मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बच्चों की डायबिटिज़ को लेकर आजकल क्यों है इतना हो-हल्ला ?

जब भी बच्चों की बीमारियों की चर्चा होती है तो अकसर डायबिटिज़ का जिक्र कम ही होता है क्योंकि अकसर हम लोग आज भी यही सोचते हैं कि डायबिटिज़ का रोग तो भारी-भरकम शरीर वाले अधेड़ उम्र के रइसों में ही होता है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। डायबिटिज़ के प्रकोप से अब कोई भी उम्र बची हुई नहीं है और मध्यम वर्ग एवं निम्न-वेतन वर्ग के नौजवान लोगों में भी यह बहुत तेज़ी से फैल रही है।

जहां तक बच्चों की डायबिटिज़ की बात है, बच्चों की डायबिटिज़ के बारे में तो हम लोग बरसों से सुनते आ रहे हैं ----इसे टाइप-1 अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ कहते हैं। अच्छा तो पहले इस टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटिज़ की बिलकुल थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं।

टाइप-1 डायबिटिज़ अथवा इंसूलिन-डिपैंडैंट डायबिटिज़ में पैनक्रियाज़ ग्लैंड ( pancreas) की इंसूलिन-पैदा करने वाली कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं जिस की वजह से वह उपर्युक्त मात्रा में इंसूलिन पैदा नहीं कर पाता जिस की वजह से उस के शरीर में ब्लड-शूगर का सामान्य स्तर कायम नहीं रखा जा सकता। अगर इस अवस्था का इलाज नहीं किया जाता तो यह जानलेवा हो सकती है। अगर ठीक तरह से इस का इलाज न किया जाये तो इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों में आंखों की बीमारी, हार्ट-डिसीज़ तथा गुर्दे रोग जैसी जटिलतायें पैदा हो जाती हैं। इस बीमारी के इलाज के लिये सारी उम्र खाने-पीने में परहेज़ और जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी होते हैं जिनकी बदौलत ही मरीज़ लगभग सामान्य जीवन जी पा सकते हैं और कंप्लीकेशन्ज़ से बच सकते हैं।

सौभाग्यवश यह टाइप-1 डायबिटिज़ की बीमारी बहुत रेयर है ---बहुत ही कम लोगों को होती है और पिछले कईं दशकों से यह रेयर ही चल रही है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि एक दूसरी तरह की डायबिटिज़ – टाइप 2 डायबिटिज़ बहुत भयानक तरीके से फैल रही है। और इस के सब से ज़्यादा मरीज़ हमारे देश में ही हैं जिस की वजह से ही हमें विश्व की डायबिटिज़ राजधानी का कुख्यात खिताब हासिल है।

इस टाइप -2 डायबिटिज़ की सब से परेशान करने वाली बात यही है कि इस बीमारी ने अब कम उम्र के लोगों को अपने चपेट में लेना शुरु कर दिया है ----अब क्या कहूं ----कहना तो यह चाहिये की कम उम्र के ज़्यादा ज़्यादा लोग इस की गिरफ्त में रहे हैं। आज से लगभग 10 साल पहले किसी 20 वर्ष के नवयुवक को यह टाइप-2 डायबिटिज़ होना एक रेयर सी बात हुआ करती थी लेकिन अब चिंता की बात यह है कि अब तो लोगों को किशोरावस्था में ही यह तकलीफ़ होने लगी है। यही कारण है कि आज कल बच्चों की डायबिटिज़ ने इतना हो-हल्ला मचाया हुआ है।

ठीक है , बच्चों में इतनी कम उम्र में होने वाली तकलीफ़ के लिये कुछ हद तक हैरेडेटी ( heredity) का रोल हो सकता है ---लेकिन इस का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि बच्चों की जीवन-शैली में बहुत बदलाव आये हैं ----घर से बाहर खेलने के निकलते नहीं, सारा दिन कंप्यूटर या टीवी के साथ चिपके रहते हैं ---और सोफे पर लेटे लेटे जंक-फूड खाते रहते हैं --- इन सब कारणों की वजह से ही बच्चों में टाइप-टू डायबिटिज़ अपने पैर पसार रही है। और यह बेहद खौफ़नाक और विचलित करने वाली बात है। मद्रास के एक हास्पीटल में पिछले बीस सालों में बच्चों में टाइप-2 डायबिटिज़ के केसों में 10गुणा वृद्धि हुई है।

लेकिन खुशखबरी यह है कि टाइप-2 डायबिटिज़ से रोकथाम संभव है---अगर जीवन-शैली में उचित बदलाव कर लिये जायें, खान-पान ठीक कर लिया जाये तो इस टाइप-2 से अव्वल तो बचा ही जा सकता है वरना इस को काफी सालों तक टाला तो जा ही सकता है। तो, बच्चों शुरू हो जाओ आज से ही रोज़ाना एक घंटे घर से बाहर जा कर खेलना-कूदना और अब तक जितना जंक फूड खा लिया, उसे भूल जाओ---अब समय है उस से छुटकारा लेने का ----जंक फूड में क्या क्य़ा शामिल है ?----उस के बारे में आप पहले से सब कुछ जानते हैं

सोमवार, 10 नवंबर 2008

क्या आप प्री-डायबिटिज़ के बारे में जानते हैं ?

डायबिटिज़ की पूर्व-अवस्था है.....प्री-डायबिटिज़ -----

अकसर देखा गया है कि लोग अपने आप कभी-कभार शूगर की जांच करवा लेते हैं और इस की रिपोर्ट ठीक होने पर आश्वस्त से हो कर अपने पुराने खाने-पीने में मशगूल हो जाते हैं। जब हम लोग छोटे छोटे थे तो सुनते थे कि यह शूगर की जांच यूरिन से ही होती है। लेकिन बहुत सालों के बाद पता चला कि इस की जांच ब्लड-टैस्ट से भी होती है।
मैं अकसर देखता हूं कि लोग कुछ वर्षों बाद अपनी ब्लड-शूगर की जांच करवा लेते हैं और रिपोर्ट ठीक होने पर इत्मीनान कर लेते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक है।

मैं अकसर सोचा करता था कि यह बार-बार ब्लड-शूगर टैस्ट करवाई तो जाती है और अगर रिपोर्ट ठीक आती है तो बंदा खाने-पीने में आगे से भी एहतियात एवं कुछ परहेज़ करने की बजाये और भी बेफिक्र सा हो जाता है कि चलो, मैं तो अब सब कुछ खा-पी सकता हूं क्योंकि मेरी ब्लड-शूगर रिपोर्ट तो ठीक ही है। ऐसा देख कर यही लगता है कि इन लोगों के द्वारा तो बस ब्लड-शूगर का टैस्ट गड़बड़ आने की इंतज़ार ही हो रही है।

लेकिन अब यह सोच बदलने का टाइम गया है विश्व भर के सभी मैडीकल एक्सपर्टज़ के अनुसार डायबिटिज़ से पहले एक अवस्था प्री-डायबिटिज़ भी होती है। प्री-डायबिटिज़ का मतलब है कि किसी व्यक्ति में ब्लड-शूगर का स्तर सामान्य से अधिक तो है लेकिन इतना भी बढ़ा हुया नहीं है कि उसे डायबिटिज़ का श्रेणी में शामिल किया जाये लेकिन फिर भी ये प्री-डायबिटिज़ वाले लोगों में टाइप-2 डायबिटिज़, हार्ट-डिसीज़ और दिमाग की नस फटने का रिस्क बढ़ जाता है। लेकिन इत्मीनान की बात यही है कि जीवन-शैली में किये गये परिवर्तन जैसे कि खान-पान में सावधानी एवं शारीरिक परिश्रम करने से प्री-डायबिटिज़ वाले व्यक्तियों को भी या तो डायबिटीज़ होने से ही बचाया जा सकता है, अथवा डायबिटीज़ डिवेल्प होने को एवं उस से पैदा होने वाली जटिलताओं को काफी समय तक टाला जा सकता है।

Pre-diabetes is a condition in which blood glucose levels are higher than normal but not high enough to be classified as diabetes – but these individuals are at an increased risk for developing type2 diabetes, heart disease and stroke. However, life-style changes such as diet and exercise can prevent or delay development of diabetes and its complications.

तो अब अगला प्रश्न यह है कि इस प्री-डायबिटिज़ का पता कैसे चले ? – इस प्री-डायबिटिज़ का पता जिन टैस्टों के द्वारा चलता है उन्हें कहते हैं ----Fasting Plasma Glucose( Fasting blood sugar) ----फास्टिंग ब्लड-शूगर टैस्ट तथा Oral glucose tolerance test ---ओरल ग्लूकोज़ टालरैंस टैस्ट।

फास्टिंग ब्लड-शूगर चैक करने से पहले जैसा कि आप जानते ही हैं कि 12 से 14 घंटे तक कुछ भी नहीं खाया-पिया नहीं जाता, और इस की नार्मल रेंज है 100 मिलीलिटर में 100मिलीग्राम जिसे मैडीकल भाषा में 100mg% ( one hundred milligram percent ) बोल दिया जाता है और लिखने में 100mg/dl लिख दिया जाता है ---dl का मतलब है डैकालिटर यानि 100मिलीलिटर। अगर इस फास्टिंग ब्लड शूगर की रीडिंग 100 से 125 के बीच आती है तो यह प्री-डायबिटीज़ की अवस्था कहलाती है( इसे इंपेयरड फास्टिंग ग्लूकोज़ भी कह दिया जाता है यानि कि फास्टिंग ब्लड-शूगर टैस्ट में गड़बड़ी है) और 126mg% से ज़्यादा की रीडिंग का मतलब है डायबिटिज़।


अब आते हैं दूसरे टैस्ट की तरफ़ --- ओरल ग्लुकोज़ टालरैंस टैस्ट ----Oral glucose tolerance test - इस टैस्ट में व्यक्ति का ब्लड-शूगर रात भर से कुछ भी बिना कुछ खाये पिये तो किया ही जाता है ( overnight fast) और 75 ग्राम ग्लूकोज़ को पानी में घोल कर पिलाने के दो घंटे के बाद भी ब्लड-शूगर टैस्ट की जाती है। इस की रीडिंग अगर 140mg% तक आती है तो यह टैस्ट नार्मल माना जाता है , लेकिन 140 से 199 mg% की वैल्यू प्री-डायबिटिज़ की अवस्था की तरफ़ इशारा करती है, इसे इंपेयरड ग्लूकोज़ टालरैंस कहा जाता है --- और इस की वैल्यू अगर 200मिलीग्राम से ऊपर हो तो यह डायबिटिज़ ही होती है।

अब बहुत ही अहम् बात यह है कि अगर किसी को प्री-डायबिटिज़ का पता चला है तो यह एक तरह से एक चेतावनी है कि संभल जाइये-----क्योंकि इस अवस्था में तो परहेज़ करने से, लाइफ-स्टाइल में परिवर्तन करने से, और शारीरिक परिश्रम करने से बहुत ही परेशानियों से बचा जा सकता है, यह भी संभव है कि ये सब सावधानियां ले लेने से यह प्री-डायबिटीज़ अवस्था कभी भी डायबिटिज़ की तरफ़ बढ़े ही नहीं और शायद इन सब सावधानियों को वजह से डायबिटीज़ की डिवेलपमैंट लंबे अरसे के लिये टल ही जाये ---और इसी तरह डायबिटीज़ रोग की जटिलताओं ( complications) से भी लंबे समय के लिये बचा जा सकता है।

आशा है कि प्री-डायबिटिज़ का फंडा आप समझ गये होंगे और आगे से इसे कोई थ्यूरैटिकल कंसैप्ट ही नहीं समझेंगे।

रविवार, 9 नवंबर 2008

मेरा इक सपना है ...

मेरी हिंदी कोई अच्छी नहीं है, मुझे यह पता है इसलिये मैं बहुत ही धुरंधर हिंदी में लिखी हुई कुछ पोस्टें समझ ही नहीं पाता हूं –केवल बोलचाल वाली हिंदी ही लिख पाता हूं, लेकिन फिर भी एक सपना मन में ज़रूर संजो कर रखा है कि ये जो मैं सेहत संबंधी पोस्टें लिखता हूं ना इन की एक किताब बने और खूब बिके।

मुझे उस महान कवि का नाम भी नहीं याद है और उस की कही हुई पूरी लाइनें भी याद नहीं हैं....एक रचना उस कवि की आठवीं कक्षा में पढ़ी थी –पुष्प की अभिलाषा, जिस में पुष्प ने ख्वाहिश जाहिर की थी कि उस की चाह केवल इतनी है कि उसे उस पथ पर गिरा दिया जाये जिस रास्ते से होकर देश पर अपनी जान लुटाने वाले वीर सिपाही रणभूमि की तरफ़ जा रहे हों।

मैं ना तो अपनी किसी पुस्तक को किसी अवार्ड के लिये और न ही किसी पुरस्कार के लिये भेजना चाहता हूं- मुझे चिढ़ है , क्योंकि मेरा व्यक्तिगत विचार है कि किसी इनाम को लेने के लिये लिखा तो क्या लिखा। यह तो एक तरह का प्रायोजित लेखन हो गया। लेखन मेरी समझ में वही है जिस को लिखे बिना आप रह ही न सकें।

अच्छा तो मैं जिस पुस्तक की बात कर रहा हूं वह केवल पांच-दस रूपये में लोगों तक पहुंचनी चाहिये----सस्ते से रीसाइकल्ड पेपर पर छपनी चाहिये और यह बस-स्टैंडों पर, बसों के अंदर चुटकलों वाली किताबों के साथ ही बिकनी चाहिये----यह फुटपाथों पर भी मिलनी चाहिये----हां, हां, उन्हीं फुटपाथों पर जिन पर मस्तराम के नावल भी बिकते हों--- यह केवल इन जगहों पर ही बिकनी चाहिये क्योंकि अधिकांश लोग बुक-स्टाल से खरीदने से या किसी पुस्तक के बारे में पूछने से झिझकते हैं कि पता नहीं कितनी महंगी हो।

मेरी ही नहीं ---मैं सोच रहा हूं कि सभी हिंदी ब्लोगरों की सभी पोस्टों सीधे उन के दिल से निकल कर दुनिया के सामने आ रही हैं। हम चिट्ठाकार लोग किसी दिन अगर किसी मुद्दे के बारे में बहुत शिद्दत से सोच रहे होते हैं तो हम जो भी मन में आता है लिख कर हल्का हो लेते हैं। लेकिन शत-प्रतिशत सच्चाई।

अब मैंने सोचना शुरू किया है कि मैंने जितनी भी सेहत के विषय पर पोस्टें लिखी हैं अब समय आ गया है कि उन्हें एक बिल्कुल सस्ती सी, फुटपाथ-छाप किताब के रूप में एक आम आदमी के लिये ले कर आऊं---इतनी सस्ती होनी चाहिये कि कोई मज़दूर और कोई रिक्शा-चालक भी इसे खरीदने में ना हिचकिचाये।

मुझे इस किताब से कोई कमाई करने की कतई अपेक्षा नहीं है और न ही कोई इनाम की चाह है। बस मकसद केवल इतना है कि साधारण से सेहत के संदेश आम आदमी तक पहुंच जाने चाहिये।

क्या कोई ऐसी संस्था है जो इस तरह के प्रकाशन में मदद कर सकती है, वैसे मैं अपने खर्च पर भी इसे छपवा कर इसे नो-प्राफिट-नो-लास पर उपलब्ध करवा सकता हूं , लेकिन मुझे इस का कुछ अनुभव नहीं है।

आज विचार आ रहा था कि इतनी सच्चाई से ये पोस्टें लिखी हुईं हैं और हर एक पोस्ट पर जो डेढ़-दो घंटे की मेहनत की है वह तभी सार्थक होगी जब ये सब खुले दिल से कही बातें आम आदमी तक भी तो पहुंचे ---जिसे न तो कंप्यूटर के बारे में ही पता है , न ही इंटरनेट का कुछ ज्ञान है लेकिन मुझे लगता है कि मेरे लेखन को पढ़ने का सब से उपयुक्त पात्र वही है।

तो, मैं क्या करूंगा---मैं यह देखूंगा कि मेरा यह सपना साकार हो---और मैं इसे साकार कर के ही रहूंगा और यह भी देखूंगा कि ये किताबें लगभग लागत-दाम (cost-price) पर ही आम आदमी तक पहुंचे क्योंकि दिल से निकली बात का कहां कोई दाम लिया जाता है। उस की तासीर कायम रखने के लिये उसे वैसे ही परोसा जाना ज़रूरी होता है।

आप सब की तरह, दोस्तो, मेरी भी ये पोस्टों सच्चाई से इतनी लबा-लब भरी हुई हैं कि कईं बार यकीन नहीं होता कि आखिर ये लिखी कैसे गईं। लेकिन लिखी कहां गईं ----बस, पता ही नहीं चला कि कब अपने आप मन की बातें निकल पर पोस्टों पर आ गईं। कईं बार तो अपनी पोस्टों में ही हमें इतनी सच्चाई की मिठास इतनी ज़्यादा लगती है कि हम ही इन्हें चख नहीं पाते ---कहने का भाव यह है कि कईं पोस्टें में इतना खुलापन आ जाताहै, इतनी सच्चाई , इतनी साफ़गोई कि समझ ही नहीं आता कि यह सब इतने खुलेपन से कैसे पब्लिक डोमैन में हम नें डाल दिया।

दोस्तों, आप सब की पोस्टों की तासीर भी बहुत गर्म है। तो यह समय है कि इसे गर्मा-गर्म ही आम आदमी को भी परोसा जाये।

मैं भी बहुत समय से इस के बारे में सोच रहा हूं और इस के बारे में ज़रूर कुछ करूंगा। अगर आप के पास भी कुछ सुझाव हों तो बतलाईयेगा, वरना अपना तो फंडा सीधा है कि अगर मस्तराम के नावल खरीदने वाले लोग मौजूद हैं तो अगर 5 या 10-12 रूपये में बिकने वाली किताब लोगों से सेहत की बातें करना चाह रही है तो वह भी बिक कर रहेगी। बाकी प्रभु इच्छा ।

और इस किताब को पढ़ कर अगर कोई बीड़ी पीने से पहले, दारू का पैग उंडेलने से पहले, जंक-फूड खाने से पहले, रैड-लाइट एरिया में जाने से पहले, कैज़ुएल सैक्स से पहले ----थोड़ा सा इस पाकेट-बुक की तरफ़ ध्यान कर लेगा तो मेरे प्रयास सफल हो जायेंगे।

और एक बात और भी है कि जहां से भी इस का प्रकाशन करवाऊंगा इस किताब का कोई भी अधिकार सुरक्षित कभी नहीं रखूंगा ----बिल्कुल कॉपी-लैफ्टेड----जितनी मरजी कापी कोई भी मारे और मुझे किसी तरह का क्रेडेट देने की भी कोई बिल्कुल ज़रूरत है ही नहीं । ठीक है, जो मन में आया , जो ठीक समझा लिख दिया ----उस में अपना आखिर बड़प्पन काहे का ?

शनिवार, 8 नवंबर 2008

बहुत ही ज़्यादा आम है मसूड़ों से खून आना

मसूड़ों से खून निकलना एक बहुत ही आम समस्या है और कोई जो भी मरीज़ इस समस्या से परेशान होता है उस की उम्र जितनी कम होती है मेरा प्रायरटी उसे एक-दम फिट करने की उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है क्योंकि मसूड़ों की सूजन की जितनी प्रारंभिक अवस्था में रोक दिया जाये उतना ही बढ़िया होता है।

वैसे तो मसूड़ों से खून आने के बीसियों कारण हैं लेकिन सब से अहम् एवं सब से महत्वपूर्ण कारण है –दांतों एवं मसूड़ों पर गंदगी जमा होने की वजह से मसूड़ों पर सूजन आ जाना जिस की वजह से मरीज़ के मसूड़ों से थोड़ा सा टच करने पर ही खून आने लगता है।

अकसर ऐसे मरीज़ आ कर कहते हैं कि जैसे ही वे ब्रुश करते हैं मसूड़ों से खून आने लगता है। कईं बार तो लोग इसी चक्कर में ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं और अंगुली से दांत साफ़ करने की कोशिश में अपने रोग को और बढ़ावा देते रहते हैं।

यह जो मैंने शुरू शुरू में लिखा कि जितनी मरीज़ की उम्र कम होती है मेरी उसे ठीक करने की उतनी ही ज़्यादा प्राथमिकता होती है। ऐसा इसलिये है क्योंकि प्रारंभिक अवस्था में यह मसूड़ों की सूजन पूरी तरह से रिवर्सिबल होती है अर्थात् इलाज करने से यह पूरी तरह से ठीक हो जाती है और अगर ब्रुश को ठीक ढंग से करना शुरू कर दिया जाये तो भविष्य में भी यह दोबारा होती नहीं ,लेकिन डैंटिस्ट के पास हर छःमहीने में एक बार तो चैक-अप करवा ही लेना चाहिये।

बच्चे इस समस्या के साथ कि उन्हें मसूड़ों से खून आता है काफी कम मेरे पास अभी तक आये हैं –कभी कभार कुछ दिनों के बाद एक –दो बच्चे आ ही जाते हैं और ये बच्चे अकसर 13-14 साल के ही होते हैं।

अगली उम्र है – कालेज के छात्र-छात्रायें----ये 19-20 की अवस्था है , बच्चे अपनी शकल-सूरत की तरफ़ कुछ ज़्यादा ही कांशियस से हो जाते हैं ( वैसे मैं भी कहां भूला ही अपने इन दिनों को जब बीसियों बार आइना देखा करता था और उतनी ही बार बालों में हाथ फेर कर .....!! ) ---और मसूड़ों से खून आये या नहीं , अगर उन्हें गंदगी सी जमा दिखती है, जिसे टारटर कहते हैं, तो वो डैंटिस्ट के पास क्लीनिंग के लिये आ ही जाते हैं.------उन के दांतों की स्केलिंग एवं पालिशिंग कर दी जाती है और ब्रुश करने का सही ढंग उन्हें सिखा दिया जाता है ताकि वे भविष्य में ऐसी किसी परेशानी से बचे रह सकें।

अगली स्टेज है अकसर शादी से पहले आने वालों की ---अर्थात् उन की समस्या है कि एक तो उन के मसूड़ों से खून आता है और दूसरा मुंह से बदबू आती है । इन सब का ट्रीटमैंट करना भी एक अच्छी खासी प्रायरटी ही होती है।

अगली स्टेज है शादी के बाद आने वालों की ----कुछ नवविवाहित जोड़े जब डैंटिस्ट के पास जाते हैं तो अधिकांश की एक ही समस्या होती है कि मुंह से बदबू आती है ----चैक अप करने के बाद वही समस्या निकलती है कि मसूड़ों की सूजन और दांतों एवं मसूड़ों पर जमा गंदगी। एक –दो सीटिंग्ज़ में ही पूरा इलाज हो जाता है और आगे के लिये इस तरह की प्राबल्म न हो, इस के संकेत भी दे दिये जाते हैं।

अगली बात करते हैं ---गर्भावस्था की ---इस स्टेज में बहुत ही महिलाओं को मसूड़ों से खून आने लगता है लेकिन वे समझती हैं कि सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा , इसलिये वे डैंटिस्ट के पास जाती नहीं हैं और बिना वजह अपने दांतों एवं मसूड़ों की तकलीफ़ को बढ़ावा दे डालती हैं।

बस ऐसे ही बहुत से लोग अकसर बिना किसी इलाज के चलते रहते हैं----इलाज कुछ नहीं, ऊपर से गुटखा, पान, तंबाकू-खैनी अपना कहर बरपाती रहती है ----वे लोग खुशनसीब होते हैं जो कि मसूड़ों की बीमारी को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ लेते हैं क्योंकि अकसर मैंने देखा है कि जो लोग डैंटिस्ट के पास चालीस-पैंतालीस या यूं कह लूं कि चालीस के आस-पास की उम्र में जाते हैं उन में यह रोग बढ़ चुका होता है ----मसूड़ों की सूजन अंदर जबड़े की हड्डी तक पहुंच ही चुकी होती है, मसूड़ों से पीप आने लगती है, दांत हिलने लगते हैं , दांत अपनी जगह से हिल जाते हैं, चबाने में दिक्कत आने लगती है, ठंडा-गर्म बहुत ज़्यादा लगने लगता है ----अकसर इस अवस्था में इलाज बहुत लंबा चलता है---मसूड़ों की सर्जरी भी करनी पड़ती है।

और इतना लंबा ट्रीटमैंट मैंने देखा है या तो 99 प्रतिशत (इच्छा तो हो रही है कि 99.9 प्रतिशत ही लिखूं)—अफोर्ड ही नहीं कर पाते –कारण कुछ भी हो- वे इस इलाज के लिये तैयार ही नहीं हो पाते और दूसरा कारण यह है कि इस इलाज के जो खास स्पैशलिस्ट होते हैं उन की संख्या भी बहुत कम है। वैसे तो सामान्य डैंटिस्ट भी इस तरह का इलाज करने में सक्षम होते हैं लेकिन पता नहीं मैंने देखा है कि मरीज़ ही तैयार नहीं होते ----बस, दांतों एवं मसूड़ों पर जमी हुई गंदगी को साफ कर दिया जाता है और शायद इस से मरीज़ के दांतों की उम्र थोड़ी बढ़ जाती होगी ----लेकिन जब तक इस तरह के पायरिया के मरीज़ों की नीचे से मसूड़ों के अंदर से पूरी तरह क्लीनिंग नहीं होती है, पूरा इलाज हो नहीं पाता ।

बस, बहुत से लोगों में यूं ही चलता रहता है, धीरे धीरे दांतों का उखड़वाने के लिये नंबर लगता है- एक के बाद एक ---और बाद में नकली डैंचर लगवा लिया जाता है।

यह पोस्ट लिखने का केवल एक ही उद्देश्य है कि हमें मसूड़ों से खून निकलने को कभी भी लाइटली नहीं लेना चाहिये और तुरंत इस का इलाज करवा लेना चाहिये ।और यकीन मानिये, दांतों की स्केलिंग से दांत न ही कमज़ोर पड़ते हैं, न ही हिलते हैं और न और कोई और नुकसान ही होता है-----केवल इस से फायदे ही फायदे होते हैं। इसलिये अभी भी समय है कि हम इन पुरातन भ्रांतियों से ऊपर उठ कर समय रहते अपना उचित इलाज करवा लिया करें ।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

क्या हाई-ब्लड-प्रैशर, शूगर एवं हार्ट-पेशेन्ट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?--भाग दो.

इस से पहली कड़ी में बातें हुईं थी हाई-ब्लड एवं शूगर के मरीज़ों के दांत उखड़वाने के डर के बारे में। आज देखते हैं कि हार्ट पेशेन्ट्स क्यों डरते हैं दांत उखड़वाने से ---क्या इस में कोई जोखिम इन्वाल्व है ?

सब से पहले तो यह बताना चाह रहा हूं कि हार्ट के पेशेन्ट्स अलग अलग तरह के होते हैं अर्थात् हार्ट की तकलीफ़ों की अलग अलग किस्में होती हैं और इन में डैंटिस्ट अलग अलग तरह की सावधानियां बरतते हैं।

सब से पहले तो हार्ट-पेशेन्ट्स को दिये जाने वाले टीके की बात करते हैं--- दांत उखड़वाने से पहले दिल के मरीज़ों को जो लिग्नोकेन( lignocaine) लोकल-अनसथैटिक का टीका दिया जाता है ---सुन्न करने के लिये—वह प्लेन टीका होता है –जिस में एडरिनेलीन( Adrenaline) नहीं होती। एडरिनेलीन रक्त की नाड़ियों में संकुचन पैदा करती है, और मरीज़ में पैल्पीटेशन( palpitations) पैदा कर सकती है इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स में ऐसे इंजैक्शन को इस्तेमाल किया जाता है जिस में यह नहीं होती।

दूसरी बात यह है कि कुछ हार्ट पेशेन्ट्स रक्त को पतले रखने के लिये एस्पिरिन की टेबलेट लगातार ले रहे होते हैं--- ये सब बातें या तो मरीज़ हमें स्वयं ही बतला देते हैं वरना हमें खुद पूछनी होती हैं। अब ऐसे मरीज़ों को यह बहुत डर लगता है कि खून पतले करने वाली एस्पिरिन की वजह से दांत उखड़वाने के बाद तो उन का रक्त तो जमेगा ही नहीं।

अकसर ये लोग एस्पिरिन की आधी गोली ही ले रहे होते हैं ----तो मरीज़ का ब्लीडिंग टाइम एवं क्लाटिंग टाइम ( bleeding time and clotting time) --- अर्थात् मरीज़ का रक्त एक नीडल से प्रिक करने के बाद कितने समय में बंद होता है और फिर कितने समय में उस जगह पर ब्लड-क्लाट ( blood-clot) बन जाता है ---इस के लिये एक बहुत ही साधारण सा ब्लड-टैस्ट है जिसे करवा लिया जाता है। और मेरा अनुभव यह रहा है कि ऐसे मरीज़ों में लगभग हमेशा( पता नहीं मैंने लगभग क्यों लिखा है, क्योंकि मैंने तो हमेशा ही इसे लिमट्स में ही देखा है) ....ही इसे लिमट्स में ही पाया है।

वैसे कुछ इस तरह की सिफारिशें भी हैं कि सर्जरी से पहले मरीज़ की एस्पिरिन कुछ दो-चार दिनों के लिये बंद कर दी जाये। लेकिन वह मेजर-सर्जरी की बात होगी –मैंने दांत उखाड़ने के लिये कभी भी इस की ज़रूरत नहीं समझी क्योंकि एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों में भी मैंने दांत उखड़वाने के बाद रक्त बंद होने या उस का क्लॉट बनने में कोई विघ्न पड़ता देखा नहीं है। जो मरीज़ मुझे स्वयं ही इस के बारे में पूछता है कि क्या उसे एस्पिरिन दो-तीन दिन के बंद करनी होगी या वह कहता है कि उस के फिजिशियन ने उसे ऐसा करने को कहा है तो मैं उसे ज़रूर इसे कुछ दिनों के लिये बंद करने की सलाह दे देता हूं----ताकि वह संतुष्ट रहे ---लेकिन जहां तक मैंने देखा है ऐसे मरीज़ों में भी कोई तकलीफ़ होती मुझे तो दिखी नहीं।

कुछ क्ल्यूज़ (clues) हम लोग एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों से ऐसे भी ले लेते हैं कि अगर कहीं कोई कट-वट लग जाता है या शेव करते वक्त मुंह पर कट लग जाता है तो क्या रक्त नार्मल तरीके से आसानी से बंद हो जाता है ---इस का जवाब हमेशा ही हां में मिलता है।

लेकिन एक हार्ट प्राब्लम होती है जिस में मरीज़ रक्त पतला रखने के लिये ओरल-एंटीकोएगुलेंट्स (oral anticoagulants) ले रहा होता है जैसे कि टेबलेट एटिट्रोम (Tablet Acitrom) --- जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं उन में बहुत ही एहतियात की ज़रूरत होती है—वैसे तो जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं वे स्वयं ही बता देते हैं कि रक्त पतला करने के लिये वे इसे अपने फिजिशियन की सलाह से ले रहे हैं लेकिन कुछ केसों में मैंने देखा है कि कईं बार कुछ कम पढ़े-लिखे लोगों को इस का पता ही नहीं होता और वे किसी डैंटिस्ट के पास पहुंच जाते हैं। और डैंटिस्ट को इस दवाई का पता केवल तब ही चल सकता है अगर वह मरीज़ की फिजिशियन वाली प्रैसक्रिपशन देखता है। इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स के साथ थोड़ी पेशेन्स की ज़रूरत रहती है---जल्दबाजी की गुंजाइश नहीं होती। और कुछ नहीं तो अगर मरीज़ को हम कह दें कि जो दवाईयां आप अपनी हार्ट-प्राब्लम के लिये ले रहे हैं उन्हें एक बार मुझे दिखा दें। ऐसा करने से भी पता चल जाता है कि मरीज़ का क्या क्या चल रहा है।

हां, तो अगर हार्ट पेशेन्ट टेबलेट एसीट्रोम ले रहा है और दांत उखड़वाने के लिये हमारे पास आया है तो उस का एक विशेष तरह का टैस्ट करवाया जाता है ---प्रोथ्रोंबिन टैस्ट – prothrombin time एवं आईएनआर ( INR – International normalized ratio) – और इस टैस्ट के लिये अथवा टैस्ट के बाद मरीज़ को उस के फिजिशियन अथवा कार्डियोलॉजिस्ट के पास रेफर करना ही होता है ---उस की स्वीकृति के लिये कि क्या इस मरीज़ को डैंटल एक्सट्रेक्शन के लिये लिया जा सकता है---और फिर आगे सारा काम उस की सलाह से ही चलता है।

ओरल –एंटीकोएग्यूलैंट्स ले रहे मरीज़ों का यह टैस्ट तो वैसे भी फिजिशियन समय समय पर करवाते रहते हैं –यह देखने के लिये सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है ---उन्हें यह भी आगाह किया होता है कि अगर आप के पेशाब में आप को रक्त दिखे या मसूड़ों से अपने आप ही रक्त बहने लगे तो तुरंत फिजिशियन से मिलें----वह फिर इन दवाईयों की डोज़ को एडजस्ट करता है। वैसे तो टेबलेट एसीट्रोम जैसी दवाईयां ले रहे मरीज़ों के लिये सलाह यही होती है कि उन्हें अपना दांत किसी बहुत अनुभवी डैंटिस्ट के पास जा कर ही उखड़वाना चाहिये ---- इस से भी बेहतर यह होगा कि किसी टीचिंग हास्पीटल में जाकर ही यह काम करवाया जाये ---वहां पर सारे स्पैशलिस्ट मौजूद होते हैं और सारी बातों का वे बखूबी ध्यान कर लेते हैं।

तो हम ने यह देखा कि डैंटिस्ट के पास जा कर अपनी सारी मैडीकल हिस्ट्री बताने वाली बात कितनी ज़रूरी है। एक और हार्ट की तकलीफ़ होती है ----रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease ---इसे आम तौर पर मैडीकल भाषा में शॉट में RHD) भी कह दिया जाता है ----इस के साथ वैलवुलर हार्ट डिसीज़ होती है ---( valvular heart disease) अर्थात् मरीज़ के हार्ट के वाल्वज़ में कुछ तकलीफ़ होती है ---ऐसे मरीज़ों में भी दांत निकलवाने से पहले एक ऐंटीबायोटिक हमें कुछ समय पहले देना होता है --- ताकि एक खतरनाक सी तकलीफ़ –सब-एक्यूट बैकटीरियल एंडोकार्डाईटिस – Sub-acute bacterial endocarditis—SABE से मरीज़ का बचाव हो सके।

वैसे तो बातें ये सब बहुत बड़ी बड़ी लगती हैं----शायद थोड़ा खौफ़ भी पैदा करती होंगी ---लेकिन मेरी बात सुनिये की यह सब जितना कंप्लीकेट्ड लिखने में लगता है , उतना वास्तव में है नहीं। बस, बात केवल इतनी सी है कि बिल्कुल मस्ती से अपने डैंटिस्ट के पास जायें----इस से उसे भी अपना काम करने में बहुत आसानी होती है---मैं कईं बार मरीज़ों को कहता हूं कि डरे हुये मरीज़ का काम करते हुये तो हाथ ही नहीं चलता, वो बात अलग है कि यह सब कहां मरीज़ के भी हाथ में होता है। इसलिये हमें अगर कभी कभार लगता है कि मरीज़ बहुत ही टेंशन करने वाली प्रवृत्ति वाला है तो हमें उसे कभी-कभार बहुत रेयरली कोई टैबलेट भी देनी होती है। लेकिन जैसा कि मैं अकसर बार बार कहता रहता हूं कि मरीज़ का अपने डैंटिस्ट पर विश्वास और डैंटिस्ट द्वारा कहे गये चंद प्यार एवं सहानुभूति भरे शब्द किसी जादू से कम काम नहीं करते ----शायद इन्हें(विभिन्न कारणों की वजह से) काफी बार ट्राई ही नहीं किया जाता और टेबलेट पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया जाता है।

चंद शब्द उन मरीज़ों के बारे में जिन को हाल ही में हार्ट-अटैक हुआ हो ---ऐसे मरीज़ों में सामान्यतयः डेढ़-महीने तक दांत उखाड़ा नहीं जाता, लेकिन वह दूसरी तरह का नॉन-इनवेज़िव डैंटल ट्रीटमैंट करवा सकते हैं ---दांतों की तकलीफ़ के लिये दवाईयों से ही काम चला सकते हैं ---वैसे आम तौर पर देखा गया है कि हार्ट-अटैक के डेढ़-दो महीने बीत जाने से पहले वो डैंटिस्ट के पास दांत उखड़वाने आते भी नहीं हैं----- मेरे पास भी अभी तक शायद दो-चार केस ही ऐसे आये होंगे जिन का टाइम-पास हमें खाने वाली दवाईयां या दांतों एवं मसूड़ों पर लगाने वाली दवाईयां देकर ही किया था।

लगता है कि अब बस करूं ---बहुत ही महत्वपूर्ण तो सारी बातें लगता है हो ही गई हैं इस विषय के बारे में , कोई और बाद में याद आई तो फिर कर लेंगे। हां, अगर आप का कोई प्रश्न हो तो आप का प्रश्न पूछने हेतु स्वागत है।
।।शुभकामनायें।।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

क्या हाई- ब्लड-प्रैशर, शूगर और हार्ट पेशेंट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?....भाग 1

आज सुबह सुबह मेरा पहला -दूसरा मरीज़ ही वह था जिस के मुंह के ऊपर सूजन आई हुई थी –दांत की सड़न की वजह से – और मेरे कुछ भी पूछने से पहले ही उस ने कहना शुरू कर दिया कि कल बस गलती से उड़द की दाल खा ली और यह बखेड़ा खड़ा हो गया है। मैंने उसे समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, आप कुछ भी खायें --- इस का उड़द-वड़द से कोई संबंध नहीं है।

वैसे अब मैं लिखते लिखते सोच रहा हूं कि हमें हमारे कालेजों में ये सब बातें पढ़ाई नहीं गईं, इसलिये हम तुरंत ही इन सब बातों को सिरे से नकार देते हैं, लेकिन कहीं इस में क्या कोई सच्चाई है, यह जानने की मेरी भी बहुत उत्सुकता है ---लेकिन मेरा अनुभव तो यही कहता है कि ऐसा कोई संबंध है नहीं।

ऐसी बहुत सी बातें हैं जो कि लोगों के मन में घर कर गई हैं और जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मन में लगता है ट्रांसफर होती रहती हैं। ऐसी ही है एक जबरदस्त भ्रांति जिस ने लाखों लोगों को उलझा कर रखा हुआ है ---वह यह है कि बहुत से लोग यही समझते हैं कि हाई ब्लड-प्रैशर वाले मरीज का या हार्ट के मरीज़ के लिये दांत उखड़वाना बेहद जोखिम वाला काम है-----लोग सोच सकते हैं कि ऐसा करने से कुछ भी हो सकता है, हो सकता है कि रक्त के बंद न होने से बंदे की जान ही ना चली जाये, बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं और बिना वजह अपने इलाज को स्थगित करते रहते हैं।

और जहां तक शूगर के मरीजों की बात है, क्या कहूं----- किसी सड़े-गले दांत को उखड़वाने की बात करते ही, कह देते हैं कि मुझे तो शूगर है, मैं कैसे दांत उखवड़ा सकता हूं। फिर कहते हैं कि अगर मैंने दांत उखड़वा लिया तो मेरा तो जख्म ही नहीं भरेगा। लेकिन मुझे कईं बार लगता है कि इस तरह की भ्रांतियां फैलाने में नीम-हकीम, झोला-छाप डैंटिस्टों का बहुत बड़ा रोल है ----बस कुछ भी कह कर मरीज़ को इतना डरा देते हैं कि वह दांत उखड़वाने के नाम से ही कांपने लगता है।

मुझे प्रोफैशन में 25 साल हो गये हैं, साल में लगभग दो हज़ार के करीब दांत उखाड़ने का स्कोर है, तो अनुमान है कि चालीस पचास हज़ार दांत तो अब तक उखाड़ ही चुका हूं। और इस पचास हज़ार के स्कोर में सब तरह की बीमारियों से जूझ रहे लोग शामिल रहे हैं----हाई ब्लड प्रैशर, शूगर, कैंसर, हार्ट प्राब्लम, और भी सब तरह की शारीरिक बीमारियां ----यह सब लिखना इस लिये ज़रूरी लग रहा है कि पाठकों को मेरी बात पर विश्वास करने में आसानी हो---उन्हें यह ना लगे कि मैं कोई किताबी बात कर रहा हूं। इसलिये इसे लिखने को आप कृपया अन्यथा न लें। तो, मेरा क्या अनुभव रहा ----मेरा अनुभव यह है कि मरीज़ से अच्छे से बात करना और सारी बात को बहुत ही प्रेम से समझाना इस कायनात की सब से बड़ी दवा है।

मैंने आज तक ऐसा शूगर का एक मरीज़ भी ऐसा नहीं देखा जिस ने दांत उखड़वाया हो और जिस का जख्म भरा हो-----यकीन कर लो, दोस्तो, बिलकुल सच लिख रहा हूं। वास्तव में इस में मेरा रती भर भी बड़प्पन नहीं है, कुदरत ही अपने आप में इतनी ग्रेट है कि थोड़ी सी सावधानियों के साथ सब कुछ अपने आप दुरुस्त कर देती है----ऐसे ही तो नहीं ना उसे हम लोग इसे मदर नेचर कहते फिरते।

थोड़ी बातें शूगर के मरीज़ के बारे में और करनी होगीं--- निसंदेह किसी भी शूगर के मरीज़ को अपना कोई भी सड़ा-गला दांत जिस में पस पड़ी है या किसी अन्य कारण की वजह से डैंटिस्ट ने जिसे उखड़वाने की सलाह दी हुई है, उसे उखड़वा कर छुट्टी करनी चाहिये।

अगर शूगर कंट्रोल में है तो ठीक है , वरना कईं कईं दिन तक शूगर के कंट्रोल होने की प्रतीक्षा करना कि जब शूगर बिलकुल नार्मल हो जायेगी तो देखेंगे ----तब तक ऐंटिबायोटिक दवाईयां और पेन-किल्लर्ज़ लेते रहने से क्या फायदा ---उन के अपने ढ़ेरों साईड-इफैक्ट्स हैं। इसलिये मैंने तो कभी शूगर के मरीज़ों को पोस्ट-पोन शूगर की वजह से नहीं किया -----कुछ केसों में दो-तीन दिन पहले ऐंटीबायोटिक दवाईयां शुरू करनी होती हैं,( बहुत कम केसों में) ---और मरीज़ को कहा जाता है कि आप अपने रूटीन के हिसाब से सुबह नाश्ता करें, उस के बाद अपनी शूगर की दवाई या इंजैक्शन ले कर डैंटल क्लिनिक में जायें-----वह सुबह वाला टाइम इन मरीज़ों के लिये बहुत श्रेष्ट होता है। न ही मरीज़ को कुछ पता चलता है और न ही डाक्टर को..........everything happens so smoothly and thereafter healing of the wound is also so uneventful. बस, मुंह में मौजूद जख्म को साफ-सुथरा रखने के लिये बहुत साधारण सी सावधानियां उसे बता दी जाती हैं। इसलिये मैंने तो कभी भी किसी भी शूगर के मरीज़ को यह आभास होने ही नहीं दिया कि शूगर का रोग कोई ऐसा हौआ है जिस में दांत उखाड़ने का मतलब है कि मुसीबतें मोल लेना------दरअसल देखा जाये तो ऐसा है भी कुछ नहीं। लेकिन शूगर के मरीज़ का दांत उखाड़ने से पहले उस की ब्लड-रिपोर्ट और अन्य टैस्ट और उस की जनरल हैल्थ जरूर देख ज़रूर लेता हूं - जो मुझे लगभग हमेशा ही हरी झंडी दिखाती है। Thank God !!

अब आते हैं ----हाई ब्लड-प्रैशर की तरफ़ ----सब से बड़ा डर लोगों को लगता है कि दांत उखवाड़ने के बाद खून बंद नहीं होगा। इस के बारे में यह ध्यान रखिये कि वैसे तो अकसर मरीज़ों को अपने ब्लड-प्रैशर के बारे में पता ही होता है लेकिन अगर किसी को पता नहीं है तो उस का चैक करवा लिया जाता है और अगर हाई-ब्लड-प्रैशर एसटैबलिश्ड हो जाता है तो फिजिशियन की सलाह अनुसार उस का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होने पर दांत बिना किसी परेशानी के निकाल दिया जाता है और यह पूरी तरह से सुरक्षित प्रोसिज़र है। कंट्रोल का मतलब दांत उखड़वाने के लिये तो यहां यहीं लें कि हो सकता है ब्लड-प्रैशर नार्मल रेंज से थोड़ा ज़्यादा ही हो, लेकिन मैंने तो अपनी प्रैक्टिस में इन मरीजों को भी बिलकुल बिना किसी तकलीफ़ के दांत उखड़वाने के बाद बिलकुल ठीक होते देखा है।

यहां मुझे हाई-ब्लड-प्रैशर के दो-तीन मरीज़ों के साथ दांत उखाड़ते समय अपने अनुभव याद आ रहे हैं----लेकिन उन्हें अगली पोस्ट में डालता हूं क्योंकि यह पोस्ट 1000शब्दों को पार कर चुकी है। और हार्ट के मरीज़ों की बात अगली पोस्ट में ही करेंगे।

बहुत बहुत शुभकामनायें। मैडीकल साईंस कईं बार अनसरटन भी हो सकती है --इसलिये आशीर्वाद दें कि ऐसे ही बिना किसी तरह की कंप्लीकेशन के मरीज़ो की सेवा में लगा रहूं और उन के विश्वास पर हमेशा खरा उतरता रहूं।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

ऐसा क्या होता है कुछ लोगों में.....

फॉदर टोनी कुछ साल पहले सैंट मैरी बम्बई के प्रिंसीपल हुआ करते थे ---शायद आज कल भी वही हों, मैं कुछ कह नहीं सकता—लेकिन जब मेरे बेटे का वहां एडमिशन होना था तो हम केवल एक बार उन से मिले थे। उन की शख्शियत इतनी कमाल की ----इतनी नम्रता कि मुझे उसे ब्यां करने के लिये शब्द ही नहीं मिल रहे। उन्होंने हमारी बात बहुत ही ध्यान से सुनी और फिर रास्ता भी बता दिया।

मुझे फॉदर टोनी की याद अभी अभी इस लिये आ गई कि मुझे अभी बेटे का प्राईमरी का एक सर्टिफिकेट दिखा जिस पर उन के साइन हुए हुये थे। बस, यही सोच रहा हूं कि कुछ लोगों में कुछ तो बात होती है कि उन के साथ केवल चंद लम्हों की एक मुलाकात ता-उम्र के लिये अमिट छाप छोड़ जाती है। छाप ही नहीं छोड़ जाती, बल्कि बहुत हद तक प्रेरित भी कर जाती है कि हमें खुद भी किस तरह बिहेव करना चाहिये। I think this is the greatest education that we can pass on ---soft skills.

एक बात और भी है ना कि जब हम लोग ऐसे लोगों के बारे में सोचना शुरू करें जिन्हों से हम कभी प्रभावित हुये थे तो भई लिस्ट तो बहुत लंबी चौड़ी हो जाती है। हम कैसे ऐसे किसी भी बंदे की महानता के कायल हुये बिना रह सकते हैं जिस की किसी न किसी बात ने हमें कभी छुआ होगा। चाहे वह किसी हास्पीटल में वार्ड-ब्वाय हो, चाहे वह ड्रैसर हो, चाहे कोई आप का परिचित हो, चाहे कोई टीचर हो, चाहे कोई रिश्तेदार---------पता नहीं कुछ लोगों का बात करने का ढंग ही इतना बढ़िया होता है कि वे हमेशा के लिये हमें अपना कायल कर देते हैं। और हां, इस ढंग में कहीं भी रती भर भी नकलीपन अगर होगा तो वह भी दिख जायेगा।

कुछ लोगों की मुस्कान इतनी बढ़िया होती है , वे इतने genuine ढंग से पेश आते हैं कि आदमी अपनी सारी तकलीफ़ें भूल जाता है। और यह तो मैडीकल फील्ड में भी बहुत दिखता है।

मेरा अनुभव ने और मेरी आब्ज़र्वेशन ने मुझे यह सिखाया है कि अच्छा प्रोफैशनल होने के लिये अपने प्रोफैशन का ज्ञान होना तो ज़रूरी है ही , साथ में इन सब बातों का सलीका भी बेहद ज़रूरी है। वरना, सारे ज्ञान, सारे अनुभवों का कचरा हो जाता है।

अकसर हम लोग देखते हैं कि ज़रूरी नहीं कि वही डाक्टर अपने प्रोफैशन में सफल होते हैं जो बहुत मंजे हुये होते हैं----ठीक है , मंजा हुआ है कोई तो बहुत बढ़िया बात है लेकिन इस के साथ अगर आदमी इन दूसरी स्किल्स में भी निपुण है तो ही बात बनती है।

और नकलीपन का तो कोई स्कोप है ही नहीं----जिसे आदमी को हम कम पढ़ा-लिखा समझ कर या अनपढ़ जान कर write-off करने की कोशिश करते हैं वह भी इतना तो इंटैलीजैंट होता ही है कि हमारी मूक-भाषा ( non-verbal communication), हमारी बॉडी-लैंग्वेज को अच्छी तरह से समझ सके.......इसलिये कहीं भी दिखावे का तो कोई स्कोप है ही नहीं। और वैसे भी दिखावा एक दिन चलेगा—दो दिन चलेगा------लेकिन काठ की हांडी कितने दिन चूल्हे पर चड़ सकती है !!

हम लोग ने इतनी इतनी पोथियां पढ़ लीं, इतनी इतनी डिग्रीयां हासिल कर लीं, मेरे जैसे अनाड़ी इंटरनेट पर भी अपने अल्प ( अल्प ही नहीं, तुच्छ!!) ज्ञान की गगरी छलकाने से बाज नहीं आते, लेकिन हम किसी भी पेशे में हैं और जब कोई आम आदमी हमारे पास किसी काम के लिये आता है हम उस से कैसे व्यवहार करते हैं----यह केवल हम ही जानते हैं------कमबख्त कोई टैस्ट नहीं बना, कोई ऐसा गैजट नहीं बना, कोई ऐसा बॉस नहीं बना जो कि इस एरिया में अपने अधीन काम करने वालों का मूल्यांकन कर सके ------केवल हमारी अंतर्रात्मा ही है जो सब कुछ बिल्कुल सच जानती है। हमें उसे ही धोखा नहीं दे सकता। बात केवल इतनी सी है कि हमने जितना भी कुछ पढ़ा लिखा है ---वह तो हमारे किसी आम आदमी के साथ दो-मिनट के इंटरएक्शन के दौरान ही सामने आ जाता है।

मैं ऐसा समझता हूं कि हमें जितना ज़्यादा हो सके किसी भी आम आदमी को पूरा महत्व देना चाहिये। मेरी सोच मेरे कान खींच खींच कर मुझे यह कभी भूलने नहीं देती कि यार, खास को सब महत्व देते ही हैं, किसी आम बंदे से खास की तरह पेश आओ तो जानें।

कुछ साल पहले मैं यह बहुत सोचा करता था कि यार, सुबह उठो---हास्पीटल जाओ, वही रूटीन, वही बातें, वही काम। लेकिन मैंने फिर सोचना शुरू किया कि सब कुछ बाकी तो ठीक है वही है लेकिन इस हास्पीटल सैटिंग में भी एक सैंट्रल करैक्टर तो बिलकुल नया है -----मरीज़ रोज़ाना नये हैं......तो फिर क्यों न हो हमारा व्यवहार भी हर आने वाले से तरो-ताज़ा, उत्साह से भरा हुआ-----एक मरीज़ तो चंद मिनटों के लिये ही डाक्टर के पास आता है लेकिन इसी दौरान वह एक इंपरैशन बना लेता है।

किसी बैंक में जायें ----बिना आंख ऊपर उठाये ही स्टाफ एक काउंटर से दूसरे ---दूसरे से पांचवे की तरफ़ रैफर करते रहते हैं.....लेकिन अचानक एक महान आत्मा दिखती है जो कि एक अनपढ़ देहाती को दो-मिनट लगा के कुछ समझा रही होती है-----यही लाइफ है, बाकी कुछ नहीं .........
कुछ साल पहले एक जगह पढा था .....
When you are good to others,
You are best to yourself. !!

हम लोग कहीं भी सफर कर रहे हैं तो बहुत ज़्यादा चांस हैं कि हम लोग अपने सहयात्रीयों को दोबारा जिंदगी में दोबारा नहीं मिलेंगे। अगर हमें यह अवेयरनैस आ जाये तो कैसे हम लोग हर दूसरे बंदे के साथ चार-इंच की सीट के लिये नोक-झोंक कर सकते हैं या कैसे किसी को देखते ही थोड़ा और चौड़ा हो कर बैठने की कोशिश भी कर सकते हैं।

पता नहीं आज पोस्ट लिखनी शुरू तो कर दी लेकिन कोई अजैंडा था नहीं , वैसे ब्लागिंग है भी तो यही कि लिख कर हल्का हो लें, और क्या । एक बात तो लिखना भूल ही गया कि कईं बार किसी पोस्ट पर ऐसा कमैंट मिलता है कि वो हमेशा हमेशा के लिये याद रह जाता है, हमेशा के लिये कुछ नया, कुछ बढ़िया लिखने के लिये पुश करता रहता है।
ज़िंदगी का कोई भी पहलू ले लें, कोई भी क्षेत्र हो, आफीसर हैं, चपरासी हैं, सेठ हैं, खोमचे-वाले हैं, शायद कोई खास फर्क इस से पड़ता नहीं है – अगर हम लोगों ने सब के साथ बहुत ही बढ़िया ढंग से पेश आने पर मास्टरी कर ली है तो है बात ठीक, वरना तो बस .......बी.ए किया है एम ए किया ...लगता है सब कुछ ऐवें किया ….हाल चाल ठीक ठाक है !!!

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

बडे़ हास्पीटलों के ये हैल्थ चैक-अप प्लान

आंखों का चैक अप इतने महीने बाद, दांतों का इतने महीने बाद, प्रोस्टेट का इतने अरसे बाद, कोलैस्ट्रोल एवं लिपिड प्रोफाईल इतने समय के बाद, ईसीजी कितने अरसे बाद, महिलाओं में स्त्री-रोग विशेषज्ञ द्वारा फलां फलां नियमित चैक-अप, मैमोग्राफी कब और पैप-स्मियर कब, रक्त की पूरी जांच, यूरिन की पूरी जांच, कुछ ब्लड-मार्कर्स् की तफतीश, छाती का एक्स-रे, पेट का अल्ट्रासाउंड ( ultrasound examination of Abdomen), 50 वर्ष के बाद गुदा-मार्ग का नियमित परीक्षण, थायरायड चैक-अप एवं स्कैन, ओसटियोपोरोसिस के लिये स्क्रीनिंग ............................मेरी तरह आप भी बोर हो गये ना पड़ते पड़ते ....लेकिन यह लिस्ट अभी अभी बिलकुल आधी अधूरी है ....बिलकुल पूरी नहीं है – जो इस समय में ध्यान में आया लिख दिया –बहुत से चैक-अप के बारे में तो मैं इस समय अवश्य भूल रहा हूं।

इस लंबी चौड़ी लेकिन अभी आधी अधूरी लिस्ट को यहां डालने का मेरा उद्देश्य केवल यही है कि इस बात को रेखांकित किया जा सके कि अपने आप ये सब टैस्ट अलग अलग जगह जा कर करवाने वाला काम अच्छा खासा सिरदर्दी वाला हो गया। पहले एक एक स्पैशलिस्ट से अपवायंटमैंट लें, फिर भी पता नहीं कितने दिन लग जायेंगे ये सब जांच करवाने में और चूंकि अब तो इस तरह की जांच कुछ उम्र के बाद नियमित तौर पर ही करवाने की सलाह दी जा रही है तो ऐसे में तो मामला और भी सिरदर्दी वाला ही लगता है।

अपने आप ही विभिन्न स्पैशलिस्टों के पास जाकर समय ज़्यादा लगेगा, खर्च भी शायद ज़्यादा ही बैठेगा, और शायद आप पूरे सिस्टेमैटिक तरीके से सभी प्रकार की जांच करवा पाएं भी या ना –इस की कोई गारंटी नहीं--- शायद, आप किसी विशेष जांच को बिना करवाये ही छोड़ दें जो कि आप की उम्र एवं शारीरिक स्थिति के लिये बहुत अहम् हो----तो ये सब प्राबल्मज़ तो हैं ही अपने आप इस फील्ड में कूदने के।

तो अब प्रश्न उठता है कि ऐसे में क्या करें ?—सब कुछ उस नीली छतड़ी वाले छोड़ कर बेफिक्री की रजाई ओड़ कर लंबी तान लें। नहीं, यह भी आज की तारीख में संभव नहीं है- मैडीकल डायग्नोसिस में इतनी ज़्यादा तरक्की हो चुकी है---सारे विश्व के लिये यही मंगल-कामना है कि जब तक भी जिंदगी हो, सब लोग उसे भरपूर जियें------इसलिये ये रूटीन चैक-अप तो ज़रूरी हैं ही , वो बात अलग है कि सुप्रीम शक्ति तो यह सब कुछ कंट्रोल कर ही रही है।

मैंने नोटिस किया है कि कुछ अच्छे, बड़े , प्राईवेट हास्पीटलों में हैल्थ-चैकअप प्लान होते हैं-----पूरा एक पैकेज होता है उम्र के हिसाब से, ये चैकअप करवाने वाला पुरूष है या स्त्री, चैक-अप करवाने की जीवन-शैली कैसी है, उस की सेहत कैसी है ----मेरे विचार में एक ही छत के नीचे वे सारे स्पैशलिस्टों से जांच करवा देते हैं, सभी टैस्ट करवा देते हैं, और सभी तरह की जांच करवा देते हैं और जिस किसी एरिया में उन्हें कुछ गड़बड़ी महसूस होती है उस अंग की अथवा एरिया की पूरी डिटेल में जांच की जाती है। इस तरह की जांच तो नियमित अपने उम्र और सेहत के अनुसार करवाते ही रहना चाहिये।

इसे तो एक तरह से पीरियोडिक ओवर-हालिंग ही समझ लेना चाहिये- हम अपने स्कूटर और कार को इतने इतने किलोमीटर चलाने के बाद ले कर जाते हैं ना मैकेनिक इस्लाम भाई के पास ---- जा कर पहले उस से अपवायंटमैंट लेते हैं----तो जब अपनी सेहत की बात आये तो किसी तरह का समझौता क्यों ?

जिस तरह के वातावरण में हम लोग सांस ले रहे हैं, जैसा पानी पी रहे हैं , जिस तरह का खाना खा रहे हैं, सब कुछ कीटनाशकों एवं रासायनों से लैस---------इसलिये नियमित जांच के इलावा कोई रास्ता है ही नहीं। और बेहतर तो यही है कि किसी अच्छे हास्पीटल के हैल्थ-चैक अप पैकेज़ के अंतर्गत ही यह सब कुछ करवा के फारिग हो जाया जाये। नहीं, नहीं .....इस सिलसिले में कुछ महंगा नहीं है .......आप की सेहत अनमोल है.......हमारे तो गुरू-पीर-पैगंबर ही कह रहे हैं---------पहला सुख निरोगी काया !!!

और जहां तक सरकारी हास्पीटलों का सवाल है, मैं सोचता हूं कि इन में भी इस तरह के पैकेज शुरू किये जाने चाहिये ताकि जनता-जनार्दन की भी बचाव की तरफ़ प्रवृत्ति पैदा हो ---और वैसे भी बात वही मन को लगती है जो कि लाखों-करोड़ों लोग अपनी लाइफ में उतार सकें क्योंकि एक आउँस बचाव एक पाउंड इलाज से कईं गुणा ज़्यादा बेहतर है ----An ounce of prevention is better than a pound of treatment.

रविवार, 2 नवंबर 2008

क्या ब्रेसेज़ से बचा जा सकता है ?


इस प्रश्न का जवाब ढूंढने से पहले कुछ बातें करते हैं। तो, सब से पहले तो जब मैं किसी 18-20 साल के युवक अथवा युवती को देखता हूं जिसके दांत टेढ़े-मेढ़े होते हैं तो मुझे बहुत दुःख होता है क्योंकि बहुत बार तो उन के दांत देखने से ही पता चल जाता है कि उन के लंबे समय तक इन ब्रेसेज़ के चक्कर में पड़ना पड़ेगा, बार-बार आर्थोडोंटिस्ट के क्लीनिक के चक्कर काटने पड़ेगे।

डैंटिस्ट्री के प्रोफैशन में पच्चीस साल बिताने के बावजूद भी कभी मैं इन ब्रेसिस के इलाज से बहुत ज़्यादा इम्प्रैस नहीं हो पाया। क्या यह इलाज कारगर नहीं है ?—नहीं, नहीं , ऐसी कोई बात नहीं है, बस केवल इतनी सी बात है कि यह काफी महंगा इलाज है। इस में इस्तेमाल होने वाले मैटीरियल्ज़ काफी महंगे हैं, इस का इलाज आर्थोडोंटिस्ट विशेषज्ञ द्वारा ही हो पाता है – इन सब कारणों की वजह से यह काफी महंगा इलाज है और मरीज़ को लंबे समय तक डाक्टर के पास नियमित रूप से जाना पड़ता है। इसलिये मैंने जो कुछ खास इम्प्रैस न होने वाली बात कही है उस का कारण भी केवल यही है कि यह इलाज आम आदमी की पहुंच के बहुत ज़्यादा बाहर है और यह केवल मेरी व्यक्तिगत परसैप्शन है।

वैसे तो कुछ झोला-छाप डाक्टर भी दांत सीधे करने का पूरा ढोल पीटते रहते हैं लेकिन मैं अपने मरीज़ों को बार बार आगाह करता रहता हूं कि या तो आप टेढ़े-मेढ़े दांतों के लिये कुछ भी इलाज करवाओ नहीं ----अगर किसी विशेषज्ञ से इलाज करवाना अफोर्ड कर सकते हैं तो ही करिये- वरना, ये नीम-हकीम पता नहीं कौन कौन से गलत तरीके अपना कर दांतों को थोड़ा सरका तो देते हैं लेकिन दांतों की सेहत की पूरी धज्जियां उड़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। दो-चार हज़ार रूपया भी ये मरीज़ों को बातें में उलझा कर ले लेते हैं----अब मरीज़ क्या जाने कौन सच्चा है कौन झूठा !!

आज कल टेढ़े-मेढ़े दांतों की समस्या बहुत आम हो गई है। लेकिन आम तौर पर मां बाप बच्चों को बहुत लेट ले कर आते हैं। इस का कारण यह है कि हमारे यहां पर दंत-चिकित्सक के पास नियमित तौर पर छः महीने के बाद जाकर चैक-अप करवाने का कंसैप्ट ही नहीं है।

कल मेरे पास एक 23 वर्ष की युवती आई जिस की दो महीने में शादी थी –शकल-सूरत अच्छी भली थी लेकिन उस की प्राब्लम थी कि जब वह हंसती है तो साइड के दो दांत बहुत भद्दे से दिखते हैं। लेकिन इस तरह की तकलीफ़ को बिना ब्रेसिस के ठीक किया ही नहीं जा सकता। इस उम्र की युवतियां एवं युवक तो इन टेढ़े-मेढ़े दांतों से बहुत परेशान होते हैं। वे कईं तरह के कंपलैक्स के शिकार हो जाते हैं—अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं। हंसना तो लगभग भूल ही जाते हैं---बस सब जगह पीछे ही पीछे रहते हैं।

और मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि अधिकांश लोग इस देश में इतनी महंगी ट्रीटमैंट अफोर्ड भी नहीं कर सकते--- 15-20 हज़ार रूपये एक आम परिवार के लिये दांतों को सीधा करवाने के लिये खर्च करने काफी होते हैं। वैसे तो ब्रेसेस के इलावा तारें लगवा कर ( removable orthodontic appliance) भी काफी कम खर्च में भी टेढ़े-मेढ़े दांतों को ठीक करवाया जा सकता है लेकिन मैं तो इन्हें एक कमज़ोर सी सैकेंड- ऑप्शन ही मानता हूं। वैसे भी बिलकुल साधारण से केसों को ही इन रिमूवेबल-एपलाईऐंसिस के ज़रिये ठीक किया जा सकता है।

तो अब थोड़ी सी बातें हो जायें कि इन ब्रेसिस से आखिर बचा कैसे जाये। तो, मेरी पहली सिफारिश है कि हर छः महीने के बाद किसी दंत-चिकित्सक से दांतों का चैक-अप ज़रूर ही करवाया जाये –इस के इलावा कोई रास्ता है ही नहीं है। इस का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि नियमित चैक-अप करवाने से दांत टेढ़े-मेढ़े होंगे नहीं और ब्रेसिस लगवाने की ज़रूरत बिलकुल पड़ेगी नहीं। हो सकता है कि आप ब्रेसिस लगवाने से बच जायें लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अगर आप डाक्टर के पास जा कर नियमित बच्चों के दांतों की जांच करवाते रहे हैं तो शायद ब्रेसिस लगें लेकिन बहुत कम समय के लिये क्योंकि दांतों के टेढ़े-पन वाला केस बिलुकल सिंपल है, कोई कंपलीकेशन है ही नहीं।

तो चलिये इन टेढ़े-मेढ़ेपन से बचाव की कुछ बातें करते हैं----इलाज की बातें तो होती ही रहती हैं----सारा नैट भरा पड़ा है----लेकिन बचाव की बातें ही लोगों की समझ में आनी बंद हो गई हैं।

सब से पहले तो यह ज़रूरी है कि जब शिशु एक साल का हो जाये तो उसे डैंटिस्ट के पास ले कर जाना बहुत ज़रूरी है ---उस समय वह उस के मुंह के अंदरूनी हिस्सों के विकास का आकलन करेगा और उस के मां-बाप को उस के दूध के दांतों की केयर के बारे में बतायेगा।

जब आप बच्चे को हर छःमहीने के बाद डैंटिस्ट के पास लेकर जायेंगे तो कुछ विचित्र सी आदतें( oral parafunctional habits) जैसे कि अंगूठा चूसना, जुबान से बार बार अपने ऊपरी दांतों को धकेलना, दांतों से होंठ अथवा गाल काटते रहना इत्यादि ---ये सब आदतें दांतों को टेढ़ा-मेढा करने का काम करती हैं और जैसे ही डैंटिस्ट इन्हें नोटिस करता है वह इन आदतों से मुक्ति दिलाने में पूरी मदद करता है।

इसी तरह से अगर किसी बच्चे में मुंह से सांस लेने की आदत है ( mouth-breathers) तो भी इस आदत का निवारण किया जाता है क्योंकि इस आदत की वजह से ऊपर वाले आगे के दांत बाहर की तरफ़ आने लगते हैं।
अब अगर आप ने नोटिस किया है कि बच्चे के कुछ दूध वाले दांत तो गिरे नहीं हैं लेकिन उन के पास ही गलत जगह पर पक्के दांत निकलने लगे हैं। ऐसे में अगर आप बच्चे को डैंटिस्ट के पास ले जाकर दूध वाले दांत उखड़वायेंगे नहीं तो पक्के दांत किसी दूसरी जगह पर ही अपनी जगह बनानी शुरू कर देते हैं-----और अगर इन परिस्थितियों में दूध के दांत अथवा दांतों को सही समय पर निकलवा दें तो कुछ ही महीनों में पक्के दांत बिलकुल बिना कुछ किये हुये ही अपनी सही जगह ले लेते हैं----ऐसे बहुत से केस हमारे पास आते हैं जिन में थोड़ा सा कुछ करने से ही दांतों के टेढ़े-पन से बचा जा सकता है।

अगर बच्चा नियमित डैंसिस्ट के पास जाता है तो अगर कहीं दंत-क्षय नज़र आयेगा तो उस का इलाज तुरंत करवा लिया जाता है ताकि ऐसी नौबत ही न आये कि दूध के दांत को समय से पहले निकालने की ज़रूरत ही पड़े। यह इसलिये ज़रूरी है कि दूध के दांतों के गिरने का और नये पक्के दांत मुंह में आने का एक निश्चित टाईम-टेबल प्रकृति ने बनाया हुआ है और अगर इस के साथ कोई पंगा हो जाता है तो बहुत बार दांतों के टेढ़े-मेढ़ेपन से बचा नहीं जा सकता।

एक बात और भी है कि कुछ मां-बाप के मन में अभी भी यह बात घर की हुई है कि जब तक दूध के पूरे दांत गिर नहीं जायें तब तक किसी डैंटिस्ट के पास जाकर टेढ़े-मेढ़े दांतों के बारे में बात करने का भी कोई फायदा नहीं है। यह बिलकुल गलत धारणा है----बस आप तो नियमित रूप से हर छःमहीने बाद बच्चों को डैंटिस्ट के पास जा कर चैक करवाते रहें ----अगर कुछ करने की ज़रूरत होगी तो साथ साथ होता रहेगा।

और कईं बार डैंटिस्ट को मरीज़ का एक एक्सरे OPG -orthopantogram- भी करवाना होता है जिसमें उस के सभी दांत -जितने मुंह में हैं और जितने भी नीचे हड्डी के अंदर विकसित हो रहे हैं, उन सब का पता चल जाता है और फिर उस के अनुसार डैंटिस्ट अपना निर्णय करता है। ऐसे ही एक एक्स-रे की आप तसवीर यहां देख रहे हैं।

जो मैंने डैंटिस्ट्री की प्रैक्टिस में देखा है वह यही है कि अगर आप दांत की तकलीफ़ों से बच सकें तो ठीक है ---वरना, मुझे नहीं लगता कि दांतों की तकलीफ़ों का पूरा इलाज करवाना इस देश की एक फीसदी ( जी हां, 1% only)--- जनता के भी बस की बात है । ठीक है, शायद आप समझ रहे होंगे कि पैसे का चक्कर है----दांतों का इलाज करवाना अच्छा-खासा महंगा है लेकिन इस के इलावा भी क्वालीफाइड डैंटिस्ट भी तो कहां मिलते हैं---ज़्यादातर शहरों में ही मिलते हैं और जहां तक विशेषज्ञ डैंटिस्टों की बात है अर्थात् जिन्होंने किसी स्पैशलटी में एमडीएस की रखी होती है ---ये तो अकसर बड़े शहरों में अथवा डैंटल कालेजों में ही दिखते हैं। और जहां तक डैंटल कालेजों की बात है----इन टेढ़े-मेढ़े दांतों को सीधा करवाने के लिये ब्रेसिस लगवाने के लिये उन के चार्जेज़ भी हज़ारों में हैं...जिन्हें आम आदमी अफोर्ड कर ही नहीं सकता ---वो मैं बता रहा था कि इस इलाज में इस्तेमाल होने वाला सामान ही इतना महंगा है।

तो केवल रास्ता एक ही है कि बचाव में ही बचाव है और दंत-चिकित्सक के पास जाकर नियमित तौर पर हर छःमहीने के बाद जा कर जांच करवाते रहिये ताकि काफी हद तक तकलीफ़ों से बचा जा सके ---हां, कुछ तकलीफ़े हमें कईं बार अनुवांशिक तौर पर मिलती हैं जैसे कि अगर मां के दांत बहुत बाहर की तरफ़ हैं , पिता के जबड़े की हड्डी कुछ आगे की तरफ है तो भी अगर समय रहते मां-बाप को इन बातों के बारे में सचेत कर दिया जाये तो बेहतर होता है।
वैसे आप को मेरी ओपन-ऑफर है कि आप अपनी कोई भी डैंटल परेशानी मेरे को ई-मेल कर सकते हैं ---आप को तुरंत जवाब देने का मेरा वायदा है। वैसे याहू आंसर्ज़ के मेरे इस पन्ने को भी आप कभी-कभार खंगाल सकते हैं।