शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

और जहां तक पहनने पचरने की बात है...

दो साल पहले यही लॉकडाउन से ठीक पहले मैं स्कूटर से गिरा .पैर का हड्डी टूट गई ....और वह मेरी काली पैंट भी घुटने वाली जगह से थोड़ी सी फट गई...अभी वह पैंट नई ही थी...और वह फ्लेक्सी-वेस्ट वाली पैंट थी ...यानि एक बार पहनने के बाद उसी जगह पर टिकी रहती थी..यह जो सिर्फ़ बेल्ट के सहारे पर ही पैंटें पहनी जाती हैं उन्हें तो बार बारऊपर सरकाना पड़ता है, यह सिरदर्दी लगता है मुझे...मुझे इस से बहुत चिढ़ भी है ...लेकिन चिढ़ है तो वज़न का पहले ख्याल करना चाहिए था...अभी मेरी यह उम्र गैलस पहन पर अरबपति दिखने की भी तो नहीं है ....कुछ दिन पहले मुझे कपड़ों की अलमारी में वह पैंट दिख गई तो मैंने उसे रफू करवा लिया ...लेकिन जब वह पैंट रफू हो घर आई तो मुझे यह कहा गया कि अब इसे बाहर नहीं पहनना, यह ऐसे ही घर-वर में पहनने के लिए है..

लेकिन मुझे वह पैंट इतनी पसंद है कि मैं तो बाहर भी पहन लेता हूं ...और सोचता हूं कि एक तरफ़ तो रफू की गई पैंट को पहनना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझा जाता है, दूसरी तरफ़ ये जो लोग कटी-फटी जीन पहन कर शान से अपने कूल (या हॉट?) होने की स्टेटमेंट दिए फिरते हैं, उन का क्या....पहली बार कुछ देखा टाइम्स में कि देश के किसी शहर के एक कॉलेज में (शायद यह बंगलोर की बात है, मुझे अच्छे से याद नहीं) यह नियम बना है कि डैमेज जीन पहन कर आना मना है ..शायद साथ में कुछ लिखा था ..आर्टीफिशियली डैमेज ..य़ानि जिन्हें खुद से काट-फाड़ कर डैमेज किया गया हो ...

कईं साल हो गए ..लखनऊ की बात है कि एक पांच छः साल का बच्चा आया मेरे पास आया था जिसने ऐसी ही एक कटी-फटी-चीथडे़-2 हुई जीन पहनी हुई थी ...उस की मां ने बताया कि यह इसी की जिद्द पर खऱीदी गई है...मैंने अभी तक उस से छोटे किसी बच्चे को इस तरह की डैमेज जीन पहने नहीं देखा है ..डैमेज जीन के बारे में बहुत से सोशल मीडिया स्टेट्स, वाट्सएप पर तस्वीरें या इतने चुटकुले अकसर दिख जाते हैं कि अब यह कोई नईं या अजीब बात नहीं लगती और देखा जाए तो लगे भी क्यों...हम होते ही कौन हैं किसी को भी पहनने-पचरने के नुस्खे बांटने वाले ...जो किसी को मुनासिब लगता है उसे पहनने का हक है...और रही पुरानी पंजाबी कहावत की बात ...खाईए मन भांदा, पाईए जग भांदा...(खाना वही चाहिए, जो मन को भाए...पहनना वही चाहिए, जो दुनिया को भाए) ...मैं इस कहावत के बिल्कुल ख़िलाफ़ हूं ...दुनिया कौन होती है जिस की वजह से हम लोग अपने पहनावे का कोई फ़ैसला लें। और हां, मैंने एक बात लिखी कि हम कौन होते हैं किसी को कहने वाले कि यह पहनो, यह न पहनो....और ख़्याल अभी यह भी आया कि कहने से होता ही क्या है... कौन सुनता है यार किसी की, और सुने भी क्यों।लिखते लिखते कईं बातें याद आने लगती हैं ...सोशल मीडिया पर तस्वीरें देखना अपनी जगह है, और रास्तों पर आते जाते लोगों को फटे-पुरानी जीन पहने देखना और किसी स्टोर पर ऐसे कपड़े बिकते देखना एक अलग एक्सपीरियंस है .....मैं अलग लिखा है, अच्छा, बुरा कुछ नहीं लगा...वैसे भी लिखने वाले का काम होता है आंखो-देखी को दर्ज करना ...बस। 

दो तीन साल पहले की बात होगी मैं बच्चों के साथ ज़ारा के स्टोर पर गया तो वहां पर एक चीथड़े-चीथड़े हो चुकी एक टी-शर्ट देखी थी ...शायद 3500 रूपये की थी ..मैंने अभी तक लोगों को इस तरह से चीथड़े हो चुकी टी-शर्ट तो पहने कम ही देखा है ......लेकिन हां, हॉफ बाजू की कटी-फटी डैनम की डेमेज टी-शर्ट पहने तो देखा ही है ...बेटे के पास भी है एक ऐसी ही जैकेट है जो उसे बहुत पसंद है ...जब मैं इन को कहता हूं कि मुझे भी दिलवा दो एक डैमेज जीन तो हंसते हंसते कहते हैं कि हां, हां, क्यों नहीं ...कलर बताइए, आज ही चलिए। मैं सोचता हूं कि हंसते वे यह सोच कर होंगे कि बापू, यह बूढ़ी हड्डियों और घिसे हुए घुटनों वालों के शौंक नहीं हैं..

कल देर रात तक मैं अपने कपड़ों की अलमारी में रखे कपड़े ज़रा देख रहा था ...देख क्या रहा था, मैं अपनी सभी सफेद कमीज़ें अलग कर रहा था ...क्योंकि इतनी गर्मी में मुझे सफेद रंग ही पहनना अच्छा लगता है...मैंने देखा कि कुछ सफेद रंग के शार्ट कुर्तों की प्रैस खराब हो चुकी थी ..और कुछ गुचड़े-मुचड़े (सिलवटें) हुए पड़े थे... मुझे तभी ख्याल आया कि आज कल मैं कुछ लोगों को लोकल स्टेशनों पर देखता हूं जो बिना इस्तरी किए कपड़े पहने दिखते हैं...मैं सोचता हूं कि यह भी तो ठीक है ...इस्तरी करवाने के चक्कर में पड़ना ही क्यों ...हर किसी की कोई न कोई मजबूरी, शौक या अपना कोई स्टाईल या कोई नई फैशन स्टेटमेंट भी हो सकती है ...इस तरह से सिलवटों वाले कपड़े पहनना....जो किसी को अच्छा लग रहा है, पहन रहा है। 

यह जो हम कपड़ों को इस्तरी करवाते हैं न मुझे तो यह भी बहुत अजीब सा लगने लगा है...पहले भी थोड़ा तो लगता ही था लेकिन इस कोविड-वोविड़ की महामारी के बाद तो ज़रूर ही लगने लगा है...क्या इस्तरी, क्या स्टीम-प्रैस, क्या ड्राई-क्लीन और क्या गुच्चड़-मुच्चड़ कपड़े ...सब यहीं के यहीं धरे रह गए...मुझे ऐसा लगता है कि ठीक है, हम अच्छे से प्रैस हुए कपड़े पहनते हैं, क्योंकि अकसर यह उस पेशे की भी एक मांग होती है जो काम हम कर रहे होते हैं...डाक्टर हैं तो मरीज़ एक उम्मीद करते हैं कि उसने ठीक ठाक से कपड़े पहने होंगे...और ठीक-ठाक से उस का क्या मतलब है, यह जानते हम सब कुछ हैं, लेकिन बस ऐसी ही अनाड़ी बनने का ढोंग करते हैं बहुत बार ..जब भी हमें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक पोशाक पहननी होती है...। अब वकील हैं, पुलिस वाले हैं, वे  भी अच्छे से इस्तरी किए हुए साफ सुथरे कपड़े पहने ही अच्छे दिखते हैं...पुलिस का रूआब भी तो उन की वर्दी से है ...

लेकिन एक बात तो है ...दुनिया वुनिया तो वैसे ही एक ड्रामेबाजी है ...है कि नहीं...और इस में हर किरदार को उस के रोल के मुताबिक तो कपड़े पहनने ही होंगे ...यह ज़रूरी है ..लेकिन यह रोल एक दिन में कुछ घंटों तक ही तो महदूद होता है ..जैसे ही आप का दिन का वह वाला रोल पूरा हो जाए...उतार फैंकिए उस किरदार की पौशाक को भी, और पहन लीजिए जो कुछ भी आप के दिल को पसंद है, मैं भी ऐसा ही करता हूं.. ..मुझे यही लगने लगा है कि लोगों की छोटी छोटी खुशियां हैं ...कोई किसी को कुछ कहे ही क्यों और किसी की कोई भला सुने भी क्यों। 

मुझे सच में नहीं पता कि कर्नाटक में कालेज के बच्चों की पोशाक को लेकर क्या चल रहा है ..क्योंकि मैं न तो खबरें ही सुनता हूं और न ही अखबार में इस तरह की खबरें पढ़ने का मेरे पास फालतू वक्त ही होता है ...बस, हिजाब के बारे में कुछ न कुछ चल रहा है ..कोई कह रहा है पहनना है, कोई कह रहा है नहीं। इस के बारे में भी सीधी सीधी बात तो यह है कि जो किसी को अच्छा लगे वह करे ..यह तो पहनावे का ही एक अंग है ...बाकी, इस तरह के मामलों में कोर्ट-कचहरी में जो गहरी,पेचीदा बातें होती हैं, वे सब मेरी समझ से थोड़ी नहीं, कोसों दूर हैं...समझ तो मैं भी सकता हूं अगर चाहूं तो ....लेकिन कभी इच्छा ही नहीं उस तरफ़ दिमाग़ लगाने की।  

लिखते लिखते एक बात का और ख्याल आ गया...अकसर देखते रहे हैं कि रईस लोग या धनी लोगों के बच्चे कुछ भी पहन लें ..लोग एक्सेप्ट कर लेते हैं...फैशन है, ये लोग कूल हैं, कूल लोग ऐसे ही पहनते हैं....(कूल-हॉट मैं नहीं जानता-समझता, जब कभी समझ लूंगा तो लिख कर ब्यां कर दू्ंगा..) लेकिन मुझे इस बात से सख्त नफ़रत है जब मध्यम वर्ग या उस से भी थोड़ी कम हैसियत वाले लोगों के बच्चे (खास कर बच्चियां) फैशन के मुताबिक कपड़े पहनती हैं तो अड़ोस-पड़ोस वाले कईं बार तरह तरह की बातें करने लगते हैं...आप और मैं यह सब समझते हैं.....लेकिन मुझे इस बात से बड़ी तकलीफ़ होती है क्योंकि हर इंसान को सुंदर दिखने का, स्टाईलिश दिखने का ...कूल या हॉट स्टेटमेंट देते हुए कुछ भी पहनने का पूरा हक है .....है कि नहीं? और मैं आते जाते जब इस तरह के युवा-युवतियों को अपने मन-पसंद कपड़ों में, कईं बार बिना प्रैस किए हुए भी ...देखता हूं तो मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि वे अपने पहनावे के बारे में बहुत सहज हैं ..देखा जाए तो हों भी क्यों न.....हर एक की अपनी दुनिया है ....अपना फ़लक है, ..अपना कैनवस है मन-भावन रंग भरने के लिए।

अपने पेशे की मांग को छोड़ कर ...पहनावे से कुछ फर्क पड़ता है या नहीं पता नहीं, लेकिन पहनने वाले का दिल तो खुश रहता ही है ...जीन डैमेज है, पुरानी है, सैकेंड हेंड है, कपड़े प्रैस हैं या गुचड़-मुचड़े हुए हैं, कमीज़ कालर वाली है या बिना कालर वाली...पतलून ब्रांडेड है या नहीं, सूती है या टैरीकॉट की ...बूट 200 रूपये वाले ब्लू-स्टार के हैं या 6000 रूपये के स्केचर्स ...यह सब हर इंसान की हैसियत के ऊपर है ..एक गलती जो हम अकसर करते हैं वह यह है कि हम बहुत बार किसी के कपड़ों से उस का आंकलन ही करने लगते हैं ...लेकिन यह भी एक बीमारी है ...जैसे तुलना करना बीमारी है ...वैसे कपड़ों को देख कर किसी बंदे के बारे में अपनी राय बना लेना भी एक गलती है ...थोड़ा बहुत तो चलिए ठीक है, हम सब यह काम करते ही हैं. लेकिन इस पर ज़्यादा भरोसा करना बंद करिए, बहतु बड़ा धोखा खाएंगे ...ज़िंदगी के तजुर्बे से यह सब सीखा है, इसलिए लिख रहे हैं..

आज सुबह सुबह जल्दी जल्दी मैं क्या उठ गया...मैं यह सब लिखने में लग गया...बात सिर्फ इतनी सी है कि जो जिसे पसंद हो, वह पहने ...हम आज़ाद देश के बाशिंदे हैं...हमें हमारे संविधान ने बहुत से अधिकार दिए हुए हैं...उन में स्पीच का, एक्सप्रेशन का ..बोलने की आज़ादी वाला अधिकार भी तो है ....हम जो पहनते हैं वह भी तो एक तरह से एक्सप्रेशन ही है ...कानूनी ज़ुबान नहीं बोल रहा हूं, दिल की बात कह रहा हूं ..

जो भी है, कईं बार मैं भी ऐसी ऐसी बातेें लिखने लग जाता हूं कि लिखते लिखते मैं ही पक जाता हूं ..पढ़ने वालों का क्या हाल होता होगा...खुदा जाने .....कोशिश करता हूं एक अच्छा सा गीत लगा कर अब यहां से इसी वक्त उठ जाऊं... एक छोटी सी सीख के साथ....जिओ और जीने दो..ज्यादा नसीहतों के चक्कर में, सही गलत के नुस्खों में, मुनासिब, गैर मुनासिब के इश्तिहार मत बांटिए....सहज रहिए...बेकार के पच़ड़ों से दूर रहिए...और खुशी खुशी पहनिए जो भी अच्छा लगता है ...

बुधवार, 30 मार्च 2022

लड़का हुआ कि लडकी ?

हमारे अस्पताल में कार्यरत स्त्री रोग विशेषज्ञा ने आज एक बहुत प्यारे से गोबले-गोबले बच्चे की फोटो डाली जिस के बारे में उन्होंने बताया कि इस 4 किलो 600 ग्राम वज़न वाले नवजात शिशु का शुभागमन हुआ है ... और यह सिज़ेरियन से पैदा हुआ है ...

गोबले-गोबले से आप तो भई चक्करों में पड़ गए होंगे...पहले उस चक्कर का निपटारा कर लूं...दरअसल यह एक पंजाबी का ऐसे ही एक ऊट-पटांग लफ़्ज़ है ..खामखां किस्म का ...बस जैसे कईं लफ़्ज़ लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाते है ....हम लोगों ने बचपन से यही देखा, सुना कि जो शिशु मोटा-ताज़ा दिखता है, जिस के गाल मोटे मोटे पिलपिले से होते हैं उसे ऐसे ही कहते हैं कि यह बच्चा तो बड़ा गोबला-गोबला है .. और एक बात ज़ेहन में आ रही है कि ये जो गोबले गोबले बच्चे होते हैं, बिना किसी कसूर के भी इन के गालों की खिंचाई होती रहती है...क्यों? ...क्यों-व्यों का तो मुझे भी पता नहीं लेकिन यकीनन मैं भी इस तरह के गोबले शिशुओं के गाल अकसर खींचता रहा हूं ..जब दादी, नानी, मौसी, मामा, पड़ोसी ऐसे बच्चों के गाल खींचते हैं तो मैं कैसे इस काम से दूर रह सकता था....सच में इस तरह के गालों को छूते ही, गोली मारिए खींचने को...छूते ही मखमली रूई का अहसास होता था...यह जो मैं था लिख रहा हूं वह इसलिए कि यह काम हमारे ज़माने में तो हो जाता था ..फिर धीरे धीरे लोग कानून की धाराओं को जानने लगे ...छोटे शिशु के गालों को छूने से भी डर लगने लगा....

वैसे एक बात तो है कि यह जो पुराने ज़माने में एक रिवाज़ था कि जच्चा-बच्चा को सवा महीने तक दुनिया की नज़रों से दूर ही रखते थे ..देखा जाए तो यह भी ठीक ही था..क्योंकि उस दौरान बच्चे को इस तरह के छूने-चूमने से उसे कईं तरह के संक्रमण होने का डर तो रहता ही है ...इसलिए अभी भी शिशु रोग विशेषज्ञ इस बात की खास ताकीद करते हैं कि नवजात शिशु को ज़्यादा छूने, चूमने-चाटने से परहेज़ करें ...और यह बात है भी बहुत ज़रूरी। 

खैर, हम तो बात कर रहे थे उस साढ़े चार किलो के उस्ताद की जिसने आज हमारे अस्पताल में पहली बार आंखें खोलीं...सच बताऊं हमें भी फोटो देख कर मज़ा आ गया...हां, वही गोबला-गोबला बच्चा, प्यारा-प्यारा...जैसे बाज़ार में बिकने वाले पोस्टरों पर दिखते हैं। खैर, फोटो देख कर हमारी एक अन्य साथी महिला चिकित्सक ने पूछा कि क्या इस की मॉम मधुमेह से ग्रस्त हैं...एक शिशु रोग विशेषज्ञ ने एक मज़ेदार टिप्पणी की कि यह तो छोटा भीम ही दिखाई दे रहा है ..

खैर, तभी उस महिला रोग विशेषज्ञ की अगली टिप्पणी आई कि यह संतानहीन मां-बाप की यह शिशु पहली औलाद है जो उन्हें बारह बरस के बाद नसीब हुआ है ...हमें बहुत अच्छा लगा..चलिए किसी के आंगन में किलकारीयां गूंजी....आगे लिखा था उस डाक्टर ने अभी बड़े आप्रेशन से अभी उसने उस बच्चे की डिलीवरी की ही थी कि प्रसूता कि तरफ़ से उसे सवाल सुनाई दिया ..लडका है या लड़की...और फिर अगला सवाल उन पर दागा गया कि काला है या गोरा! डाक्टर ने आगे लिखा था कि ...दिल मांगे मोर..

हमने भी टिप्पणी में लिखा कि इस बात पर तो पोस्ट बनती है ...आप लिखिए, वरना हम लिखेंगे....जैसा कि अकसर मेरे साथ होता है, मेरी बात को कोई रिस्पांस नहीं मिला...इसलिए मुझे तो अपना काम करना ही था, मैं यह पोस्ट लिखने बैठ गया...

कुछ पोस्टें, कुछ बातें किस तरह से हमारे दिलोदिमाग को झंकृत कर जाती हैं ...यह भी एक ऐसी ही पोस्ट थी ....और एक महिला डाक्टर ने उस बात को लिखा था तो उस का महत्व और भी बढ़ जाता है ...दरअसल हम जो बातें लिख कर सहेज रहे होते हैं, वही आने वाले वक्त का साहित्य है ....चूंकि साहित्य किसी भी समाज का आइना होता है ..तो आज से पचास सौ बरस बाद अगर आज का लिखा हुआ किसी के साथ लगेगा तो उसे आज के दौर के इंसान के मनोविज्ञान, उस की आंकांक्षांओं, सामाजिक परिवेश इत्यादि बहुत कुछ पता चलेगा....विश्लेषकों को तो ईशारा ही काफ़ी होता है ..

सच में जब मैंने पढ़ा दिल मांगे मोर ...तो मुझे भी बड़ी हंसी आई ...देखिए, पहले तो बच्चे के लिए लोग तरसते हैं....फिर अगर आधुनिक चिकित्सा पद्धति की वजह से, ईश्वरीय अनुकंपा की बदौलत आंगन में किलकारीयां गूंजती हैं पहली बात तो उन्हें उस के काले-गोरे होने की भी फ़िक्र है ...क्या काला, क्या गोरा..

बच्चे के जन्म के वक्त सब से पहले तो उस की पहली किलकारी होती है ...जिस को सुनने के लिए स्त्रीरोग विशेषज्ञ और कईं बार साथ खड़े शिशु रोग विशेषज्ञ के कान तरसते रहते हैं ...सच में हम लोगों की हसरतें लगातार बढ़ती रहती हैं....जिन के शिशु नहीं है, उन्हें शिशु की चाहत होती है ...फिर बेटे की चाहत, फिर कम से कम बेटों की एक जोड़ी हो जाने की हसरत ....बस, बात वही कि हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी..

चलिए, दुनिया जहां की बातें करते करते अपने घर की भी बातें कर लेनी चाहिए...हमारी श्रीमती की पहली डिलीवरी का वक्त था, 15 दिन पहले कोई अल्ट्रासाउंड हुआ ...कहने लगे कि हाइड्रोकैफलस है ...(शिशु में बड़े सिर का होना एक गंभीर समस्या होती है) ...दो तीन बार उन्होंने किया ...लेकिन अंदेशा यही था। हमारे भी पैरों तले से ज़मीन खिसक गई....लेकिन किसी के कहने पर किसी दूसरी जगह से अल्ट्रासाउंड करवाया गया...उसे लगा कि ऐसी कोई बात तो नहीं लग रही ...लेकिन इलेक्टिव सिज़ेरियन करवा ही लीजिए...अभी चाहे 10-12 दिन रहते हैं ...फिर भी करवा लीजिए..। एक दो दिन में सि़ज़ेरियन कर दिया गया...सब कुछ ठीक था, इतना ही पता चला तो जैसे सब की जान में जान आई....काला, गोरा, नयन-नक्श की किसी को नहीं पड़ी थी..

दूसरी डिलीवरी होने में अभी दो चार दिन थे कि अल्ट्रासाउंड में पता चला कि ब्रीच डिलीवरी है ...और शिशु के गले में गर्भ-नाल (एम्बिलिकल कॉड) - कॉड अराऊंड दा नैक ...है ...दूसरी जगह से भी अल्ट्रासाउंड करवाया तो उन्हें भी ऐसा ही लगा ...और वहां उस के क्लीनिक के बाहर एक पोस्टर टंगा हुआ था..Seek the will of God, Nothing More, Nothing Less, Nothing Else! इत्ता सा पढ़ लेने ही से मन को संबल मिला ....केवल इसी अंदेशा के चलते नार्मल डिलीवरी की जगह सिज़ेरियन तुरंत प्लॉन किया गया....ईश्वर की कृपा रही ..सामान्य प्रिज़ेंटेशन थी ....सब कुछ सामान्य था...कह रहे थे कि कईं बार कॉ़ड-अराउंड दा नेक अपने आप खुल भी जाती है ...खैर, वही बात है ..जाको राखे साईंयां..

अरे हां, मैं अपनी बात बतानी तो भूल ही गया जिसे मैंने कईं बार मां को अपनी सहेलीयों को सुनाते सुना....मां नहीं चाहती थी कि मैं पैदा ही होऊं...इसलिए मां दो-तीन महीने तक कुछ दवाईयां खाती रहीं ...लेकिन फिर भी मैं भी ठहरा ढीठ बंदा 😎...मुझे तो दुनिया में आना ही था...हार कर दो तीन महीने के बाद पड़ोस में रहने वाली मां की सहेली मिसिज़ कौल ने मां को समझाया कि अब, बस भी करो...छोड़ तो दवाईयां खाना, आने दो आने वाले जी को ...अपनी किस्मत लेकर आएगा.... (थैंक यू, कौल आंटी, मां को नेक सलाह देने के लिए...मुझे वह बड़ा प्यार करती थीं...अभी मैं बहुत छोटा था कि उस नेक औरत के दिल में छेद का डायग्नोसिस हुआ...तब कोई इतना इलाज नहीं था, कुछ ही वक्त के बाद चल बसी ...🙏) ....मां अकसर यह बात अपनी सहेलीयों के साथ हंस हंस कर किया करती थी....मां बहुत हंसमुख थी ...हंसती-खिलखिलाती ही दिखती थी ...। हां, एक बात यह भी कि मां अकसर यह बात मेरे जन्म से पहले इतनी दवाईयां खाने की बात तब किया करती थी जब यह बात कहीं चला करती थी कि आज तो गर्भवती महिलाओं की प्रसव से पहले इतनी नियमित जांच होती है ...इतने टॉनिक-विटामिन, कैल्शीयम दिए जाते हैं....लेकिन पहले वक्त में तो रब ही राखा था....यह मैंने क्या लिख दिया ..रब ही राखा था.......नहीं, रब ही हम सब का राखा है, था, और जब तक यह कायनात कायम-दायम है, वही हमारी राखा है, हमारे अंग-संग है ....मैडीकल उन्नति अपनी जगह है ...अच्छी बात है ...वैज्ञानिक नज़रिए से सब कुछ हो रहा है .....लेकिन बात जो बाणी मे दर्ज है वह यही है कि एक पत्ता भी इस परमपिता परमात्मा के हुक्म के बिना हिल नहीं सकता ....यह बात हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है ...ज़िंदगी आसान लगने लगती है ...😂 - मज़ाक अपनी जगह, आप को कहीं यह पढ़ कर ऐसा तो नहीं लग रहा कि काश! तुम्हारी मां जो दवाईयां ले रही थीं वह काम कर जातीं....हम तुम्हारी रोज़ की ब्लॉगिंग की टैं-टैं से तो बचे रहते ...ना होता बांस, न बजती बांसुरी ...


जाते जाते एक बात और लिख दूं कि काला हो, गोरा हो या हो भूरा...हर मां के लिए उस का बच्चा राजकुमार होता है ...और यही सब के खूबसूरत बात है ...बाकी सब बेकार की बातें हैं... भगवान कृष्ण भी तो सांवले ही थे ...और एक गाना भी तो है ...दिल को देखो चेहरा न देखो....चेहरों ने लाखों को लूटा...दिल सच्चा और चेहरा झूठा... हा हा हा हा ...एक बात और यह भी कि आज मैंने आप को एक पंजाबी के लफ्ज़ से वाकिफ़ करवा दिया....गोबला..गोबला....और एक दूसरा लफ्ज़ यह है पंजाबी का भब्बड़गल्ला.....यह उन छोटे शिशुओंं के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो मोटे ताज़े होते हैं ..और वही उन के गाल फूले हुए, एक दम मस्त ...जिन्हें आज के दौर में बंदा खींचे चाहे न खींचे, चाहे छुए भी न, लेकिन एक बार प्यार से उन्हें खींचने की तमन्ना तो ज़रूर होती है......पहले तो यह भब्बड़गल्ले कहीं कहीं कभी कभी दिखते थे ..क्योंकि दाल रोटी ही वास्ता रखते थे ...लेकिन जंक-फूड की भरमार से अब तो भब्बड़गल्ले जगह जगह दिखाई देने लगे हैं ....

मंगलवार, 29 मार्च 2022

पर-उपदेश

मिसिज़ खन्ना का सुबह का यह वक्त अपनी मां दुलारी के साथ बैठ कर गप्पबाजी करने का होता है ..वे दोनों एक साथ बॉलकनी में बैठ कर चाय का मज़ा लेती हैं...साथ में अखबार के पन्ने उलट लेती हैं...मिसिज़ खन्ना की माताश्री को एफ.एम सुनना भाता है ...अभी विविध भारती पर भूले-बिसरे गीत चल रहे हैं...

मिसिज़ खन्ना की माताश्री रेडियो, किताबों और क्रोशिए, पैच वर्क की दुनिया में मस्त रहती हैं...85 से ऊपर हैं लेकिन ईश्वर उन्हें बुरा नज़र से बचाए..अभी भी अपने सूट खुद सी लेती हैं...और अपनी नातिन नेहा के मशहूर फैशन-डिज़ाइनर होने पर खूब ठहाके लगाती है ...अब उसे फटी हुई जीन की तुपाई करने को नहीं कहतीं...वह ज़माने के तौर-तरीकों से वाकिफ़ हो चुकी हैं...लेकिन दुलारी को यह बात बहुत हैरान परेशान करती है कि नेहा को किसी ने कटिंग भी नहीं सिखलाई.....मिसिज़ खन्ना उन्हें कईं बार बता भी देती हैं कि ये सब काम करने के लिए मॉम उस के पास टेलर हैं न .. दुलारी हंस कर बात टालने में माहिर तो है ..लेकिन उस का दिल फिर भी नहीं मानता..

खैर, अभी भी तो मां-बेटी चाय की चुसकियां ले रही हैं...

रिंकी,  मुझे यह तुम्हारी ग्रीन टी बिल्कुल नहीं भाती...यह तो मुझे और सुस्त कर देती है ..और ऊपर से ये पैकेट वाले बिस्कुट....मेरे लिए वही नीलम बेकरी से ही बिस्कुट मंगवाया करो, और चाय भी अच्छे से उबली हुई पी कर ही मुझे चुस्ती आती है ...

ठीक है, मॉम, अभी दूसरी चाय भिजवाती हूं...बिस्कुट भी मॉम, आप की सेहत के लिए यही ठीक हैं...मैरी गोल्ड के ....

नहीं, रिंकी, अब और कितने दिन की मेेहमान हूं...जो अच्छा लगता है, वही खाना पीना पसंद है ...

बस, मॉम, आप की यही बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं...जब देखो, उम्र की बात करने लगते हो...लोग आज कल 100 साल के जश्न की प्लॉनिंग करते हैं और आप हैं कि ....अच्छा, मॉम, आप मुझे यह बताएं कि आप के कमरे में एस.सी के लिए बोल दूं...

नही, नहीं, रिंकी, तु्म्हे तो पता है मेरी हड्डियां तो वैसे ही दुखती रहती हैं ...मुझे तो पंखा भी देर रात बंद करना पड़ता है ...मुझे कभी हवा लेनी होती है तो मैं बॉलकनी में बैठ जाती हूं ...मैं तो तुम लोगों को भी कहती हूं कि इस नामुराद ए.सी से थोड़ा दूर ही रहा करो...यह सेहत के लिए ठीक नहीं ..

ठीक है, मॉम, आप सही कहती हैं...लेकिन यह तो आप देख रही हैं न कि इस मार्च के महीने में भी किस तरह से सूरज आग उबल रहा है ...अब हमारे शरीर इन सब चीज़ों के आदि हो चुके हैं, यह कहते हुए वह वहां से उठ खड़ी हुई ...क्योंकि आज उन्हें एक प्रोग्राम में जाना है ...वह वहां की की-नोट स्पीकर हैं ...उन्हें वहां एक प्रिज़ेन्टेशन भी करनी है ...

मिसिज़ खन्ना (मां के लिए रिंकी) के वहां से उठने के बाद दुलारी फिर से पुरानी यादों में खो गईं ..दुलारी को भी लगने लगा है कि वह वर्तमान से ज़्यादा अकसर गुज़रे दौर में टहलती रहती हैं। उसे मीरपुर के वे बचपन के दिन याद आने लगे जब उन का सारा परिवार गर्मियों के दिनों में छत पर चारपाईयां डाल कर सोते थे...ठंड़ी ठंडी हवा के झोंके, चांद-सितारों की चादर ओढ़ कर सभी सो जाते ...और सुबह कितनी ताज़गी महसूस करते ...

फिर देश के विभाजन के बाद वे सब लोग इधर आ गए ....दिल्ली में रहने लगे ...वहीं दुलारी की शादी हो गई ...मौसम खुशनुमा ही थी..हां, रात के वक्त कभी कभी गर्मी लगती तो सब लोग अपनी अपनी खटिया के एक कोने में एक हाथ की पक्खी रखने लगे थे ...कभी ज़रूरत महसूस होती तो हाथ से उसे दो मिनट चला लेते ...फिर कुछ सालों बाद पक्खी से काम न चलता तो आंगन में एक छोटी टेबल पर एक पंखा चला दिया जाता ...रात भर सब को हवा देता न थकता...और जब सुबह सुबह सब को उस की वजह से 
ठंड लगने लगती तो कोई न कोई उठ कर उसे बंद कर देता...

दुलारी को सब अच्छे से याद है ...नेहा दाद देती है नानी की फोटोग्राफिक मेमेरी की ...खैर, दुलारी को याद है फिर पंखे की हवा में भी जब लोगों को हवा न लगती तो आंगन में सोते वक्त एक कूलर किसी बड़ी सी मेज़ पर टिका दिया जाता ...कुछ साल काम चलता रहा ...लेकिन जैसे जैसे गर्मी बढ़ती गई ...उमस से परेशान होने लगते ..तो कूलर भी बेकार लगने लगता ...

फिर घर में एक ए.सी लग गया ....वाह...जैसे तैसे घर के सभी लोग उसी कमरे में ठूंसे रहते ख़ास कर रात के वक्त ....लेकिन धीरे धीरे जैसे घर के लोगों की प्राईव्हेसी की ज़रूरत बढ़ने लगीं....सब अपने अपने कमरों में अपने स्पेस में जाने लगे ...एक दो और कमरों में ए.सी भी लग गया...किसी विंडो ए.सी को निकाल कर स्पलिट ए.सी का रिवाज़ चल निकला ...क्योंकि इस से शोर-शराबा कम से कम घर में तो नहीं होता....फिर जब महिलाओं को किट्टी पार्टी में अपनी सखी-सहेलीयों को अपने बिना ए.सी वाले ड्राईंग रूम में बैठाने में अजीब सा लगने लगा तो धीरे धीरे बैठकों में भी ए.सी फिट हो गए...कुछ तो देखा-देखी, कुछ स्टेट्स सिंबल के तौर पर ....अब लगभग हर कमरे में ए.सी है...अकसर दुलारी यही सोचा करती है कईं बार बैठी बैठी कि अब इस के आगे बढ़ती गर्मी से टक्कर लेने के लिए लोग क्या करेंगे...

अभी दुलारी अपनी पुरानी यादों की संदूकची खोल कर बैठी ही थी कि उस के कानों में रिंकी की आवाज़ पड़ी ...मॉम, मैं ज़रा पार्लर हो कर आ रही हूं ...थोड़ा वक्त लगेगा...

ड्राईवर, तुम ने दूसरी गाड़ी का ए.सी ठीक करवाया कि नहीं अभी। 

हां, मैम, कल ही गाड़ी गैरेज पर छोड़ी है, तीन चार दिन लगेंगे ..

ठीक है, उसे कहो जल्दी करे, इतनी गर्मी में बिना ए.सी की गाड़ी के निकलना अपना दिन और मूड खराब करने जैसा है ..

ठीक है, मैम, करता हूं कुछ ...

मिसिज़ खन्ना पार्लर के अंदर चली गईं...और ड्राईवर ए.सी लगा कर किशोर कुमार के गीत सुनने लगा...

सेल्वी, यह फेशियल तो तुम बहुत अच्छा करती हो, लेकिन अपने इस पार्लर की कूलिंग का भी तो कुछ करो...कूलिंग बढ़ाओ भई, दम घुट रहा है, मिसिज़ खन्ना में वहां के स्टॉफ को फटकार पिलाई। 

मैम, क्या करें, गर्मी ही इतनी पड़ रही है...दो दो स्पलिट ए.सी लगवाने के बाद भी यह हाल है ...पता नहीं, यह गर्मी हमें कहां ले जाएगी...

रिंकी ने फेशियल तो जैसे-तैसे करवा लिया...लेकिन पार्लर का ए.सी ठीक न काम कर पाने की वजह से उस का मूड ऑफ था..न ही उसने थ्रेडिंग करवाई , न ही मनीक्योर, न पैडीक्योर ....बस, बालों की स्ट्रेटनिंग जो बेहद ज़रूरी थी, वह करवाई और वापिस घर लौट आई...रास्ते में एक जगह मटके बिक रहे थे तो ड्राईवर को कह कर एक मटका खरीद कर कार में रख लिया...दुलारी कितनी बार उसे कह चुकी थीं कि उस के कमरे की बॉलकनी में एक मटका रखवा दो क्योंकि दुलारी को फ्रिज का पानी भी नहीं सुहाता ...फ़ौरन उस का गला पकड़ा जाता है ...

घर आते ही मिसिज़ खन्ना अपने मेक-अप में लग गई, जो थोड़ा बहुत रह गया था ....क्या करे, कुछ सेमीनार होते ही ऐसे हैं....सब लोगों की निगाहें आप के ऊपर टिकी होती हैं ...आप ने क्या पहना है, आप कैसे दिख रहे हैं...यही सोच कर मिसिज़ खन्ना हर जगह अच्छे से तैयार हो कर ही जाती थीं...

दोपहर 2 बजे मिसिज़ खन्ना उस सात सितारा होटल में पहुंच गईं जहां पर वह सेमीनार था ...वाह, उस हाल की कूलिंग की बात ही क्या थी...लंच के बाद कुल्फी-जलेबी का आनंद लेते लेते स्वामीनाथन ने कहा कि सत्यार्थी तो कह रहे थे कि इस बार यह सेमीनार तो गांव में उन के आश्रम में ही होना चाहिए। 

"सठिया गये हैं, क्या सत्यार्थी जी....इतनी गर्मी में, इतनी उमस में ...हम सेमीनार में आए हैं कोई अत्याचार भोगने नहीं...अगर बोलने-बैठने में ही लोगों को दिक्कत होगी तो ब्रेन-स्टार्मिंग क्या ख़ाक होगी" कहीं पीछे से आवाज़ आई। 

खैर, चलिए, सैमीनार शुरू हुआ...मिसिज़ खन्ना की प्रस्तुति ने जैसे समां बांध दिया....ताली की आवाज़ से सारा हाल गूंज उठा...सब ने तारीफ़ की जिस तरह से मिसिज़ खन्ना ने अपनी बात को रखा...जिस तरह से उन्होंने आंकडे पेश किए और जिस तरह से रिसर्च के आधार पर सब बातें कह कर लोगों को सचेत किया...चाय ब्रेक के वक्त हर कोई मिसिज़ खन्ना की तारीफ़ों के पुल बांध रहा था..

खैर, हो गया सेमीचार अच्छा से हो गया... अगले दिन वही रुटीन ....मां के साथ चाय पीते वक्त मां ने अखबार के पहले पन्ने पर रिंकी की तस्वीर देखी तो वह खुश हो गई ...हैडिंग में लिखा था ...जानी-मानी पर्यावरणविद श्रीमति खन्ना का ग्लोबल-वार्मिंग पर प्रभावशाली व्याख्यान....इस में लिखा था कि श्रीमति खन्ना ने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के तरीके बताए....फ्लोरोकार्बन कम करने के फायदे बताए...एक कुदरती जीवन-पद्धति अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया....

दुलारी अभी पूरी न्यूज़-स्टोरी पढ़ ही रही थी कि चाय की चुस्की लेते लेते उस की हंसी ऐसी छूटी कि चाय उछल कर उस के गाउन पर छलक गई....

क्या हुआ, मॉम, बहुत हंसी आई आप को यह खबर देख कर ...

नहीं, रिंकी, कुछ नहीं, बस ऐसे ही , मां ने कहा। 

लेकिन रिंकी जानती थी कि मां की यह हंसी वह वाली हंसी नहीं थी, उस में कुछ तो अलग था ....क्या था, कटाक्ष था, थोड़ा व्यंग्य था, उपहास था ...उसे पता था कि मां अपने मुंह से कम ही कुछ कहती हैं, अपनी आंखों से बहुत कुछ कह देती हैं, फिर भी अगर कुछ छूट जाता है तो हंस कर कह देती है ...हर जज़्बात के लिए मां की हंसी मुख्तलिफ होती है ....रिंकी मां की हर हंसी का मतलब समझती है ...लेकिन जैसे मां कुछ नहीं कहती, वैसे ही वह भी चुप रहती है...लेकिन आज की खबर देख कर मां के अजीब से ठहाके ने मिसिज़ खन्ना को अपने आप से कुछ सवाल करने पर मजबूर कर दिया...