शनिवार, 22 मार्च 2008
इस फिल्मी जोड़ी के फन को सलाम !
शुक्रवार, 21 मार्च 2008
आखिर ये हैं क्या---होली के रंग, रंगीन मिट्टी, सफेदी या चाक मिट्टी....
इन बिक रहे रंगों की भी अलग अलग श्रेणीयां हैं....एक है बीस रूपये किलो और दूसरी क्वालिटी थी चालीस रुपये किलो !
अब मेरी हिमाकत देखिये....मैं आप सब के लिये इन की फोटो खींचने में इतना तल्लीन था कि मुझे यह भी नहीं पता कि बेटे ने गुब्बारों और पिचकारी के इलावा कुछ रंग भी खरीदे हैं या नहीं। अगर रंग भी खरीदे हैं तो कल पूरा ध्यान रखना पड़ेगा। वैसे मैंने दुकानदार से पूछ ही लिया कि वैसे इन रंगों में होता क्या है। उस का जवाब भी तो पहले ही से तैयार था......... “यह हमें कुछ नहीं पता...बस जो पीछे से आ रहा है, हम बेच देते हैं।” उस की बात सुन मेरे मन में क्या विचार आया, अब यह भी आप को बताना पड़ेगा क्या !
चलिये, छोड़िये....काहे के लिये होली मूड को खराब किया जाए !
अच्छा तो आप सब को होली की बहुत बहुत मुबारकबाद। और यह लीजिये हमारी तरफ से होली का तोहफा.....बस क्लिक मारिये और सुन लीजिये।
आखिर ये हैं क्या---होली के रंग, रंगीन मिट्टी, सफेदी या चाक मिट्टी....
इन बिक रहे रंगों की भी अलग अलग श्रेणीयां हैं....एक है बीस रूपये किलो और दूसरी क्वालिटी थी चालीस रुपये किलो !
अब मेरी हिमाकत देखिये....मैं आप सब के लिये इन की फोटो खींचने में इतना तल्लीन था कि मुझे यह भी नहीं पता कि बेटे ने गुब्बारों और पिचकारी के इलावा कुछ रंग भी खरीदे हैं या नहीं। अगर रंग भी खरीदे हैं तो कल पूरा ध्यान रखना पड़ेगा। वैसे मैंने दुकानदार से पूछ ही लिया कि वैसे इन रंगों में होता क्या है। उस का जवाब भी तो पहले ही से तैयार था......... “यह हमें कुछ नहीं पता...बस जो पीछे से आ रहा है, हम बेच देते हैं।” उस की बात सुन मेरे मन में क्या विचार आया, अब यह भी आप को बताना पड़ेगा क्या !
चलिये, छोड़िये....काहे के लिये होली मूड को खराब किया जाए !
अच्छा तो आप सब को होली की बहुत बहुत मुबारकबाद। और यह लीजिये हमारी तरफ से होली का तोहफा.....बस क्लिक मारिये और सुन लीजिये।
रंगों का त्योहार.......न लाये रोगों की बौछार !
कहते हैं कि भगवान कृष्ण टेसू के फूलों से होली खेला करते थे जो कि होली का एक पारंपरिक रंग है। ये फूल तो वैसे औषधीय गुणों से भी लैस होते हैं। इन्हें एक रात के लिये पानी में भिगो दिया जाता है, खुशबूदार संतरी पीले रंग के लिये इन्हें उबाला भी जा सकता है। प्रकृति में तो सभी रंगों का भंडार है और इन्हीं से प्राकृतिक रंग बनाये जाते हैं। कुछ रंग तो हम आसानी से घर पर ही बना सकते हैं।
जैसे जैसे समय बदलता गया.....अन्य चीज़ों के साथ-साथ होली का स्वरूप भी अच्छा खासा बदला हुया दिख रहा है। होली के दिन हम चमकीले रंग वाले पेंट से लोगों के चेहरों को पुते हुये देखते हैं। और कुछ नहीं तो पानी से भरी बाल्टीयां, पानी से भरे गुब्बारे राहगीरों पर फैंक कर ही उन्हें परेशान करने का एक सिलसिला कईँ सालों से शुरू है।
होली रंगों और खुशियों का त्योहार है...लेकिन बाज़ार में बिकने वाले रंग कोरे कैमिकल्स हैं....इन में ऐसे अनेक पदार्थ मौजूद रहते हैं जो हम सब की सेहत तो खराब करते ही हैं, इस के साथ ही साथ ये कैमिकल्स पानी में रहने वाले जीवों के लिये भी विषैले होते हैं। इन्हीं कैमिकल्स की वजह से चमड़ी एवं आंखों के रोगों के साथ-साथ दमा एवं एलर्जी भी अकसर हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार यदि दिल्ली की आधी जनसंख्या भी करीब 100ग्राम कैमिकल्स युक्त रंग प्रति व्यक्ति इस्तेमाल करे तो इससे लगभग 70टन कैमिकल्स यमुना में मिलने की संभावना रहती है।
विभिन्न तरह के पेंटस जिन में कारखानों में इस्तेमाल होने वाले रंग, इंजन आयल, कापर सल्फेट, क्रोमियम आयोडाइड, एल्यूमीनियम ब्रोमाइड, लैड ऑक्साइड एवं कूटा हुया कांच .........ये सब कैमिकल्स को निःसंदेह चमकीला तो बना देते हैं, लेकिन हमारे शरीर को इनसे होने वाले नुकसान के रूप में बहुत बड़ा मोल चुकाना पड़ता है। इन के दुष्प्रभावों से हमारा शरीर, मन और मस्तिष्क कईं बार स्थायी तौर पर प्रभावित हो सकता है। बाज़ार में उपलब्ध कुछ रासायनिक रंगों की थोड़ी चर्चा करते हैं.....
काला रंग (लैड ऑक्साइड
)...यह रंग गुर्दे व मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है।
हरा रंग( कॉपर सल्फेट)...इसे आम भाषा में नीला थोथा कहते हैं। इस को लगाने से आँखों की एलर्जी व अस्थायी अंधापन हो सकता है, वैसे तो इस कैमिकल से होने वाले भयंकर घातक प्रभावों के बारे में तो आप सब भली-भांति परिचित ही हैं।
बैंगनी रंग( क्रोमियम ऑयोडाइड)...इस के इस्तेमाल से दमा ओर एलर्जी होती है।
सिल्वर रंग( एल्यूमीनियम ब्रोमाइड)...यह रंग कैंसर पैदा कर सकता है।
लाल रंग ( मरक्यूरिक सल्फाइट)...इस के इस्तेमाल से चमड़ी का कैंसर, दिमागी कमज़ोरी, लकवा हो सकता है और दृष्टि पर असर पड़ सकता है।
तो फिर क्या सोचा है आपने ?.....सुरक्षित होली खेलने के लिये हमें प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग करना चाहिये जो कि कईं जगहों पर उपलब्ध होते हैं लेकिन विभिन्न प्रकार के फूलों से इन्हें घर में ही प्राप्त कर लेते हैं। कईं लोग लाल चंदन पावडर से होली खेलते हैं। एक बात है ना....होली कैसे भी खेलें...लेकिन प्रेम से....होली को गंदे तरीके से खेल कर ना तो हमें अपना और ना ही किसी और का मज़ा किरकिरा करना है। जहां तक हो सके...अपने मित्रों, रिश्तेदारों एवं परिचितों के साथ ही होली खेलें....ऐसे ही हर राहगीर पर पानी फैंकना तो होली ना हुई!
वैसे मुझे इस समय ध्यान आ रहा है कि होली के त्योहार पर फिल्माए गये फिल्मों के सुप्रसिद्ध गीत जो सुबह से ही रेडियो, केबल और लाउड-स्पीकरों पर उस दिन बजते रहते हैं, वे लोगों के उत्साह में चार चांद लगाने का काम करते हैं। लेकिन मेरी पसंद में सब से ऊपर शोले फिल्म का यह वाली गीत है........जिसे मैं होली के बिना भी बार-बार सुन लेता हूं और इस में ऊधम मचा रहे हर बंदे के फन की दाद दिये बिना नहीं रह सकता। आप को इन सब हुड़दंगियों के साथ यह उत्सव मनाने से कौन रोक रहा है ............तो मारिये एक क्लिक और हो जाइए शुरू !!
PS…..पंकज अवधिया जी , आप तो वनस्पति विज्ञान के बहुत बड़े शोधकर्त्ता हो, मेरी एक समस्या का समाधान कीजिये। मैं इन मच्छरों से बहुत परेशान हूं......सुबह सुबह ढंग से पोस्ट भी नहीं लिखने देते। इसलिये हम सब लोगों को आप यह बतलायें कि क्या कोई ऐसा घास,कोई ऐसा पौधा नहीं बना ...या कोई ऐसी चीज़ जो इन पौधों से प्राप्त होती हो जिस की धूनि जला कर इन मच्छरों को दूर भगाया जा सके। मुझे आशा है कि आप के पास इस का भी ज़रूर कोई फार्मूला होगा......तो शेयर कीजियेगा। दरअसल बात यह भी है ना कि इन कैमिकल युक्त मच्छर-भगाऊ या मच्छर-मारू टिकियों एवं कॉयलों के ज़्यादा इस्तेमाल से भी डर ही लगता है....रात को तो चलिये मज़बूरी होती है लेकिन सुबह उठ कर इन्हें इस्तेमाल करने की इच्छा नहीं होती। अवधिया जी, आप ही इस परेशानी का हल निकाल सकते हैं। एडवांस में धन्यवाद और होली की मुबारकबाद....।
रूकावट के लिये खेद है............अब आप होली के रंग में रंगे इन हुड़दंगियों के जश्न में शामिल हो सकते हैं।
रंगों का त्योहार.......न लाये रोगों की बौछार !
कहते हैं कि भगवान कृष्ण टेसू के फूलों से होली खेला करते थे जो कि होली का एक पारंपरिक रंग है। ये फूल तो वैसे औषधीय गुणों से भी लैस होते हैं। इन्हें एक रात के लिये पानी में भिगो दिया जाता है, खुशबूदार संतरी पीले रंग के लिये इन्हें उबाला भी जा सकता है। प्रकृति में तो सभी रंगों का भंडार है और इन्हीं से प्राकृतिक रंग बनाये जाते हैं। कुछ रंग तो हम आसानी से घर पर ही बना सकते हैं।
जैसे जैसे समय बदलता गया.....अन्य चीज़ों के साथ-साथ होली का स्वरूप भी अच्छा खासा बदला हुया दिख रहा है। होली के दिन हम चमकीले रंग वाले पेंट से लोगों के चेहरों को पुते हुये देखते हैं। और कुछ नहीं तो पानी से भरी बाल्टीयां, पानी से भरे गुब्बारे राहगीरों पर फैंक कर ही उन्हें परेशान करने का एक सिलसिला कईँ सालों से शुरू है।
होली रंगों और खुशियों का त्योहार है...लेकिन बाज़ार में बिकने वाले रंग कोरे कैमिकल्स हैं....इन में ऐसे अनेक पदार्थ मौजूद रहते हैं जो हम सब की सेहत तो खराब करते ही हैं, इस के साथ ही साथ ये कैमिकल्स पानी में रहने वाले जीवों के लिये भी विषैले होते हैं। इन्हीं कैमिकल्स की वजह से चमड़ी एवं आंखों के रोगों के साथ-साथ दमा एवं एलर्जी भी अकसर हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार यदि दिल्ली की आधी जनसंख्या भी करीब 100ग्राम कैमिकल्स युक्त रंग प्रति व्यक्ति इस्तेमाल करे तो इससे लगभग 70टन कैमिकल्स यमुना में मिलने की संभावना रहती है।
विभिन्न तरह के पेंटस जिन में कारखानों में इस्तेमाल होने वाले रंग, इंजन आयल, कापर सल्फेट, क्रोमियम आयोडाइड, एल्यूमीनियम ब्रोमाइड, लैड ऑक्साइड एवं कूटा हुया कांच .........ये सब कैमिकल्स को निःसंदेह चमकीला तो बना देते हैं, लेकिन हमारे शरीर को इनसे होने वाले नुकसान के रूप में बहुत बड़ा मोल चुकाना पड़ता है। इन के दुष्प्रभावों से हमारा शरीर, मन और मस्तिष्क कईं बार स्थायी तौर पर प्रभावित हो सकता है। बाज़ार में उपलब्ध कुछ रासायनिक रंगों की थोड़ी चर्चा करते हैं.....
काला रंग (लैड ऑक्साइड
)...यह रंग गुर्दे व मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है।
हरा रंग( कॉपर सल्फेट)...इसे आम भाषा में नीला थोथा कहते हैं। इस को लगाने से आँखों की एलर्जी व अस्थायी अंधापन हो सकता है, वैसे तो इस कैमिकल से होने वाले भयंकर घातक प्रभावों के बारे में तो आप सब भली-भांति परिचित ही हैं।
बैंगनी रंग( क्रोमियम ऑयोडाइड)...इस के इस्तेमाल से दमा ओर एलर्जी होती है।
सिल्वर रंग( एल्यूमीनियम ब्रोमाइड)...यह रंग कैंसर पैदा कर सकता है।
लाल रंग ( मरक्यूरिक सल्फाइट)...इस के इस्तेमाल से चमड़ी का कैंसर, दिमागी कमज़ोरी, लकवा हो सकता है और दृष्टि पर असर पड़ सकता है।
तो फिर क्या सोचा है आपने ?.....सुरक्षित होली खेलने के लिये हमें प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग करना चाहिये जो कि कईं जगहों पर उपलब्ध होते हैं लेकिन विभिन्न प्रकार के फूलों से इन्हें घर में ही प्राप्त कर लेते हैं। कईं लोग लाल चंदन पावडर से होली खेलते हैं। एक बात है ना....होली कैसे भी खेलें...लेकिन प्रेम से....होली को गंदे तरीके से खेल कर ना तो हमें अपना और ना ही किसी और का मज़ा किरकिरा करना है। जहां तक हो सके...अपने मित्रों, रिश्तेदारों एवं परिचितों के साथ ही होली खेलें....ऐसे ही हर राहगीर पर पानी फैंकना तो होली ना हुई!
वैसे मुझे इस समय ध्यान आ रहा है कि होली के त्योहार पर फिल्माए गये फिल्मों के सुप्रसिद्ध गीत जो सुबह से ही रेडियो, केबल और लाउड-स्पीकरों पर उस दिन बजते रहते हैं, वे लोगों के उत्साह में चार चांद लगाने का काम करते हैं। लेकिन मेरी पसंद में सब से ऊपर शोले फिल्म का यह वाली गीत है........जिसे मैं होली के बिना भी बार-बार सुन लेता हूं और इस में ऊधम मचा रहे हर बंदे के फन की दाद दिये बिना नहीं रह सकता। आप को इन सब हुड़दंगियों के साथ यह उत्सव मनाने से कौन रोक रहा है ............तो मारिये एक क्लिक और हो जाइए शुरू !!
PS…..पंकज अवधिया जी , आप तो वनस्पति विज्ञान के बहुत बड़े शोधकर्त्ता हो, मेरी एक समस्या का समाधान कीजिये। मैं इन मच्छरों से बहुत परेशान हूं......सुबह सुबह ढंग से पोस्ट भी नहीं लिखने देते। इसलिये हम सब लोगों को आप यह बतलायें कि क्या कोई ऐसा घास,कोई ऐसा पौधा नहीं बना ...या कोई ऐसी चीज़ जो इन पौधों से प्राप्त होती हो जिस की धूनि जला कर इन मच्छरों को दूर भगाया जा सके। मुझे आशा है कि आप के पास इस का भी ज़रूर कोई फार्मूला होगा......तो शेयर कीजियेगा। दरअसल बात यह भी है ना कि इन कैमिकल युक्त मच्छर-भगाऊ या मच्छर-मारू टिकियों एवं कॉयलों के ज़्यादा इस्तेमाल से भी डर ही लगता है....रात को तो चलिये मज़बूरी होती है लेकिन सुबह उठ कर इन्हें इस्तेमाल करने की इच्छा नहीं होती। अवधिया जी, आप ही इस परेशानी का हल निकाल सकते हैं। एडवांस में धन्यवाद और होली की मुबारकबाद....।
रूकावट के लिये खेद है............अब आप होली के रंग में रंगे इन हुड़दंगियों के जश्न में शामिल हो सकते हैं।
5 comments:
- रवीन्द्र प्रभात said...
-
आपको होली की कोटिश: बधाईयाँ !
- March 21, 2008 12:58 PM
- राज भाटिय़ा said...
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आपको भी होली की शुभकामनाएं !!
- March 21, 2008 1:13 PM
- परमजीत बाली said...
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एक अच्छी पोस्ट के सा्थ ,होली के अच्छे रंग बिखेरे हैं। होली मुबारक।
- March 21, 2008 1:24 PM
- Gyandutt Pandey said...
-
सही में रसायनिक होली नहीं होनी चाहिये। मैं तो एलर्जी के कारण न सूखे न गीले रंगों का प्रयोग करता हूं।
हां होली का मन होना चाहिये - जरूर। होली मुबारक जी। - March 21, 2008 3:37 PM
- पंकज अवधिया Pankaj Oudhia said...
-
क्षमा करे आने मे देरी हो गयी। आप कहाँ पर है यह तो मुझे पता नही पर अभी पूरे देश मे ब्लूमिया लेसेरा नामक खरपतवार उग रहा है। इसे कुकरौन्दा भी कहा जाता है। इसे सुखाकर जलाने से अच्छी सुगन्ध भी आयेगी और मच्छर भी भागेंगे। आयुर्वेद मे दमा के लिये इस धुँए को लाभकारी माना गया है खासकर अटैक के समय। यहाँ होली मे इसी पौधे को जलाने की सलाह मै देता हूँ ताकि पूरे शहर को मच्छरो से मुक्ति मिल सके। ब्लूमिया के चित्रो और इस पर मेरे आलेखो की कडी नीचे दी गयी है। फिर भी पहचान मे दिक्कत हो तो निसंकोच लिखे।
http://ecoport.org/ep?Plant=3744&entityType=PL****&entityDisplayCategory=eArticles
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&Subject=blumea&Author=oudhia&SubjectWild=CO&Thumbnails=Only&AuthorWild=CO
सत्तर से अधिक शोध आलेख और 400 से अधिक चित्र है इन कडियो मे। - March 24, 2008 1:17 AM
गुरुवार, 20 मार्च 2008
मेरी लेखन यात्रा.....
बुधवार, 19 मार्च 2008
अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या !
बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम अकसर जाने-अनजाने नज़रअंदाज़ कर ही देते हैं...आज कुछ ऐसी ही बातों की चर्चा करते हैं। मुझे किसी के भी यहां जाकर कंबल ओढ़ना कभी नहीं भाता। अब आप भी सोच रहे होंगे कि यह कौन सी नई सनक सवार हो गई भला !!....जी नहीं, यह कोई सनक-वनक नहीं है। आज कल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो यह एक अच्छा खासा मुद्दा है।
मुझे किसी के यहां जाकर और यहां तक अपने ही घर में कंबल ओढ़ने में बहुत संकोच होता है। आप इस का कारण समझ ही रहे होंगे !....इस का कारण केवल यही है कि अकसर हमारे घरों में इस्तेमाल होने वाले ये कंबल वगैरा विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की खान होते हैं।
वह पल बहुत अजीब लगता है जब कभी घरों में इस तरह की बातें चलती हैं कि ये कंबल देख रहे हो, जब मुन्ने के पापा ने नई नई इंटर पास की थी...तब खरीदा था...और आज भी देख लो, वैसा का वैसा ही लगता है। लेकिन लगता ही है ना, लगने का क्या है........जो इस ने अरबों-खरबों कीटाणुओं को अपने अंदर छिपाया हुया है , उस का उल्लेख कौन करेगा ?.....जी हां, हमारे घरों में इस्तेमाल हो रहे कंबल कुछ इसी तरह के ही होते हैं। इन को ड्राई-क्लीन करवाने का कोई कल्चर न तो हमारे देश में कभी रहा और मेरे ख्याल में कभी हो ही नहीं पायेगा। वैसे बात वह भी तो है कि जब दो-साल में एक गर्म-सूट ड्राई-क्लीन करवाने में ही आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं, तो क्या अब हम कंबलों को ड्राई-क्लीन करवाने के सपने कैसे देखें ?....बात बिल्कुल सही भी है...वैसे हम लोगों के कपड़े खरीदते समय निर्णय भी तो कईं बार इस बार पर ही निर्भर करते हैं कि भई, कहीं इस को ड्राई-क्लीन करवाने की ज़रूरत तो नहीं ना पड़ेगी।
खैर बात कंबल की चल रही थी......और वैसे भी हम अपने घरों में देखते हैं कि इन कंबलों का तो बंटवारा कहां होता है कि यह पपू का है , यह टीटू वाला है....। और यहां तक मेहमान वगैरा भी वही कंबल इस्तेमाल करते हैं। और जब कभी किसी की तबीयत थोड़ी नासाज़ हो, कोई खांसी-जुकाम से बेज़ार हो ..... तो यही कंबल पसीने से लथ-पथ होते हैं। और फिर अगले दिन वही कंबल दूसरे सदस्य द्वारा ओढ़ा जाता है। संक्षेप में बात करें तो यही है कि इस प्रकार से कंबलों का प्रयोग करना स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है।
तो क्या करें अब कंबल लेना भी बंद कर दें ?....नहीं, नहीं ,ऐसी बात नहीं है। लेकिन पहले लोग जो कंबल के ऊपर सूती कवर डाल कर रखते थे, यह बहुत ही बढ़िया आइडिया है क्योंकि इन्हें थोड़े थोड़े समय के बाद धो दिया जाता था ताकि अंदर कंबल काफी हद तक साफ़-स्वच्छ रह सके। और फिर कंबल को नियमित तौर पर धूप में सेंका भी जाता था ..ताकि उसे कीटाणुरहित किया जा सके। इसलिये हमें इन सूती कवरों को वापिस इन कंबलों पर लगाना चाहिये। नहीं तो इन महंगे ग्लैमरस कंबलों बिना किसी प्रकार के कवर के बीमारियों की खान बना डालें ...,यह फैसला हमारे अपने हाथ में ही है।
आज कल जो नये नये मैटीरियल के कंबल बाज़ारों में दिखने लग गये हैं ...कहने को तो कह देते हैं कि वे धोये जा सकते हैं । लेकिन हम लोग अकसर प्रैक्टिस में देखते हैं कि कौन इन्हें नियमित धोने के चक्कर में पड़ता है। वैसे मुझे याद आ रहा है कि एक बार एक ऐसे ही कंबल को धोने के बाद मैंने भी उसे बाहर बरामदे में सुखाने के लिये बाहर घसीटने में थोड़ी मदद की थी........यकीन मानिये , नानी याद आ गई थी। कहने से भाव है कि मान भी लिया जाये कि यह धोये जा सकते हैं लेकिन यह आइडिया कुछ ज़्यादा प्रैक्टीकल नहीं है....हां, अगर कहीं ये नियमित धुलते हैं तो बहुत बढ़िया बात है।
लेकिन जहां भी संभव हो, इन कंबलों को सूती कवह डले ही होने चाहियें क्योंकि इन में जमा धूल-मिट्टी-जीवाणु भी तरह तरह की एलर्जी बढ़ाने में पूरी भूमिका निभाते हैं। लेकिन लोग तो अकसर एलर्जी के लिये उत्तरदायी एलेर्जन ढूंढने की अकसर नाकामयाब कोशिश करते हैं लेकिन अपने आसपास ही इस तरह के एलर्जैन्ज़ की तरफ़ ज़्यादा ध्यान ही नहीं देते। तो, आगे से ध्यान दीजियेगा।
यह तो हुई कंबलों की बात, लेकिन परदों का भी कुछ ऐसा ही हाल होता है। अकसर इन्हें तब तक धोया नहीं जाता जब तक इन्हें देखते ही उल्टी करने जैसा न होने लगे। ये भी कईं कईं महीनों तक गंदगी समेटे रहते हैं...। वैसे तो हर घर में ही ..लेकिन जिन घरों में एलर्जी के केस हैं, सांस में तकलीफ़ के मरीज़ हैं, दमा के मरीज़ हैं....उन के लिये तो ये सावधानियां शायद दवाई से भी बढ़ कर हैं। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हमें परदे तो चाहिये हीं, लेकिन साथ में हमारी सम्पन्नता का दिखावा भी तो होना चाहिये। इसी चक्कर में इतने भारी भारी परदे शो-पीस के तौर पर टांग दिये जाते हैं कि न तो उन्हें नियमित धोते बने और न ही उतारते बने। अकसर इन्हें धोने के नाम पर कईं बार तो बाई ही काम छोड़ कर भाग जाये !!...आखिर हमें सीधे-सादे हल्के फुल्के ऐसे परदे टांगने में दिक्कत क्या है जिन्हें हम नियमित धुलवा तो सकें।
लेकिन यह बात परदों तक ही तो सीमित नहीं है ना.....आज कल हम लोगों के घर में सोफे सैट देख लो। इन को भी देख कर उल्टी आती है। ये भी अपने अंदर इतनी गंदगी समेटे होते हैं कि क्या कहें !!.....कारण वही कि सब कुछ ..सीट कवर, कुशन वगैरा के ऊपर महंगे महंगे कपड़ों के कवर फिक्स हुया करते हैं..........और पता नहीं इन के ऊपर कितने लोगों का पसीना लगा रहता है, कितने छोटे छोटे बच्चों ने इन्हें कितनी ही बार पवित्र किया होता है( समझ गये ना आप!)…, कितनी बार इन के ऊपर खाने पीने की चीज़े गिर चुकी होती हैं, कितनी बार बच्चे गंदे पैरों से इन के ऊपर उछलते रहते हैं........लेकिन इन के कवर चेंज करने का झंझट भला कौन बार बार ले सकता है .....भई खूब पैसा लगता है.....ऐसे में सालों तक ये गंदगी से भरे रहते हैं। एक दूसरी समस्या इन सोफा-सेटों के साथ यह भी तो है ना कि ये सब इतने भीमकाय होते हैं कि इन के रहते ठीक तरह से कमरे की सामान्य सफाई भी तो नहीं हो पाती ।
अकसर मेरी आब्जर्वेशन है कि लोगों को इन बातों की खास फिक्र है नहीं, उन्हें तो बस अपनी बैठक को चकाचक रखने में ही मज़ा आता है। इसीलिये कईं घरों में तो बच्चों को डराया जाता है कि खबरदार, अगर तुम सोफे की तरफ भी गये, पता है जब कोई आ जाता है तो कितनी शर्म आ जाती है। मेरा इस के बारे में विचार एकदम क्रांतिकारी है ...............शायद बहुत से लोगों को न पच पाये............मेरा विचार है कि घर आप का है, आप के रहने के लिये, बच्चों के लिये ताकि वे पूरी मस्ती कर सकें..............मज़ा कर सकें ताकि बड़े हो कर उन के पास अनगिनत मीठी यादें हों...........इसलिये घरों में सीधे-सादे फ्रेम वाले सोफे हों, कुर्सियां हों जिन के ऊपर कपड़े के इस तरह के कवर हों कि उन्हें आसानी से धुलाया जा सके। इस से एक तो आपका ड्राइंग-रूम साफ-स्वच्छ दिखेगा....दिखेगा ही नहीं , होगा भी.....और बच्चे भी खुश रह कर बिना किसी रोक टोक के जहां मरजी मस्ती कर सकते हैं, ऊधम मचा सकते हैं। और रही बात मेहमानों की , वे ना ही तो महंगे परदे और न ही महंगे, भारी भरकम सोफे देखने आ रहे हैं और न ही एक काजू और दो किशमिश के दाने खाने के लिये......अतिथि के लिये हमारा सत्कार हमारी आंखों से झलकता है.....उसे चाहे हम चटाई पर बैठा कर सादा पानी ही पिला दें....वो हमारी आंखों को पढ़ता है कि उस का स्वागत हुया है या नहीं।
पता नहीं ...मैं भी कहां का कहां निकल जाता हूं...मेरा बेटा वैसे मुझे अकसर चेतावनी देता रहता है कि बापू, अगर तुम ने ब्लोगगिरी में कुछ करना है ना तो कुछ टैक्नीकल लिखा करो, यह फलसफा आज कल कोई पढ़ना नहीं चाहता । खैर, यह उस का अपना ओपिनियन है और उसे अपना ओपिनियन रखने का पूरा पूरा हक है। लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है , मैं तो भई लिख कर फारिग हो जाता हूं, और मुझे क्या चाहिये। लेकिन आज यह कंबल, परदों एवं सोफों वाली बात है बहुत ही ..बहुत ही ...बहुत ज़्यादा ही महत्त्वपूर्ण ............इसिलये इस के बारे में थोड़ा ध्यान करियेगा.....ताकि हम अपने इर्द-गिर्द इन कीटाणुओं, जीवाणुओं के अंबार तो न लगा लें।
अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या !
Edited on 14.3.2016 ( आठ साल बाद..)...आज सुबह मैंने इस पोस्ट का लिंक किसी नई पोस्ट में लगाया तो मैंने सोचा कि आज के समय में हम लोग जो सोफ़ा इस्तेमाल कर रहे हैं, उस की एक तस्वीर ज़रूर लगानी चाहिए.. वैसे तो मैं अपनी पोस्टों को कभी नहीं पढ़ता...मुझे अजीब सा लगता है, पता नहीं उस समय इतने वर्षों पहले मन की क्या मौज में कुछ लिखा गया होगा.. ९९प्रतिशत पोस्टों को मैं एक बार पब्लिश करने के बाद देखता ही नहीं....इस में भी नहीं पता कि क्या लिखा है, बस आज कल घर में इस्तेमाल होने वाले सोफे की फोटो डाल कर निकल रहा हूं...Ok.. take care....
6 comments:
- राज भाटिय़ा said...
- चोपडा जी आप ने लेख तो बहुत अच्छा लिखा हे बिजली के स्वीच, दरवाजे के हेडिल, जाली वाले दरवाजे , ओर बर्तनॊ पर लगे स्टीकर तो छोड ही दिये,ओर भी बहुत सी चीजे हे,हमारे नोट जिन्हे हाथ लगने को भी दिल नही करता कभी इन पर भी लिखऎ,बहुत उप्योगी बाते लिखी हे.
- March 19, 2008 9:34 PM
- अनिल रघुराज said...
- सफाई का नया संस्कार ही सिखा दिया आपने। वैसे मेरी पत्नीश्री कई साल से पूरे परिवार को इसकी ट्रेनिंग दे रही हैं। सब के तौलिये अलग, कंबल अलग, साबुन अलग। स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है यह सब।
- March 19, 2008 9:35 PM
- गुस्ताखी माफ said...
- बहुत काम का लेख लिखा है.
पत्नियां अक्सर सही ही होती हैं - March 19, 2008 9:47 PM
- Kaput Pratapgarhi said...
- डा साहब आप मेरे भाई जैसे दिखते हैं।
एक डॉक्टर साहब को ब्लॉग पर देखकर अच्छा लगा। - March 19, 2008 10:24 PM
- Neeraj Rohilla said...
- डाक्टर साहब,
हम तो आपके इसी फ़लसफ़े के मुरीद हैं । आपकी पालीथीन वाली पोस्ट ने सीधा असर किया था । कुछ दिन पहले मैं अपने रूममेट से बात कर रहा था कि यहाँ ह्यूस्टन में कितना कबाडा हर रोज पैदा होता है मेरे अपार्टमेंट में, हर चीज तो डिब्बाबंद है ।
खैर आप लिखते रहे, हम पढने और अमल में लाने का प्रयास करने के लिये तैयार हैं । एक बात का सुकून है कि हमारे घर पर सबकी अपनी रजाई/कंबल फ़िक्स है और सभी पर सफ़ेद सूती कवर चढे हुये हैं । अब याद आ रहा है कि सर्दी की शुरूआत में बडे सन्दूक से रजाई गद्दे निकालकर धूप लगाकर और कवर धो-सुखा कर प्रयोग में लाये जाते थे । ठीक यही उपक्रम सर्दी खत्म होने पर उनको सन्दूक में रखने से पहले किया जाता था । - March 20, 2008 12:20 AM
- Gyandutt Pandey said...
- सच में डाक्टर साहब - यात्रा में सरकारी कम्बल की बजाय मैं अपनी रजाई घर से ले कर चलता हूं। कभी फंस गये तो मजबूरी है। वैसी अवस्था मे एक बार स्किन एलर्जी भी हो चुकी है।
- March 20, 2008 3:10 PM
ये दूरवर्ती शिक्षण पाठ्यक्रम (correspondence courses)……..मेरे अनुभवों से कुछ सीखा चाहेंगे ?
अब मसला यह था कि इंगलैंड में तीस हज़ार रूपये भेजने थे और मुझे इस के बारे में एक पैसे की भी जानकारी न थी। तब हम लोग फिरोज़पुर (पंजाब) में रहते थे......जान-पहचान ढूंढ कर किसी बैंक में गया जहां इस तरह के विदेशी ड्राफ्ट्स (शायद यही कहते थे !)..बनते थे....वहां जा कर पता चला कि यह काम फिरोज़पुर शहर में कहीं नहीं होता, आप को लुधियाना जाना होगा ..वहां फलां फलां ब्रांच में फारन एक्सचेंज का इस तरह का काम होता है...कुछ फारमैलिटिज़ भी बतला दी गईं।
मैंने सोचा कि लुधियाना जो 110किलोमीटर की दूरी पर था.....अगर वहां जा कर भी काम न हुया तो दिन खराब होगा। इसलिये दिल्ली ही चला गया...छुट्टी ले कर...वहां पर भी जान-पहचान की लाठी के सहारे आखिर उसी दिन इस तरह का लगभग तीस हज़ार रूपये खर्च कर के ड्राफ्ट बन गया।
ड्राफ्ट भेजने के कुछ दिनों बाद ही मुझे छोटी-छोटी किताबों का एक पुलंदा आ गया............एक बात बतला दूं...कि इन अंग्रेजों की अंग्रेज़ी चीज़ों का इतना ज़बरदस्त क्रेज़ रहा है कि उस पैकेट को देख कर मेरी तो बांछे ही खिल गईं कि अब बन के दिखायूंगा सारी दुनिया को एक चोटी का लेखक।
किताबों के साथ ही एक असाइनमैंट की एक लिस्ट भी थी कि ये ये होम-वर्क कर के हमें भेजते रहना । खैर, कुछ ही दिनों के बाद मैंने एक-दो असाइनमैंट भेज दीं और लगभग एक महीने के बाद जांची हुईं असाइनमैंट मेरे पास वापिस पहुंच गईं..............अब तो याद भी नहीं कि उस की ग्रेडिंग में उन्होंने क्या लिखा ,लेकिन जो भी था सब कुछ अच्छा अच्छा ही था..............लेकिन धीरे धीरे कुछ ही हफ्तों में मुझे यह समझ आते देर न लगी कि भैया, इस कोर्स वालों को अपने तीस हज़ार इक्ट्ठे करने तक ही मतलब था जो उन्होंने साध लिया है। अब तुम इन किताबों का आचार डालो..............क्योंकि बिना किसी तरह के पर्सनल इंटरएक्शन के कहां ये गूढ़-ज्ञान की बातें समझ में आती हैं। वैसे तो इंगलिश मेरी बचपन से ही ठीक-ठाक रही है( थैंक यू.....मास्टर शूर साहिब......जो आजकल डीएवी स्कूल अमृतसर के प्रिंसीपल हैं.....) ...लेकिन फिर भी इस के लेखन में हिंदी –पंजाबी जैसा धारा-प्रवाह कभी बना नहीं.....भला बनेगा भी कैसे, जो भी है...चाहे इंटरनैशनल भाषा है...है तो विदेशी ही ना.....तो इस इंगलिश में कुछ भी लिखने से पहले सोचो, फिर तोलो, उस के बाद बोलो या लिखो। यह वाली बात अपनी मातृ-भाषा या राष्ट्रीय भाषा के साथ कतई नहीं है.......इस में लिखना तो अपनी मां के साथ या किसी देशवासी के साथ बात करने जैसा आसान है।
मैं भी बात बहुत ज़्यादा खींचने लग गया हूं.........ब्रीफ में बताता हूं कि बिना किसी तरह की गाइडैंस के मेरे उस कोर्स में कभी इंट्रैस्ट बन ही नहीं पाया.................बस,किताबें ही धरी की धरी रह गईं। ना मैंने उन को कभी फिर कोई असाइनमैंट भेजी और न ही उन्होंने कभी पूछा कि हे उभरते लेखक, क्या कर रहा है तू आजकल...........क्या कुछ लिख रहा है.........किताबें पढ़ रहा है कि नहीं..................सीधी सी बात की उन का सरोकार तीस हज़ार रूपये पाने तक ही सीमित था। खैर, इस टापिक को तो मैं खत्म ही समझ बैठा।
कुछ दिनों बाद ही अपने ही देश की एक अच्छी खासी यूनिवर्सिटी का एक विज्ञापन दिखा जिस में हिंदी में सृजनात्मक लेखन करने-करवाने की बात कही गई थी। अभी उस पहले काटे कीड़े की खुजली शांत भी न हुई थी कि इस हिंदी लेखन सीखने वाले देशी कोर्स के ततैये ने डंग मार दिया.............सो, बड़े चाव से कर दिया कोर्स शुरू ....शायद 1700या 1800रूपये फीस थी।
इस कोर्स के लिये रिक्वायरमैंट तो थी केवल बारहवीं कक्षा में पास होन की। लेकिन जब किताबें आईं तो उन्हें देख कर सिर दुखता............नहीं,नहीं, कोई भारी-भरकम नहीं थीं..........बस, उन में विभिन्न पाठ बड़े बड़े लेखकों ने इतनी मुश्किल भाषा में लिखे हुये थे कि या तो उन की बिल्कुल भी समझ नहीं आती थी और अगर एक-दो पैरे पढ़ने की हिम्मत जुटा भी पा लेता था तो आगे पढ़ना सिर-दर्द जैसा लगता था। इसलिये सारी उम्मीदे इस कोर्स के पर्सनल कंटैक्ट प्रोग्राम पर ही टिकी हुईं थीं....कि जब वहां जाऊंगा तो इन को पढ़ने का , समझने का टीका लगवा कर के ही आऊंगा......खैर, मैं सारी रात गाड़ी में खराब ( अब खराब ही कहूंगा.....कारण अभी बतलाता हूं...)....करने के पश्चात् सुबह पंजाब गया चंडीगढ़............लेकिन जहां पर स्टडी सैंटर बना था..वहां पर कोई हरकत ही नज़र नहीं आई। काफी समय के बाद एक सुस्त सी मैडम ( हां, विद्यार्थीयों से भी ज़्यादा सुस्त )....ने बड़े ही नीरस ढंग से कोर्स के बारे में बताया। वह रविवार का दिन था...और यह पर्सनल कोंटैक्ट कार्यक्रम आने वाले तीन-चार रविवारों को चलना था। लेकिन उस मैडम ने इतनी नीरसता से बात की कि वह नीरसता तो किताबों के रूखेपन को भी मात दे गई)....लेकिन वो मैडम चाहे जितनी भी जल्दी में थी ( उस महान आत्मा ने हमें आधे घंटे में ही फारिग भी कर दिया...........जै हो!!!!!)…..उस ने इतना बतलाने में कोई जल्दबाजी नहीं की कि इस पर्सनल कंटैक्ट प्रोग्राम में आप का आना अनिवार्य नहीं है.....सो ,उस प्रोफैसरनी की इस बात में कुछ इतना ज़्यादा जादू था कि मन ही मन जो अगले रविवार ना आने का विचार बन रहा था , वह फिरोज़पुर वापिस आते आते एक दम बरगद के पेड़ की जड़ों की तरह मज़बूत हो गया। और हम अकसर कहते हैं कि टीचर का क्या है, हम तो किताबों से, नेट से कुछ भी सीख सकते हैं...........ऐसा नहीं है दोस्तो....मेरे विचार में तो उस टीचर को अपनी टीचरी करने का कोई हक ही नहीं है जो छात्रों के मन में अपने विषय के प्रति रोमांच (रोमांच कहूं या रूचि कहूं !).. ही न पैदा कर सके। बस, आज उस प्रोफैसरनी का धन्यवाद ही करता हूं कि दोबारा उस कोर्स की कभी किताबें खोल कर देखने की इच्छा ही नहीं हुई। और हां, आज कल जब उस यूनिवर्सिटी का इश्तिहार देखता हूं तो पाता हूं कि उन की लिस्ट से वह वाला हिंदी लेखन सिखाने वाला कोर्स ही हटा दिया गया है।
लेखक बनने की बाकी यात्रा अगले किसी लेख में लिखूंगा..बात लंबी होती लग रही है। वैसे जाते जाते मेरे अपने का वह गीत अचानक याद आ गया जो यू-टयूब पर नहीं मिला , लेकिन उस के लीरिक्स कहीं दिख गये हैं जिन्हें यहां पर चेप रहा हूं........
मंगलवार, 18 मार्च 2008
यह जो पब्लिक है ...सब जानती है ...
किसी कारण वश स्कैन कर नहीं पाया, नहीं तो आप को ओरिजनल खबर ही पढ़ा देता। फिर भी इस ऊपर दिये लिंक पर क्लिक कर के आप भी थोड़ा इस के बारे में ज़रूर पढ़े।
और पता है यह खुलासा कैसे संभव हो पाया.....सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत किसी ने अरजी लगाई थी। मन ही मन मैंने भी इस गजब के अधिकार को एक जबरदस्त सलाम ठोक दिया..........आप किस बात की इंतज़ार कर रहे हैं !
अगर यही विकास है तो.........
अभी सुबह के चार बजे हैं ...और मैं आधे घंटे तक मच्छरों से परेशान होकर.....परेशान क्या, हार कर उठ के बैठ गया हूं। हां, हां, पता है वो पचास रूपये वाली मशीन लगा लेनी थी.....लेकिन गर्मी भी तो अभी दो-तीन दिन से ही थोड़ी महसूस होने लगी है। आज पहली बार एक नंबर पर पंखा चला।
मैं एकदम निठल्ला बैठा हुया इस समय विकास की परिभाषा ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं..........मुझे नहीं याद कि बचपन में हम लोग कभी इन मच्छरों की वजह से उठे हों। अब इस तरह के घर में रहता हूं जिस में एक भी मक्खी नहीं है, ये कमबख्त मच्छर भी सुबह तो दिखते नहीं लेकिन शाम एवं रात के वक्त इन के द्वारा परेशान किया जाना बदस्तूर जारी है। घर के आसपास भी ...लगभग आधे किलोमीटर तक ...गंदगी कहीं भी नज़र नहीं आती।
हम लोग इतने दशकों से सुनते आ रहे हैं ना कि मच्छरों को रोकथाम के लिये फलां-फलां कदम हमें उठाने चाहियें ....और हर बंदा अपने सामर्थ्य के अनुसार इस दिशा में कुछ न कुछ कर के खुश होता भी रहता है। लेकिन फिर भी इन बीमारियों की खान.....मच्छरों को हम लोग मिलजुल कर कंट्रोल नहीं कर पाये.......और बातें हम लोग इतनी बड़ी बड़ी हांकेंगे कि जैसे पता नहीं .............यकीन नहीं हो तो ट्रेन के सामान्य डिब्बे में हो रही गर्मागर्म डिस्कशन में थोड़ा सम्मिलित हो कर देख लीजियेगा। किसी कंपार्टमैंट में तो एक ग्रुप के माडरेटर को यही चिंता सताये जा रही है कि पाकिस्तान का क्या बनेगा....तो दूसरा, यह सोच कर दुःखी है कि इस बार उस का मनपसंदीदा चैनल सब से तेज़ चैनल न बन पाया.........!!
और हां, पहले इन दिनों में ही आंगन में तो नहीं ,लेकिन बरामदे में सोने की तैयारियां शुरू हो जाया करती थीं। और अब बच्चों को तारों से भरे अंबर के तले सोना भी किसी परी-कथा जैसा लगता है...............कोई सो कर तो देखे...या तो मच्छर ही अगवा कर के ले जायेंगे ....और अगर कहीं अगवा होने से बच गया तो सुबह इन के द्वारा काटे हुये के निशान देख देख कर तुरंत मच्छर-मार या मच्छर भगाऊ मशीन को लेने दौड़ पड़ता है।
जो भी हो......जैसा कि सब जगह ही कहते हैं कि इन बदले हुये हालातों के लिये हम सब ज़िम्मेदार हैं.................मुझे सब से ज़्यादा दुःख इसी बात का है कि हम सारा दिन गंदगी को रोना रोते रहते हैं ...............साफ ढंग से नहीं हो पा रही है, सफाई वाले अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं.........लेकिन बात सोचने की तो यह भी है कि हम आखिर क्या कर रहे हैं !!---मुझे पूरा विश्वास है कि अगर हर घर के द्वार पर भी एक सफाईवाला खड़ा कर दिया जाये...तो भी हमारी हालत में सुधार नहीं हो सकता।
और इस तरह की गंदगी जो हमें जगह जगह दिखने लगी है उस का सब से अहम् कारण जो मुझे लगता है कि हमारा लाइफ-स्टाइल कुछ इस तरह का हो गया है कि हम बहुत ज़्यादा कूड़ा-कर्कट जनरेट करने लग गये हैं.............आप को भी याद होगा कि जब हम लोग बच्चे थे तो सारे घर की सफाई होने के बाद जो धूल-मिट्टी इक्ट्ठी हुया करती थी, उसे काम-वाली एक कागज़ पर डाल कर बाहर दरवाजे के बाहर फैंक आती थी और उन दिनों भी इस तरह के बिहेवियर पर बड़ी आपत्ति उठाई जाती थी कि यार, यह भी कोई बार हुई कि गंदगी को मुंह से उतार कर नाक पर लगा लिया.......घर की सफाई कर के सारी गंदगी बाहर डाल दी , यह भी कोई बात हुई !
लेकिन अब तो हम अपने आप को विकसित कह कर खुश होने वाले लोग...कुछ ज्यादा ही उच्चश्रृंखल से हो गये हैं। एक घर का कूड़ा-कर्कट देख कर डर लगता है................किसी के घर का ही क्यों ....मुझे तो अपने घर का ही दैनिक कूडा देख कर हैरानगी होती है कि यार, हम लोग एक दिन में इतना खा जाते हैं....दो-तीन थैलियां रोज़ाना कूड़ा। खैर, हमारे यहां तो नहीं , लेकिन आम तौर पर इस कूड़े में बच्चों के चिप्सों के पैकेट , उन की मनपसंद चीज़ों के पैकेट इत्यादि भी बहुत मात्रा में मिलते हैं....और दुःख की बात तो यही है कि ये उत्पाद हमारे बच्चों की सेहत बिगाड़ने के बाद भी हमारे पर्यावरण को भी विध्वंस करने में नहीं चूकते क्योंकि ये टोटली नान-बायो-डिग्रेडेबल होते हैं।
वैसे जिस तरह से मैं अपनी चारों तरफ़ रोज़ाना बड़े बड़े नाले इन प्लास्टिक की थैलियों की वजह से चोक हुये देखता हूं ना ...इस से मुझे तो लगता है कि आज की ताऱीख में ये थैलियां हमारी बहुत बड़ी शत्रु हैं.........कईं जगह इन पर बैन लगा है लेकिन फिर मैं और आप जब भी इसे मांगते हैं , हमें तुरंत एक थमा ही दी जाती है................यार, दही, दूध, दाल, सब्जी तक इन घटिया किस्म की थैलियों में मिलने लगी है। इन सस्ती थैलियों में लाई गई खाने पीने की वस्तुयें खा कर हम बीमारियों को तो खुला आमंत्रण दे ही रहे हैं ,उस के बाद ये हमारे नालीयां एवं नाले रोक कर सारे शहर में गंदगी फैलाती हैं। और कईं बार तो हमारे पशु-धन ( गऊ-माताओं वगैरह..) के पेट से इन के बंडल निकाले जा चुके हैं ..............हम सब के लिये कितनी शर्म की बात है कि हमें केवल एक कपड़े का थैला उठाने में इतनी झिझक हो रही है और पर्यावरण का जो मलिया-मेट हो रहा है , उसे हम देख नहीं पा रहे हैं या देख कर भी न देखने का ढोंग कर रहे हैं । और हर काम में सरकारी पहल की आस लगाये रहते हैं कि यार, काश हमारे शहर में भी इन चालू किस्म की पालिथिन की थैलियों पर बैन लग जाये........इस बैन में क्या है, आप आज से कपड़े का थैला उठा लीजिये , कसम खा लीजिये कि इन थैलियों को नहीं छूना..............तो बस हो गया बैन....................इस के लिये किसी कानून की ज़रूरत थोड़े ही है। लेकिन कुछ भी हो, अब तो यह सब करना ही होगा .....ऩहीं तो ये मच्छर हमें परेशान करते रहेंगे, गंदगी के अंबार हमारे आस-पास लगते रहेंगे.......और जैसा कि वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइज़ेशन कह रही है कि आज कल नईं नईं बीमारियों दिखने लगी हैं..................वे तो दिखेंगी ही क्योंकि हम लोगों ने निराले निराले शौक पाल रखे हैं ।
लेकिन जो भी हो, इन पालीथिन की थैलियों को बाय-बाय कह ही दिया जाये..............इसी में ही हम सब की बेहतरी है....बेहतरी को मारो गोली............अब तो वह स्टेज रही ही नहीं, अब तो भई इन को बहिष्कार करने के इलावा कोई चारा ही नहीं बचा। और अगर अभी भी मन को समझा न पायें हों तो जब कोई सफाई-कर्मचारी बिना दस्ताने डाले हुये किसी रुके हुये मेन-होल की सफाई कर रहा हो तो थोड़ा उस के पास खड़े होकर अगर हम उस में निकलते हुये तरह तरह के आधुनिकता के , विकास के प्रतीकों को ...और उस के द्वारा लगातार बाहर निकाल कर रखे जा रहे इन्हीं थैलियों के ढेर को देखेंगे तो सारा माजरा समझ में आ जायेगा। लेकिन कितने दिन यह सब ठीक रहेगा..............बस, चंद दिनों के लिये ही ।
चलिये......थोडा सोचें कि आखिर हम ने इस विकास से क्या पाया.......ठीक है फोन पर ढेर बतियाने लगे हैं, घर में ही रेल टिकट निकालने लगे हैं, हवाई जहाज में उड़ने के बारे में घर बैठे ही जानने लगे हैं , चंद मिनट पहले दूर- देश में क्या हुया है जानने लगे हैं, स्टिंग आप्रेशन भी करने लगे हैं..............लेकिन इस मच्छर का भी तो कुछ करो ना यारो। बहुत परेशानी होती है.....चिल्लाने की इच्छा होती है।
वही बात है ना कि जैसे जावेद अख्तर साहब लिखते हैं कि पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, .......तुमने और मैंने क्या पाया इंसा होके !!................कितना उम्दा एक्सप्रेशन है...............वाह भई वाह!!..........लेकिन हम भी तो हम ही ठहरे, अपनी तरह के एक अदद अलग ही पीस, हम ये सब बातें सुन कर भी कहां सुधरने वाले हैं।.....मैं कोई झूठ बोल्या ?...........
6 comments:
See here or here
Don't click there.. 99% chance of Virus.. :)
holi me khushi manaaiye... virus ka gam na paalen.. :D
ek baat to bhul hi gaya..
Holi mubarak ho Dr. sahab.. :)
होली आप को भी बहुत बहुत मुबारक़ !
आपको होली की हार्दिक शुभकामनाए।
कृपया नोट करें कि जैसे डियर PD ने हमें सचेत किया है...इस पोस्ट में कोई वॉयरस नहीं है , केवल एक Kagahn नामक id से जो कमैंट आया है उस पर क्लिक न करने को कहा गया है। वैसे मैं सोचता हूं कि अब जैसे जैसे हिंदी की प्रयोग इंटरनैट पर बढ़ेगा,ये सब चीज़ें भी , ये सब शरारतें, सैडिस्टिक हरकतें भी बढ़ेंगी....इसलिये इन की क्या परवाह करनी । वैसे आज तो पीडी की एडवाइस ने बचा लिया।
@मीत जी, आप को भी बहुत बहुत होली मुबारक, आशा है अब आप की अक्कू आप के साथ होली का हुड़दंग मचाने के लिये बिल्कुल फिट हो गई होंगी। बॉय गाड, उस दिन आप की पोस्ट बहुत टचिंग थी, शायद हम सब ने ही अक्कू के शीघ्र स्वास्थय लाभ की प्रार्थना कर डाली होगी।
@ पंकज अवधिया जी, आप के लिये एक काम है..कृपया इसी बलोग पर पिछली पोस्ट...रंगों का त्योहार न लाये.....ज़रूर देखें। आप को भी होली की बहुत बहुत शुभकामनायें....आप सब बलोगर बंधुओं की पोस्टें पढ़ता रहता हूं .....लेकिन बस बात ही नहीं हो पाती।
@PD, I am very thankful to you for your timely help. May God bless you...today I went to your blog reg..telephonic conversation but the comment box never opened up. It was a nice post.....आज होली की पूर्व-संध्या पर आप ने अपने बचपन के कॉमिक्स को याद कर लिया...अच्छा है। खुश रहो।
@अरे भईया Kagahn तेरा भी बहुत बहुत शुक्रिया...तूने की तो बहुत शरारत...लेकिन तेरी इस शरारत ने भी हम लोगों को बहुत सिखा दिया ..वह यह कि किसी भी अनजान बंदे की टिप्पणी पर किसी लिंक को क्लिक करने की कोशिश मत करो।
एक तो यह जब से बलोगिंग की है, बच्चे पास ही बैठे रहते हैं.....और इस समय डायलाग मार रहे हैं कि बापू, कमैंट को मार रहा है, इतना ही लिखना है तो एक पोस्ट ही लिख डाल।
सो, अब बंद करता हूं।
शुभकामनायें।
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