शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

डेढ़ महीने बाद ब्लॉग पर वापिसी ...

पूरे डेढ़ महीने के बाद आज ब्लॉग पर वापिस लौटा हूं...बस ऐसे ही कुछ लिखने की इच्छा ही नहीं हुई...जब भी लिखने लगूं यही लगे कि आखिर मैं लिखना चाहता ही क्यों हूं...बस, इसी तरह के विचार आते रहे और इतना समय निकल गया..लेकिन मैंने इन डेढ़ महीनों को व्यर्थ नही गंवाया।

पिछले दिनों मैंने शेयरो-शायरी खूब पढ़ी ...और फिर जो कुछ मुझे पसंद आया उसे फेसबुक, ट्विटर और गूगल-प्लस पर शेयर भी किया। और रेडियो भी खूब सुना...खूब। 

शायरों को पढ़ना सुनना बहुत अच्छा लगता है...खास कर के जो बातें इंस्पायर करें उन बातों को। मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे पास इतना भरपूर लिचरेचर है लेकिन शायद हम लोग उस का उतना फायदा उठा ही नहीं पाते। पढ़ते पढ़ते कोई शब्द समझ नहीं आए तो मैं उसे डिक्शनरी में देखने की ज़हमत तक नहीं उठाता...इसीलिए मेरे जैसे लोगों की वोकेबलरी का स्तर २० साल पहले जैसा ही रहता है। 

पढ़ने का इतना आलस्य कि पिछले दो तीन वर्षों से फणीश्वरनाथ रेणु जी द्वारा रचित मैला आंचल और श्री लाल शुक्ल जी का राग दरबारी पढ़ने की तमन्ना है...कुछ महीनों बाद उठाता हूं ...दो चार पन्ने पढ़ता हूं ...बस। 

लिखने का मन इसलिए भी नहीं किया कि कभी कभी ऐसा भी लगता है कि अपने प्रोफैशन से संबंधित जितना लिखना था, वह हो चुका है...अगर कोई इसे पढ़ कर के फायदा उठाना चाहे तो उस के लिए सामग्री पर्याप्त है...और इन लेखों में एक एक शब्द को मैंने पूरी इमानदारी से लिखा है। 

जहां तक अन्य विषयों पर लिखने की बात है ..मैं ऐसा सोचने लगा हूं कि पढ़ने वाले को तो लगता होगा कि अच्छा लिखा है ..बात सही भी लिखी गई होती होगी, सच भी होती होगी ...लेकिन यही लगने लगा है कि अगर कोई भी बात दिल की गहराई से शेयर न की जाए तो फिर लिखने का क्या फायदा....लेखन में पैसा-वैसा तो है नहीं, अगर सतह पर रह कर ही अपनी बात शेयर करनी है जिसे पढ़ कर चार लोग कमैंट कर दें, दो टिप्पणी कर दें ...तो फिर इस तरह से लिखने का फायदा क्या, कुछ भी तो नहीं।

जब तक अपने लेखन में पूरी ईमानदारी न होगी तब तक लिखना किसी के लिए भी हितकारी न होगा...न लिखने वाले के लिए न ही पढ़ने वाले के लिए....इसलिए जो लोग पूरी ईमानदारी से लिखते हैं उन्हें पढ़ना, सुनना, बार बार पढ़ना बहुत भाता है....पता झट से लग जाता है कि लिखने वाला मेरी तरह का सुपरफिशियल लेखक है या फिर दिल से गहराईयों से लिखता है। 

मुझे कभी समझ नहीं आई कि आखिर मेरे जैसे लोग लिखते हुए डरते क्यों हैं...क्यों खुलापन नहीं आ पाता अपने लेखन में....अकसर सोचता हूं इस बारे में।

मैं अकसर सरकारी टीवी चैनलों की भरपूर तारीफ़ करता रहता हूं ....मेरी पिछली पोस्टों में आपने शायद इसे नोटिस किया होगा। 

कुछ प्राईव्हेट टी वी चैनलों पर तो जिस तरह से अकसर हम लोग जनप्रतिनिधियों को अपनी बात कहते देखते हैं, मेरा तो झट से सिर भारी हो जाता है...पांच सात मिनट के बाद ही ...जिस तरह से वे उछल उछल कर एक दूसरे की बात काट रहे होते हैं, उस से पता चल ही जाता है कि सच क्या है और झूठ क्या!

इस के विपरीत सरकारी चैनलों के कुछ प्रोग्राम हैं जिन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। कल मुझे ध्यान आया कि अरसा हो गया मैंने राज्य सभा टीवी चैनल पर गुफ्तगू प्रोग्राम नहीं देखा....मैंने यू-ट्यूब पर उसी समय लेख टंडन जी से मुलाकात सुनी ...कल रात की ही बात है....


जब मैं इस प्रोग्राम को देख रहा था तो मैं सोच रहा था इसे देखते हुए एक प्रतिशत या एक रती भर भी कहीं नहीं लगा कि यह महान् शख्स लेख लंडन जी कहीं कुछ छिपा रहे हैं या अपने शब्दों पर कोई मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं....ऐसे लोगों के संघर्ष को हमारा नमन......सच्चाई से टपकते इस तरह के इंटरव्यू हमें केवल इन्हीं सरकारी चैनलों पर ही दिखाई पड़ते हैं।

इन्हें सुनने के बाद ...मैंने इसी यू-ट्यूब चैनल पर शख्शियत श्रृंखला में चित्रा मुदगल जी को सुना.....एक दम रूह खुश हो गई...उन्हें भी सुनते हुए लगा कि जैसे शब्द नहीं, उन के मुंह से मोती किर रहे हों, इतना सच्चाई, बेबाकी और ईमानदारी से अपनी बात रखना ....जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है....


मुझे बस इतना ही कहना है कि हमें इस तरह के महान लोगों को सुनने का भी टाइम निकाल लेना चाहिए...मैं अपने बारे में तो कह सकता हूं कि कईं बार बेकार में सोशल मीडिया में उलझे रहते हैं ....न कुछ कढ़ना न कुछ पाना....बेकार में मुंड़ी गडाए सिर दुःखा लेते हैं......अगर सच में कुछ प्रेरणा चाहिए, कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली बातें सुनने का मन हो तो इस तरह के कार्यक्रम देखने चाहिए....रोज़ाना......भरपूर खजाना है इन सरकारी टीवी चैनलों के यू-ट्यूब चैनलों पर .....बस, हमारे में इन से कुछ ग्रहण करने की इच्छा होनी चाहिए। क्या पता इन महान् शख्शियतों को सुनते सुनते हम भी अपनी बात दिल की गहराईयों से कहने लगें....

और कल क्या किया?....दोपहर में शायद ज़ी क्लासिक पर जीवन-मृत्यु फिल्म आ रही थी...एक दो घंटे उसे देखा ...शाम को आप की कसम किसी चैनल पर आ रही थी तो उसे बीच बीच में देखता रहा ...रात में लेख टंडन साहब और चित्रा मुद्गल जी को सुना.......बहुत सुकून मिला ....

जीवन-मृत्यु फिल्म का यह गीत अभी ध्यान में आ गया....