गुरुवार, 24 मार्च 2022

23 मार्च से जुड़ी चंद यादें...

कल 23 मार्च थी...रह रह कर हस्ताक्षर के नीचे तारीख़ लिखते वक्त फिरोज़पुर में बिताए अपने 6-7 बरस याद आ रहे थे...यह दिन होता था ...शहीदेआज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की अज़ीम कुर्बानी को याद करने का ...और इस दिन एक तरह से मेले की शक्ल में जनता हुसैनीवाला बार्डर पर पहुंचा करती थी..

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले..

वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा...

स्कूल की लाईब्रेरी में, अपने स्कूल के प्रिंसीपल के कमरे में, उस नाई की दुकान पर जहां हम हजामत करवाने जाते थे हर जगह में हमें भगत सिह और इन के साथियों की तस्वीरें दिखा करतीं....बहुत से लोगों के घरों मे भी गुरूओँ, पीर पैगंबरों के बीचो बीच आज़ादी के इस मतलावे की तस्वीर भी दीवार के किसी कील पर टंगी होती ...अब भगवंत मान ने यह फैसला किया कि सरकारी दफ्तरों में उस की तस्वीरें न लगाई जाएं...बल्कि बाबा साहेब डा. अम्बेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें लगाई जाएं...बहुत अच्छा लगा था उस दिन यह सुन कर और ऐसा होते देख कर भी...

भगत सिंह जैसे आज़ादी के मतलवाले के साथ मेरी मुलाकात एक किताब के ज़रिए हुई थी...मुझे जब पांचवी कक्षा में जिला स्तरीय मेरिट छात्रवृत्ति के लिए चुना गया तो डीएवी स्कूल अमृतसर के वार्षिक पारितोषिक वितरण उत्सव के दौरान मुझे तीन चार किताबें मिली थीं, उन में से एक थी ..शहीद भगत सिंह। उन दिनों घर में स्कूल-कॉलेज की किताबों के अलावा कोई किताब न होने की वजह से भी उन तीन चार किताबें में सारे घर की बहुत रूचि थी...मैंने तो उन को अच्छे से पढ़ा ही, मेरी मां ने भी उन्हें पढ़ा और हम दोनों पढ़ कर फिर उन के बारे में बातचीत भी करते थे ....तो, जनाब यह थी कि अपनी उस जांबाज़ से पहली मुलाकात..

बाद में जब हम बड़े हो गए तो यहां वहां अख़बारों में इन तीनों मतवालों के बारे में पढ़ते तो रोम रोम में ऐसे लोगों के जज़्बे के प्रति आदर की भावना पैदा होती...साथ साथ रेडियो टीवी पर भी इन के बारे में सुनते रहते....एक किताब के बारे में पढ़ा जो भगत सिहं जेल में पढ़ा करते थे ...वह किताब इंगलिश में थी, और उस की जिन पंक्तियों को भगत सिंह ने पढ़ते हुए पेंसिल से अंडरलाइन किया था, बाद में उस के ऊपर भी चर्चा हुआ करती थी...बाद में इन की जिंदगी के ऊपर बहुत सी फिल्में भी बनीं ...एक से बढ़ कर एक.....जो भी है, जिस तरह का बलिदान देश की आजादी के लिए इन वीर जवानों ने दिया वह कााबिले-तारीफ़ क्या, और किसी इनाम के काबिल क्या, इन के इस जज़्बे के आगे तो देश का एक एक बाशिंदा ज़मीन पर लेट कर नतमस्तक ही हो सकता है, इस के सिवा कुछ नहीं...अभी चंद रोज़ पहले एक खबर पढ़ी कहीं कि कुछ जगहों पर भगत सिंह को भारत-रतन जैसा कुछ अवार्ड देने की जब मांग हुई तो सरकार ने कहा कि उन का बलिदान देश के किसी भी अवार्ड से बहुत ऊंचा है ...यह बात पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। 


हां, मैं तो आप को सुबह सुबह हुसैनीवाला बार्डर लेकर जा रहा था ..मैं तो वहां पर साईकिल, स्कूटर पर भी बहुत बार हो कर आया ...यह जगह फिरोज़पुर छावनी रेलवे स्टेशन से महज़ 8 किलोमीटर की दूरी पर है ...इस जगह पर इन तीनों शहीदों की याद में एक स्मारक बना हुआ है ...और उस पर लिखा हुआ ङै कि यह वह स्थान है जहां पर इन तीनों शहीदों के पार्थिव शरीर सतलुज दरिया में अंग्रेज़ हुकूमत के द्वारा फांसी देने के बाद पानी में बहा दिए गये थे । हुआ यूं कि जो दिन इन तीनों की फांसी के लिए मुकर्रर था उस के एक दिन पहले ही इन्हें फांसी दे दी गई...क्योंकि फिरंगियों को यह अंदेशा था कि इन की फांसी के वक्त इलाके में बहुत बड़ा बवाल उठ सकता है ....फिरंगियों को जो ठीक लगता था उन्होंने किया ..लेकिन फिर भी इन की शहादत ने देश के बच्चे बच्चे के दिलोदिमाग में फिरंगी हुकुमत के लिए नफ़रत के ऐसे बीज बो दिए जो फिर आज़ादी की सुंदर बेल के रूप में ही पल्लिवत-पुष्पित हुए ....

हर रोज़ आस पास के जो लोग भी और बाहर से आने वाले टुरिस्ट भी जो हुसैनीवाला बार्डर को देखने जाते हैं वे सब शहीदेआज़म के स्मारक पर भी नतमस्तक हो कर आते हैं...मुझे वहां गये 15-16 बरस हो गये हैं ..लेकिन इस जगह को इस के बाद बहुत अच्छे से डिवेल्प किया गया है ...जिन दिनों हम वहां जाया करते थे वहां पर भगत सिंह की माता जी बीबी विद्यावती देवी की भी समाधि पर भी हम ज़रूर हो कर आते ....उन्हें पंजाब माता का दर्जा हासिल है, ज़ाहिर है कोई बड़ी बात नहीं ...सोच रहा हूं कि इस से ऊपर भी कोई दर्जा होता तो वह उस की भी हकदार थी ....लेकिन फिर ख्याल आया कि जब पंजूाब ने उस शेरनी को अपनी मां ही मान लिया तो फिर उस के ऊपर, उस से बढ़ कर क्या और रुतबा होगा ...किसी मां के रुतबे से ऊपर....🙏🙏🙏🙏🙏


भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत से जुड़े इस स्मारक जिस जगह पर बना है वहां पर हुसैनीवाला स्टेशन का खंडहर भी दिखाई देता है ...यह भारत की तरफ़ उत्तर रेलवे का आखिरी स्टेशन है ....1965 की भारत-पाकिस्तान की जंग के वक्त पाकिस्तान की तरफ़ से की गई गोलाबारी में यह क्षतिग्रस्त हो गया...और आज यह इतिहास के गवाह की तरह खड़ा है ...अभी तो वहां पर कुछ म्यूज़ियम भी बनाया जा चुका है या बन चुका है ..लेकिन जिस बात को मैं यहां लिखना चाहता हूं वह यह है कि फिरोजुपर से हुसैनीवाला बार्डर की तरफ़ अब ट्रेनें नहीं चलतीं..(हुसैनीवाला स्टेशन की दूसरी तरफ़ पंजाब का ज़िला है कसूर)....लेकिन 23 मार्च के दिन रेलवे प्रशासन द्वारा हर साल ट्रेनें चलती हैं जो लोगों को फिरोज़ुपर छावनी से लेकर हुसैनीवाला तक जाती हैं जहां पर यह स्मारक है ...और उन दिन इस ट्रेन के कईं फेरे लगते हैं...लोगों को ले कर जाने और वापिस लिवाने के लिए...मेरी भी बड़ी हसरत थी उस दिन गाड़ी में वहां तक जाने के लिए लेकिन वहीं बात कि ह़ज़ारों ख्वाहिशें ऐसीं कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ....

हां तो उस स्मारक पर नतमस्तक होने के बाद लोग फिर हुसैनीवाला भारत-पाक बार्डर पर परेड देखने जाते हैं...वहां पर बिल्कुल वाघा बार्डर जैसा मंज़र होता है ...परेड के वक्त जब दोनों देशों के जवान अपने अपने राष्ट्रीय ध्वज के सलामी करते हैं ...सैंकड़ों लोगों के हुजूम में ...इधर की तरफ़ भी, उधर भी ...फिरोज़ुपर में शहीदेआज़़म के स्मारक और इंडो-पाक बार्डर देखने के लोग बाहर से आए लोग भी इतने लालायित रहते हैं कि वे इन जगहों के दर्शन के लिए वक्त निकाल कर, प्रोग्राम बना कर ही आते हैं...मुझे याद नहीं कि हमारे फिरोज़ुपर में रहते कोई मेहमान हमारे यहां आया हो और हम उसे अपने साथ लेकर वहां न गये हों...2004 से पहले किसी आटो-वाटो में या मैं स्कूटर पर ही ले जाता था ...बाद में जब कार आ गई तो क्या बात थी....वहां जा कर पहले तो भगत सिंह और उस की साथियों और उन की माताश्री की समाधि पर नतमस्तक हो कर वे आत्मविभोर हुए बिना न रह पाते ..और इस के साथ शाम के वक्त होने वाली बार्डर पर परेड को देख कर देशभक्ति के जज़्बे से लबरेज हम लौट आते ...रास्ते में सोचते सोचते कि जिन वीर-बांकुरों ने इस लिए अपनी जानों की कुर्बानी दे दी कि हम आज़ाद देश में खुल कर सांस ले पा रहे हैं ...अब हमारी इतना तो फ़र्ज़ है कि हम ऐसा कुछ न करें जिस से उन की आत्मा को कोई कष्ट पहुंचे और इस आज़ादी पर कोई आंच आए, इस महान देश की अस्मिता के बारे में कोई भी संशय़ कर पाए...ऐसा कुछ भी न करने का जज़्बा लिए हम अंधेरा होते होते देर शाम अपने आशियानों की तरफ़ लौट आते ...

शुक्रवार, 18 मार्च 2022

कल रात खामखां हो गई अपनी धुनाई...

बंबई के लोकल स्टेशन का प्लेटफार्म -- बहुत भीड़, हर एक को जल्दी, इतने में अंधाधुंध चल रही किसी महिला का हाथ मेरे हाथ से छू गया...मेरी कोई गलती न थी, लेकिन जब वह रूक गई और मेरी तरफ़ गुस्से से देखने के लिए ज़रूरी गुस्सा अभी बटोर ही रही थी कि मैंने उस के आगे दोनों हाथ जोड़ दिए ...यही कि मेरा कोई कसूर नहीं ...लेकिन उसने तब तक मुझे बुड्ढे कह कर ज़ोर से एक या दो (अब वह याद नहीं) तमाचे मेरे चेहरे पर जड़ दिए....मुझे तब भी यही लगा कि अब यह बिना बात की बात यहीं पर खत्म हुई ...लेकिन नहीं जी, उस गुस्सैल औरत ने झट से अपनी जूती उतारी और मेरे सिर पर दो तीन दनादन मार दी ....लेकिन अब मेरा बर्दाश्त का मादा हो गया ख़त्म .......आगे क्या किया? .....मुझे पता है आप भी आगे का आंखों देखा हाल जानने के लिए मरे जा रहे हैं कि देखते हैं, इस साले की आगे क्या हालत हुई ...बड़ा लेखक बना फिरता है, हो गई न छित्तर परेड....(कुछ तो यह भी सोच रहे होंगे कि किया होगा इस ने कुछ न कुछ, यूं ही थोड़ा कोई हाथ में जूती उठा लेता है)...चलिए, आप जो भी समझना चाहें, समझते रहिए लेकिन आगे सुनिए....दो तीन जूतियां जैसे ही मेरे सिर पर पड़ी, जनाब, मेरी नींद टूट गई ...

जी हां, मुझे यह सपना कल देर रात या आज सुबह आया ..वक्त का मुझे पता नहीं, क्योंकि मैं इतना थका हुआ था कि सपना टूट गया ...सपने में हुई लित्तर-परेड (इस काम के लिए पंजाबी का एक ढुकवां लफ़्ज़) पर हैरानी या रोश दिखाने की भी फुर्सत न थी, मैं थका हुआ था...अब वैसे भी गर्मी हो गई है...सपना टूट गया, लेकिन मेरी नींद न टूटी...इसलिए आज अभी पौने नो बजे के करीब उठा हूं ...चाय पीते पीते यह सपना जब श्रीमती जी को सुनाया तो वह भी हैरान ...ऐसा सपना आप को !! आप को तो इस तरह का सपना नहीं आना चाहिए!!

जिस तरह के काम के लिए मेरी छितरोल हो गई ..,सपने में ही हुई चाहे...लेकिन इस तरह के जुड़े किसी भी काम के लिए मेरी रूचि अब इस उम्र में तो क्या होगी, तरुणावस्था और यौवनावस्था ही से हमें यही समझाया गया जो बात हमारे दिलो-दिमाग में बैठ भी गई कि नारी श्रद्धेय है जैसे कि महात्मा गांधी ने विदेश जाते वक्त अपनी मां को वचन दिया था ....(वैसे महात्मा गांधी का और मेरा जन्मदिन भी एक ही तारीख को है...2 अक्टूबर) ...

खैर, सपने तो सपने होते हैं ...लेकिन कईं बार हिला देते हैं...वैसे मेरे इस सपने के बारे में आप लोग भी ज़्यादा दिमाग पर ज़ोर न डालिए...और न ही किसी तरह के मनोविश्लेषण की ज़हमत ही उठाएं...कुछ हासिल न होगा...मुझे लगता है कल रात बांद्रा स्टेशन पर रात 10 बजे के करीब एर वाकया हुआ...जिसे मैंने देखा और कहीं न कहीं वही सपने में किसी दूसरी शक्ल में आ धमका। एक 20-25 बरस की युवती थी ...वह ऊंचा ऊंचा बोल रही थी, और किसी को कह रही थी कि तुमने मेरे मुंह पर इतना कस के थप्पड़ क्यों मारा, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ..अभी तक मेरे कान से गर्म हवा के साथ साथ खून निकलने लगा है .......खैर, वो दो औरतें थीं और दो मर्द, शायद वह स्टेशन के बाहर ही रहते थे ..मैं देख रहा था वह औरत स्टेशन के बाहर खड़े सिपाही के पास भी गई ...लेकिन उसने भी उसे स्टेशन से दूर रहने का इशारा कर दिया... लेकिन दूसरी औरत भी कुछ गालियां बके जा रही थी....माजरा कुछ समझ में आया नहीं ...मुझे यह देख कर बहुत बुरा लगा कि बंबई जैसी महानगरी में भी कुछ महिलाओं के हक-हुकूक कहां हैं ...सभी के हकों की हिफ़ाज़त तो होनी ही चाहिए...हर महिला एक सम्मान है ...किसी एक के हक किसी दूसरी महिला के हक से ज़्यादा ज़रूरी या कम ज़रुरी नहीं होते ...

कहां यह किताब, कहां वह सपना..😂
बस कल रात सोते सोते यही बातें दिल में चल रही होंगी ..चाहे किताबें तो मैं बहुत अच्छी ही पढ़ रहा था ...लेकिन फिर भी पता नहीं कल सपने में धुनाई होना जैसे मेरी तक़दीर में ही लिखा था...लेकिन हां, इस सपने को अपने ब्लॉग में दर्ज करना तो मेरे हाथ में ही था, मैं चाहता तो इसे न भी बताता...लेकिन एक लेखक का दिल माना नहीं ...दिल ने कहा कि अगर तुुमने इस का छिपा दिया...किसी भी वजह से ..तो मतलब लिखते वक्त तू अभी भी डरता है ..लिख दिया कर, जो घटित होता है ...किसी भी आंखोदेखी और ख़्वाब में देखी बात को लिख कर आज़ाद हो जाया कर...बेकार का बोझ क्यों उठाए फिरता है ..और स्टेशन पर तो तूं ही है जब लोगों को भारी भारी बोझ उठाए देखता है तो मन ही मन कितना हंसता है तू...फिर किसी तरह को बोझ अपने दिमाग पर रखने से क्या हासिल! 

दुनिया की तो ऐसी की तैसी ...कुछ तो लोग कहेंगे ........और जो तुम्हें जानते हैं, तुम से वाक़िफ़ हैं, उन्हें तुम्हारे बारे में और तुम्हें उन के बारे में सब पता होता है ...(वैसे न ही कुछ पता हो तो क्या फर्क पड़ता है, वे भी क्यास लगाते रहें तो भी क्या) ...और जो जानते नही हैं, उन से वैसे ही क्या फ़र्क पड़ने वाला है.....लेकिन हां, एक बात जो मैं ऊपर दर्ज करना भूल गया कि सपने में जिस वक्त मेरी जूती-परेड हो रही थी तो उस वक्त मुझे उस का दर्द कितना था, कितना न था, यह नहीं पता मुझे...क्योंकि मैं तो उस वक्त भी अपने आसपास यही देखने में मसरूफ था कि मुझे कोई पहचानने वाला तो नहीं ..और कोई वीडियो तो नहीं बना रहा ...खैर, यह वाक्या इतना लंबा चला नहीं...लेकिन मुझे इस बात की बड़ी राहत मिली कि जैसे कि बंबई की भीड़ के बारे में देखते-सुनते हैं ..यह भीड़ ही किसी ऐसे मनचले को वहीं के वहीं पेल देती है अच्छे से....लेकिन मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा ....आह! कितना सुकून मिला मुझे उस वक्त भी ...कि चलिए, बंबई की पब्लिक ने तो हाथ नहीं उठाया.....

चलिए, इस बात को यहीं विराम देते हैं ...हां, सपने की बात चली तो सपनों से जुड़ी कुछ बहुत ही खट्टी मीठी यादें उमड-घुमड कर आ रही हैं कि हमें भूल गए,...नहीं, भई, कुछ भी नहीं भूला ...सब याद है ..लेकिन लिखूंगा किसी दूसरी पोस्ट में ...क्योंकि यह पोस्ट लंबी हो रही है ..वैसे भी मेरे कुछ पाठक मुझे कहने लगे हैं कि डाक्टर साहब आप के लेख लंबे होते हैं...फुर्सत से पढ़ने वाले होते हैं...यकीनन वाट्सएपिया पोस्टों के इस्टैंट दौर में ये लेख तो लंबे दिखेंगे ही..

चलिए, अब आप होली मनाईए...शुभ दिन है ...मेरे लिए तो होली का मतलब यहीं तक है कि गुजिया और मिठाई खानी है, न मैं किसी को रंग लगा के राज़ी हूं और न ही मुझे पसंद है कि कोई मुझे रंग लगाए...अब जैसे हैं वैसे हैं...क्योंकि फ़िज़ूल में नौटंकी करता फिरूं उन लोगों के साथ जिन के साथ 364 दिन कोई वास्ता नहीं होता, कोई जान पहचान नहीं, कोई जीने-मरने तक की कोई सांझ नहीं ...और अचानक 365 वें दिन आप उन के साथ रंग गुलाल  खेलने लग जाएं....इस के बारे मे आप की राय अलग हो सकती है, लेकिन मेरी जो है, अब 60 साल की उम्र में वही रहेगी...बुरी या अच्छी, अब उम्र की इस दहलीज पर कोई परवाह नहीं होती (अगर किसी की जानिब से मेरा कुछ बिगड़ना बाकी रह गया हो तो सोचता हूं उसे भी बिगड़ी हालत में देख ही लूं, यह सोचता हूं अकसर)...मस्त रहिए... और जाते जाते खुशियों से भरा एक होली का गीत सुन लीजिए... पांच छः साल पहले हम लोग होली वाले दिल गोवा में थे, वहां के एक बीच के किसी होटल जैसी जगह पर यह गीत बज रहा था जिस की धुन पर फिरंगी थिरक रहे थे ...

होली है....बुरा मत मनाईए, अपने सपने को मैंने हु-ब-हू सच लिखा है, बिल्कुल सच ....सच के सिवा कुछ नहीं...लेकिन सपना तो ऐसा था कि मेरा सिर भारी कर के चला गया...अभी भी भारीपन चल ही रहा है...


और यह शोले फिल्म का होली वाला गीत भी बेहद पसंद है क्योंकि इसे सुनते हुए मुझे वही 45-50 साल वाले दिन - 1975 का दौर रह रह कर याद आने लगता है ...इस तरह के गीत देखते-सुनते वक्त यही समझ में ही नहीं आता कि काबिलेतारीफ़ दरअसल है कौन...हीरोईन, हीरो, या एक्सट्रा आर्टिस्ट, निर्देशक, नृत्य-निर्देशक, गायिका, इस तरह के गीत लिखने वाला, संगीत निर्देशक...किस की तारीफ़ करें, किस की न करें.....असल बात यह है कि ये सभी लोग काबिले-तारीफ़ हैं क्योंकि अगर इन में से एक ने भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से न किया होता तो इस तरह का शाहकार रचा न जाता ....सुनिए, आराम से सुनिए....और जाइए...जिस किसी को रंग मलना-मलाना है, उस काम से भी फ़ारिग हो आइए.....हम भी लगाते थे आपस में जब तक मां थी, घर में सब उन के चेहरे पर रंग लगाते थे तो वह बहुत हंसती थी ...कहती थीं कि शगुन तो करना ही चाहिए....बस, जब से मां गई काहे के शगुन...काहे का फागुन....😎


छपते छपते ....जिन दिनों हम छोटे थे तो अखबार के किसी कोने में एक जगह रहती थी ..छपते छपते...इस का मतलब होता था कोई ताज़ा तरीन खबर जिसे बस मुख्तसर सा लिख दिया जायेगा क्योंकि वह अभी ही मिली है। तो इस पोस्ट को बंद करने के दो तीन घंटे बाद मैं भी उस छपते-छपते वाले अंदांज़ में लिख रहा हूं ..कि येप्टो से कुछ सामान मंगवाया था...लेकिन उन की तरफ़ से एक होली का गिफ्ट हैंपर भी मिला है ...जिस में कोल्ड-ड्रिंक्स के साथ साथ गुलाल का एक पैकेट भी था....ज़ाहिर है हम ने भी उस गुलाल का सही इस्तेमाल कर लिया है ...शुक्रिया, तुम्हारा भी ...येप्टो....अब हम तो कहां जाते रंग वंग खरीदने ...आपने हमारी होली में भी रंग भर दिए... 🙏

शनिवार, 12 मार्च 2022

फ्रिज के नफे-नुकसान - 3. हमारे घर में फ्रिज आने के बाद

मैंने भी टॉपिक इस बार ऐसा चुन लिया है कि ख़त्म ही नहीं हो रहा...मुझे बोरियत भी तो बहुत जल्दी होने लगती है...चलिए, यह इस टॉपिक की आखरी कड़ी है...अभी सोच रहा था कि मैं यह सब लिख क्यों रहा हूं, अपने आप से यूं ही पूछ बैठा तो दिल ने वही जवाब दिया कि गुज़रे दौर के वक्त की कुछ बातों को अपनी यादों की संदूकची में सहेज कर रखना होता है ...कोई पढ़े न पढ़े यह उस का मसला है लेकिन जब तुम खुद इसे पढ़ोंगे तो वे सारे दिन तुम्हारी आंखों के सामने आ जाएँगे..वैसे भी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ तो लिख कर जाना चाहिए...उन्हें यह भी तो पता चलना चाहिए कि लोग जीते कैसे थे, उनमें कितना सब्र था, कैसे मिलजुल कर रहते थे ..वगैरह वगैरह ....और हां कितना ही साधारण लिखा हुआ हो (जैसा कि मैं लिखता हूं, मुझे इस बारे में कोई ख़ुशफ़हमी नहीं है) आने वाले वक्त के लिए वह दस्तावेज़ ही होता है ...अभी हमें लग सकता है कि यार, यह भी क्या लिखनी वाली बाते हैं....लेकिन किसी को कुछ भी लगे ...लेकिन सच्चाई तो यह है कि दिल की बातें कागज़ पर लिख कर खुले बांटने से लिखने वाला आज़ाद हो जाता है ...जब इस तरह का बोझ दिल से उतरता है तो उस से जो राहत मिलती है, यह वही जानते हैं जो बिना किसी बात की परवाह किए बिना लिख देते हैं दिल की तहों में बैठी हुई बातों को ...

पढ़ने वालों को कुछ पता नहीं कि लिखने वाले के साथ क्या बीती, उसने जैसे तस्वीर पेंट करनी है, पाठकों ने उसे ही तो पढ़ना है, उन के पास लिखने वाले की बातों को तसदीक करने का कोई ज़रिया भी तो नहीं...जैसे कि अगर मैं यह बात न लिखूं कि हमें हमारा पहला फ्रिज हमारे चाचा ने 3800 रूपये में दिलाया था...1976 में तो पढ़ने वालों को इस तरह की बातें कहां से पता लगेंगी...लेकिन अगर मैं सच सच बात नहीं कहूंगा तो फिर यह सब लिक्खा-पढ़ी का फायदा ही क्या, चुपचाप मुझे भी सुबह सुबह नेटफ्लिक्स खोल कर बैठ जाना चाहिए...वह मेरी सेहत के लिए बेहतर होगा इस की तुलना में कि मैं झूठ को दबा दूं और या बातों पर सच को ही तोडता मरोड़ता फिरुं...

हां तो सुनिए जनाब हम लोगों के यहां 1976 की गर्मियों के दिनों में फ्रिज आ गया...मैं आठवीं कक्षा में था, हम अमृतसर में रहते थे और यह केल्वीनेटर का फ्रिज हमें चाचा ने भिजवाया था...केल्वीनेटर का फ्रिज था ..शायद यही 165 लिटर का था ...अमृतसर की किसी दुकान से नहीं, दोस्तो, यह सीधी दिल्ली से हमारे यहां आया था...

ऐसा क्या कारण था कि फ्रिज हमारे यहां पर पहुंच गया...उस का कारण जो उन दिनों हमारे कानों में पड़़ा था आप भी सुन लीजिए...बहन की शादी दिसंबर 1975 में हो गई थी, वह मेरे से दस साल बड़ी हैं...अब हमारे सगे-संबंधियों को लगने लगा कि जम्हाई राजा आएंगे तो घर में फ्रिज तो होना ही चाहिए। वैसे भी घर के जम्हाई राजा के घर में फ्रिज था और ज़ाहिर सी बात है उन्हें उस की आदत तो होगी ही..। हां, एक बात और याद आ गई, फ्रिज का होना घर में एक स्टेट्स सिंबल हुआ करता था उस दौर में ...रिश्ते तय करते इस बात का भी ख्याल रखा जाता था ...मामा के भिजवाए उस पोस्ट कार्ड को मैं कैसे भूल सकता हूं...मैंने खुद पढ़ा था ...बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं, मैं उदास था मन ही मन में कि बहन इतनी दूर चली जाएंगी...खैर, पिता जी ने अजमेर के पास रह रहे मेरे मामा जी को चिट्ठी लिख भेजी कि ऐसे ऐसे रिश्ते की बात चल रही है, जयपुर जा कर लड़के का घर-बाहर देख कर आ जाओ, फिर देखते हैं, फैसला करते हैं। तो ली, मामा का पोस्ट कार्ड मिल गया...हो आया हूं, जीजा जी, उन के घर। कोठी भी ठीक है और घर में फ्रिज भी पड़ा है। चलिए जी, बात पक्की हो गई।

हां तो इस के बाद 1976 में हमारे यहां फ्रिज आ गया...बड़ा रोमांचक मंज़र था घर में फ्रिज का आना...किस तरह से एहतियात से उस की पैकिंग खोली गई...कुछ कुछ याद तो है ...अरे वाह, बर्फ जमाने का जुगाड़ भी, और सब्जी-अंडे ऱखने का प्रावधान भी, अब आम ठंडे कर हम तक पुहुंचेंगे ...और कांच की बोतलों में ठंडा ठंडा पानी पिएंगे...मुझे याद है अच्छे से हमें ..नहीं मुझे (दूसरों के दिल की वे जानें) तो ऐसे लग रहा था जैसे हमारे यहां कोई बड़ी खतरनाक चीज़ आ गई है जिस की हिफ़ाज़त अब करनी होगी..आस पास के घरों के कुछ लोग तो देखने आए थे ..खास कर के बीजी की सहेलीयां ... सच में बड़े प्यार से रहती थीं सब के साथ...मैंने कहा न कि हमें मारना तो दूर, हमने उन्हें ज़िंदगी में अपने मोहल्ले में किसी के साथ उलझते नहीं देखा..हरेक के साथ मिल जुल कर रहतीं...खैर, अब उस का इस्तेमाल होने लगा ..मुझे इस वक्त ख्याल आ रहा कि उस फिज ने हमारी तो क्या हमारे अड़ोस-पड़ोस वालों की भी ज़िंदगी बदल दी...शुरू शुरू में कोई बर्फ जमाने के लिए पानी से बड़ा बर्तन दे जाता, कोई पानी ठंडा रखने के लिए प्लास्टिक की कैनी दे जाता ..उन्हें बस इतना कहना पड़ता कि इतनी बड़ी कैनी इस के अंदर आ नहीं पाती, छोटी ले आइए...हां, मुझे अच्छे से याद है कि कोई गूंथा हुआ आटा जो बच जाता उसे एक बर्तन में डाल कर दे जाता फ्रिज में रखने के लिए....कभी कभी कोई फ्रीजर में आईसक्रीम जमाने के लिए दे जाता ....लेकिन आस पास के तीन-चार घर ही थे जो ये सेवाएं लेने आते थे ...

इस वक्त सोच रहा हूं कि अब यह दौर है जिस बिल्डिंग में रहता हूूं किसी से बोलचाल तो दूर एक बंदे को भी शक्ल से नहीं जानता किसी के मरने-पैदा होने तक की कोई सांझ नहीं है...वक्त बदल गया है, पहले लोगों में सहनशीलता बहुत थी..छुपाने को था ही नहीं..अब हर कोई अपनी स्पेस के लिए पागल हुआ फिर रहा है ...अब देखिए कि फिज में इस तरह से चीज़ें ऱखने आना,फिर लेने आया, फ्रिज वाले रईसों का हंसते हंसते यह सब काम करना, हरेक के बर्तन का ख्याल रखना कि किस का कौन सा है .....खैर, कईं बार हमें घर में बैठे यह हंसी भी आने लगती कि यार, यह तो यार काम बढ़ा लिया...लेकिन मां-पिता जी के चेहरों पर इस तरह का काम बढ़ जाने की वजह से कोई शिकन न देखी...जब कभी फिज में जगह न होती तो उन्हें किसी को ऐसा कहना भी अपराध-बोध करवा जाता ..हम सब देखते थे ..

खैर, हमारे भी मज़े हो गए..पानी फिज का मिलने लगा..मटकों को हम भूलते चले गए....उस का हमें अब कभी ख्याल भी न आता ...घर में बनी आइसक्रीम भी खाने को मिलने लगी, वाह, क्या स्वाद था उस का..और कस्टर्ड-जैली तो खूब बनता था पहले भी..लेकिन अब तो फ्रिज में ठंडा किया हुआ मिलने लगा...आम....खरबूज़े...मैं नहीं जानता कि वे किस ख़ालिस होते होंगे कि फ्रिज खोलते ही उस के अंदर से जो ठंडी ठंडी, मीठी महक आती तो हम जैसे कश्मीर की ठंडी वादियों का ही आनंद ले लेते...

जैसे कि हर नई चीज़ के साथ होता है,...धीरे धीरे, कुछ ही दिनों में लोगों का अपना बचा हुआ आटा, सब्जी, पानी, आईसक्रीम फ्रिज में रखने के लिए आना कम होता चला गया...शायद कुछ और पड़ोसीयों के घर में फ्रिज उनकी भी दुनिया बदलने आ गया...

लेकिन फ्रिज वाले घर में भी शेखी इस बात की भी बघारी जाती कि कुछ बाशिंदे फ्रिज का ठंडा पानी नहीं पीते, क्योंकि यह उन का गला पकड लेता है, लेकिन पिता जी जब कभी देर शाम या रात के वक्त एक दो लवली पैग मारते फ्रिज से निकले आईसक्यूब डाल कर तो मुझे बड़ा अच्छा लगता ...वे उस गिलास में जिस अंदाज़ से दो चार आईस के क्यूब बड़े इत्मीनान से फैंकते, वह देखना ही मुझे पसंद था ..चाहे वह काम मैंने अब तक की ज़िंदगी में एक बार नहीं किया ...कभी इच्छा ही नहीं ...खाने-पीने वाले सारे खानदान में मैं ही कैसे बच गया..मुझे भी पता नहीं ..मेरी मां से मेरी चाचीयां हंसते हंसते कभी कहतीं कि बहन जी, यह कौन सा धर्मात्मा पैदा कर दिया आप ने ....मां भी कह देती कि जब यह होने वाला था तो मैं रामायण खूब पढ़ा करती थीं, उसी का असर होगा... हा हा हा हा हा हा ...

यहां यह लिख दूं कि मुझे कभी भी दारू पीने की इच्छा नहीं हुई क्योंकि पैथोलॉजी की हमारी प्रोफैसर हमे ंइतना अच्छा पढ़ाती थीं कि क्या कहूं ...यही कोई 18 साल की उम्र रही होगी...एक दिन वह लिवर पर अल्होकल से होने वाले दुष्प्रभाव हमें समझा रही थीं, उन की पैथोलॉजी....बस, उस दिन यह फैसला हो गया कि यह चीज़ तो छूने लायक नहीं है ...और नहीं छुई...घर में भी सब को मना करता था लेकिन कभी किसी ने नहीं मानी..खैर, उस पिटारे को अभी बंद रखते थे, बाद में कभी इच्छा हुई तो उसे भी खोल बैठेंगे, लेकिन अभी तो फिज वाला पिटारा तो समेट लें पहलें...

हां, तो फ्रिज का मज़ा ले तो रहे थे लेकिन मुझे नहीं याद कि कभी मां ने उसमें रखे हुए आटे की रोटी हमारे लिए बनाई हो या कोई बासी सब्जी हमेंं खिलाई हो, सच में मैं पूरी ईमानदारी से इस बात को यहां दर्ज कर रहा हूं कि मुझे नहीं याद, लेकिन इतना पक्का है कि हिंदोस्तान की हर मां जैसी ही तो थी, खुद खा लेती होगी...हमें कहां उस वक्त इस बात की यह फ़िक्र थी कि किसने बासी खाया और किसने ताज़ा..हम अपने नशे में चूर थे....पढ़ने-लिखने-उछल-कूद वाले सुरूर में...

हां, एक बात तो लिखनी भूल गया ...जब फ्रिज आया तो उस के नीचे एक चौकी भी आई थी शायद ...अच्छे से याद नहीं है ..लेकिन फ्रिज को शुरू शुरू के कुछ महीने तो बड़े संभाल कर इस्तेमाल किया जाता रहा। उस में एक चाभी भी लगती थी लेकिन उस ताले को लगाने का तो कोई मक़सद हमें नहीं लगा...हां, एक बात और जब कभी फ्रिज का बल्ब फ्यूज़ हो जाता तो बड़ी सिरदर्दी सी हो जाती ..खैर, उसे तो बदलवा ही लिया जाता ...और हां, अमृतसर की हमारी कॉलोनी में बिजली भी तो कितने कितने समय तक गुल रहती थी ...पानी ठंडा पीने को नहीं मिलता था, एक बात ..लेकिन बर्फ भी नहीं जम पाती थी और जम थोड़ी बहुत जमी हुई होती वह पिघल जाती ...

हां, यह वह दौर था जब फ्रिज के ऊपर प्लास्टिक का एक रेडिमेड कवर भी डाल कर रखा जाता था ताकि उसे ज़्यादा दाग-धब्बों से बचा कर रखा जा सके... ताकि मैल न जमने पाए उस पर ...अभी यह वाक्य लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि फ्रिज के हेंडल के लिए भी तो एक अलग कवर हुआ करता था ताकि घी वाले हाथ उस के हेंंडल पर न लगें...और फ्रिज में बर्फ जमाने के लिए उन दो एल्यूमीनियम की ट्रे के अलावा किसी भी स्टील के डिब्बे में, छोटे पतीले में बर्फ जमा लेते थे ...उस सारी बर्फ को एक केंटर में डाल कर पानी भर लेते थे ..सारा दिन वही पानी पिया जाता ..क्योंकि तब तक इतनी अकल आने लगी थी कि यह बार बार कांच की, प्लास्टिक की बोतलें फ्रिज में रखना, निकालना, और भरना ...भी एक छोटी मोटी सिरदर्दी तो थी ही ..और यह सिरदर्द घर की गृहिणी के हिस्से ही आता था ...इसी बात पर मन ही मन हिंदोस्तान की हर गृहिणी के लिए तालीयां बजा दीजिए....यह अद्भुत है...सच में अद्बुत ...जिसे बस दूसरों के लिए ही जीना आता है, कभी अपना ख्याल नहीं रखा, न खाने का, न पहनने का ...जिस वक्त देखो चक्की की तरह पिसती रहती है ...वैसे यह कोई सेलिब्रेशन की बात भी नहीं है ..यह बदकिस्मती भी है एक तरह से ...जो सारे कुनबे को पाल देती है ...और किसी के पूछने पर इतनी सहमी-सिमटी सी कह देती हैं कि हम तो गृहिणी हैं, किसी काम की नहीं है........नहीं, यही सोच बदलने की ज़रूरत है ... इसीलिए मुझे ये जो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विवस भी कॉस्मेटिक सी बातें लगती हैं...दुनिया की नहीं तो कम से कम इस मुल्क की हर औरत की ज़िंदगी भी कुछ बदले तो बात बने ...चलिए, यह तो एक बिल्कुल अलग मुद्दा है ..छोडिए...

हां, अब यह निबंध लिखते लिखते मुझे यह लगने लगा है कि इस की एक किश्त और होनी चाहिए...अभी तक आपने पढ़ा कि हमारे यहां फ्रिज तो आ गया, किस हालात में आया, उसने हमारी और आसपास वालों की ज़िंदगी कैसे बदल डाली, मैंने आप के सामने उतना दिल खोल दिया जितना डाक्टर त्रेहन कहते हैं...लेकिन फिर भी ज़िंदगी इतनी भी न बदली फ्रिज की वजह से क्योंकि उसमें पानी, छाछ, बर्फ, दूध, घर का तैयार किया हुआ मक्खन, और एक दो मौसमी फल रखने के अलावा कुछ था ही नहीं ...क्योंकि इतना ही खरीदने के पैसे थे, बाकी अऩाप-शनाप खरीदोफ़रोख्त को हम जान भी पाते तो कैसे जान पाते ....उस के लिए पैसे चाहिए होते ...लेकिन आज सोच रहा हूं कि यही हमारी खुशकिस्मती थी बेशक ...क्योंकि इसी के रहते हमने सुथरा खाया, सेहतमंद खाया, ताज़ा खाया हमेशा और वही आदतें हमेशा के लिए हमारे साथ हो लीं... 

अब एक बार फिर आप के सामने हाज़िर हो कर यह बताऊंगा कि यह जो केल्वीनेवर फ्रिज हमारे यहां 1976 में आया ..यह कैसे 25-30 बरस तक हमें अपनी सेवाएं देता रहा ....मां पिता जी के पास रहा ...और कैसे फिर उस के बाद हमारे पास इतने पैसे हो गए कि हम लोगों ने अपने फ्रिज को एक स्टोर बना दिया, हम उसमें दुनिया भर की चीज़ें ला ला कर रखने नहीं, ठूंसने लगे, एक चीज़ रखते तो दूसरी गिर जाती 😂😂...जी हां, इस के बारे में बातें अगली पोस्ट में ...हमारे एक बहुत वरिष्ठ अधिकारी ने मेरी पिछली पोस्ट में यह लिख भेजा कि सच में अब तो फ्रिज को हम लोगों ने स्टोर ही बना दिया है ...उन्होंने बिल्कुल सही फरमाया....अब इस आधुनिक स्टोर पर तो एक पोस्ट लिखनी बनती है कि नहीं, मित्तरो.....बनती है 😄😄😄😄..बेशक बनती है .. 

अब गाना कौन सा सुनाऊं आप को ...अपनी पसंद का तो रोज़ सुनाता हूं...चलिए, आज मां की पसंद का सुनते हैं...मैं बहुत छोटा था तो एक दिन मां अपनी सखी-सहेलियों के साथ तलाश फिल्म देख कर आई ..कईं दिन तक मां उस फिल्म की तारीफ़ करती रही...बलराज साहनी के किरदार की, शर्मिला टैगोर के रोल की तारीफ़ ....बहुत बरसों बाद भी जब हम पूछते कि बीजी, आप बताओ आप को कौन सा गाना पसंद है तो वह उसी फिल्म तलाश का वह गीत याद करतीं....लीजिए आप भी सुनिए... वैसे तो दस लाख एक फिल्म आई थी जिस का गाना था, गरीबों की सुनो, वह तुम्हारी सुनेगा, तुम एक पैसा दोगो वो दस लाख देगा....यह भी गाना मां को बहुत अच्छा लगता था ...