सोमवार, 1 अगस्त 2022

बदलते बदलते बदल गई लाटरीयां भी ...

लिखने वाले के लिए लेख भी बच्चोंं की तरह पीछे पड़ जाते हैं...मुझे मोहम्मद रफी साहब के बारे में कुछ लिखना है, स्टेचू ऑफ यूनिटी, गुजरात के बारे में कुछ लिखना है ...अभी वह सब सोच ही रहा था, ख़्याली पुलाव बना ही रहा था कि यह लाटरी वाला छोटा बालक जैसे बार बार कहने लगे ..हमारी बात कह पहले ...कह न ...हमारी बात पहले ....


तो दोस्तो हुआ यूं कि आज शाम को बंबई के भायखला स्टेशन में तीन चार महिलाओं का एक ग्रुप कुछ घरेलू सामान बेच रहा था ....कुछ लाटरी वाटरी सिस्टम था ...अच्छा, उन के बारे में सब से बाद में लिखूंगा ..सब से पहले आज से ५५ बरस पहले की बातें याद आ रही हैं इन लाटरीयों की, उन्हें तो लिख लूं ...यही कोई पहली दूसरी जमात में स्कूल में जाते वक्त दस पैसे तो मिलते ही थे ...यार, बहुत होते थे, उन दिनों दस पैसे भी ...उस से ज़्यादा तो हम संभाल भी न पाते ... और असल बात यह भी है कि हम से वह दस्सा (पंजाबी में दस पैसे के सिक्के को कहते थे दस्सा ..जो पीतल का होता था ...मेरी सिक्कों की क्लेक्शन में पड़ा है उस तरह की दस्सा भी ...) ...बचपन की कितनी यादें कितनी मीठी होती हैं न ..मां पीतल की एक डिब्बी में एक-दो परांठे गुड़ के साथ रख देतीं और पिता जी जाते वक्त एक दस्सा हाथ में रख देते ....बस, हम अपने आप को महाराजा पटियाला समझने लगते ...आस पास के दोस्तों के साथ, जिनमें एक देवकांत भी था...हम स्कूल के लिए निकल पड़ते .... वहां पर पांच पैसे की कभी कभी लाटरी खरीद लेते ..मेरे जैसे सठिया गए लोगों को तो याद होगा कि यह लाटरी का क्या चक्कर था, आप समझिए एक कैलेंडर जितनी शीट थी, जिस के ऊपर सौ-पचास छोटे छोटे पतले कागज के स्टिकर चिपके रहते थे ...हम उस स्कूल वाली मौसी को पांच पैसे देते, वह हमें एक स्टिकर उखाड़ने को कहती ...हम उसे खोलते, और इनाम निकलता ...कभी एक टाफी, कभी कुछ नहीं ...कभी यह इनाम होता कि चलो, एक बार लाटरी और खेल लो...कभी कोई छोटा-मोटा प्लास्टिक का लाटू, झुनझुना ...कुछ भी निकल आता ....

और हां, यह पांच पैसे की लाटरी हम लोगों को बड़े गुपचुप तरीके से खरीदनी होती थी ..क्योंकि जब भी घर में आकर बात चलती कि आज लाटरी खरीदी थी तो मां समझाने लगती - न खरीदया कर लाटरी, जुए दी आदत पै जांदी ए...(मत खरीदा कर ये लाटरीयां-वाटरीयां, इन से जुए की आदत पड़ जाती है ...) खैर, यह दौर ऐसे ही चलता रहा ..कुछ बरस पहले..यही कोई दस बरस पहले की बात होगी मैंने शायद लखनऊ की किसी दुकान पर वैसी ही लाटरी वाली शीट देखी तो मुझे पुराने दिन याद आ गये। 


खैर, आगे बढ़ते हैं ...घरों में अखबार के साथ एक प्रिंडेट पोस्टकार्ड आ जाता कभी कभी ...जिस में कुछ खानों में अंक इस तरह से भरे होते कि उन का जोड़ ४४ आता था ...हमें कहा जाता था कि इस के साथ ही खाली खानों में आप ने अंक तरह से भरने हैं कि उन का योग ४८ आ जाए.... और साथ में लिखा होता कि जिन का जवाब सही होगा उन्हें वीपीपी से ट्रांजिस्टर या टार्च या प्रैस ...(और भी पता नहीं क्या क्या, अब इतना याद नहीं ...उम्र हो चली है भई अब अपनी भी)....भिजवा दिया जाएगा...अच्छा एक बात मज़ेदार यह कि उस कार्ड की खासियत यह होती कि उस पर बिना टिकट लगाए ही हमें उसे डाकपेटी के सुपुर्द करना होता था ...उस पर लिखा रहता था कि इस पर टिकट लगाने की कोई ज़रूरत नहीं ....अच्छा, एक तो हमारा दिमाग यह बात खराब कर देती कि यार, हम ने तो पहेली का सही हल ढूंढ लिया....वैसे उसमें करने को कुछ होता न था, बस हर खाने में एक एक अंक बढ़ाना होता था ...खैर, चलिए उसे डाकपेटी में डाल भी आए........और कुछ ही दिनों में किसी कंपनी से एक पैकेट आ जाता वीपीपी से कि ५० रूपये दो और आप के लिए यह इनाम आया है ...रियायती दामों पर ......मुझे नहीं याद कि कभी इस तरह का वीपीपी का पैकेट हमने या हमारे मोहल्ले में किसी ने भी उस डाकिये से लिया हो .....इतने पैसे होते ही किस के पास थे। खैर, एक दो बार में इन पोस्टकार्डों वाले धंधे की बात समझ में आ गई .....

और हां, यही ५० बरस पुरानी बातें यह भी हैं कि मोहल्ले की औरतें कमेटियां डालती थीं ... ५० रूपये की कमेटी या २५ रूपये की कमेटी फलां फलां महीने के लिए ..पुरुष लोग भी डालते थे लेकिन अलग ..महिलाओं की कमेटीयां का भी एक अलग ही नज़ारा होता था ....जब कमेटी खुलती यानि जिस की लाटरी निकलती, उस के घर में थोड़ी बहुत पार्टी होती ..समोसे-जलेबी-गुलाब-जामुन-बर्फी की ...लेकिन ये जो औरतें कमेटी की आर्गेनाइज़र होती थीं, वे सब की सब बड़ी लडाकू किस्म की होती थीं ...क्या करती वो भी ....उन्हें दबंग होना ही पड़ता था ....वरना कोई वक्त पर कमेटी की रक्म न दे तो .....और हां, कईं बार कमेटी निकलने पर बहुत से बर्तन या कोई आइटम जैसे सिलाई-मशीन या कोई प्रेशर कुकर या कुछ भ ी....(याद नहीं यार अब इतना तो ...यह भी आज इतने लंबे अरसे बाद इसलिए याद आ गई बातें क्योंकि लिखने बैठ गया हूं ......मैं इसलिए कहता हूं अकसर को लिखते वक्त अपने आप बातें पुरानी से पुरानी जो हम भूल भी चुके होते हैं ..वे भी याद आने लगती हैं..) ..

खैर, आगे चलें ....यह जो कमेटियों वाला दौर था ...उसी दौर में बाज़ार में लाटरीयों वाले खड़े रहते थे ..एक रूपये की लाटरी, दो की, पांच की, दस की ..पचास की ..जहां तक मुझे याद है मेरे पिता जी भी कभी कभी तनख्वाह वाले दिन एक लाटरी टिकट खरीद कर लाते थे, और बडा़ संभाल कर रखते थे ....हमारे सारे कुनबे को यह फ़िक्र सताए रहती कि यह न हो कि इनाम निकल आए और फिर हमारी टिकट ही गुम हो जाए ....इसलिए मां अपनी लकड़ी की अलमारी में किसी साड़ी की तह में उसे संभाल कर रखती...फिर हम लोग रोज़ इंतज़ार करने लगते कि अभी इतने दिन हैं लाटरी का नतीजा आने में ...और अकसर यह नतीज़ा अखबार में भी आता ...यार, कैसे सांसे थाम कर हम लोग उस नतीजे का देखा करते थे ... अच्छा, लाख वाला तो नहीं आया, चलो दस हज़ार वाला देखो, पिछले पांच अंक भी नहीं मिल रहे टिकट के साथ.....इसी तरह जब हम आश्वस्त हो जाते कि दस रुपये भी नहीं निकले ....तो फिर कोई यह देता कि क्या पता अखबार में छपने में गलती हो गई हो ....इसलिए कोई न कोई घर का बंदा अगले दिन बाज़ार आते जाते उस लाटरी वाले से भी नतीजे का कंफर्म कर ही लेता .....एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया कि मां अकसर कुछ लोगों के बारे में यह भी बताया करतीं कि फलां फलां की लाटरी निकली दस लाख और उस का यह खबर सुनते ही हार्ट फेल हो गया.......हम भी ठहरे एकदम कोरे भोले पंछी.....हमें यही लगता कि चलो अच्छा ही हुआ ईनाम नहीं आया, ज़िंदगी से बढ़ कर भी है क्या कुछ.....सच में हम बहुत डर जाते यह सुन कर कि जिन का बड़ा ईनाम निकलता है ....उन की खुशी के सदमे से मौत भी हो जाती है ....

और हां, दीवाली, दशहरा, लौहड़ी पर कुछ खास लाटरीयां बिकती थीं ..बम्पर-शम्पर ...५०-१०० की टिकटें बिकती थीं ...शायद कभी कभी हम लोगों ने भी खरीदी थीं ....बड़ी हसरत के साथ के कभी तो निकले यार .....हमारी भी एक लाटरी ...घर में हम सब लोग ख्याली पुलाव बनाते कि अगर एक लाख की लाटरी निकलेगी तो उस से क्या क्या करेंगे ...और खूब हंसा करते ...और जब नतीजा आता तो हमारे सभी ख्वाब मिट्टी में मिल जाते .... 


अब और क्या लिखूं यार....याद करूंगा तो बहुत कुछ याद आता जाएगा....अब बात करते हैं आज की ...उन महिलाओं की ...मैंने सोचा कि यहां क्या चल रहा है, थोड़ा वह भी समझ लिया जाए। एक महिला लोगों को बता रही थी उस के हाथ मे ं एक शीट थी जिस पर स्क्रेच करने वाला एक स्टिकर था ...यह छोटी सी शीट १०० रुपये में बेच रहे थे .....चलिए, जल्दी से उसे स्क्रेच करें...और हां, उस पन्ने पर दो तरह की चीज़ों की लिस्ट बनी हुई थीं ....अगर तो उस स्टिकर को खरोंचने पर आप का कुछ इनाम इस तरह का आ गया जिस की कीमत ८५० रुपये होगी तो आप उस को मुफ्त हासिल कर सकेंगे .....बस, आप लूट ले जाइए....और अगर कोई बड़ी आइटम निकलती है तो आप को उस आइटम के दाम में २७५० रूपये की छूट मिल जाएगी..........और अगर कुछ नहीं भी निकला ...अगर आप इतने ही किस्मत के मारे हैं तो भी गम नहीं ...आप के १०० रुपये कहीं नहीं गए......आप को १०० की जगह ३०० रूपये वापिस मिल जाएंगे......वाह.....वाह ...

रविवार, 31 जुलाई 2022

बड़ौदा के बाबा ....

बताते हैं आप को बडौ़दा के बाबा के बारे में ...पहले कुछ इधर उधर की बात हो जाए...तीन चार साल पहले हमें दुबई जाने का मौका मिला...दो तीन दिन वहां रहे ...मुझे वह जगह बिल्कुल भी पसंद नहीं आई...हर तरफ इमारतें ही इमारतें, मैं अकसर कहता हूं कि मुझे अगर वहां जाने का मुफ्त टिकट भी मिले तो भी मैं दूसरी बार वहां न जाऊं...मैं वहां बहुत ऊब सा गया...हर तरफ ईट-सीमेंट के महल, चौबारे, कायदे-कानून....जहां पेड़ भी लगे हुए हैं वे भी इतने करीने से लगे हैं कि नकली दिखाई पड़ते हैं...

वैसे भी किसी भी जगह जाइए अगर वहां पर पुराने इलाकों को देखने का, महसूस करने का मौका ही न मिले तो फिर वहां जाने का फायदा ही क्या हुआ। एयरकंडीशन बसों में या मोटर गाडि़यों में हम कुछ देख ही नहीं पाते, महसूस करने की तो बात क्या करें...। मैं अकसर कहता हूं कि शहरों के अंदर जो पुराने शहर करीने से छुपे पड़े होते हैं उन को अगर किसी को देखना है तो पैदल चलना होगा, या साईकिल या शायद दो पहिया वाहन का सहारा लेना होगा....क्योंकि इन पुराने शहरों की शुरूआत ही वहीं से होती है जहां से उन बाज़ारों में, गलियों में मोटरकारें घुसना बंद होती हैं...अकसर स्कूटर वूटर तो लोग निकाल ही लेते हैं ....इन संकरी गलियों, कूचों में बसे होते हैं पुराने शहर ...इसलिए मैं अकसर सोचता हूं कि जब तक घुटने वुटने चल रहे हैं ..जो कुछ देखना है, जी भर के देख लेना चाहिए...एक बार अगर हम किसी के ऊपर आश्रित हो जाते हैं तो ज़िंदगी वैसे ही बकबकी सी, बोझिल सी लगने लगती है ....खुद को भी और दूसरों को भी ...

कुछ दिन पहले बड़ौदा में था...चार पांच रहना था...मैं जब भी मौका मिलता सुबह शाम साईकिल लेकर एक डेढ़ घंटे के लिए निकल जाता ...अलग अलग रास्तों पर निकलना, अनजान जगहों का रुख करना अच्छा तो लगता ही है ...अकसर मैं कहता हूं कि किसी भी इंसान के पास इतना कुछ है देखने को, एक्सप्लोर करने को .....कि क्या कहें...लेकिन उस के लिए हमें बस थोड़ा सा..ज़्यादा भी नहीं, अपने कंफर्ट ज़ोन से निकलना पड़ता है ..और हां, टीवी का पूर्ण त्याग भी ज़रूरी होता है....मैं जहां पर पांच दिन रहा, मैंने अपने रूम का टीवी ऑन तक नहीं किया...क्योंकि फिर यही अच्छा लगने लगता है कि इस के सामने ही बैठे रहें..

खैर, चलिए, उस दिन मै साईकिल लेकर ऐसे ही बिना किसी ख़ास मकसद के बड़ौदा की सड़के नाप रहा था कि मुझे दूर से लगा कि एक बुज़ुर्ग एक पार्क में चींटीयों को आटा डाल रहे हैं ...यह काम हम लोग बचपन में करते थे ..लेकिन कभी कभी जब ईश्वर से कोई काम होता था तभी ..मैंने साईकिल रोक तो लिया, फिर एक बार झिझक सी लगी कि क्या यार, मैं भी, खामखां, अनजान इंसान के क्या बात करूं.....लेकिन मैं उन तक पहुंच गया, साईकिल खड़ी की और उन से बात करने लगा। 

अब मैं उन से बात कैसे शुरु करता ...मैंने यही कहा कि आप को दाना डालते देख कर बहुत अच्छा लगा, इसलिए रुक गया...वह बुज़ुर्ग हंसने लगा ...उसने मुझ से मेरे बारे में कुछ नहीं पूछा ...मैंने उन से कुछ नहीं पूछा...मैंने बस इतना पूछा कि क्या वह यहां रोज़ आते हैं, कहने लगे कि हां, रोज़ आता हूं ....मैंने वही बेवकूफी वाला सवाल दाग दिया कि और भी लोग आत ेहैंं तो उन्होंने बताया कि कुछ लोग आते तो हैं, कभी कभी, लेकिन मैं तो बिना नागा रोज़ आता हूं....

मैंने देखा वह चींटीयों के झुंड ढूंढ ढूंढ कर आटा डाल रहे थे, उन्होंने बताया कि यह आटा ही नहीं है, इसमें गुड़ और देशी घी मिला हुआ है ...इस के बाद वह कबूतरों को दाना डालने लगे ...कबूतरों के झुंड जैसे उन का इंतज़ार ही कर रहे थे ...उन के पास पॉलीथीन में यह सामान भरा हुआ था ...कबूतरों के लिए दाना तो था ही, साथ में हरे मूंग भी थे, बताने लगे कि कबूतरों को यह खाना बहुत पसंद है ...

उन्होंने बताया कि वे महीने भर के लिए दो हज़ार रूपये का यह सामान इक्ट्ठा खऱीद लेते हैं ...बता रहे थे कि जो लोग अमेरिका में नौकरी धंधा करने गए हैं, वे पैसा भिजवा देते हैं, मैं इस काम में लगा देता हूं...मैंने नहीं पूछा कि कौन लोग हैं वे...कोई मतलब ही नहीं था यह सब पूछने का ...

पांच सात मिनट मैं उन के पास रहा हूंगा...लेकिन बहुत अच्छा लगा...उन के साथ फोटो भी खींच ली जिस के बिना आजकल कोई मुकालात पूरी कहां समझी जाती है...खैर, उन को यह नेक काम करते देख कर मुझे कुछ दूसरे लोग याद आ गए जो गलियो के डॉगीज़ और बिल्लीयों को सुबह सुबह कुछ खिलाने निकल पड़ते हैं...इन सब को देखना कितना सुखद लगता है...







अनजान और अजनबी बाबा को सलाम ...नदी नाम संयोगी मेले ...बहुत से लोगों से हम लोग ज़िंदगी में पहली और आखिरी बार मिलते हैं...हम दोनों एक दूसरे का नाम नहीं जानते...मैं कब उन रास्तों पर फिर से निकलूंगा ...लगभग नामुमकिन ...लेकिन उन के चेहरे की मुस्कान मेरे पास हमेशा के लिए रह गई ...हां, वहां से निकलते२ उन से कह तो दिया कि फिर मिलेंगे बाबा....लेकिन सोच यही रहा था कहां मिलेंगे ..यह भी यार तूने एक डॉयलाग ही बोल दिया ...सब कहने को ...




आप को कभी यह तो नहीं लगता कि बाबा का खिताब हासिल करने के लिए किसी विशेष रंग का चोला पहनना ज़रूरी है, लोगों को प्रवचन देना..और किसी ऊंची गद्दी पर बिराजमान होना ज़रूरी है ....मुझे कभी नहीं लगता क्योंकि मैं उस तरह के नामी-गिरामी बाबा-शाबा बहुत देख चुका हूं ...उन से तो मैं दूर भागता हूं और इस तरह के बेलौस, अनजान, अजनबी, गुमनान नेक बाबाओं को ढूंढता रहता हूं ...बाबा ने बताया कि अस्सी के ऊपर उम्र हो चुकी है, दवाई की कभी एक टिकिया नहीं ली ...अभी हाल ही में इन्होंने आंख का आप्रेशन करवाया है...डाक्टर ने कहा था कि वह १५ हज़ार रूपये लेगा .....लेकिन हंसते हंसते कहने लगे कि आप्रेशन के बाद उसने कहा कि नहीं, आप से कुछ नहीं लेना...हंस हंस कर बता रहे थे ....

मेरा बेटा अकसर कहता है कि बाप, दिल्ली की हवा में धोखा है, बंबई की हवा में मौका है ......उसी क्रम में मैं यह कह सकता हूं कि बडौ़दा की हवा में सुकून है....जैसा मुझे लगा कि अधिकतर लोग यहां पर शाकाहारी हैं, अमन-पसंद हैं, सादे हैं ....अपने आप के साथ सुकून से हैं....यह मेरा अनुभव है ...बाकी बाहरी शहर, शहरों के नए बसे हुए इलाके तो सब एक जैसे ही होते हैं जहां पर महंगी गाड़ियों की खूबसूरत कोठियों-बंगलों की एक अंधी दौड़ सी लगी होती है ....उस तरफ़ मुझे देखना भी नहीं सुहाता ...लेकिन शहर के पुराने इलाके को दो-चार दिन में महूसस करना कहां संभव हो पाता है ....और वह भी अगर सुबह शाम एक दो घंटे का वक्त आप को मिले इस यायावरी के लिए ...खैर, दो दिन पहले मैं ऐसे ही घूम रहा था तो एक बहुत पुरानी और सुंदर इमारत दिखी ...अंदर जा कर पता चला कि वह वहां की यूनिवर्सिटी है ...वहां पढ़ने वाले बच्चों को देख कर अच्छा लगा ....एक बच्चे को मैंने कहा कि मेरी तस्वीर खींच दो, उसने हंसते हंसते खींच दी ...कहने लगा कि उस के दोस्त आप के पीछे खड़े हो कर पोज़ दे रहे हैं...मैंने कहा ...वह तो और भी अच्छी बात है ... 😀😎

बडौ़दा यूनिवर्सिटी में इस को देख कर मुझे चंडीगढ़ का रॉक-गार्डन याद आ गया...खुदा जाने इस की छांव में कितनी प्रेम कहानियों ने जन्म लिया होगा ...अब भी यह आने जाने वालों को खुश कर रहा है ...





रविवार, 10 जुलाई 2022

लिखने की शुुरुआत कैसे करें....

सब से पहले तो रोज़ाना अपनी डॉयरी में रोज़ कुछ न कुछ लिखते रहिए....इतना बड़ा दिन होता है, इतने लोगों से हम मिलते हैं, इतने नज़ारे नज़र आते हैं, मोबाइल से सारा दिन चिपके रहते हैं, इतना कुछ देखते हैं, पढ़ते हैं और कभी कभी सोचने का भी वक्त तो मिल ही जाता है ...बस, इन में जो भी अच्छा, बुरा लगे जो भी आपके चेहरे पर मुस्कान ले आए या अगर कुछ उदास कर जाए, उसे अपनी नोटबुक में लिख कर फ़ारिग हो जाइए...

मैं तो अपने आप को कोई लेखक-वेखक भी नहीं मानता ..क्योंकि सरकारी नौकरी में होने की वजह से अपनी कलम पर कुछ तो लगाम कसे रखनी पड़ती है ...वरना, आप अकेले-थकेले पड़ जाते हैं, कोई भी आप के साथ नहीं खड़ा होता अगर कोई लफड़ा हो जाता है ...जब नौकरी से छूट जाएंगे तो देखेंगे कोई लगाम पकड़नी भी है या नहीं, वह तो बाद में देखेंगे....खैर, मेरे ब्लॉग्स के नीचे जो कमैंट्स आते हैं या व्यक्तिगत तौर पर मुझे जो लोग कहते हैं वह यही बात है कहते हैं कि आप का लेखन बड़ा नेचुरल है ....हां, अगर किसी को ऐसा लगता है तो उसका भी एक ही कारण है कि जो मन में आए, लिख दो ...कोई परवाह न करो ..(बस, जब तक नौकरी-चाकरी है तब तक बच के रहिए..., बाद में मेमॉयर्स की कश्ती पर तो अकसर लोग सवार होते ही हैं , वहां जी भर कर दिल खोल लीजिेए...😎)

लिखने के लिए इतना कुछ है कि ऐसे लगता है कि क्या लिखें, क्या छोड़ें ....एक बात यहां बता दूं कि २०-२२ बरस पहले जब मेैंने लिखना शुरू किया और अखबारों, पत्रिकाओं में लेख भेजने शुरू किए तो मैंने एक बार ऐसे ही एक फेहरिस्त सी बनाई कि आखिर कितने लेेख हैं जिन के बारे में मैं लिख सकता हूं ...मुझे ख्याल आ रहा है कि यही कोई ४०-४५ लेखों की लिस्ट बन पाई थी ...क्योंकि मेरी सोच तब वहां तक ही थी...

अब जैसे जैसे लिखते लिखते आप की सोच का दायरा बढ़ने लगता है तो पता चलता है कि लिखने पढ़ने की दुनिया तो समंदर है ..अगर आप सारा दिन भी लिखते रहें तो भी ज़िंदगी कट जाएगी और पता चलेगा कि आपने धूल के एक कण के बराबर भी न कुछ लिखा, और न ही पढ़ा....इसलिए जो लिखने की शुरुआत करना चाहते हैं उन के लिए मेरा नुस्खा यह है कि रोज़ कुछ न कुछ लिखा करें ...स्कूल में मास्टर लोग हमारी लिखावट सुंदर करने के लिए रोज़ाना एक पन्ना सुलेख का लिखवाते थे कि नहीं...बस, अपने लेखन में कुदरती प्रवाह लाने के लिए आप भी कुछ न कुछ रोज़ लिखिए ...और खूब पढ़िए..जो भी मन को भाए....सब कुछ पढ़िए...अच्छा, बुरा ...लेकिन अच्छा, बुरा तो कुछ होता ही नहीं, सब लिखने वाले अपने अनुभव लिख रहे हैं..आप पढ़िए सब कुछ, राय अपनी बनाइए...बार बार मुझे एक मशहूर नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक की बात याद आ जाती है (३०० से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं..)  ....

दो -ढाई बरस पहले जब पाठक जी दिल्ली में मिले तो इन से बात कर के मज़ा आया ...मैंने सोचा एक सेल्फी भी ले ली जाए...

एक इंटरव्यू में बता रहे थे कि उन्हें पढ़ना का इतना शौक है कि जिस लिफाफे में मूंगफली खाते हैं, उसे भी फैंकने से पहले फाड़ के ज़रूर पढ़ लेते हैं ...हा हा हा ह ाहा ....कल मैं भी मैं अपना कोई १५ बरस पहले लिखा ब्लॉग पढ़ रहा था ...उस दिन मैंने शकरकंदी खाई जिस कागज़ में उस पर एक कविता लिखी थी ..जो मेरे मन को छू गई और मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी ...अभी शेयर करता हूं उस का स्क्रीन शॉट...
१५ बरस पहले लिखी इस पोस्ट को देखा तो अच्छा लगा... वैसे मैं अपना पुराना कुछ भी लिखा पढ़ता नहीं हूं ...

लिखने की शुरुआत कर रहे हैं तो सोशल-मीडिया पर या इस वॉट्सएप भी दिल खोलना सीखें ...कोई एप्रिशिएट करे या न करें ...सारे चुप रहें तो रहें ..कुछ फ़र्क नहीं पड़ता ...एक बात बताऊं जिन लोगों की आप इस सोशल-मीडिया पर परवाह करते हैं, उन सभी (जी हां, सभी, आपने बिल्कुल सही पढ़ा) से हमारे रिश्ते कांच से भी ज़्यादा नाज़ुक हैं....हम कब तक सब को खुश ही करते रहेंगे ...कब तक सब की परवाह करते रहेंगे .... और एक बात ...ज़िंदगी ने मेरे फंड़े कुछ ज़्यादा ही क्लियर कर रखे हैं...जब भी मुझे लगता है कि कुछ लिखूं या न लिखूं ..दिल खोल के लिखूं या न लिखूं.....तो मैं अपने आप से यह कहता हूं कि ये जो कुछ सैंकड़ों लोगों की तुम परवाह के चक्कर में अपने एक्सप्रेशन को रोक रहे हो, यह भी सब छलावा है दोस्त ...अगर तुम्हें किसी दिन कुछ हो गया...तुम इस फ़ानी दुनिया से ही कूच कर गए तो मुमकिन है तुम्हारी कोई बात भी नहीं करेगा ...बस कुछ लोग RIP लिख कर वहां से कट लेंगे और ग्रुप में अगली पोस्ट किसी कॉमेडी-शो की होगी ...इसलिए किसी की भी परवाह करते रहना, अपने आप को दबाए रखना, अपने आप को खिलने ही न देना भी अपने साथ ही किया हुआ एक गुनाह तो है ही, समाज के साथ भी बेइंसाफी है क्योंकि हम में से हर एक के पास इतना कुछ कहने को है जिससे कोई न कोई कब कोई अहम् सबक ले ले, कोई प्रेरणा ही ले ले ....

यह जो टॉपिक मैंने शुरू कर तो दिया है ...पंगा सा ही ले लिया है ..क्योंकि मेरे पास इतना कुछ कहने को है, एक पोस्ट में तो आएगा नहीं.... लेकिन मैं इसे अपने दिल से लिखने की पूरी कोशिश करूंगा ..जो सीखा है, जो समझा या जो भी महसूस किया इस लिखने-पढ़ने की दुनिया में सब कुछ बांट दूंगा इन पोस्टों में ...वैसे मैंंने कुछ बरस पहले इंटरनेट पर लिखने के बारे में ५-७ पोस्टें भी लिखी थीं कि इंटरनेट पर लेखन के क्या कायदे-कानून हैं, दांव-पेंच हैं...वे भी ढूंढ कर अगली पोस्ट में शेयर करता हूं ..

कुछ बातें इधर उधर की भी शेयर करना चाह रहा हूं ..हमारे कुछ साथी हैं जिन से मुझे पिछले कुछ दिनों में दो-तीन बार कुछ ऐसा सुनने को मिला कि आज तो वह वक्त पर घर के निकल जाएंगे ....क्योंकि उन्हें बच्चों के साथ, मां के साथ वक्त बिताना है ...कहीं जाना है ...और यह कहते कहते वे मुझे इतने खुश दिखे कि उन की बात सुनते ही कोई भी भावुक हो जाए....काश, हम सब लोग ऐसा ही कर पाएं ...वर्क-लाइफ बेलेंस अच्छे से कर पाएं ...और अपनों को भी अपना वक्त दें ...उन के साथ वक्त बिताएं, घूमने जाएं, एक साथ बैठ कर बारिश का लुत्फ़ उठाएं...और कुछ नहीं तो बस सब लोग एक साथ बैठें और पुराने दिनों की मीठी यादों के पोखर में ही उछल-कूद करते रहें ...

और हां, एक बात और हैं ...दुनिया में रहते हुए हम लोग बहुत कुछ देखते हैं..कुछ के साथ धक्का होते देखते हैं, कुछ को बहुत से फेवर मिलते देखते हैं जिन के लिए वह हकदार भी नहीं होते, बस चाटुकारिता उन की सब से बड़ी स्पैशलिटी होती है ...Master in Sycophancy! 😎 लेकिन हम कुछ कहते नहीं....एक खतरनाक चुप्पी की चादर ओढ़े रखते हैं ...लेकिन लिखने वाले ये सब अपने दिल के ज़खीरे में सहेजे रहते हैं ...वे खुद नहीं जानते कब उन की कलम अल्फ़ाज़ की जगह, इस जमा हुए लावे को ही उगल दे...यह कोई नहीं बता सकता। 

इस वक्त जब मैं यह लिख रहा हूं ...साथ में विविध भारती भी बज रहा हूं ...मुंबई ेमें बारिश हो रही है .... साथ में रेडियो पर बारिश के सुपर-डुपर गीत बज रहे हैं...एक से बढ़ कर एक ...सच में समझ ही नहीं आ रहा कि यहां पोस्ट में किस को एम्बेड करूं और किसे रहने दूं....


मुस्कुराते रहिए, खुश रहिए... अभी मशहूर कामेडियन जगदीप साहब का इंटरव्यू चल रहा है ....फ़रमा रहे हैं...

या तो दीवाना हंसे,
या जिसे तू तौफ़ीक बख्शे, 
वरना इस दुनिया में ....
मुस्कुराता कौन है .....

अगली पोस्ट में यह शेयर करूंगा कि आखिर लिखने के आइडिया कहां से आते हैं, कहां से इंस्पिरेशन मिलती है ... जल्दी मिलते हैं ... ...