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गुरुवार, 16 जनवरी 2014

शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती

शूगर रोग के बारे में मेरे कुछ विचार ये हैं कि इस शारीरिक अवस्था का जो बुरा प्रबंधन हो रहा है उस के लिए स्वयं मरीज और साथ में चिकित्सा व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है। मरीज़ की गैर-ज़िम्मेदारी की बात करें तो बड़ी सीधी सी बातें हैं कि नियमित दवाई न ले पाना, विभिन्न भ्रांतियों के चलते दवाई बीच ही में छोड़ देना, किसी बाबा-वाबा के चक्कर में पड़ कर देशी किस्म की दवाईयां लेनी शुरू कर देना, परहेज़ न करना, शारीरिक परिश्रम न कर पाना और ब्लड-शूगर की नियमित जांच न करा पाना।

शूगर की अवस्था में -जो दवाईयों से नियंत्रण में हो और चाहे जीवन-शैली में बदलाव से ही काबू में हो -- नियमित शूगर जांच करवानी या करनी बहुत आवश्यक होती है ..और यह कितनी नियमितता से होनी चाहिए, इस के बारे में आप के चिकित्सक आप को सलाह देते हैं।

चलिए इस समय हम लोग एक ही बात पर केंद्रित रहेंगे कि लोग शूगर की जांच नियमित नहीं करवा पाते। सरकारी चिकित्सा संस्थानों की बात करें तो पहले दिन तो मरीज़ शायद ब्लड-शूगर की जांच का पर्चा किसी डाक्टर से बनवा पाता है, फिर वह दूसरे दिन अपने साथ नाश्ता बांध कर लाता है ...सुबह से भूखा रह कर वह अस्पताल पहुंचता है... और उस दिन ११-१२ बजे वह फ़ारिग होता है ..खाली पेट वाली (फास्टिंग) और खाने के बाद वाली (पी पी .. पोस्ट परैंडियल ब्लड-शूगर) ..फिर तीसरे दिन वह पहुंचता से अपनी रिपोर्ट लेने को। अच्छा खासा भारी भरकम सा काम लगता है ना......और ऊपर से अगर किसी की शारीरिक अवस्था ठीक नहीं है तो यह बोझ और भी बोझिल करने वाला लगता है......घर से अस्पताल आना बार बार भी आज के दौर में कहां इतना आसान रह पाया है।

मैं इस के कारणों का उल्लेख यहां करना नहीं चाहूंगा लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि कुछ मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों की रिपोर्टों पर भरोसा नहीं होता.......मरीज़ ही क्यों, बहुत बार निजी क्लीनिक या अस्पताल चलाने वाले डाक्टर भी इन्हें नहीं मानते और बाहर से ये सब जांच करवाने को कह देते हैं......अकसर मरीज़ों को भी कहते देखा है कि सरकारी अस्पताल में करवाई तो शूगर इतनी आई और बाहर से इतनी ... लोगों से बातचीत के दौरान बहुत बार सुनने को मिलता है। जब वह दोनों रिपोर्टें आप के सामने रख दे तो आप क्या जवाब दें, यह एक धर्म-संकट होता है, लेकिन जो है सो है!

कुछ उच्च-मध्यम वर्गीय लोगों ने --जो एफोर्ड कर सकते हैं--घर में ही शूगर की जांच करने का जुगाड़ कर रखा है। ठीक है। एक बार मैंने मद्रास की मैरीना बीच पर देखा कि वहां सुबह सुबह लोग भ्रमण कर रहे थे और वहीं किनारे पर बैठा एक शख्स ब्लड-शूगर की जांच की सुविधा प्रदान कर रहा था। पचास रूपये में यह सुविधा दी जा रही था। इस के बारे में मेरी पोस्ट आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

अभी दो चार दिन पहले ही की बात है कि मैंने यहां लखनऊ के एक कैमिस्ट के यहां बोर्ड लगा हुआ देखा कि यहां शूगर की जांच ३० रूपये में होती है।

घर में जो लोग इस शूगर जांच की व्यवस्था कर लेते हैं या मैरीना बीच पर बैठा जो शख्स यह सुविधा दे रहा था या फिर अब कुछ कैमिस्ट लोगों ने भी यह सब करना शुरू कर दिया है, इसे ग्लूकोमीटर की मदद से स्ट्रिप के द्वारा किया जाता है।

अब आता हूं अपनी बात पर......खुशखबरी यह है कि आज कल ये ग्लूकोमीटर विदेशों से आते हैं और इन की कीमत १०००-२५०० रूपये के बीच होती है लेकिन अब शीघ्र ही भारत ही में तैयार हुए ये ग्लूकोमीटर ५०० से ८०० रूपये में मिलने लगेंगे।

और जो स्ट्रिप इन के साथ इस्तेमाल होती है उस के दाम वर्तमान में १८ से ३५ रूपये प्रति स्ट्रिप हैं, लेकिन अब शीघ्र ही ये स्ट्रिप भी दो और चार रूपये के बीच मिलने लगेगी।

यह एक खुशखबरी है कि शूगर की जांच अब लोगों की जेब पर भारी न पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दो दिन पहले ही इस तरह की किट्स को लंॉच किया है। प्रशंसनीय बात यह है कि इन किट्स को इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी मुंबई ने सूचक (Suchek) के नाम से और बिरला इंस्टीच्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी, हैदराबाद ने क्विकचैक (QuickcheQ) के नाम से डिवेल्प किया है।

जेब पर भारी न पड़ने वाली इन किटों के बारे में आप यह समाचार इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं..... Purse-friendly diabetic testing kits launched. 

उम्मीद है इन के बाज़ार में आने से यह जांच बहुत से लोगों की पहुंच में हो जायेगी और कम से कम कुछ लोगों की  यह बात कि महंगे टैस्ट की वजह से इस की नियमित जांच न करवा पाना रूल-आउट सा हो जायेगा लेकिन फिर भी नियमित दवाई, परहेज़ और शारीरिक व्यायाम का महत्व तो अपनी जगह पर कायम ही है........इस किट से बहुत से लोगों के हैल्थ-चैक अप करने में भी सुविधा हो जायेगी......होती है पहले भी यह जांच (कैंपों आदि में) इसी किट से ही हैं लेकिन अब यह काम बहुत सस्ता हो जायेगा, अच्छी बात है। 

सोमवार, 6 मार्च 2023

एंटीबॉयोटिक्स से कहीं ज़्यादा भरोसा है मुलैठी पर..

अगर मैं दंत चिकित्सक न होता तो पंजाबी लोकगीत गायक तो बन ही जाता ..नहीं तो किसी म्यूज़ियम का क्यूरेटर हो जाता...कुछ भी कर लेता...बहुत काम हैं जिस तरफ़ भी बंदा अपने मन को लगा ले....मुझे पुरानी एंटीक, विंटेज चीज़ों में खास रूचि है ....सौ साल पुरानी कोई किताब हो, अस्सी साल पुराने मैगज़ीन हों....मैं एंटीक शाप्स में और ऑनलाइन इन को ढूंढता रहता हूं ...ये मेरे लिए सिर्फ़ आइट्म ही नहीं होती, दरअसल ये अपने वक्त के किस्से ब्यां करती हैं और मुझे लिखने के लिए मजबूर करती हैं ...मेरे लिए ये चीज़ें नहीं है, मेरे लिए ये सब लिखने के प्राप्स हैं....जैसे नाचने वालों को प्राप्स लगते हैं, मुझे ये सब प्राप्स लगते हैं लिखने के लिए ....

खैर, बात यूं है कि कुछ दिन पहले यहां मुंबई की एक एंटीक शाप में मुझे एक डिब्बी दिखी ...क्या है न, अब ऐसी चीज़ों को देखने से ही एक अंदाज़ा सा हो जाता है कि ये ५० साल पुरानी होगी, यह सौ साल पुरानी वगैरह वगैरह ....खैर, इन दुकानदारों को भी पता रहता है कि जो कलैक्टर इस तरह की दो कौड़ी की चीज़ को ढूंढ़ते हैं, और खरीदते हैं ...उन से कैसे पैसे निकलवाने हैं....चलिए, वे अपनी जगह ठीक हैं....मेरे लिए वह चीज़ अनमोल है जिसे मैंने आज तक कभी नहीं देखा, और आने वाले समय में भी देखने की कोई गुंजाइश नहीं है ... 

चलिए, मैंने वह डिब्बी खरीद ली ...दाम बताऊंगा तो बेवकूफ़ी लगेगी ...खैर, मुझे लेनी थी सो ले ली....देखिए आप भी इसे ....



इस लिंक पर जा कर यह भी देखिए यह अस्सी साल पुरानी डिब्बी इ-बे पर ३४ यू एस डॉलर में बिक रही है ...यह रहा लिंक ....

आपने भी पढ़ लिया होगा कि इस में मैंथोल और मुलैठी का रस (एक्सेट्रेक्ट) आता था ...और यह गले में खिच खिच के काम आती थीं ..इंगलैंड की किसी कंपनी से बन कर आती थीं हिंदोस्तान में ....मुझे याद आ रहा है प्राइमरी क्लास के एक मास्टर ने एक बार हमें बताया था कि अंग्रेज़ों के राज में सूईं भी इंगलैंड से आती थीं और यहां बिकती थीं....यह भी देखिए कि मुलैठी जैसी चीज़ को भी किस तरह से पैक-वैक कर के इंगलैंड से लाकर यहां बेचा जाता था ....ऐसे और भी कुछ प्रोड्क्ट्स - कुछ आम दवाईयों के बारे में भी किसी और दिन बताऊंगा ....

मुझे यह डिब्बी देख कर बहुत ज़्यादा हैरानी हुई थी ....क्योंकि मेरी उम्र ६० साल है और जहां तक याद है बचपन से ही हमें मुलैठी पर ही भरोसा रहा ...गले में खिच खिच होती, दर्द वर्द होता, खांसी जुकाम होता ...तो हमें मुलैठी ही चबाने के लिेये दी जाती ....उन दिनों दांतों में भी अच्छी ताकत थी ...न नुकुर करते करते उसे चबा ही लेते और झटपट आराम भी मिल जाता ....कभी एंटीबॉयोटिक इस्तेमाल करने का कुछ झंझट ही न था...नमक वाले पानी से गरारे करो, मुलैठी चबाओ, बेसन का पतला सीरा, गुड़ वाली सौंठ खाओ....और मस्त रहो .....यही थी अपनी खांसी-जुकाम, गले में खिच खिच की दवाईयां ....वैसे तो अभी तक भी यही हैं...लेकिन अब कभी कभी एंटीबॉयोटिक लेने की नौबत भी आ जाती है ...लेकिन फिर भी भरोसा अभी भी मुलैठी पर पूरा है ...

कुछ दिन पहले मैं अपनी बड़ी बहन से मुलैठी के बारे में बात कर रहा था ...उन का गला खराब था ..मैंने कहा कि मुलैठी चबाओ...तो कहने लगी कि मिलती ही नहीं कहीं....मैंने बताया कि बाबा रामदेव की दुकानों पर मुलैठी क्वाथ मिलता है ...मुलैठी को लगभग चूरा कर के ....(shredded licorice) ....मुझे भी यह दिक्कत कईं बार आई है...लेकिन बहन बता रही थीं कि उन के पास मुलैठी का चूरण है वह उसे चाय या पता नहीं गर्म पानी में डाल कर पी लेती हैं....उन को भी राहत मिल जाती है ... अच्छी बात है, हमारे अपने अपने ज़िंदगी के तजुर्बे हैं, जिसे जिस चीज़ से राहत मिले, मां भी ८०-८५ की उम्र तक ये सब चीज़ें ही इस्तेमाल करती थीं ....और पुरानी चीज़ों की भी अच्छी अहमियत तो थी ही, ऐसे ही थोड़े न फिरंगी मुलैठी के रस को इस पैकिंग में इंगलैंड से लाकर बेचते रहे .....८० साल पहले ....यह डिब्बी तो ८० साल पुरानी है ....क्या पता यह धंधा कितना पुराना होगा...

मुलैठी को खरीदना अब मुश्किल हो गया है ....किसी पुरानी दुकान के पुराने बनिये से मिल भी जाती है कभी तो उस में अकसर घुन सा लगा होता है ...उसे चूसने की इच्छा नहीं होती....खैर, बाबा रामदेव की दुकानों पर जो मुलैठी क्वाथ मिलता है वह भी बढ़िया है ..दस पंद्रह बरस पहले १५ रूपये में मिलता था....अब भी ४० रूपये में मिल जाता है ...लेकिन है यह चीज़ बहुत बढ़िया ....

मुलैठी क्वॉथ ..

मुलैठी क्वाथ ऐसा दिखता है ....एक चम्मच मुंह में डाल कर चबाते रहिए...कुछ मिनट ..तुंरत राहत महसूस होती है ...


अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक लिट-फेस्ट में उषा उत्थुप के प्रोग्राम में जाने का मौका मिला ....उन्हें सुन कर बहुत अच्छा लगा ..इतनी लाइवली हैं...अपनी यादें सुना रही थीं कि किस तरह से उन्हें एड्वटाईज़िंग में पहला मौका मिला ...उन्हें विक्स की गोली के लिए कोई जिंगल लिखना था...कुछ समझ में नहीं आ रहा था ....लास्ट मिनट पर उन की कही लाइन ने जैसे हिंदोस्तान की खिच खिच दूर भगा दी ..........गले में खिच खिच, गले में खिच खिच .....क्या करो....विक्स की गोली लो, खिच खिच दूर करो....मैं इस के बारे में अपने किसी पुराने ब्लॉग में लिख भी चुका हूं ....लेकिन इस वक्त मुझे लिखते लिखते फिर लगा कि खिच खिच पर कोई फिल्मी गीत कैसे नहीं है .....बस, ऐसे ही सोच रहा था तो पता नहीं कहां से खिच खिच से तो नहीं हिचकी वाले फिल्मी गीत की याद आ गई ...यह लिखना बंद कर के पहले तो उसे सुना.....यह मेरे कालेज के दौर का गाना है, बहुत पंसद है ....इस की मेरे पास कैसेट भी थी, बहुत सुना करता था ....लेटे लेटे, आंखें मूंद कर 😂😎😉....हा हा हा हा हा हा हा.....वे दिन भी क्या दिन थे...!! आज सुबह जब मैं जगा, तेरी कसम ऐसा लगा ....कि तूने मुझे याद किया है .....हिच हिच हिचकी लगी ...हिचकी...


कुछ आज की भी बात कर ली जाए.....कल दोपहर मेरे गले में अचानक बहुत ज़्यादा इरिटेशन शुरू हो गई ....खांसी भी ...खिच खिच भी ...मैंने मुलैठी ढूंढी और जैसे ही उसे चबाया, आराम आने लगा .....और कल से वही कर रहा हूं....इस से तुरंत राहत मिलती है ...लेकिन मैं यह सब लिख किस के लिए रहा हूं ....कौन सुनता है किसी की आज ....लेकिन जिन पर लिखने की जिम्मेवारी है, उन का फ़र्ज़ होता है सब कुछ सच सच दर्ज करते जाना ......इस से ज़्यादा कुछ नहीं .....वैसे भी लेखकों का काम है मुनादी करना ....

बात वही है पिछले कुछ दिनों से मुझे कुछ खास विषयों पर लिखना था ..बस, वह ऐसे ही टलता रहा, आज ऐसे ही मुलैठी की यादों ने इन को पहले समेटने के लिए मजबूर कर दिया....मैं अपने किसी मरीज़ को मुलैठी के बारे में बताता हूं तो उसे समझ नहीं आती कि मैं क्या कह रहा हूं......अगर मीठी लकड़ी कहता हूं तो कुछ को समझ में आ जाता है ....


शनिवार, 24 जनवरी 2015

दवाईयों पर नाम तो कम से कम हिंदी में लिखा होना ही चाहिए....

इस देश में हिंदी के बिना गुज़ारा नहीं हो सकता...
जब मैंने हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू किया तो मुझे पहले दो तीन साल तो लोगों से ये सब बातें सुननी पड़ीं कि क्या करोगे हिंदी में लिख कर, कौन पढ़ेगा...लेिकन मुझे यही लगता था कि हिंदी में सेहत संबंधी विषयों पर विश्वसनीय सामग्री नेट पर नहीं है ..जिस तरह से कोई भी इंगलिश भाषा का जानने वाला गूगल कर के तुरंत जानकारी हासिल कर लेता है

लेकिन हिंदी भाषा के जानकार के लिए यह सब आसान नहीं है, आज से सात-आठ साल पहले तो हालात और भी खराब थे...समस्या यही है कि बहुत ही कम चिकित्सक नेट पर अपने अनुभव शेयर करते हैं, और हिंदी की तो बात ही क्या करें!...विश्वस्नीय कुछ खास मिलता ही नहीं है नेट पर।

फिर मैं दो तीन साल बीच में हिंदी के साथ साथ इंगलिश में भी एक हेल्थ ब्लॉग लिखता रहा.....शायद चार सौ के करीब लेख भी हो गये.....लेकिन पता नहीं इंगलिश ब्लॉग में मन बिल्कुल भी नहीं लगा।

दरअसल हमें कईं साल यही पता लगाने में लग जाते हैं कि हम करना क्या चाहते हैं, हमारा वह काम करने का मकसद है क्या, तो मुझे पिछले कुछ सालों से अच्छे से समझ आ गया कि मैं बस हिंदी भाषा का सहारा लेकर मैडीकल साईंस से संबंधित कंटेंट नेट पर क्रिएट करना चाहता हूं......बस.......बहुत साल लग गये इस बात का पता लगने में।

कोई महान् कारण नहीं मेरा हिंदी में लिखने का...कोइ फलफसा नहीं है बिल्कुल....बस, जो कारण था और है वह आपसे मैंने ऊपर शेयर किया है।

इस देश की यह बदकिस्मती है कि यहां पर हिंदी लागू करवाने के लिए कानून बनाने पड़ते हैं और हिंदी में काम करने वालों को अभी भी आज़ादी के ६५ साल बाद भी इनाम देकर पुचकारना पड़ता है।

जैसा पहले भी बहुत बार होता है आज भी मुझे गुस्सा आ गया......जब एक ८० साल के ग्रामीण बुज़ुर्ग ने मेरे सामने एक प्लास्टिक की पन्नी से इन दवाईयों का ढेर लगा दिया कि ज़रा यह बताएं तो कौन कौन सी कितनी बार खानी है। मुझे गुस्सा बुज़ुर्ग पर तो क्या आना था, न ही किसी और पर आया.....लेकिन व्यवस्था पर ही खीझ हुई कि क्या यार, इस आदमी के लिए अंग्रेजी में नाम लिखे इन दवाई के पत्तों का क्या मतलब होगा?....काला अक्षर भैंस बराबर।

अब कोई इन्हें क्या बताए कि कौन सी कब खानी है, कितनी बार खानी है ....आप इन दवा के पत्तों को देखें तो सब कुछ एक जैसा ही नहीं लगता क्या!...... इन की पैकिंग देखिए, इन टेबलेट्स का कलर देखिए.....इन में इन की उच्च रक्त चाप की दवाईयां भी थीं, दर्द और इंफेक्शन की दवाईयां हैं.......ये अलग अलग डाक्टरों ने लिखी हैं।

इस बुजुर्ग को ही यह दिक्कत नहीं है, अधिकतर लोगों को इस तरह की दिक्कत होती है और कुछ हद तक इन सब दवाईयों का नाम केवल इंगलिश में लिखा होना इस का कारण है।

मैं नहीं कहता कि इंगलिश में नाम लिखा होने से वे आधे डाक्टर बन जाएंगे.....नहीं, कुछ नहीं, लेकिन तो कम से कम हो जाएगा कि एक हिंदी पढ़ने वाला जोड़-तोड़ कर यह तो पढ़ने की कोशिश कर लेगा कि वह जिस दवाई को खा रहा है उस का नाम क्या है।

वैसे तो मरीज़ों की समस्याएं इस देश में यहीं पर ही खत्म नहीं होती.....मानते हैं कि अनपढ़ता और सेमी-लिटरेसी भी इस के लिए जिम्मेदार हैं......लेिकन फिर भी जो काम जिस स्तर पर हो सकता है, वह तो होना ही चाहिए...पिछले वर्षों में हम ने कितना सुना कि अब दवाईयों की स्ट्रिप पर दवाई का नाम इंगलिश में भी लिखा होगा........लेकिन असल में क्या हो रहा है, क्या हम लोग जानते नहीं हैं?

चलिए मान भी लें कि किसी बुज़ुर्ग ने कैसे भी कोई जुगाड़ से दवाईयों की पहचान कर ली, और वह ठीक तरह से दवाई ले रहे हैं, लेकिन अगले महीने जब वह किसी सरकारी दवाखाने में जाते हैं तो दवाईयों के रैपर बदले हुए मिलते हैं..दवाई वही लेकिन कंपनी कोई दूसरी......अब इस में तो सरकारी ढंाचा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन कम पढ़े लिखे बंदे की इतनी सिरदर्दी हो जाती है ...मैं ये सब बातें अकसर अनुभव की हैं।

दवाईयों का हिसाब किताब रखने के लिए कुछ लोग जुगाड़ भी कर लेते हैं......पहले हमारे पास कईं ऐसे मरीज आती थीं जो बताया करती थीं कि वे एक दिन में ली जाने वाली दवाईयों की सभी खुराकों (doses) को अपने दुपट्टे के तीन-चार कोनों में अलग अलग बांध कर गांठ बांध लेती हैं।

जितनी भी बातें लपेटता रहूं .........जितनी भी लछ्छेदार बातें कोई भी कर ले, लेकिन बदकिस्मती है कि इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है.....बहुत काम ध्यान दिया जा रहा है......we are literally taking the things for granted --   कि हम ने इंगलिश में लिख दिया, फार्मासिस्ट ने इंगलिश में नाम लिखे पत्ते थमा दिए..........बाकी तो मरीज़ कर ही लेगा, हमारी छुट्टी और उस की जिम्मेदारी शुरू। नहीं, ऐसा नहीं है बिल्कुल, इस काम में मरीज़ द्वारा खूब गल्तियां होती रही हैं, हो रही हैं और बिल्कुल होती रहेंगी.. लेकिन ये गल्तियां अकसर सामने आती ही नहीं है..

जमा हुई दवाईयों की भूल-भुलैया...(इस लिंक पर क्लिक करिए)

अब आप सोच रहेंगे कि जब ये गल्तियां होती ही रहनी हैं तो मैंने इतना लंबा यह सब क्यों लिख दिया...........सुनिए, मैंने यह सब केवल इसलिए लिखा है ताकि कम से कम पॉलिसी बनाने वालों तक यह बात तो पहुंचे की दवाईयों पर िहंदी में तो नाम लिखा ही होना चाहिए.....इंगलिश में हो और अन्य भारतीय भाषाओं में भी हो, स्वागत है, लेकिन हिंदी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।





अच्छा, जाते जाते आज बसंत पंचमी की आप को बहुत बहुत बधाईयां......आज के दिन भी दवाईयों की इतनी उबाऊ और पकाऊ बातें तो कर लीं, दाल-रोटी के बारे में भी दो बातें सुन लेते हैं....

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

बीमार बंदे की जगह अगर डाक्टर खुद को खड़ा कर के देख ले.....


कुछ महीने पहले किसी स्त्री-रोग विशेषज्ञ के हास्पीटल में जाने का मौका मिला- लेकिन यह क्या, उस का रिसेप्शनएरिया स्वागत करने की बजाए लोगों को डराने का काम कहीं ज्यादा कर रहा थाआप भी सोच रहे होंगे कि आखिरऐसा क्या था उस की रिसेप्शन लॉबी में......तो सुनिए, दोस्तो, उस की लॉबी में खूब बड़े बड़े शीशे के पारदर्शी मर्तबानरखे हुए थे....अब आप यही सोच रहे हैं कि आखिर उस महिला-रोग विशेषज्ञ को सारे आचार, मुरब्बे वहीं रख करधाक जमाने की क्या पड़ी थीलेकिन, दोस्तो, उन बड़े बड़े मर्तबानों में तो महिलाओं का आप्रेशन कर के निकालीगईं रसोलियां, टयूमर पड़े हुए थे......चूंकि ऐसे नमूनों को सुरक्षित रखने के लिए किसी फार्मलिन जैसे द्वव्य में डालकर रखना होता है इसलिए उस सारी जगह में एक अजीब सी गंध फैली हुई थीयह सब देख कर मुझे अजीब सालग रहा थामैं तो यही सोच कर परेशान हो रहा था कि कईं लोग तो हम डाक्टरों के पास हास्पीटल में इस लिए हीनहीं आते कि उन्हें हास्पीटल की गंध पसंद नहीं है, उन्हें पट्टीयों के लिए इस्तेमाल की जाने दवाईयों की गंध नहींभाती, या उन्हें वार्ड में मरीज़ों को देख कर अजीब सा लगता हैहोता है, होता है, दोस्तो, नईं जगह पर ...किसी कोभी , अब अगर मेरे जैसे पढ़ेलिखे बंदे को अपने घर में हुई चोरी की रिपोर्ट किसी थाने में जाकर लिखवाने मेंइसलिए थोड़ी( थोड़ी नहीं यार...बहुत ज्यादा) झिझक है कि मुझे लगता है कि यार, पता नहीं वहां क्या हो जाए, रिपोर्ट लिखेगा कोई लिखेगा.....लेकिन दोस्त किसी ने मेरी रिपोर्ट लिखी थी.....तरह तरह कीबहानेबाजी......इसीलिए मैं हमेशा ही आम बंदे की बात करता हूं और करता रहूंगा...क्योंकि मैं समझ सकता हूं किअगर मेरे जैसा पढ़ा-लिखा बंदे अपने घर में हुई चोरी की एफआईआर करवाने में नाकामयाब रहा, तो आम बंदे कीक्या हालत होती होगी........मैं तो कई महीने यही बातें कर के परेशान रहाचलो, इसी बात को इधर छोड़ते हैं, नहींतो पता नहीं कहां के कहां निकल जाएंगे) .... मेरा यह अपने घर में हुई चोरी का किस्सा थोड़ा बताने का उद्देश्यकेवल इतना था कि हम थोड़ा यह देखें कि किसी भी नई, अपरिचित जगह पर हमें कैसे कोई अनजान-सा भय घेरेरहता हैऔर ऊपर से मरीज जब किसी हस्पताल में गया हो तो उस को कम्फर्टेबल करने की बजाए उसे इनबड़ी-बड़ी रसोलियों, ट्यूमरों से डराया जायेगा तो क्या होगाबस , दोस्तो, क्या बताऊं वह नज़ारा अजीब ही था

वह महिला डाक्टर सुशिक्षित है , अनुभवी है मरीज़ों से बहुत ढंग से बात भी करती हैऔर हां, उसी रिसेप्शनएरिया में उस ने अपने काफी सारे ( कम से कम बीस तो होंगे ही) सर्टिफिकेट फ्रेम कर के टांग रखे थे.....सभीअंग्रेज़ी में ही थेइस के बारे में दोस्तो मेरा विचार यह है कि जो भी मरीज़ किसी डाक्टर के पास जा रहा है तो वहकहीं कहीं उस की चर्चा सुन कर ही गया है.....अब इन सर्टिफिकेटों में क्या लिखा है, मैंने देखा है कि 2-4फीसदीलोगों से ज्यादा इस में किसी को कोई रूचि होती नहीं, और जिन को होती भी है, वे इन्हें पढ़ नहीं पाते क्योंकि येअकसर इतनी ऊंचाई पर लगाए होते हैं या इतनी बारीक फांट्स में होते हैं कि अब इन्हें पढ़ने के भी झंझट में कौनपड़े !! और इन सब के साथ-साथ काफी ऊंचाई पर लगे टीवी पर मार-धाड़ वाली कोई एक्शन फिल्म चल रही थी

इस के विपरित मुझे मुंबई के एक पुरूष गायनोकॉलोजिस्ट के यहां जाने का मौका जब मिला था, तो उस ने अपनेकक्ष के बाहर कुछ बढ़िया से पोस्टर लगवा रखे थे ...उन में से एक पर यह पंक्तियां भी लिखी हुईं थीं..... Seek the will of God .....Nothing more, nothing less, nothing else…. अर्थात्.....भगवान की रज़ा मे ही राज़ी रहनासीख ले बंदे, उस से तो कुछ ज्यादा, ही कुछ कम एवं ही उस से कुछ इलावा की ख्वाहिश करयह पढ़ करहमें बहुत अच्छा लगा....ये छोटी छोटी बातें हमें कुछ नाज़ुक लम्हों में बड़ा हौंसला सा दे जाती हैं, आपको क्यालगता हैजब मरीज़ हस्पताल में पहुंचता है या डाक्टर से मिलने से पहले जब अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा हैतो उस समय हमें उसे ऐसा वातावरण उपलब्ध करवाना चाहिए जिस से वह सहज अनुभव करे, उसे कुछ तोअपनापन लगेअब कोई अपनी मां को दिखाने गया हुया ,अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए क्या उस समय इसगाने में किसी तरह से भी उस का मन लगता होगा......मेरी मम्मी ने तुम्हें चाय पे बुलाया है !!! ही उस समयरेडियो की आवाज़ ही अच्छी लगती हैवह भी मरीज़ एवं उन के अभिभावकों को चुभती हैंउस समय ज़रूरत होतीहै .....म्यूज़िक फॉर हीलिंग की.....ढ़ेरों सी.डीयां एवं कैसेट्स इस तरह की बाज़ार में उपलब्ध हैं.....साथ ही अच्छीअच्छी प्राकृतिक नज़ारों की तस्वीरें लगी हों, कोई प्रेरक-प्रसंग दिख जाएं तो मन को अच्छा सा लगता है

अच्छा तो दोस्तो,यह रसोलियों एवं टयूमरों की डाक्टर के वेटिंग हाल में पड़े होने की चर्चा तो हम ने कर ली, लेकिनक्या इस से पहले ये हमें समाचार-पत्रों में दिखते होंगे.......क्यों नहीं, अब किसी ने 16किलो का ट्यूमर किसी केपेट से निकाला है तो यह हिंदी अखबार वाले या क्षेत्रीय भाषा की अखबार वाले ना छापे.....यह कभी हो सकता हैक्यामरीज की गोपनीयता को मारो गोली.....मरीज की लाचारी गई तेल लेने----हमें तो बस अपनी पब्लिसिटी सेमतलब है, जब तक दो-तीन अखबारों के स्थानीय संस्करणों में आप्रेशन-थियेटर के कपड़े पहन कर किसी ऐसी हीपीड़ित महिला के बिस्तर के सिर पर खड़े होकर अच्छी सी रंगीन फोटो लगेगी तो आसपीस के चालीस-पचासगांवों के लोगों पर अपनी धाक आखिर कैसे जमेगी( गब्बर सिंह का वह डॉयलाग पता नहीं क्यों बार-बार याद रहा है...यहां से पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रोता है, तो मां कहती है.......) । वह मरीज़ लाचार दिख रही है तोदिखा करे....उस से हमें इतना सरोकार नहीं, वैसे भी तो हम ने उस पर पहले कम एहसान किया है वह 16किलो काट्यूमर निकाल करबस, दोस्तो, यही बात आज डाक्टरों को एवं प्रिंट मीडिया को गहराई से सोचने की ज़रूरत हैकि क्या उस जगह हमारे ही घर की कोई महिला हो तो हम उस की उस हालत में तस्वीर किसी समाचार-पत्र केस्थानीय संस्करण में देखना पसंद करेंगे....................तो फिर उस सीधी सादी, लगभग बेजुबान( कम से कम इसमामले में) सी बीमार महिला से हमने इतनी लिबर्टी लेने की आखिर सोच ही कैसे ली।...और वह भी केवल इस लिएकि हमें एवं हमारे हास्पीटल को इस से पब्लिसिटी मिल जाएगीवैसे भी मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि वर्नैकुलरप्रेस में तो मरीज़ की प्राइवेसी का कुछ ज्यादा ख्याल नहीं रखा जाता....कहा है , उन्हें तो केवल गर्मा-गर्म खबरपरोसने में ही मज़ा आता है

दोस्तो, आपने भी कितनी बार देखा होगा कि किसी नशा-मुक्ति केन्द्र पर जब कोई बड़ा आदमी (काहे का , यह मतपूछिए ???) जाता है तो उस की वह इलाज करवा रहे रोगियों के साथ तस्वीरें भी मीडिया में सुर्खियों के साथ छपजाती हैंअब अगर किसी ऐसी तस्वीर की वजह से किसी मरीज़ के बच्चे को अथवा बीवी को किसी प्रकार के तानेसहने पड़ें भी तो उस से अखबार छापने वालों को क्या मतलब......क्योंकि वह तो कोई खबर है ही नहीं--- इस कीन्यूज़-वैल्यू खाक है

बस, अब विराम लेना चाह रहा हूं...कल रात को किसी पार्टी में स्वाद स्वाद के चक्कर में मूंग की दाल का हलवाकुछ( कुछ नहीं, बहुत ही कहूं तो ठीक है) ज्यादा ही खा-फूट लेने से अभी तक एसिडिटी से परेशान हो रहाहूं...लेकिन क्या करूं....बिल्कुल आप ही की तरह आदत से मज़बूर हूं कि बस जो चीज़ पसंद हो, बस उसे खाते हुएफिर कोई डाक्टरी-वाक्टरी का ध्यान नहीं रहताठीक है, ठीक है , दोस्तो, कभी कभी चलता है

बस, एक मिनट में अपनी बात समाप्त कर रहा हूं.....हैल्थ बीट कवर करने वाले पत्रकार बंधुओं से भी यह अनुरोध हैकि हैल्थ-रिपोर्टिंग करते समय थोड़ा इन बातों का ध्यान रखना ही होगाक्या है , सिने तारिकाओं के द्वारा अपनीकाया को छरहरी रखने के लिए करवाये जा रहे लाईपोसक्शन( शरीर में जमी चर्बी को निकलवाने का आप्रेशन), उन के द्वारा बोटॉक्स इंजैक्शन लगवाने अथवा हालीवुड की लेटेस्ट हार्ट-थ्रोब्स के द्वारा अपनी छाती को और भीज्यादा सुडौल बनाए रखने के उन के प्रयासों के ब्यौरे देने से कहीं ज्यादा ज़रूरी है कि हम इस देश की उस आममहिला की सेहत के बारे में भी लिखें कि वह बच्चेदानी के कैंसर से अथवा स्तन-कैंसर से कैसे बच सकती है...क्योंउस का स्त्री-रोग विशेषज्ञ से किसी छोटी सी छोटी दिखने वाली महिला-शिकायत के लिए मिलना ज़रूरी है

दोस्तो, शायद बात हास्पीटलों के सुकून देने वाले वातावरण के बारे में शुरू हुई थी.......वैसे मेरा तो एक सुखदअनुभव है, जब दो साल पहले मेरा जयपुर के एक हास्पीटल में आप्रेशन में होना था, तो एनसथीसिया देने से पहलेमैं भी बहुत खौफ़ज़दा था.....लेकिन तभी मुझे .टी के अंदर ही एफ-एम पर चल रहे मेरे उस फेवरिट गाने के बोलसुनाई दिए........आंखें भी.. होती हैं दिल की ज़ुबां, पल भर में कर देती हैं हालत ये दिल की ब्यां....!! बस, कुछ लाइनेंही सुनीं थीं कि मुझे पता नहीं कब एनसथिसीया के लिए दिए गये उस टीके ने मेरी आंखें चंद क्षणों में ही बंद करदीं......फिर मुझे कुछ पता नहीं........लेकिन उस आप्रेशन थिय़ेटर के स्टाफ का मैं आज भी ऋणी हूं क्योंकि वे भीमेरी तरह के ही बिगड़े हुए रेडियो-फैन रहे होंगे क्योंकि उन के एफ-एम के सैट से बज रहे उस गीत के खूबसूरतशब्दों ने उन बेहद डरावने से दिखने वाले लम्हों में भी मेरा हाथ थामे रखा

शुक्रवार, 30 मई 2008

आज तो ठंडी आइसक्रीम हो ही जाये !


आज के लेख के इस शीर्षक का राज़ यह है कि अगर हम ठंडी आइसक्रीम की बात छेड़ते हैं तो बहुत से बंधु अपने दांतों में इस आइसक्रीम की वजह से उठी सिहरन का दुःखडा लेकर बैठ जायेंगे और मेरे को दांतों में ठंडे-गर्म वाले टॉपिक को छेड़ने का बहाना मिल जायेगा।

कल मैंने दांतों के स्वास्थ्य के बारे में एक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे तो तीन-चार ऐसी टिप्पणी प्राप्त हुईं हैं, जिन पर मैं अलग से एक-एक पोस्ट लिखूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि क्वालीफाईड डैंटिस्ट भी असकर ग्लवज़ नहीं पहनते, मास्क नहीं लगाते इत्यादि.......इस के बारे में मैं जो पोस्ट लिखूंगा वह मेरी अपनी ही आपबीती पर आधारित होगी और रोंगटे खड़े करने वाली होगी.....शास्त्री जी से मेरा अनुरोध है कि जहां कहीं भी क्वालीफाईड डैंटिस्ट को बिना ग्लवज़ के देखें तो उन्हें मेरी उस पोस्ट की एक कापी थमा दें, वे ग्लवज़ पहनना शुरू कर देंगे। दूसरी टिप्पणी थी कि टुथपेस्ट कौन सी करें..कौन सी ना करें...बड़ी दुविधा सी रहती है, सो मैं इस का भी समाधान एक पोस्ट में करूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि यह जो सिल्वर दांतों में भरी जाती है उस से पारा निकलता रहता है जो हमारे शरीर के लिये क्या खतरनाक है....यह विषय भी इतना अहम् है कि इस पर एक पोस्ट लिखने के बगैर बात बनेगी नहीं।

आज तो मैंने दांतो पर ठंडा-गर्म लगने के बारे में बात करने का विचार किया है। शायद मैंने पहले भी बताया था कि एनसीईआरटी के पास मेरी एक किताब की पांडुलिपि पड़ी हुई है.....सो, पहले तो ध्यान आया कि उस में से ही दांतों के ठंडे-गर्म वाला अध्याय यहां इस पोस्ट में चेप देता हूं....लेकिन मन माना नहीं। यही सोचा कि यार वो पांडुलिपि को तो लिखे दो साल से भी ज़्यादा का समय हो गया है...और वैसे भी इधर ब्लागिंग पर तो बेहद खुलेपन से लिखना होता , लिखना क्या.....अपने बंधुओं से बातें ही करनी होती हैं, तो यहां तो सब कुछ ताज़ा तरीन ही चलता है।

तो चलिये दांतों में लगने वाले ठंडे-गर्म की बात करते हैं। यकीन मानियेगा कि यह दांतों की एक इतनी आम समस्या है कि इस की वजह से दवाईयों से युक्त टुथपेस्टों के कईं विक्रेताओं की जीविका जुड़ी हुई है।

वैसे मुझे याद आ रहा है कि बचपन में जब हम लोग इमली खाते थे ( जी हां, नमक के साथ!)…तो दांत बहुत किटकिटाने से लग जाते थे। और हां, स्कूल में जो कागज़ के टुकड़े पर पांच-दस पैसे का बेहद खट्टा चूर्ण बिकता था, उसे खाने के बाद भी तो दांतों का कुछ ऐसा ही हाल हुया करता था। लेकिन तब हमें इन सब बातों की परवाह कहां थी.....दोपहर तक घर आते आते दांत तो ठीक लगने लगते थे लेकिन गला बैठने लगता था ......लेकिन गले बैठने का भी इतना दुःख नहीं होता था जितना इस बात का डर लगता था कि एक बार फिर पापा ने हमारे चूर्ण खाने वाली चोरी पकड़ लेनी है....क्योंकि अगली सुबह तक गला बंद हो जाया करता था , बुखार हो जाया करता था और थूक निगलने में बेहद तकलीफ। पता नहीं उस चूर्ण में क्या डाला गया होता था।

लेकिन वापिस अपने टॉपिक पर ही आते हैं.....तो क्या आप को भी कईं बार आइसक्रीम खाते खाते अचानक दांतों पर बहुत ठंड़ी सी लगी है........क्या कहा....हां..............कोई बात नहीं, इस में कोई बड़ी बात नहीं है, यह तकलीफ़ अकसर सभी को कभी-कभार होती ही है ।

मुझे लग रहा है कि सब से पहले मुझे इस ठंडा-गर्म लगने के कारण की तरफ बात को लेकर जाना होगा। तो, सुनिये होता यह है कि दांतों के क्राउन ( दांत का वह भाग जो हमें मुंह में नज़र आता है ) की तीन परतें होती हैं.....( वैसे होती तो दांत की जड़ की भी तीन परते ही हैं...लेकिन यहां हम खास बात दांत के ऊपरी हिस्से की ही कर रहे हैं ).....हां, तो क्राउन का बाहर वाला हिस्सा होता है इनेमल....उस के अंदर का भाग जो संवेदनशील होता है उसे डैंटीन कहते हैं और उस के अंदर दांत की नस व रक्त की नाड़ियां होती हैं.....तो होता यूं है कि अगर किसी भी कारण वश क्राउन की बाहरी परत इनैमल क्षतिग्रस्त हो जाती है ...घिस जाती है (उसके क्या कारण हो सकते हैं, इन्हें हम अभी देखते हैं).....तो जो कुछ हम खाते हैं....ठंडा, मीठा, खट्टा आदि ......ये पदार्थ दांत की दूसरी परत के संपर्क में आने की वजह से एक सिहरन सी पैदा करते हैं....यह तो हुई बेसिक सी बात।

अब देखते हैं कि वे कारण कौन से हैं जिस की वजह से दांतों के बाहर की इतनी मजबूत परत इनैमल घिस जाती है.....कट जाती है....क्षतिग्रस्त हो जाती है.......

दांतों को ब्रुश करने में और बूट-पालिश करने में कुछ तो अंतर होगा !..........

दांतों की बाहरी परत इनैमल के क्षतिग्रस्त होने का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि अकसर लोग ब्रुश एवं दातुन को गलत ढंग से दांतों पर रगड़ते हैं जिस की वजह से यह इनैमल की परत नष्ट हो जाती है और एक बार यह कट जाये और ऊपर से टुथ-ब्रशिंग की शू-शाईन वाली गलत टैक्नीक लगातार चलती रहे ..तो फिर यह इनैमल का कटाव चलता ही रहता है जब तक कि यह कटाव इतना ही न हो जाये कि अंदर से दांत की नस ही एक्सपोज़ हो जाये.....यह बहुत दर्दनाक स्थिति होती है।

तो, इस तरह की स्थिति का इलाज यही है कि अगर दांतों में ठंडा गर्म लग रहा है तो तुरंत दंत-चिकित्सक को मिलिये.......ताकि आप को सही ढँग से ब्रुश करने की बातें भी पता चलें और जो दांतों पर इनैमल का कटाव हो चुका है उस का भी उचित फिलिंग के द्वारा इलाज किया जा सके।

यहां यह बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि केवल फिलिंग ही इस का समाधान नहीं है क्योंकि अगर ब्रुश इस्तेमाल करने का अपना ढंग न ठीक किया गया तो यह कटाव वापिस हो जाता है...फिलिंग कोई इनैमल से ज़्यादा मजबूत थोड़े ही होती है।

खुरदरे मंजन भी इनैमल को घिसा देते हैं.........

बहुत से मंजन लोग बाज़ार से लेकर दांतों पर घिसने चालू कर देते हैं जिस की वजह से इनैमल घिस जाता है क्योंकि इस में खुरदरे तत्व मिले रहते हैं और कईं पावडरों में तो गेरू-मिट्टी मिली रहती है जिस की वजह से दांतों का घिसना तय ही है।

तो अगर दांतों में ठंडा-गर्म इस खुरदरे मंजन की वजह से है तो मरीज को तुरंत उस मंजन का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है और साथ में यह भी ज़रूर याद दिलाया जाता है कि आप ने तो उस मंजन को इस्तेमाल करना नहीं , घर के किसी परिवार को भी इस से दांत घिसने से रोकें...............इस से पहले की मेरे मरीज़ अपनी अकल के घोड़े दौड़ाने लगें कि खुद करना नहीं...घर के दूसरे सदस्यों को छूने देना नहीं....तो फिर परसों ही बस-अड्ड़े के बाहर बैठे बाबा भूतनाथ से जो पच्चीस रूपये की 250ग्राम की डिब्बी खरीद कर लाये हैं...उस का क्या करें.............मैं उन्हें तुरंत कह देता हूं कि उसे आप उस के ठीक ठिकाने पर पहुंचा दें........कहां ?.............नाली में, और कहां !!

पायरिया रोग में भी यह ठंडा-गर्म तंग करता है ......

जिन लोगों को पायरिया की वजह से यह दांतों में ठंडा-गर्म लगने की शिकायत होती है, ये लोग अकसर किसी डैंटिस्ट के पास जाने की बजाये बाज़ार से महंगी महंगी पेस्टें खरीद कर दांतों पर लगानी शुरू कर देते हैं.....लेकिन उस का रिजल्ट ज़ीरो ही निकलता है......ज़ीरो से भी आगे माइनस में ही निकलता है क्योंकि ये पेस्टें इन के इन लक्षणों को बहुत टैंपरेरी तौर पर दबा देती हैं ....और नीचे ही नीचे पायरिया की बीमारी बढ़ती ही जाती है । लेकिन अगर कोई डैंटिस्ट आप को इस तरह की दवाई-युक्त पेस्ट कुछ समय के लिये इस्तेमाल करने की सलाह देता है तो उसे आप अवश्य इस्तेमाल करें।

तो, पायरिया के रोग के लिये तो डैंटिस्ट से मिल कर इस का समाधान ढूंढना ही होगा, वरना इन महंगी ठंडे-गर्म वाली पेस्टों के चक्कर में पड़ कर अपना टाईम खराब करने वाली बात तो है ही....साथ में रोग को बढ़ावा भी मिलता है।

इस लेख में बातें तो बहुत ही विस्तार में की जा सकती हैं लेकिन इस की भी अपनी लिमिटेशन्ज़ हैं.....तो सारांश में इतना ही कहता हूं कि दांतों में ठंडे-गर्म को लगने को कभी भी इतना लाइटली न लें क्योंकि इस के परिणाम गंभीर हो सकते हैं जैसा कि हम ने अभी अभी देखा है। क्योंकि इस के बीसियों कारण हैं...जब कोई क्वालीफाईड डैंटिस्ट आप की हिस्ट्री ले रहा होता है तो वह ये सब बातें नोट करता रहता है कि यह समस्या किसी एक विशेष दांत में है या मुंह के एक तरफ ही है या मुंह के दोनों तरफ ही है या सभी दांतों में एक साथ ही होती है................और फिर वह दांतों का क्लीनिकल परीक्षण कर के और कभी कभी एक्स-रे करने के बाद ही सही डायग्नोसिस कर पाता है और उस के अनुसार ही समाधान बताता है। तो, इस तरह की समस्या अगर हो तो, अपने आप महंगी पेस्टें जो ठंडा-गर्म ठीक करने का दावा करती नहीं थकतीं.....इस्तेमाल मत करिये ....इस से कुछ नहीं होगा......केवल आप को एक सुरक्षा का गल्त सा अहसास होने के कारण आप का दुःख बढ़ जायेगा.....आप तो बस केवल डैंटिस्ट से तुरंत मिल लीजिये। वैसे उस से भी पहले अगर आप मेरे को ई-मेल करके अपनी किसी भी शंका का समाधान करना चाहें तो आप का स्वागत है।

एक बात और भी कहनी बहुत ज़रूरी है कि अकसर लोग अपने दांतों की स्केलिंग इसी डर की वजह से नहीं करवाते कि इस के बाद उन्हें दांतों पर ठंडा-गर्म लगना शुरू हो जायेगा....लेकिन यह एक गलत धारणा है ....हो सकता है कि कुछ दिनों तक बिलकुल टैंपरेरी तौर पर आप को थोड़ी असुविधा हो, लेकिन उस का भी समाधान डैंटिस्ट आप को बता ही देते हैं।

मुझे लगता है कि मैंने इतनी लंबी पोस्ट लिख कर भी इस ठंडे-गर्म की समस्या के मुख्य बिंदुओं को ही छुया है , लेकिन अगर आप किसी बिंदु पर विस्तृत बातें सुनना चाहें तो मुझे टिप्पणी में ज़रूर कहिये।

जाते जाते सोच रहा हूं कि अपनी पोस्टों में मुझे क्लीनिकल फोटो भी डालनी चाहिये....सो, फिलहाल इस का कारण यही है कि मैं फोटोग्राफी में टैक्नीकली इतना साउंड नहीं हूं......आज सुबह भी हास्पीटल में अपना डिजीटल कैमरा साथ ही ले गया ....एक मरीज़ को बिलकुल क्षतिग्रस्त दांत उखाड़ने से पहले फोटो लेने की कोशिश की ...क्लिक भी किया....लेकिन स्क्रीन पर आ गया....मैमरी फुल.....सो, चुपचाप कैमरे को कवर में यह सोच कर डाल लिया कि अब इस के बारे में जानकारी बेटे से हासिल करनी ही होगी.............लेकिन कब?..................जब उसे इस IPL के मैचों से फुर्सत मिलेगी, तब !!

शनिवार, 21 मई 2016

संस्मरण -- कैप्सूल भरने का लघु-उद्योग

उस साथी के पिता एक नीम हकीम थे...कभी वह हमें अपने साथ बाज़ार चलने को कहता तो हम देखते कि वह किसी दुकानदार को बीस-तीस रूपये देता और वह उसे एक पन्नी में पहले से भरे हुए १००० खाली कैप्सूल थमा देता...हम भी उन दिनों बेवजह बातों का load नहीं लिया करते थे।

फिर जब हम दोस्त लोग उस के घर कभी जाते तो उन के परिवार के दो तीन लोग कैप्सूल भरते दिखते...बिल्कुल बीड़ी उद्योग की तरह .....क्या भरते?..कुछ खास नहीं, मीठा सोड़ा (बेकिंग पावडर) और पिसी हुई चीनी...अभी भी वह दृश्य आंखों के सामने दिख रहा है...जमीन पर बैठे उस के पिता जी और वह ...एक अखबार के टुकड़े पर खाली कैप्सूल रखे हुए और दूसरे पर शक्कर और मीठे सोडे की ढेरी...दे दना दन ..लोगों को सेहतमंद करने का जुगाड़ किया जा रहा होता।

और साथ साथ उस के पिता जी मुस्कुराते रहते... उन के सभी मरीज़ पास के गांवों से आते और दस बीस दिन की दवाईयां लेकर चले जाते ..

फ्लैशबेक से वर्तमान का रूख करें?...

कल एक मेडीकल रिप्रेजेंटेटिव आया ..किसी दवाई के बारे में बता रहा था तो उस ने उस का कवर खोला...कैप्सूल निकाला....और कैप्सूल में से तीन छोटी छोटी गोलियां निकलीं...तस्वीर यहां लगा रहा हूं...उस ने फिर से बताना शुरू किया कि एक गोली तो तुरंत असर कर देगी...दूसरी गोली लंबे समय तक बारह घंटे तक असर करती रहेगी..(sustained release) और तीसरी गोली जो आंतों में पहुंच कर अपना असर कर पाएगी...(enteric coated)..
एम आर ने कैप्सूल खोला तो ये तीन गोलियां बीच में से निकलीं..
इस ब्लॉग पर मैंने पिछले कुछ वर्षों में इस विषय पर कुछ लेख लिखे हैं कि हमारी दवाईयां हमें टेबलेट के रूप में, कैप्सूल या इंजेक्शन के रूप में, जुबान के नीचे रखने वाली टेबलेट के रूप में, किसी इंहेलर के द्वारा दी जाने वाली भी हो सकती है ...यह सब वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर होता है कि कुछ दवाईयां हमारे पेट में जाकर अपना असर शुरू करने वाली होनी चाहिएं...और कुछ आंतों में ..सब कुछ साईंस है... ph का मसला है सब ... किस जगह पर कितना अमल है, कितना क्षार है, दवाई का क्या मिजाज है ...यह सब गहन मैडीकल रिसर्च के विषय हुआ करते हैं।

साथी के नीम हकीम पिता जी की बात कर ली, कल भूले भटके आए एक एम आर की बात कर ली...यह तो बस किस्सागोई जैसा लग सकता है ...दोनों बातें बिल्कुल सच हैं...लेकिन इन के माध्यम से दो बातें मैं अपने मरीज़ों से कहता रहता हूं..

पहली बात तो यह कि कभी भी खुले में मिलने वाली कोई भी दवाई न लिया करें....इस के बहुत से नुकसान हैं...आप को पता ही नहीं आप खा क्या रहे हैं, और किसी रिएक्शन की सिचुएशन में पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी दवाई खाने से ऐसा हो गया...अकसर खुले में बिकने वाली दवाईयां सस्ती और घटिया किस्म की होती हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों की दवाईयां जांच करने पर मानकों पर खरी नहीं उतर पातीं और खुले में बिकने वाली दवाई पर तो बिल्कुल भी भरोसा किया ही नहीं जा सकता....वैसे भी नीम हकीम खतराए जान....मैं अपने मरीज़ों को इस तरह की  खुली दवाईयों के बारे में इतना सचेत कर देता हूं कि वे उसे मेरे डस्टबिन में ही फैंक जाते हैं...वैसे भी खुले बिकने वाले कैप्सूल में क्या क्या भरा जा रहा होगा, कौन जाने, फुर्सत ही किसे है!

दूसरी बात यह है कि कईं बार कुछ लोग ऐसे भी दिखे कि किसी टेबलेट को पीस का मुंह में रख लेते हैं...दांत का दर्द तो इस से ठीक नहीं होता, मुंह में एक बड़ा सा ज़ख्म ज़रूर बन जाता है ..इस से भी बचना ज़रूरी है....

और कुछ ऐसे भी लोग दिखे जिन्होंने बताया कि कैप्सूल को खोल कर वे दवाई पानी के साथ ले लेते हैं...ऐसा भी गलत है...दवाई को कैप्सूल में डाल कर आप तक पहुंचाना कोई फैशन स्टाईल नहीं है ....यह उस दवाई को कार्य-क्षमता को बनाए रखने के लिए किया जाता है ...

जाते जाते ध्यान आ रहा है कुछ िदन पहले टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने पर कुछ इस तरह की कंट्रोवर्सी दिखी कि कैप्सूल का कवर जो वस्तु से बनता है ...वह जिलेटिन (gelatin) है...यह नॉन-वैज है...अब इस को भी वैज बनाने पर कुछ चल रहा है....मुझे उस समय भी यह एक शगूफा दी लगा था, और अभी भी यही लग रहा है ...उस दिन के बाद कभी यह कहीं भी मीडिया में नहीं दिखा....

आज वाट्सएप के कारण मेरी १९७३ के दिनों के अपने स्कूल से साथियों से बात हुई है ..मैं बहुत खुश हूं...इसलिए स्कूल के एक दौर की याद साझी करनी पड़ेगी...१९७५ के दिनों में शोले फिल्म आई...साईंस के मास्टर साहब..श्री ओ पी कैले जी ..working of call bell ...समझा रहे थे...फिर रटने के लिए कह रहे थे...और क्लास के पास ही किसी घर में लगे किसी लाउड-स्पीकर से शोले फिल्म का यह गीत बज रहा था...मेरा ध्यान उधर ज़्यादा था....मास्टर लोग सब कुछ ताड़ तो लेते ही हैं..मुझे बाहर बुलाकर एक करारा सा कंटाप जड़ दिया....उन का हाथ भी धर्मेन्द्र के हाथ जैसा ही भारी था...लेिकन फिर भी मुझे सारी आठवीं में call bell की प्रणाली समझ नहीं आई...शायद मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की, मन ही नहीं लगता था इन बोरिंग सी बातों में....आगे 9th क्लास से ढंग से साईंस को पढ़ना शुरू किया तो इस मोटी बुद्धि को कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगा... बहरहाल, वह गीत तो सुिनए जिस ने मेरे गाल को बिना वजह लाल करवा दिया....



रविवार, 16 फ़रवरी 2014

नकली दवाई के धंधे वालों को फांसी क्यों नहीं?

यह प्रश्न मुझे पिछले कईं वर्षों से परेशान किये हुए है।

हम लोग लगभग एक वर्ष पहले लखनऊ में आए...कुछ दिनों बाद हमें शुभचिन्तकों ने बताना शुरू कर दिया कि कार में पैट्रोल कहां से डलवाना है ..उन्होंने व्ही आई पी एरिया में दो एक पैट्रोल पंपों के बारे में बता दिया कि वहां पर पैट्रोल ठीक तरह से डालते हैं, मतलब आप समझते हैं कि ठीक तरह से डालने का क्या अभिप्राय है। 

कारण यह बताया गया कि ये पैट्रोल पंप जिस एरिया में हैं वहां से सभी मंत्रियों और विधायकों की गाड़ियों में तेल डलवाया जाता है। सुन कर अजीब सा लगा था, लेकिन जो भी हो, अनुभव के आधार पर इतना तो कह ही सकता हूं कि जो हमें बताया गया था बिल्कुल ठीक था। 

यह तो हो गई पैट्रोल की बात, अब आते हैं दवाईयों पर। नकली, घटिया किस्म की दवाईयों का बाज़ार बिल्कुल गर्म है। समस्या यही है कि हरेक बंदा समझता है कि नकली दवाईयां तो बाहर कहीं किसी और गांव कसबे में बिकती होंगी, हमें तो ठीक ही मिल जाती हैं, अपना कैमिस्ट तो ठीक है, पुराना है, इसलिए हम बिल मांगने से भी बहुत बार झिझक जाते हैं, है कि नहीं ?

 आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर दिखी ..  India-made drugs trigger safety concerns in US.
 हमेशा की तरह दुःख हुआ यह सब देख कर...विशेषकर जो उस न्यूज़-स्टोरी के टैक्स्ट बॉक में लिखा पाया वह नोट करें......

कश्मीर के एक बच्चों के अस्पताल में पिछले कुछ वर्षों में सैंकड़ों बच्चों की मौत का कारण नकली दवाईयों को बताया जा रहा है। एक आम प्रचलित ऐंटीबॉयोटिक में दवा नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं............

इस तरह के गोरख-धंधे जहां चल रहे हों...बच्चों की दवाईयां नकली, घटिया और यहां तक कि विभिन्न प्रकार की दवाईयों के घटिया-नकली होने के किस्से हम लोग अकसर पढ़ते, देखते, सुनते ही रहते हैं। 

लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन समझ में आ नहीं रहा कि लिखूं तो क्या िलखूं, सारा जहान जानता है कि ये मौत के सौदागर किस तरह से बच्चों से, टीबी के मरीज़ों तक की सेहत से खिलवाड़ किए जा रहे हैं। ईश्वर इन को सद्बुद्धि दे ...नहीं मानें तो फिर कोई सबक ही सिखा दे। 

आप कैसे इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच सकते हैं ?.........मुझे नहीं लगता कि आप का अपना कोई विशेष रोल है कि आप यह करें और आप नकली, घटिया किस्म की दवाई से बच गये। ऐसा मुझे कभी भी लगा नहीं ..इतनी इतनी नामचीन कंपनियाों की दवाईयां......इसी टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर में यह भी लिखा हुआ है.....
"A Kampala cancer institute stopped buying drugs from India in 2011 after receiving countefeit medicines with forged Cipla labels"

बस आप एक ग्राहक के रूप में इतना ही कर सकते हैं कि जब भी कोई दवा खऱीदें उस का बिल अवश्य लें......इस में बिल्कुल झिझक न करें कि दवा दस बीस रूपये की तो है, बिल लेकर क्या करेंगे ?.....  नहीं, केवल यही एक उपाय है जिस से शायद आप इन नकली, घटिया किस्म की दवाईयों से बच पाएं, कम से कम इस पर तो अमल करें।  शेष सब कुछ राम-भरोसे तो है ही। 

बड़े बडे़ अस्पताल कुछ दवाईयों की टैस्टिंग तो करवाते हैं लेिकन जब तक दवाई के घटिया (Substandard) रिपोर्ट आती है, तब तक यह काफ़ी हद तक मरीज़ों में बांटी जा चुकी होती है, कभी इस की किसी ने जांच की ?.... दवाईयों की जांच मरीज़ों को बांटने से पहले होनी चाहिए या फिर सांप के गुज़र जाने पर लकीर को पीटते रहना चाहिए। 

मैं कईं बार सोचता हूं ये जो लोग इस तरह की दवाईयों का कारोबार करते हैं, अस्पतालों में भी ये दवाईयां तो पहुंचती ही होंगी, जो जो लोग भी इन काले धंधों में लिप्त हैं, वे आखिर इस तरह के पैसे से क्या कर लेंगे....ज़्यादा से ज़्यादा, एक दो तीन चार महंगे फ्लैट, बढ़िया लंबी दो एक गाड़ियां, विदेशी टूर, महंगे दारू, या फिर रंगीन मिज़ाज अपने दूसरे शौक पूरे कर लेते होंगे.....लेकिन इन सभी लोगों का इंसाफ़ इधर ही होते देखा-सुना है। कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है जो इन दलालों और इन चोरों के परिवारों को हिलाने के लिए काफ़ी होता है। क्या ईमानदारों की ज़िंदगी फूलों की सेज ही होती है, यह एक अलग मुद्दा है...यह चर्चा का विषय़ नहीं है। 

लेकिन फिर भी समझता कोई नहीं है, मैंने अकसर देखा-सुना है कि लोग इस तरह के सब धंधे-वंधे करने के बाद, बंगले -वंगले बांध के, दुनिया के सामने देवता का चोला धारण कर लेते हैं। 

अभी तक खबरें आती रहती हैं किस तरह से यूपी में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में लिप्त लोगों ने लूट मचाई और इन का क्या हुआ यह भी बताने की ज़रूरत नहीं। 

दो चार िदन पहले मैं लखनऊ में हिन्दुस्तान अखबार देख रहा था.....शायद पहले ही पन्ने पर यह खबर थी कि एक मिलावटी कारोबारी को ऐसे मटर बेचने पर १० वर्ष की कैद हुई है जो सूखे मटरों को हरे पेन्ट से (जिस से दीवारों को पेन्ट करते हैं) रंग दिया करता था। अगर सूखे मिलावटी मटरों के लिए दस वर्ष तो मिलावटी, घटिया दवाईयों का गोरखधंधे वालों को और इन की मदद करने वालों के लिए फांसी या फिर उम्र कैद कोई ज़्यादा लगती है? नहीं ना....बिल्कुल नहीं. ....आप का क्या ख्याल है? आम आदमी वैसे ही महंगाई से बुरी तरह त्रस्त है, पता नहीं वह कैसे बीमारी का इलाज करवाने का जुगाड़ कर पाता है, ऊपर से नकली दवाई उसे थमा दी जाएगी तो उसे कौन बचाएगा?

इन बेईमानों, मिलावटखोर, बेईमान धंधों में लिप्त सभी लोगों को इन पर फिट होता एक गीत तो डैडीकेट करना बनता है........

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

मुंह के ये घाव/छाले.....II……..कुछ केस रिपोर्ट्स

कल मैंने इन मुंह के छालों पर पहली पोस्ट लिखी थी और आज मैं हाजिर हूं कुछ केस रिपोर्ट्स के साथ।

- एक महिला ने जब होली मिलन के दौरान मिठाईयां खाईं तो उन के मुंह में छाले से हो गये जिस पर वे हल्दी लगा कर काम चला रही हैं।

अब यह एक बहुत ही आम सी समस्या है...इतने ज़्यादा मुंह के मरीज़ जो आते हैं उन से जब बिल्कुल ही कैज़ुयली पूछा जाता है कि कैसे हो गया यह, तो बहुत से लोगों का यही कहना होता है कि बस, एक-दो दिन पहले एक पार्टी में खाना खाया था। तो,इस से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं................हमें यही सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इन विवाह-शादियों के खाने में तरह तरह के मसालों वगैरह की भरमार तो होती है जो कि हमारे मुंह के अंदर की कोमल चमड़ी सहन नहीं कर पाती.......अब पेट ने तो गैस बना कर, बदहज़मी कर के अपना रोष प्रकट कर लिया, लेकिन मुंह की चमड़ी को अपना दुःखड़ा कैसे बताये ! सो, एक तरह से मुंह में इस तरह के घाव अथवा छाले वह दुःखड़ा ही है। और अकसर ये छाले वगैरह बिना कुछ खास किये हुये भी दो-तीन दिन में ठीक हो ही जाते हैं। आम घर में इस्तेमाल की जाने वाली कोई प्राकृतिक वस्तु (हल्दी आदि) से अगर किसी को आराम मिलता है तो ठीक है , आप उसे लगा सकते हैं। लेकिन कभी भी इतनी सी चीज़ के लिये न तो ऐंटीबायोटिक दवाईयों के ही चक्कर में पड़े और न ही मल्टीविटामिनों की टेबलेट्स ही लेनी शुरू कर दें। इन को कोई खास रोल नहीं है......यह लाइन भी बहुत बेमनी से लिख रहा हूं कि कोई खास रोल नहीं है। मेरे विचार में तो कोई रोल है ही नहीं.....जैसे जैसे इस सीरीज़ में आगे बढ़ेंगे, इन छालों के लिये बिना वजह ही इस्तेमाल की जाने वाली काफी दवाईयों को पोल खोलूंगा।

लेकिन किसी का मिठाई खा लेने से ही मुंह कैसे पक सकता है ?........जी हां, यह संभव है। क्योंकि पता नहीं इन मिठाईयों में भी आज कल कौन कौन से कैमीकल्स इस्तेमाल हो रहे हैं। लेकिन क्या करें, हम लोगों की भी मजबूरी है...अब कहीं भी गये हैं तो थोड़ा थोड़ा चखते चखते यह सब कुछ शिष्टाचार वश अच्छा खासा खाया ही जाता है। लेकिन हमारे किसी तरह के अनाप-शनाप खाने को पकड़ने के लिये यह हमारे मुंह के अंदर की नरम चमड़ी एक बैरोमीटर का ही काम करती है....झट से इन छालों के रूप में अपने हाथ खड़े कर के हमें चेता देती है। अभी मैं कैमिकल्स की बात कर रहा हूं तो एक और केस रिपोर्ट की तरफ ध्यान जा रहा है।

एक व्यक्ति जब भी सिगरेट पीता था तो उस के मुंह में छाले हो जाते थे.......

सिगरेट पीने पर भी मुंह में इस तरह के छाले होने वाला चक्कर भी बेसिकली कैमिकल्स वाला ही चक्कर है। यह तो हम जानते ही हैं कि सिगरेट के धुयें में निकोटीन के अतिरिक्त बीसियों तरह के कैमीकल्स होते हैं जिन्हें हमारे मुंह की कोमल त्वचा सहन नहीं कर पाती है और इन छालों के रूप में अपना आक्रोश प्रगट करती है। अगर हम इस नरम चमड़ी के इस तरह के विरोध को समय रहते समझ जायें तो ठीक है ....नहीं तो, यूं ही तो नहीं कहा जाता कि तंबाकू का उपयोग किसी भी रूप में विनाशकारी है।

एक अन्य केस रिपोर्ट है कि किसी व्यक्ति ने ध्यान दिया है कि जब भी वे बिना धुली कच्ची सब्जी, फल इत्यादि खाते हैं तो उन्हें मुंह में एक फुंशी सी हो जाती है।

कौन लगायेगा इस का अनुमान !...जी हां, यह भी कैमीकल्स का ही चक्कर है। आज कल सब्जियों - फलों पर इतने कैमीकल्स-फर्टीलाइज़र इस्तेमाल हो रहे हैं कि बिना धोये इन को खाने से तो तौबा ही कर लेनी ठीक है। फलों को भी तरह तरह के कैमीकल्स लगा कर तैयार किया जाता है.....आपने देखा है ना जो अंगूर हमें मिलते हैं उन के बाहर किस तरह का सफेद सा पावडर सा लगा होता है....ये सब कैमीकल्स नहीं तो और क्या हैं !....आम के सीज़न में आमों का भी यही हाल है......कईं बार जब हम आम को चूसते हैं तो क्यों हमारे मुंह पक सा जाता है....सब कुछ कैमीकल्स का ही चक्कर है। ऐसे में यही सलाह है कि सभी फ्रूट्स को अच्छी तरह धो कर ही खाया जाये। और आम को काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है...नहीं तो पता नहीं इसे चूसते समय हम इस के छिलके के ऊपर लगे कितने कैमीकल्स अपने अँदर निगल जाते होंगे। वैसे बातें तो ये बहुत छोटी-छोटी लगती हैं लेकिन हमारी सेहत के लिये तो शायद यही बातें ही बड़ी बड़ी हैं।

एक 20-22 वर्ष का नौजवान है...उस को हर दूसरे माह मुंह में छाले हो जाते हैं । वह घर से बाहर रहता है। अकसर इन छालों के लिये सारा दोष कब्ज के ऊपर मढ़ दिया जाता है। उस युवक ने दांतों की सफाई भी करवा ली है, लेकिन अभी वह इन छालों से निजात पाने के लिये कोई स्थायी इलाज चाहता है।

इस युवक की उम्र देखिये....20-22 साल.....ठीक है , उस के मुंह में टारटर होगा, या कोई और दंत-रोग होगा जिस के लिये उस ने दांतों एवं मसूड़ों की सफाई करवा ली है। ठीक किया । लेकिन अगर इस से यह समझा जाये कि अब मुंह में छाले नहीं होंगे, तो मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। इस का कारण मैं विस्तार में बताना चाहूंगा।

यह जो कब्ज वाली बात भी अकसर लोग कहने लग गये हैं ना इस में कोई दम नहीं है......कि कब्ज रहती है,इसलिये मुंह में छाले तो होंगे ही। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब 1982 में हमारे प्रोफैसर साहब इन मुंह के छालों के बारे में पढ़ा रहे थे तो उन्होंने भी इस कब्ज से मुंह के छालों के लिंकेज को एक थ्यूरी मात्र ही बताया था। और सब से ऊपर हाथ कंगन को आरसी क्या .....अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में मैंने तो यही देखा है कि जब हम लोगों को कहीं कुछ समझ में नहीं आता तो हम झट से कोई स्केप-गोट ढूंढते हैं ...विशेषकर ऐसी कोई जो कि लोगों की साइकी में अच्छी तरह से घर कर चुकी होती है। और यह कब्ज और मुंह के छालों का लिंकेज भी कुछ ऐसा ही है।

वैसे चलिये ज़रा इस के ऊपर विस्तार से चर्चा करें......सीधी सी बात है कि वैसे तो किसी भी उम्र में जब किसी को कब्ज हो तो कुछ न कुछ गड़बड़ तो कहीं न कहीं है ही......लेकिन 20-22 के युवक में आखिर क्यूं होगी कब्ज। और यकीन मानिये ये जो हम कब्ज के विभिन्न प्रकार के डरावने से कारणों के बारे में अकसर यहां वहां पढ़ते रहते हैं ना, शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों कब्ज से परेशान मरीज़ों में से किसी एक को ही ऐसी कोई अंदरूनी तकलीफ़ होती होगी। ऐसा मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि अधिकांश कब्ज के केस हमारी जीवन शैली से ही संबंधित हैं.....हमारी बोवेल हैबिट्स रैगुलर नहीं है। 20-22 के युवक में कब्ज होना इस बात को इंगित कर रही है कि या तो उस युवक का खान-पीन ठीक नहीं है या उस में शारीरिक परिश्रम की कमी है। खान-पान से मेरा मतलब है कि उस युवक का खाना-पीना संतुलित नहीं होगा, उस के भोजन में सलाद, रेशेदार फ्रूट्स की कमी होगी....क्योंकि अगर कोई इन वस्तुओं का अच्छी मात्रा में सेवन करता है तो कब्ज का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। और अगर फिर भी है तो अपने चिकित्सक को ज़रूर मिलें...........लेकिन पहले अपना खान-पान तो टटोलिये......सारी कमी यहीं पर नज़र आयेगी। और हां, कब्ज के लिये विभिन्न प्रकार के अंकुरित दालें एवं अनाज बेहद लाभदायक हैं। और मुझे जब कुछ साल पहले ऐसी समस्या हुई थी तो मैं एक-दो आँवले रोटी के साथ अचार के रूप में खा लिया करता था और जब बाज़ार में आंवले मिलने बंद हो जाया करते थे तो आंवले के पावडर का आधा चम्मच ले लिया करता था, जिस से कब्ज से निजात मिल जाया करती थी। मैं अपने आप ही किसी भी तरह की कब्ज से निजात पाने वाली दवाईयां लेना का घोर-विरोधी हूं.....इस तरह से अपनी मरजी से ली गई दवाईयां तो बस कब्ज को बद से बदतर ही करती हैं ... और कुछ नहीं, इस के पीछे जो वैज्ञानिक औचित्य है उस को किसी दूसरी पोस्ट में कवर करूंगा।

और हां, बात हो रही थी, किसी 20-22 साल के युवक की जिसे कब्ज भी रहती है और यह समझा जाता है कि मुंह के छाले इसी कब्ज की ही देन हैं। तो यहां पर एक बात बहुत ही ध्यान से समझिये कि किसी बंदे को कब्ज है ....इस का अधिकांश केसों में जैसा कि मैंने बताया कि निष्कर्ष यही तो निकलता है कि उस के खाने-पीने में गड़बड़ है....वह रेशेदार फल-फ्रूट-सब्जियां एवं दालें ठीक मात्रा में ले नहीं रहा और/अथवा जंक फूड़ पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा किया जा रहा है। क्योंकि कब्ज का रोग मोल लेने का एक आसान सा तरीका तो है ही कि इस मैदे से बने तरह तरह के आधुनिक व्यंजनों( बर्गर, नूडल्स, पिज़ा, हाट-डाग आदि आदि आदि) को हम अपने खाने में शामिल करना शुरू कर दें।
......मुझे तो ज़्यादा नाम भी नहीं आते क्योंकि मैं तो बस एक ही तरह के जंक फूड का बिगड़ा हुया शौकीन हूं....आलू वाले अमृतसरी नान व छोले......जंक इस लिये कह रहा हूं कि ये अकसर मैदे से ही बनते हैं ...लेकिन फिर मैं दो-तीन महीनों में एक बार इन्हें खाकर पंगा मोल ले ही लेता हूं और फिर सारा दिन खाट पकड़ कर पड़ा रहता हूं जैसा कि इस पिछले रविवार को हुया था...।

बस जाते जाते बात इतनी ही करनी है कि इस 20-22 साल के युवक के खान-पान में कुछ ना कुछ तो गड़बड़ है ही, अब अगर वह इन बातों की तरफ़ ध्यान देगा तो क्यों होगा वह बार बार इन मुंह के छालों से परेशान....क्योंकि जब शरीर को संतुलित आहार मिलता है तो शरीर में सब कुछ संतुलित ही रहता है और मुंह की कोमल त्वचा भी स्वच्छ ही रहती है क्योंकि जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि यह मुंह के अंदर की कोमल त्वचा तो वैसे भी हमारे सारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है।

बाकी, बातें अगली पोस्ट में ...इसी विषय पर करेंगे। अगर इस का कोई अजैंडा सैट करना चाहें तो प्लीज़ बतलाईयेगा....टिप्पणी में या ई-मेल में।

3 comments:

Ghost Buster said...

बहुत बहुत शुक्रिया. अच्छी जानकारी रही.

दिनेशराय द्विवेदी said...

धन्यवाद! प्रवीण जी। आप ने कब्ज वाली थ्योरी को झाड़ दिया। मेरी कोई मानता न था। पर आप के विश्लेषण से एक बात यह सामने आई कि कब्ज होने और छाले होने के बहुत से कारण समान हैं। इस कारण यह हो सकता है कि कब्ज और छाले साथ-साथ होते हों और इसी कारण यह धारणा बनी हो। कब्ज की दवा लेने से कब्ज तो ठीक होती ही है पथ्य भी सुधार लेने से छाले भी स्वतः ही एक-दो दिनों में ठीक हो लेते हैं।
आप का यह सुझाव अच्छा है कि रेशेदार खाद्य भोजन में अवश्य होना चाहिए। इस के लिए अंकुरित अनाज और दालों का उपयोग सही और सुगम भी है। अगर एक-दो फल नित्य ही अच्छी तरह धोकर खा लिए जाएं तो मेरे विचार में उत्तम है। मैं यह अवश्य जानना चाहूंगा कि अगर छाले हो जाएं और वह भी काफी बड़े और कष्टदायी तो क्या करना चाहिए?
आप के द्वारा दी गई जानकारी के लिए पुनः आप का बहुत बहुत धन्यवाद।

Udan Tashtari said...

जानकारी अच्छी है मगर डर गये हम मसाला खाने वाले!!

गुरुवार, 27 मई 2010

छाती की जलन के लिये ली जाने वाली दवाई बढ़ा देती है फ्रैक्चर रिस्क

आज की आधुनिकता की अंधी दौड़ की एक देन तो है कि हर दूसरा आदमी छाती की जलन से परेशान है और इस के लिये बहुत बार बिना किसी डाक्टरी नुस्खे के ही अपने आप ही पेट में एसि़ड कम करने वाली दवाईयां लेना शुरू कर देते हैं।
और इस तरह की दवाईयों की हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक सामान्य डोज़ लेना रिस्क से खाली नहीं है, वैज्ञानिकों की खोज से पता चला है कि हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक इन दवाईयों को लेने से हिप (कुल्हा), कलाई एवं स्पाईन (रीढ़ की हड्डी) का फ्रैक्चर होने का रिस्क बढ़ जाता है।
पता नहीं आज कल इन दवाईयों का चलन बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया है ---जिन हस्पतालों में दवाईयां मुफ्त वितरित की जाती हैं वहां भी मरीज इन दवाईयों का नाम ले कर इस तरह से मांगते हैं जैसे पिपरमिंट की गोलियों हों। और खाने पीने संबंधी बदलाव की सलाह देने पर वही जवाब होता है कि हम तो पहले ही से सावधानी बरतते हैं।
क्या आप को नहीं लगता कि हमारे शरीर में जो कुछ भी पदार्थ (सिक्रेशन्ज़-- secretions) आदि बन रहे हैं उन का अपना बहुत महत्व है--वे कईं शारीरिक क्रियाओं में अहम् भूमिका निभाते हैं। इस लिये अपनी मरजी से इस तरह की बिल्कुल हानिरहित सी दिखने वाली दवाईयां ले लेने से हम लोग कईं रिस्क मोल ले लेते हैं।
लेकिन अगर क्वालीफाईड डाक्टर कुछ समय के लिये इस तरह की दवाईयां खाने का नुख्सा दे तो अवश्य लें---वैसे तो इस रिपोर्ट में डाक्टरों को भी इन दवाईयों को लंबे समय तक मरीज़ों को देने के बारे में अच्छा खासा चेताया गया है।
बिल्कुल छोटे छोटे से तो देखते थे कि नानी-दादी इस काम के लिये थोड़ा सा मीठा सोड़ा पानी में घोल कर पी लिया करती थीं--- घर में बात करते हैं कि मेरी दादी पकौड़ों की बहुत शौकीन थीं --- और इन्हें खाने के बाद मीठे सोडा तो उन्हें चाहिये ही था। फिर समय आया जब हम लोग 15-20 साल के हुये तो टीवी पर हाजमा दुरूस्त करने के लिये एक पावडर का विज्ञापना बहुत आता था जिस की शीशी को लोगों ने घर में रखना एक स्टेट्स सिंबल समझना शुरु कर दिया था।
फिर हम लोग मैडीकल की पढ़ाई पढ़ने लगे तो देखा कि एंटासि़ड की गोलियां और पीने वाली दवाईयां खूब पापुलर हो गई हैं। और पिछले कुछ सालों से तो लोगों का इन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों से भी कुछ नहीं बनता ---अब तो वे चाहते हैं कि किसी तरह से पेट में पैदा होने वाले एसिड् को समाप्त ही कर दिया जाये, लेकिन इस तरह की दवाईयां मनमर्जी से एवं लंबे समय तक लेने से होने वाले रिस्क आप जान ही गये हैं।
दवाई तो दवाई है ---- साल्ट है, ऐसे कैसे हो सकता है कि किसी भी साल्ट का कोई भी दुष्परिणाम न हो। और हां, जिन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों की बात हो रही थी उन के अंधाधुंध इस्तेमाल से होने वाले दुष्परिणामों ( जैसे कि फ्रैक्चर रिस्क बढ़ना) के बारे में भी कुछ समय पहले खूब रिपोर्ट दिखीं थीं।
और तो और कुछ समय से यह भी सुनने में आ रहा है कि ये जो कोलेस्ट्रोल कम करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयां है इन के भी लिवर पर, किडनी पर बुरे प्रभाव हो सकते हैं और इन के उपयोग से सफेद मोतिया भी हो सकता है ---अब बात यह है कि अगर कोई पहले से ऐसी दवाईयां ले रहा है तो क्या वह इसे बंद कर दे। नहीं, ऐसा करना उचित नहीं है, फ़िज़िशियन ने आप के लिये वे दवाईयां लिखी हैं तो लेनी ही होंगी ताकि आप के हृदय की सेहत की रक्षा की जा सके।
लेकिन यह ध्यान भी रखा जाना ज़रूरी है कि इस तरह की दवाईयां लेते समय अगर कोई भी ऐसे वैसे अजीब से लक्षण दिखें तो डाक्टर से संपर्क अवश्य करें और मैं कुछ दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि ऐसे ज़्यादातर दुष्परिणाम इस तरह की दवाईयां शुरू करने के एक साल के भीतर होने की संभावना ज़्यादा होती है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि इस तरह की कोलैस्ट्रोल कम करने वाली दवाईयों को अगर एक बैशाखी के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो ही बेहतर है ---ठीक है, डाक्टर कहते हैं तो लेनी ही पड़ती हैं लेकिन क्यों न अपने खाने-पीने के तौर-तरीके और जीवन शैली इस कद्र बदल दिये जाएं कि डाक्टर लोग जब लिपिड प्रोफाईल जैसा टैस्ट करवायें और वे इतने आश्वस्त हो जाएं कि इन्हें बंद करने की सलाह ही दे डालें।
हां, बात शूरू हुई थी छाती में जलन से इसलिये बात खत्म भी वही होनी चाहिये ----मेरे को भी महीने में एक-आध बार इस तरह की समस्या तो होती ही है ---कईं बार तंग आ कर मैं भी इस तरह के कैप्सूल ले तो लेता हूं लेकिन बहुत बार मैं इस काम के लिये आंवले के पावडर का एक चम्मच ले कर सैट हो जाता हूं ----आप भी इसे आजमा सकते हैं।

मंगलवार, 29 मार्च 2016

अगर आप पानमसाला, गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, सुरती, पान इस्तेमाल करते हैं..

मैं इधर उधर के विषयों के बारे में कुछ भी लिख कर टाइमपास करता रहूं लेकिन एक विषय जिस पर मेरा ध्यान सारा दिन टिका रहता है वह यही है कि किस तरह से लोगों के मन में तंबाकू के विभिन्न प्रोडक्ट्स के प्रति जागरूकता पैदा की जा सके।

शायद ही कोई दिन ऐसा निकलता हो जब मैं एक या दो ऐसे मरीज़ों को नही देखता जिन में तंबाकू की वजह से मुंह में होने वाली किसी भयंकर बीमारी का अंदेशा न होता हो। 

अभी ध्यान आया कि कुछ इस तरह का लिखूं कि अगर आप कुछ भी खाने-चबाने के शौकीन हैं, पानमसाला, गुटखा, सुरती, पान, बीड़ी, सिगरेट ...तंबाकू वाले मंजन ...कुछ भी तो आप को किस हालात में किसी क्वालीफाईड दंत चिकित्सक से अपना मुंह दिखवा लेना चाहिए...

मुंह में घाव जो १५ दिन में नहीं भर रहा हो

ठीक है, यह कहा जाता है ..लेिकन मैंने देखा है कि लोगों के मन में इस से डर ज़्यादा बैठा हुआ है ..बहुत से मुंह के घाव जिन्हें मरीज़ समझता है कि कुछ नहीं है, ऐसे ही है, वे सब से खतरनाक किस्म के हो सकते हैं और जिन्हें मरीज समझता है कि ये भयंकर हैं, वे चंद दिनों में अपने आप ठीक होने वाले हो सकते हैं।

तो इस का समाधान यही है कि कोई अनुभवी एवं क्वालीफाइड दंत चिकित्सक ही आप का मुंह देख कर आप के मुंह के घाव के प्रकार का पता लगा सकता है ..क्योंकि वह सारा दिन मुंह के अंदर ही झांकता है, छोटे से छोटे बदलाव भी वह देख लेता है और आप को समुचित इलाज के लिए प्रेरित करता है।


अगर बीड़ी सिगरेट पीने वाले में मुंह के अंदर होठों के कोनों के पास जख्म हैं तो तुरंत डैंटिस्ट को दिखाईए... एक बात यहां बताना ज़रूरी है कि बीड़ी सिगरेट से मुंह के अलग हिस्से प्रभावित होते हैं ..और अन्य तंबाकू उत्पादों जैसे कि गुटखा, पान मसाला से अन्य हिस्से प्रभावित होते हैं।
सिगरेट बीड़ी पीने वालों में इसी तरह के घाव से शुरूआत होती है ..

 दांतों का अपने आप हिलना

अब यह एक बहुत ही आम समस्या है ..बहुत से लोगों के दांत अपने आप हिलते हैं, बेशक पायरिया आदि की वजह से ही होता है यह अधिकतर या वृद्धावस्था में कईं बार जबड़े की हड्डी की पकड़ ढीली पड़ने की वजह से भी यह होता है ..लेकिन कईं बार अपने आप ही किसी एक तरफ़ के दांतों का हिलना, और इतना हिलना कि अपने आप ही उखड़ जाना...यह एक खतरनाक सिग्नल है ...इसे पढ़ कर घबराने की ज़रूरत नहीं ...क्योंिक मरीज़ों में ऐसा देखते हैं इसलिए लिख रहा हूं...जितने मरीज़ हम लोग ओपीडी में देखते हैं दांत हिलने से परेशान...शायद एक प्रतिशत मरीज़ों में ही यह दांतों का अपने आप हिलना मुंह के कैंसर की वजह से होता है...लेिकन यह कोई फिक्स नहीं है...अकसर मसूड़ों आदि का कैंसर जब जबड़े की तरफ़ बढ़ जाता है तो इस तरह की जटिलता पैदा होती है।

अचानक पानी के बताशे खाने में दिक्कत हो ...

अगर आप पानमसाला गुटखा लेते हैं और आप को कभी यह लगे कि मैं तो पानी के बताशे भी ठीक से नहीं खा पा रहा हूं ..इस का मतलब यही है कि आप के मुंह की चमड़ी की लचक कम हो रही है या हो चुकी है ...उसी दिन से पानमसाले-गुटखे को त्याग कर डैंटिस्ट से अपने मुंह की निरीक्षण करवाएं।

मुंह पूरा न खुल पाना यह एक बहुत आम समस्या होने लगी है ...मैंने बीसियों लेख इसी ब्लॉग पर इसी समस्या को लेकर लिखे हैं... लेिकन होता यह गुटखा, पानमसाला, सुपारी की वजह से ही है ...कुछ अन्य कारण भी हैं जिन में मुंह कुछ दिनों के लिए कम खुलता है....जैसे किसी दांत में इंफेक्शन, कईं बार दांतों के इलाज के लिए मुंह में जो टीका लगता है उस की वजह से भी कुछ दिन मुहं पुरा खोलने में दिक्कत आ जाती है, कईं बार कुछ दिनों के लिए अकल की जाड़ हड्डी के अंदर दबी हुई या आधी-अधूरी निकली हुई भी परेशान किए रहती है ...लेकिन यह सब कुछ िदनों के लिए ही होता है ...डैंटिस्ट को देखते ही सही कारण समझ में आ जाता है।

इसे भी ज़रूर पढ़िएगा...मुंह न खोल पाना- एक आम समस्या: ऐसे भी और वैसे भी ..(इस लिंक पर क्लिक करिए)

मुंह के किसी घाव से खून आना, कोई मस्सा होना मुंह में..सूजन होना जो दवाईयों से न जा रही हो, ये सब इतनी नान-स्पेसेफिक से इश्यू हैं कि लोगों के मन में बिना वजह डर पैदा हो जाता है जब कि ये सब मुंह के कैंसर के अलावा ही अधिकतर देखा जाता है...कैंसर तो चुपचाप अपना काम करता रहता है ..इसीलिए ज़रूरी नहीं कि इस तरह के लक्षण हों तो तभी आप डैंटिस्ट से मिलें ...और अगर ये लक्षण नहीं हैं तो आप को डेंटिस्ट से नियमित परीक्षण करवाने की ज़रूरत ही नहीं है, ऐसा बिल्कुल नहीं है, सलाह यही है कि हर छः महीने के बाद दंत चिकित्सक से मिल लिया करें...अगर आप ये सब चीज़ें नहीं भी इस्तेमाल करते तो भी दांतों की कैविटी, पायरिया आदि की रोकथाम के लिए या उन्हें प्रारंभिक अवस्था में पकड़ने के लिए भी यह रेगुलर विज़िट जरूरी होती है।

अब कितना लिखें यार इस विषय पर ...पिछले पंद्रह सालों से लिखे ही जा रहा हूं ...निरंतर ...लेिकन पता नहीं ऐसा क्या है, इस ज़हर में कि लोग छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे ....यह कब किसे अपनी चपेट में ले लेगा, कोई नहीं जानता..आप के हाथ में बस इतना है कि इन उत्पादों से दूर रहिए, और दंत चिकित्सक से रेगुलर चैक-अप करवाते रहिए। बोर हो गये हैं यार लिखते लिखते इस विषय पर ....लेिकन बोर होने से बात बनने वाली नहीं है ...

मैं जब भी किसी मुंह के कैंसर के मरीज़ को देखता हूं पहली बार तो मुझे सब से मुश्किल बात यही लगती है कि यार, इसे बताएं कैसे ...क्योंकि बायोप्सी आदि तो बाद में होती ही है, अधिकतर केसों में पता चल ही जाता है ...यह बड़ा फील होता है कि वह तो ऐसे हल्के फुल्के अंदाज़ में दांत मसूड़े की किसी तकलीफ़ के लिए दवाई लेने आया और मुझे इसे कुछ और बताना पड़ेगा...

समय के साथ उस को इस के बारे में बताने का तरीका भी आने लगता है...पहली बार में कितना कहना है, कितना नहीं, उसे सदमा भी नहीं लगना चाहिए, लेकिन वह हमारी बात को इतना हल्के में भी न ले कि फिर दिखाने ही न आए...सभी बातों का संतुलन रखते हुए मुझे हर ऐसे मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट अलग से बिताने ही होते हैं...जिस में मैं पहली ही विज़िट में उस का मनोबल इतना बढ़ा देता हूं कि वह पूरे इलाज के तैयार हो जाए और उसी दिन से ही पान, तंबाकू-वाकू को हमेशा के लिए थूक दे..

बचपन में मास्साब कहानियां सुनाते थे तो बाद में उस से मिलने वाली शिक्षा का भी ज़िक्र होता था... लालच बुरी बला है, एकता में बल है, याद है ना आप सब को ...बस, मेरी इतना आग्रह है कि मेरी ऊपर लिखी बातों को पढ़ कर समझें या न समझें, याद रखें या न रखें, लेिकन इन उत्पादों से हमेशा दूर रहें....यह आग का खेल है...खेल उन सिनेस्टारों के लिए है जिन्होंने कभी इन चीज़ों को इस्तेमाल नहीं किया होता लेिकन करोड़ों रूपये के लालच में युवाओं का बेड़ागर्क करने में भी नहीं चूकते ....और ये हीरो आज के युवाओं के रोल-माडल हैं!.... अफसोस...