शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

108 हैं चैनल ..पर दिल बहलते क्यों नहीं!

यह लाइन मेरी लिखी नहीं है ...लगे रहो मुन्नाभाई के एक गीत की लाइन है ....लेकिन छोटी सी यह लाइन है बहुत पते की ...सोचने पर मजबूर करती तो है ही...इस लिंक पर क्लिक कर के आप इसे सुन सकते हैं ..आज से ४०-४५ बरस पहले जब घर-मोहल्लों में नया नया टीवी आया तो एक ही चैनल था और बहुत बार तो उस बक्से के सामने तब तक चिपके रहते थे जब तक कि टीवी वाले नमस्ते कह कर अपने प्रोग्राम बंद न कर देते थे...

अब १०८ चैनल नहीं हैं...इन की गिनती कईं सैंकड़ों में तो होगी ही ...लेकिन इन्हें देखना तो दूर की बात है, कभी गिनती जानने की भी इच्छा ही नहीं हुई। क्योंकि मुझे अच्छे से याद भी नहीं कि टीवी देखे हुए कितने बरस हो गए...कच्चा पक्का आईडिया इतना है कि मां थीं तो वह खबरिया चैनल ज़रूर देखती थीं ...और करती भी क्या घर में सारा दिन अकेले बैठे बैठे....खैर, मां को जुदा हुए पांच बरस हो गए ..शायद उन के बाद कभी रिचार्ज ही नहीं करवाया...

ऐसी क्या नाराज़गी हो गई टीवी से ? - नहीं, ऐसी कोई नाराज़गी नहीं है, बस टीवी देखना, उस पर खबरें सुनना नहीं अच्छा लगता तो नहीं अच्छा लगता, कोई मजबूरी नहीं है कि ज़रूर उन्हें सुनना ही है, ऐसा भी तो नहीं है, कोई कानून भी तो नहीं है न अभी तक ....जब कभी ऐसा कोई नियम आएगा तो देखा जाएगा....तब तक तो ऐसे ही चलेगा...दरअसल टीवी पर जब हमने उछल उछल कर परोसी जाने वाली, सर-दर्द पैदा करने वाली खबरें देखनी-सुननी शुरू की तो हमारी तबीयत ही बिगड़ने लगी ...एक तो बाहर से थके-मांदे आओ और सोफे पर पसरते ही वही सेंसेशनल खबरों का पिटारा खोले हुए चैनल ....बस, यूं ही कईं बरस पहले यह निश्चय कर लिया कि हटाओ यार इन्हें ....ये तो बीमार कर के रहेंगे ....बस, इसी तरह से टीवी ज़िंदगी से निकल बाहर हो गया...

जहां तक ये ड्रामे, सीरियल, नौटंकी की बात है ...वह सब तो असल ज़िंदगी में जहां हम लोग काम करते हैं, जहां रहते हैं ...वहां ही यह सब कुछ इतना दिख जाता है कि छोटे या बड़े परदे पर भी यह सब देखा जाए, सच में सहन नहीं कर पाते ...सहन नहीं कर पाते तो होता क्या है, कुछ खास नहीं, बस जो लोग संवेदनशील होते हैं, उन्हें सर-दर्द पकड़ लेता है जो सेरिडॉन से भी नहीं जाता ...वैसे भी बार बार दर्द की टिकिया खाने से कहीं बेहतर है कि सर-दर्द पैदा करने वाली चीज़ को ही ज़िंदगी से बाहर किया जाए...और यहां मैं कुछ बी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं लिख रहा हूं ..ऐसा लिखने की मेरी क्या मजबूरी हो सकती है, कुछ भी तो नहीं ....लेकिन जो आपबीती है वह तो लिखने वाले लोग लिख कर ही दम लेते हैं ...

ये जो ओटीटी प्लेटफार्म आ गए हैं ...इन पर जो फिल्में या सीरिज़ आती हैं ...कईं बार देखने बैठते हैं तो दस-पंद्रह मिनट में ही या तो बंद कर देते हैं या उसे देखते देखते जब १०-१५ मिनट में सो जाते हैं ..पता ही नहीं चलता...और हां, यह जो १०-१५ मिनट की समय अवधि लिख रहा हूं, पूरी सच्चाई से लिख रहा हूं ......क्या करें, हमारा मन लगता ही नहीं इस तरह के कंटेंट में ....क्योंकि हम ने १९६०,७०,८० का फिल्मों का सुनहरा दौर देखा हुआ है ... जब एक एक फिल्म हमें दिनों तक सोचने पर मजबूर करती थी और बहुत सी फिल्मों में जो सीख थी वह जाने-अनजाने हमेशा हमें रास्ता दिखाया करती थी ..

मुझे क्यों है आज कल की अधिकतर फिल्मों, ड्रामों , सीरियल्ज़ या सीरीज़ से इतनी शिकायत ....बस दो बातें कर के अपनी बात समाप्त करूंगा ..सब से पहला कारण तो यही है कि जिस भाषा का इस्तेमाल वे लोग करते हैं या तो वह बिल्कुल फिरंगी टाइप लगती है ...या इतनी फुटपाथ छाप ज़ुबान का इस्तेमाल होता है कि वह एक आम भारतीय की भाषा है ही नहीं ...स्क्रिप्ट में बार बार पर गालियां लिखने से कोई लेखन महान नहीं हो जाता ...पुराने दौर की फिल्में देखिए, किस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है ....क्योंकि उन सब फिल्म मेकर्ज़ के सामाजिक सरोकार थे जिन को उन्होंने बखूबी निभाया ...

भाषा से याद आया ..पुरानी कोई भी फिल्म देख लीजिए...आप को संवाद में या नगमों में जो भाषा सुनने को मिलेगी ....वह भाषा ही एक आम हिंदोस्तानी की भाषा है ....न वह हिंदी है न उर्दू है ...वह तो हिंदोस्तानी है जिसे हिंदोस्तान बोलता है, उस में हिंदी भी है और उर्दू भी...ज़मीन के ऊपर बार्डर की लकीर खींचने से लोग तो इधर-उधर तितर-बितर हो सकते हैं...भाषाएं नहीं ऐसे बंटा करतीं....लोग उर्दू को मुस्लमानों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा समझने की बेवकूफी करने लगे ...और यह एक बिल्कुल गलत नज़रिया है....फालतू सोच है ...क्योंकि भाषाएं मुल्कों की नहीं, मज़हबों की नहीं, इलाकों की हुआ करती हैं...लेकिन हमें पहले एक दूसरे से लड़ने-मरने से फ़ुर्सत मिले तब न हम भाषा-वाषा के बारे में सोचें....जो आवाज़ें यहां वहां से हिंदोस्तानी भाषा के समर्थन में उठती हैं, वे कब से कैसे खामोश हो गईं, किसी को पता ही नहीं चलता। 

उर्दू की बात छोड ही दीजिए, हिंदी तक आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती, जो जानते हैं वे लिखते नहीं या लिखना नहीं चाहते ...फिल्मों में काम करने वाले कलाकार जो आज कल की पीढ़ी के रोल-माडल हैं वे तो हिंदी पढ़ना ही नहीं जानते ...इसलिए सारी स्क्रिप्ट अकसर देवनागरी की बजाए रोमन में ही लिखी जाती है ...अब वह कहने को हिंदी तो हो गई लेकिन हर ज़ुबान के विभिन्न अक्षरों की आकृतियां-सजावट-डिज़ाईनिंग, उन की बनावट-बुनावट भी उस ज़ुबान का ही हिस्सा हुआ करती है ....उन से भी बहुत कुछ ब्यां होता है ..बिना लिपि के वह ज़ुबान कैसी ...निष्प्राण, बिना रुह वाली ज़ुबान जिसे रोमन स्क्रिप्ट में भी कलाकार लोग सही उच्चारण के साथ पढ़ नहीं पाते ...और बडे फ़ख्र से कहते हैं कि मेरी हिंदी बिल्कुल अच्छी नहीं है ...और बाद में डबिंग-वबिंग से सारी बातों पर परदा पड़ जाता है ...

हम वैसा ही लिखेंगे जैसा हम पढ़ेंगे ...यह बात उन लेखकों के लिेए है जो फिल्में, सीरियल या दूसरा कुछ भी लिख रहे हैं...उन का कोई कसूर नहीं ...अपना अनमोल हिंदी या आंचलिक भाषाओं या क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अकसर उन्होंने पढ़ा ही नहीं हुआ....पुरानी फिल्मों की कद्र वे जानते नहीं, पुराने डॉयलाग , गीत उन्हें सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन हर तरफ रिमिक्सिंग का दौर है ...आज कल आप देखिए बहुत ही कम फिल्में ऐसी बन रही हैं जिन के डॉयलाग आप को बहुत मुतासिर करते हैं, और बहुत ही कम गीत ऐसे हैं जो हमारे साथ फिल्म देखने के बाद बने रहते हैं, वरना हमें याद ही नहीं रहता कि क्या गीत था...क्योंकि उस के लिरिक्स की मुझे तो समझ ही नहीं आती कि गीतकार कहने का क्या चाह रहा है ...शायद मेरी अब उम्र हो गई है मुझे इसलिए समझ न आती हो , अगर आप को आती हो तो नीचे कमैंट में जाते जाते एक लाइन टिका दीजिएगा। 

फिल्में, ड्रामे लिखने वालों के ऊपर भी पूरा दोष मढ़ देना कितना मुनासिब है, मैं नहीं जानता, मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं ...न ही फिल्मकार हूं, बस एक आम हिंदोस्तानी की तरह अपने मन की बात लिख रहा हूं ....अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल कर रहा हूं ...जो लिखने वाले हैं वे भी तो आज के समाज से ही आते हैं ....और अगर साहित्य या फिल्में हमारे समाज का दर्पण होती हैं, जो बिल्कुल सत्य बात है ...तो फिर वे लोग तो वही लिखेंगे जो आज समाज में घट रहा है ...जो वे देख रहे हैं, जिस के बीच वे पले-बढ़े हैं, जिस तरह का कंटेट देखते-सुनते वे बड़े हुए हैं ...अब क़लम की पैनी धार के लिए इतनी सारी चीज़ें जो दरकार होती हैं, वे आएं तो आएं कहां से ....और दुनिया एक झटके में उन का काम आसां कर देती है ...जेनरेशन गैप ..दो पीढ़ीयों की सोच में फ़र्क की बात है, और कुछ नहीं ....चलिए, जो भी चल रहा है, वह ऐसे ही चलता रहेगा लेकिन इतना तो हम देख ही रहे हैं जिस तरह का अधिकतर कंटेंट बन रहा है .(अपवाद तो हमेशा से रहे ही हैं), उसे अगर कोई एक बार भी देख ले तो गनीमत है ...मेरे से तो नहीं देखा जाता ...ऊपर लिख ही चुका हूं ...इसी वजह से वे कालजयी रचनाएं बन ही नहीं पाती ..वैसे गीत नहीं बन पाते जिन्हें हम पचास बरसों से हज़ारों बार सुन चुके हैं लेकिन कान अभी भी तरसते हैं उन को सुनने के लिए....है कि नहीं?

पुराने दौर के फिल्म बनाने वालों ने संघर्ष देखा....देश के विभाजन की त्रासदी को झेला, बंबई में आने पर कहीं खाने या ठहरने का ठिकाना नहीं, इधर उधर भटकना, मारे मारे फिरना...फिर रात कैसे भी कहीं भी पसर कर काट लेना, मुफलिसी, मायूसी, अभाव, देश के दयनीय हालात, भूखमरी, सूखा, बीमारी .....उन सब महान फिल्ममेकर्ज़ ने वह सब देखा, उसे हंडाया (जिया), और सब कुछ उन के अंदर आत्मसात होता चला गया ....जिन महान गीतकारों के गीत हम सुनते नहीं थकते, जिन संगीतकारों या गायकों के हम मुरीद हैं, सब की ज़िंदगी की अमूनन ऐसी ही कहानी थी ...मैं तो इन लोगों के बारे में पढ़ता रहता हूं और इसलिए इन लोगों के लिए मेरे दिल में बहुत इज़्ज़त है ...लेकिन आज कल की पीढ़ी जो आगे आ रही है, उन्होंने संघर्ष देखा ही नहीं, वह कहते हैं न कि मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुए ...अपना अपना मुकद्दर है, वे फिल्मों में आए भी ज़रूर, लेकिन एक-दो-चार फिल्मों के बाद ऐसे गायब हुए कि न तो कभी कहीं नज़र ही आए, न ही कभी याद आए... 

रेडियो पर भी यही सरदर्दी है ....बहुत से चैनल हैं ..लेकिन अकसर बहुत से ऐसे हैं जिन पर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है या ऐसा कंटेंट परोसा जाता है कि वहां पांच मिनट भी नहीं टिका जाता ....क्योंकि लगता ही नहीं कि वे अपनी बात कर रहे हैं ....मेरा बेटा भी लंबे समय तक एक काफी मशहूर प्राईव्हेट एफएम चैनल पर रेडियो-जॉकी रहा ... और शाम के वक्त तीन चार घंटे का उस का रोज़ाना एक टॉक-शो होता था ....जिसे बताते हैं युवा लोग बहुत पसंद करते थे ....लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैंने उस प्रोग्राम को कभी नहीं सुना ...यह इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि मुझे पता है वह मेरे ब्लॉग भी कभी नहीं पड़ता ...जब कभी उसे लिंक भेजता हूं तो इतना ज़रूर लिख देता है कि पापा, बाद में पढूंगा ....। मैं पढ़ने-लिखने की पूरी आज़ादी का पैरोकार हूं, मैं उसे इतना भी नहीं कह पाता कि बाद में पढ़ने वाली बात तो यह है कि बेटा, मैं तुम्हारी दादी की डॉयरी तक पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं निकाल पाता ...जो वह इतने चाव से लिखा करती थीं कि उस के नाते-पोतियां पढ़ेंगे और उसे याद किया करेंगे कि दादी भी पढ़ी लिखी थी (ऐसा वह अकसर कहा करती थीं...). 

अच्छा तो जाते जाते यह भी बता दें कि अगर मुझे आज के कंटेंट से इतनी शिकायत है तो मैं फिर मन बहलाने के लिए करता क्या हूं ...टाइम्स आफ इंडिया देखता हूं, किताबों और मैगजीनों को अकसर उठा लेता हूं, कभी कभी दो चार मिनट के जो वाट्सएप पर वीडियो या मैसेज दिख जाते हैं, वे देख लेता हूं ...वैसे वह भी बहुत कम ...और हां, रेडियो पर विविध भारती या आकाशवाणी सुनता हूं ..और पुराने दौर का जब कोई गीत याद आ जाता है तो उसे बिना एयर-फोन के दो चार बार सुन लेता हूं ....डायरी लिखता हूं कभी कभी लेकिन वो सब नहीं लिख पाता जो लिखना चाहता हूं ...कुदरत के साथ वक्त बिता लेता हूं कभी कभी ...हंसमुख इंसानों से मिलना-जुलना पसंद है जो खुल कर अपनी बात करें और खुल कर मेरी भी सुनें ...और इतना सब कुछ करने के बाद अगर वक्त बच जाता है तो ख्याली पुलाव बनाने लगता हूं ...भूख का ख्याल भी तो रखना पड़ता है ...हा हा हा हा 😎

वैसे मैं इतना ज्ञान बघारता नहीं हूं जितना आज इस पोस्ट में लिख दिया है ....लेकिन हर इंसान का कुछ उसूल होता है, अपना यह है कि ब्लॉग में जो भी लिखा है, १५ साल से उसे कभी भी एडिट नहीं किया, उसे डिलीट करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ..कम से कम लिखने में इतना ईमानदारी तो बरत ही लेता हूं...अगर आप इसे पढ़ते पढते इस लाइन तक पहुंच ही गये हैं तो मेरी कच्ची कलम को झेलने के लिए बहुत शुक्रिया....गाना सुनते हैं अभी एक....

गुरुवार, 30 जून 2022

2 घंटे का श्रम, 10 घंटे आराम

जी हां, ऐसा ही हुआ अपने साथ इस गुज़रे एतवार के दिन ...२ घंटे चल तो लिया ..लेकिन उस के बाद घुटनों की ऐसी हालत हो गई कि अगले १० घंटे  करने के बाद ही वे सामान्य चलने के क़ाबिल हो पाए...और देखा जाए तो यह कोई ऐसा वैसा श्रम भी तो नहीं ...खैर, १० किलोमीटर चलना हो गया...इस के लिए भी मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हूं ...

दरअसल उस दिन सुबह मेरा इतना लंबा टहलने का कोई पहले से कोई मंसूबा था नहीं ...अचानक दो मिनट में लिया गया फैसला था...क्योंकि न तो मैंने कोई वॉकिंग शूज़ ही पहने हुए थे ...मैंने एक रेन-वियर टाइप के जूते पहने हुए थे ...उन को पहने हुए चलना वैसे भी उतना सुविधाजनक होता नहीं जितना ऐसी लंबी वॉक के लिए जूतों को होना चाहिए...खैर, जब बंदे पर कोई खुमारी चढ़ी हो तो फिर उसे उतारने के लिए जूते कहां आड़े आ सकते हैं...

जी हां, उस दिन मौका था ...वलसाड़ के तीथल बीच पर ५, १० और २१ किलोमीटर की मेराथन आयोजित की गई थी ...मैंने कभी किसी मेराथन में हिस्सा नहीं लिया अभी तक ..लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता ..हो भी कैसे, क्योंकि चपटे पैर (फ्लैट-फुट) की वजह से मेरे घुटनों की हालत मुझे इस तरह के शौक पूरा करने की इजाजत ही नहीं देते...हां, प्रभु की कृपा से चलने-फिरने के लिए घुटने चल रहे हैं...यही बड़ी बात है ...चलने के बाद उन्हें आराम भी करवाना बहुत ज़रूरी होता है ...




उस दिन भी ऐसा ही हुआ....सुबह सुबह दो घंटे मैंने चल तो लिया....लेकिन घुटनों की हालत ऐसी हो गई कि एक बार तो लगा कि कहीं ये हमेशा के लिए तो बरबाद नहीं हो गए...घर पहुंच कर वॉश-रूम तक जाना भी दूभर हो गया....एक बार तो लगा कि मैंने यह पंगा लिया ही क्यों...अपनी उम्र का नहीं तो कम से कम घुटनों का ही ख्याल कर लेता...खैर, ये सब ख्याल इवेंट के बाद में ही आ रहे थे ...शुक्र है ...

और जहां तक उम्र की बात है ...उस दिन मै जब बीच में गया तो मेरा मेराथन में भाग लेने का कोई इरादा था ही नहीं ...मुझे तो बस कुदरत का नज़ारा लेना था और तीथल बीच पर स्थित स्वामीनारायण मंदिर में एक-दो घंटे बिताने थे ...मैंने पहले भी किसी पोस्ट में लिखा था कि वलसाड़ का तीथल बीच बहुत ही सुंदर है ...साथ ही बहुत साफ़ भी है ...अच्छा लगता है वहां जाकर ..जैसा इंसान अपने आप को भूलने पर मजबूर हो जाता है ..कभी मौका मिले तो ज़रूर हो कर आइए...ज़्यादा दूर नहीं है ...बंबई और बड़ोदा के लगभग बीच में ही है ...दोनों जगहों से तीन घंटे की दूरी पर है ....और सूरत से एक घंटा लगता है ट्रेन में ...बंबई से अपनी गाड़ी में जाएं तो भी इतना वक्त तो लगता ही है ..

लेकिन मुझे तो छुक छुक गाड़ी में ही बैठ कर ही मज़ा आता है ...ठीक है ...कोयले से चलने वाले स्टीम इंजन की छुक छुक अब नहीं सुनने को मिलती लेकिन ट्रेनों से जुड़ी बचपन की सभी यादें तो ताज़ा हो जाती हैं ....गाड़ी में सफर करते वक्त ..कैसे हम लोग गाड़ी चलने से एक घंटे पहले ही अमृतसर स्टेशन के प्लटेफार्म नंबर एक पर अपने साथ लेकर जा कर बड़े बड़े लोहे के ट्रंक के ऊपर बैठ कर पूरी-आले का आनंद लेते, चंदामामा भी खरीद लेते और ५ रूपये वाला स्कूटर भी ..और ज़्यादा वक्त ट्रंक पर टिक नहीं पाते तो साथ ही पडे बड़े से बिस्तरबंद पर मस्ती करने लगते ....और हां, साथ में पड़ी पानी से भरी सुराही का ख्याल ज़रूर कर लेते जिसे उसी वक्त स्टेशन के बाहर से खरीदा जाता ..शायद यही कोई चार पांच रूपये में ....सच में बहुत मज़े थे उन दिनों के भी ...अब जिन लोगों ने वे दिन जिए हों उन के लिए हिंदी इंगलिश में निबंध लिखना क्या मुश्किल होगा ...Scene at the Railway Station! 

हां, तो उस दिन सुबह जब सवा छः बजे के करीब १० किलोमीटर की मेराथन शुरू होनी थी ...इस में भाग लेने वाले सभी पूरी तैयारी में थे...उस इवेंट की टी-शर्ट पहनी हुई थी ...साथ में अपनी आई-डी का स्टिकर भी लगाया हुया था...और जहां तक उम्र की बात है ...मेरे से भी बड़ी बड़ी उम्र के और मुझ से भी ज़्यादा खाते-पीते लोग (पंजाबी में भारी भरकम नहीं कहते, खाते पीते लोग कहते हैं...इसलिए मुझे पंजाबी ज़ुबान बहुत अच्छी लगती है ...😎)...बस, जैसे ही उस दिन धोल-धमाके साथ उस मेराथन का आगाज़ हुआ...मुझे भी ख्याल आया कि ठीक है ये लोग इस इवेंट में भाग ले रहे हैं, बीच ही थोड़े न खरीद ले रहे हैं...यह तो सब के लिेए खुला है ....मुझे भी चलना चाहिए....अपनी स्पीड से ही सही ...उसी वक्त मुझे अपने साथी डाक्टर राज कुमार की लिखी किताब का ख्याल आया ...Run at your pace! वह ब्लॉग भी लिखते हैं ..उन के कुछ ब्लॉग्स का लिंक यह रहा ... डा राज कुमार का ब्लाग  और एक यह भी है ...




जैसे ही उस मेराथान का काफिला स्टार्टिंग-प्वाईंट से रवाना हुआ...मैंने भी चलना शुरू कर दिया....एक तो समंदर का वह किनारा इतना साफ सुथरा और रमनीक है कि किसी का भी मन वहां पर ज़्यादा से ज़्यादा वक्त बिताने को मचल जाए...मैंने चलना शुरू किया कि ठीक है चलते हैं, जितना हो सकेगा...ठीक है ...मैंने कौन सा किसी मेडल के लिए आया हूं ...मेरी उम्र तक पहुंचते पहुंचते इन सब मेडलों वेडलों की तृष्णा शांत हो जानी चाहिए...क्योंकि यह वह वक्त है जब बाहरी मेडलों की बजाए...खुद को मेडल देने का वक्त होता है ...और कोई पीठ थपथपाए न सही, अपनी पीठ खुद ही थपथपानी होती है ....है कि नहीं...

तो जनाब ...मैं भी चलता गया...मेरा भी पहला अनुभव था इस तरह से इतना लंबा बीच पर चलने का ...लेकिन मैंने मोबाइल पर अपने पसंद के हिंदी फिल्मी गीत चलाए हुए थे ...इसलिए वक्त आराम से कट रहा था...एक एक किलोमीटर पर मेराथान आर्गेनाइज़ करने वालों की तरफ़ से पानी के, नींबू पानी या अन्य किसी तरह की मदद के लिए स्टॉल लगे हुए थे ....मैं तो वहां नहीं गया...क्योंकि मैं तो अपनी मन की मौज के लिए चल रहा था...



कुछ बातें जो उस दिन इतना चलते चलते महसूस हुई वह यह कि कुदरत के साथ रहना कभी बोर नहीं करता....हमें कुदरत के अलग अलग रंगों का आनंद लूटने का मौका मिलता है ... जैसे ही रोशनी घटती-बढ़ती है, सारा नज़ारा ही बदल जाता है ...रेत पर तरह तरह के डिज़ाईन, किनारे पर पड़े छोटे छोेटे पत्थर जिन्हें उठाने की इच्छा नहीं होती कि इन को भी इन के साथियों का साथ भाता होगा, क्या करेंगे इन्हें उठा कर घर के किसी कोने में रख कर ....और भी कईं मंज़र ऐसे दिखते हैं जो पहले कभी नहीं देखे होते ...

चलिए, मैं लगभग एक घंटे में पांच किलोमीटर चल कर उस यू-प्वाईंट तक पहुंच गया जहां से मेराथन के प्रतिभागियों को अपने टैग को स्कैन करवा के वापिस लौटना था ...मुझे तो ऐसे किसी झंझट में पड़ने की ज़रुरत ही न थी ...मैंने भी वहां से यू-टर्न ले लिया...घुटनों की वजह से थोडा़ महसूस हो रहा था ...बीच बीच में यह भी लगा शुरुआत मेंं कि घुटने जितना शुरूआत में थके-मांदे से लग रहे थे, एक दो किलोमीटर चलने के बाद घुटने के उस थकेलेपन में सुधार ही हुआ था ...




यहां कुछ ड्रिंक्स बिक रहे थे ...

और हां, उस दिन बीच पर दो गाएं भी दिखीं...

यूं ही कट जाएगा सफ़र साथ चलने से ...

कुदरत के पास जाते हैं तो हर बार उस का नया ही रूप देखने को मिलता है, जैसे वह कोई राज़ की बात हम से साझा करने की फ़िराक में हो ...

रेत की अपनी दुनिया है, अपने राज़ हैं....

लेकिन पूरा दस किलोमीटर चलने के बाद घुटनों की जो हालत हुई वह तो मैं पहले ही दर्ज कर चुका हूं ...खैर, वापिस लौटने पर देखा कि वहां जश्न का माहौल है ...कुछ लोग गरबा नृत्य करने में मस्त थे और मैं यह सोचने में व्यस्त था कि क्या इन के शरीर में अभी भी इतनी ताकत बची हुई है कि इन से यह सब हो पा रहा है ......किसी से पूछा तो उसने ज्ञान बांटा कि कुछ हासिल करने की जब खुशी होती है तो इंसान कुछ भी कर सकता है ... बात तो पते की लगी। 

दो घंटे के ऊपर पांच सात मिनट लगे मुझे भी दस किलोमीटर की पैदल यात्रा पूरी करने में 

जो भी हो, उस दिन इतना चल कर अच्छा तो लगा ....वह कहते हैं न अपने लिए ही सही ...एक हिस्ट्री बन जाती है कि फलां फलां दिन मैं इतना चला था ...और इस तरह की हिस्ट्री की शीटें ही हैं जो कभी हमें प्रेरित करती हैं, कभी खुश करती हैं ....कभी फिर कुछ नया करने के लिए उकसाती हैं, जो भी है कुछ न कुछ तो नयापन बना रहना ही चाहिए...वरना ज़िंदगी है ही क्या....कुछ उमंग, कोई उत्साह, कोई छोटा मोटा ही सही लेकिन एडवेंचर ....कुछ तो हो यार जिसे ज़िंदगी कहा जा सके ...

और हां, घुटनों को आराम देने के लिए अगले दिन छुट्टी लेनी पड़ी ....खुद पर हंसी भी आ रही थी ....वैसे भी किसी दूसरे की बजाए अपने ऊपर हंसना कितना आसां है, कितना सुखद है....यह हम सब जानते ज़रूर हैं, दिल में कबूलते भी हैं ......लेकिन बस अपनी बेवकूफियों पर हंसते कम ही हैं...और दूसरों के सामने तो बिल्कुल नहीं और लिख कर कबूलना तो बहुत दूर की बात है ....इत्मीनान रखिए....कुछ नहीं होगा...किसी को हमारी ज़िंदगी से कुछ लेना देना नहीं है, हमें अपने जीने का अंदाज़ खुद तय करना पड़ता है ....जिसे मैं भी थोड़ा सीखने की कोशिश में लगा तो हूं ...

बंबई में बरसात हो रही है, ऐसे वक्त में रिमझिम बरसात वाला कोई गीत सुनते हैं ... 

बुधवार, 29 जून 2022

ब्लॉगिंग करते करते जब बीच में रुकावट आ जाती है ...

कुछ नहीं, रुक जाते हैं, तो क्या, कोई बात नहीं...लिखना, पढ़ना भी कोई मशीनी काम तो है नहीं कि आरा मशीन की तरह बस लगातार चलते ही रहना है ...कभी कभी छुट्टी लेने का मन भी तो सब का करता ही है ....

इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ..आज दो महीने बाद कोई पोस्ट लिख रहा हूं ...बस ऐसे ही मन ही नहीं किया...बीच में दो एक बार लिखा भी ...अभी देखा वह ड्रॉफ्ट भी पड़ा हुआ है ..लेकिन उसे मुकम्मल करने की इच्छा ही नहीं हुई...इन दिनों बीच बीच में कभी कुछ दोस्त बराबर पूछते रहते हैं कि क्यों भई, लिखना क्यों बंद है ....लिखते रहा करो, जो काम दिल को अच्छा लगे, करते रहना चाहिए...उन की इस तरह की बातें सही रास्ता दिखाने का काम करती हैं...

दरअसल बात यह है कि लिखने वालों के पास लिखने के लिए इतना कुछ रहता है कि कईं बार उकता से जाते हैं ..क्या लिखें और क्या छोड़ें...सब कुछ तो दर्ज कर देना ज़रूरी है ..हकीकत में देखा जाए तो सब कुछ हम दर्ज ही कहां कर पाते हैं...वह बहुत हिम्मत वालों का काम है ..हम तो बस समंदर के किनारे पर बैठ कर उस की मौजों का आनंद लेने वालों में हैं....उस की लहरों के साथ जा कर खेलना हम कहां कर पाते हैं, उस की गहराई को टोह लेना तो बहुत दूर की बात है ...इसलिए अपना लेखन भी सतही ही रहता है ....

इन दो महीनों में मैंने बहुत सी किताबों के पन्ने पलटे...सच में पटले ...क्योंकि मुझ में इतना सब्र नहीं है कि मैं किसी किताब को पूरा पढ़ सकूं...कुछ न कुछ नया ज़रूर पढ़ता हूं ...जो अच्छा लगता है उसे थोड़ा ज़्यादा पढ़ता हूं ...और जो ठीक ठाक लगता है उसे सोते वक्त नींद की गोली की तरह उठा कर जैसे ही पांच दस मिनट पढ़ता हूं, नींद घेर लेती है .. हा हा हा हा हा..सच में ऐसा ही होता है ..

लेकिन इन किताबों की दुनिया भी है बड़ी अजीबोगरीब...एक से बढ़ कर एक लोग हैं लिखने वाले ...आज सुबह जब मैं उठा तो सुस्ती सी छाई हुई थी...मैंने कल खरीदी कुलदीप नैयर साहब की आत्मकथा बिआउंड लाईन्स (Beyond the Lines- in English) जैसे ही उठाई तो एक आधा घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला...जो लोग दिल से लिखते हैं, सच लिखते हैं...उन्हें कोई दावा नहीं करना पड़ता, एक आधा पन्ना पढ़ते ही पता चल जाता है ...पढ़ने वाला उन का दुःख-सुख भी महसूस कर लेता है ....

दिन भर में हम इतना कुछ देखते हैं, महसूस करते हैं....हमारे अंदर तरह तरह के अहसास पैदा होते हैं ...नए नए नज़ारे दिखते हैं...कितनी तस्वीरें हम खींचते हैं ...नई जगह से गुज़रते हैं तो कुछ नया दिखता है ...असमंजस में पड़ जाते हैं कि यह क्या हम इसे देखने से कैसे चूक गए...दो तीन दिन पहले मुझे यही ख्याल आ रहा था कि देखा जाए तो ज़िंदगी है ही क्या...बस सुबह उठना, खाना, पीना, कमाई करना, लंबी तान कर सो जाना ....लेकिन इस के साथ हर रोज़ कुछ तो ऐसा हो कि ज़िंदगी में ज़िंदादिली बनी रहे ...अपनी पसंद का कोई गीत ही सुनने का मौका मिल जाए...कोई अच्छी किताब मिल जाए, अपनी किसी पुराने शौक को ज़िंदा रखने का बहाना ही मिल जाए....कोई नया फूल, कोई नया पौधा...कोई नदी, झरना, समंदर ...कुछ तो हर दिन नया हो ....शायद तभी ज़िंदगी सार्थक है ...कोई काम छोटा नहीं है, कोई काम बड़ा नहीं है ...जो भी काम कर रहे हैं उस में फ़ख़्र महसूस करें ...

हां, दो दिन पहले मैं एक पुल के ऊपर से गुज़र रहा था, बादल छाए हुए थे ...मैंने वहीं खड़ा हो कर शेल्फी लेने लग गया....बहुत अच्छा लगा ...एक छोटा सा आठ-दस का बच्चा साईकिल चलाता हुआ उधर से गुज़रा ...मैंने उसे हंसते हुए कहा ...शेल्फी शेल्फी....वह भी हंसने लगा ....जब भी आप किसी को देख कर हंसते हैं न तो आप को हंसी वापिस मिलती ही है ..बस, इस के लिए इस बात की परवाह छोड़नी पडेगी कि यार, हम पहले कैसे हंस दें, कोई कहीं यह तो न समझ लेगा कि यह तो सरका हुआ है ...या अगर किसी के साथ हंस कर बात कर लेंगे तो कोई पता नहीं क्या फायदा उठा लेगा मेरा......निश्चिंत रहिए...कुछ नहीं होगा....बस, हंसते-मुस्कुराते ज़िंदगी अच्छी कट जाती है ...जिसे भी मिलें उस के लिए दुआ किया करें कि ईश्वर, अल्ला, गॉड अपने हर बंदे को ऐसे खुशनुमा हालात दे कि उन की ज़िंदगी मुस्कुराहटों से भरी रहे ...

और एक बात यह भी है कि जो लिखने वाले हैं न यह जो ब्लॉग-व्लॉग या कुछ भी उन के लिए लिखते रहना इसलिए भी ज़रूरी है कि अगर वे कुछ दिन हफ्ते, महीने नहीं लिखते तो फिर लिखने का मन ही नहीं करता ...सच बात है बिल्कुल ...अगर ब्लॉग नहीं लिखते तो सारा दिन बिन बुलाए दर्जनों वॉट्सएप ग्रुपों में तांक-झांक करते रहेंगे ....बिन मांगा ज्ञान बांटते रहेंगे ....कोई जवाब दे न दे, पोस्टें दनादन डालते रहेंगे ....अपनी इज़्ज़त का कुछ ख्याल नहीं ...हम लोग बचपन में देखा करते थे कि जिस रिश्तेदार को एक दो बार चिट्ठी लिखी जाती थी और वह किसी भी कारण से जवाब नहीं देता था तो फिर उस से खतोकिताबत बंद ही हो जाती थी ...इसलिए जिस ग्रुप में कोई सुने न और अपनी सुनाई न तो उस से भी किनारा कर लेना ही मुनासिब है ..मुझे तो यही लगता है ...स्कूल-कॉलेज वाले ग्रुपों का भी कुछ कुछ यही हाल है ...



पिछले दिनों एक ख्याल यह भी आ रहा था जब मैं एक बहुत पुराने बरगद के पेड़ के नीचे फोटो खिंचवा रहा था कि अगर हमें अपने कद का सही जायज़ा लेना हो तो इसी तरह के दरख्त के नीचे खडे़ होकर ही यह संभव हो सकता है, अपनी तुच्छता का अहसास करना हो तो किसी पहाड़ के पास जाना चाहिए और अपने अंदर-बाहर के शोर शराबे से निजात हासिल करनी हो तो समंदर की खामोशी से ही कुछ सीख लेना चाहिए...क़ुदरत का हर क़ायदा कुछ सिखा रहा है लेकिन अगर हमें फ़ुर्सत तो हो कुछ सीखने की ...यह जो बातें मैंने पिछली तीन चार पंक्तियों में लिखी हैं, मैं वैसा लिख नहीं पाया हूं जैसा सोच रहा था ...जैसे विचार आ रहे थे ...खैर, कोई बात नहीं ..जितना लिखा गया, उतना ही मुबारक है ...दो महीने बाद 😬......लेकिन फिर भी रूकावट के लिए खेद तो है ही ....