रविवार, 26 अप्रैल 2015

गधे और घोड़े में तो भेद हो नहीं पाता!

एनबीटी का मैसेज भी आया था कि आज आप साईक्लिंग इवेंट के लिए गोमती नगर आएं...बस, ऐसे ही आज साईक्लिंग जाने की इच्छा ही नहीं हुई। वैसे भी इस तरह की हाई-फाई नौटंकियों से दूर ही रहना अच्छा लगता है।

अभी सोचा कि कल की साईकिल यात्रा का वृत्तांत तो लिखा ही नहीं, चलिए उसे ही आप से शेयर करते हैं। 

कल जब मैंने अपनी यात्रा शुरू की तो मेरी नज़र इस घोड़े पर पड़ गई....इस की सुस्ती देख कर लगा ही नहीं कि यह घोड़ा है, एक बार तो लगा कि गधा ही होगा। 

जब मैं एक गांव की तरफ़ निकल गया तो मुझे यह गधा दिख गया...आप को भी गधा लग रहा है न! 


अकसर कईं बार गधा और घोड़ा देख मैं पशोपेश में पड़ जाता हूं कि यार यह घोड़ा है, घोड़ी है या फिर खोता है (गधे का पंजाबी शब्द खोता). ..



कईं बार मैं थोड़ा बहुत कद-काठी से घोड़े- घोड़ी का अनुमान तो लगा लेता हूं ...और कईं बार.............हा हा हा हा हा (समझ गए!!) 

अब लगने लगा है कि जो कहावत नौकरीपेशा लोग अकसर दोहराते रहते हैं कि गधे और घोड़े को एक ही चाबुक से हांका जाता है, ठीक ही होगी.....जब हम जैसे घूमने-फिरने वाले लोगों को  ही घोड़े और गधे में अंतर करने के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, तो फिर सरकारी तंत्र तो ठहरा सरकारी!


वैसे तो सेहत एक ऐसा मुद्दा है जिस पर शायद हमारा वश किसी सीमा तक ही होता है...यह किसी भी तरह से उपहास का कारण नहीं है लेकिन फिर भी मैंने पिछले रविवार को जब एक पुलिसकर्मी को कुछ बेबस अवस्था में देखा तो मुझे बहुत महसूस हुआ। यह सिपाही बीमार लग रहा था ..जिस तरह से लाठी की टेक लगा लगा कर चल रहा था और इस की पन्नी में लौकी का जूस भी इस की हालत ब्यां कर रहा था....इस की सेहत पर कोई और टिप्पणी नहीं। 

बस, उस वक्त यही ध्यान आ रहा था...कि सब के दिन एक समान नहीं रहते ...कभी कभी किसी निर्दोष पर ताबड़तोड़ लाठी भांजते हुए अगर पुलिसकर्मी यह याद कर लें कि कभी हमें भी लाठी का इस्तेमाल इस तरह से टेक लगाने के लिए भी करना पड़ सकता है, तो कानून और व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर इन के द्वारा किये जा रहे इंतज़ामों में भी मानवीय दृष्टिकोण शामिल हो ही जाएगा। ईश्वर इसे स्वस्थ करे .....और अपनी लाठी अपने "असली अंदाज़" में पकड़ पाए। 

हम लोग अकसर कभी कभी आकाश में उड़ते हुए हवा से बातें करने लगते हैं, कुछ लोगों को हिकारत भरी निगाहों से देखने की बहुत बड़ी भूल भी करते रहते हैं....लेकिन समय से डर कर रहना चाहिए....."वक्त" फिल्म ने हमें बहुत बरसों पहले चेता दिया था ...कल के भूपंक के झटकों ने एक बार फिर से याद दिला दी......हमारे फ्रेजाईल अस्तित्व पर .....प्रकृति जब चाहे चंद लम्हों में सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दे। 
 कल मुझे सूर्य महाराज के दर्शन इस प्रकार से हुए
कल मैंने अपनी यात्रा के दौरान इन स्कूल के बच्चों को देखा तो मेरा ध्यान हमारा आरक्षण पालिसी की तरफ गया....यह जो साईकिल चलाने वाला लड़का है, यह किसी दूर गांव से शहर पढ़ने जा रहा है। देश में सभी मां-बाप की संवेदनाएं एक सी होती हैं...हम लोग अपने बच्चों को उन की बस में बिठाने जाते हैं..और लौटने पर रिसीव करने के लिए भी खड़े होते हैं अकसर...लेकिन ये बच्चे अपने आप ही बहुत से संभ्रांत परिवारों से कहीं ज़्यादा सुसंस्कृत और लाइव-स्किल्स सीख जाते हैं...अपने आप ही चलते चलते......वैसे भी संभ्रांतम् स्कूलों के कारनामें हम आए दिन अखबारों में पढ़ते ही हैं...़

जिस रोड पर यह स्कूली छात्र साईकिल चला रहा था वहां पर साढ़े सात बजे के करीब ट्रकों और अन्य वाहनों का खूब आना जाना शुरू हो चुका था। 

और ये बच्चियां देखिए किस तरह से खुशी खुशी सरकार के सर्वशिक्षा अभियान को सफल करने में जुटी हुई हैं......मुझे इस तरह उमंग से स्कूल जाते बच्चों को देखना बहुत खुशी देता है। 

लेकिन इन बच्चों को देखते ही मेरे मन में देश की आरक्षण नीति के बारे में बहुत से विचार कौंदने लगते हैं। सरकारी नीति है, टिप्पणी करनी वैसे तो बनती नहीं, लेकिन फिर भी अब देखादेखी हमभी मन की बात कहना सीख रहे हैं। अकसर देखा है कि सरकारी आरक्षण का फायदा संभ्रांत लोग और उच्च पदों पर आसीन लोगों के बच्चे ही ले पाते हैं......यह बहुत बड़ा मुद्दा है .....सोचने की बात है कि कितने इस तरह के बच्चों को आरक्षण का फायदा मिल पाता है.....आप भी इस के बारे में सोचिए......मैंने तो देखा है अधिकारियों के बच्चे ही इस तरह के लाभ अधिकतर उठा पाते हैं....आरक्षण का मतलब तो यही है कि इस का लाभ पंक्ति के आखिर में खड़े इंसान तक भी पहुंचे.....एक बार किसी को आरक्षण का फायदा मिल गया....वह कोई अफसरी या नौकरी पा गया तो अब आरक्षण किसी दूसरे परिवार को उठाने के लिए इस्तेमाल हो तो बात है!...वरना सारी रेवडियां चंद परिवार ही खाते चले जाएं तो कैसा लगता है!  यह विचार तो अकसर आते रहते हैं...खाली पीली ख्याली पुलाव हैं, मैं जानता हूं...कुछ भी बदलने वाला भी नहीं, क्योंकि नियम में बदलाव कर पाने वाले स्तर के लोग क्या ऐसा बदलाव करना चाहेँगे!
प्रकृति की गोद में.....Far from the madding crowd!
यह धावक यह प्रेरणा देता दिख गया कि हर काम में लगन चाहिए
इमारतों का यह सीमेंट जैसे कलर बहुत बढ़िया लगता है..
भट्ठी वाली माई से जुड़ी मीठी यादें
कल गांव की इस तोरई की सब्जी खा कर तबीयत इन के जैसे ही हरी हो गई.
आप इस दबंग को भी देख लें.. (possibly inspired by Bollywood) 
हम लोगों ने जहां दबंगई दिखाऩी होती है हम अपने आप को सलमान खा समझ लेते हैं......ऐसा ही एक दबंग मैंने सड़क पर देखा जो झट से अपनी कार से उतरा और एक ट्रक ड्राईवर से कुछ इस तरह से पेश आने लगा......मुझे लगा कि उस ड्राईव की सीट पर बैठा कोई सवा सेर किस्म का होगा, जो यह शहरी फूले पेट वाला दबंग वापिस लौट आया। 
किसी भी भीमकाय घने छायादार पेड़ पर कब्जा करने के मामले में भी हम बहुत दबंग हैं..
किसी सिरफिरे दबंग का शिकार बनी बच्चों की प्यारी यह बिल्ली मौसी 
एक जगह और हमारी दबंगई चल जाती है... मासूम निर्दोष जानवरों पर ...अकसर सड़कों पर कुत्ते इस तरह की बेमौत मरते दिख जाते हैं....लेकिन कल पता नहीं यह बिल्ली किस दबंग की बदहवासी का शिकार बन गई....देख कर मन दुःखी हुआ। 

और क्या लिखें, बस अपने आप से इतना ही कह रहा हूं कि काश! हम बंदे बन जाएं....बस......हमारे सत्संग का भी यही मिशन है......कुछ भी बनो मुबारक है, पहले तुम इंसान बनो। 

हां, एक बात और...कल की साईकिल यात्रा के दौरान यह पोस्टर भी दिख गया जो लोगों को चेता रहा था कि राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप लोकतंत्र के लिए खतरा है। धन्यवाद....याद दिलाने के लिए। 

अभी अभी एफ एम पर हमारी पसंद का यह गीत बज रहा था तो बेटा कहता है कि पापा, इन्हें हमारी पसंद का कैसे पता चल जाता है...


गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

मीडिया डाक्टर की १०००वीं पोस्ट...

कल शाम को मैं इस ब्लॉग की १०००वीं पोस्ट लिखने लगा तो अचानक ध्यान आया कि इसे पेन से लिखते हैं...जैसे ही लिखने लगा बेटे ने कैमरा उठा लिया और वीडियो बना दी...

इन सात आठ सालों में ब्लॉगिंग के द्वारा बहुत कुछ सीखने को मिला है लेकिन लगता यही है कि  क ख ग तक ही समझ पाया हूं। इतना कुछ आप से शेयर करने को है, लेकिन कोई सुनने को राज़ी तो हो....कोई जिज्ञासु भी मिले तो।

बहरहाल, जो कुछ सीखा उसे एक पोस्ट में भरना तो नामुमकिन है ...इसलिए कभी कभी इस के बारे में किसी पोस्ट के द्वारा चर्चा करते रहेंगे.....हां, अगर आप को किसी विषय के बारे में जानना है तो अवश्य लिखिए....मेरा आप से वायदा है कि उस विषय पर उसी दिन अवश्य लिखूंगा..अपने तुच्छ ब्लॉगिंग ज्ञान के आधार पर।

अभी तो आप ईंक-ब्लागिंग के द्वारा लिखी यह पोस्ट देख लीजिए...और मुझे लिखते हुए जो वीडियो बेटे ने तैयार किया है, उसे भी एम्बेड कर दिया है....इस बात के प्रूफ के तौर पर कि मैं हिंदी कंप्यूटर के बिना भी लिख लेता हूं...मेरे से बहुत से लोग यह पूछते हैं..



गलती से मैंने Suggested Reading list (SRL) की जगह SUL लिख दिया है..



बस, इस पोस्ट को लिखते लिखते यही ध्यान आ रहा है कि लिखते लिखते अच्छा लगने लगा है...एक आदत बन गई है...लेखन की प्रक्रिया--क्लपना से सृजन तक की ...उस में जो आनंद है, उसे ब्यां करना मुश्किल काम है....कोई पढ़े या न पढ़े यह कोई जरूरी लगता नहीं...पढ़े तो भी ठीक न पढ़े तो भी ठीक।

लेिकन अगर मैंने यहां पर उस सात साल पुराने लेख का लिंक तो लगा ही दूं जिसमें मैंने ब्लॉगिंग में एक साल पूरा होने पर अपने बेटे का शुक्रिया अदा किया था...उसने मुझे कंप्यूटर पर हिंदी लिखने के गुर सिखाए थे.... डिटेल्स आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं.....मुझे हिंदी में लिखना किसने सिखाया..

अभी अपना यह ऊपर वाला यू-ट्यूब पर देखा तो साथ ही आटो-सुजेशन में यह गीत दिख गया...पुराने दिनों में बहुत बजता था और अच्छा भी बहुत लगता था....तूने देखा मैंने देखा....इक दुश्मन जो दोस्तों से प्यारा है!

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

सड़कों की ज़िंदादिली आपने कब महसूस की!


आज की यात्रा के दौरान सब से पहले यही लड़का दिखा जो अपनी साईकिल यात्रा में पूरी तरह से मस्त दिखा। मुझे ध्यान आया कि सारे बच्चे ही जब साईकिल चलाना सीखते हैं तो लगभग इसी तरह का नज़ारा ही मिलता है। यह तस्वीर लगभग १२-१३ साल पुरानी है ..फिरोज़पुर की ...जब बड़े बेटे ने नया नया साईकिल चलाना सीखा था, आगे बैठे छोटे भाई को उस से भी ज़्यादा मज़ा आ रहा है। सब लोग सही कहते हैं तस्वीरें बोलती हैं।

लेकिन यह क्या जावेद पान वाला ९ दिन में दांतों के दाग धब्बे साफ करने के झूठे सपने भी बेच लेता है!! इस तरह के प्रोड्क्ट्स का विज्ञापन चस्पां करने के लिए इस से बढ़िया जगह हो ही नहीं सकती। एक तो कोई भी ग्राहक पानमसाला-गुटखा लेने से ज़रा भी डरे नहीं, और साथ में इसे भी खरीद ले इस झूठे वायदे के साथ कि दांत चमक जाएंगे। सारा दिन मेरे जैसे लोग पानमसाला-गुटखे की ही बातें करते हैं, लेकिन इस समय इस टॉपिक पर इससे ज़्यादा कुछ कहने की तमन्ना नहीं हो रही!

 हां, यह बढ़िया करा है पुलिस स्टेशन वालों ने....उन्होंने अपनी दीवार पर यह पेन्ट करवा दिया है...
अमौसी हवाई अड्‍डा अब केवल विमानों हेतु..
हवाई स्पीड पर चलने वाले २ व ४ पहिया वाहन कृपया बैकुण्ठ धाम हवाई अड्‍डे का इस्तेमाल करें...

आज मेरी इच्छा हुई कि लखनऊ के मल्टीएक्टिविटी सेंटर हो कर आया जाए...लेकिन यह क्या वहां पर ये तंबू गढ़े हुए थे। फिर ध्यान आया कि अब लखनऊ के पार्क एवं अन्य ग्राउंड आदि जो मायावती के शासनकाल के दौरान भी बने हैं ...वे सब अब व्यक्तिगत समारोहों के लिए भी किराये पर मिलते हैं। इस के बारे में कुछ महीने पहले समाचार पत्रों में भी आया था और इन सार्वजनिक स्थलों के बाहर भी नोटिस लगा हुआ है कि आप लखनऊ डिवेलप्मेंट अथारिटी की वेबसाइट पर जा कर यह बुकिंग कर सकते हैं। अच्छा लगा ...सरकार की कुछ कमाई ही हो जाएगी। शायद यहां कोई शादी वादी कल रही होगी, अब तो इन्हें उतारा जा रहा था...लेकिन लोग अंदर अपने प्रातःकाल के भ्रमण का आनंद तो ले ही रहे थे।


अभी थोड़ा सा आगे निकला था कि एक सुनसान सी लंबी सड़क पर यह इकलौता पेड़ किसी घर के सामने देख कर मन खुश हुआ...और इस के थोड़ा आगे ही एक दूसरे घर के बाहर छाया और पानी एक साथ दिखने पर मन ही मन उस घर में रहने वाले की प्रशंसा अपने आप हो गई...अगर एक दो पानी के मटके भी रख देते तो क्या बात थी!! पंजाबी में एक पुरानी कहावत है जिस का अर्थ यही है कि किसी भी घर के भाग्य का पता उस की डियोढ़ी से ही लग जाता है...(घर दे भाग उस दी डियोढी तो ही पता चल जांदे ने) ..


लेिकन थोड़ा ही आगे निकला था तो यह पेड़ देख कर यही मन में आया कि ठीक हैं, जड़े मजबूत होनी चाहिएं, हम लोग इन का महत्व जानते हैं...लेकिन इन ज़ड़ों की भी निरंतर देखभाल ज़रूरी है....वरना आज का मानस इस तरह की जड़ों पर भी वार करने से गुरेज नहीं करता....अकसर, तभी तो इस तरह की नंगी हो रही जड़ों को मिट्टी से ढक दिया जाता है।

अब आता हूं इस पोस्ट के मुद्दे पर.......जिस सड़क पर मैं चल रहा था उस के डिवाईडर पर इतने सारे पेड़, हरियाली और गहमागहमी देख कर मन प्रफुल्लित हो गया और अचानक ध्यान आया कि कुछ सड़के इस तरह की हरियाली की वजह से कितनी ज़िंदादिली का परिचय देती हैं।



हर शहर में ही होता है, कुछ सड़कों पर इस तरह से डिवाईडर पर पेड़ लगने से वहां पर जैसे ज़िंदगी बसेरा कर लेती है...हम लोग संकीर्ण मानसिकता वाले हैं..हर बात के निगेटिव पहलू पहले गिनाने लगते हैं..लेकिन मां प्रकृति सब को प्यार-दुलार से अपनी आंचल का साया दे देती है।







इस तरह की ज़िंदादिल सड़कों के जितने भी मुद्दे हों, बीच का रास्ता ऊबड़-साबड़ है, लोग रेहड़ी लगा लेते हैं, छोटा मोटा कोई बाल काटने वाला वहां आ जाता है, दिहाड़ी करने वाले अपने खिचड़ी बनाने लगते हैं, फूल बेचने वाले आ धमकते हैं... कोई वैसे ही वहां बैठ कर पनाह ले लेता है.....यह सब बड़े छोटे मुद्दे हैं....बिल्कुल छोटे ...उस घनी छाया और ठंड़क के बदले जो इस तरह के पेड़ों के झुरमुट इस तपिश भरी गर्मी में बिना किसी भेदभाव के बांटते चले जाते हैं...और हम से बिना किसी किस्म की मांग किए हुए...केवल कुल्हाड़ी के वार से डरे-सहमे हुए कि पता नहीं कब किसी लालची मानस की कुल्हाडी रूपी हवस का शिकार होना पड़े।


अरे वाह!.... अचानक मुझे वह घर दिख गया जिसे हम लोग लखनऊ आने पर घर की तलाश करते वक्त ज़रूर निहारा करते थे....दोस्तो, इस घर में इतनी हरियाली है जितनी मैंने किसी घर में नहीं देखी...हमें ऐसा ही घर चाहिए था...लेकिन पता करने पर मालूम हुआ कि यह घर तो है ..लेकिन अब यह विवाह-शादियों के सीज़न के दौरान एक दो चार दिन के लिए किराये पर दिया जाता है...उस से मोटी कमाई होती है! हरियाली तो इस घर में भरपूर है...इन्होंने घर के आगे ज़मीन भी ऐसे ही कच्ची छोड़ी हुई है जो इस की सुंदरता में चार चांद लगाती है....


जिंदादिली वाली सड़कों की बात के बाद निर्जीव सड़क का भी एक सेंपल देख लें...बहुत ही ऐसी भी सड़के हैं लखनऊ में ..लेिकन जिन सड़कों पर मेरा अकसर आना जाना होता है ...जेल रोड और व्ही आई पी रोड़.......बस कहने को ही व्ही आई पी रोड़ ..बत्तियां तुरंत दुरूस्त हो जाती हैं.....मखमली सतह है ...बेशक ...क्योंकि इस रास्ते से व्ही आई पी लोग हवाई अड्डे पर आते जाते हैं ...और उस दौरान ट्रैफिक इस तरह से दस दस मिनट के लिए दिन में पता नहीं कितनी बार रोक दिया जाता है।

निर्जीव सड़कें क्यों बनीं......मैंने इस के बारे में सोचा तो मुझे लगा कि किसी ने तो यह निर्णय लिया ही होगा कि इन सड़कों के बीचों बीच डिवाईडर पर पेड़ नहीं लगेंगे ....और यह निर्णय शायद इस कारण से भी हो कि अगर इतने बड़े एरिया में पत्थर लगेंगे तो ..........बाकी, आप समझदार हैं। मिट्टी से क्या मिलना है.! लेकिन मिट्टी कुछ कह रही है, बेहतर होगा सुन लें....


मुझे कहने में कोई हिचक नहीं कि इस तरह के निर्जीव सड़कों के फैसले आने वाली पीढ़ियों की भी बदकिस्मती होती है... अगर कहीं पेड़ दिख भी जाती है इन रास्तों पर तो बिना छाया वाला और कंटीला........चलिए, माटी कुम्हार से क्या कह रही है, इसे ही कभी सुन लें.......शायद इसी से ही हम कुछ सीख ले लें!

फिलहाल तो यह गीत ध्यान में आ रहा है....


मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई..३

लो जी लौट आए हैं आज भी सुबह की साईकिल यात्रा करने के बाद...और आप को इस का वर्णन पहुंचाने बैठ गये हैं...अभी ताज़ा ताज़ा तो लिख रहा हूं ...क्योंकि दोपहर में फिर लिखने की इच्छा नहीं होती और एक बार ऐसा कुछ लिखना टलता है तो फिर टल ही जाता है....कितना कुछ ऐसा ही लेपटाप पर पड़ा हुआ है।

आज जब मैं अपने साईकिल पर निकला तो एक आठ-दस साल के बच्चे को एक जेंट्स साईकिल को कैंची चलाते देख अपनी उम्र की वह अवस्था याद आ गई। अफसोस यह हुआ कि यह मंज़र आज बरसों बाद दिखा था...और मुझे मोबाइल जेब से निकालते और कैमरा ऑन करते इतना समय लग गया कि वह कैंची साईकिल चलाने वाला तो आगे निकल गया और मेरी हिस्से में यह फोटो आई।

आज कल अकसर ऐसे कैंची साईकिल चलाने वाले बच्चों के नज़ारे इसलिए भी कम दिखते हैं क्योंकि शुरू ही से तो बच्चों को साईकिल मिलने शुरू हो जाते हैं....हम लोगों के दिन और थे...हमारी नज़रें टिकी रहती थीं पहले तो बड़ी बहन की साईकिल पर कि कब हम थोड़े बड़े हों (मतलब साईकिल की सीट पर बैठ कर पैर नीचे लगने लगें!) और इस पर सवारी करनी शुरू करें। लेकिन ऐसा हुआ नहीं...क्योंकि सीखने के लिए घर में दूसरे बंदों की जेंट्स साईकिल ही काम आया करती थी....कैंची साईकिल चलाने के लिए... जब कोई कैंची साईकिल चला ले न तो समझना चाहिए कि अब मंज़िल दूर नहीं है। वह शेयर है न...

इन परिंदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन ..
ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं !

कैंची साईकिल चलाने वाला रोमांच भी ब्यां कर पाना मुश्किल है ... लेिकन मुझे वह लम्हा कभी नहीं भूलेगा जब एक दिन मैं ग्राउंड में कैंची साईकिल चला रहा था तो पड़ोस की चंचल दीदी ने मेरे कैरियर को पीछे से पकड़ कर कहा कि चल, बैठ जा काठी पे, मैं संभाल लूंगी। एक मिनट डर लगा.. चंचल दीदी पर अपनी बड़ी बहन जितना भरोसा था ही...बस ..एक ..दो ..तीन बार हैंडल थोड़ा सा हिला-डुला और संभाल कर तो उस दीदी ने रखा ही हुआ था.......देखते ही देखते हम भी लगे हवा से बातें करने ....लेकिन ग्राउंड में ही। स्कूल में साईकिल ले कर जाने की परमिशन तो आठवीं कक्षा में मिली....एक रवायत यह भी थी उस जमाने की कि जैसे ही घर में कोई नया साईकिल खऱीदता तो उस का पुराने वाला साईकिल घर को सब से छोटे प्राणी (जैसे मैं) के सुपुर्द कर दिया जाता....और हम लोग की खुशी का कोई ठिकाना न होता..कि चलो अपनी इंडिपेन्डेंट सवारी मिली......और जो कभी कभी दुकान से एक घंटे के लिए किराये पर साईकिल लानी पड़ती थी (२५ -५० पैसे खर्च कर) उस सिरदर्दी से पीछा छूटा।


दोस्तो, गूगल भी है अद्भुत ....मेरी इच्छा थी कि इस पोस्ट में एक कैंची साईकिल चलाने वाले की फोटो तो चस्पां कर ही दूं...जैसे ही मिली गूगल इमेज़ेस से..यहां लगी दी।

अभी थोड़ा आगे गया था कि शोलेफिल्मनुमा पानी की बड़ी सी टैंकी दिखी और उस पर साफ साफ लिखा भी दिख गया...मोदी लाओ..देश बचाओ...मुझे लगा कि अब तो मोदी आ गये ..देश भी बच गया....अब तो यारो इधर कोई दूसरा संदेश पेन्ट करो....तंबाकू, गुटखे से अपनी जान मत गंवाओ....सड़क सुरक्षा के कुछ संदेश ....कुछ भी सामाजिक सरोकार का संदेश लिखवा दो।

मैं इस टैंकी की फोटो खींचने में मशगूल था कि दूर किसी के गिरने की आवाज़ आई...एक महिला और पुरूष मोटरसाईकिल पर जा रहे थे....महिला नीचे गिर गई थी...शुक्र है भगवान का कोई चोट नहीं आई..वैसे वह लुड़की बुरी तरह से थी....मैंने भी अपनी मां को १९८५ में अपनी यैज्दी मोटरसाईकिल से गिराया था...वह पहली दूसरी बार ही मेरे पीछे बैठ रही थीं...तब वे जापानी कपड़े की साड़ियां चला करती थीं...मोटरसाईकिल पर बैठे बैठे जैसे ही अपनी साड़ी के पल्लू को थोड़ा ठीक करने लगीं तो धड़ाम से नीचे...सब ठीक ठाक रहा। और बीस साल पहले जब मैं बेटे को बंबई में उस के स्कूल छोड़ने जा रहा था तो एक रेडलाइट पर वह मेरे स्कूटर से गिर गया....सब ठीक था...इसलिए ऐसे किसी हादसे के बाद सब कुछ ठीक ठाक होने का जो सुकून चलाने वाले को मिलता है, वह मैं उस मोटरसाईकिल चलाने वाले के चेहरे पर भी देख रहा था। ईश्वर सब को तंदरूस्त एवं सुरक्षित रखें।

आगे थोड़ा चल कर मुड़ा ही था कि आज फिर सूरज देवता के बहुत बढ़िया दर्शन हो गये।


अभी मोटरसाईकिल का हादसा तो मैं देख कर थोड़ा ही सा आगे आया था कि एक और खतरों का खिलाड़ी मिल गया....इस के बारे में क्या कहूं ..आप देख ही रहे हैं...बस इतना बताना चाहूंगा कि यह ऊपर से एक सड़क से नीचे वाली सड़क तक पहुंचने के लिए शॉर्टकट का इस्तेमाल कर रहा है।



आप को याद होगा कि दो दिन पहले मैंने आप को रमाबाई रैली स्थल के बारे में बताया था...आज भी देखा कि इस वृक्ष के ठीक सामने एक और गेट है...उस रैली स्थल के अंदर जाने का। लेिकन उस का बोर्ड पढ़ कर अजीब सा लगा...उस का लिखा था ..वीआईपी गेट... अजीब सा इसलिए लगा कि जिन महान विभूतियों के नाम पर ये स्मारक, ये स्थल बनते हैं ...उन्होंने सारी उम्र सामाजिक एकता के प्रतीक होने का सबूत दिया...और अब ऐसी जगहों पर भी वी-आई-पी क्लचर को रेखांकित करता यह गेट......ठीक है, वीआईपी लोगों को अलग से आना जाना होता है, लेकिन गेट पर यह खुदा हुआ अटपटा सा लगा। यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं....हरेक को इससे मतभेद रखने का अधिकार है।




हिंदोस्तान में सुबह के समय सैर-सपाटा करते समय आप को लोग फूल तोड़ते न दिखें...ऐसा कैसे हो सकता है। आज तो कुछ पुरूषों को भी इस काम में लगे देखा। लेकिन कुछ औरतें तो हमेशा की भांति धड़ाधड़ फूल इक्ट्ठा किए ही जा रही थीं...आप तक एक सबूत के तौर पर यह तस्वीर ले कर आया हूं। किसी को इस तरह से फूल तोड़ते देख कर मेरा सिर दुःखता है। ईश्वर इन्हें इतनी समझ दे और इन्हें स्वपन में दर्शन देकर ही चाहे तो बता दे कि मैं आप की भक्ति से प्रसन्न हूं....मुझे फूल मत अर्पण किया करें।



मैंने यह आज भी नोटिस किया कि सुबह का समय ड्राईविंग सीखने का समय है तो एक दम बढ़िया...खुली खुली सड़कें, बढ़िया फिज़ाएं, ठंड़ी हवाएं..........लेकिन फिर भी ड्राईविंग ठीक साइड पर चलते हुए ही सिखाई जाए तो ठीक है, वरना यह जेंटलमेन तो महिला को गलत रास्ते पर (रांग साइड) एक्टिवा सिखाते हुए नींव ही गल्त डाल रहा है..

यार बातें काफी हो गईं, अब एक गीत......आज का यह मौसम कल बन जायेगा कल...पीछे मुड़ के न देख, प्यारे आगे चल!



सोमवार, 20 अप्रैल 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई ..2

इस तरह के उद्घोष हम जैसे लोगों के लिए तो उचित हैं जिन्हें नींद से जगाना पड़ता है, लेकिन कुछ लोगों को मजबूरी से सुबह सुबह जागना ही पड़ता है....आज मेरी साईकिल जिस तरफ़ मुड़ गया उस तरफ़ यह श्रमिक सुबह ७ बजे अपने काम में पूर्णतयः तल्लीन दिखा...पास ही कुछ महिलाएं एक नल से घर के सभी बर्तनों में पानी भरते भरते नोंकझोंक कर रही थीं लेकिन उसे किसी तरफ भी देखने की फुर्सत नहीं थी। उस गीत का मुझे ध्यान आ गया...जिसने डांस नहीं करना वो जा कर अपनी भैंस चराए। समझ गए!!

यह लखनऊ की मानसरोवर योजना है इस में खूब भव्य इमारतें बन रही हैं लेकिन इन्हीं निर्माणाधीन कंकरीटके जंगलों  के ठीक सामने ठंडक और सुकून देने एक पुरातन पेड़ और उस की छत्रछाया में रहने वालों का बसेरा भी उतना ही कूल!






आगे चलने पर यह भी पता चल गया कि जितना भी पालीथीन हम लोग इस्तेमाल करते हैं वह सारे का सारा बेचारे पशुओं के पेट ही में नहीं जाता, इसे इस तरह से सलीके से इक्ट्ठा कर के वापिस फैक्टरियों में भेजा जाता है जहां फिर से इन की थैलियां, प्लास्टिक के कप गिलास बनते हैं...अगर हम ने अभी भी प्लास्टिक को नहीं छोड़ा तो अंजाम आप सब जानते ही हैं !

यह मानसरोवर स्कीम की वह जगह है जहां पर रेलवे हाउसिंग कल्याण संगठन और नेवी-एयरफोर्स हाउसिंग वालों ने अपने सेवारत और रिटायर्ड कर्मचारियों एवं अधिकारियों के लिए मकान तैयार कर रखे हैं...आज पता चला कि रेलवे के इन घरों के ठीक पीछे ट्रांसपोर्ट योजना का रेलवे स्टेशन भी है.

और यह भी देखा कि सुबह सुबह लोग अपने खाने पीने का जुगाड़ करने लगे हैं....इस तरह के कच्चे शैड वाली दुकानें सुबह सुबह चाय-पकौड़ी बनाना शुरू कर देती हैं। आगे चल के देखा तो यहां पर सैंकड़ों ट्रक आदि खड़े थे...इस का नाम ही ट्रांसपोर्ट नगर है ..आगे चल कर यह सड़क कानपुर रोड से मिल जाती है। और यह ट्रांसपोर्ट नगर लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से ज़्यादा दूर नहीं है...यही कोई ५-७ मिनट की दूरी पर होगा एयरपोर्ट।


लौटते हुए थोड़ा सा रास्ता बदल लिया.....लेकिन यह क्या ..हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों घरों पर ताला। और ऐसा लगा कि यहां पर कभी कोई रहा ही नहीं। उत्सुकतावश किसी राही से पूछ ही लिया कि सब घरों पर ताला क्यों ?...उस बंदे ने बताया कि ये घर आर्थिक तौर पर कमज़ोर लोगों  के लिए (EWS) के अंसल द्वारा बनाए गये थे..पैसा वैसा सब जमा हो चुका है...लेिकन मामला कोर्ट-कचहरी में चल रहा है.......पता नहीं कब तक चलेगा। दुःख हुआ कि गरीब मार हर जगह हो ही जाती है...कोई सरकारी स्कीम हो तो उसे चूना और इस तरह की स्कीमों की तो बात ही क्या करें! यही ध्यान में आया कि घर वही जिस में आदमी रहना शुरू कर दे। यहां भी आसपास भैंसे बंधी हुई थीं...और कुछ घरों में गोबर के उपले सूख रहे थे।

बस इन्हीं मिश्रित सी भावनाओं के साथ आज का भ्रमण समाप्त हुआ....लेकिन इस फूल के अद्भुत सौंदर्य पर मैं विस्मृत हुए बिना न रह पाया....