहते हैं...देख लिजिए, प्रोडक्ट की बहुत कम मात्रा बची है, अगर आप अभी आर्डर नहीं करेंगे तो बाद में आप हाथ मलते रह सकते हैं।

यह पढ़ कर मेरा माथा ठनका कि यह कुछ तो लफड़ा है, बीबीसी नहीं इस तरह के बिक्री वाले लफड़ों में पड़ने वाली ... अचानक ऊपर एड्रेस बार में साइट का यू-आर-एल देखा तो पाया कि यह बीबीसी की साइट तो है ही नहीं, फिर भी पेज की ले-आउट देख कर अभी भी लगा कि चलिए इस लेख के शीर्षक को बीबीसी न्यूज़ की साइट के सर्च-बॉक्स में डाल कर देखते हैं.....वही किया, लेकिन कोई रिज़ल्ट नहीं आया।

एक तरह से पक्का हो गया कि यह बस फांदेबाजी है, और कुछ नहीं, और जो मुझे मेल मिला वह भी स्पेम मेल था।

आज कर सभी बच्चे अपने मां-बाप के गुरू हैं, मैंने अपने स्कूल जाने वाले बेटे से बात की....उसने बात थोड़ी-सुनी-थोड़ी अनसुनी कर दी। लैपटाप पर ये सब टैब तो खुले ही हुए थे।

रात को सोते समय मुझे अचानक बेटा कहने लगा कि आप जिस साइट की बात कर रहे थे वह फेक है ... स्पेम मेल आई थी आपको। पूछने लगा कि आपने कहीं अपना जी-मेल पासवर्ड तो नहीं भरा ..मैंने नहीं भरा था, फिर भी मैंने हैकिंग के अंदेशे से तुरंत अपना जी-मेल का पासवर्ड चेंज कर दिया।

बेटे ने बताया किस उस ने उस पेज की रिपोर्ट का कैप्शन जब गूगल सर्च किया तो जो सर्च रिजल्ट आए ..उस के पहले ही सर्च रिजल्ट पर जब क्लिक किया तो इस फेक पेज के बारे में ही उस में लिखा हुआ था कि किस तरह के स्पेम भेज कर ..और करिश्माई दवाओं की तारीफों के पुल बांध कर लोगों को जाल में फंसाया जाता है... इस तरह की जालसाजी से बचने के लिए जो साइट थी उस का लिंक यहां लगा रहा हूं ..देख लीजिएगा...



इस को पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए

अब बात यह उठती है कि मेरे दोस्त ने मुझे वह ई-मेल क्यों भेजी, पूरी संभावना है कि वह स्पेम लिंक वाली मेल मुझे उस की जानकारी के बिना आई हो...और इस के पीछे कारण वही हो कि उसने अपने जी-मेल खाते का पासवर्ड कहीं डाल दिया हो।

चाहे मैंने अपना जी-मेल पासवर्ड तो किसी ऐसी वैसी शुशपिसियस जगह पर नहीं डाला था, मुझे भी लगा कि कहीं मेरी तरफ़ से भी यह मेल आगे मेरे मित्रों तक न चला गया हो, इसलिए जी-मेल में जाकर Sent फोल्डर में देखा कि ऐसा कुछ नहीं है तो इत्मीनान हुआ।

लिखते लिखते समय का पता ही नहीं चला......पोस्ट की रोचकता हमारे समय में एक रूपये में बिकने वाले मस्त राम के नावल जैसी ......वह अलग बात है उस का कंटैंट और हुआ करता था......याद आ रहा कि दसवीं कक्षा के दौरान हमारी क्लास का एक लड़का अकसर इस तरह की किताबें लेकर आता था......दूसरों की पढ़ाई में खलल डालने के लिए...अपनी पढ़ाई वह अच्छे से कर लिया करता था.....कुछ छात्र उस से वह छोटी छोटी मस्त राम की किताबें छीन छीन कर आधी छुट्टी के वक्त जल्दी जल्दी पढ़ा करते थे...दो दो तीन तीन लड़के किसी किताब के पन्ने को पढ़ते पहले बार देखे थे.....ज्ञान अर्जित करने की इतनी व्याकुलता..... कौन सा धर्मात्मा था मैं भी , दो तीन पन्ने तो पढ़े ही होंगे, लेकिन मुझे लगा था कि यह ठीक नहीं है, हम लोग तो घर से पढ़ने आते हैं। वह लड़का अपनी पढ़ाई में अच्छा था, चला गया है विदेश.........अब कभी उसे संदेश भेजो तो कभी भी जवाब नहीं देता, मुझे आज भी उस बंदे से चिढ़ है ...क्योंकि उस ने हमारी क्लास के कुछ छात्रों को कभी गलत राह दिखाई थी। उस उम्र में हमारा मन भी कच्ची मिट्टी के समान होता है.... चलिए, उसे माफ़ कर देते हैं और इस बात पर यहीं मिट्टी डालते हैं।

और यह फांदेबाजी की कोशिश देखिए आज कल किस तरह से बीबीसी न्यूज़ का फेक पन्ना तैयार कर के की जा रही है, मुझे कल आभास हुआ कि नेट पर किसी को भी उल्लू बनाना कितना आसान है, क्यों बैंकों वाले नेटबैंकिंग फ्रॉड से बचने के लिए बार बार विज्ञापनों के माध्यम से आगाह करते रहते हैं...यह हम लोग अब जानते हैं, लेकिन फिर भी इस तरह के संदेहस्पद प्रोड्क्ट्स बेचने वाले कितने लोगों को रोज़ाना अपना शिकार तो बना ही लेते होंगे..

तो दोस्तो इस कहानी से हम सब ने (मैंने भी) यही शिक्षा ली कि अगर नेट पर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा मीठा या अच्छा दिखे तो अगला कदम रखने से पहले उस की थोड़ी जांच-पड़ताल कर लीजिए.......बनारस का ठग तो एक था, लेकिन नेट पर तो हर कदम पर बहुरूपिए, ठग, जालसाज़ अपने स्टाल सजाए बैठे हैं, बच के निकलिएगा...

नोट

१.        उस फेक पेज के स्क्रीन शॉट तो लगा दिए हैं, लेकिन उस का लिंक मैंने इस लेख में कहीं नहीं लगाया....जान बूझ कर कि कहीं यह कोई वॉयरस आदि ही न लिए हो। वैसे जिस साइट ने उस पेज की पोल खोली है, उस का लिंक तो ऊपर लगा ही दिया है, उस में भी उस फेक पेज के बारे में बहुत कुछ लिखा है।

२.        कहने की भी बात नहीं है कि अगर इस तरह के प्रोडक्टस कहीं से मुफ्त भी मिलें तो नहीं लेने चाहिए, पता ही नहीं क्या है क्या नहीं!!
             अभी कुछ पतला करने वाले हर्बल जुगाड़ों का ध्यान आ गया कि वे भी क्या क्या गुल खिला रहे हैं!

२.        मैने कभी भी पाठकों से नहीं कहा कि मेरी किसी भी बक-बक को शेयर करें, लेकिन इस पोस्ट के लिए विशेष रूप से कह रहा हूं ताकि भूल से भी कोई इस तरह के जालसाज़ों के झांसे में न जाए। इसे जितना शेयर कर सकते हैं, करिएगा। नेट पर शातिर लोग ताक लगाए बैठे हैं।

ओह माई गॉड, इतनी मगजमारी के बाद, सुबह सुबह कोई एक ठीक ठाक गीत सुनना-सुनाना तो बनता है, बेशक......इस समय यह गीत ध्यान में आ गया.....चिट्ठिए नी...दर्द फिराक वालिए ... (हिना फिल्म का यह बेहतरीन गीत)..

बुधवार, 14 जनवरी 2015

अब बंदरों के तो अच्छे दिन लदने वाले हैं...

मेरे फॉदर का दोस्तों के साथ बड़ा मज़ाक चलता था..एक बार मुझे याद है एक दोस्त के साथ यह बात शेयर कर रहे थे..बेरोजगारी को कंट्रोल करने के लिए एक बार कह रहे थे कि म्यूनिसिपेलिटी बस एक बड़ा सा काम ठेके पर देने ही वाली है ...शहर के आवारा कुत्तों को लंगोट पहनाने का!

यह तो था मजाक। लेकिन आज की खबर तो बिल्कुल भी मजाक नहीं है।

अभी अभी अखबार उठाई तो पहले ही पन्ने पर छपी खबर से पता चला कि सिनेस्टार हेमा मालिनी ने केंद्र में यह चिट्ठी लिखी है कि उस के संसदीय क्षेत्र वृंदावन में दो लाख बंदरों की नसवंदी करने की इजाजत दी जाए।

मुझे यह खबर देख कर बहुत दुःख हुआ। ठीक है, बंदरों की वजह से छोटी मोटी परेशानी होती है...लेकिन इतना बड़ा निर्णय लिया जाना और वह भी एक स्वयंसेवी संगठन की सिफारिश पर ... हेमा ने वहां के ही एक स्वयंसेवी संगठन के नाम की सिफारिश करते हुए यह भी कहा है कि उन्हें ही यह ठेका दिया जाना चाहिए। मथुरा -वृदंावन को बंदरों से निजात दिलाना हेमा का एक चुनावी वायदा भी था।

खबर पढ़ते ही पता नहीं अचानक मुझे इस सारी बंदर जाति से इतना प्यार कैसे उमड़ पड़ा!!

याद आता है जब हम लोग स्कूल आते जाते मदारी की डुगडुगी सुनते ही बंदर का खेल देखने के लिए कहीं भी रूक जाया करते थे। कितना मजा आता था! और कक्षा दो में वह बंदरों और टोपियों वाले सौदागर की कहानी सुन कर सच में कितना मज़ा आता था.....आता था ना?........तो फिर आज उन की नसबंदी की बात चलने पर चुप क्यों हो?...क्या पता एक ट्विटर हैशटैग से ही वे बच जाएं।



 कुछ दिन पहले मेरे घर के पास ही मुझे यह बंदर महाराज दिख गए। मैंने यह तस्वीर ली...मैंने गूगल प्लस पर शेयर करते समय यह लिखा था..


"अभी लखनऊ के बंगला बाज़ार एरिया में मैंने सड़क पर इसे देखा....एक बंदर इस साईकिल के अगले डंडे पर भी बैठा हुआ है..उसे मैंने ठीक से देखा नहीं कि क्या वह बंदर था या लंगूर...पहले तो मैंने सोचा कि यह बंदर का खेल दिखाने वाला होगा....फिर ध्यान आया कि आजकल कहां बच्चे यह सब देखते हैं ...उन्हें तारकमेहता का उल्टा चश्मा पहनने से फुर्सत मिले तो। फिर ध्यान आया कि यह लंगूर वाला होगा.......आज कल शहरों में जिन कॉलोनियों ने बंदरों ने आतंक मचा रखा होता है, वहां पर सोसायटी वाले एक लंगूर की सेवाएं ले लेते हैं.....बंदरों को डरा कर दूर रखने के लिए.......लगभग चार-पांच हज़ार की पगार पर........हमारी सोसायटी ने भी एक लंगूर को रखा हुआ है.....शाम को पांच छः जब जाते दिखता है तो लगता है कि हम जैसे उस की भी ड्यूटी का समय पूरा हो गया है."

मुझे बंदरों की शरारतों पर काबू रखने के लिए लंगूरों वाली चाल का पता आज से पांच साल पहले पता चला था जब मैं इग्नू में इंटरनेट लेखन के बारे में एक कोर्स करने के लिए महीना भर वहां कैंपस में रहा था....वहां पर उन्होंने कैंपस में लोगों की "सुविधा" के लिए उन्होंने कईं लंगूर रखे हुए थे.....किसी लंगूरवाले को ठेका दिया हुआ था। हम ने उन पर एक फिल्म भी बनाई थी।

यह दंपति तो बहुत जांबाज़ है.
कुछ दिन पहले फेसबुक पर जब यह तस्वीर दिखी तो ध्यान आ गया कि जगन्नाथ पुरी के पास इस ऐतिहासिक मंदिर में तो हम भी गये थे.....लेकिन इन बंदरों की वजह से सिट्टी-पिट्टी गुम ही रही थी.....किस तरह से वे भक्तों से कुछ भी छीन लेते थे....शायद किसी ने सलाह भी दी थी ...केले ले कर जाओ...रास्ते में इन्हें खिलाते जाओ, कुछ नहीं करेंगे....शायद वैसा ही किया था, लेकिन फिर भी सिर तो दुखा ही था....मेरी तो सीढ़ियों से ही वापिस लौटने की इच्छा हुई थी....लेकिन वापिस आने में भी उतना ही जोखिम था...यार, बड़ा डर लगा था उस दिन.....मंदिर माथा टेकते हुए भी यही प्रार्थना की थी केवल की भगवन, नीचे आटो तक सही सलामत पहुंचा दे, छोटे छोटे शरारती किस्म के बच्चे साथ हैं!

ओह माई गॉड---आज क्या क्या याद आ रहा है।

हां, हमारे घर के पास वाले घर में एक पहलवान नुमा बंदा था.....उस कमबख्त ने बंदरों से जूझने का एक अनूठा ढंग अपना रखा था...बंदरों का काफिला आने पर वह एयर-गन से फायर कर के अंदर घुस जाता और बंदरों का गुस्सा हमें सहना पड़ता, हमारे पेड़-पौधे तो रौंधते ही जाते वे जाते जाते......एक बार मेरी मां की टांग पर बुरी तरह से काट गए.....फिर टीके लगवाने पड़े।

पंगे लेने की तो हमें वैसे भी आदत नहीं है..लेकिन उस दिन के बाद हम ने एक फैसला किया कि बंदर आने पर चाहे कितना भी ज़रूरी काम आंगन में कर रहे हों, हम लोग कमरे में आ जाएंगे... और इस पर अभी तक कायम हैं!

मुझे लगता है इन से पंगा न लो तो ये कुछ नहीं कहते.......हां, सूखते कपड़े आदि नीचे गिरा देते हैं...कुछ कुछ करते तो हों.......लेकिन फिर भी!

खबर में यह भी लिखा है कि अभी जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी वृदांवन आए थे तो उन्हें चश्मा उतारने की सलाह दी गई थी क्योंकि बंदर चश्मा छीन लेते हैं।

मेरी मां अकसर कहती हैं ...जंगल रहे नहीं, पेड़ बेरहमी से काटे जा रहे हैं, स्काई-स्क्रेपर तैयार होते जा रहे हैं, ऐसे में आखिर ये जाएं तो जाएं कहां।

इस खबर के बारे में मेरा तो यह व्यक्तिगत विचार है कि ऐसा निर्णय लिया जाना सरासर गलत है......यह नहीं कि किसी भी एम.पी के मन में विचार आए और दो लाख बंदरों को खस्सी कर दिया जाए...(पंजाबी में इस काम को खस्सी करना ही कहते हैं, दोस्तो)..

वैसे तो आज ही खबर आई है.....एनिमल लवर्ज इस पर अपनी राय तो देंगे ही, अभी हमें मेनका गांधी को भी इस विषय पर सुनना है....वे एनिमल के अधिकारों की बहुत सजग पक्षधर हैं, देखिए उन की क्या राय है। वरना, मैं तो इसे प्रधानमंत्री की मन की बात तक तो पहुंचा ही दूंगा।

वैसे मुझे इस का ज़्यादा ज्ञान तो नहीं है, लेकिन इतना तो ध्यान है ... कहीं पढ़ा था कि बंदरों की नसबंदी करने से पहले एक गन से टीका दाग कर उन्हें बेहोश किया जाता है......मुझे पक्का याद नहीं है, प्लीज़ एक्सक्यूज़ मी.......वैसे सोचने वाली बात है कि अगर इस तरह का हथकंडा नहीं अपनाया जाता होगा तो फिर बंदरों की नसबंदी कैसे हो पाती होगी ...उन की नसबंदी तो दूर, उन के पास फटकना मुश्किल होता है!

लेिकन क्या यार आज इतने शुभ मकर संक्रांति के दिन इतनी अशुभ बातें......बंदरों को आज अच्छा अच्छा कुछ खिलाने के िदन....यह खबर पढ़ कर अच्छा नहीं लगा। कोई भी फैसला करने से पहले सभी स्टेक-होल्डर्ज़ से विचार-विमर्श होना चाहिए, हमारा ज्ञान तो तुच्छ है, नसबंदी के अलावा भी कुछ तो रास्ता होगा। हम जैसे लोग तो तस्वीर का एक रूख ही जानते हैं, लेकिन सभी रूख देख कर ही ऐसे निर्णय किए जाने चाहिए।

हेमा जी, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करिए.....जहां १२५ करोड़ पल रहे हैं, ये दो लाख बेचारे भी पल जाएंगे......अगर हम इन्हें रहने के लिए नेचुरल हैबीटेट उपलब्ध नहीं करवा सकते तो ऐसा कैसे हो सकता है कि हम इन की ऩस्ल पर ही....!

इस खबर ने मुझे इतना कचोट दिया कि मैंने तो अखबार को अगला पन्ना भी नहीं पलटा, और स्कूल में पढ़ने वाले मेरे बेटे को भी बहुत बुरा लगा यह पढ़ कर.....उसने भी कुछ कहा...मैं यहां नहीं लिख सकता!!

अगर बात गंभीर सी लगी हो, तो चलिए आप की फिल्म का यह गीत सुन लेते हैं... जिस के मदारी के खेल ने भी हमें कम एंटरटेन नहीं किया.......आज भी इसे सुनना अच्छा लगता है..

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

अगर परिंदे भी हिंदु और मुसलमान हो जाएं...



अभी मैं सोने लगा था..फोन चैक किया.. एक व्हाट्सएप ग्रुप पर एक ऑडियो मैसेज सुना....मन को इतना छू गया कि सोने का कार्यक्रम थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया।

मैं उन पंक्तियों को इस पोस्ट के जरिए आप तक पहुंचाने वाला हूं...मुझे नहीं पता ये किस ने लिखी हैं, लेकिन उस अनजान रूह को बार बार प्रणाम्.....विचारों की सुंदरता के लिए।

"यह पेड़ ये पत्ते ये शाखें भी परेशान हो जाएं,
अगर परिंदे भी हिंदु और मुस्लमान हो जाएं, 
सूखे मेवे भी यह देख कर हैरान हो गए, 
ना जाने कब नारियल हिंदु और खजूर मुसलमान हो गये। 
ना मस्जिद को जानते हैं ना शिवालों को जानते हैं, 
जो भूखे पेट होते हैं वो सिर्फ़ निवालों को जानते हैं। 
मेरा यही अंदाज़ जमाने को खलता है,
कि मेरा चिराग हवा के खिलाफ़ क्यों जलता है। 
मैं अमन पसंद हूं मेरे शहर से दंगा दूर रहने दो, 
लाल और हरे में मत बांटो, मेरी छत पर सिर्फ़ तिरंगा ही रहने दो।"

                                                            --- एक अनजान फरिश्ता

कुछ वर्ष पहले अपने ब्लॉगर बंधु मोदगिल जी से एक ब्लॉगर मिलन के दौरान ये पंक्तियां भी सुनी थीं, बहुत अच्छी लगी थीं......
मस्जिद की मीनारें बोलीं मंदिर के कंगूरों से 
हो सके तो देश बचा लो इन मजहब के लंगूरों से।।


छरहरी काया पाने की ललक में

पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं में छरहरी काया पाने और प्रसव के बाद इसे बनाए रखने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जा रहे हैं।

कुछ ऐसे ही उपाय जिन के बारे में हम लोग अकसर देखते सुनते रहते हैं, वे ये रहे...
३० वर्ष या उस के भी पार शादी करने के बावजूद कुछ समय तक बच्चे पैदा न करने का निर्णय 
बच्चे पैदा होने की सही उम्र के बावजूद इसे गर्भपात से रोकना...कैरियर या फिगर की चिंता में
बच्चा पैदा होने पर उसे स्तनपान न करवाना--फिगर खराब होने के अंदेशे से
और भी हैं कुछ, सब कुछ यहां लिखने से क्या हासिल लेकिन!!

मैं तो बस इतना कहने आया हूं कि कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर एक रिपोर्ट देख कर चिंता हुई..उस में बताया गया था कि किस तरह से कुछ महिलाएं प्रसव के तुरंत बाद ही अपनी छरहरी काया के लिए एक दूसरे आप्रेशन के लिए तैयार हो जाती हैं जो उन को स्लिम-ट्रिम रखने के लिए किया जाता है। 

यह बड़ी चिंताजनक बात है.....नीचे मैं इस रिपोर्ट का लिंक लगाए दे रहा हूं.. आप देखेंगे कि किस तरह से सिज़ेरिएन सेक्शन के तुंरत बाद एक और आप्रेशन.......विशेषज्ञ इस की सलाह नहीं देते क्योंकि इस के िलए भी अगले दो सप्ताह तक मां को आराम करना होगा, इसलिए वह अपने शिशु पर ध्यान नहीं दे पाती। और ये शुरूआती दिन मां-शिशु की भावनात्मक बांडिंग के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं......विश्वभर के विशेषज्ञों ने यह सिद्ध कर दिया है। 

विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि कम से कम एक साल तक तो महिलाओं को प्रसव के बाद इंतज़ार कर लेना चाहिए.....वैसे भी अपने खाने पीने की तरफ़ सजग होकर और शारीरिक व्यायाम की तरफ़ ध्यान देकर काफी हद तक छरहरी काया को तो बनाए रखा ही जा सकता है!

 एक बात और......अगर इस तरह के बेफिजूल से आप्रेशनों की बजाए महिलाएं एवं उन के परिजन प्रसव के बाद उन के खाने पीने को देसी घी से लैस करने की बजाए उस के संतुलित एवं पोष्टिक होने पर ज़्यादा ध्यान दें...तो बेहतर होगा। देश में प्रसव के बाद तो महिलाओं में जैसे देशी घी और उस से बने उत्पाद ठूंसे जाते हैं....ठीक है, यह सब लिमिट में ज़रूरी है, लेकिन वही बात है......संतुलन!

इस रिपोर्ट में जो बातें लिखी थीं, मैंने इन्हें हिंदी में लिखने में थोड़ा असहज महसूस कर रहा हूं....इसलिए इंगलिश में ही ठेल रहा हूं......

Donning a New Look....
Mummy Makeover usually comprises of breast surgery, body contouring/tummy tuck and vaginoplasty (in vaginal deliveries) of which tummy tuck is the most popular. 

During Tummy tuck, aim is to keep the scar in the panty line!

विडंबना देखिए......एक तरफ ज़्यादा खाए पिए और कम काम करने की वजह से शरीर से थुलथुल होने का डर और इस डर को भुनाने में लगे कुछ विशेषज्ञ....और दूसरी तरफ़ कम वजन की वजह से गर्भवती महिलाओं में गर्भ में पल रहे शिशु के साथ साथ उन की स्वयं की जान को खतरा।

दो दिन पहले मैं किसी दुकान पर खड़ा था, मैंने देखा एक कमजोर शरीर का आदमी और उस से भी ज़्यादा कमजोर दिख रही उस की गर्भवती बीवी जिस की आंखें पूरी तरह से धंसी हुई थीं, उस आदमी ने अपने हाथ में एक प्लास्टिक की पन्नी में कुछ चकुंदर रखे हुए थे....इसी आस के साथ कि शायद इसी से उस मां का खून बढ़ जाए.......मेरी भी दिल से यही प्रार्थना निकली कि उस महिला के साथ ज़रूर ऐसा कुछ हो जाए...शीघ्र सेहतमंद हो जाए, यह और इस के आने वाला शिशु सेहतमंद रहे....Miracles do happen!

सोमवार, 12 जनवरी 2015

फोर-स्ट्रोक स्कूटर भी इक्कीसवीं सदी की बड़ी उपलब्धि..

जिन स्कूटरों को किक की ज़रूरत नहीं होती...शेल्फ-स्टार्ट वाले स्कूटर ... मेरे विचार में तो ये भी इस सदी की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।

शायद आज की युवा पीढ़ी को लगे कि इस में कौन सी बड़ी बात है, लेिकन यह सच में कितनी बड़ी बात है यह मेरी उम्र के लोग ही बता पाएंगे।

सच में जब याद आता है कि किस तरह से १९८० के दशक में मैं अपनी येज्दी मोटरसाईकिल को किक पे किक मार कर स्टार्ट किया करता था। बहुत अच्छी हालत में थी...लेिकन सुबह सुबह खास कर सर्दी के दिनों में तो किक मार मार के नानी याद आ जाया करती थी।

मैकेनिक तो कह दिया करता था कि सुबह सुबह चोक लगा लिया करो, लेकिन चोक भी कुछ न करती थी उन ठंड के दिनों में।

कहावत है ना ..कंगाली में आटा गीला....बिल्कुल उसी तरह एक तो जेब में यही सो पचास रूपये हुआ करते थे और ऊपर से इसी खौफ़ के साये में ही वह सड़क पर दौड़ा करती थी कि क्या पता चलते चलते कब हड़ताल कर दे और इसे मैकेनिक को दिखाने की नौबत आ जाए.....फिर बीस तीस रूपये का फटका......जी हां, होता भी कुछ यूं था....हमारे घर और कालेज के रास्ते में एक पुल आता था.....जब कभी पुल चढ़ते हुए थोडी सी अलग तरह की आवाज़ निकालने लगती तो दिल ऐसे डूबने लगता जैसे किसी मां का बच्चा बीमार पड़ गया हो।

पुल के ऊपर पहुंचते ही...और फिर कालेज पहुंच कर बांछे खिल जातीं.....फिर लगता, चलो अभी तो पहुंच गए ..वापिसी के समय देखेंगे.

मैकेनिक कभी कुछ कहता कि इस का तेल निकल रहा है, इस का प्लग ऐसा है, शार्ट हो गया है, टैंकी में कचरा है...जिसे सुन कर मेरा भी बहुत कुछ शार्ट होने लगता....सब कुछ गिना देता लेकिन दो ही मिनट में चला देता.

फिर १९९० में एलएमएल ली ......बहुत अच्छा लगा इस की सवारी करना......बस, सुबह सुबह सर्दी के मौसम में थोड़ी दिक्कत हुआ करती थी, समय समय पर सर्विस करवा लिया करते थे....कोई खास दिक्कत हुई नहीं कभी इस के साथ।

कुछ ही समय बाद मिसिज़ ने वह स्कूटर खरीदा जिस में शेल्फ-स्टार्ट था.....हां, हां, काईनेटिक...आप किक भी इस्तेमाल कर सकते थे....लेिकन शेल्फ-स्टार्ट का फीचर मन को इतना भा गया कि बस, हर समय उस ही निकालने की इच्छा हो....उस को हम ने बहुत यूज़ किया... अब तक तो मोटरसाईकिल भी शेल्फ-स्टार्ट आ चुकी थीं.....देख कर बहुत ताजुब्ब होता था, कईं बार चलाया भी।

लगभग तभी हमने एक एक्टिवा खरीद ली......सब लोग उस की प्रशंसा किए करते थे......अभी उसे खरीदा नहीं था, एक दिन एक समझदार सा बिजनेस मैन कहीं मिल गया.....कोई बात छिड़ी तो उसने कहा ... अब आप देखें यह एक्टिवा स्कूटर बिक रही है इतनी .....लेकिन इस में है क्या, सारे का सारा प्लास्टिक लगा हुआ है।

उस की बात सुन कर यही लगा कि यह तो बेवकूफी वाली बात है.......यार, तुमने कबाड़ थोड़ा ही न बेचना है......इतनी बड़ी कंपनी है, प्लास्टिक या लोहा लगाने का निर्णय इन के हाथ में थोड़ा होता होगा।

जितनी बड़ी संख्या में यह एक्टिवा नाम की स्कूटर बाज़ार में दौड़ती है मुझे कईं बार लगता है कि इस की कंपनी इस सफलता की हकदार है। कोई परेशानी नहीं होती इसे चलाने में ......युवा से लेकर बुज़ुर्ग भी इसे सहजता से चला रहे होते हैं, महिलाएं भी आसानी से इसे कंट्रोल कर लेती हैं।

बस अगर समय समय पर इस की सर्विस करवा ली जाए.. तो इस को स्टार्ट करने में दिक्कत आती नहीं....बस, सुबह पहली बार इसे स्टार्ट करते समय किक का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है। लेिकन मैं इसे जब भी चलाता हूं मैंने शायद इसे स्टार्ट करने के लिए किक का इस्तेमाल ही नहीं किया था।

यह पोस्ट मैंने यह बताने के लिए लिखी कि इस तरह के स्कूटर में मेरे जैसे लोग भूल ही जाते हैं कि किक भी है.......पिछले महीने की बात है, बाज़ार में मैंने कहीं खड़ी की, फिर से स्टार्ट करने लगा तो स्टार्ट ही न हो, ऐसे में मैंने बड़ी कोशिश की, चोक भी लगाई.........हार कर मैं इसे एक मैकेनिक के पास ले गया, उसे तकलीफ़ बताई। उसने कहा ...बाऊ जी, किक से भी नहीं हो रही क्या?......मैं उस की तरफ़ ऐसे देखने लगा जैसे चोरी की स्कूटर हो, उसने एक ही किक लगाई और स्कूटर स्टार्ट............सच में मुझे यह अहसास ही नहीं था कि इस स्कूटर में किक भी होती है, क्योंकि मैंने कभी भी इस किक को इस्तेमाल ही नहीं किया था।

तो फिर दोस्तो हुई कि नहीं, शेल्फ-स्टार्ट स्कूटरों वाली इक्कीसवीं सदी की एक बड़ी उपलब्धि।

नोट.......पोस्ट का कंटैंट ऐसा है कि लग सकता है कि जैसे यह पोस्ट स्पांसर्ड हो, नहीं, बिल्कुल नहीं.....मैं कभी भी प्रायोजित लेखन में विश्वास नहीं रखता, सारे ब्लॉग में एक भी पोस्ट प्रायोजित नहीं है, और शायद न ही कभी होगी। लेकिन कभी कभी किसी चीज़ की कार्यप्रणाली से आप इतने प्रभावित हो जाते हैं कि आप उस की दिल खोल कर तारीफ़ किए बिना रह नहीं सकते।

सोना कितना सोना है..

व्हाट्सएप पर कुछ कुछ तस्वीरें-बातें शेयर होती रहती हैं..जो हम सब को यादों की बारात में शामिल कर देती है। आज भी एक तस्वीर पंजाबी मुटियार की शेयर की गई थी जिसने इतने गहने पहने थे कि पंजाबी में कहते हैं ..सोने से लदे होना.....बस वह सोने से लदी ही हुई थी।

कल ही इसी ग्रुप पर यह चर्चा हो रही थी कि सोने के ज़ेवर खरीदना तो महिलाओं की कमज़ोरी है।

मुझे लगता है कि सोना शायद ३० हज़ार रूपये प्रति तोला के आस पास है, बस इस के अलावा इस पर कुछ भी चर्चा के िदन लद गये।

इतनी वारदातें होने लगी हैं कि अब तो असली क्या और नकली क्या, हर पीली धातु से डर लगने लगा है।

चलिए, जल्दी जल्दी कुछ आसपास की घटनाएं बता दूं....आज से बीस बरस पहले की बात है, एक बंदा बंबई में बस में यात्रा कर रहा था..अचानक उस की अंगुली में कुछ गीला गीला सा लगा.. देखा तो किसी ने उस के हाथ की अंगूठी के उतारने के चक्कर में उस की अंगुली ही काट दी थी.....उस दिन के बाद कभी हाथ में अंगूठी डालने की हिम्मत नहीं हुई। अखबार में आदमी की तस्वीर भी आई थी।

१०-१२ साल पहले की बात..मेरी पत्नी और उस की भाभी दिल्ली में एक सत्संग से बाहर निकल रही थी, मोटरसाईकिल पर दो लड़के आए और मेरी श्रीमति के गले से चीन झपट पर तुरंत आंखों से ओझल हो गये। शुक्र यह था कि यह वारदात करते समय उन्होंने किसी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया।

मेरे सामने एक बार पुरानी दिल्ली स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी छूटी, तो खिड़की के किनारे बैठी एक औरत के गले से चैन बाहर से किसी ने खींच ली....उस दिन उस सिख जेंटलमेन ने अपनी पत्नी की अच्छी क्लास ली..कहने लगा>>>..."यह तो होना ही था, कहा भी था कि इसे मत पहनो, और पहना ही है तो खिड़की वाली सीट पर मत बैठो। ये चोर उचक्के तो गिरोह में काम करते हैं, वारदात करने के बाद अगले ही पल गायब हो जाते हैं, अब कौन XXXXXX(मोटी सी गाली) इन के चक्कर में पहले तो गाड़ी छोड़े, फिर पुलिस के धक्के खाए, मिलना मिलाना फिर भी कुछ नहीं।"

बंदा बातें समझदारी की कर रहा था।

कुछ वर्ष पहले की ही बात है.....मेरी मदर-इन-ला एक शादी में करनाल गई हुई थीं, उन की बंद अटैची से लगभग २० तोले सोना निकल गया...यह एक मिस्ट्री ही बनी रही कि यह कैसे हो गया?...शादी वाले घर में आप किस से कुछ कहें?
लगभग हर रोज़ इस तरह की वारदातें अखबारों के पन्नों की सुर्खियां बनी होती हैं। कुछ ज़्यादा डेढ़ सयानी महिलाएं यह सोच कर खुश होती हैं कि उन्होंने तो नकली सोना पहन रखा है। सोचने वाली बात है कि शायद इस से पैसे का नुकसान होना अगर बच भी गया, जान तो खतरे में है ही.....पहले तो कोई उचक्का पता ही नहीं किस हथियार के साथ तैयार हो कर आ रहा है, और नहीं तो कान की बालियां खींचने के चक्कर में तो कितनी महिलाओं के कान ही कट जाते हैं।

अब क्या क्या लिखें, पहला ज़माना और था..मेरी मां कहती हैं कि वे शादी से पहले भी सोने की दो चूड़ी, बूंदे और गले की चेन डाल कर रखती थीं। विवाह शादियों में भी हम लोग देखा करते थे .. कईं कईं दिन पहले ही हम लोग शादी वाले घर में जा कर डेरा जमा िलया करते....फिर किसी कमरे में महिलाएँ अपनी अपनी सोने के गहनों की पोटलियां खोल लेतीं, और फंक्शन में डालने के लिए एक दूसरे से गहनों का आदान प्रदान किया करतीं। और एक बात, विवाह शादियों में लोग पड़ोसियों से गहने ले कर चले जाया करते थे.......सच में लगता है कि हम लोगों ने रामराज देखा है।
मुझे ऐसा लगता है कईं बार कि सोना खरीदना ही बेवकूफी है.......विवाह शादी में कुछ लेना देना भी हो तो भी सोना न खरीद कर, कोई एफ.डी आदि दे देनी चाहिए।

एक बात और याद आ गई... विवाह शादी पर जाने से पहले.. एक्स्ट्रा गहने आदि किसी ट्रंक में रख कर अपने पड़ोसी के यहां रख जाया करते थे। यह सोच कर हैरानगी होती है ना कि आज से ३०-३५ वर्ष पहले भी हम लोग आपस में इतना विश्वास कर लिया करते थे!!

अपने इर्द-गिर्द देखता हूं ..अपने सर्कल में तो यही देखता हूं लोग सोने की वजह से परेशान हैं.......क्या करें, क्या न करें, महंगा इतना हो गया है कि इस की नुमाइश कर के अपने से थोड़े कमजोर रिश्तेदारों पर धाक जमा नहीं सकते.....वरना उचक्के जीना हराम कर दें, अगर किसी ने संभाल कर रख हुआ है तो किस काम का!........बस, देग पर बैठे सांप की तरह उस की हिफाजत करते रहिए।

अकलमंद लोग हैं वे जो सोना बेच कर कोई घर आदि खरीद लिया करते हैं या किसी बड़े उद्देश्य से बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में इसे लगाते हैं.. सोना तो अपनी चमक खो चुका है सच में। कारण यह भी है कि अमीर गरीब के बीच की खाई बहुत गहरी हो चुकी है.....आदमी जिस का बच्चा बीमार है, या जिस के घर में दो दिन से चूल्हा नहीं जला, उसे अगर कोई सोने की चेन पहने औरत दिखेगी तो वह तो मन में यही सोचता है कि शराफत, गई तेल लेने.......बाकी हिसाब तो बाद में हो जाएगा, पहले पापी पेट को तो भरें......यही हो रहा है, ज़ाहिर सी बात है कि इस चक्कर में कौन अनैतिक, नैतिक के चक्कर में पड़ता है।

सीधी सी बात है कि कोई भी सेफ नहीं है......आज कल एक और ट्रेंड देखा गया है.....औरतें अपने पति के साथ कहीं जाती हैं तो खूब गहने पहन लेती हैं.......पति तो साथ है यही सोच कर........पति ही तो है, कोई किंग-फुंगली या गामा पहलवान तो नहीं।

सोने का सही इस्तेमाल भी कईं जगह सुना......और लोगों के कईं ढंग भी सुने इसे छिपाने के। जब हम लोग अपने ग्रैंड-पेरेंट्स के बारे में सुनते हैं तो यही बताते हैं कि पाकिस्तान से आते वक्त वे लोग अपने साथ बस सोना ही लेकर आ सके.....थोड़ा भी नहीं, सोने की एक दो ईंटें, तीन-चार किलो सोना, और तब सोना सस्ता भी तो बहुत था......और हिंदोस्तान पहुंचने पर उस सोने को बेच बेच कर जैसे तैसे सिर छुपाने के लिए घऱ बने, सभी बच्चों-भाईयों-बहनों की पढ़ाईयां, शादियां हुईं......घर का खर्चा चलता रहा ...और सोना खत्म होने पर बिल्कुल कंगाली जैसे दिन भी आ गये.......कुछ लोग उद्यमी थे, उन्होंने सोना बेच कर छोटे मोटे धंधे शुरू कर लिए जो चल निकले और फिर कभी उन्हे पलट कर न देखना पड़ा। हमारे बड़े-बुजुर्ग पहली श्रेणी में आते हैं.....जो भारत आने पर छोटा मोटा धंधा करने में झिझकते ही रह गये। हम लोगों ने बचपन में बहुत कुछ देखा और अनुभव किया है, ये सब बातें मैं काल्पनिक नहीं लिख रहा हूं। यह तो हुया सोने का सही इस्तेमाल ..किस तरह से सोने की वजह से भुखमरी से बच गये लोग।

सोने को छिपाने की बात.......मुझे अच्छे से याद है जब मैं छोटा सा था तो हमारे पड़ोस वाली आंटी मेरी मां को एक दिन बता रही थीं कि कैसे उसने अपना सारा सोना तंदूर के नीचे एक गड्डे में दबा कर रखा हुआ था...और ट्रांसफर होने पर तंदूर तोड़ कर उसे निकाल कर ले गये थे। लोगों ने तब भी सारे जुगाड़ कर ही रखे थे।

जाते जाते एक कमैंट हो जाए........दिल की बात बताऊं ..अब किसी महिला से भी कोई वारदात होती है ना ..किसी की चेन किसी ने झपट ली, कितनी की चूड़ीयां उतरवा लीं..किसे के कानों की बालियां खींच ली, कान फट गये........फिर भी ऐसी किसी भी घटना की शिकार महिला से सहानुभूति बिल्कुल न के बराबर होती है, यही लगता है कि जब सब कुछ रोज़ाना अखबारों में छप रहा है तो भी अगर समझ नहीं आ रही तो कोई इनका क्या करे!




मैं तो बहुत बार कहता हूं कि जो हमारे पारंपरिक कांच और स्टोन से बने गहने हैं, क्या वे हम आकर्षक हैं ?.........वैसे भी.....Thank God, Beauty is not skin deep!!        And of course, Beauty lies in the eyes of the beholder! ..... हाथ कंगन को आरसी क्या!!

चूडियों की बात चलती है तो मुझे बचपन में देखी फिल्म सास भी कभी बहू थी का यह गीत अकसर ध्यान में आ ही जाता है......

रविवार, 11 जनवरी 2015

आसानी से समझ आती है मुनव्वर राना की शायरी

हिन्दुस्तान ९ जनवरी २०१५
पिछले दो वर्षों में कईं बार शायर मुनव्वर राना को देखने-सुनने का मौका मिला...जैसे ही उन का नाम पुकारा जाता है, श्रोतागण झूमने लगते हैं।

उर्दू के नामी शायर मुनव्वर राना को इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। मुनव्वर राना हिंदी पाठकों और श्रोताओं में भी बहुत लोकप्रिय हैं। उनका गद्य भी बहुत चुस्त और जीवंत है।

मुनव्वर राना कि किताब शहदाबा को हाल ही में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई थी। पिछले दिनों इन के एकल पाठ मुनव्वर बस मुनव्वर का।

यह काव्य पाठ इसी कामयाबी के मद्देनजर रखा गया था। शेर पढ़ने से पहले मुनव्वर राना ने इस किताब के वजूद में आने का कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि वह दस महीने से लगातार अस्पताल के बिस्तर पर पड़े थे। आईना देखते तो महसूस होता कि सामान समेटने का वक्त आ गया है।

इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी तमामतर शायरी को समेटते हुए शहदाबा की रचना की। उन्होंने कहा कि ये किताब मेरी तमामतर शायरी की बटोरन है। बार बार मुनव्वर राना के बारे में कहा जाता है कि वह आसान जुबां में शायरी करते हैं।

इस बारे में मुनव्वर राना ने एक किस्सा सुनाया कि वह कलकत्ते के होटल में अपनी जवानी के दिनों में खाना खा रहे थे जब एक मजदूर को दाल में गुलाब जामुन मिलाकर खाते देखा। वजह पूछने पर मजदूर ने कहा कि बचपन में खाना खिलाने की गरज से मां अक्सर खाने में कुछ मीठा मिला देती थी। कल रात मां को ख्वाब में देखा तो आज यों खाना खआ रहा हूं। मुनव्वर कहते हैं जब उन्होंने अपनी मशहूर गजल मां लिखी तो इस बात का ध्यान रखा कि उसके अहसास उन जैसे उर्दू नवाज को तो समझ आए हीं साथ साथ उस मजदूर जिसका साहित्य और अदब से कोई वास्ता नहीं...वह भी आसानी से समझ सके।

मुनव्वर की पहली गजल का यह शेयर....
पेड़ उम्मीद का यह सोचकर न काटा अभी। 
फल न देगा तो हवाएं आएंगी।

कुछ और ... 

जब भी मेरी कश्ती सैलाब में आ जाती है, 
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

कलंदर सगंमरमर के मकानों में नहीं मिलता। 
मैं असली घी हूं बनिया की दुकानों में नहीं मिलता।

एक कम पढ़े लिखे का कलम होके रह गई।
यह ज़िंदगी भी गूंगे का गम होके रह गई।

इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए।

आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिए। 

जिंदगी कब तलक दूर दूर फिराएगी हमें
टूटा-फूटा ही सही घरबार होना चाहिए। 

अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए। 
हिन्दुस्तान ११जनवरी २०१५

बहुत बहुत बधाईयां, मुनव्वर साहब। 

शनिवार, 10 जनवरी 2015

एक्स्ट्रा दांत भी कभी कभी लफड़ा करता है...


यह तस्वीर एक ४०वर्ष के आसपास की उम्र की एक महिला की है...आज यह किसी दांत की तकलीफ़ के लिए आई थी...यह जो तकलीफ़ आप अगले वाले दांतों में देख रहे हैं, ज़ाहिर सी बात है इन्हें इस की कोई तकलीफ़ नहीं है, और न ही थी।

यह जो आगे के दो दांतों के बीच में आप एक छोटा सा दांत देख रहे हैं, इसे मिज़ियोडेंस कहते हैं, मोटी मोटी बात यह है कि यह एक्स्ट्रा दांत है.....मैं शायद अभी तक आगे के दांतों में इस तरह के एक्स्ट्रा दांत के ५०-६० केस तो देख ही चुका हूंगा।

इस में कौन सा बड़ी बात है जो मैं इस विषय पर इस पोस्ट को लिखने ही बैठ गया।

इस औरत की बात करें तो इसे इस एक्स्ट्रा दांत से कुछ अंतर नहीं पड़ता......शुक्र है कि यह इस के बारे में ज़रा भी कांशियस न दिखी। पूछने पर बताने लगी कि जब छोटी थी तो इतना ध्यान दिया ही नहीं दिया जाता था, न ही किसी ने उस दौरान टोका, हां, अब कभी कभी कोई सखी-सहेली ऐसे ही पूछ लेती है कि यह आप का आगे का दांत कैसे?

अब ज़रा मैं इस तरह के एक्स्ट्रा दांत के बारे में अपने ज्ञान को थोड़ा झाड़ लूं, इज़ाजत है?

तो सुनिए दोस्तो कि अब मां-बाप में दांतों के बारे में अच्छी अवेयरनेस हो गई है......वे चाहे वैसे बच्चे को नियमित दांतों  के चेक-अप के लिए लाएं या न लाएं... लेकिन जब वे सात वर्ष की उम्र के आसपास एक नुकीला सा छोटा दांत आगे वाले दो दांतंों के बीच में उगता देखते हैं या तालू पर इसे उगता देखते हैं तो दंत चिकित्सक के पास आ जाते हैं....और ऐसे अधिकांश केसों में इस एक्स्ट्रा दांत को निकाल कल सारा मामला चुपचाप सुलट जाता है...और अधिकांश केसों में जो दूरी आगे के दो दांतों में हो चुकी होती है, वह इस के निकलने के बाद खत्म हो जाती है...इस का कारण यह भी है कि अधिकांश केसों में यह इतना बड़ा भी नहीं होता, जितना बड़ा यह एक्स्ट्रा दांत इस महिला में दिख रहा है।

कुछ और अनुभव... कुछ बच्चे ऐसे आए जिन तालू में यह एक्स्ट्रा दांत निकल चुका था, या निकल रहा था...और कुछ बच्चों में इस की वजह से बोलचाल में थोड़ी दिक्कत देखी गई.....इन सब केसों में इस दांत को तुरंत निकाल कर मसले का बढ़िया हल हो जाता है.....और इस तरह के दांत उखड़वाने में कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि इन की जड़ बिल्कुल छोटी ही होती है। बिना किसी तरह के आप्रेशन के ही निकाल दिया जाता है।

कुछ युवतियां इस तरह की समस्या के साथ आईं......उन की स्थिति बिल्कुल इस महिला की ही तरह की थी...दो दांतों के बीच में एक दम सटा हुआ एक्स्ट्रा दांत.......अब अगर दंत चिकित्सा की किताबों की बात करें तो वे यही कहती हैं कि इस तरह के एक्स्ट्रा दांत को तो निकालो और उसे उखाड़ने के बाद जो गैप हो जाता है, उसे ब्रेसेज़ लगा कर बंद कर दिया जाए। अधिकतर लोग इस तरह के लंबे इलाज के चक्कर में नहीं पड़ते।

वैसे भी किताबें तो बहुत कुछ कहती हैं, लेिकन यह इतना आसान नहीं है, अधिकतर सरकारी अस्पतालों में इस तरह की सुविधआ होती नहीं, बाहर इस पर बहुत पैसा खर्च आता है, और समय तो लगता ही है.....इसलिए कुछ युवतियों में तो मैंने इस तरह के दांत की शेप ही बदल दी ताकि किसी को ज़्यादा पता ही न  लगे कि कोई एक्स्ट्रा दांत है भी यहां! इस काम के िलए दांत के कलर का एक मेटिरियल काम आता है ... बिल्कुल दांत के कलर से मिलता जुलता..जिसे हम लोग डैंटल कंपोज़िट मेटीरियल कहते हैं।

अधिकतर केसों में बड़े उत्साहवर्धक परिणाम मिले......मतलब यही कि जो भी किया मरीज उस से संतुष्ट लगे।
एक बार की बात है कि मैं ही गच्चा खा गया....एक महिला के दांतों का मैं कुछ इलाज कर रहा था, उस ने बताया कि उस के अगले दांतों के बीच में भी एक भद्दा सा दिखने वाला एक्स्ट्रा दांत था, लेकिन उसने तो उसे उखड़वा कर एक नकली दांत ही निकलवा लिया......चाहे वह नकली दांत जैसा भी था, उसे बिल्कुल ठीक लग रहा था, बिल्कुल आस पास के दांतों से मेल खाता हुआ।

बस एक बात और... ज़रूरी नहीं कि इस तरह के एक्स्ट्रा दांत को निकलवाने पर गैप बहुत ही ज़्यादा हो, कईं बार जब एक्स्ट्रा दांत बहुत ही छोटा होता है तो उसे उखाड़ने के बाद आसपास के दांतों पर एक डेंटल मेटिरियल लगा कर उस गैप को बंद कर दिया जाता है।

इस पोस्ट में कुछ भी समझ में आ गया हो तो गनीमत है, बस ऐसे ही ध्यान आ गया तो सोचा नेट पर डाल दो, कभी किसी ज़रूरतमंद को गूगल करते मिल जाएगी तो उसे खुशी होगी !!

दांत के खड़्डे में क्या भरवाना ठीक रहता है?

आज जब मैं एक महिला के दांतों की सड़न से ग्रस्त खड्डे वाले दांत भर रहा था तो मुझे विचार आया कि शायद मरीज भी सोचते होंगे कि दांत में क्या भरवाना ठीक रहता है..क्योंकि विकल्प तो बहुत से होते हैं..तरह तरह के डैंटल मेटिरियल हैं...लेकिन सच तो यह है कि यह मरीज के सोचने की बात है ही नहीं।

यह निर्णय केवल और केवल एक प्रशिक्षित दंत चिकित्सक ही करे तो बेहतर ही नहीं, बहुत ही बेहतर होता है। यह मैं इस लिए लिख रहा हूं कि कईं बार कुछ मरीज़ ही आ कर यह कहने लगते हैं कि उन्हें तो सफेद कलर की फिलिंग चाहिए, कुछ कहते हैं लेज़र फिलिंग चाहिए...ऐसे बहुत कुछ। 

लेकिन मेरी सलाह यह है कि कभी भी दंत चिकित्सक के पास जा कर फिलिंग की अपनी च्वाईस नहीं बतानी चाहिए... क्योंकि उसे अच्छे से पता है कि आप के किस दांत के लिए कौन सी फिलिंग लंबे समय तक चलने वाली है!

चलिए, थोड़ा देखते हैं कि दंत चिकित्सक यह निर्णय करने के लिए किन किन बातों को ध्यान में रखता होगा... 
  • मरीज की उम्र 
  • दांत दूध के हैं या पक्के हां?
  • आप के हंसने पर वह दांत का हिस्सा कितना दिखता है?
  • क्या फिलिंग वाली जगह चबाने के लिए काम में आने वाली है?
  • जिस खड़डे में फिलिंग होनी है वह कितना गहरा है..
  • क्या उस खड़डे में पहले भी फिलिंग भरी हुई थी लेकिन उस में यह टिकी नहीं, यह खाली हो गया..
  • आप किस प्रोफैशन में हैं, क्या आप शो-बिज़नेस में हैं?
  • और बड़ी मुनासिब सी बात है कि प्राईव्हेट प्रैक्टिस में यह भी एक सवाल की क्या आप उतनी पेमेंट कर सकते हैं?
ऐसा मानिए कि यह तो बस उदाहरण है... आप के दांत का खड्डा देखते ही उस के मन में बहुत से प्रश्न आ जाते हैं....

टॉिपक मैंने आज कुछ ज़्यादा ही टैक्नीकल सा चुन लिया है, इसलिए चलिए इसी औरत की उदाहरण लेकर बात खत्म करते हैं। 


हां तो जिस औरत के दांतों की मैंने तस्वीर यहां लगाई है, यह पचास वर्ष की है और इस के बहुत से दांतों में सड़न हो गई है और यह सड़न दांत के ऊपरी हिस्से (क्रॉउन) और जड़ (जो मसूड़े में होती है) के जंक्शन पर है.....आप जैसा कि देख रहे हैं कि तसवीर के बाईं तरफ़ जो आप को सफेद सी फिलिंग दिख रही हैं, वे तीनों फिलिंग मैंने आज की है.. अभी और भी दांतों में फिलिंग करनी शेष है। 

जिस बात पर मैं विशेष ज़ोर देना चाहता हूं वह यह है कि देखने में यह फिलिंग इतनी बढ़िया नहीं दिख रही (दांत के साथ कलर मैचिंग के नज़रिये से), है कि नहीं, लेकिन इस उम्र में इस महिला के लिए यही मैटिरियल (ग्लास-ऑयोनोमर सीमेंट) सर्वश्रेष्ठ है...क्योंिक जब यह हंसती है तो दांतों का यह हिस्सा नज़र नहीं आता... और यह मेटिरियल बहुत लंबे समय तक बिल्कुल ठीक ठाक लगा रहता है....इस की विशेषता यह है कि यह दांत में लगे रहते फ्लोराइड नामक तत्व भी बहुत कम मात्रा में रिलीज़ करता रहता है जिस से दांतों में फिर से दंत-क्षय भी नहीं होता। कुछ मरीज़ों में मैंने इस तरह की फिलिंग १९८९ (२५ वर्ष पहले की थीं) और उन के दांतों में अभी भी यह बढ़िया टिकी हुई है.......इस में मेरी कोई महानता नहीं है , यह मेटीरियल ही इतना बढ़िया है। 

और अगर हम इस तरह के एरिया में बिल्कुल दांत के कलर से मैचिंग मेटीरियल (डेंटल कंपोज़िट) लगा दें (मरीज की फरमाईश पर या जैसे भी) तो यह कुछ ही वर्षों में थोड़ा सिकुड़ने लगता है, जिसे से ठँडा-गर्म की शिकायत या फिर से दंत-क्षय लगने लगता है, या दांत काला पड़ने लगता है.. ऐसे में इस फिलिंग को बार बार बदलने की नौबत आ जाती है। इसलिए इस तरह की फिलिंग को इस उम्र के मरीज़ में प्रेफर नहीं किया जाता। 

हां, अगर इसी तरह की फिलिंग -दांत के इसी हिस्से में कम उम्र के युवक-युवती में करनी हो तो इस महिला में इस्तेमाल किए गए इस मेटिरियल को इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंिक युवक-युवतियां जब हंसते हैं तो उन के अगले दांतों का काफी हिस्सा नज़र आता है। 

और एक बात.....यह लेज़र-वेज़र फिलिंग कुछ नहीं होती......वही डेंटल कंपोज़िट ही है िजसे एक लाइट से एक दो मिनट में पकाया जाता है, अब कुछ लोगों ने इसे ही लेज़र फिलिंग कह के पुकारना शुरू कर दिया है। 

शायद मेरे जैसे चिकित्सकों के लिए निर्णय कर पाना ज़्यादा आसान होता है लेकिन अगर मैं भी कभी प्राईव्हेट प्रैक्टिस करूंगा या अगर करता तो मुझे भी आखिर मरीज़ की च्वाईस का भी ध्यान करना होता (लेकिन इस के नुकसान मैंने पहले ही गिना दिये हैं) ....वरना कईं बार दंत चिकित्सक को मरीज़ ही खोना पड़ सकता है। अगर आप नहीं भी करेंगे उस की फरमाईश का, तो वह कहीं और से करवा ही लेंगे। बेहतर होगा कि सब कुछ अच्छे से समझा दिया जाए, और अगर फिर भी फरमाईश ही पूरी करनी पड़े तो कर दी जाए।

मुझे लिखते ही लगने लगा है कि ये बातें मेरे लिए तो सामान्य हैं, लेकिन पाठकों के लिए ये बातें बोझिल होती जा रही होंगी, इसलिए इस बात को यही रोक देते हैं, इस उम्मीद के साथ कि जो बात आप तक पहुंचाना चाहता था वह तो पहुंच गई होगी!


शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

सकट पूजा भी संपन्न हुई...

तीन चार दिन पहले मेरे सहायक ने मुझे कहा कि वह आठ तारीख को छुट्टी लेगा.....क्योंकि उस दिन सकट व्रत है ..और उस का सारा सामान उसने स्वयं घर ही में तैयार करना होता है। बाज़ार में मिलावटी सामान बिकता है.. जल्दी जल्दी में उस ने बताया कि यह व्रत माताएं अपने बेटों की लंबी आयु के लिए रखती हैं। और जल्दी जल्दी में उसने तैयार की जाने वाली चीज़ों की लिस्ट भी बता दीं.....लईया के लड्‍डू, तिल के लड्‌डू, शकरकंदी, चने के लड्‍डू, राजदाना (सील)के लड्डू  आदि।

वैसे तो चार पांच दिन पहले हमें भी बाज़ारों में जब यह सब कुछ भारी मात्रा में बिकता दिखा तो यही लगा कि कोई व्रत-त्योहार ही पास होगा..

उसी दिन मैंने अपने सहायक से कहा कि यार, यह व्रत केवल लड़कों के लिए ही क्यों!  कहने लगा कि अब जो पुरातन समय से नियम चले आ रहे हैं वैसा ही चल रहा है, बेटों के लिए ही है केवल। मैं यही सोचता रहा कि सारे व्रत औरतें ही क्यों रखें....पति परमेश्वर के लिए करवा चौथ, बेटे के लिए सकट चौथ, भाई के लिए भैया-दूज ...और भी होंगे ज़रूर कुछ व्रत जो मेरे नॉलेज में नहीं होंगे।

लेिकन मैंने जा कल और आज इस सकट पूजा के बारे में अखबार में पढ़ा उस में मुझे कहीं नहीं लगा कि यह केवल बेटों के लिए ही रखा जाता है.. शायद समय करवट ले रहा है इसलिए खुल कर अखबार में नहीं लिखा गया है।
कल और आज की अखबार की कतरनें यहां चस्पा कर रहा हूं, आप भी देखिए...

हिन्दुस्तान ८ जनवरी २०१५ (पिक्चर पर क्लिक करिए) 

हिन्दुस्तान ९ जनवरी २०१५ (पिक्चर पर क्लिक करिए) 
आज सुबह मेरा सहायक मेरे लिए इस व्रत का प्रसाद ले कर आया जिसमें उसने सब कुछ अपने हाथ से बनाया था...बहुत बढ़िया....

सच में भारत त्योहारों-पर्वों का देश है......

सुन्दर बनने के फेर में बार-बार न लगाएं क्रीम

आज की हिन्दुस्तान अखबार में केजीएमयू के प्लास्टिक सर्जरी विभाग के डा विजय कुमार का एक बहुत बढ़िया लेख प्रकाशित हुआ है...डाक्टर साहब ने बिना वजह से चेहरे पर क्रीमें थोप-थोप कर उसे बिगाड़ने के बारे में बड़े अच्छे से सचेत किया है।
इस को अच्छे से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए
जब कोई विशेषज्ञ इस तरह की बातें करता है तो बेहतरी है हम चुपचाप मान लें।

हम देखते ही हैं ..आज अधिकतर लोग अपने चेहरे को बिगाड़ने में लगे हैं.....मेरे सहायक परिचर ने भी अस्पताल में एक गोरा होने की क्रीम रख छोड़ी है... यदा कदा देखता हूं चेहरे पर रगड़ रहा होता है। मैं उसे कहता हूं कि तू क्यों इन चक्करों में पड़ता है, इन से कुछ नहीं होता। लेकिन उस का भ्रम है कि उसे तो फर्क महसूस होता है।

अकसर मुझे कुछ युवा मिलते हैं जिन के चेहरों पर मुंहासे आ जाते हैं...१५-१८-२० की उम्र में.....मैं देखता हूं कि जो युवा तो इन के लिए कुछ भी नहीं करते...वे तो बिल्कुल ठीक रहते हैं, कुछ समय बाद ये मुहांसे अपने आप ही सूख जाते हैं...बिना कोई भी निशान छोड़े.....क्या हम लोगों को नहीं होते थे ये मुहंासे, होते थे, लेकिन हम कुछ भी तो नहीं करते थे। लेकिन आज के युवाओं को इन मुहांसों के बिगड़े रूप से बचने के लिए जंक-फूड और अपनी जीवनशैली को दुरूस्त करने की भी बहुत ज़रूरत है...नींद भी पूरी होनी चाहिए ..जो सोशल मीडिया के चक्कर में अधूरी रह जाती है।

और अगर लगे कि इन मुहांसों की वजह से ज़्यादा ही परेशानी हो रही है तो चमडी रोग विशेषज्ञ से मिल कर ही कुछ करिए...अपने आप ही किसी विज्ञापन में देख-पढ़ कर या फिर पड़ोस के कैमिस्ट की सलाह से कुछ भी न लगाएं.....चेहरा बिगड़ जाएगा, फिर तो चमडी रोग विशेषज्ञ के पास जाना ही होगा।

डाक्टर साहब ने बार बार फेशियल के नुकसान भी गिनाए हैं, ध्यान से पढ़िएगा।

मैं भी इन दो तीन महीनों की  सर्दी के दिनों में बस चेहरे पर सुबह नहाने के बाद बिल्कुल थोड़ी सी कोल्ड-क्रीम लगा लेता हूं... चेहरे पर शुष्कपन नहीं रहता, बस इसलिए, और कुछ नहीं करते।

वैसे भी ..... Beauty is not skin deep! ....अगर आप के भीतर सुंदरता है तो वही बात झलकेगी.... रंग ले आएगं, रूप ले आएंगे..कागज के फूल खुशबू कहां से लाएंगे। गांवों-कसबों की महिलाएं अधिकतर पहले कहां इन सब चक्करों में पड़ा करती थीं, और उन के चेहरे की चमक-दमक देखते ही बना करती थी।



मैं कईं बार मजाक में कहता हूं कि जितना पैसा आप लोग अपने आप को ब्यूटीफाई करने के लिए खर्च कर देते हैं, अगर उतने पैसे का फल-फ्रूट या जूस ही पी लिया जाए.....पौष्टिक आहार लिया जाएं, तो स्थायी सुंदरता से ही चेहरे चमकने लगें।

दादी-नानी के घरेलू नुस्खों जैसे मुल्तानी मिट्टी, उबटन आदि तो सब अब नाम ही से आज के युवाओं को कितना आउटडेटेड सा लगता होगा, है कि नहीं, सब कुछ एकदम हिप होना चाहिए!

एक बात बिल्कुल इस विषय से जुड़ी नहीं है, दोस्तो, चेहरे की बात हो रही है तो ज़ाहिर है शर्माने की बात भी इस के साथ थोड़ी जुड़ तो सकती है.....दोस्तो, आज सुबह जब मैं विविध भारती पर "मेरा गांव मेरा देश" का यह गीत सुन रहा था तो अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि पिछले चार दशकों से मेलों में फिल्माए गये अनेकों गीत आए......लेकिन ऐसा क्या है, कि यह गीत बचपन के दिनों से लेकर आज तक हम सब के दिलों पे राज करता है..... क्या ख्याल है?


इसे मैंने यहां पर इस लिए भी लगा दिया है क्योंकि मैं चाहता हूं कि आप थोड़ा हंसे-मुस्कुराएं......यहां एक नन्हे फरिश्ते की तस्वीर देख रहे हैं.....यह एक बेहतरीन नुस्खा हम से शेयर कर रहा है.....

"अगर बिना वजह चिंता में डूबे रहोगे तो चेहरे पर मुहांसे फूटेंगे... 
अगर रोनी सूरत बनाए रहोगो तो झुर्रियां ही पड़ेंगी, 
अगर हंसते-मुस्कुराते रहोगे तो गाल मेरे जैसे डिंपट वाले क्यूट हो जाएंगे।।"

पति, पत्नी और वो

टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ हर रोज़ सप्लीमेंट आता है..लखनऊ सप्लीमेंट... जैसे रोटी के साथ आचार लेते हैं, ठीक उसी तरह की चटपटी खबरें लिए हुए.....कौन सा सिनेस्टार किस के साथ देश-विदेश के किस हाटेल में देखा गया, कौन से लोग किस पेज-थ्री पार्टी में किस पोशाक में आए... किस अधेड़ उम्र की स्टार को कौन सा ब्वॉय-फ्रेंड मिल गया..बस यही कुछ होता है इस में.........शायद मॉड लोगों को अल्ट्रा-मॉड बनाए रखने का एक प्रयास। मेरा बेटा कहता है कि ये सब इन सितारों की छवि के लिए इन की पी-आर एजेन्सियां करती रहती हैं।

मैं अकसर इन चार-छः पन्नों को पढ़ता ही नहीं हूं....हां, तस्वीरें ज़रूर कभी कभी देख लिया करता हूं। कल रात भी सोते सयम एक अजीबोगरीब फीचर पर नज़र पड़ गई ..किस तरह से लखनऊ की फैमिली कोर्ट में तलाक के केसों में तलाक की पुख्ता वजह पेश करने के लिए...पति और पत्नी अपनी बीवी या शोहर के मोबाइल फोन में एक खुफिया सॉफ्टवेयर डाउनलोड करने या करवाने की जुगत कर लेते हैं.....फिर उस की हर ऑन-लाइन हरकतों पर नज़र रखी जाती हैं, किस से चैटिंग की, किस को क्या संदेश भेजे, किस को और क्या क्या भेजा, सब कुछ। 

और इस सारी एक्टिविटी को कोर्ट के समक्ष--तालाक के एक पुख्ता कारण के रूप में पेश किया जाता है और एक दूसरे से छुट्टी लेने का काम आसान हो जाता है। 

फिर से अगला शिकार ढूंढने में खुली छूट!!

मैंने दो दिन पहले विविध भारती पर एक मनोरोग चिकित्सक के इंटरव्यू के बारे मंें लिखा था ना कि किस तरह से वह आक्रामक होकर इतना एक्साईटेड हो कर कह रहा था कि शादी के तुरंत बाद ही अगर लड़की को लगे कि सब कुछ ठीक नही है तो एडजस्ट करने की बजाए, अपने मां-बाप को फोन मिलाओ, रिश्ता ही तोड़ लो, और घर की ईज्ज़त बचाने के चक्कर में न पड़ा जाए, उस ने यही कुछ कहा था। 

शायद समय बहुत जल्दी से बदल रहा है.... एक तरफ औरतें पतियों के ऊपर अत्याचार के आरोप लगाती फिरती हैं, दूसरी तरफ़ पत्नी पीड़ित पतियों के दल बनने लगे हैं। कल ऐसी ही एक तसवीर एक मित्र ने व्हाटस-एप पर शेयर की थी। 


वैसे सोचने वाली बात यह है कि आज कल के दंपति कैसे भूल जाते हैं कि घर से निकली बात बाहर केवल तमाशा ही बनती है, जिस किसी रिश्तेदार और मित्र को कोई वास्ता नहीं भी होता, वह भी चटपटा विषय देख कर अपनी राय देने आ जाता है, अपने गिरेबां में झांके बिना कि वह अपनी निजी ज़िंदगी में क्या गुल खिला रहा है। अकसर ऐसे रिश्तेदार जो स्वयं हर तरह के विवाहेतर संबंधों (extra-marital relations) की दलदल में गले तक फंसे पड़े होते हैं, वे इस तरह के मामलों में कंसल्टैंट से बन जाते देखे गये हैं। 

वैसे तो अब नौबत यह भी नहीं आती, क्योंकि शादीशुदा आदमी-औरत अकेले रहते हैं. कईं बार तो एक छत के नीचे रहने के लिए शादी की ज़रूरत भी नहीं समझी जात--- बस एक हिंदी फिल्म को लिव-इन रिलेशनशिप का आइडिया देने भर की जरूरत होती है.....ऐसे में कोई भी support system तो होता नहीं, ज़रा सा भी शक हुआ तो एक दूसरे को तलाक रूपी GPL मारने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। 

अब कमबख्त टीवी के ड्रामे देखने की इच्छा ही नहीं होती.....जितना इन सेटलाइट चैनल वालों ने रिश्तों में दरारे डालने का काम पिछले १२-१५ वर्षों में किया है, कुछ को तो लाइफ-टाइम अचीवमैंट एवार्ड मिलना चाहिए। अब तो कभी गलती से भी कोई ड्रामा जाए तो सिर दुःखता है...इन्होंने कुछ स्टीरियोटाइप तैयार कर दिये हैं......सास और बहू के रिश्ते सदैव नकारात्मक, पति दूसरी औरतें की चक्कर में, घर में बहू पर बुरी नज़र रखने वाली दूसरे लोग, और इन सब पर सास-बहू-पति के शर्मनाक षड़यंत्र पे षड़यंत्र........क्या हमारा आज का समाज सच में ऐसा ही है ?... यह निर्णय आप करें। 

वैसे मुझे एक बात हमेशा सोचने पर मजबूत करती है कि पता नहीं यार कुछ लोगों में ये हार्मोन किस स्तर पर उछलते होंगे िक उन का एस सीधे-सादे वैवाहिक संबंध से मन ही नहीं भरता..........यह बात अधिकतर पुरूषों पर ज़्यादा लागू होती है। औरतें तो अभी ठीक ही हैं, सोप-ओपेरा की बात छोड़िए, उन का तो यह धंधा ही है, टीआरपी के लिए हम कुछ भी करगेा.....राई को पहाड़ बना कर भी पेश किया जाता है। 


मैं सोच रहा था कि पहले लोग जितने भोले भाले होते थे, उन के शक भी उतने ही भोले भाते होते थे........जैसे शौहर की कमीज़ पर एक लंबा बाल (संभवतः किसी दूसरी औरत का) देख कर, किसी कपड़े पर लिप-स्टिक का थोड़ा सा भी निशान या फिर घर में रखी उस कमबख्त ऐश-ट्रे में जले हुए टुकड़े का कोई अंश.......ऐसा अकसर हम फिल्मों में देखा करते थे बस.......शुक्र है ये खुफिया वुफिया कैमरे की बातें तब न होती थीं, वरना "आप की कसम", पति-पत्नी और वो जैसी फिल्में ही हम तक न पहुंच पातीं......क्या ख्याल है?.. जहां तक मुझे ख्याल है आप की कसम फिल्म की कहानी भी वैवाहिक संबंधों में उपजे शक पर ही टिकी हुई थी...आप को भी करवटें बदलने वाली बातें तो याद ही होंगी!!

  हां, यार, एक बात तो मैं शेयर करनी भूल ही गया कि पिछले दिनों एक बार जैसे ही टीवी आन किया तो एक बेहद चर्चित सीरियल की विलेन सी करतूतें करनी वाली बीवी किसी से मिल कर अपने पति के कमरे में खुफिया कैमरे फिट करवा रही थीं.....सोचने वाली बात यह है कि अगर घर ही में इस तरह के शुभचिंतक छुपे बैठे हैं तो बाहर के किसी दुश्मनों की ज़रूरत किसे होगी!!


 और फिर जब ऐसा करने कराने वालों की रात की नींदे उड़ जाती हैं तो डाक्टर क्या कर लेंगे, सिवा नींद की गोलियां लिख कर देने को ....

लिखते लिखते सुनंदा पुष्कर की मौत का ध्यान आ गया...जहाज में नोंकझोंक, एयरपोर्ट पर पति  के मुंह पर तमाचा, फिर हाटेल के कमरे में......मौत......पास में पड़ी नींद और अवसाद के इलाज की गोलियों की खाली स्ट्रिप्ज़। 




गुरुवार, 8 जनवरी 2015

घर जैसा अपना घर..

अभी मुझे खुशी हुई.. बेटा स्कूल से आ कर सुना रहा है कि अभी किसी स्टेशनरी की दुकान पर दुकानदार ने उस से ७० रूपये की बजाए.. ५० रूपये देने को कहा.. बताने लगा कि मैंने उसे कहा कि आपने इस रिफिल के नहीं जोड़े....और मैंने उसे पूरे ७० रूपये दिए...उस की ऐसी बातें सुन कर अच्छा लगता है .. कहता है...पापा, छोटी छोटी इन की दुकानें होती हैं, १०-२० तो इन की कमाई होती है!!

मैंने उसे शाबाशी दी और आशीर्वाद दिया कि ऐसा ही बने रहना। बचपन से ही ऐसी बातें करता है.. आवारा कुत्तों के लिए एक बड़ा सा हाउस बनाऊंगा, पिछले दिन वाली रोटी अगर हमारे लिए ठीक नहीं तो जानवर के लिए कैसे ठीक हो सकती है, घर में अलग अलग कमरे नहीं होने चाहिए.....एक बड़ा सा हाल हो, और सब के पलंग उस में लाइन से बिछे हों....बहुत सी बातें ऐसी ही करता है िक मैं ईश्वर का यही शुक्रिया करता हूं कि नैतिक शिक्षा में तो पास हो गया लगता है। ईश्वर इस की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करे।

हां, घर की बात चली..कमरों की, बिस्तरों की.....दोस्तो, मेरे भी इस बारे में कुछ विचार हैं।

मुझे ऐसे लगता है कि हम लोग अपने घरों को आने वाले मेहमानों के लिए तैयार करते रहते हैं.....और मेहमान जब आते हैं तो दो-तीन दिन में चले जाते हैं और लोकल मित्र आिद तो चाय-नाश्ता या लंच-डिनर कर के नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। है कि नहीं?

लेकिन अधिकतर घरों में ज़्यादा फोकस यही होता है कि ड्राईंग रूम को तो मेहमान के आने पर ही खोला जाए.. मिट्टी आ जायेगी....हम लोग इस मामले में बड़े लक्की हैं, दोस्तो......हम लोग अधिकतर अपने ड्राईंग रूम का ही इस्तेमाल करते हैं, बिल्कुल लाउंज की तरह इस में डेरा लगाए रहते हैं। एक रिश्तेदार के यहां जाते हैं ..इतना महंगा आलीशान घर, और उस से भी आलीशान ड्राईंग-रूम...लेकिन वह खुलता किसी मेहमान के आने पर ही है.....सारे परदे खिंचे रहते हैं, टनाटन.......हवा अंदर आने का कोई जुगाड़ नहीं, बस एसी ज़रूर लगे हुए हैं.......सब कुछ कितना नकली, नीरस और निर्जीव सा जान पड़ता है !! मुझे नहीं लगता उन्होंने कभी खिड़कियां खोली भी हों!!



यार, ड्राईंग रूम में फर्नीचर, कलीन, परदे ऐसे कि जो आने वाले को अच्छे लगें... बड़ी अजीब सी बात लगती है.....यही नहीं, हम लोग घर में विशेषकर ड्राईंग-रूम में सामान भी इस ढंग से रखने की कोशिश करते हैं कि आने वाला बस वाह वाह कह उठे।

मैं इसे ठीक नहीं मानता। अतिथि का पूरा सम्मान होना चाहिए.....उस के खाने-पीने और आराम करने का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए....और हमारे देश में तो वैसे भी अतिथि देवो भवः। अतिथि हर तरह से खुश रहना चाहिए, यह हमारे देश के संस्कार हैं......बहुत अच्छी बात है, लेकिन घर की व्यवस्था ऐसी हो कि उसे इंप्रेस किया जा सके, यह बेवकूफी है....कब आयेगा अतिथि, यार, कभी आयेगा भी कि नहीं, कितना समय ठहरेगा.......ठहरेगा भी कि नहीं...लेिकन हम लोग अपने ३६० दिनों को उन पांच दिनों के चक्कर में गंवा बैठते हैं।

इंकलाब की पुरवाई कल हमारे ड्राईंग-रूम में चली..
दोस्तो, यह तो आप अच्छे से जानते हैं कि अतिथि केवल सम्मान चाहता है....अगर हम उस का दिल से सम्मान कर रहे हैं, तो साधारण आतिथ्य से भी वह बहुत खुश होता है। इस पर आगे कुछ लिखना बंद करता हूं......आप सुधि पाठक हैं।

हां, तो दोस्तो कल हमने ड्राईंग रूम में कुछ चेंज किये...हम लोगों ने ड्राईग रूम में रखा एलसीडी एक दो महीने से सब की सहमति से बंद कर रखा है... तीन चार महीनों के लिए......इसलिए इसे देख देख कर चिढ़ होती थी, उसे एक ठिकाने लगा दिया और डाइनिंग टेबल को ड्राईंग रूम में घसीट लिया ताकि इत्मीनान से कोई भी पढ़ लिख भी तो सके। यहां पर रोशनी आदि का भी बढ़िया इंतजाम है, इसलिए अच्छा लगता है यहां बैठना।

वह बात दूसरी है कि मेहमान आए उसे यह व्यवस्था उतनी बढ़िया न लगे तो इस में इतनी कौन सी बड़ी बात है.......मुझे लगता है कि मेहमान को इन सब बातों में उलझने की फुर्सत ही कहां होती है, ये सब हमारे ही ख्याली-पुलाव होते हैं।


परदों की बात आए तो देखा जाता है कि हम भारी भरकम महंगे महंगे परदे टांग तो देते हैं और ये फिर अगली आठ-दस साल तक सारे कुनबे का सिर दुःखाए रहते हैं.....है कि नहीं? बिल्कुल साधारण से सूती कपड़े के परदे कितना सुकून देते हैं यह मुझे ही पता है क्योंिक मैं स्टडी में हमेशा इसी तरह के कूल से परदे ही टंगवाने पसंद करता हूं।

ये विचार मेरे पर्सनल हैं....घर की साज सज्जा में कोई नियम नहीं होने चाहिए......सब कुछ सहमति से सब के मन की खुशी से तय होना चाहिए.......मुझे तो यह भी बड़ा अजीब लगता है कि घरों में सजाने के लिए हज़ारों रूपये की पेन्टिंग्ज़ और शो-पीस रखे जाते हैं........कईं बार स्थानीय शिल्पकारों द्वारा बिल्कुल सस्ते से बिकने वाले लकड़ी और मिट्टी से तैयार शो-पीस ज़्यादा खुशी देते हैं, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह खालिस २२ कैरेट सोने के गहनों से लदी किसी महिला के सामने एक साधारण सी दिखने वाली पत्थर और नकली मोतियों की माला पहन कर ही बाजी मार जाती है।

पोस्ट के माध्यम से एक यूनिवर्सल सच्चाई को किसी और को नहीं, अपने आप को एक बार याद दिलाने का एक उपाय किया है.....वैसे कुछ वर्ष पहले भी यह काम किया था....यह लिख कर.......अब इस कंबल के बारे में भी सोचना होगा। 

बिना सिर पैर वाली बातें लिखते लिखते मुझे वह गीत याद आ गया जिसे आपने बरसों से भुला दिया होगा......अब ऊपर वाली सभी बातों को एक तरफ़ हटा कर, पूरी तन्मयता से इसे सुनिए......दो पंछी दो तिनके ..कहो ले के चले हैं कहां.........ये बनाएंगे इक आशियां......मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है।। काश, हम सब के मकान सही मायनों में घर बने रहें.....यह आज के समय की मांग के साथ साथ चुनौती भी है!!

ज्ञान बांटने की होड़ लगी हो जैसे..

अभी मैं अखबार पढ़ रहा था.. रेडियो सिटी चल रहा था।

तभी रेडियो सिटी की आर जे बोलीं कि जिसे देखो आज ब्लड-प्रेशर हो रहा है, जिसे देखो कहता है..मैं चल नहीं सकता... ऐसे में आप को करना क्या है, आप को अपनी दवाई रात में सोने से पहले खानी होगी... इससे इस बीमारी के ऊपर कंट्रोल ज़्यादा बढ़िया होता है और हार्ट-अटैक आदि का खतरा कम हो जाता  है।

रेडियो जॉकी तर्क यह दे रही थीं कि रात में में कोई काम तो करना नहीं होता, बस आराम ही करना होता है, इसलिए एक बार अगर रात में दवाई ले ली तो उच्च रक्त चाप का बेहतर कंट्रोल हो पाएगा।
Photo credits/nlm.nih.gov
यह तर्क बिल्कुल बेबुनियाद सा लगा... वैज्ञानिक तथ्यों से रहित.....मुझे अपना समय याद आ गया...१९९४ के आसपास की बात है, मुझे थोड़ा रक्तचाप रहने लगा था...बंबई में रहते थे तब...उन्हीं दिनों मैंने प्राणायाम् और मेडीटेशन (ध्यान) सीखा....मेरी कोशिश रहती थी कि प्राणायाम् के तुरंत बाद तो कभी कभी रक्त चाप की जांच करवा ही लूं।

उसी दौरान दो चार बार तो मुझे अपनी मिसिज़ के अस्पताल भी बाद दोपहर जाने का अवसर मिला.....कईं बार जब लंच-ब्रेक होता.. तो मैं पहले वहां पर १५-२० मिनट के लिए मेडीटेशन करता और फिर ब्लड-प्रेशर को नपवा लेता....सामान्य आने पर राहत महसूस होती।

फिर मुझे समझ आने लगी कि यह बात अजीब सी है...बी.पी का स्तर तो सारे दिन ही सामान्य रहना चाहिए...ठीक है सुबह और शाम की रीडिंग में थोड़ा अंतर हो सकता है, लेकिन इस तरह से प्राणायाम् अथवा ध्यान के तुरंत बाद बी पी जांच करवा के आश्वस्त हो लेना पूरी तरह से ठीक नहीं है।

फिर जब धीरे धीरे यह बी पी का लफड़ा समझ में आने लगा तो अपना ज्ञान इस तरह से झाड़ दिया...

हाई-ब्लडप्रेशर का हौआ.. भाग १

दोस्तो, माफ़ करना....सच में मुझे पता नहीं कि कुछ साल पहले क्या लिखा था इन पोस्टों में.....लेकिन इतना इत्मीनान है सच के अलावा कुछ न लिखा होगा। हलवाई को अपनी मिठाई का पता रहता है, इसलिए वह नहीं खाता उसे.....बरसों बाद मेरा भी अपने लेखों के साथ व्यवहार कुछ कुछ इसी तरह का ही होता है।

हां, तो उस रेडियोसिटी की आर जे की बातों पर वापिस लौटते हैं...उसने भी आज यही कहा कि आप ज़िंदगी का आखिर उखाड़ क्या लेंगे, क्या कोई अभी तक कुछ उखाड़ पाया है!

हाई-ब्लडप्रेशर का हौआ.. भाग२

व्हाट्सएप पर एक जोक आया था.....कि सतसंग में तो इस मौसम वही जाने की इच्छा होती है जहां ब्रेड-पकोड़े का प्रसाद मिले....वरना ज्ञान तो फ्री में व्हाट्सएप में कुछ बंट रहा है। यहीं नहीं, सारे सोशल मीडिया पर और मॉस-मीडिया (जन संचार) पर भी जैसे होड़ सी लगी हुई है..

इन माध्यमों की पहुंच बहुत ज्यादा है.... लेिकन इस तरह के ज्ञान का इस्तेमाल ज़रा सोच समझ कर के ही करिएगा.....जैसे अगर कोई विशेषज्ञ आप को दवाई लेने के समय के बारे में इस तरह की बात कहे तो उस की बात बिना किसी किंतु-परंतु के मान लीजिए... वरना इस तरह की हल्की-फुल्की बातें को गंभीरता से लेते हुए कहीं मान ने लें!

जहां तक दवाईयों लेने के समय की बात है...यह केवल और केवल आप का डाक्टर जानता है... खाली पेट, खाने के तुरंत बाद, खाने के दो घंटे बाद, रात को सोने से पहल, दिन में कितनी बार लेनी है ... पानी के साथ, दूध के साथ... बहुत तरह की बातें होती हैं, इस के पीछे वैज्ञानिक कारण होते हैं...इन्हें नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। एक बात पल्ले बांध लें कि हर दवाई का अलग मिजाज है....हां, बिल्कुल लोगों की तरह.......और इस मिजाज को रेडियो जाकी नहीं, अनुभवी चिकित्सक ही जानते हैं।

लेकिन एक बात ज़रूर है....ये रेडियो जॉकी आप को खुश रखने की कला में निपुण होते हैं......यार, ऐसे में वे भी तो हम सब के हाई ब्लड-प्रेशर को कंट्रोल करने में मदद तो कर ही रहे हैं जिस के लिए ये सब साधुवाद के पात्र हैं। सुबह सुबह अपनी चटपटी बातों से लोगों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरने आ जाते हैं.

बस, यही बात करने की आज सुबह सुबह इच्छा हो गई...वैसे आज कल ब्लड-प्रेशर की जांच करने के लिए नये नये डिवाईस आ रहे हैं...कभी फिर इन के बारे में चर्चा करेंगे......बस, आप ज़रूरत से ज़्यादा न सोचा करें..यह एकदम सुपरहिट फार्मूला है।

आज सुबह यह गाना सुन लें?...बर्फी फिल्म का बहुत सुंदर गीत है... इत्ती सी हंसी, इत्ती सी खुशी....प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर को इन की बेहतरीन एक्टिंग के लिए १०० में से १०० अंक......याद है फिल्म देखते कितनी बार आंखें नम हो गई थीं (सच कहूं तो बस नम ही नहीं...) ...इतने संवेदनशील विषय को इतनी परपेक्शन के साथ परदे पर उतारने के लिए....



बुधवार, 7 जनवरी 2015

दिमाग के डाक्टर के दिल से निकली बातें...

लखनऊ में बुज़ुर्ग पेड़ों की कमी नहीं है...
परसों दोपहर में विविध भारती प्रोग्राम लगाया तो सेहतनामा लग गया...इस में मुंबई के एक प्रसिद्ध मनोरोग विशेषज्ञ से बातचीत का दूसरा हिस्सा सुना रहे थे....पहला हिस्सा पिछले सप्ताह सुना चुके थे, मैंने उसे तो नहीं सुना, लेकिन परसों वाले कार्यक्रम को ध्यान से सुना ताकि जो भी काम की बातें डाक्टर के दिल से निकलेंगी आप के साथ शेयर करूंगा।

सब से पहले तो उन्होंने आधुनिक वैवाहिक जीवन को सफल बनाए रखने के लिए कुछ गुरू-मंत्र बताए... . उन का ध्यान नहीं आ रहा। लेकिन उस में इतनी कौन सी बड़ी बात है, जिसने यह लड्डू खाया है, वह तो अपने आप ही सीख िलया होगा, और जिस ने अभी नहीं खाया, अपने आप ही देर-सवेर सीख जाएगा या जायेगी।

जो जो बातें मुझे याद आती जाएंगी, मैं यहां लिख रहा हूं.

एक बात पर उन्होंने जोर दिया कि अपने ऑफिस में तनाव-मुक्त वातावरण रखने के लिए चेहरे पर मुस्कान बनाए रखिए.. कह रहे थे अगर सामने वाला नहीं भी हंसा तो उस के हाइपोथेलेमस (दिमाग का एक भाग जो इस क्रिया को कंट्रोल करता है) में शायद कोई समस्या हो, लेकिन आप का तो सब कुछ ठीक है, तो सदैव हंसते-मुस्कुराते रहिए...अच्छी लगी उन की यह बात।



ऑफिस में स्ट्रेस कम करने के लिए उन्होंने कहा कि काम करते करते बीच में माइक्रो-ब्रेक लेने भी बहुत ज़रूरी हैं.. जिस दौरान थोड़ा प्राणायाम् ही कर लिया, गहरे सांस ही ले लिए, थोड़ा इधर उधर टहल लिया। और एक बात पर उन्होंने विशेष बल दिया कि घर आते ही टीवी ऑन कर के उस के सामने मत टिक जाया करिए।

एक बात पर उन्होंने जोर दिया कि शादी के बाद अगर लडकी पर इमोशनल अत्याचार या शारीरिक हिंसा हो रही है तो उसे उसी वक्त मां-बाप को बताना ज़रूरी है..डाक्टर ने कहा कि पहले कहते थे एडजस्ट करो, अब कहते हैं फोन करो... आगे उन्होंने कहा कि शादी तोड़ना कोई शर्म की बात नहीं, जुल्म सहना खतरनाक है। उन्होंने यह भी कहा कि खानदान की इज्जत बचाए रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। उन का तर्क यह था कि जैसे पानी में कूदते ही पता चल जाता है कि तापमान कैसा है, उसी तरह शादी के पहले महीने में ही काफी कुछ पता चल जाता है।

मुझे यह बात थोड़ी अजीब सी लगी....जिस एग्रेसिव ढंग से उन्होंने यह बात की.....कि बस जैसे कुछ भी हो और रिश्ता तोड़ दिया जाए। हो सकता है कुछ वर्गों के लिए यह काम कर जाए फार्मूला ..लेकिन मैं समझता हूं कि यह हर जगह काम नहीं कर सकता.....कोई बेलेंस करने की कोशिश करनी चाहिए....वह तो मैं मानता हूं कि जुल्म सहना खतरनाक है...लेकिन डाक्टर की यह बात थोडी अजीब सी प्रतीत हुई... पहले कहते थे एडजस्ट करो, अब कहते हैं फोन करो।
ऐसा नहीं होगा कि डाक्टर ने यह घुट्टी पिला दी और ऐसा ही होने लगेगा.......ऐसा नहीं होता, इस तरह का कदम उठाने से पहले लड़की को भी अपने पैरों पर खड़ा होने की ज़रूरत है।

इस के बाद उन्होंने मिजिल एज क्राईसिस की बात की ...महिलाओं में जब मीनोपॉज होता है और पुरूषों में एन्ड्रोपॉज़... शरीर में कुछ बदलाव आते हैं....उन के लिए तैयार रहना चाहिए। बता रहे थे कि cynical होने से काम नहीं चलता, हर वक्त यही कहना कि प्रतिभा की कद्र नहीं हो रही ... रिस्क लेना आना चाहिए... आप अपने विज़िटिंग कार्ड पर मत जिएं.....ऐसा भी ज़रूर करें जिसे करना आप को अच्छा लगता है।

बुढ़ापे में मानसिक स्वास्थ्य

डाक्टर ने बड़े शायराना अंदाज़ में यह फरमाया..
एक बूढ़ा जी रहा है इस शहर में
एक अकेली कोठड़ी में जैसे रोशनदान है।।

बुज़ुर्ग लोगों के लिए भी मनोरोग विशेषज्ञ ने बड़े काम की बाते कीं। इस बात विशेष जोर दे कर कहा कि अपनी रिटायरमैंट प्लॉनिंग ज़रूर करनी समय रहते कर लेनी चाहिए। डा ने कहा कि रिटायर होने के बाद चपरासी भी सलाम नहीं ठोकेगा और बीवी भी नहीं पूछेगी......मैं इस बात से सहमत नहीं हूं, इस देश की नारियां ऐसी नहीं हैं।

बुजुर्ग लोगों को डाक्टर ने सलाह दी कि अपने जीवन को एक्टिव रखना चाहिए... अखबार पढ़े, किताबें पढ़ें, चर्चा में शामिल हों, puzzles को हल करें... अपने जैसे लोगों को तैयार कर के एक स्पोर्ट ग्रुप (support group) बनाएं... टहलने की आदत डालें... लेकिन मजाक में उन्होंने कहा कि अगर चिकित्सक ने चार गोली लेने को कहा है तो चार ही लेना, दो नहीं लेना......और जो लोग घूमते-फिरते-टहलते रहते हैं...पढ़ने लिखने में बिजी रहते हैं, वे स्वस्थ रहते हैं.. मुन्ने की चिंता न करने की सलाह दी, मुन्ना अपनी जिंदगी स्वयं जी सकते हैं।

अगर बुज़ुर्ग लोग हंसना, पढ़ना, लिखना, टहलना छोड़ देते हैं, घर से बाहर ही नहीं निकलते, कोई support system तैयार नहीं कर पाते तो ये अवसाद (्डिप्रेशन) का शिकार हो जाते हैं...... वे चुप से हो जाते हैं.....अगर वे इस तरह की बातें करने लगें कि मेरा तो सारा काम हो गया है, इस का यह मतलब कि वे डिप्रेस हो गये हैं.... उदासीनता ने उन्हें घेर लिया है...उन की बैटरी डिस्चार्ज हो गई है जिसे तुरंत रिचार्ज किए जाने की ज़रूरत है।

दोस्तों,मैंने भी कुछ रिसर्च देखी थीं कि जो बुजुर्ग किसी आध्यात्मिक संगठन के साथ जुड़े रहते हैं नियमितता से... अपने हमउम्र लोगों के साथ बैठते हैं, हंसी मजाक करते हैं, ताश खेलते हैं, गपशप करते हैं... वे बहुत सी बीमारियों से बचे रहते हैं........मैंने भी अनुभव किया है कि सतसंग में जिन बुज़ुर्गों को देखता हूं वे सब एकदम हंसते-मुस्कुराते मिलते हैं......feeling on the top of the world! एक कहावत भी है ....
Prayer may not change things for you!
It changes you for the things!!

 वैसे ऐसा होना तो नहीं चाहिए, यह क्या, मैं ही यह सब लिखते लिखते बोर सा होने लगा हूं......यहीं पर विराम लेता हूं.. मनोरोग विशेषज्ञ की दो चार अन्य बातें फिर कभी शेयर करूंगा।

बात सोचने वाली केवल यह है कि क्या इन सब बातों का आप सब को पहले नहीं पता था, बिल्कुल पता था, मेरे से भी ज़्यादा अच्छे ढंग से पता था, लेकिन काश! हम ये सब छोटी छोटी महत्वपूर्ण बातों को अपने जीवन में भी उतार पाएं। 

एक पान पुराण यह भी....

अभी मैं पेपर पढ़ रहा हूं...पास ही रेडियो बज रहा है....विविध भारती पर किसी ठुमरी बंदिश की बातें चल रही थीं....मेरी समझ में नहीं आतीं ये बातें. लेकिन अचानक पान की बात चली।

प्रोग्राम पेश करने वाला पुरूष ने उस महिला कलाकार से पूछा कि आप तो बनारस से हैं, और बनारस का पान तो सारे जहां में प्रसिद्ध है.. आप का पान के बारे में क्या ख्याल है?

उस फनकार ने बताया कि आप ठीक कह रहे हैं, पान तो बड़े काम की चीज़ है ही, वैसे हम लोग बनारस में जो पान इस्तेमाल करते हैं वह गया से आता है।

आगे उन्होंने बताया कि पान हम गाने वालों के लिए बड़े काम की चीज़ है, इस से गला तर रहता है, हमें ठंडक महसूस होती है..गला सूखता नहीं है।

पान की तारीफ़ करते करते मोहतरमा ने यह भी कहा कि पान तो वैसे भी हर मौके पर शुभ ही माना जाता है....फिर पुराने राजे-महाराजों नवाबों की पान से जुड़ी यादें ताज़ा की गईं।

मोहतरमा ने आगे बताया कि आज कल वैसे बाज़ार में जिस तरह की अनेकों चीज़ें पान में मिला देते हैं, वह देख कर डर लगता है। इसलिए वे कह रही थीं िक हम लोग तो देश-विदेश कहीं भी बाहर जब जाते हैं तो अपना पान स्वयं ही बनाते हैं।

बहुत अफसोस हुआ विविध भारती जैसे रेडियो कार्यक्रम पर पान के बारे में इस तरह की बातें सुन कर। अगर कोई कलाकार पान वान खाता है तो कहीं न कहीं यह उसका पर्सनल निर्णय है......जी हां, पी के के आमिर खान जैसे..(मैंने उसे एक खत भी लिखा था) ..लेिकन इस तरह से पान जैसी घातक चीज को ग्लोरीफाई करने से तो जनता का बहुत नुकसान हो सकता है।

लोग वैसे ही हमारी नहीं सुनते.......हम लोग सुबह से शाम तक पान आदि को छुड़वाने के लिए लोगों को प्रेरित करते रहते हैं......लेख लिखते हैं जिन्हें शायद ५०-६० हज़ार लोग पढ़ते होंगे लेकिन विविध भारती के प्रोग्रामों की अथाह पहुंच के बारे में तो आप सब जानते ही हैं.....करोड़ों लोगों तक ये कार्यक्रम पहुंचते हैं।

हां, एक बात और भी है कि प्रोग्राम पेश करने वालों को भी इन सब बातों के बारे में संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है ताकि लोगों तक ऐसी जानकारी ही पहुंचे जिससे उन्हें लाभ हो।

जितना मैं पान के बारे में जानता हूं कि पान में सुपारी, तंबाकू... ये दोनों या इस में से एक चीज़ तो होती ही है......और दोनों ही आप की सेहत के लिए घातक है।

 यह महिला भी केवल पान ही चबाती थीं...
पिछले दिनों एक बुज़ुर्ग महिला आई थीं......ऐसे ही चेक अप के लिए....यह भी कुछ महीने पहले तक बस पान ही खाती थीं और घर पर ही बना कर.....अब इस घाव पर लगने लगा तो पान चबाना बंद कर रखा है....अब इन्हें क्या तकलीफ़ है, शायद यह मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है!!

इस कार्यक्रम के ठीक बाद प्रधानमंत्री मोदी के दिल की बात का विज्ञापन था.....सोच रहा हूं कि प्रधानमंत्री के दिल की बात में यह बात भी दर्ज करवा ही दूं। 

हंसी को तो मत बांधिए..

इस पोस्ट की शुरूआत बहुत ही खूबसूरत गीत से करते हैं.......मैंने कहा फूलों से.......दोस्तो, अपनी तो सुबह सुबह की इबादत का यही ढंग है कि हम इसी तरह के गीत सुन कर मन को खुश कर लिया करते हैं.......आप भी ट्राई करिएगा, मशवरा इतना खराब भी नहीं है..



मैं जब भी पार्क में बहुत से लोगों को इक्ट्ठा हो कर लाफ्टर-थेरेपी करते देखता हूं तो मुझे बड़ा अजीब सा लगता है...यार, यह कैसे हो सकता है..जबरदस्ती हंसना। हंसी तो वह है जो हमारी आत्मा की हंसी होती है, जब हमारा दिल हंसता है.. मुझे याद है कभी एक बार मैंने भी एक ग्रुप में यह काम करना चाहा था, लेकिन पता नहीं दो चार मिनट में बिल्कुल अजीब सा लग रहा था.....हल्कापन महसूस होने की जगह, तनाव महसूस होने लगा था....शायद मैं उस समय जबरदस्ती वाली हंसी लाने की कोशिश कर रहा था......वैसे मुझे लाफ्टर-थेरेपी का कोई अनुभव नहीं है, एक अनाड़ी जैसे विचार रख दिए हैं, कृपया इसे अन्यथा न लें। क्या पता जो बुज़ुर्ग वहां उस समय चंद मिनट हंस-खेल जाते हैं, वे इन्हीं चंद मिनटों की मधुर यादों की वजह से दिन भर की कड़वाहट भी मुस्कुराते हुए निगल पाते हों।

मैं जिस सत्संग में जाता हूं वहां हर बार यह अवश्य याद दिलाते हैं कि भाईयो, बहनो, यह चेहरे पर क्यों बारह बजे हुए हैं, मुस्कुराते आईए और मुस्कुराते जाइए। सुन कर सब के चेहरों पर रौनक आ जाती है। अच्छी बात!!

परसों सोमवार शाम की बात है....मैं अपनी वाइफ के साथ एक मॉल में गया हुआ था....घूमते घूमते वहां पर व्हाट्स-एप पर एक मैसेज आया.....मुझे लगा कि इस के बारे में अपने कॉलेज के दिनों के दोस्त से बात करने के लिए फोन करना ही होगा.....लुधियाना फोन मिलाया.....वह बड़ा बिज़ी बंदा है.......लेकिन उस दिन उस ने तुरंत फोन उठा लिया.....आधा मिनट दबी आवाज़ में बात करने पर कहने लगा..हां, हां, बोल, मैं क्लीनिक से बाहर आ गया हूं।

दोस्तो, बोलना क्या था, शायद १०-१५ मिनट बात हम लोगों ने की होगी........बातें तो बहुत कम, हम दोनों ठहाके ज़्यादा लगाते रहे.....मैं बात करूं तो उस के ठहाके की वजहों से बात पूरी न कर पाऊं और जब वह बात शुरू करता तो उस की बात मेरे ठहाकों में गुम हो जाती......वैसे तो जब दो पंजाबी नार्मल बात भी करते हैं तो कहने वाले कह देते हैं जैसे ये लड़ रहे हों, चलिए, यह पंजाबियों का अपना स्टाईल है...मेरी पत्नी शोरूम से बाहर आईं ...मुझे याद दिलाने की आप की आवाज़ बहुत गूंज रही है.......जब मैंने अपने दोस्त को यह बात बताई तो उस के हंसी के फुव्वारे और ज़ोर से फूट पड़े।

दोस्तो, सच सच बताईए, आज के दौर में कितने लोग ऐसे होते होंगे जिन से आप इतना दिल खोल कर खुल कर इतना हंसी मजाक में बात कर सकते हैं, आप अपनी गिनती करिए, मैंने तो कर ली.......मैं भी केवल तीन-चार दोस्तों से ही इस तरह से बात कर पाता हूं, वरना मैं फोन पर बिल्कुल ही ब्रीफ़ सी बात करने के लिए जाना जाता हूं.....लेिकन इन जब तीन चार लोगों में से कोई फोन पर होता है तो यही समझ नहीं आता कि बातें कहां से शुरू करें और कहां इन्हें विराम दें, आप इन चंद दोस्तों पर अपने से भी ज़्यादा भरोसा करते हैं।

हां, तो परसों ही रात में जब फिर व्हाट्सएप ग्रुप पर हमारे मेसेज आने-जाने लगे तो मैंने पूरी इमानदारी से बिल्कुल स्पॉनटेनिटी से यह बात शेयर की .........बेदी, तेरे से बात कर के मुझे बहुत ही अच्छा लगा, मुझे तो दोस्त ऐसा लगा कि मैंने जैसे आधा घंटा प्राणायाम् कर लिया हो या मैं पंद्रह बीस मिनट जॉगिंग कर ले लौटा हूं......सारे शरीर में इतनी शक्ति-स्फूर्ति का संचार हो गया।

मैं इस बात को बिल्कुल बढ़ा चढा कर नहीं लिख रहा। और ना ही मुझे ऐसा करने का कोई कारण ही दिखता है।

मुझे एक बात और बहुत कचोटती है, छोटी छोटी बच्चियों को यह कह कर कंडीशन किया जाना कि लड़कियां इतना खुल कर नहीं हंसती......मैं समझता हूं कि किसी पर भी इस तरह की बंदिशें लगाना भी सरासर हिमाकत है....जीवन में और है क्या, इस में भी अगर कोई कोड़-ऑफ-कंडक्ट लागू हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा।

मुझे एक फिल्मी गीत इसलिए पसंद है.......क्योंकि कुछ लाइने इस तरह से हैं......कुछ लोगों के हंसने और गाने पर टिप्पणी करते हुए ..महान् गीतकार आनंद बक्शी कहते हैं.....

ये हंसते हैं लेकिन दिल में..
ये गाते हैं लेकिन महफिल में।।
हम में इन में है फर्क बड़ा, 
हम जीते हैं, ये पलते हैं।।

लीजिए, आप भी इस का लुत्फ़ उठाईए..



मैंने कहीं पढ़ा था और आपने तो देखा भी होगा कि हंसता-मुस्कुराता चेहरा कोई भी ऐसा नहीं होता जो बदसूरत हो।
मैं आज कर अपनी व्यस्तता के कारण टीवी बहुत कम देख पाता हूं.. न के बराबर ... यह जो लॉफ्टर चैनल पर कुछ प्रोग्राम आते हैं......क्या नाम है उस अमृतसर के लड़के का..कपिल शर्मा, और वह हर समय खिलखिलाने वाली भारती.......आज का सभ्य समाज कईं बार कहता दिखता है.....यह सब फूहड़पन है। अरे भाई, है तो हुआ करे, कम से कम इस तरह के प्रोग्रामों की वजह से परिवार के लोग बैठ कर कुछ ठहाके तो एक साथ लगा लेते हैं, वरना आज के दौर में एक साथ बैठने की फुर्सत ही किसे है!!

लेकिन कपिल को मेरा एक मशवरा है.......यह मशवरा मेरा वह मित्र डा बेदी भी अकसर हमारे ग्रुप में देता रहता है िक हमें किसी पे हंसने की बजाए,  सब के साथ मिल कर हंसना चाहिए......मैं तो कहूंगा कि बेस्ट है हम अपने आप पर ही हंसना सीख जाएं, बीसियों कारण तो कम से कम मिल ही जाएंगे। कभी कभी जब कपिल जब अपनी हद लांघता दिखता है.......किसी का मज़ाक उड़ाते दिखता है, तो बुरा लगता है....शायद इसी वजह से मेरी रूचि उस के कार्यक्रम से उठ गई। अपनी अपनी संवेदनाओं की बात है, और कुछ खास नहीं!!

कल मेरे पास एक मां अपने १०-१२ साल के बेटे को लेकर आई.....उस का एक दांत अपनी नार्मल सी जगह से थोड़ा ऊपर नीचे आ गया, जाहिर सी बात है मां ज़्यादा परेशान थी, बेटा बिल्कुल मस्त था. मैंने जब उस की हंसी में इस दांत की भूमिका देखने के लिए उसे हंसने के लिए कहा ......तो झट से उस की मां बोली....इस की यह भी एक समस्या है, यह हंसता बहुत खुल कर है। और इसी वजह से यह दांत भी फिर दिखाई देने लगता है.......मैंने उस बच्चे की तरफ देखा, वह मेरी तरफ ऐसे देख रहा था जैसे कि वह खुल कर हंस कर भी कोई अपराध कर लेता हो, जाहिर है वह हंसी के सही ढंग के बारे में मेरे किसी तुगलकी नुस्खे का इंतज़ार करता दिखा।

मैंने उसे और उस की मां को सब से पहले तो यही बताया कि हंसी को मत बाँध के रखो, जितना खुल के हंसना चाहते हो हंस लिया करें.....ऐसी उन्मुक्त हंसी बहुत कम दिखने लगी है आज कल........रही बात दांत का थोड़ा टेढ़ा वेढ़ा अपनी जगह से इधर उधर होने की बात, वह ठीक कर देंगे लेकिन तब तक अपनी खुली हंसी को दबाने की गलती मत कर देना।

जैसा मैंने उस बच्चे को भी आशीर्वाद दिया......चलिए हम सब के लिए सुबह सुबह यही प्रार्थना करें कि ईश्वर, अल्ला, वाहेगुरू, गॉड ...अपने सभी बच्चों को ऐसे हालात मुहैया कराएं कि सब के चेहरों पर मुस्कान बिखरी रहे......आमीन।

सच में दोस्तो, हंसना-मुस्कुराने भी एक कुदरत का करिश्मा ही है, कितने सारी मांसपेशियों को इस के िलए काम करना पड़ता है, आप सेहतमंद हैं, शरीर से भी और मन से भी, आप की रूह राजी है.......तब कहीं जाकर हंसी फूटती है। आप का क्या ख्याल है?......वैसे यह मेरा ही ख्याल नहीं है, अमिताभ बच्चन भी कुछ इसी तरह का फलसफा ब्यां कर रहे हैं......ज़िंदगी हंसने गाने के लिए हैं पल दो पल.......इस को इतनी बार सुन चुका हूं कि यह याद ही हो चुका है, काश! यह पूरी तरह से लाइफ में भी उतर जाए!!