शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

आज गले का कॉलर देख कर नानी याद आ गई


आज फुटपाथ पर एक बंदा दिखा गले में इस तरह का कॉलर पहने हुए तो मुझे नानी याद आ गई ... कहावत वाली नहीं, असल वाली नानी.....क्योंकि इस तरह का कॉलर हमने सब से पहले इस कायनात में अपनी नानी के गले में जब देखा तो हम सहम से गये थे...

1970 के आसपास की बात है...पिता जी की तबीयत ठीक न थी, नानी बस से अंबाला से अमृतसर आई थीं, पिता जी की तबीयत का हाल चाल पूछने ...उन दिनों भी पांच घंटे ही लगते थे ...आज भी शायद उतने ही लगते हैं इतना विकास होने के बाद भी ...हम ठहरे पक्के रेलों के दीवाने, हमने नानी को कहा कि गाड़ी में आया करो, तो वह झट से हमें समझाया करती ...गाड़ी तो अपने वक्त पर जाती है, बस का क्या है, जब अड़्डे पर जाओ, बस मिल जाती है ....उन्होंने अधिकार यात्राएं बस में कीं और हम लोगों ने गाडि़यों में....चाहे गाड़ी के इंतज़ार में एक दो घंटे स्टेशन पर ही क्यों ने बैठना पड़ता...

खैर, नानी आई तो उस के गले में एक कड़क सा कॉलर देख कर मैं तो भई डर गया....मैं तो बहुत छोटा था, लेकिन मुझे मन ही मन चिंता तो हो ही रही थी कि पता नहीं नानी के साथ क्या लफड़ा हो गया है ...कभी वह उसे उतार देती, कभी लगा लेती ...लेकिन मेरा डर तो लगातार बना हुआ था कि नानी के गले में यह फंदा सा आखिर है क्या!! हमें पता चला कि नानी के गले की हड़्डी बढ़ गई है ...न हमें उस का क ख ग ही पता था, बस हम फ़िक्र कर कर के आधे हुए जा रहे थे ...

खैर, फिर जब मैं बीस तीस बरस का हुआ तो अकसर लोग इस तरह के कॉलर लगाए दिखने लगे ...लेकिन अभी हाल फिलहाल में देखते हैं कि ये कॉलर बडे़ ट्रेंडी से हो गए हैं....छोटे साइज़ के और बिल्कुल नर्म, स्पंज जैसे ......लेकिन वह नानी वाला कालर तो ऐसा था कि वह तो फंदे जैसा दिखता था ...उसे देख कर तो मेरा सिर घूमने लगता था, डर से ....वैसे भी वह इतना सख्त था कि उससे नानी को क्या पता कितना फर्क पड़ा होगा या नहीं.......और वह कॉलर नानी के कमरे की शेल्फ पर अकसर टिका रहता था आगे कईं बरसों तक ...हम जब भी अंबाला जाते तो उसे देख कर थोड़ा उदास तो ज़रुर हो जाते ....यह तो मुझे याद है ...

मेरे भी गलत पोश्चर की वजह से मुझे अकसर सिरदर्द होता ही रहा है ....बिल्कुल यह भी उस का एक कारण है ...क्योंकि मुझे पता नहीं मुझे कंधे झुका कर चलने की आदत कहां से पड़ गई....मुझे बहुत टोका जाता है ....लेकिन शायद मेरे अंदर कहीं यह बात घर कर चुकी है कि अकड़ कर बिल्कुल सीधा तन के चलने वाले लोग घमंडी, गुरूर वाले होते हैं ...और किसी भी बात का घमंड करने के लिए मेरे पास कोई वजह है नहीं, इसलिए मैं हमेशा से झुक कर ही चलता हूं ......लेकिन मुझे इतने बरसों बाद इस बात का अहसास ऐसा हुआ है कि मैं अपनी इस आदत से नफ़रत करता हूं ...नहीं आत्म-विश्वास-वास का कोई चक्कर नहीं है, ईश्वरीय अनुकंपा है....बस ऐसे ही कईं आदतें बेकार में पीछे पड़ जाती हैं, यह झुक कर चलने वाली आदत भी कुछ ऐसी ही है ...

हां, मुुझे भी कुछ बरस पहले कॉलर पहनने का विशेषज्ञ ने मशवरा दिया था....लेकिन मैंने तो दो-तीन दिन पहन कर ही उसे किसी ज़रुरतमंद को दे दिया था...वैसे सिर में दर्द हो, सिर में ऐंठन सी रहे, मतली जैसा लगता हो, चक्कर आने लगें, बार बार उल्टी होने लगे तो आम भाषा में कोई भी बंदा इसे सरवाईकल की बीमारी कह के अपना ज्ञान बघार देता है ...और कुछ लोग तो इलाज भी बता देते हैं....मुझे भी कुछ ज़्यादा पता नहीं इस के बारे में सिवाए इस के कि इस तरह के जब लक्षण हों तो बंदे को तीन विशेषज्ञों के पल्ले पड़ना है, एक तो हड़्डी रोग विशेषज्ञ, एक ईएऩटी स्पेशलिस्ट और बहुत बार एक एमडी फ़िज़िशियन से भी परामर्श लेना भी पड़ता है ...जब किसी को कुछ नहीं मिलता, तो फिर कहा जाता है कि डिप्रेशन (अवसाद) लगता है, चिंता का मर्ज़ है, मनोरोग विशेषज्ञ से मिल लीजिए....

मुझे लगता है ये सब इस तरह की तकलीफ़ें हमारी जीवनशैली से जुड़ी हुई हैं.....न सोने का टाइम, न जागने का, सारा दिन सिर झुकाए किसी न किसी स्क्रीन में अपनी आंखें गड़ाए रहते हैं, खाने-पीने के बारे में तो कहें ही क्या, जंक-फूड़, फॉस्ट-फूड, अजीबोगरीब फूड सप्लीमेंट .......इन सब के बावजूद भी क्या गर्दन में दर्द न होगा ...

मैंने सोचा कवर उतार कर ही सरवाईकल पिल्लो के दीदार करवाए जाएं पढ़ने वालों को ....

पांच छः साल पहले मेरी भी गर्दन में दर्द रहने लगा तो मुझे एक फ़िजि़योथेरेपिस्ट ने कहा कि आप तो एक सरवाईकल पिल्लो ले लो ....जब मैं उसे लेने गया तो पता चला कि वह तो करीब चार हज़ार का था ...कड़वा घूंट भर कर ले तो लिया..लेकिन मुझे उस से बहुत फायदा हुआ है ...अच्छा, सब तरफ से तकिये के बारे में ही तरह तरह के मशवरे सुन सुन कर तंग आ चुके थे, तुम तकिया लिया ही न करो, तुम एक पतली सी चादर रख लिया करो, सिर के नीचे.....और भी कुछ न कुछ हिदायतें ..........लेकिन जब से यह सरवाईकल पिल्लो लिया है, बहुत आराम सुकून महसूस कर रहा हूं ...अब सच में यह पता नहीं कि यह चार हज़ार रूपये जो खर्च किये हैं उस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव है या कुछ और ......क्योंकि कोई ज्ञानी हड्डी रोग विशेषज्ञ ही एक बार कह रहा था कि इन सरवाईकल पिल्लो से कोई फ़र्क नहीं पड़ता .......लेकिन मुझे तो फ़र्क पड़ा दिक्खे है ...मैं क्यों झूठ ही कह दूं कि कुछ फ़र्क नहीं हुआ मुझे ...रात में उसे जब सिर के नीचे रखते हैं तो पता ही नहीं चलता कि उसे ले भी रखा है या नहीं.....दिक्कत यह है कि अब बाहर कहीं जाते वक्त उसे उठा कर साथ रखने की इच्छा होती है लेकिन यह सब कहां प्रेक्टीकल है, अब कोई लोहे के ट्रंक लेकर चलने वाले दिन थोड़े न हैं, हो्लडाल वाले दिन भी लद गए .......अब तो अगर हमारे पास स्मार्ट-लगेज नहीं है तो हम अपने आप को पिछड़ा महसूस करते हैं......पिछले बरस ही मैं एक शादी में अपनी एक व्ही-आई-पी की अटैची ले गया....वही जो तीस चालीस बरस पहले नईं नई आई थीं....जिसे पहिये न होते थे ....एक तो स्टेशन पर लोग उस अटैची को ऐसे देख रहे थे जैसे किसी अजायब घर की किसी शै को देख रहे हों और दूसरा,यह कि उसे स्टेशन पर उठाते वक्त मुझे उस दिन भी नानी याद आ गई थी .......छोटी थी अटैची, लेकिन ठूंंसने से हम कहां बाज़ आते हैं....जब तक उस का ताला ही न टूट जाए .....😎😂

पोस्ट लिखने के बाद यू-ट्यूब पर सिरदर्द के ऊपर गीत ढूंढने की थोड़ी सिरदर्दी मोल ली तो यही दिख गया ...जॉन्ही वॉकर साहब का यह हिट गीत ... यह उन दिनों की बात है जब न कोई सरवाईकल के कॉलर था, न सरवाईकल पिल्लो और न ही किसी विशेषज्ञ का मशवरा ही इतनी आसानी से मिल पाता था, लेकिन चंपी सब कुछ ठीक कर देती थी ....

बुधवार, 29 नवंबर 2023

नमक स्वाद अनुसार .....


एक बार टाइम्स ऑफ इंडिया में एक ख़बर दिखी थी -अमेरिका में कुछ रिसर्च हुई है कि अगर लोग जितना नमक खाते हैं, उस में से एक ग्राम नमक खाना कम कर दें तो अमेरिका में करोड़ों-खरबों डालरों की बचत हो जाएगी ...जो पैसा वैसे ज़्यादा नमक खाने से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च होता है ...मुझे हैरानी नहीं हुई बिल्कुल यह पढ़ कर ...क्योंकि ज़्यादा नमक एक बहुत बड़ा विलेन तो है ही ...पोस्ट लिखने के बाद देखा तो मुझे मेरी एक दस वर्ष पुरानी पोस्ट याद आ गई ....इस के बारे में यह रहा उस का लिंक.

बचपन में हम लोग देखा करते थे कि हर घर में खाने की मेज पर या तो एक छोटी नमकदानी सजी रहती थी ...नहीं तो घर में कहीं भी खाना खाते वक्त कोई न कोई आवाज़ दे ही देता था कि ज़रा नमकदानी तो इधर भेजो....मुझे मेरी बड़ी बहन का ही ज़्यादा नमक खाना याद है ...वह तो ज़रूर ही दाल की कटोरी में एक्सट्रा नमक डालती और फिर उसे अकसर उंगली ही से झट से मिला भी देती दाल में ...बडा़ होेने पर मैं उस के पीछे अकसर पड़ा रहता हूं कि नमक कम खाना चाहिए....कहती हैं कि अब कम खाती हूं ...

मैं यह जो पोस्ट लिखने इस वक्त बैठ गया हूं उस का कारण यह है कि कल की टाइम्स में एक बड़ी अहम् खबर छपी थी कि कम नमक खाने का दर्जा एक तरह से उच्च रक्तचाप की दवाईयां खाने के बराबर है ....और उसमें मेडीकल रिसर्च की भी बात की गई थी ...मुझे उसमें लिखी हर बात मुनासिब लिखी ....दिल्ली के बहुत बड़े हृदय विशेषज्ञ ने भी इस बात की पुष्टि की है ...अगर आप उस खबर को देखना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं...

Reducing Salt Intake as Beneficial as BP First-line drugs: Study 

(Times of India, Mumbai ....28th Nov, 2023) 

साधारण खाने से जितना नमक हम लोग दाल-सब्जी में खाते हैं उस की कोई खास बात नहीं है ....समस्या यही है कि खाने के अलावा हम लोग दिन भर यहां वहां जंक-फूक खाते रहते हैं वह तो नमक से लैस होता ही है ....हम लोगों की और भी बहुत सी आदते ैहं जो हमारे अंदर ज़्यादा नमक (सोडियम) डंप करती रहती हैं ...

छाछ, लस्सी, गन्ने का रस, अधिकतर फल हमें नमक के बिना काटने को दौड़ते हैं .....यही लगता है क्योंकि हम उन को बिना नमक लेते ही नहीं हैं....दही में भी नमक डालते हैं...शिकंजी में भी नमक जो चुटकी भर डालना होता है, हम उसमें भी मनमर्ज़ी करते हैं....

लिखते 2 ख्याल आया कि बचपन में हम लोग कच्चा आम, ईमली खाते वक्त भी एक हाथ में नमक रखते थे, उस के बिना नहीं खाते थे तरबूज, जामुन, फालसा, छोटे छोटे लाल रंग के बेर भी बिना नमक के नहीं खाते थे ..। लखनऊ में आप कहीं से भी जब मूंगफली लेते हैं तो वह खोमचे वाला उस में तीन चार नमक की पुड़िया ज़रूर रख देता है,  साथ में हरी मिर्च की चटनी भी ....और हां, शकरकंदी लीजिेए भुनी हुई कहीं से ...वह भी हम कहां बिना नमक के खाते हैं, ....नमक और नींबू के बिना शकरकंदी का क्या मज़ा...। 

लखनऊ की बात तो मैंने लिख दी ...लेकिन पंजाब, हरियाणा, दिल्ली विल्ली में हम लोग कहीं भी खड़े हो कर केले खाते हैं तो वह उन को काट कर उन में नमक ठेल देता है क्योंकि घर के बाहर कोई भी केला नमक के बिना खाता ही नहीं ....और वह नमक भी उसमें ऐसे ठूंस देता है जैसे कोई समाज कल्याण कर रहा हो ....केला हो गया, लईया-चना भी हमें नमकीन ही चाहिए, भुजिये मेें तो नमक भरा ही रहता है ....

अभी लिखते लिखते मुझे खुद डर लगने लग गया है कि हमारी खाने-पीने की आदतें भी कितनी खौफनाक हैं ....हम किसी की नहीं सुनते, सेहत से कोई लफड़ा हो जाता है तो हम समझते हैं कि विशेषज्ञ बचा लेगा, वह भगवान है ........ठीक है, छोटा मोटा भगवान तो वह है ही बेशक, एक बार तो मौत के मुंह से बाहर निकाल लेगा .......लेकिन हम कहां अपने खान-पान में कुछ सुधार करने को राज़ी होते हैं इतनी आसानी से ...

खीरा, ककड़ी भी खाएंगे तो भी नमक के साथ, सलाद में भी नमक...शराबी बंधु महफिल में भी कईं बार नमक ही रख लेते हैं अपने साथ (मैंने कई बार देखा कि शराबी बंधु जो काजू-चने न रख पाएं, वे कोई भी आचार ही रख लेते हैं ....और कईं बार तो देसी दारू पीते वक्त कुछ बंधुओं को साथ में चुटकी भर नमक चाटते देखा है .....यह किसी का मज़ाक नहीं बना रहा हूं ....क्योंकि वह काम मैंने कभी नहीं किया.....बस, कुछ बातें सच् सच अपनी पोस्ट में दर्ज करने के लिए लिख रहा हूं....

भुजिया खाने का तो मैं भी बड़ा शौकीन हूं ....लोकल स्टेशन पर बिना सोच विचार किए सेव-मुरमुरा, कुरमुरा, तली हुई मूंगफली, नमकीन दाल.....और भी बहुत कुछ --बस ऐसे ही ट्रेन की इंतज़ार करते करते खरीद लेता हूं ....पहले तो रोजाना ही ऐसा करता था, अब डरने लगा हूं ....महीने में शायद एक दो बार ...और घर में भी बीकानेरी भुजिया इत्यादि खाता ही हूं .........लेकिन यह पोस्ट लिखने भर से मेरी यह खराब आदत सही नहीं ठहराई जा सकती .....अपने पैर पर खुद कुल्हाडी़ मारने वाली बात है .....किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ....

समोसे, वडा-पाव, भजिया-पाव.....चाइनीज़, हाका, मोमोज़......सच में बाहर जाते हैं तो लगता है जनता रब की बारात में आई हुई है ....(यह एक पंजाबी कहावत है ...इंज लगदै जिवें ओह रब दी जंजे आया होवे)....

काजू भी खाने हैं तो नमक वाले, पिस्ता भी नमक वाला ...भुने हुए चने भी नमकीन.....

कितनी लंबी लिस्ट लिखूंगा .....बस, यही मानिए की दाल-रोटी-सब्जी के अलावा हम जितना कुछ भी नमक वाला खा रहे हैं, वह हम अपने आप से धोखा कर रहे हैं......कुछ लिस्ट तो ऊपर दी है....और एक बात, ये जो आज की नईं जेनरेशन प्रोसैसेड फूड की दीवानी है न, यह सारे का सारा सोडियम से लैस होता है ....हम खुश होते हैं कि टिक्की आधे मिनट में तैयार हो गई, रेडीमेड दाल, चने, पनीर ...गर्म पानी में डालते ही खाने लायक हो गया ....इन के बारे में कभी अपने डाक्टर से बात करिए.....मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं , सीधी सपाट बातें लिखता हू्ं ......लेकिन मुझे इन सब चीज़ों से बेहद नफरत है....यही वजह है कि मुझे कहीं भी बाहर जा कर खाना पसंद ही नहीं है .......कोई भी हो, कहीं भी है, कुछ भी हो.....बाहर जा कर कंट्रोल नहीं होता, तला-मला, फ्राई आने दो, और उस के बाद जलेबी, आईसक्रीम और गुलाब जामुन जब खाता हूं तो अपने आप से दिल ही दिल में क्या कहता हूं, वह तो मैं लिख भी नहीं सकता...

इस पोस्ट में तो नमक की ही बात कर रहे हैं, लेकिन अकसर जो चीज़ें हमारे खाने पीने की नमक से लैस होती हैं...वे अच्छे-बुरे घी, तेल, मसाले भी लैस होती हैं ...जैसे मटन,मुर्गा, मछली .....कोई भी नॉन-वैज हो...इसलिए उन्हें खाने से होने वाली पेचीदगी और भी ज़्यादा है ...

कहीं किसी पढ़ने वाले को यह नहीं लग रहा कि इतना डराया क्यों जा रहा है.......नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, वैसे भी कौन किस की सुनता है...हम चिकित्सक हैं, हम ही नहीं किसी की सुनते ....मैंने बताया न कि कैसे भुजिया खाते हैं, कैसे मीठा खाते हैं ....और फिर सिर पकड़ कर एसिडिटी से परेशान हो कर घंटो पड़े रहते हैं.... 

दरसल, नमक -सोडियम क्लोराईड में सोडियम ही विलेन है ....इस का मतलब यह हुआ कि जिन जिन चीज़ों के बनाने में मीठा सोड़ा, बेकिंग पावडर आदि इत्यादि इस्तेमाल होता है उन में भी सोडियम तो है ही ....जो अधिक मात्रा में हमारी सेहत से कैसा खिलवाड़ करता है, यह हम सब जानते हैं....बार बार डाक्टर लोग बताते रहते हैं .....अखबारों में लिखा दिखता है, रेडियो-टीवी पर भी सुनते हैं ....

कभी ख्याल किया हो तो जब कोई दस्त से परेशान हो तो उस के लिए जो ओआरएस (जीवन रक्षक घोल) घर में बनाया जाता है उसमें भी एक लिटर पानी में चीनी, नींबू  के साथ साथ एक चुटकी

 नमक ही डाला जाता है ...

बेकरी के जितने भी उत्पाद हैं, बिस्कुट हो, या पेटीज़ हों या कुछ और, सब कुछ कॉमन-साल्ट से .....और अगर उस से नहीं भी तो किसी न किसी रूप में सोडियम तत्व उसमें मिला ही रहता है ...

यह पोस्ट भी ऐसी है, जो मन में आ  रहा है, लिखते जा रहा हूं...क्या करें, डॉयरी हो या हो ख़त ..हम इसी तरह से लिखते रहे हैं ....

बातें तो बहुत हो गईं ...लेकिन पते की बात इतनी है जो मुझे समझ में आई है कि खाने में ...दाल, रोटी, साग, सब्जी में जितना नमक हम खा लेते हैं बस उतना ही काफी है, उतनी ही ज़रूरी है ....बाकी जो हम यहां वहां से ठूंसते फिरते हैं, वह तो बाद में उत्पात ही मचाता है ...किसी का आज, किसी का कल.......लेकिन तंग तो इस की बहुतायत से लोग रहते ही हैं ....डाक्टर भी क्या करें, कह ही तो सकते हैं.....

मेज़ के ऊपर छोटी नमकदानी रखनी ही नहीं चाहिए.....नमक मांगने के लिए कोई आलस ही करेगा....वरना, दाल, भाजी, सलाद, अमरूद ...छाछ सब में छिड़कने लगेगा....

सीख........आज के पाठ की वही घिसी-पिटी दशकोंं पुरानी सीख है कि नमक का कम इस्तेमाल करें ...जितना कम हो सके .....सब्जियों, फलों के माध्यम से भी हमें नमक (सोडियम) हासिल हो जाता है ...इस की कमी के बारे में इतना चिंता न करें...

हां, लिफाफा बंद करते करते एक बात याद आ गई ...वैसे भी मैं बीपी वीपी का कोई विेशेषज्ञ तो हूं कि मेरी इन बातों पर अंध-श्रद्धा करें और उन्हें पत्थर की लकीर की तरह मान लें, नहीं, आप अपने चिकित्सक से बात करें ....अपने फैसले खुद करें., अपने डाक्टर से बात करने के बाद ....और हां, मुझे कुछ महीने पहले किसी ने पूछा कि शरीर में हमेशा के लिए किसी के नमक कम भी हो सकता है क्या.....मुझे नहीं पता था, मुझे तो बस डी-हाईड्रेशन का ही पता था जिसमें किसी को कुछ दिनों के लिए नींबू-पानी, ओआरएस इत्यादि लेने की सलाह देते हैं....लेकिन उसने बताया कि डाक्टर ने उसे कहा है कि तुम ने हमेशा ही ज़्यादा नमक लेना है ....बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी, मैंने साफ साफ कहा कि मुझे ऩहीं पता इस के बारे में ....

पोस्ट पढ़ने के बाद आप क्या सोचेंगे...क्या कुछ असर पड़ेगा भी या नहीं, लेेकिन जैसा कि मैं अकसर सोचता हूं कि इसे लिखना मेरे खुद के लिए एक रिमांइडर का काम करेगा....वैसे तो मैं नमक कम ही लेता हूं ...दही में, छाछ में, नहीं, जूस में नहीं, फ्रूट में नहीं, सलाद में नहीं.....जितना हो सके, ख्याल कर लेता हूं ...जंक भी न के बराबर, महीनों बीत जाते हैं एक वड़ा-पाव, समोसा खाए...बस, मुझे भुजिये इत्यादि खाते वक्त सोच विचार करना होगा .....

केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ... (पंद्रह बरस पुरानी मेरी एक पोस्ट....मुझे उसे पढ़ते पढ़ते हंसी आ रही थी....मैं ही नहीं बदला इतने बरसों में तो पढ़ने वालों से ऐसी उम्मीद क्यों करें, भई..) 😂😎

10 साल पहले भी कुछ लिखा था नमक के बारे में ...अगर देखना चाहें तो यहां देखिए....ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है!!

वैसे नमक हो, तेल हो, मीठा हो, तीखा हो...जितनी गड़बड़ी हम लोग अपने खानेपीने में कर रहे हैं, उस के बारे में आज की टाइम्स आफ इंडिया में भी एक बहुत बड़े डाक्टर ठक्कर का एक लेख आया है....देखिए, उन्होंने सब कुछ कितना सच सच लिख दिया है, और वह भी इतनी सहजता के साथ ...उस लेख को भी देख लीजिए लगे हाथों.......क्या पता, मेरी बात का नहीं, उन की बात का ही असर हो जाए.....

times of India 29.11.23 (click on pic to read it) 

नमक स्वाद अनुसार....शीर्षक इस लिया रखा क्योंकि उस वक्त इसी का ख्याल आया क्योंकि इसी नाम से एक किताब आई थी 2-3 बरस पहले ...साहित्यिक कृति थी ...कोई डाक्टरी नहीं झाडी़ थी उसमें लेखक ने .....और जो ऊपर बहुत पहले मैंने कल की खबर का लिंक दिया है कि कम नमक को ब्लड-प्रेशर की दवाई जैसी अहमियत दी गई है ....उस का मतलब यह नहीं कि आप जो दवाईयां ले रहे हैं, उन्हें बंद कर दें और नमक खाना कम कर दें.......ऐसा नहीं, दवाईं अपने डाक्टर की सलाह अनुसार लेते रहें, मेरे कहे मुताबिक यह देखें हर वक्त खाते समय कि क्या नमक का यह इस्तेमाल ज़रुरी है या मेरी जान ज़्यादा ज़रूरी है........जो भी जवाब मिले, उसी मुताबिक आगे की रणनीति तय करिए .....😂.....

लेकिन मैं इतने लिखने के बाद अब कल से नमक के इस्तेमाल के बारे में और भी ज़्यादा सचेत रहने की कोशिश करूंगा....एहतियात बरतूंगा....

एक बात और सता रही है ....नमक स्वादानुसार ....यह अकसर पत्रिकाओं में जो रेसिपी लिखी होती हैं उन के नीचे लिखा रहता था....था इसलिए कि अब कहां ये सब इतना छपता है मैगजीन में ...और एक बात, हिंदोस्तानी घरों में अगर कभी दाल या सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ जाए तो घर की गृहिणी को ऐसे लगता है मानो उसने कोई संगीन ज़ुल्म कर दिया हो ....इस तरह की दकियानूसी बातें हैं भाई जो कचोटती हैं....नमक ज़्यादा पड़ भी गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.....हमारे मोहल्ले में एक सिपाही रहता था ....जब उस कबख्त की दाल में सिपाहिन से कभी नमक ज़्यादा पड़ जाता था तो रोटी की थाली दूर फैंक देता था.....और सारा घर सहम जाता था....अरे, भई पकी पकाई मिल रही है....खा ले ....नमक ज़्यादा है तो दो चम्मच दही डाल ले...

लिखते लिखते सिर भारी हो गया है खामखां ....चलिए, सुनयना फिल्म की गीत सुनता हूं भारीपन को दूर भगाने के लिए....1979 की फिल्म ...मैंने कालेज में नये नये पैर रखे थे, रात में कभी कभी विविध भारती लग जाता था तो उस में यह गीत बजता था ...सुन कर मज़ा आता था ....परसों इसे बहुत अरसे बाद विविध भारती पर सुना ....


गुरुवार, 23 नवंबर 2023

मुक़द्दर तो उन का भी होता है जिन के हाथ नहीं होते ....

आते जाते रस्तों पर कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो दिलोदिमाग में जैसे सेव हो जाते हैं..सेव ही नहीं हो जाते....लेकिन बार बार उन की फाइल ख़द-ब-ख़ुद खुलती रहती है दिन में कईं बार ...

आज सुबह जब मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ आई इक्नॉमिक टाइम्स खोली तो मुझे दो पन्नों पर पसरा हुआ एक इश्तिहार नज़र आया....इश्तिहार किसी बहुत बड़े प्राईव्हेट बैंक का था...जिसमें एक बाप अपने बेटे को एक टॉय-मोटर कार में बिठा कर घुमा रहा है ....दोनों इस मस्ती का भरपूर आनंद लेते नज़र आए...

इस इश्तिहार को देखने के बाद मुझे दो दिन पुराना मुंबई सीएसटी स्टेशन का एक मंज़र याद आ गया....याद क्या आ गया, वह दृश्य तो मेरे साथ ही रह गया तब से....

दो दिन पहले मैं बाद दोपहर में मुंबई सीएसटी लोकल स्टेशन पर लोकल-ट्रेन से उतरा और मैं प्लेटफार्म पर चल रहा था तो अचानक मैंने एक खड़खड़ाहट की आवाज़ सुनी....देखते ही देखते लोकल ट्रेन के साथ वाले डिब्बे से एक दिव्यांग युवक ने प्लेटफार्म पर लकड़ी से बना एक जुगाड़ सा निकाला जिस के नीचे पहिए लगे हुए थे ...उसे प्लेटफार्म पर रखते ही, वह भी डिब्बे से बाहर कूदा और झट से उस के ऊपर बैठ कर अपने परिवार के साथ बाहर की तरफ़ चलने लगा...

मैं यह देख रहा था कि उस की भुजाओं में अच्छी शक्ति थी जितने बल से वह उस जुगाड़ को चलाने में उन को इस्तेमाल कर रहा था ...मैं यही सोच रहा था कि सब ईश्वर के रंग हैं, अगर किसी चीज़ की कमी रह जाती है तो दूसरे तरीके से उस की भरपाई करने की कोशिश करता है ....

खैर, अभी दस बीस कदम ही चले होंगे कि मैंने देखा कि उस के साथ चलने वाली महिला (संभवत उस की बीवी ही होगी) उस को कुछ पकड़ाने की कोशिश कर रही थी ...मैं उस तरफ़ ठीक से देख नहीं रहा था, इसलिए मुझे लगा कि थैला, बैग इत्यादि उस को थमा रही होगी....

लेकिन नहीं, मुझे उसी वक्त पता चल गया कि उस ने जो छोटा बालक उठाया हुआ था उसे उसने उस की गोद में दिया है ...मुझे इस बात ने छू लिया....

और मैंने थोड़ा आगे चल कर देखा कि वह अबोध बालक अपने बाप की गोद में भरपूर खुश था ....होता भी क्यों न, बाप की गोद मेंं था ....वह इधर उधर के नज़ारे देखते ही उछल रहा था ...

हर बच्चे के लिए उस के सुपर-डुपर हीरो उस के मां-बाप ही होते हैं जिन की गोद ही काफी है ....मनवा बेपरवाह 

मंज़र तो कुछ ज़्यादा ही दिल को छू लेने वाला था कि एक दिव्यांग बाप जिस की दोनों टांगे कटी हुई हैं, वह एक लकड़े के जुगाड़ की मदद से प्लेटफार्म पर चल रहा है, और साथ में अपने नन्हे बालक को भी उस की सवारी करवा रहा है ...

जैसे ही मैंने इस परिवार को देखा तो मुझे भारतीय रेल की महानता का ख्याल भी आया कि इस भारतीय रेल के कारण ही यह पूरा परिवार इस तरह से सफर करते हुए मुंबई सीएसटी तक पहुंच भी गया और जो भी इन का उस दिन का प्रोग्राम रहेगा, उस के बाद इसी तरह से ये लोग अपने आशियाने में भी सकुशल लौट जाएंगे....जय हो भारतीय रेल मैया की...निःसंदेह यह मां की तरह अपने सभी यात्रियों का ख्याल रखती है..

कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो बस उम्र भर याद रह जाते हैं...जून 2007 की बात है, हम लोग कुल्लू-मनाली की यात्रा पर निकले थे...चंडीगढ़ से एक गाड़ी ले ली थी ...उस का ड्राईवर भी छोटी उम्र का ही था...यही कोई 20-22 बरस का रहा होगा....कुल्लू से चले तो मनाली पहुंचने से पहले मनीकरण में एक बहुत ऐतिहासिक गुरूद्वारा है ...कुल्लू से यही कोई एक घंटे का रास्ता होगा....पहाड़ों की सड़कों के बारे में तो आप जानते ही हैं...ऊपर से उस सड़क की मुरम्मत का काम चल रहा था ...जिस की वजह से किनारे एकदम कमज़ोर से ...भुरते हुए ....एकदम शिथिल ...सड़क इतनी संकरी की क्या कहें, लिख नहीं पा रहा हूं ....और सड़क के एक किनारे पर पहाड़ और दूसरी तरफ़ नीचे ब्यास नदी जो पूरे उफान पर थी ...जो पूरे शोर के साथ अपने गन्तव्य की तरफ़ भाग रही थी ....उस रोड़ पर जाते वक्त इतना डर लगा उस दिन कि आज 16-17 बरस हो गए हैं इस बात को ..लेकिन उस के बाद कभी भी किसी रोड़ से डर नहीं लगा....यही लगता है कि अगर उस दिन इतनी जोखिम वाली रोड़ पर ड्राईवर ने गाड़ी चला ली तो दूसरी सड़कों की तो ऐसी की तैसी....यह हुई एक बात...

दूसरी बात यह है कि मैं जिन 7-8 बरसों में लखनऊ में रहा ...वहां के बहुत बड़े बड़े खूबसूरत बाग़ देखने का, उन में सुबह शाम टहलने के बहुत मौके मिले....किसी महिला को वॉकर के साथ सुबह टहलते देखता, किसी को उस की बिल्कुल झुकी हुई रीढ़ की हड्डी के बावजूद भी टहलते देखता तो मैं अचंभित हुए बिना न रह पाता....एक बार तो इतने बुज़ुर्ग को देखा जो चींटी की चाल से चल रहे थे ...85-90 बरस के रहे होंगे ..लेकिन जब मैंने उन से बात की तो उन्होंने बताया कि वे रोज़ाना आते हैं और पूरे बाग का चक्कर काटते हैं....मैं यही सोचता रह गया कि बढ़िया है यह घर से बाहर तो निकलते हैं ..लेकिन कब चक्कर शुरु करते होंगे और कब उसे मुकम्मल कर पाते होंगे...खैर, इस के अलावा भी मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा जो शायद घुटनों के हालात की वजह से मुश्किल ही से चल पा रहे होते....लेकिन उन का निश्चय पक्का होता.... सुबह की सैर के इन सब किस्सों पर मैंने इस ब्लॉग में दर्जनों पोस्टें भी लिख दीं...केवल इसलिए कि इन यादगार लम्हों को सहेज लिया जाए कैसे भी ...

बंबई में भी लोकल ट्रेनों में 80 बरस से भी ऊपर के बुज़ुर्गों को ट्रेन में आते जाते और खास कर चढ़ते उतरते देख कर अब मुझे हैरानी नहीं होती....क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में आ चुकी है कि ये लोग शायद पिछले 60-70 बरस से इन्हीं ट्रेनों पर सफर कर रहे हैं...इन को कौन सेफ्टी समझाएगा...वे इन ट्रेनों के वक्त के बारे में, जिस वक्त इन में भीड़ नहीं रहती, कौन सा लेडीज़, जेंट्स, बुज़ुर्ग डिब्बा किस जगह आएगा और किस में चढ़ना है और कहां से आसानी से बाहर निकलना है, इस पर ये बुज़ुर्ग शोध किए हुए हैं...शारीरिक तौर पर थोडे़ कमज़ोर लगते होेंगे, लेकिन बौद्धिक एवं आत्मिक तौर पर एकदम टनाटन हैं....और कईं वयोवृद्ध महिलाओं पुरूषों ने तो अपनी लाठी के साथ कुछ सामान भी उठाया होता है ....

यह सब मैं क्या लिख रहा हूं...इसलिए लिख रहा हूं कि हम सब इन लोगों से प्रेरणा ले सकें....हम सुबह शाम टहलने न जाना पड़े, इस के लिए नए नए बहाने अपने आप ही से करते हैं अकसर .....लेकिन ऊपर आपने उस दिव्यांग बंदे की चुस्ती-फुर्ती देखी ...अभी उस की फोटो भी लगाऊंगा....सिर्फ इसलिए कि बिना फोटो के आप लोग बात मानते नहीं हो, और अगर फोटो लगी होगी तो सब को प्रेरणा भी मिलेगी कि अगर यह बंदा दुनिया को जीने का अंदाज़ सिखा रहा है, तो हमें तो कुछ भी नहीं हुआ, लेकिन फिर भी हम कभी खुश नहीं रहते ....कभी ईश्वर को कोसते हैं, कभी किसी दूसरे को, कभी तीसरे को ....हर वक्त यही चलता रहता है ....

पल पल हर वक्त हंसते हुए इस ईश्वर का शुक्राना करने के अलावा जीने का कोई तरीका ही नहीं ....कुछ भी तो हमारे नियंत्रण नहीं है, इसलिए ईश्वर जिस भी हालात में रखे, उस का शुक्रिया तो करना बनता ही है ....सांसें चल रही हैं....बाहर गई सांस वापिस लौट कर आ रही है, इस से बड़ी अद्भुत बात क्या होगी....प्रकृति के रहस्य क्या जानेंगे, क्या करेंगे....आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ जाए, चैट जीपीटी आ जाए ...मानवीय संवेदनाएं हमेशा से सर्वोपरि हैं, रहेंगी ...इन की पैमाईश कौन करने बैठेगा ...जब तक सांसों की डोर चल रही है, सब कुछ संभव है....

ओ हो ...यह पोस्ट तो बड़ी भारी भरकम लग रही है ....हां, बार बार उस दिव्यांग का ही ख्याल आ रहा है कि उसने हार नहीं मानी, किसी से गिला-शिकवा नहीं किया, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा, अपने नन्हे-मुन्ने को अपनी गोद में लेकर मुंबई दिखाने निकल पड़ा ....जब कि हम अक्सर देखते हैं जो लोग हर तरह से सक्षम होते हैं, साधन-संपन्न होते हैं कईं बार इस तरह के सैर-सपाटे में उन के नौकर-चाकरों ने बाबू को उठाया होता है ....

 और इस इश्तिहार की टैग-लाइन पर गौर फरमाईए.... दौलत के सफर की शुरूआत ...

और हां, यह तस्वीर भी देख लीजिए जो अखबार में दिखी ....ठीक हैं, ये बाप बेटा भी खुश हैं लेकिन जो प्लेटफार्म पर बाप-बेटा एक लकड़ी के पटडे़ पर निकल पडे़ हैं, उन की खुशी..खास कर उस नन्हे बालक की खुशी मुझे किसी तरह से कम न दिखी ...आप को क्या लगता है? कहीं यह मेरी नज़र का धोखा तो नहीं या मुझ से कुछ देखने में छूट रहा है ....