शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

कल नुक्कड़ पर दिखी फिर एक मशाल...

कल शाम...लखनऊ अम्बेडकर चौराहा..कानपुर रोड़
कल लखनऊ के अंबेडर चौराहे के पास एक मशाल फिर दिखी...अच्छा लगा. मशाल यह थी आम आदमी को सूचना देने वाली... बहुत सी सूचना...इस तरह की मशालें चाहे वे नुक्कड़ नाटक के रूप में हों,  इप्टा के सरोकारों के रूप में या फिर इस तरह के उद्यम से ...इन का स्वागत होना चाहिए।

शायद एक डेढ़ साल पहले की बात है ...मैंने एक दिन लखनऊ के जीपीओ के बाहर एक रिक्शे पर बैठे आदमी को देखा जो कुछ किताबें बीस बीस रूपये में बांट रहा था...साथ में कुछ लिख रहा था....और ऐसे ही लाउड-स्पीकर पर उस किताब के फायदे बता रहा था। यह रिक्शा लखनऊ में मुझे अकसर कुछ दिनों बाद कहीं न कहीं दिख ही जाता है। 

कल जब मैंने उसी तरह की प्रचार-प्रसार देखा तो मैंने जो वीडियो बनाई उसे यहां नीचे शेयर कर रहा हूं....इस में सरकारी की विभिन्न कल्याण योजनाओं, सूचना का अधिकार, प्रताड़ित महिलाओं के लिए सूचना, ड्राईविंग लाईसेंस के लिए जानकारी, राशन कार्ड---क्या क्या लिखूं जितनी सरकारी किस्म की जानकारी एक नागरिक को चाहिए होती है, वह सब उस पतली सी बुकलेट में सरल हिंदी भाषा में उपलब्ध थी। 

बेचते वक्त यह रिक्शा में बैठा शख्स इस पर कोई हेल्पलाइन नंबर भी लिख रहा था...और यह मैंने नोटिस किया...आते जाते राहगीर रूक कर पूरी तन्मयता से सब बातें सुनते हैं...कुछ किताब को खरीद भी लेते हैं। 

मैंने भी पिछले साल खरीदी थी....लेकिन वही ओव्हर-कांफिडेंस का चक्र...मेरे जैसे को लगता है कि हमें तो सब पता ही है, हम तो सब पहले ही से जानते हैं...इसलिए इस तरह की किताब खरीद तो लेते हैं, लेिकन अगले दिन उस का अता पता नहीं होता, बस घर लाकर जिज्ञासा वश किताब के पन्ने एक बार पलट ज़रूर लेते हैं लेकिन फिर कुछ पता नहीं रहता.....मैंने भी जब कल घर आकर इस किताब को ढूंढना चाहा तो कहीं ना मिली..

पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि नेट पर सब कुछ पड़ा है, वहीं से देख लेंगे लेकिन कम पढ़े लिखे और उन लोगों के लिए जिस को इंटरनेट उपलब्ध नहीं है,  इस तरह की सूचना रूपी मशाल उन के जीवन तो प्रकाशमय करती ही है, निःसंदेह...

इसे लिखते लिखते मुझे हिंदी फिल्म वेलडन अब्बा का ध्यान आ गया....किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के गांव वाले अपने गांव में कुआं खुदवा के ही दम लेते हैं......आम जन तक सूचना पहुंचने का ही सारा चक्कर है...अब वे दिन लद गये कि गुप-चुप कुछ भी किया जाए और उसे चटाई के नीचे सरका दिए जाए......अब सब कुछ हम जान सकते हैं ...बस आम जन को सवाल उठाने भर की ज़रूरत है.......

आग मेरे सीने में ना सही, 
तेरी सीने में ही सही, 
हो जहां भी आग 
लेकिन जलनी चाहिए...

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

मुंह के कैंसर के इलाज के बाद...

पिछले कुछ िदनों में मेरा कुछ ऐसे मरीज़ों से मिलना हुआ जिन के मुंह के कैंसर का इलाज हो चुका था...उन की बातें सुन कर बार बार मन में यही प्रार्थना ही करते बनी कि ईश्वर हरेक को इस तंबाकू-गुटखे-सुपारी के व्यसन से बचा कर रखना।

जिस का आप्रेशन कुछ महीने पहले हुआ है अब वह इस चिंता में डूबा हुआ था कि डाक्टर साहब, कहीं फिर से तो नहीं हो जाएगा.. मैंने कहा ...आप का इलाज देश के सब से कैंसर संस्थान से हुआ है..आप हर तीन महीने में एक बार चैक अप के लिए जा रहे हैं, चिंता मत करिए....अगर विशेषज्ञों को कुछ भी, कहीं भी गड़बड़ी लगती है तो वे तुरंत उसे संभाल लेते हैं।

इस मरीज का आप्रेशन हुआ है और साथ में इन के मुंह के कैंसर को नियंत्रण करने के लिए सिकाई (रेडियोथेरिपी) भी की गई थी। रेडियोथेरिपी जहां पर कैंसर की कोशिकाओं का विनाश करती है, वहीं पर आस पास की स्वस्थ कोशिकाओं को भी प्रभावित करती हैं...बहुत से प्रभाव होते हैं...एक की बात करते हैं... चूंकि रेडियोथेरिपी से लार की ग्रंथियां भी प्रभावित हो जाती हैं, इन में लार बनना बंद हो चुका है... जिस की वजह से इन्हें खाना खाने में बड़ी कठिनाई होती है... पहले कुछ महीने तो मीठे-नमकीन का स्वाद तक पता नहीं चलता था, अब वह स्वाद तो थोड़ा पता चलने लगा है, लेकिन लार बननी फिर से कब चालू होगी, विशेषज्ञ कहते हैं कि कुछ कह नहीं सकते ... पांच छः वर्ष भी लग सकते हैं और हो सकता है कि यह कभी फिर से संभव ही न हो पाए।

बहरहाल, हम भोजन कर पाते हैं क्योंकि हमारे मुंह में लार बनती है जिस के साथ मिक्स हो कर भोजन आगे सरकता है... लार में भोजन चबाने के भी कईं तत्व मौजूद होते हैं... इन्हें खाने में दिक्कत यह है कि ये कुछ भी सूखा तो ले ही नहीं सकते, सूखी सब्जी को भी दाल के पानी में भिगो कर..मसल कर ही लेना होता है....दाल रोटी को भी मसल कर अच्छे से दाल के पानी में भिगो कर ही लेते हैं। कोई मिर्च नहीं कोई मसाला नहीं.. बिल्कुल सादा भोजन ही लिया जा सकता है।

मुंह बार बार सूखता रहता है..जिस की वजह से बार बार पानी से मुंह गीला करना पड़ता है। मैंने कहा कि इस बार जब विशेषज्ञों के पास जाएँ तो कृत्तिम लार (Artificial saliva) के बारे में पूछ लेना कि क्या आप उसे यूज़ कर सकते हैं।
एक दूसरा मरीज़ है, उस का आप्रेशन भी हो गया है, अभी वह सिकाई करवाएगा......बोल पाने में अभी असमर्थ है, मुंह से तो वह कुछ भी नहीं ले पाता, नाक में लगी ट्यूब से लिक्विड फूड सिरिंज के द्वारा अंदर पहुंचाया जाता है....
इस मरीज के बेटे के हाथ में डाइट शीट थी ...उस में आप देखिए कि कितनी एहतियात बताई गई है...


उस शीट के नीचे... ब्लेंडराईज्‍ड सूप बनाने का तरीका भी बताया गया था..... २ मुट्ठी चावल, १ मुट्ठी मूंग, या सोयाबिन पावडर, और ५० से ६० ग्राम सब्जीयां ये सब चीजें एक बर्तन या कुक्कर में डालकर ज्यादा पकाएं। ज़रूरत हो तो पानी डालिए, फिर मिक्सर में डाल कर बारीक पीसिए, उसमें थोड़ा नमक, नींबू रस, और २ चम्मच तेल डालिए, उसे अच्छी तरह मिला कर २ या ३ बार छानकर नली से दे सकते हैं। (पाल, गाजर, लौकी मिला कर १०० ग्राम) ...

ईश्वर सब को स्वस्थ रखे और इन तंबाकू जैसे उत्पादों से दूर रखे...मरीज को तो तकलीफ है ही , साथ साथ उस के तिमारदारों की भी बड़ी परीक्षा होती है।

जो भी इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं, कृपया तंबाकू, गुटखा, बीडी सिगेरट, डली, खैनी, पान, पानमसाला ..सब तक की चीज़ों से दूर रहें और अगर इन्हें इस्तेमाल करते हैं तो अभी से थूक दीजिए। 

बुधवार, 21 जनवरी 2015

किशोर एवं किशोरियों को हर सप्ताह मिलेगी आयरन एवं फोलिक एसिड की टेबलेट


आज सुबह अखबार खोली तो यह विज्ञापन देख कर अच्छा लगा...इंगलिश और हिंदी दोनों पेपरों में इसे देखा.
उत्तर प्रदेश सरकार का विज्ञापन था जिस में उन्होंने साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम (   WIFS) के बारे में जनता को जागरूक किया था।

 WIFS का फुल फार्म तो नहीं लिखा था..लेकिन वही होगा Weekly Iron Folic Acid Supplementation Programme ....वीकली आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम।

इस में लिखा है ....

किशोर एवं किशोरियों (१०-१९ वर्ष) में एनीमिया (खून की कमी) से बचाव एवं गंभीरता में कमी लाने हेतु साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम पूरे देश में संचालित।

  • उत्तर प्रदेश में अनुमानित हर दूसरा किशोर/किशोरी एनीमिया यानि खून की कमी से पीड़ित है। 
  • किशोरावस्था में समुचित शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए संतुलित एवं पौष्टिक भोजन अत्यन्त आवश्यक होता है। 
  • एनीमिया होने से एकाग्रता में कमी, काम करने में थकान और सुस्ती रहती है और इसका प्रभाव उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता है। 
  • बचाव के लिए साप्ताहिक एवं आयरन-फोलिक की गोली तथा हर छह महीने में कीड़े की गोली WIFS कार्यक्रम के तहत विद्यालयों तथा आंगनबाड़ी केन्द्रों पर निःशुल्क दी जा रही है। 
  • माता-पिता अपनी जिम्मेदारी समझें और अपने बच्चों को यह गोली अवश्य खिलायें। 

नोट... खट्टे रसदार फल जैसे--आंवला, संतरा, मौसम्बी, नीम्बू आदि का सेवन आयरन के अवशोषण में सहायक होते हैं साथ ही ये ध्यान दें कि आयरन-फोलिक एसिड की टेबलेट का सेवन खाली पेट न करें और टेबलेट लेने के एक घंटे तक कॉफी अथवा चाय का सेवन न करें।

सप्ताह मेें एक बार भोजन के एक घंटे बाद आयरन एवं फोलिक एसिड की नीली टेबलेट का सेवन करना है। 
साल में दो बार कृमिनाशक एल्बेन्डाज़ोल की गोली का सेवन करना है। 

मुझे ध्यान में आ रहा है विभिन्न राज्यों में इस तरह की योजनाएं चल रही हैं...हरियाणा के सेहत विभाग की भी इसी तरह की एक स्कीम के बारे में मैंने एक बार पेपर में देखा था....लेकिन उसमें कुछ कहा गया था कि यह टेबलेट देने से पहले कुछ कर्मचारी बच्चों के रक्त की जांच कर के एनीमिया का पता लगाएंगे। इस के बारे में मेरे मन में कुछ शंका थी कि इतने व्यापक स्तर पर कौन करेगा यह सब टेस्टिंग.... और वैसे भी कईं बार बिना टेस्ट के क्लिनिकल निदान के आधार पर ही इस तरह के बचाव के लिए दवाईयां दे दी जाती हैं। 

अब यूपी में क्या करेंगे इस तरह की जांच के लिए... इस में कुछ वर्णन नहीं है। वैसे मुझे ध्यान आ रहा मैंने एक बार आईसीएमआर की एक रिपोर्ट के आधार पर एक लेख लिखा था...उस में भी यही बताया गया था कि क्लीनिकल जांच के आधार पर ही छोटे बच्चों को ऑयरन-फोलिक एसिड की गोलियां देनी कर देनी चाहिए...इस के बारे विस्तृत विवरण आप इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.... बच्चों में खून की कमी की तरफ ध्यान देना होगा..

कुछ िदन पहले मैंने एक रक्त रोग विशेषज्ञ द्वारा एनीमिया पर लिखी एक पुस्तक का भी वर्णन किया था... उस के कुछ अंश भी अभी आप तक पहुंचाने हैं... बस कभी कभी भूल जाता हूं, आलस्य कर देता हूं. लेकिन इस मुद्दे में सुस्ती करनी ठीक नहीं... एनीमिया की पुस्तक 

हर तसवीर एक दास्तां ब्यां करती है लेकिन ....

लेकिन यही कि हमने इन्हें संजो कर रखना बंद कर दिया है, शायद तस्वीरें खींचना इतना सस्ता सा हो गया है कि हमें लगता ही नहीं कि ये भी कोई संभाल कर रखने की चीज़ है, शायद मसरूफ़ ही इतने हो गये हैं कि इस की सुध किसे है, बस वह जो एक इंस्टैंट थ्रिल है, वही काफी है, है ना यही बात!

कहने को तो हम बहुत सी जगहों पर इन तस्वीरों को हिफ़ाज़त से रखने की बात करते हैं, पड़ी भी होती हैं किसी न किसी लैपटाप, डेस्कटाप, पेनड्राइव, पोर्टेबल हार्ड डिस्क या सी डी में .......बहुत सी होंगी पड़ी हुई...अगर इन उपकरणों को फार्मेट करते समय धुल न गईं हों तो ....वाशिंग मशीन के सुपुर्द होने वाली पैंट में रखे नोट की तरह!
एक बात तो तय है कि हम अब शायद ज़रूरत से ज़्यादा प्रेक्टीकल होने लगे ..इतनी तो ज़रूरत भी न थी, इसी चक्कर में हमें पुरानी तसवीरों को वेलापंथी और दकियानूसा सा काम लगता है.....शायद।

जब हम लोग छोटे थे तो हमें तस्वीरें खिंचवाने का मौका बस केवल शादी ब्याह में ही मिलता था....पता नहीं वह भी फ्लेश मार कर ही हमें खुश कर देता होगा!

वही बात है जितनी जिस चीज की कमी रहेगी उतना ही हम उस की कद्र करना जान जाते हैं...यह हर चीज़ पर लागू होता है....अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक बात लगा था कि मेरी जेब में कुछ पैसे कम हो गये हैं...पांच मिनट इधर उधर देखे ...नहीं मिले, मैंने भी सोचा खर्च हो गये होंगे...भूल गया....दो दिन पहले मैं एक डॉयरी ढूंढ रहा था .. तो एक नोटबुक में छः हज़ार रूपये मिले.....ध्यान आया कि उस दिन मैंने ही रखे थे सोते समय।

हम लोग आज हर चीज़ की वेल्यू इस तरह से ही करते हैं, मैं ऐसा सोचता हूं।

 मैं क्यों इस बात की खाल खींचने सुबह सुबह बैठ गया हूं इस के पीछे की बात सुनाता हूं.......एक सप्ताह पहले मुझे लगा कि पुरानी तस्वीरों को पिन्ट्रस्ट पर बोर्ड बनाने के लिए यूज़ करते हैं......पुरानी तस्वीरों को ढूंढा...बड़ी मशक्कत के बाद यह पॉलीथीन में लिपटीं हमें हमारी यादें मिल गईं......एक बार लगा कि यह कुछ कम लग रही हूं. ..फिर लगा कि सारी जगह देख तो लिया है, इतनी ही होंगी। मिसिज़ ने भी कहा कि जितनी हैं बस इसी पॉलीथीन में ही हैं। यही लगा कि शायद एल्बम में से निकाल कर बच्चों ने पॉलीथीन में डाल दी होंगी।

कल रात की बात है कि बेटा अपने सिलेबस का एक नावल ढूंढ रहा था...उसे ढूंढने की बड़ी जल्दी थी क्योंकि आज उस का इंगलिश का पेपर है...वह तेज़ी तेज़ी से बुक शेल्फ देख रहा था, नावल तो उसे नहीं मिला...वह तो बाद में उसने ऑनलाइन पढ़ने की रस्म पूरी कर ली ......लेकिन अचानक उसने आवाज़ दी.....पापा, कुछ एल्बम तो यहां भी पड़ी हैं, किताबों की शेल्फ़ों में किताबों के पीछे छुपी हुई ये २०-२२ एल्बम दिख गईं।

बीस बाईस एल्बम का बरामद हुआ ज़खीरा 
हम लोग यही देख कर हैरान हो गये कि हम अपनी पुरानी यादों को इस तरह से संजो कर रखते हैं ! पता ही नहीं था कि ये २२ एल्बम हैं भी या नहीं!

आज कल जितना फोटो खींचना या खिंचवाना एज़ी है, आज से तीस चालीस साल पहले यह सब इतना आसान नहीं था।

छठी कक्षा ... डी ए वी स्कूल अमृतसर 
चलिए आप से एक बात शेयर करता हूं कि मेरी छठी कक्षा से पहले कोई तस्वीर ही नहीं है...शायद किसी शादी ब्याह की एल्बम में होगी....लेिकन एक तस्वीर जो मेरे पास है वह यही है ....१९७० के दशक में पांचवी कक्षा की स्कालरशिप परीक्षा हुआ करती थी....हर स्कूल से कुछ छात्रों को उस में भेजा जाता था....उस में मेरा स्कालरशिप आया.......स्कूल के मेगजीन में छपनी थी.....हमें बताया गया कि आप अमृतसर के हाल बाज़ार के बांबे फोटो स्टूडियो पर पहुंच कर फोटो खिंचवाओ......सच में यार जो रोमांच उस िदन था, वह फिर कभी न तो आया और शायद ही कभी आयेगा.....अपनी सब से बढ़िया कमीज (जो पहन रखी है...हा हा हा हा) पहने मैं जब उस स्टूडियो को ढूंढ रहा था तो ऐसी फिलिंग आ रही थी कि जैसे दुनिया को ही मुट्ठी में कर लिया हो। नतीजा यह है कि आज चालीस वर्ष बाद भी यह मैगजीन मेरे पास सुरक्षित है।

आठवीं कक्षा की एक शादी की फोटो (स्वेटर में) 
उस के बाद लगभग दो साल बाद हमारे यहां बंबई से एक मेहमान आए...मेरे अकंल के दोस्त थे, उन्हें अमृतसर में कुछ काम था, कुछ दिन रहे, उन के पास कैमरा था, उन्होंने हमारे परिवार की कुछ तस्वीरें खींची और बंबई पहुंच कर हमें वे चार कलर्ड फोटो भेजीं..जो खुशी हमें उन्हें देख कर हुई ब्यां नहीं की सकती.....वे चारों फोटो भी आज तक संभाल कर रखी हुई हैं।

मुझे ऐसा लगने लगा है कि आज कल हम इंस्टेंट थ्रिल के आदि हो चुके हैं... जर्नलिज़्म के दो नियम याद रखने योग्य हैं......A picture is worth one thousand words!  और The best camera is the camera in your hand! (वह कोई भी दो चार पांच दस पिक्सिल का ..कुछ भी हो, लेकिन मजा तो सारा एक लम्हे को कैद करने का है..)...याद नहीं हम लोग भी कभी कभी अर्जेंट फोटो के लिए सड़क किनारे बैठे किसी फोटोग्राफर के बेंच पर बैठ कर भी फोटो खिंचवा लिया करते थे....वह दो मिनट में हमें पानी की बाल्टी में धोकर हमें तस्वीरें थमा दिया करता था......जैसे वह शटर में घुस कर काले से कपड़े से सिर को ढांप कर हमें सावधान किया करता था, वह कोई कम रोमांचक लम्हा हुआ करता था....हा हा हा ...

दो दिन पहले अखबार में खबर थी कि यू पी सरकार लखनऊ में दो चार ऐतिहासिक जगहों पर शेल्फी स्पॉट बनाने जा रही है ताकि आज की शेल्फी-सेवी युवा पीढ़ी के जरिए लखनऊ की भव्यता के चर्चे दूर दूर तक पहुंचे और पर्यटन को बढ़ावा मिले......उस खबर में यह भी लिखा था ..बिल्कुल ताज महल के आगे बनाए गये उस बेंच की तरह..जहां पर बैठ कर फोटो खिंचवाने के लिए लोग कतार बना कर खड़े रहते हैं...उसी तरह से लखनऊ के भी पुरातन एवं आधुनिक जगहों पर ऐसी सर्वश्रेष्ठ जगहों का चयन मंजे हुए फोटोग्राफर करेंगे ....फिर उन जगहों को शेल्फी स्पॉट के तौर पर इस्तेमाल किया जायेगा। अच्छा लगा था यह पढ़ कर।

पुरानी तस्वीरें केवल तस्वीरें नहीं हैं यकीनन, अतीत में झांकने के और बीते ज़माने से कुछ न कुछ सबक सीखने के कुछ झरोखे हैं........एक तीस साल पुरानी तस्वीर देख कर अचानक एक दास्तां फिल्मों की फ्लेशबेक की तरह घूम जाती हैं...हंसा जाती हैं, सारियस भी कर जाती हैं, सोचने पर मजबूर भी करती हैं और गुदगुदाती भी तो हैं।

एक छोटी सी दास्तां ब्यां कर के बंद करता हूं इस पोस्ट को......यह मेरी छठी कक्षा की तस्वीर आप देख रहे हैं ना, जब मैं इसे खिंचवाने गया मैं तो एक तरह से अपनी बेस्ट कमीज़ डाल कर पहुंच गया...शायद दो एक साल पहले मौसी की शादी में पहनने के लिए सिलवाई थी.....लेकिन फोटोग्राफर लोगों की नज़रें अपने हिसाब से देखती हैं... उसने मुझे कहा कि तुम्हारी कमीज़ तो टाइट है, उस ने एक सुझाव दिया कि बाहर किसी दूसरे लड़के की पहन लो।

न चाहते हुए भी, मजबूरन मुझे एक लड़का को, जिस की तस्वीर तो मेगजीन मे छपनी न थी, लेकिन वह किसी दूसरे लड़के के साथ आया हुआ था...मुझे उस को कहना पड़ा... मैं दो मिनट के लिए तुम्हारी शर्ट पहन लूं.........उस लड़के ने तपाक से मुझे मना कर दिया.....दोस्तो, मैंने जितना अपमानित उस दिन फील किया, कभी नहीं किया.......शायद फोटोग्राफर भी समझ गया, उस ने इत्मीनान से उसी तंग सी बुशर्ट में ही मेरा फोटोसेशन कर लिया.........शायद वह दिन था जब मेरी खुद्दारी ने मुझे इतना झकझोर दिया कि मैंने उस दिन पहली और अंतिम बार (कल का मुझे पता नहीं, किस्मत में क्या लिखा है) किसी कोई चीज़ या इस तरह की फेवर मांगी थी। यह जो तस्वीर मैंने ऊपर टिकाई है, मुझे यह देखते ही अपनी शैक्षिक उपलब्धि पर तो गर्व होता ही है, लेिकन उस दिन वाला वह कठोर सबक भी याद आ जाता है......मैं अपने बच्चों को भी यह किस्सा ज़रूर सुनाता हूं...it is very important to remember such hard and cold lessons of life to stay grounded!

एक बात तो कहनी भूल ही गया.....अभी भी शादी की एल्बमें बरामद नहीं हो पाई हैं.....क्या करूं, अभी उन के बारे में नहीं सोचता .......ये गीत सुन लेते हैं.......बातें भूल जाती हैं....यादें.....याद आती हैं.....

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

कुछ मंजन मुंह में कैंसर कर देते हैं

यह तस्वीर जिस महिला की आप देख रहे हैं यह ४० वर्ष की हैं...पिछले बहुत से वर्षों से गुटखा-पानमसाला खाती रही हैं लेिकन पिछले दस वर्ष से बंद किया हुआ है जो इसने मुझे बताया।

इन के मुंह के हालात इन की बात की पुष्टि नहीं करते ...अगर दस साल से सब कुछ छोड़ रखा है तो सामान्यतयः मुंह के अंदर की चमड़ी इतनी खराब हालत में नहीं होती, मुझे ऐसा लगता था...तीन चार बार पहले भी यह अपने इलाज के लिए यह मेरे पास आ चुकी हैं, आज फिर जब मैंने अचानक पूछ लिया कि मुंह के अंदर मसूडों एवं गालों के अंदरूनी हिस्से में कुछ लगाती तो नहीं।

अचानक कहने लगी कि मैं तो बस फलां फलां मंजन करती हूं....उस मंजन का नाम ही सुन कर मेरा दिगाम एक बार तो चकरा गया। यह वही मंजन है जिसने सारे देश में कहर बरपा रखा है...इस में बहुत ज़्यादा मात्रा में तंबाकू मिला हुआ होता है। इस नाम से मंजन भी आता है और पेस्ट भी।

मुझे अच्छे से याद है आज से पच्चीस वर्ष पहले की १९८९ के आस पास की बात है....अखबारों में बड़ी बड़ी खबरें आया करती थीं कि गुजरात में कुछ महिलाओं को इस तरह के तंबाकू वाले मंजन-पेस्ट दांतों पर घिसने की लत लग चुकी है......दांत साफ़ करने का तो एक बहाना है, लेकिन जब भी तंबाकू की तलब होती है तो वे इस पावडर या पेस्ट को लेकर बैठ जाती हैं, और दिन मंें कईं कईं बार यह सिलसिला चलता रहता है.......हालात इतने खराब हो गये कि कुछ महिलाएं एक ही दिन में उस पावडर की एक डिब्बी या पेस्ट ही घिस दिया करती थीं.....नतीजा यह हुआ कि वहां की महिलाओं में मुंह के कैंसर हो गया....फिर कंपनी पर मुकदमेबाजी हुई.....लेकिन आप भी जानते हैं कि इस तरह की मुकदमेबाजी का क्या होता है!...उस के बारे में क्या लिखूं, लेकिन वास्तविकता यही है कि उस तरह के सभी तंबाकू वाले मंजन-पेस्ट धड़ल्ले से िबक रहे हैं।

मुंह के कैंसर के मरीज़ों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।

जिस महिला के गाल की तसवीर आपने ऊपर देखी जो कि सफेद हो रहे हैं, कुछ कुछ मसूडे भी सफेद हो गये थे... जो कि केवल तंबाकू वाले घिसने का ही प्रभाव था। इस की जुबान की तस्वीर यहां पर देख रहे हैं, यह संभवतः तंबाकू की वजह से नहीं है, लेकिन फिर भी यह सामान्य नहीं है, यह सेहतमंद जुबान की तस्वीर नहीं है, मैंने भी ऐसी जुबान पहली बार देखी होगी, इसलिए उसे किसी ओरल-मेडीसन के विशेषज्ञ के पास भेजेंगे...ताकि उस का भी समुचित इलाज हो सके, जुबान वाली तकलीफ़ कोई गंभीर समस्या नहीं है, जुबान को देखने से ही पता चल रहा है कि शरीर में ज़रूरी तत्वों की कमी तो है ही ..लेिकन फिर भी एक बार विशेषज्ञ को िदखाना जरूरी है, ताकि समुचित इलाज शुरू करवाया जा सके।

तंबाकू वाला मंजन यह औरत अपने गालों एवं मसूडों पर दिन में दो बार घिसती हैं, कहती हैं कि पेस्ट तो मैं अलग से करती ही हूं.....यह अलग से है....मैंने इसे गुजरात की औरतों वाली बात सुनाईं...कहने लगी उस की पड़ोसिन को तो बहुत ज़्यादा लत है इस की .....वह तो खूब बड़ा सा डिब्बा मंगवा लेती है और दिन में दस-बारह बार जब तक ये मंजना दांतों पर न घिस ले उस को चैन नहीं पड़ता। आगे बताने लगी कि उस के मुंह में घाव से हैं, और वह नमक, मिर्च, मसाला कुछ भी नहीं खा पाती.....मुझे उस औरत के मुंह की भी चिंता हुई. मैंने इसे कहा कि उसे भी लेकर आए।

यह औरत कहती हैं कि उसे लत नहीं है क्योंकि जब वह घर से बाहर किसी रिश्तेदार आदि के यहां रहने के लिए जाती है तो वहां पर यह इस तरह के मंजन-वंजन नहीं घिसती, इसे इस की तलब नहीं होती। पांच वर्ष से यह इसे घिस रही हैं और इन्हें इस की तलब न होती हो, मेरे को यह बात पूरी हजम तो नहीं हुई।

मेरे यह पूछने पर कि क्या घर में और भी कोई इस तंबाकू वाले मंजन को इस्तेमाल करता है .बताने लगीं कि नहीं...इस का बेटा तो इसे हर बार टोकता है कि यह मंजन करती हो, आप के मुंह से बास आती है, थोड़ा दूर से बात किया करो।

रोज़ रोज़ वही बातें, हर रोज़ वही बातें दोहरा दोहरा के, वही बातें समझा समझा के कभी कभी अजीब सा लगता है, फिर अगले ही पल ध्यान आता है कि यही तो अपना कर्म है!

 इस औरत को समझा िदया है कि आज ही जा कर उस मंजन को कचरे में फैंक दे, और अपनी पड़ोसन को भी यह सब बताए और उसे साथ लेकर आए..........पता नहीं बात मानेगी भी नहीं! .....Tobacco is playing havoc with health of masses!

बेशक पहले खुलापन था और दिमाग पे दबाव कम था...

हमारे ज़माने के खुलेपन के कुछ साक्ष्य ...(मेरे संग्रह से) 
कभी कभी लेटे लेटे पुराने दिनों की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि हम लोग उस युग में भी रहते थे ...जहां इतना खुलापन था कि एक पोस्टकार्ड आने पर गली-मोहल्ले के दस घरों को पता चला था कि उस घर में आज चिट्ठी दे गया है, हां, यह भी सब को पता ही होता था कि उस पोस्टकार्ड में लिखा क्या है...लेकिन किसी से कोई भी बात छिपी न थी, सब कुछ खुला ही रहता था, घर के किवाड़ों की तरह।

किस के घर कितने रूपये का मनीआर्डर आया है, किस ने भेजा है और उस मनीआर्डर के साथ आने वाले कागज के पुर्जे पर क्या लिखा है, यह भी किसी से छुपा न होता था।

चिट्ठी से याद आया कि मुझे बंबई से इधर आए १५ वर्ष होने को हैं, तो एक बार मैंने केंद्रीय हिंदी संस्थान का विज्ञापन देखा...नवलेखक शिविर के लिए...उस में उन्होंने रचनाएं मांगी थी. इस से पहले मैं पत्रिकाओं में मेडीकल विषयों पर ही लिखता था..लेकिन उस समय पहली बार मैंने एक गैर-मेडीकल लेख लिखा था...यह एक संस्मरणात्मक लेख ही था...डाकिया डाक लाया....जिस में मैंने चिट्ठियों के बारे में अपनी यादें साझा की थी, किस तरह से हमें नानी, दादी और अन्य रिश्तेदारों की चिट्ठीयां आया करती थीं और हम कैसे उन्हें संभाल कर रखा करते और कैसे बार बार पढ़ कर खुश हो लिया करते। वैसे मेरे पिता जी भी एक बहुत बढ़िया चिट्ठाकार थे... इंगलिश और उर्दू में इत्मीनान से चिट्ठीयों का जवाब देना उन की आदत में शुमार था...सभी रिश्तेदार कहा करते थे कि सुदर्शन चिट्ठी बहुत बढ़िया लिखता है, ऐसे लगता है जैसे पास ही बैठ कर बातें कर रहा है।

हां, तो मैं नवलेखक शिविर की बात पर वापिस लौटता हूं...उस डाकिया डाक लाया वाले लेख के आधार पर मेरा भी शिविर के लिए चुनाव कर लिया गया......और मैं बहुत दूर आसाम के जोरहाट में नवलेखक शिविर के लिए दो हफ्ते के लिए पहुंच भी गया....सारे देश से २०-२५ लेखक आये हुए थे, सभी विधाओं से संबंधित। उन १५ दिनों ने मुझे यह समझा दिया कि लेखन है क्या, कितनी सहज प्रक्रिया है, दबाव वाली तो बात है नहीं कोई।

पोस्टकार्ड की बात हो रही थी इस से पहले.. पोस्टकार्ड हम लोग अपने पड़ोसियों के लिए लिखा भी करते थे और उन के जवाब आने पर उन्हें पढ़ कर भी सुनाया करते थे।



आज कोई सोच सकता है कि खत का जब ज़िक्र हो तो पोस्टकार्ड भेजे जाएं.....नहीं ना, यहां तक कि अंतरर्देशीय चिट्ठी भी कम ही लोग भेजते देखे हैं, सब को लिफाफा ही भेजना होता है, अगर कभी राखी-टीके के लिए भेजना ही हो तो, वरना हर कोई रजिस्टरी, स्पीड-पोस्ट या फिर कूरियर पर ही भरोसा करते हैं।

हर एक डर है कि कहीं कोई और हमारा लिखा पढ़ न ले......पहले चिट्ठीयां पूरे घर परिवार के लिए हुआ करती थीं, अब चिट्ठीयां लगभग घर के एक शख्स के पढ़ने के लिए ही हुआ करती हैं......यही आज की पीढ़ी के दिमाग पर दबाव का कारण है। है कि नहीं?

 यार, ऐसा कुछ हम आखिर लिख ही क्या रहे हैं कि जिस के बारे में हमें चिंता है कि कोई और पढ़ लेगा तो फजीहत हो जाएगी, पोल खुल जाएगी....वैसे तो मोबाइल ने यह भी समस्या दूर कर दी है, आप घर या बाहर किसी भी कोने में खड़े होकर किसी से कुछ भी बात कर लें, दूसरे बंदे को कानों कान खबर न होगी। और आज की युवा पीढ़ी....माशाल्लाह, ये एक िसरा आगे......घर में हर बशिंदे के अलग अलग मोबाइल फोन तो हैं हीं, लेिकन जेनरेशन-एक्स ने तो अपने मोबाइल पर तो स्क्रीन लॉक भी लगा रखा है.....वैसे हर कोई इतना व्यस्त है कि किसे दूसरे के मोबाईल में झांकने की फ़ुर्सत है!

 फोन से ध्यान आया... आज से पच्चीस-तीस साल पहले गली-मोहल्ले में दो तीन लैंड-लाइन फोन हुआ करते थे....वही पी.पी नंबर सारे मोहल्ले के काम कर दिया करता था। लोग संवेदनशील थे, सामने वाले का ध्यान रखते थे कि किस समय फोन करना है, किस समय नहीं।

फोन पर बातें करते समय सारी बातें खुले में हुआ करती थीं, किसी से कोई परदा नहीं...मुझे याद है मैं हनीमून पर गया था....जब मैंने घर बात करने के लिए पड़ोस की शर्मा आंटी को फोन किया तो मेरे पेरेन्ट्स से बात करने से पहले उस ने मसूरी के मौसम का पहले तो अच्छे से हाल जाना...उस दिन उन में कितना कुछ एक सांस में जान लेने की जिज्ञासा कितनी तीव्र थी....हा हा हा हा ...सीधे सादे पुराने दिनों की इनोसेंट यादें!!

लैंडलाइन के  बाद वह भी आ गया ...क्या कहते हैं उसे पोर्टेबल हैंडसेट.....आप किसी भी जगह उस हैंडसेट को उठा कर बात सकते थे...कोई बाथरुम में साथ ले जाता और कोई छत पर ले जाता.....इसने भी खुलेपन में खलल डाला.....लेकिन मोबाइल ने तो सभी सीमाएं ही लांघ लीं........ऐसा नहीं है कि कोई किसी की बातें सुनना चाहता है, इस से क्या हो जाएगा, लेकिन जो कोई भी शख्स किसी से भी छुप छुप कर बातें कर रहा है उस के अपने दिमाग पर ही प्रेशर पड़ता है, है कि नहीं! कितना कष्टदायी होता है ना कि किस से क्या बात करनी है, क्या छिपा कर रखनी है और किस के सामने फोन करना है ...यहां तक कि जिसे फोन करना है, उसे भी कभी कभी पूछ लेना कि क्या आप इस समय अकेले हैं! क्या है यार, हम किस युग में जी रहे हैं!!

अब इतने दबावों के चलते रक्तचाप सामान्य रह गया तो गनीमत है.... हम हर कुछ छुप कर करना चाहते हैं, परदे में....मोबाइल पर स्क्रीन लॉक की बात चलती है तो मैं अकसर कहता हूं . अगर घर में बच्चे यह सब करते हैं तो साफ़ सी बात है कि कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर कर रहे हैं जिसे वे छिपाना चाहते हैं और यह बात ठीक हो ही नहीं सकती.......मैं नैतिक-अनैतिक के झंझट में नहीं पड़ना चाहता, लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं इस लुका-छुपी के खेल के परिणाम हम लोग हर रोज अखबार की सुर्खियों के रूप में देखते हैं.....कितना स्वच्छंद वातावरण हो चुका है, प्रेमी युगल एक ही छत के नीचे रहने लगे हैं बिना शादी की ज़रूरत समझे........कुछ वर्ष अच्छे से टेस्टिंग करने के बाद अगर टेस्ट में पास तो शादी की फार्मेलिटी भी कर ली जाती है.....वरना, Darling, you move on!..हम भी चले अपने रास्ते!.... पेरेन्ट्स कभी इंवॉल्व होते नहीं इस तरह के रिश्तों में या उन्हें किया ही नहीं जाता, इसलिए उन की कीमत स्कूटर की स्टपनी से भी कम हो कर रह जाती है।

जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया.....मॉस-कम्यूनिकेशन पढ़ रहा था तो एक बार प्रोफैसर साहब ने सुंदर बात कही आज से ८-१०साल पहले कि जब से हम लोगों का टीवी ड्राईंग रूम से अपने अपने रूमों में चला गया, हम लोगों के रिश्तों पर तो इस का असर पड़ा ही...हम लोग एक साथ इसी बहाने बैठ लिया करते थे......साथ ही साथ, छोटे बच्चों और युवाओं को कौन सा कंटेंट देखना है, इस पर भी कोई कंट्रोल नहीं रहा। पहले जब लोग एक साथ बैठ कर बैठक में टीवी के सामने एक दो घंटे बिताया करते थे ...तो सब को पता था कि कब कौन सा असहज सा दृश्य आते ही चैनल बदलना है, कब घर के बुज़ुर्ग बहाने से कमरे से पांच मिनट के लिए कट लिया करते थे......लेकिन धीरे धीरे सब कुछ खुल्लम-खुल्ला सारा परिवार देखना लगा......और अब मोबाइल हर बंदे के हाथ में है, बड़ा सी टीवी कमरे में सजा कर रखने की भी कोई टेंशन ही नहीं।

इस से पहले १९७० के दशक की बात करें..जब टीवी नया नया आया ही था, तब गली-मोहल्ले में एक दो वह चार टांगों वाले स्टैंड पर टिके ब्लैक एंड व्हाइट टीवी हुआ करते थे जिस पर गली-मोहल्ले के बीस-तीस लोग इत्मीनान से हफ्ते में दो दिन आने वाली हिंदी फिल्म और दो दिन चित्रहार का आनंद लिया करते थे.......अब तो हर पल चित्रहार है, हर क्षण चलचित्र है....लेकिन वही बात है ..........एक सौ आठ हैं चैनल, फिर भी दिल बहलते क्यों नहीं!!

लगता है बस करूं.....वैसे मैं क्यों अपने दिमाग पे इतना लोड ले रहा हूं....यार, कितना तैरूंगा अतीत के भवंडर में....कहीं इन में गोते खाते खाते...!!

अभी अभी १९७०के दशक में पड़ोस की कपूर आंटी (मोहल्ले में कपूरनी के नाम से जाने जानी वाली......पंजाब में औरतों की पहचान का एक आसान तरीका...जो भी सरनम हो उसी का स्त्रीलिंग बनाकर दिमाग पे लोड थोड़ा सा कम कर लिया करते थे ...चोपड़ी, कपूरनी...नहीं तो सिपाही की जोरू सिपाहिन, मास्टर की मास्टरनी, मुंशी राम की बीवी मुंशियानी आदि..., है कि नहीं मजेदार बात).. के यहां टीवी पर देखी गोपी फिल्म का यह भजन आज सुबह सुबह याद आ रहा है.....आप भी इस में खो जाइए...



अभी अभी आज का अखबार उठाया तो देखा कि दूसरे लोग भी यादों के महासागर में डुबकियां लगा रहे हैं... ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से जुड़ी मीनू खरे की यादें पढ़ कर भी मज़ा आ गया....आप भी पढ़िए...यह रहा लिंक

सोमवार, 19 जनवरी 2015

बिना तकलीफ़ के भी रक्तचाप जांच ?

यह पोस्ट केवल हम सब को यही याद दिलाने के लिए कि ज़रूरी नहीं कि सिर बहुत तेज़ दुखे, चक्कर आए तो ही उच्च रक्तचाप की शिकायत हो सकती है, ऐसा हो भी सकता है, लेकिन ऐसा बहुत बार होता है कि उच्च रक्तचाप बहुत बढ़ जाने के बावजूद भी कोई ऐसा लक्षण पैदा नहीं करता जिस की वजह से कोई व्यक्ति किसी चिकित्सक से परामर्श करे।

लेकिन यह बात भी तय है कि इस तरह से बड़ा हुआ रक्तचाप अंदर ही अंदर शरीर के विभिन्न अंगों पर अपना बुरा असर तो निरंतर छोड़ता ही रहता है। इसलिए कभी कभी अपने रक्तचाप की जांच करवाते रहना चाहिए।

इस विषय पर हम सब इस बुज़ुर्ग के केस से कुछ सीख ले सकते हैं.....इंक-ब्लॉगिंग के ज़रिए..






जिन बुजुर्ग के बारे में मैंने लिखा है, इन की ईसीजी भी हुई ..सामान्य थी......अभी इन की आंखों की जांच भी होगी, क्योंिक बड़ा हुआ रक्तचाप आंखों पर भी अपना कुप्रभाव छोड़ सकता है।

कागज़ के चंद पुर्जे पढ़ कर बिल्कुल भी सीरियस होने की ज़रूरत नहीं, मैं तो ऐसे ही एक्सपेरिमेंट करता रहता हूं....आप इत्मीनान से पुराने जमाने का यह गीत सुन कर अपने रक्तचाप को काबू में रखिए........मैं शायर तो नहीं ..जब से देखा मैंने तुझको...मुझको शायरी आ गई।



रविवार, 18 जनवरी 2015

अपने शहर को हम जानते ही कितना हैं!

आज सुबह मुझे लखनऊ के राजाजीपुरम् एरिया में जाने का मौका मिला....इस के बारे में सुना तो बहुत बार था..लेकिन कभी मौका नहीं मिला था उधर जाने का।

जब भी मैं किसी शहर के किसी एरिया में पहली बार जाता हूं तो यही अहसास होता है कि हम लोग अपने अपने शहर को कितना कम जानते हैं।

मेरा बेटा अकसर कहता है कि अपनी कार में चलते हुए तो हम शहर की सारी ज़िंदगी को मिस कर देते हैं, उन से बेहतर हैं दो पहिया वाहन पर चलने वाले..जहां चाहे रोक तो पाते हैं, साईकिल चलाने वालों की हालत उन से भी बेहतर है, लेकिन पैदल चलने वालों का तो कहना ही क्या!....किसी भी एरिया को एक्सप्लोर करने का इस से बढ़िया ढंग कहां कोई और हो सकता है!

मुझे राजाजीपुरम् के सी-ब्लाक में घूमते हुए ऐसे ही लग रहा था जैसे कि मैं दिल्ली के किसी पुराने इलाके में घूम रहा हूं.....पुराने घर..अधिकतर सिंगल या डबल स्टोरी, बड़े बड़े पेढ़... हर तरफ़ फैली हरियाली......ठहरी ठहरी सी ज़िंदगी.....ठहरी नहीं भी, तो भी वह भागम-भाग वाली तो नहीं!


जाते समय रास्ते में एक जगह पर देखा कि यह बुज़ुर्ग महाशय अपनी छोटी सी दुकान सजा कर बैठे हैं, मैं रूक गया.....मैंने पूछा कि इतनी ठंड में सुबह सुबह कैसे बिना किसी छत-वत के ! इन्होंने बताया कि गुमटी थी लेकिन कमेटी वाले उठा ले गए, करता हूं दो चार दिन में कोई जुगाड़.... कहने लगे कि सर्दी का क्या है, दो चार दिन से बहुत गलन हो रही है (यू. पी में शीत लहर को गलन कहा जाता है) ...घर पर रहा तो हाथ पांव दुःखने लगे, इसलिए आज यह खोल कर बैठ गया हूं। मैंने कहा मुझे आप की एक तसवीर लेनी है, तो हंसते हुए बोले....ज़रूर लीजिए।



राजाजीपुरम् जाते हुए पहले तो इन पेढ़ों के दर्शन हुए...ध्यान आया कि इन को भी थोड़ा इत्मीनान से देखना, इन के नीचे खड़े होना जरूरी है....इस से हमें कम से कम एक बार तो अपने बौनेपन का अहसास होता है। लगता है कि इस की विशालता, इस के रहस्यमयी १०० साल या उस से भी ज़्यादा के अस्तित्व के आगे हमारी क्या बिसात है....अपने इतराने की एक भी वजह ध्यान में नहीं आती!!



एक घर के बाहर भीमकाय पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगा...और भी बड़े बड़े पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगता है, जैसे एक कहावत है ना कि ऐसा कोई भी मुस्कुराता चेहरा नहीं होता जो खूबसूरत न हो, मैं तो अकसर कहता हूं जिस भी जगह पर बड़े बड़े पेड़ लगे हों और उन से प्यार किया जाता हो, उस से खूबसूरत जगह हो ही नहीं सकती....पेड़ों से लोगों का प्यार भी अनुकरणीय है...

हां, एक बात यह कि हम लोग इतने इतने वर्ष एक शहर में रह लेते हैं तो बस तीन चार खाने पीने की दुकानों या एक दो माल के अलावा किसी जगह से ज़्यादा सरोकार नहीं रखते, ऐसा है कि नहीं...और ये सब चीज़ें हमारी टिप्स पर होती हैं, रायल कैफे की टोकरी चाट, जैन की पापड़ी, मोती महल की कुल्फी...फन माल, फिनिक्स माल....बस, लेकिन किसी की शहर की रूह तो उस के पुराने बाज़ारों, कूचों,  दुकानों और खंडहरों में बसती है जिनकी हम कहां  परवाह ही करते हैं, अगह परवाह है भी तो फुर्सत ही किसे है......


फुर्सत से ध्यान आया कि एक एरिया में यह पोस्टर भी दिख गये......इन पोस्टरों को देख कर लगता है कि समय थम सा गया है....इन्हें देख कर इतना इत्मीनान तो होता है कि अभी भी कोई आम आदमी थियेटर में जा कर फिल्म देखता है.....और जिन दीवारों पर ये चस्पा किए गये हैं, वे भी तो गुजरे ज़माने की एक दास्तां ब्यां कर रही हैं..

यह नीचे वाला क्लिप भी यही ख्याल ब्यां कर रहा है........

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ऑनलाइन अक्खड़पन ...

आज बैठे बैठे विचार आ रहा था कि जितने so-called बड़े बड़े लोग सोशल मीडिया पर जुड़ने लगे हैं, उस से तो शायद यही लग रहा होगा कि बहुत बढ़िया two-way communication का एक ज़रिया मिल गया है.....लेकिन वास्तविकता इस से बहुत दूर है।

अगली बार जब कहीं ऐसे शख्स या संस्था या विभाग की साइट पर जा कर कुछ भी मन की भाव व्यक्त करें तो बस इतना देख लीजिए कि कितने लोगों की टिप्पणीयों के जवाब में उन्होंने कुछ कहा है.....कुछ कहा तो दूर, कितने लोगों के कुछ कहने पर इन्होंने हूं-हां ही कहा हो....बहुत निराशा होती है यह सब देख कर। ठीक उसी तरह जिस तरह से आप से कोई रियल लाइफ में बात करे और आप उस से संवाद स्थापित करने की जगह अपना मुंह ही दूसरी तरफ़ घुमा लें.....रिएल लाइफ में है ही, ऑनलाइन वर्ल्ड में भी यह बड़ा पीड़ादायक होता है।

आज बैठे बैठे कुछ विचार आ रहे थे तो कागज पर लिख कर सोचा कि इंक-ब्लॉगिंग का ही कर ली जाए...

इस पर क्लिक कर के ठीक से पढ़ पाएंगे

इस पर क्लिक कर के ठीक से पढ़ पाएंगे
सभी तरह की सभी क्षेत्रों से तालु्क्क रखने वाली so-called हस्तियां बस इतना ध्यान रखें कि जनता के बारे में पहले से किसी शायर ने कितना सही कह दिया है.....
यह चाहे तो सर पे बिठा ले,
चाहे फैंक दे नीचे!!
पहले यह पीछे भागे, 
फिर भागो इस के पीछे!!
.....
क्या नेता क्या अभिनेता.. दे जनता को जो धोखा
पल में शोहरत उड़ जाए ज्यों एक हवा का झोंका..

बेहतर होगा आप संवाद करने की आदत डालिए......ऑनलाइन अक्खड़पन बिल्कुल नहीं चलता....earlier we understand this , better it is! मैं तो यह गीत कभी कभी ज़रूर सुन लिया करता हूं...



शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

बीबीसी न्यूज़ का फेक पेज और करिश्माई दवाओं की जालसाजी

मैंने जब तीन चार साल पहले नेट पर गुप्त रोगों के लिए बिकने वाली दवाईयों का ज़िक्र किया तो मुझे लगा कि इस से आगे लोगों को क्या उखाड़ लेते होंगे इस तरह के लोग, लेकिन ऐसा नहीं है, ये किसी भी हद तक जा सकते हैं।

कल मुझे एक मित्र की ई-मेल आई..हम दोनों ने इंटरनेट लेखन का कोर्स इक्ट्ठा किया था...एक अजीब सी पंक्ति लिखी हुई थी और साथ में लिंक था कि पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक कर क्लिक करिए।

ज़ाहिर सी बात है कि जब आप को किसी परिचित से कोई मेल आती है तो आप कुछ सोचते नहीं...मैंने उस लिंक पर क्लिक किया और एक पेज आया जिस पर मुझ से पासवर्ड पूछा गया.....मैंने नहीं दिया......वापिस उस लिंक पर क्लिक किया तो बीबीसी का एक पेज खुल गया....यह पेज बीबीसी हेल्थ का था.....और किसी पतले होने के लिए बिकने वाले प्रोडक्ट के बारे में जानकारी दी गई थी।

उस पेज को देखते ही मुझे लगा कि उस बंदे को पता है कि मैं सेहत संबंधी विषयों पर बक-बक करता रहता हूं तो उसे रिपोर्ट रोचक लगी हो और मेरी जानकारी के लिए इस का लिंक भेज दिया हो...शायद।

मैंने उस पेज को पढ़ने से पहले ही उन्हें शुक्रिया करते हुए एक ई-मेल दाग दी..और एम.जे.अकबर के साथ जो फोटू उन्होंने मेरी खींची थी, उसे भिजवाने के लिए उन्हें कह दिया।


जी हां, अब उस पेज को पढ़ना शुरू किया... तो वह इतना अच्छा लगा कि यकीन नहीं हो रहा था कि यह बात सच हो सकती है। फिर भी अगर बीबीसी न्यूज़ के पन्ने पर यह सब कुछ छपा है तो इस पर शक कौन कर सकता है!

इस लेख में मोटापा कम करने की बात कही गई थी..और उन के प्रोडक्ट के एक महीने के इस्तेमाल से २३ पांड मोटापा कम करने की बात....बार बार शक होता कि यार, अगर ऐसा कोई प्रोडक्ट, इतना विश्वसनीय आ चुका है तो हमारी नज़र से कैसे बचा रहा।

बहरहाल, उस पेज पर बताया गया था कि इस पतले करने वाले प्राकृतिक उत्पाद को बीबीसी की हेल्थ राइटर ने अपने ऊपर आजमाया और हर सप्ताह के अपने अनुभव उस में साझा किए हैं......बहुत ही ज़्यादा अजीब सी बात लगी कि इस तरह के टुच्चे काम बीबीसी न्यूज़ जैसी संस्था कब से करने लगी!

पेज थोड़ा लंबा था, पूरा पढ़ा नहीं, बीच बीच में देखा......लेकिन इमानदारी से शेयर करूं तो एक बार तो लगा कि यार, इसे तो मैं भी एक महीने इस्तेमाल कर ही लूं, एक दम नेचुरल प्रोडक्ट है, मेरी भी तो तोंद निकलने लगी है...(खुशफहमी की इंतहा.... अभी भी सोच रहा हूं ...निकलने लगी है!!....निकली ही हुई है, दोस्तो...) ... आठ-दस किलो मुझे भी तो कम करने की बहुत ज़रूरत है, पैंट टिकती नहीं अपनी जगह! और जैसे कि मैं पहले लिख चुका हूं कि किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाईश तो थी नहीं क्योंकि  बीबीसी न्यूज़ का हेल्थ पेज यह सब जानकारी शेयर कर रहा था।

मैंने जस्ट तफरीह के लिए एक लिंक पर क्लिक किया जिस पर लिखा था कि आप को दवाई भेजने के लिए शिपिंग चार्जेज नहीं लिए जाएंगे, लेकिन फिर वहां जा कर पता चला कि वही दो हज़ार दो, तीन हज़ार रूपये दो.....अलग अलग साइज के डिब्बों के लिए.....बात कुछ हज़म हुई नहीं, इसलिए मुझे लगा कि छोड़ो यार, इन के चक्कर में क्या पड़ना, बीबीसी न्यूज़ का पेज कुछ कह रहा है तो क्या अपने दिमाग को ताला लगा दें!



इसी लिए मैंने उस पेज को बंद करने की कोशिश की तो मुझे स्क्रीन पर एक मेसेज आया कि क्या आप सच में यह पेज बंद करना चाहते हैं...देख लिजिए, प्रोडक्ट की बहुत कम मात्रा बची है, अगर आप अभी आर्डर नहीं करेंगे तो बाद में आप हाथ मलते रह सकते हैं।

यह पढ़ कर मेरा माथा ठनका कि यह कुछ तो लफड़ा है, बीबीसी नहीं इस तरह के बिक्री वाले लफड़ों में पड़ने वाली ... अचानक ऊपर एड्रेस बार में साइट का यू-आर-एल देखा तो पाया कि यह बीबीसी की साइट तो है ही नहीं, फिर भी पेज की ले-आउट देख कर अभी भी लगा कि चलिए इस लेख के शीर्षक को बीबीसी न्यूज़ की साइट के सर्च-बॉक्स में डाल कर देखते हैं.....वही किया, लेकिन कोई रिज़ल्ट नहीं आया।

एक तरह से पक्का हो गया कि यह बस फांदेबाजी है, और कुछ नहीं, और जो मुझे मेल मिला वह भी स्पेम मेल था।

आज कर सभी बच्चे अपने मां-बाप के गुरू हैं, मैंने अपने स्कूल जाने वाले बेटे से बात की....उसने बात थोड़ी-सुनी-थोड़ी अनसुनी कर दी। लैपटाप पर ये सब टैब तो खुले ही हुए थे।

रात को सोते समय मुझे अचानक बेटा कहने लगा कि आप जिस साइट की बात कर रहे थे वह फेक है ... स्पेम मेल आई थी आपको। पूछने लगा कि आपने कहीं अपना जी-मेल पासवर्ड तो नहीं भरा ..मैंने नहीं भरा था, फिर भी मैंने हैकिंग के अंदेशे से तुरंत अपना जी-मेल का पासवर्ड चेंज कर दिया।

बेटे ने बताया किस उस ने उस पेज की रिपोर्ट का कैप्शन जब गूगल सर्च किया तो जो सर्च रिजल्ट आए ..उस के पहले ही सर्च रिजल्ट पर जब क्लिक किया तो इस फेक पेज के बारे में ही उस में लिखा हुआ था कि किस तरह के स्पेम भेज कर ..और करिश्माई दवाओं की तारीफों के पुल बांध कर लोगों को जाल में फंसाया जाता है... इस तरह की जालसाजी से बचने के लिए जो साइट थी उस का लिंक यहां लगा रहा हूं ..देख लीजिएगा...



इस को पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए

अब बात यह उठती है कि मेरे दोस्त ने मुझे वह ई-मेल क्यों भेजी, पूरी संभावना है कि वह स्पेम लिंक वाली मेल मुझे उस की जानकारी के बिना आई हो...और इस के पीछे कारण वही हो कि उसने अपने जी-मेल खाते का पासवर्ड कहीं डाल दिया हो।

चाहे मैंने अपना जी-मेल पासवर्ड तो किसी ऐसी वैसी शुशपिसियस जगह पर नहीं डाला था, मुझे भी लगा कि कहीं मेरी तरफ़ से भी यह मेल आगे मेरे मित्रों तक न चला गया हो, इसलिए जी-मेल में जाकर Sent फोल्डर में देखा कि ऐसा कुछ नहीं है तो इत्मीनान हुआ।

लिखते लिखते समय का पता ही नहीं चला......पोस्ट की रोचकता हमारे समय में एक रूपये में बिकने वाले मस्त राम के नावल जैसी ......वह अलग बात है उस का कंटैंट और हुआ करता था......याद आ रहा कि दसवीं कक्षा के दौरान हमारी क्लास का एक लड़का अकसर इस तरह की किताबें लेकर आता था......दूसरों की पढ़ाई में खलल डालने के लिए...अपनी पढ़ाई वह अच्छे से कर लिया करता था.....कुछ छात्र उस से वह छोटी छोटी मस्त राम की किताबें छीन छीन कर आधी छुट्टी के वक्त जल्दी जल्दी पढ़ा करते थे...दो दो तीन तीन लड़के किसी किताब के पन्ने को पढ़ते पहले बार देखे थे.....ज्ञान अर्जित करने की इतनी व्याकुलता..... कौन सा धर्मात्मा था मैं भी , दो तीन पन्ने तो पढ़े ही होंगे, लेकिन मुझे लगा था कि यह ठीक नहीं है, हम लोग तो घर से पढ़ने आते हैं। वह लड़का अपनी पढ़ाई में अच्छा था, चला गया है विदेश.........अब कभी उसे संदेश भेजो तो कभी भी जवाब नहीं देता, मुझे आज भी उस बंदे से चिढ़ है ...क्योंकि उस ने हमारी क्लास के कुछ छात्रों को कभी गलत राह दिखाई थी। उस उम्र में हमारा मन भी कच्ची मिट्टी के समान होता है.... चलिए, उसे माफ़ कर देते हैं और इस बात पर यहीं मिट्टी डालते हैं।

और यह फांदेबाजी की कोशिश देखिए आज कल किस तरह से बीबीसी न्यूज़ का फेक पन्ना तैयार कर के की जा रही है, मुझे कल आभास हुआ कि नेट पर किसी को भी उल्लू बनाना कितना आसान है, क्यों बैंकों वाले नेटबैंकिंग फ्रॉड से बचने के लिए बार बार विज्ञापनों के माध्यम से आगाह करते रहते हैं...यह हम लोग अब जानते हैं, लेकिन फिर भी इस तरह के संदेहस्पद प्रोड्क्ट्स बेचने वाले कितने लोगों को रोज़ाना अपना शिकार तो बना ही लेते होंगे..

तो दोस्तो इस कहानी से हम सब ने (मैंने भी) यही शिक्षा ली कि अगर नेट पर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा मीठा या अच्छा दिखे तो अगला कदम रखने से पहले उस की थोड़ी जांच-पड़ताल कर लीजिए.......बनारस का ठग तो एक था, लेकिन नेट पर तो हर कदम पर बहुरूपिए, ठग, जालसाज़ अपने स्टाल सजाए बैठे हैं, बच के निकलिएगा...

नोट

१.        उस फेक पेज के स्क्रीन शॉट तो लगा दिए हैं, लेकिन उस का लिंक मैंने इस लेख में कहीं नहीं लगाया....जान बूझ कर कि कहीं यह कोई वॉयरस आदि ही न लिए हो। वैसे जिस साइट ने उस पेज की पोल खोली है, उस का लिंक तो ऊपर लगा ही दिया है, उस में भी उस फेक पेज के बारे में बहुत कुछ लिखा है।

२.        कहने की भी बात नहीं है कि अगर इस तरह के प्रोडक्टस कहीं से मुफ्त भी मिलें तो नहीं लेने चाहिए, पता ही नहीं क्या है क्या नहीं!!
             अभी कुछ पतला करने वाले हर्बल जुगाड़ों का ध्यान आ गया कि वे भी क्या क्या गुल खिला रहे हैं!

२.        मैने कभी भी पाठकों से नहीं कहा कि मेरी किसी भी बक-बक को शेयर करें, लेकिन इस पोस्ट के लिए विशेष रूप से कह रहा हूं ताकि भूल से भी कोई इस तरह के जालसाज़ों के झांसे में न जाए। इसे जितना शेयर कर सकते हैं, करिएगा। नेट पर शातिर लोग ताक लगाए बैठे हैं।

ओह माई गॉड, इतनी मगजमारी के बाद, सुबह सुबह कोई एक ठीक ठाक गीत सुनना-सुनाना तो बनता है, बेशक......इस समय यह गीत ध्यान में आ गया.....चिट्ठिए नी...दर्द फिराक वालिए ... (हिना फिल्म का यह बेहतरीन गीत)..

बुधवार, 14 जनवरी 2015

अब बंदरों के तो अच्छे दिन लदने वाले हैं...

मेरे फॉदर का दोस्तों के साथ बड़ा मज़ाक चलता था..एक बार मुझे याद है एक दोस्त के साथ यह बात शेयर कर रहे थे..बेरोजगारी को कंट्रोल करने के लिए एक बार कह रहे थे कि म्यूनिसिपेलिटी बस एक बड़ा सा काम ठेके पर देने ही वाली है ...शहर के आवारा कुत्तों को लंगोट पहनाने का!

यह तो था मजाक। लेकिन आज की खबर तो बिल्कुल भी मजाक नहीं है।

अभी अभी अखबार उठाई तो पहले ही पन्ने पर छपी खबर से पता चला कि सिनेस्टार हेमा मालिनी ने केंद्र में यह चिट्ठी लिखी है कि उस के संसदीय क्षेत्र वृंदावन में दो लाख बंदरों की नसवंदी करने की इजाजत दी जाए।

मुझे यह खबर देख कर बहुत दुःख हुआ। ठीक है, बंदरों की वजह से छोटी मोटी परेशानी होती है...लेकिन इतना बड़ा निर्णय लिया जाना और वह भी एक स्वयंसेवी संगठन की सिफारिश पर ... हेमा ने वहां के ही एक स्वयंसेवी संगठन के नाम की सिफारिश करते हुए यह भी कहा है कि उन्हें ही यह ठेका दिया जाना चाहिए। मथुरा -वृदंावन को बंदरों से निजात दिलाना हेमा का एक चुनावी वायदा भी था।

खबर पढ़ते ही पता नहीं अचानक मुझे इस सारी बंदर जाति से इतना प्यार कैसे उमड़ पड़ा!!

याद आता है जब हम लोग स्कूल आते जाते मदारी की डुगडुगी सुनते ही बंदर का खेल देखने के लिए कहीं भी रूक जाया करते थे। कितना मजा आता था! और कक्षा दो में वह बंदरों और टोपियों वाले सौदागर की कहानी सुन कर सच में कितना मज़ा आता था.....आता था ना?........तो फिर आज उन की नसबंदी की बात चलने पर चुप क्यों हो?...क्या पता एक ट्विटर हैशटैग से ही वे बच जाएं।



 कुछ दिन पहले मेरे घर के पास ही मुझे यह बंदर महाराज दिख गए। मैंने यह तस्वीर ली...मैंने गूगल प्लस पर शेयर करते समय यह लिखा था..


"अभी लखनऊ के बंगला बाज़ार एरिया में मैंने सड़क पर इसे देखा....एक बंदर इस साईकिल के अगले डंडे पर भी बैठा हुआ है..उसे मैंने ठीक से देखा नहीं कि क्या वह बंदर था या लंगूर...पहले तो मैंने सोचा कि यह बंदर का खेल दिखाने वाला होगा....फिर ध्यान आया कि आजकल कहां बच्चे यह सब देखते हैं ...उन्हें तारकमेहता का उल्टा चश्मा पहनने से फुर्सत मिले तो। फिर ध्यान आया कि यह लंगूर वाला होगा.......आज कल शहरों में जिन कॉलोनियों ने बंदरों ने आतंक मचा रखा होता है, वहां पर सोसायटी वाले एक लंगूर की सेवाएं ले लेते हैं.....बंदरों को डरा कर दूर रखने के लिए.......लगभग चार-पांच हज़ार की पगार पर........हमारी सोसायटी ने भी एक लंगूर को रखा हुआ है.....शाम को पांच छः जब जाते दिखता है तो लगता है कि हम जैसे उस की भी ड्यूटी का समय पूरा हो गया है."

मुझे बंदरों की शरारतों पर काबू रखने के लिए लंगूरों वाली चाल का पता आज से पांच साल पहले पता चला था जब मैं इग्नू में इंटरनेट लेखन के बारे में एक कोर्स करने के लिए महीना भर वहां कैंपस में रहा था....वहां पर उन्होंने कैंपस में लोगों की "सुविधा" के लिए उन्होंने कईं लंगूर रखे हुए थे.....किसी लंगूरवाले को ठेका दिया हुआ था। हम ने उन पर एक फिल्म भी बनाई थी।

यह दंपति तो बहुत जांबाज़ है.
कुछ दिन पहले फेसबुक पर जब यह तस्वीर दिखी तो ध्यान आ गया कि जगन्नाथ पुरी के पास इस ऐतिहासिक मंदिर में तो हम भी गये थे.....लेकिन इन बंदरों की वजह से सिट्टी-पिट्टी गुम ही रही थी.....किस तरह से वे भक्तों से कुछ भी छीन लेते थे....शायद किसी ने सलाह भी दी थी ...केले ले कर जाओ...रास्ते में इन्हें खिलाते जाओ, कुछ नहीं करेंगे....शायद वैसा ही किया था, लेकिन फिर भी सिर तो दुखा ही था....मेरी तो सीढ़ियों से ही वापिस लौटने की इच्छा हुई थी....लेकिन वापिस आने में भी उतना ही जोखिम था...यार, बड़ा डर लगा था उस दिन.....मंदिर माथा टेकते हुए भी यही प्रार्थना की थी केवल की भगवन, नीचे आटो तक सही सलामत पहुंचा दे, छोटे छोटे शरारती किस्म के बच्चे साथ हैं!

ओह माई गॉड---आज क्या क्या याद आ रहा है।

हां, हमारे घर के पास वाले घर में एक पहलवान नुमा बंदा था.....उस कमबख्त ने बंदरों से जूझने का एक अनूठा ढंग अपना रखा था...बंदरों का काफिला आने पर वह एयर-गन से फायर कर के अंदर घुस जाता और बंदरों का गुस्सा हमें सहना पड़ता, हमारे पेड़-पौधे तो रौंधते ही जाते वे जाते जाते......एक बार मेरी मां की टांग पर बुरी तरह से काट गए.....फिर टीके लगवाने पड़े।

पंगे लेने की तो हमें वैसे भी आदत नहीं है..लेकिन उस दिन के बाद हम ने एक फैसला किया कि बंदर आने पर चाहे कितना भी ज़रूरी काम आंगन में कर रहे हों, हम लोग कमरे में आ जाएंगे... और इस पर अभी तक कायम हैं!

मुझे लगता है इन से पंगा न लो तो ये कुछ नहीं कहते.......हां, सूखते कपड़े आदि नीचे गिरा देते हैं...कुछ कुछ करते तो हों.......लेकिन फिर भी!

खबर में यह भी लिखा है कि अभी जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी वृदांवन आए थे तो उन्हें चश्मा उतारने की सलाह दी गई थी क्योंकि बंदर चश्मा छीन लेते हैं।

मेरी मां अकसर कहती हैं ...जंगल रहे नहीं, पेड़ बेरहमी से काटे जा रहे हैं, स्काई-स्क्रेपर तैयार होते जा रहे हैं, ऐसे में आखिर ये जाएं तो जाएं कहां।

इस खबर के बारे में मेरा तो यह व्यक्तिगत विचार है कि ऐसा निर्णय लिया जाना सरासर गलत है......यह नहीं कि किसी भी एम.पी के मन में विचार आए और दो लाख बंदरों को खस्सी कर दिया जाए...(पंजाबी में इस काम को खस्सी करना ही कहते हैं, दोस्तो)..

वैसे तो आज ही खबर आई है.....एनिमल लवर्ज इस पर अपनी राय तो देंगे ही, अभी हमें मेनका गांधी को भी इस विषय पर सुनना है....वे एनिमल के अधिकारों की बहुत सजग पक्षधर हैं, देखिए उन की क्या राय है। वरना, मैं तो इसे प्रधानमंत्री की मन की बात तक तो पहुंचा ही दूंगा।

वैसे मुझे इस का ज़्यादा ज्ञान तो नहीं है, लेकिन इतना तो ध्यान है ... कहीं पढ़ा था कि बंदरों की नसबंदी करने से पहले एक गन से टीका दाग कर उन्हें बेहोश किया जाता है......मुझे पक्का याद नहीं है, प्लीज़ एक्सक्यूज़ मी.......वैसे सोचने वाली बात है कि अगर इस तरह का हथकंडा नहीं अपनाया जाता होगा तो फिर बंदरों की नसबंदी कैसे हो पाती होगी ...उन की नसबंदी तो दूर, उन के पास फटकना मुश्किल होता है!

लेिकन क्या यार आज इतने शुभ मकर संक्रांति के दिन इतनी अशुभ बातें......बंदरों को आज अच्छा अच्छा कुछ खिलाने के िदन....यह खबर पढ़ कर अच्छा नहीं लगा। कोई भी फैसला करने से पहले सभी स्टेक-होल्डर्ज़ से विचार-विमर्श होना चाहिए, हमारा ज्ञान तो तुच्छ है, नसबंदी के अलावा भी कुछ तो रास्ता होगा। हम जैसे लोग तो तस्वीर का एक रूख ही जानते हैं, लेकिन सभी रूख देख कर ही ऐसे निर्णय किए जाने चाहिए।

हेमा जी, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करिए.....जहां १२५ करोड़ पल रहे हैं, ये दो लाख बेचारे भी पल जाएंगे......अगर हम इन्हें रहने के लिए नेचुरल हैबीटेट उपलब्ध नहीं करवा सकते तो ऐसा कैसे हो सकता है कि हम इन की ऩस्ल पर ही....!

इस खबर ने मुझे इतना कचोट दिया कि मैंने तो अखबार को अगला पन्ना भी नहीं पलटा, और स्कूल में पढ़ने वाले मेरे बेटे को भी बहुत बुरा लगा यह पढ़ कर.....उसने भी कुछ कहा...मैं यहां नहीं लिख सकता!!

अगर बात गंभीर सी लगी हो, तो चलिए आप की फिल्म का यह गीत सुन लेते हैं... जिस के मदारी के खेल ने भी हमें कम एंटरटेन नहीं किया.......आज भी इसे सुनना अच्छा लगता है..

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

अगर परिंदे भी हिंदु और मुसलमान हो जाएं...



अभी मैं सोने लगा था..फोन चैक किया.. एक व्हाट्सएप ग्रुप पर एक ऑडियो मैसेज सुना....मन को इतना छू गया कि सोने का कार्यक्रम थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया।

मैं उन पंक्तियों को इस पोस्ट के जरिए आप तक पहुंचाने वाला हूं...मुझे नहीं पता ये किस ने लिखी हैं, लेकिन उस अनजान रूह को बार बार प्रणाम्.....विचारों की सुंदरता के लिए।

"यह पेड़ ये पत्ते ये शाखें भी परेशान हो जाएं,
अगर परिंदे भी हिंदु और मुस्लमान हो जाएं, 
सूखे मेवे भी यह देख कर हैरान हो गए, 
ना जाने कब नारियल हिंदु और खजूर मुसलमान हो गये। 
ना मस्जिद को जानते हैं ना शिवालों को जानते हैं, 
जो भूखे पेट होते हैं वो सिर्फ़ निवालों को जानते हैं। 
मेरा यही अंदाज़ जमाने को खलता है,
कि मेरा चिराग हवा के खिलाफ़ क्यों जलता है। 
मैं अमन पसंद हूं मेरे शहर से दंगा दूर रहने दो, 
लाल और हरे में मत बांटो, मेरी छत पर सिर्फ़ तिरंगा ही रहने दो।"

                                                            --- एक अनजान फरिश्ता

कुछ वर्ष पहले अपने ब्लॉगर बंधु मोदगिल जी से एक ब्लॉगर मिलन के दौरान ये पंक्तियां भी सुनी थीं, बहुत अच्छी लगी थीं......
मस्जिद की मीनारें बोलीं मंदिर के कंगूरों से 
हो सके तो देश बचा लो इन मजहब के लंगूरों से।।


छरहरी काया पाने की ललक में

पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं में छरहरी काया पाने और प्रसव के बाद इसे बनाए रखने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जा रहे हैं।

कुछ ऐसे ही उपाय जिन के बारे में हम लोग अकसर देखते सुनते रहते हैं, वे ये रहे...
३० वर्ष या उस के भी पार शादी करने के बावजूद कुछ समय तक बच्चे पैदा न करने का निर्णय 
बच्चे पैदा होने की सही उम्र के बावजूद इसे गर्भपात से रोकना...कैरियर या फिगर की चिंता में
बच्चा पैदा होने पर उसे स्तनपान न करवाना--फिगर खराब होने के अंदेशे से
और भी हैं कुछ, सब कुछ यहां लिखने से क्या हासिल लेकिन!!

मैं तो बस इतना कहने आया हूं कि कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर एक रिपोर्ट देख कर चिंता हुई..उस में बताया गया था कि किस तरह से कुछ महिलाएं प्रसव के तुरंत बाद ही अपनी छरहरी काया के लिए एक दूसरे आप्रेशन के लिए तैयार हो जाती हैं जो उन को स्लिम-ट्रिम रखने के लिए किया जाता है। 

यह बड़ी चिंताजनक बात है.....नीचे मैं इस रिपोर्ट का लिंक लगाए दे रहा हूं.. आप देखेंगे कि किस तरह से सिज़ेरिएन सेक्शन के तुंरत बाद एक और आप्रेशन.......विशेषज्ञ इस की सलाह नहीं देते क्योंकि इस के िलए भी अगले दो सप्ताह तक मां को आराम करना होगा, इसलिए वह अपने शिशु पर ध्यान नहीं दे पाती। और ये शुरूआती दिन मां-शिशु की भावनात्मक बांडिंग के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं......विश्वभर के विशेषज्ञों ने यह सिद्ध कर दिया है। 

विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि कम से कम एक साल तक तो महिलाओं को प्रसव के बाद इंतज़ार कर लेना चाहिए.....वैसे भी अपने खाने पीने की तरफ़ सजग होकर और शारीरिक व्यायाम की तरफ़ ध्यान देकर काफी हद तक छरहरी काया को तो बनाए रखा ही जा सकता है!

 एक बात और......अगर इस तरह के बेफिजूल से आप्रेशनों की बजाए महिलाएं एवं उन के परिजन प्रसव के बाद उन के खाने पीने को देसी घी से लैस करने की बजाए उस के संतुलित एवं पोष्टिक होने पर ज़्यादा ध्यान दें...तो बेहतर होगा। देश में प्रसव के बाद तो महिलाओं में जैसे देशी घी और उस से बने उत्पाद ठूंसे जाते हैं....ठीक है, यह सब लिमिट में ज़रूरी है, लेकिन वही बात है......संतुलन!

इस रिपोर्ट में जो बातें लिखी थीं, मैंने इन्हें हिंदी में लिखने में थोड़ा असहज महसूस कर रहा हूं....इसलिए इंगलिश में ही ठेल रहा हूं......

Donning a New Look....
Mummy Makeover usually comprises of breast surgery, body contouring/tummy tuck and vaginoplasty (in vaginal deliveries) of which tummy tuck is the most popular. 

During Tummy tuck, aim is to keep the scar in the panty line!

विडंबना देखिए......एक तरफ ज़्यादा खाए पिए और कम काम करने की वजह से शरीर से थुलथुल होने का डर और इस डर को भुनाने में लगे कुछ विशेषज्ञ....और दूसरी तरफ़ कम वजन की वजह से गर्भवती महिलाओं में गर्भ में पल रहे शिशु के साथ साथ उन की स्वयं की जान को खतरा।

दो दिन पहले मैं किसी दुकान पर खड़ा था, मैंने देखा एक कमजोर शरीर का आदमी और उस से भी ज़्यादा कमजोर दिख रही उस की गर्भवती बीवी जिस की आंखें पूरी तरह से धंसी हुई थीं, उस आदमी ने अपने हाथ में एक प्लास्टिक की पन्नी में कुछ चकुंदर रखे हुए थे....इसी आस के साथ कि शायद इसी से उस मां का खून बढ़ जाए.......मेरी भी दिल से यही प्रार्थना निकली कि उस महिला के साथ ज़रूर ऐसा कुछ हो जाए...शीघ्र सेहतमंद हो जाए, यह और इस के आने वाला शिशु सेहतमंद रहे....Miracles do happen!

सोमवार, 12 जनवरी 2015

फोर-स्ट्रोक स्कूटर भी इक्कीसवीं सदी की बड़ी उपलब्धि..

जिन स्कूटरों को किक की ज़रूरत नहीं होती...शेल्फ-स्टार्ट वाले स्कूटर ... मेरे विचार में तो ये भी इस सदी की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।

शायद आज की युवा पीढ़ी को लगे कि इस में कौन सी बड़ी बात है, लेिकन यह सच में कितनी बड़ी बात है यह मेरी उम्र के लोग ही बता पाएंगे।

सच में जब याद आता है कि किस तरह से १९८० के दशक में मैं अपनी येज्दी मोटरसाईकिल को किक पे किक मार कर स्टार्ट किया करता था। बहुत अच्छी हालत में थी...लेिकन सुबह सुबह खास कर सर्दी के दिनों में तो किक मार मार के नानी याद आ जाया करती थी।

मैकेनिक तो कह दिया करता था कि सुबह सुबह चोक लगा लिया करो, लेकिन चोक भी कुछ न करती थी उन ठंड के दिनों में।

कहावत है ना ..कंगाली में आटा गीला....बिल्कुल उसी तरह एक तो जेब में यही सो पचास रूपये हुआ करते थे और ऊपर से इसी खौफ़ के साये में ही वह सड़क पर दौड़ा करती थी कि क्या पता चलते चलते कब हड़ताल कर दे और इसे मैकेनिक को दिखाने की नौबत आ जाए.....फिर बीस तीस रूपये का फटका......जी हां, होता भी कुछ यूं था....हमारे घर और कालेज के रास्ते में एक पुल आता था.....जब कभी पुल चढ़ते हुए थोडी सी अलग तरह की आवाज़ निकालने लगती तो दिल ऐसे डूबने लगता जैसे किसी मां का बच्चा बीमार पड़ गया हो।

पुल के ऊपर पहुंचते ही...और फिर कालेज पहुंच कर बांछे खिल जातीं.....फिर लगता, चलो अभी तो पहुंच गए ..वापिसी के समय देखेंगे.

मैकेनिक कभी कुछ कहता कि इस का तेल निकल रहा है, इस का प्लग ऐसा है, शार्ट हो गया है, टैंकी में कचरा है...जिसे सुन कर मेरा भी बहुत कुछ शार्ट होने लगता....सब कुछ गिना देता लेकिन दो ही मिनट में चला देता.

फिर १९९० में एलएमएल ली ......बहुत अच्छा लगा इस की सवारी करना......बस, सुबह सुबह सर्दी के मौसम में थोड़ी दिक्कत हुआ करती थी, समय समय पर सर्विस करवा लिया करते थे....कोई खास दिक्कत हुई नहीं कभी इस के साथ।

कुछ ही समय बाद मिसिज़ ने वह स्कूटर खरीदा जिस में शेल्फ-स्टार्ट था.....हां, हां, काईनेटिक...आप किक भी इस्तेमाल कर सकते थे....लेिकन शेल्फ-स्टार्ट का फीचर मन को इतना भा गया कि बस, हर समय उस ही निकालने की इच्छा हो....उस को हम ने बहुत यूज़ किया... अब तक तो मोटरसाईकिल भी शेल्फ-स्टार्ट आ चुकी थीं.....देख कर बहुत ताजुब्ब होता था, कईं बार चलाया भी।

लगभग तभी हमने एक एक्टिवा खरीद ली......सब लोग उस की प्रशंसा किए करते थे......अभी उसे खरीदा नहीं था, एक दिन एक समझदार सा बिजनेस मैन कहीं मिल गया.....कोई बात छिड़ी तो उसने कहा ... अब आप देखें यह एक्टिवा स्कूटर बिक रही है इतनी .....लेकिन इस में है क्या, सारे का सारा प्लास्टिक लगा हुआ है।

उस की बात सुन कर यही लगा कि यह तो बेवकूफी वाली बात है.......यार, तुमने कबाड़ थोड़ा ही न बेचना है......इतनी बड़ी कंपनी है, प्लास्टिक या लोहा लगाने का निर्णय इन के हाथ में थोड़ा होता होगा।

जितनी बड़ी संख्या में यह एक्टिवा नाम की स्कूटर बाज़ार में दौड़ती है मुझे कईं बार लगता है कि इस की कंपनी इस सफलता की हकदार है। कोई परेशानी नहीं होती इसे चलाने में ......युवा से लेकर बुज़ुर्ग भी इसे सहजता से चला रहे होते हैं, महिलाएं भी आसानी से इसे कंट्रोल कर लेती हैं।

बस अगर समय समय पर इस की सर्विस करवा ली जाए.. तो इस को स्टार्ट करने में दिक्कत आती नहीं....बस, सुबह पहली बार इसे स्टार्ट करते समय किक का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है। लेिकन मैं इसे जब भी चलाता हूं मैंने शायद इसे स्टार्ट करने के लिए किक का इस्तेमाल ही नहीं किया था।

यह पोस्ट मैंने यह बताने के लिए लिखी कि इस तरह के स्कूटर में मेरे जैसे लोग भूल ही जाते हैं कि किक भी है.......पिछले महीने की बात है, बाज़ार में मैंने कहीं खड़ी की, फिर से स्टार्ट करने लगा तो स्टार्ट ही न हो, ऐसे में मैंने बड़ी कोशिश की, चोक भी लगाई.........हार कर मैं इसे एक मैकेनिक के पास ले गया, उसे तकलीफ़ बताई। उसने कहा ...बाऊ जी, किक से भी नहीं हो रही क्या?......मैं उस की तरफ़ ऐसे देखने लगा जैसे चोरी की स्कूटर हो, उसने एक ही किक लगाई और स्कूटर स्टार्ट............सच में मुझे यह अहसास ही नहीं था कि इस स्कूटर में किक भी होती है, क्योंकि मैंने कभी भी इस किक को इस्तेमाल ही नहीं किया था।

तो फिर दोस्तो हुई कि नहीं, शेल्फ-स्टार्ट स्कूटरों वाली इक्कीसवीं सदी की एक बड़ी उपलब्धि।

नोट.......पोस्ट का कंटैंट ऐसा है कि लग सकता है कि जैसे यह पोस्ट स्पांसर्ड हो, नहीं, बिल्कुल नहीं.....मैं कभी भी प्रायोजित लेखन में विश्वास नहीं रखता, सारे ब्लॉग में एक भी पोस्ट प्रायोजित नहीं है, और शायद न ही कभी होगी। लेकिन कभी कभी किसी चीज़ की कार्यप्रणाली से आप इतने प्रभावित हो जाते हैं कि आप उस की दिल खोल कर तारीफ़ किए बिना रह नहीं सकते।

सोना कितना सोना है..

व्हाट्सएप पर कुछ कुछ तस्वीरें-बातें शेयर होती रहती हैं..जो हम सब को यादों की बारात में शामिल कर देती है। आज भी एक तस्वीर पंजाबी मुटियार की शेयर की गई थी जिसने इतने गहने पहने थे कि पंजाबी में कहते हैं ..सोने से लदे होना.....बस वह सोने से लदी ही हुई थी।

कल ही इसी ग्रुप पर यह चर्चा हो रही थी कि सोने के ज़ेवर खरीदना तो महिलाओं की कमज़ोरी है।

मुझे लगता है कि सोना शायद ३० हज़ार रूपये प्रति तोला के आस पास है, बस इस के अलावा इस पर कुछ भी चर्चा के िदन लद गये।

इतनी वारदातें होने लगी हैं कि अब तो असली क्या और नकली क्या, हर पीली धातु से डर लगने लगा है।

चलिए, जल्दी जल्दी कुछ आसपास की घटनाएं बता दूं....आज से बीस बरस पहले की बात है, एक बंदा बंबई में बस में यात्रा कर रहा था..अचानक उस की अंगुली में कुछ गीला गीला सा लगा.. देखा तो किसी ने उस के हाथ की अंगूठी के उतारने के चक्कर में उस की अंगुली ही काट दी थी.....उस दिन के बाद कभी हाथ में अंगूठी डालने की हिम्मत नहीं हुई। अखबार में आदमी की तस्वीर भी आई थी।

१०-१२ साल पहले की बात..मेरी पत्नी और उस की भाभी दिल्ली में एक सत्संग से बाहर निकल रही थी, मोटरसाईकिल पर दो लड़के आए और मेरी श्रीमति के गले से चीन झपट पर तुरंत आंखों से ओझल हो गये। शुक्र यह था कि यह वारदात करते समय उन्होंने किसी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया।

मेरे सामने एक बार पुरानी दिल्ली स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी छूटी, तो खिड़की के किनारे बैठी एक औरत के गले से चैन बाहर से किसी ने खींच ली....उस दिन उस सिख जेंटलमेन ने अपनी पत्नी की अच्छी क्लास ली..कहने लगा>>>..."यह तो होना ही था, कहा भी था कि इसे मत पहनो, और पहना ही है तो खिड़की वाली सीट पर मत बैठो। ये चोर उचक्के तो गिरोह में काम करते हैं, वारदात करने के बाद अगले ही पल गायब हो जाते हैं, अब कौन XXXXXX(मोटी सी गाली) इन के चक्कर में पहले तो गाड़ी छोड़े, फिर पुलिस के धक्के खाए, मिलना मिलाना फिर भी कुछ नहीं।"

बंदा बातें समझदारी की कर रहा था।

कुछ वर्ष पहले की ही बात है.....मेरी मदर-इन-ला एक शादी में करनाल गई हुई थीं, उन की बंद अटैची से लगभग २० तोले सोना निकल गया...यह एक मिस्ट्री ही बनी रही कि यह कैसे हो गया?...शादी वाले घर में आप किस से कुछ कहें?
लगभग हर रोज़ इस तरह की वारदातें अखबारों के पन्नों की सुर्खियां बनी होती हैं। कुछ ज़्यादा डेढ़ सयानी महिलाएं यह सोच कर खुश होती हैं कि उन्होंने तो नकली सोना पहन रखा है। सोचने वाली बात है कि शायद इस से पैसे का नुकसान होना अगर बच भी गया, जान तो खतरे में है ही.....पहले तो कोई उचक्का पता ही नहीं किस हथियार के साथ तैयार हो कर आ रहा है, और नहीं तो कान की बालियां खींचने के चक्कर में तो कितनी महिलाओं के कान ही कट जाते हैं।

अब क्या क्या लिखें, पहला ज़माना और था..मेरी मां कहती हैं कि वे शादी से पहले भी सोने की दो चूड़ी, बूंदे और गले की चेन डाल कर रखती थीं। विवाह शादियों में भी हम लोग देखा करते थे .. कईं कईं दिन पहले ही हम लोग शादी वाले घर में जा कर डेरा जमा िलया करते....फिर किसी कमरे में महिलाएँ अपनी अपनी सोने के गहनों की पोटलियां खोल लेतीं, और फंक्शन में डालने के लिए एक दूसरे से गहनों का आदान प्रदान किया करतीं। और एक बात, विवाह शादियों में लोग पड़ोसियों से गहने ले कर चले जाया करते थे.......सच में लगता है कि हम लोगों ने रामराज देखा है।
मुझे ऐसा लगता है कईं बार कि सोना खरीदना ही बेवकूफी है.......विवाह शादी में कुछ लेना देना भी हो तो भी सोना न खरीद कर, कोई एफ.डी आदि दे देनी चाहिए।

एक बात और याद आ गई... विवाह शादी पर जाने से पहले.. एक्स्ट्रा गहने आदि किसी ट्रंक में रख कर अपने पड़ोसी के यहां रख जाया करते थे। यह सोच कर हैरानगी होती है ना कि आज से ३०-३५ वर्ष पहले भी हम लोग आपस में इतना विश्वास कर लिया करते थे!!

अपने इर्द-गिर्द देखता हूं ..अपने सर्कल में तो यही देखता हूं लोग सोने की वजह से परेशान हैं.......क्या करें, क्या न करें, महंगा इतना हो गया है कि इस की नुमाइश कर के अपने से थोड़े कमजोर रिश्तेदारों पर धाक जमा नहीं सकते.....वरना उचक्के जीना हराम कर दें, अगर किसी ने संभाल कर रख हुआ है तो किस काम का!........बस, देग पर बैठे सांप की तरह उस की हिफाजत करते रहिए।

अकलमंद लोग हैं वे जो सोना बेच कर कोई घर आदि खरीद लिया करते हैं या किसी बड़े उद्देश्य से बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में इसे लगाते हैं.. सोना तो अपनी चमक खो चुका है सच में। कारण यह भी है कि अमीर गरीब के बीच की खाई बहुत गहरी हो चुकी है.....आदमी जिस का बच्चा बीमार है, या जिस के घर में दो दिन से चूल्हा नहीं जला, उसे अगर कोई सोने की चेन पहने औरत दिखेगी तो वह तो मन में यही सोचता है कि शराफत, गई तेल लेने.......बाकी हिसाब तो बाद में हो जाएगा, पहले पापी पेट को तो भरें......यही हो रहा है, ज़ाहिर सी बात है कि इस चक्कर में कौन अनैतिक, नैतिक के चक्कर में पड़ता है।

सीधी सी बात है कि कोई भी सेफ नहीं है......आज कल एक और ट्रेंड देखा गया है.....औरतें अपने पति के साथ कहीं जाती हैं तो खूब गहने पहन लेती हैं.......पति तो साथ है यही सोच कर........पति ही तो है, कोई किंग-फुंगली या गामा पहलवान तो नहीं।

सोने का सही इस्तेमाल भी कईं जगह सुना......और लोगों के कईं ढंग भी सुने इसे छिपाने के। जब हम लोग अपने ग्रैंड-पेरेंट्स के बारे में सुनते हैं तो यही बताते हैं कि पाकिस्तान से आते वक्त वे लोग अपने साथ बस सोना ही लेकर आ सके.....थोड़ा भी नहीं, सोने की एक दो ईंटें, तीन-चार किलो सोना, और तब सोना सस्ता भी तो बहुत था......और हिंदोस्तान पहुंचने पर उस सोने को बेच बेच कर जैसे तैसे सिर छुपाने के लिए घऱ बने, सभी बच्चों-भाईयों-बहनों की पढ़ाईयां, शादियां हुईं......घर का खर्चा चलता रहा ...और सोना खत्म होने पर बिल्कुल कंगाली जैसे दिन भी आ गये.......कुछ लोग उद्यमी थे, उन्होंने सोना बेच कर छोटे मोटे धंधे शुरू कर लिए जो चल निकले और फिर कभी उन्हे पलट कर न देखना पड़ा। हमारे बड़े-बुजुर्ग पहली श्रेणी में आते हैं.....जो भारत आने पर छोटा मोटा धंधा करने में झिझकते ही रह गये। हम लोगों ने बचपन में बहुत कुछ देखा और अनुभव किया है, ये सब बातें मैं काल्पनिक नहीं लिख रहा हूं। यह तो हुया सोने का सही इस्तेमाल ..किस तरह से सोने की वजह से भुखमरी से बच गये लोग।

सोने को छिपाने की बात.......मुझे अच्छे से याद है जब मैं छोटा सा था तो हमारे पड़ोस वाली आंटी मेरी मां को एक दिन बता रही थीं कि कैसे उसने अपना सारा सोना तंदूर के नीचे एक गड्डे में दबा कर रखा हुआ था...और ट्रांसफर होने पर तंदूर तोड़ कर उसे निकाल कर ले गये थे। लोगों ने तब भी सारे जुगाड़ कर ही रखे थे।

जाते जाते एक कमैंट हो जाए........दिल की बात बताऊं ..अब किसी महिला से भी कोई वारदात होती है ना ..किसी की चेन किसी ने झपट ली, कितनी की चूड़ीयां उतरवा लीं..किसे के कानों की बालियां खींच ली, कान फट गये........फिर भी ऐसी किसी भी घटना की शिकार महिला से सहानुभूति बिल्कुल न के बराबर होती है, यही लगता है कि जब सब कुछ रोज़ाना अखबारों में छप रहा है तो भी अगर समझ नहीं आ रही तो कोई इनका क्या करे!




मैं तो बहुत बार कहता हूं कि जो हमारे पारंपरिक कांच और स्टोन से बने गहने हैं, क्या वे हम आकर्षक हैं ?.........वैसे भी.....Thank God, Beauty is not skin deep!!        And of course, Beauty lies in the eyes of the beholder! ..... हाथ कंगन को आरसी क्या!!

चूडियों की बात चलती है तो मुझे बचपन में देखी फिल्म सास भी कभी बहू थी का यह गीत अकसर ध्यान में आ ही जाता है......

रविवार, 11 जनवरी 2015

आसानी से समझ आती है मुनव्वर राना की शायरी

हिन्दुस्तान ९ जनवरी २०१५
पिछले दो वर्षों में कईं बार शायर मुनव्वर राना को देखने-सुनने का मौका मिला...जैसे ही उन का नाम पुकारा जाता है, श्रोतागण झूमने लगते हैं।

उर्दू के नामी शायर मुनव्वर राना को इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। मुनव्वर राना हिंदी पाठकों और श्रोताओं में भी बहुत लोकप्रिय हैं। उनका गद्य भी बहुत चुस्त और जीवंत है।

मुनव्वर राना कि किताब शहदाबा को हाल ही में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई थी। पिछले दिनों इन के एकल पाठ मुनव्वर बस मुनव्वर का।

यह काव्य पाठ इसी कामयाबी के मद्देनजर रखा गया था। शेर पढ़ने से पहले मुनव्वर राना ने इस किताब के वजूद में आने का कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि वह दस महीने से लगातार अस्पताल के बिस्तर पर पड़े थे। आईना देखते तो महसूस होता कि सामान समेटने का वक्त आ गया है।

इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी तमामतर शायरी को समेटते हुए शहदाबा की रचना की। उन्होंने कहा कि ये किताब मेरी तमामतर शायरी की बटोरन है। बार बार मुनव्वर राना के बारे में कहा जाता है कि वह आसान जुबां में शायरी करते हैं।

इस बारे में मुनव्वर राना ने एक किस्सा सुनाया कि वह कलकत्ते के होटल में अपनी जवानी के दिनों में खाना खा रहे थे जब एक मजदूर को दाल में गुलाब जामुन मिलाकर खाते देखा। वजह पूछने पर मजदूर ने कहा कि बचपन में खाना खिलाने की गरज से मां अक्सर खाने में कुछ मीठा मिला देती थी। कल रात मां को ख्वाब में देखा तो आज यों खाना खआ रहा हूं। मुनव्वर कहते हैं जब उन्होंने अपनी मशहूर गजल मां लिखी तो इस बात का ध्यान रखा कि उसके अहसास उन जैसे उर्दू नवाज को तो समझ आए हीं साथ साथ उस मजदूर जिसका साहित्य और अदब से कोई वास्ता नहीं...वह भी आसानी से समझ सके।

मुनव्वर की पहली गजल का यह शेयर....
पेड़ उम्मीद का यह सोचकर न काटा अभी। 
फल न देगा तो हवाएं आएंगी।

कुछ और ... 

जब भी मेरी कश्ती सैलाब में आ जाती है, 
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

कलंदर सगंमरमर के मकानों में नहीं मिलता। 
मैं असली घी हूं बनिया की दुकानों में नहीं मिलता।

एक कम पढ़े लिखे का कलम होके रह गई।
यह ज़िंदगी भी गूंगे का गम होके रह गई।

इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए।

आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिए। 

जिंदगी कब तलक दूर दूर फिराएगी हमें
टूटा-फूटा ही सही घरबार होना चाहिए। 

अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए। 
हिन्दुस्तान ११जनवरी २०१५

बहुत बहुत बधाईयां, मुनव्वर साहब। 

शनिवार, 10 जनवरी 2015

एक्स्ट्रा दांत भी कभी कभी लफड़ा करता है...


यह तस्वीर एक ४०वर्ष के आसपास की उम्र की एक महिला की है...आज यह किसी दांत की तकलीफ़ के लिए आई थी...यह जो तकलीफ़ आप अगले वाले दांतों में देख रहे हैं, ज़ाहिर सी बात है इन्हें इस की कोई तकलीफ़ नहीं है, और न ही थी।

यह जो आगे के दो दांतों के बीच में आप एक छोटा सा दांत देख रहे हैं, इसे मिज़ियोडेंस कहते हैं, मोटी मोटी बात यह है कि यह एक्स्ट्रा दांत है.....मैं शायद अभी तक आगे के दांतों में इस तरह के एक्स्ट्रा दांत के ५०-६० केस तो देख ही चुका हूंगा।

इस में कौन सा बड़ी बात है जो मैं इस विषय पर इस पोस्ट को लिखने ही बैठ गया।

इस औरत की बात करें तो इसे इस एक्स्ट्रा दांत से कुछ अंतर नहीं पड़ता......शुक्र है कि यह इस के बारे में ज़रा भी कांशियस न दिखी। पूछने पर बताने लगी कि जब छोटी थी तो इतना ध्यान दिया ही नहीं दिया जाता था, न ही किसी ने उस दौरान टोका, हां, अब कभी कभी कोई सखी-सहेली ऐसे ही पूछ लेती है कि यह आप का आगे का दांत कैसे?

अब ज़रा मैं इस तरह के एक्स्ट्रा दांत के बारे में अपने ज्ञान को थोड़ा झाड़ लूं, इज़ाजत है?

तो सुनिए दोस्तो कि अब मां-बाप में दांतों के बारे में अच्छी अवेयरनेस हो गई है......वे चाहे वैसे बच्चे को नियमित दांतों  के चेक-अप के लिए लाएं या न लाएं... लेकिन जब वे सात वर्ष की उम्र के आसपास एक नुकीला सा छोटा दांत आगे वाले दो दांतंों के बीच में उगता देखते हैं या तालू पर इसे उगता देखते हैं तो दंत चिकित्सक के पास आ जाते हैं....और ऐसे अधिकांश केसों में इस एक्स्ट्रा दांत को निकाल कल सारा मामला चुपचाप सुलट जाता है...और अधिकांश केसों में जो दूरी आगे के दो दांतों में हो चुकी होती है, वह इस के निकलने के बाद खत्म हो जाती है...इस का कारण यह भी है कि अधिकांश केसों में यह इतना बड़ा भी नहीं होता, जितना बड़ा यह एक्स्ट्रा दांत इस महिला में दिख रहा है।

कुछ और अनुभव... कुछ बच्चे ऐसे आए जिन तालू में यह एक्स्ट्रा दांत निकल चुका था, या निकल रहा था...और कुछ बच्चों में इस की वजह से बोलचाल में थोड़ी दिक्कत देखी गई.....इन सब केसों में इस दांत को तुरंत निकाल कर मसले का बढ़िया हल हो जाता है.....और इस तरह के दांत उखड़वाने में कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि इन की जड़ बिल्कुल छोटी ही होती है। बिना किसी तरह के आप्रेशन के ही निकाल दिया जाता है।

कुछ युवतियां इस तरह की समस्या के साथ आईं......उन की स्थिति बिल्कुल इस महिला की ही तरह की थी...दो दांतों के बीच में एक दम सटा हुआ एक्स्ट्रा दांत.......अब अगर दंत चिकित्सा की किताबों की बात करें तो वे यही कहती हैं कि इस तरह के एक्स्ट्रा दांत को तो निकालो और उसे उखाड़ने के बाद जो गैप हो जाता है, उसे ब्रेसेज़ लगा कर बंद कर दिया जाए। अधिकतर लोग इस तरह के लंबे इलाज के चक्कर में नहीं पड़ते।

वैसे भी किताबें तो बहुत कुछ कहती हैं, लेिकन यह इतना आसान नहीं है, अधिकतर सरकारी अस्पतालों में इस तरह की सुविधआ होती नहीं, बाहर इस पर बहुत पैसा खर्च आता है, और समय तो लगता ही है.....इसलिए कुछ युवतियों में तो मैंने इस तरह के दांत की शेप ही बदल दी ताकि किसी को ज़्यादा पता ही न  लगे कि कोई एक्स्ट्रा दांत है भी यहां! इस काम के िलए दांत के कलर का एक मेटिरियल काम आता है ... बिल्कुल दांत के कलर से मिलता जुलता..जिसे हम लोग डैंटल कंपोज़िट मेटीरियल कहते हैं।

अधिकतर केसों में बड़े उत्साहवर्धक परिणाम मिले......मतलब यही कि जो भी किया मरीज उस से संतुष्ट लगे।
एक बार की बात है कि मैं ही गच्चा खा गया....एक महिला के दांतों का मैं कुछ इलाज कर रहा था, उस ने बताया कि उस के अगले दांतों के बीच में भी एक भद्दा सा दिखने वाला एक्स्ट्रा दांत था, लेकिन उसने तो उसे उखड़वा कर एक नकली दांत ही निकलवा लिया......चाहे वह नकली दांत जैसा भी था, उसे बिल्कुल ठीक लग रहा था, बिल्कुल आस पास के दांतों से मेल खाता हुआ।

बस एक बात और... ज़रूरी नहीं कि इस तरह के एक्स्ट्रा दांत को निकलवाने पर गैप बहुत ही ज़्यादा हो, कईं बार जब एक्स्ट्रा दांत बहुत ही छोटा होता है तो उसे उखाड़ने के बाद आसपास के दांतों पर एक डेंटल मेटिरियल लगा कर उस गैप को बंद कर दिया जाता है।

इस पोस्ट में कुछ भी समझ में आ गया हो तो गनीमत है, बस ऐसे ही ध्यान आ गया तो सोचा नेट पर डाल दो, कभी किसी ज़रूरतमंद को गूगल करते मिल जाएगी तो उसे खुशी होगी !!