रिप्ड जीन्स के बारे में पता तो यही कोई १०-१५ बरस पहले लग गया था ...इस पहने हुए जवान लोग दिखने लगे थे ...लेकिन एक बार मैं दंग रह गया था ...यही कोई आठ दस बरस पहले की बात है ...एक ५-६ साल का बच्चा आया अपनी मां के साथ ....बच्चों को सजने-संवरने का शौक होता ही है ...हम भी उस उम्र में अपने ज़माने में बीस पैसे की वो मोमजामे वाली ऐनक लगा कर पता नहीं खुद को क्या समझने लगते थे ..समझें भी क्यों ने ....वक्त ही ऐसा होता है वो... हां, तो उस छोटे लड़के ने बड़े गॉगल-शॉगल लगाए हुए थे, जीन और टीशर्ट , कैप भी पहनी थी और पूरी फार्म में था ...अचानक मेरी नज़र उस की जीन्स की तरफ़ गई जो मुझे एक दो जगह से फटी दिखी...
यह तुम्हारी जीन्स कैसे फट गई -मैंने उसे पूछा.
डा.साहब, यह फटी नहीं है, इस डैमेज जीन्स को खुद इस की फरमाईश पर खरीदा गया है , उस की मां ने राज़ खोल दिया।
मुझे उस दिन बड़ी हैरानी हुई कि पांच छः साल का बच्चा भी डैमेज जीन्स पहन रहा है ...और इतने सालों में वाट्सएप पर भी बहुत से वीडियो आते जाते रहते हैं कि बुज़ुर्ग दादी अपने पोते को कुछ पैसे दे कर कहती है कि लाडले, जा, जा के अच्छी से पतलून ले ले ...यह देख कैसे फट चुकी है...। फिर वह दादी को समझाता है कि बेबे, यह फटी नहीं है, इसे पहनने का रिवाज़ है...
वक्त के साथ युवाओं के रोल-मॉडल भी बदल रहे हैं...जो तस्वीर दो दिन पहले अखबार में थी ...उसमें तो पूरी थी, लेकिन यहां इतनी ही लगाना मुनासिब जान पड़ा....
इन रिप्ड जीन्स का लफड़ा एक और भी है.....इन्हें पहन कर अमीर तो और भी रईस दिखने लगता है, लेकिन एक औसत आदमी बेचारा मांगने वाला कोई फरियादी टाइप दिखने लगता है ...अमीर, रईस लोगों का तो पहनना सब की समझ में आ जाता है कि यह कूल, हॉट, मॉड...जो भी कोई समझ ले, वह दिखने के लिए पहनते हैं..और जीन्स जितनी ज़्यादा रिप्ड होगी पहनने वाले का रूआब, रुतबा, ईज्ज़त समाज में, मीडिया में उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है ..है कि नहीं...अब देखिए दो दिन पहले एक सिने-तारिका की फोटो मैंने अखबार में जब देखी तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा, क्योंकि अकसर मुंबई के लोकल स्टेशनों पर, और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे फेशनेबुल कपड़े पहने मॉड लोग दिख जाते हैं.....दिख जाते हैं तो भई दिख जाते हैं, क्या करे कोई आंखों पर पट्टी थोड़े न बांध ले...
फैशन के लिए हम कुछ भी करेगा....शौक की कोई कीमत नहीं होती...
लेकिन कईं बार कुछ ऐसे लोग भी रिप्ड जीन्स पहने दिख जाते हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इन्होंने फेशन के लिए पहनी है या मजबूरी में .....बस, लफड़ा इन केसों में ही होता है जब समझ नहीं आती, लेकिन वही बात है कुछ लोगों को बेकार में सिरदर्दी मोल लेने की आदत होती है, क्या करना बेकार के इस हिसाब-किताब के चक्कर में पड कर ...तुम्हारी राह चलो, वह उस की ज़िदगी है, उसे जी लेने दो ...
यही कोई पांच छः साल पहले की बात है, मैं एक दिन ज़ारा के शो रूम में गया बेटों के साथ...वहां मैं एक फटी-पुरानी टी-शर्ट देख कर हैरान रह गया...उसे देख कर हैरानगी की बात उस का कटा-फटा होना न था, बल्कि उस पर ३५०० रूपये को टैग लगा हुआ था...जिस तरह की वह टी-शर्ट थी अकसर उस तरह की टी-शर्ट लोग घर में फटका लगाने के लिए भी इस्तेमाल न करें....ऐसा मैं समझता हूं तो समझता फिरूं ...लेकिन शौक की कोई कीमत नहीं होती ...मैं भी तो सौ साल पुरानी विंटेज किताबे, डेढ़ सौ साल पुरानी डिक्शनरीयां, ६० साल पुराने मैगज़ीन और नावल ढूंढता रहता हूं ..कुछ तो चीथड़े हो चुके होते हैं लेकिन खरीदता हूं न मुंह मांगे दामों पर क्योंकि वे मेरे काम की चीज़े ंहैं ...इसी तरह ये चीथड़े दिखने वाले कपड़े भी किसी के कितने काम के होंगे, मैं क्यों इस सब के चक्कर में पढ़ कर अपना सिर दुःखाने का जुगाड़ कर रहा हूं ....और वह भी सुबह-सवेरे।
जान-बूझ कर अच्छी भली पतलून को फड़वा लिया बंदे ने फैशन के चक्कर में......दो दिन पहले दिखा बांदरा स्टेशन पर ...
रिप्ड जीन्स के बारे में यह टुकड़ा लिखने से पहले मैंने सोचा चलो गूगल करता हूं .....मुझे कुछ गलती लगी मैंने लिखा रिग्ड - Rigged jeans - लेकिन गूगल बहुत समझदार है, उसने बराबर मुझे रिप्ड जीन्स का पन्ना खोल कर दे दिया ..कुछ सवाल जवाब भी थे ...एक दो ही पढ़े, बाकी न पढ़ पाया, अगर वे भी पढ़ने लग जाता तो मुमकिन था यह पीस लिखने से रह जाता या फिर आज ड़यूटी पर बेटे की कोई रिप्ड जीन्स पहन कर ही निकल पड़ता ...वैसे एक बार मैंने उसे पहना था घर ही में...सच में उस दिन समझ आई कि ये सब जवानों के काम हैं, बूढ़ी टांगों और घिसे-पिटे घुटनों पर तो ये रिप्ड जीन्स बहुत भद्दी दिखती हैं, कूल-हॉट तो क्या, बंदा सदियों का बीमार दिखने लगता है, मैंने उसी वक्त उसे उतार के परे रख दिया....मैं उस दिन बच्चो ं से मज़ाक कर रहा था कि अब मैं भी यह पहन कर जाया करूंगा ....और वो जैसे हैं ..हां, हां, डैड, पहनो ज़रूर पहनो, यू लुक कूल इन दिस....😎..... i know their satire!!
क्या करें, अंकल, वक्त के साथ कदम के साथ कदम मिला कर चलना पड़ता है ...
अच्छा, गूगल पर जो दो सवाल जवाब देखे, उसमें लिखा था कि लोग इन्हें पहनते क्यों है, जवाब लिखा था, कूल दिखने के लिए और दुनिया को यह बताने के लिए कि वह कैसे दिखते हैं, उन्हें इस की परवाह नहीं है....लेकिन पता नहीं मुझे लगता है कि कुछ और दिखने के लिए भी लोग इसे पहनते होंगे ...कूल, हॉट, अल्ट्रा-मॉड, हिप दिखने के लिए ....इन सब का एक ही मतलब होगा.....आज के दौर की स्लैंग ...
फेशन, शौक से मुझे याद आया हमारे परिवार का नन्हा सा सदस्य (जिस की फोटो यह है) इन दिनों मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमा रहा है ....इसे देखते ही लगता है ..."इन परिदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं..."
पोस्ट को बंद करते वक्त यह है मेरा आज का विचार ...जो मन करे पहनिए...फैशन करिए, कूल दिखिए और इस गर्मी उमस के मौसम में कूल बने भी रहिए...ज़िंदगी ने मिेलेगी दोबारा.....मुझे नहीं पता वह पंजाबी कहावत कैसे बनी ...पाईये जग भांदा ते खाईए मन भांदा....(पहनिए वह जो दुनिया को अच्छा लगे, खाइए वह जो आप को अच्छा लगे).....कोई क्यों न पहने वह सब जो उसे खुशी दे, उसे आराम दे, उस के मूड को अच्छा रखे .....खुश रहिए, मस्त रहिए ..रईसी के जलवे अलग हैं, लेकिन आम बंदे के लिए मेरी सलाह यही है कि दूसरे की रिप्ड देख कर अपनी अच्छी भली पतलून को कटवा-फड़वा लेना ठीक नहीं जान पड़ता ....इस से ईश्वर नाराज़ होता है, उस से वह समझता है हम नाशुक्रे हैं.....जैसे जिन लोगों के पास खाने को सब कुछ है, वे छरहरे दिखने के लिए क्या क्या नहीं करते ताकि भूख न लगे, उस के लिए दवाईयां तक ले लेते हैं , भूख अगर लगे भी तो कम ..ताकि वज़न न बढ़े......उन सब के लिए मैं इतना ही कहूंगा कि भूख लगना भी ईश्वर की सब से बड़ी नेहमत है ....जब कभी परिवार में किसी की भूख गायब हो जाती है न तो सारे कुनबे की भूख मर जाती है ...तब इस की क़ीमत पता चलती है......मैंने भी अपने परिवार में दो लोगों की भूख मरती देखी है ...तीन महीने नहीं टिक पाए थे उस के बाद ....उन को देख हमारी भी भूख मरने लगती थी ...इसलिए हमें ज़रूरत है हर वक्त शुकराने में रहने की ......जो मिल रहा है, खाने को पहनने को ..उसे खुशी खुशी पहनें ...सब से ज़्यादा ज़रूरी सांसे हैं, टांगे हैं .....उन को कैसे ढक रहे हैं या नहीं भी ढक पा रहे हैं, यह कुछ मायने नहीं रखता ....ज़िंदगी का जश्न उन सब चीज़ों के साथ मनाना हमें सीखना होगा जो हमें वरदान के रूप में मिली हुई हैं...आंखें, दिल, चलना-फिरना ......और भूख ....
इस रिप्ड जीन्स की बातों को दिल पर मत लेना यार, जो पहनना है पहनो, मैं भी वही पहनता हूं जो मुझे खुशी देता है, आज सुबह कुछ लिखने के लिए नहीं था, इसलिए यह सब लिख दिया....बस, यूं ही ....
हम लोग बचपन से जो खाते पीते रहते हैं हमें उन चीज़ों की आदत पड़ जाती है...है कि नहीं....इसलिए अकसर डाक्टर लोग छोटे-बच्चों के मां-बाप को यही मशविरा हमेशा देते हैं कि इन को सभी प्रकार की दालें एवं साग-सब्जियों और फलों की आदत डालो अभी से ...अगर बचपन में इन की इस तरफ़ रूचि न हुई तो ये उम्र भर इन पौष्टिक चीज़ों से बचते रहेंगे, दूर भागते रहेंगे....हम जिस दौर के हैं, उन दिनों बच्चों को अकसर एक-आध दाल या सब्जी नहीं भाती थी, लेकिन आज बच्चों को, युवाओं को कोई सी भी एक दाल या एक ही सब्जी चाहिए ...हर दिन ...अमूमन दाल मक्खनी या शाही पनीर ....स्विग्गी से या ज़ोमेटो से ....। चलिए, अब जो है सो है, यह आज एक बहुत बड़ा मसला है...मैंने भी बचपन से ही करेला कभी नहीं खाया और आज तक नहीं खा सका। बचपन में खाने-पीने की सही ट्रेनिंग की यह अहमियत है ...
शकरकंदी और सिंघाडे़
खैर, बात तो शकरकंदी की करने वाला था ...यह हमें बचपन से बहुत पसंद रही है...पंजाब में जिस जिले में मैं 30 बरस तक रहा -अमृतसर में- वहां हमें शकरकंदी और सिंघाड़े (water chestnut) सिर्फ ठंडी़ के मौसम में कुछ ही दिनों के लिए बाज़ार में दिखते थे ...और बस हमें इन को उन दिनों कुछ ही बार खाने का मौका मिल पाता था...लेकिन मज़ा आ जाता था उबली हुई शकरकंदी के साथ सिंघाड़े खाते वक्त जब हम लोग साथ में थोड़ा गुड़ ले लेते थे ...
एक पुरानी कहावत है ....भूख में चने बादाम....या ज़रूरत आविष्कार की जननी है ....जहां मैं काम करता हूं पास ही देखा पिछले साल कि ये बाल गोपाल इत्मीनान से शकरकंदी को भून रहे हैं... 🙏
अभी भी ये दोनों चीज़ें बहुत पसंद हैं....लेकिन अब इन चीज़ों में वह पुराने वाला स्वाद नहीं रहा, क्या करें, फिर भी खाना तो है ही ..इसलिए अब शकरकंदी को उबालते वक्त उस में गुड़ डालना पड़ता है ताकि वह खाई तो जा सके। और यहां बंबई में यह शकरकंदी लगभग सारा साल ही दिखती है ...हां, उस के रंग शायद दो तरह के होते हैं...एक तो यह है जो मैंने यहां तस्वीर लगाई है थोड़े लाल से रंग में और दूसरी होती है जो भूरे से रंग वाली ....जो अकसर हम लोग पहले खाते रहे हैं...मुझे नहीं पता इन में फ़र्क क्या है...
शकरकंदी में कीड़े
कल मैं उबली हुई शकरकंदी से जैसे ही छिलका उतार रहा था तो मुझे कुछ सख्त सा महसूस हुआ ....मैंने थोड़ा जोर से दबाया तो अंदर से काला सड़ा हुआ हिस्सा दिखा ...और थोड़ा और ध्यान से देखा तो पता चला कि उस में तो इतने कीड़े हैं....और एक ही शकरकंदी में ही नहीं, कईं टुकडो़ं में ये कीड़े दिखे....
देखिए, शकरकंदी में कीड़े दिख रहे हैं...मैंने पहली बार देखा इन्हें शकरकंदी में
खाने पीने की चीज़ों में कीड़े देख कर हम लोग आज भी डर जाते हैं, सहम जाते हैं....जैसे मां जब भिंडी या बेंगन काट रही होती और उसमें से कोई कीड़ा निकलता तो हमें दिखाती और समझाती कि इसलिए मैं तुम लोगों को कहती हूं कि सब्जी कच्ची मत खाया करो...हम लोगों की उन दिनों आदत सी कच्ची सब्जी जैसे भिंड़ी, फुल गोभी आदि का एक आध टुकडा़ उठा कर खाने की ....हमें उन सब्जियों में कीड़ा देख कर इतना ़डर लगता जैसे किसी आतंकवादी को देख लिया हो...
बिना काटे आम खाने वाले भी ख्याल रखें
खाने पीने की चीज़ों में मुझे कुछ भी ऐसा-वैसा नज़र आता है तो मैं ब्लॉग में ज़रूर शेयर करता हूं ताकि सभी पढ़ने वालों को इस की जानकारी हासिल हो ..ऐसे ही आज से 8-10 बरस पहले जब हमें आम को चूस कर खाने की आदत थी ...चूसने के बाद जब उस के छिलके को भी दांतों से कुरेदने लगे तो पता चला कि अंदर तो कीड़े ही कीड़े हैं ....बस उस दिन के बाद फिर कभी आम को काटे बिना खाया नहीं ....अगर कभी ऐसे ही बिना काटे खा भी लेते हैं तो वह घटना बराबर याद आ जाती है, ़डर डर खाते हैं...
लगभग दस बरस पहले मैंने जब आम का यह रूप देखा तो उसे इस ब्लॉग में दर्ज कर दिया था....और मैं अमूमन एक बार लिखने के बाद अपनी पोस्ट पढ़ता नहीं हूं, उसे एडिट करना तो दूर की बात है ....मुझे उसे फिर से पढ़ना कुछ कारण वश असहज कर देता है ....एक रवानगी में जो लिख दिया, उसे क्या बार बार देखना...जो कह दिया सो कह दिया....😎 यह रहा मेरी उस ब्लॉग-पोस्ट का लिंक, देखिएगा....कैसे उन दिनों लखनऊ मेंं आमों की ऐश किया करते थे ...
हां, तो यह पोस्ट सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि हमें अपने खाने पीने के बारे में सचेत रहना चाहिए...मुझे अभी लिखते हुए याद आ रहा था कि शकरकंदी को आज तक हम ने कभी काट कर खाया ही नहीं, छिलका उतारा और खाने लगे ...और हां, बहुत बार अंदर से कुछ सख्त महसूस होता, और कडवाहट सी भी लगती तो हम खा लेते चुपचाप ....यही सोच कर कि कईं बार बादाम भी तो होते हैं कड़वे ...लेकिन अब सोच रहा हूं कि वो सब शकरकंदी अंदर से सड़ी हुई कीडे़ वाली होती होगी ....खैर, अब चिडि़या खेत चुग चुकी है ...अब तो आगे की ही सुध ले सकते हैं....
खाने पीने की चीज़ों से जितना डर कर रहा जाए उतना ही ठीक है...अच्छे से काट कर , देख कर और उस का स्वाद भी अगर बदला दिखे तो फैंक दीजिए,मत खाईए...सेहत से बढ़ कर तो कुछ है नहीं। कड़वेपन से याद आया कि लौकी का जूस पीते वक्त भी ख्याल रखिए....हमारे एक साथी अधिकारी की पिछले बरस लौकी का कड़वा जूस पीने से जान जाती रही ....ध्यान रखिए, और इस नीचे दिए हुए लेख के लिंक को भी देखिएगा...उसमें बहुत उपयोगी जानकारी है इन कड़वी सब्जियों के बारे में ...अपना ख्याल रखिए...बाती छोटी छोटी हैं, लेकिन कईं बार बहुत महंगी साबत होती हैं....
PS... ये जो आज कल हर मौसम में हर सब्जी और फल बाज़ार में दिखते हैं न, यह भी लफड़े की बात ही है ...हम लोग देखा करते थे गर्मी सर्दी की सब्जियां और फल अलग होती थीं....वे उसी मौसम में उगती थी, दिखती थीं और बिकती थीं. अब किसी भी मौसम में कुछ भी खरीद लो...यह क़ुदरत के साथ पंगे लेने वाली बात लगती है मुझे अकसर ...बिन मौसम के सब्जी फल उगाने के लिए बहुत से कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है एक बात, और उन को कोल्ड-स्टोरेज़ आदि मेंं रखने के लिए भी बहुत से प्रिज़र्वेटिव इस्तेमाल होते हैं....सब कैमीकल लोचा है, और क्या....इसलिए ताज़ा खाएं, सुथरा खाएं, मौसम के मुताबिक ही सब्जियों एवं फलो का सेवन करें। मुफ्त की एक और नसीहत....आदत से मजबूर, क्या करें।
छोटी सी सीख यही है शकरकंदी भी 😎खाइए ज़रूर, लेकिन काट कर ....अच्छे से देख कर, मैं भी आज के बाद कभी इसे काटे बिना नहीं खाऊंगा...
मुझे बार बार पूछा जाता है कि तुम्हारी किताब कब आ रही है...क्यों इतनी देर कर रहे हो ...मैं कैसे भी इस तरह के सवालों को टाल जाता हूं कि बस, आलस की बीमारी है ...जी हां, टालने के लिए कह तो देता हूं और फिर जब अपने आप से कहता हूं कि असल बात यह तो नहीं है...दरअसल मैं अपनी पुरानी यादों की गठरीयों को संभालने में ही इतना मसरूफ़ रहता हूं कि यह किताब विताब लिखने के चक्कर में कौन पड़े ....जब कि मैं बड़ी हलीमी से यह लिख रहा हूं कि कोई किताब लिखना भी अब मुश्किल नहीं लगता...एक हफ़्ते भर का काम है, छुट्टी लेकर इत्मीनान से बैठ जाऊं तो लिख लूं एक किताब भी, उतार दूं लोगों के उलाहने भी ... ..लेकिन पिछले बीस बरसों में ऐसा मौका मिला ही नहीं, पता नहीं क्यूं.
मार्च 1963 के फिल्मफेयर में दिखा यह डालडे का डिब्बा जिसने यह पोस्ट लिखने के लिए उकसाया मुझे - स्लोगन देखिए ...माएं जो बच्चों की केयर करती हैं, वे डालडा इस्तेमाल करती हैं .....कुछ सुना सुना नहीं लग रहा ...जैसे वे हाकिंग्ज़ कुकर वाले कहते थे ....जो पत्नी से करते प्यार, वे हॉकिंग से कैसे करें इंकार .... हा हा हा हा 😎
खैर, आज डालडे का ख्याल कहां से आ गया है...लेकिन ख्याल तो उस का आता है जिसे हम कहीं भूल गए हों....जब डालडा बचपन ही से अपनी यादों में बसा हुआ है तो उसे कैसे भूल सकते हैं...लेकिन उस के बारे में लिखने का ख्याल इस लिए आया कि दो दिन पहले मैं 60 बरस पुरानी फिल्मफेयर के पन्ने (मार्च 1963) उलट-पलट रहा था....इसे खरीदा सा कुछ महीने पहले ...तो अचानक मेरी नज़र डालडे के इस इश्तिहार पर टिकी की टिकी रह गईं। लिखने का मेरा मक़सद एक यह भी होता है कि इसी बहाने आज से 50-60 पुराने दौर की यादें एक पैकेज की तरह इक्ट्ठा हो जाती हैं ..एक ब्लॉग पोस्ट की शक्ल के रूप में ...और कोई पढ़े न पढ़े, ख़ुद की डॉयरी पढ़ने से सुख मिलता ही है...😎
डालडे का नाम सुनते ही, इस का पुराना इश्तिहार किसी मेगज़ीन में देखते ही हमें याद आती है मां के चूल्हे-चौके की ...आग धधक रही अंगीठी की, उस पर रखे तवे पर डालडे घी में तैर रहे नमक-अजवायन के लज़ीज़ परांठों की ...जो बिना किसी हिसाब किताब के सिंकते रहते थे....जब तक जब का पेट न भर जाए और जब तक स्कूल-कॉेलेज के लिए भी वे बन कर डिब्बे में बंद न हो जाते ..। हमें याद है कि यही हमारा नाश्ता होता था ..डालडे में तैयार हुए दो परांठे- कभी आलू के, गोभी, मूली के भी, लेकिन डालडे में गडुच्च, साथ होता था आम का अचार और एक दम कड़क और खूब शक्कर वाली चाय....सच में पेट भरने के साथ साथ, नज़रें भी संतुष्ट हो जाती थीं और आत्मा को भी परम सुख की अनुभूति होती थी ...कभी कभी बेसन का पूड़ा (जिसे शायद कहीं कहीं चिल्ला भी कहते हैं), बेसन वाली रोटी (मिस्सी रोटी), दाल वाली रोटी, परांठे के साथ आलू-प्याज़ के पकौड़े भी अकसर होते थे ....और महीने में कभी एक आध बार ब्रेड भी खा लेते थे ...अच्छे से सिकी हुई मलाई और चीनी लगा कर (हमें तो तब यही भी नहीं पता था उसे मलाई सेंडविच कहते हैं😀)....
कुछ बातें सारी पोस्ट लिखने के बाद याद आती हैं जैसे मुझे यह याद आया कि मुझे चीनी के परांठे भी बहुत भाते थे...डालडे में तले ही परांठों की तो बात ही क्या करें....क्या गज़ब महक आती थी। अच्छा, एक मज़ेदार बात और ...मुझे याद है जब मैं छोटा बच्चा था (बड़ी शरारत करता था..), जब अपनी नानी के यहां गया होता तो देर रात में उठ के बैठ जाता ..रोने लगता कि मुझे चीनी के परांठे खाने हैं...नानी तो ठहरी नानी, बेचारी उसी वक्त स्टोव जला कर लग जाती काम और मुझे भी 1-2 चीनी के परांठे खा कर आराम की नींद आती।
हां, कहां मैं भी नाश्ते का पिटारा खोल के बैठ गया....अच्छी भली डालडे और मां के चूल्हे में सिक रहे परांठों की हो रही थीं...एक बात मुझे और बहुत याद आती है ...हमारा एक दोस्त था, अब तो उस का नाम भी नहीं याद ...लेकिन छु्टी वाली दिन मैं अकसर सुबह-सुबह उस के घर चला जाता क्योंकि वहां से हमें ग्रांउड में गिल्ली-डंडा, कंचे, पिट्ठू-सेका ...कुछ भी खेलने जाना होता था ...जब मैं उस के घर में पहुंचता सवेरे तो मैं देखता कि उस के घर में भी डालडे के परांठों बनाने का बदसतूर जारी है ...लेकिन हमारे घर के मुकाबले में बड़े स्तर पर...क्योंकि उन के घर में आठ-दस लोग थे....मंज़र याद करता हूं तो मज़ा आ जाता है ...उन के आंगन में आठ-दस चारपाईयां बिछी हुई हैं....उस दोस्त की झाई (मां) बार बार बच्चों को आवाज़ें लगा रही है कि उठो, नाश्ता कर लो..अंगीठी पर तले जा रहे गर्मागर्म परांठों से जो धुआं निकलता है ना उस खुशनुमा जानलेवा महक को ब्यां कर पाना मेरे बस में नहीं है, यह तो वही समझ सकता है जो उस दौर का साक्षी रहा है....हां, उस दोस्त के घर में जा कर मुझे यह बड़ा अजीब भी लगता और अच्छा भी लगता कि उस दोस्त के भाई-बहन आंखें मलते हुए बिस्तर से उठ रहे हैं और सीधा मां के पास आकर अपनी थाली में परांठे रखते हैं, साथ में चाय का गिलास उठाते हैं और चारपाई पर जा कर इत्मीनान से नाश्ता करने लगते हैं....मैं वहां बैठा बैठा सोच में पड़ जाता कि हमारे घर में तो नियम है कि बिना मुंह हाथ धोए, बिना दांत साफ किए हुए क्यों हम लोग परांठों तक पहुंच नहीं पाते ....
खैर, इसी तरह से डालडे पर हमारी पूरी पीढ़ी पल रही थी ...हम से पिछली पीढ़ी के देशी घी के किस्से सुनते सुनते कि इस डालडे का तो उन्होंने नाम तक न सुना था, सब कुछ ख़ालिस देशी घी में ही बनता था हमारे मां-पिता जी के यहां तो ...देशी घी वेरका तो हमारे यहां भी आता था लेकिन इस्तेमाल कम ही किया जाता था...दाल की कटोरी में डालने के लिए, कभी देशी घी के परांठे बन जाते थे, मक्की की रोटी पर रखे गुड़ को नरम करने के लिए देशी घी लगता था और हलवा बनाने के लिए भी कईं बार वही इस्तेमाल होता था ...कहने का मतलब मेरा यही है कि देशी घी की घर में डिमांड ज़्यादा थी और सप्लाई बहुत कम ...इसलिए बरसों बाद जब मैंने रोटी फिल्म में मुमताज का अपने ढाबे पर वह देशी घी का डॉयलाग सुना तो मुझे बहुत हंसी आई....
डालडा घी को याद करता हूं तो उस डालडे घी से बड़ी मस्ती से चम्मच भर भर के डालडे को निकालती और परांठों पर चुपड़ती मां याद आ जाती है ...ऐसे लगता है जैसे अभी फिर से कहीं से प्रकट हो जाएगी...लेकिन जाने वाले कहां आते हैं, उन की तो यही यादें ही हैं जिन के ज़रिए हम उन खुशनुमा लम्हों को फिर से जी लेते हैं...
डालडे के डिब्बे से जुड़ी कुछ यादें ये हैं कि उस के नए दो किलो या चार किलो के डिब्बे को खोलना भी इतना आसान काम न होता था...उस के ढक्कन के नीचे टीन की सील लगी होती थी। हमारे घर में तो उसे खोलने के लिए एक ओप्नर था....लेकिन फिर भी कभी जिसने भी उस ओप्नर का इस्तेमाल किए बिना उसे खोलना चाहा उसने हाथों पर घाव ही किया ...अच्छा, अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि दो और चार किलो के डालडे के डिब्बे हुआ करते थे ...मुझे अब याद नहीं कि क्या एक किलो का भी होता था कि नहीं...शायद इसलिए नहीं याद कि हमने उसे अपने यहां कभी देखा ही नहीं, क्योंकि उन दिनों घरों में जब डालडे की खपत ही इतनी हो रही थी तो क्यों आएगा एक किलो वाला डिब्बा घरों में....
नवीं कक्षा की बात है...हमारे साईंस के अध्यापक श्री सतीश वर्मा जी हमें विज्ञान बड़ी मस्ती से पढ़ाते थे ...उन दिनों मेरे 40 में से 38 अंक आते थे विज्ञान में और कक्षा में मेरी उत्तर-पुस्तिका को घुमाया जाता था ...नवीं कक्षा में जब उन्होंने हमें वनस्पति घी को तैयार करने की विधि समझाई ...Hydogenation of Vegetable Oils ..तो डालडा खाने का और भी मज़ा आने लगा ...वह और भी अपना ही लगने लगा ....ऐसे लगने लगा कि वाह, अब तो हम इसे तैयार करने की विधि भी जानते हैं ...हां, वह सब ट्राई करने के चक्कर में नहीं पड़े, यही गनीमत है लेकिन उस प्रक्रिया को जानना भी कम रोमांचक न था...
डालडे का टीन वाला डिब्बा जो अभी आप ने ऊपर इश्तिहार में देखा वह जब खाली हो जाता तो उस का क्या अंजाम होता था ...वह अकसर तो कबाड़ी को बेच दिया जाता....जैसा कि अभी मैं आप को उस दौर के गीत के ज़रिए दिखाऊंगा जिस में हास्य कलाकार महमूद ने गले में डालडे का खाली डिब्बा डाला हुआ है ... कईं बार उस खाली डिब्बे में चावल-चीनी जैसी खाने पीने के पदार्थ स्टोर किए जाते थे। बहुत बार तो मैं ही अपने कंचे को संभालने के लिए एक दो डिब्बे हथिया लेता था ...एक में पुराने कंचे और दूसरे में नए कंचे....कंचों का मैं किसी ज़माने में चेंपियन था ...क्या निशाना था....शाम को जब कंचों के खेल खत्म हो जाते तो कंचों को उस डालडे के डिब्बे मे ंडाल कर धोना और फिर उन को गिनना, इसी तरह के मेरे शुगल थे ...
एक बात और डालडा डालडा किए जा रहा हूं ....उसी की रट लगा रखी है मैंने ....मैं रथ को कैसे भूल गया ...एक रथ वनस्पति घी भी होता था ...शायद कंपनी ही अलग थी ..कुछ कुछ याद आ रहा है कि घर में कभी डालडे की तारीफ़ करने लग जाते, कभी रथ की ...अच्छा, हम 1975 के आसपास (जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है) ये डालडा और रथ प्लास्टिक के डिब्बों में आने लगे...ये प्लास्टिक के डालडा-रथ के डिब्बे एक किलो के साइज़ के ही आते थे ....मुझे अपने कंचे रखने के लिए वे एक किलो वाले खाली डिब्बे ज़्यादा सुविधाजनक लगते थे ..
अभी हम लोग कालेज जाने लगे थे शायद कि पोस्टमेन घी शुरू हो गया ....यह एक बड़े चोकोर से टीन के आकर्षक डिब्बे में मिलता था ...यह लिक्विड तेल होता था ...मूंगफली का तेल ... इस तेल की घरों में बड़ी इज़्ज़त थी....लेकिन इसे भी कम ही इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि यह महंगा था ...शायद दाल-सब्जी के लिए ही ...और हमारे प्रिय परांठों पर अभी भी रथ और डालडा ही चुपड़ा जा रहा था ...😃
यादें भी बारात की तरह होती हैं, हर याद इस बारात में शामिल होना चाहती हैं लेकिन कोई लिखे भी तो कितना लिखे ...कितना डालडा और रथ खाया, बेहिसाब ...कितना जम गया होगा कितना घुल के बह गया होगा...ये तो ईश्वर ही जानता है लेकिन जो मुझे लगता है कि जितना परिश्रम उस दौर में लोग करते थे अधिकतर तो इस्तेमाल ही हो जाता होगा, यह मेरा कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है....बस मुझे ऐसा लगता है ...क्या है न, जैसे जैसे देश-समाज में सम्पन्नता आई घी और तेल का भी एक बड़ा बाज़ार बन गया ....यह खाओ, यह मत खाओ......कोई विदेशी तेल के लिए कह रहा है ...कोई देशी ...कोई कुछ कोई कुछ ...कोई किसी तेल की तारीफ़ में लगा हुआ है तो कोई किसी मक्खन, घी या किसी दूसरे तेल की ....डाक्टरी पढ़ कर भी हम जैसे लोग भी अगर सच में कंफ्यूज़ ही हैं तो फिर जनसाधारण की तो बात ही क्या करें, उन्हें ताकतवर मार्कीट शक्तियां जो सबक पढ़ाना चाहती हैं, वे देर सवेर उन को अपनी चपेट में ले ही लेती हैं ..कोई भी हथकंडा अपना लेती हैं, डाक्टरों से कहलवा कर, शॉपिंग प्लॉज़ा में एक से साथ एक मुफ्त दे कर ....या और भी बहुत कुछ कर करा के ...सीधे सादे लोगों को झांसे में लेना कोई मुश्किल काम नहीं है ....इश्तिहार बाज़ी का ज़माना है ...सब कुछ मुमकिन है ...ऊपर डालडे के विज्ञापन में ही आपने देखा क्या क्या फ़ायदे गिनवा गए हैं........
खैर, हम लोगों के पास तो कोई विकल्प ही न था, अब परांठे खाने हैं, देशी घी के कनस्तर पहुंच से बाहर हैं तो डालडे-रथ के ही तो खाने पड़ेंगे.....सरसों के तेल के परांठे तो नही न बन सकते....लेकिन यादें तो हैं न हमारी उस से भी जुड़ी हुई ....हमारी मां को कईं चीज़ें सरसों के तेल में भी बनाना अच्छा लगता था ...और उन का ज़ायका भी बहुत अच्छा होता था ...वैसे हमने इतनी उम्र होते होते देखा है कि बहुत से घरों में सरसों का तेल ही इस्तेमाल होता रहा है ...हमारे बड़े-बुज़ुर्ग भी इस की हिमायत करते थे ...क्या था न पहले शुद्धता का कोई इतना मुद्दा भी तो न था...लेकिन सीधे सादे थे अमूमन ...कुछ चीज़ें मुझे याद है हम लोग सरसों के तेल में ही बनी पसंद करते थे ...जैसे कि मेथी आलू...सरसों के तेल में छोंके हुए आंवले, भिंडी इत्यादि ....
ऊब गया हूं इस डालडे के बारे में लिखते लिखते ...चलिए, विषय को थोड़ा बदलते हैं....मैं जब इस 60 साल पुराने फिल्मफेयर के पन्ने उलट-पलट रहा था तो मुझे बहुत से इश्तिहार और भी दिखे जिन को देख कर भी कुछ कुछ याद तो आता रहा ...चलिए, उनमें से कुछ को यहां पेस्ट करता हूं ...आप भी गुज़रे दौर का मज़ा लीजिए...
तर
मुझे आज पता चला कि वाटरबरी के नाम से ठंडी लगने की भी कोई दवा आती थी....मुझे तो इस के बारे में तब पता चला जब नवीं दसवीं क्लास में जब एक बार डा. साहब हमारी सेहत की जांच करने आए...उन को सब ठीक ही लगा लेकिन मैंने बाद में उन से जा कर कहा कि मुझे कमज़ोरी महसूस होती है ...उन्होंने एक पर्ची पर वाटरबरी टॉनिक लिख दिया....पिता जी बाज़ार से लाए और मैं खुद को पहलवान समझने लग गया 😇
आज हम इस तरह के विज्ञापन का तसव्वुर भी नहीं कर सकते ...पढ़िए ज़रा इसे पूरा ...इस तस्वीर पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ पाएंगे ...
फिल्मफेयर के आखिरी पन्ने पर उस दौर के सुपरहिट हीरो बिश्वाजीत की फोटो
अच्छा तो सिने स्टार्ज़ के बारे में जानने के लिए भी किताबें छपती थीं ... नीचे देखिए... फिल्म स्टारों के पोस्टर बेचने की बात लिखी है ...1963 में भी ढाई रुपल्ली में ...😁
मुझे यह समझ नहीं आया कि यह 16 एमएम की फिल्म का क्या फंड़ा था आज से 60 साल पहले ...अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई पाठक इस पर रोशनी डाल सके तो अच्छा होगा...
फिनिक्स मॉल है अब मुंबई में ....वहां जाते हैं ...लेकिन 60 बरस पहले वहां पर फिनिक्स मिल हुआ करती थी, जहां फिनिक्स फैबरिक्स नाम का कपड़ा तैयार होता था ...यह मेरा अनुमान है ...नाम से मैं ऐसा समझ रहा हूं..
वाह .... फिल्मफेयर के पन्ने पर व्ही.शांताराम जैसे महानायक के दीदार भी हो गए....उस ग्रेट फिल्म डा कोटनीस के एक सीन के के ज़रिए ...
क्या कहें अब इस विज्ञापन के बारे में ....यह तो बीते ज़माने की एक बात हो के रह गई है ...
महान अभिनेत्री ललिता पवार जो अपने अभिनय से अपनी भूमिका में जान फूंक देती थी ....क्या गजब का फ़न था इन के पास, ये खलनायक शाकाल, गब्बर वब्बर तो बाद में आए....इन की फिल्म देख कर सच में बच्चे तो डर जाते थे ..ये वो लोग थे जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी हिंदी सिनेमा को समर्पित कर दी....इन की पुण्य याद को सादर नमन...अभी जो मैं नीचे नील कमल फिल्म का गीत एम्बेड करूंगा उस में भी ललिता पवार ने कमाल का अभिनय किया है ...
लो... कर लो बात ....ज्यादा मीठा खाने की सलाह दे रहा यह विज्ञापन
छुट्टी सब को अच्छी लगती है, इन सिने-तारिकाओं की एक दिन शूटिंग कैंसल हो गई तो ये पिकनिक पर निकल गईं ....और फिल्मफेयर ने उन लम्हों को भी कवर कर लिया ....(पढ़िएगा इसे फोटो पर क्लिक कर के ....आसानी से पढ़ पाएंगे)
इस टीनोपाल की डिब्बी ने भी सफेदपोशों की नाक में दम किए रखा ....खास कर के गृहिणियों को तो उलझाए रखा इस तरह के विज्ञापनों ने ....उस की शर्ट या साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाली प्रतिस्पर्धा ... हा हा हा हा ....
लीजिए, डालडे की इतनी बातें सुनने के बाद नील कमल फिल्म का यह गीत भी सुनिए...खाली डिब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार, खाली से मत नफ़रत करना खाली सब संसार.....यह रहा इस का लिंक ...वैसे तो नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेड डिसएबल हो जाता है ....और ब्लॉग लिखने वाले को पता ही नहीं चलता...इसी फिल्म का वह सुपर-डुपर गीत था ..बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले....अभी मेरी बहन की शादी नहीं हुई थी जब यह फिल्म आई थी....मेरे पिता जी अकसर यह गीत सुनते सुनते रो पड़ते थे ...भावुक थे ... लेकिन आप इन चक्करों में मत पडिए, अगर इतनी मशक्कत कर के यह डालडे की पोथी पढ़ कर आप यहां तक पहुंच ही गए हैं तो महमूद साहब की बेहतरीन अदाकारी के साथ फिल्माया गया यह गीत ज़रूर सुनिए...गले में डालडे का डिब्बा लटका रखा है उन्होंने ...ग्रेट कॉमेडियन ऑफ ऑल टाइम्स ....🙏
जल्दी ही फिर किसी किस्से कहानी के साथ मिलते हैं....मुझे खुद पता नहीं इस का टॉपिक क्या होगा, अगर आप के ख्याल में ऐसा कोई विषय है जिस पर लिखा जाना चाहिए...तो नीचे कमेंट में लिखिए...कोशिश करेंगे....अच्छा, अपना ख़्याल रखिए...
PS... इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर रहा था तो मैंने पूछा कि इन डालडायुक्त बातों में आप भी अपनी यादें जोडिए...आप तो मेरे से 10 बरस बड़ी हैं....उन्होंने जब एक बात सुनाई तो मुझे भी कुछ कुछ याद आ गया ....उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हें भी याद होगा कि हम लोग एक बार किराने की दुकान पर थे तो एक बंदे ने चार किलो का डिब्बा उठाया हुआ था ...टीन वाला ..जिस के ऊपर एक हुक सा लगा रहता था ...मुझे भी याद आया कि अचानक वह हुक टूट गया और वह भारी भरकम डिब्बा उस के पांव के ऊपर गया, उस के पैर का अंगूठा भयंकर रूप से कट गया था ....कुछ यादें हमेशा के लिए दिल में कैद हो जाती हैं जैसे...
बहन ने यह भी बताया कि बीजी (हमारी मां) के हाथ के परांठे तो सारे खानदान में मशहूर थे ...जब भी हम लोग ननिहाल जाते तो सभी लोग कहते कि परांंठे तो संतोष ही बनाएगी....और हमारी मौसी तो खास कर के बीजी के परांठों की दीवानी थी...
ऐसे ही है, जब कोई बात पुरानी छिडती है तो सब को अपने दिन याद आते हैं ..और इसी से लेख में ज़िंदगी आती है ...क्या ख्याल है आपका....!