बोरीवली नेशनल पार्क के बारे में कल सुबह जब मैं लिखने बैठा ...लिख तो दिया ..लेकिन दिन भर यही लगता रहा कि बोरीवली नेशनल पार्क जैसे नैसर्गिक स्थल के बारे में बस इतना ही ...यह तो तूने रीडर्स को एक ट्रेलर दिखा दिया...जिस जगह पर जाने के लिए तुम बरसों बरस तरसते रहे - और वह भी खामखां ही ...इतना सुगम रास्ता, शहर के बीचोंबीच एक जंगल होते हुए भी तुम वहां लगभग 25 बरस बाद गए...जिस जगह पर 2-3 घंटे बिताए ...और वहां से बाहर आने की इच्छा ही नहीं हो रही थी, उस के बारे में बस इतना ही कपिल देव जैसे ब्लेड के बारे में कहता है कि पालमोलिव दा जवाब नहीं, तूने उसी तर्ज़ पर यह कह कर अपनी बात कह दी ...बोरीवली नेशनल पार्क दा जवाब नहीं..(इस लिंक पर क्लिक कर के आप पढ़ सकते हैं...)
रह रह कर मन में यह ख्याल भी आता रहा कि वैसे तो मुझे शहर के फुटपाथ नापते वक्त अगर कोई कान सफाई करने वाला कारीगर भी दिख जाता है तो मैं उस का भी पूरा तवा लगा देता हूं लेकिन बोरीवली नेशनल पार्क जैसे स्वर्ग के लिए तेरे पास बस कहने को इतना ही है! यही ख्याल आ रहा है कि लिखने वाले का मक़सद होता है कि पढ़ने वाले को इस हद तक मुतासिर करना कि वह भी वहां जाने का प्रोग्राम बना ले कम से कम अगले इतवार का - उससे पहले उसे छुट्टी लेने में दिक्कत है भी कोई अगर ...
सब कुछ तो लिख रखा है ..क्या है न बाहर से आने वाले लोगों को कुछ भी लिखा हुआ पढ़ने की बहुत उत्सुकता रहती है ...सुरेंद्र मोहन पाठक दो साल पहले मिले - 300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...बता रहे थे कि उन्हें शुरू ही से पढ़ने का इतना शौक था कि जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उस लिफाफे को भी पढ़ कर फैंकते थे ...
मराठी इतनी मुश्किल भी नहीं...जितना समझ में आ जाए, ठीक है, बाकी तुक्के लगा लीजिए...पेपरों में तो लगाते ही रहे हैं हम लोग ...
पार्किंग के रेट थोड़े ज़ाज़ती लगे ...और भी विदेशी सैलानियों के लिए अलग रेट ... क्या ऐसा करना ज़रूरी है....मैं तो अमेरिका के बाग-बगीचों में गया, अलग रेट की तो बात छोड़िए, कोई टिकट ही नहीं थी वहां ...
ज़रूरी बात है...फोटो पर क्लिक कर के पढ़ लीजिए...
अरे वाह...कमाल है..फिर भी हमें यहां आने की बजाए आलस की चादर ओड़े पड़े रहना क्यों इतना भाता है
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पढ़ लीजिए, डरिए नहीं...
अच्छा, तो यह बात है!!
बड़ी उम्र के लोग इस तरह के पंगों में पड़ते कम ही दिखते हैं....कल देखा तो बहुत अच्छा लगा ..इच्छा तो मेरी भी हुई ...लेकिन फिर वही ख्याल आ धमका ..लोग क्या कहेंगे!!😎
लीजिए, यह भी है अगर आप कुदरत से बिल्कुल भी वाकिफ़ नहीं है ...आप एक बार यहां पधारिए तो ...
तितलियों के बारे में जान कर तबीयत रंग-बिरंगी हो गई ...
यह वाली मराठी थोड़ी मुश्किल लगी ...कोई बात नहीं, बाद मे एक युवती को देखा को जो एसएलआर कैमरे की मदद से तस्वीरें ले रही थी ..
किस ज़ाविए से आप को लगता है कि यह तस्वीर मुंबई की होगी...इतनी हरियाली, रोशनी और सूरज देवता के साक्षात दर्शन
बाबा, मैं तो आप का मुरीद हो गया..आपको भी अपने फेफड़ों में इतनी हवा भरते देख कर मुझे पहुंचे हुए योगियों का ख्याल आ गया....इस ऑकसीजन की कमी ही तो थी कोवि़ड के दूसरे चरण में जिस ने लोगों को तड़फा तड़फा कर मौट के घाट उतार दिया....करिए, आप करते हुए, खुशी हुई आप को देख कर .. एक गीत भी याद आ गया.....चलती है लहरा के पवन कि सांस सभी की चलती रहे...
आंखों में समेट लेने के लिए इतने दिलकश नज़ारे.....लेकिन फोटोबाज़ी से मुझे जैसे को फ़ुर्सत मिले तभी तो कुछ और सहेंजें......बस, वही कुछ सहेज पाया जिसे कैमरे की आंखों ने देखा ..
घुटने वुटने का दर्द भी तो दर्द ही है ...मैं भी तब तक चलता रहा जब तक घुटनों ने इजाजत दी ..फिर जब लगा कि अब घुटनों को इस से आगे मत घसीट, लफड़ा हो जाएगा ...मैं भी वापिस हो लिया ... क्या करें, शरीर के साथ किसी तरह की जबरदस्ती कहां चलती है, वह हम लोगों से चला लेने की घोर मूर्खता कर बैठते हैं बस...
धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी ........लेकिन अभी बोटिंग का वक्त नहीं हुआ था ...
नौकाविहार में बिल्कुल भी रुचि नहीं है...डर लगता है कि कहीं नौका उलट पलट गई ..बेबुनियाद डर है, इन के पास सैलानियों की सुरक्षा के पूरे जुगाड़ हैं ..बहुत साल पहले चंडीगढ़ की सुखना झील में हम लोगों ने बोटिंग की थी, जिस में अपने पैरों से उसे चलाते हैं...लाइफ जैकेट पहन तो रखी थी, लेकिन डर ही लगता रहा ...हिंदी फिल्मी के हीरो-हीरोईनों को ही बोटिंग करते देखना अच्छा लगता है ..
वाह ..क्या खूब...कुछ जगहों पर फल एवं ता़ज़े गाजर-खीरे बिकते देख कर तो मज़ा ही आ गया...
और इन जगहों पर छोटे बच्चों को ताज़े फलों एवं सब्जियों का फल पीते देख कर तो और भी अच्छा लगा...
इस मंज़र ने मुझे अमेरिका के नियाग्रा फाल्स से पास वाला एक रास्ता याद दिला दिया...
भोर भए पंछी धुन से सुनाएं...जागो रे, गयी रूत फिर नहीं आए...
शहर के बीचों बीच खूबसूरत जंगल हैं लेकिन हम जिन कंकरीट के जंगलों में रहते हैं वहां भी परदे टांगे रहते हैं ...
बस, उस दिन पार्क में इसे देख कर थोड़ी फिक्र हुई कि कहीं विकास की ब्यार यहां तो चलने नहीं आ गई ...
समझ नहीं आता इन जगहों पर जा कर ......आखिर कितनी फोटों लें, हर लम्हे की आगोश में तो दिलकश मंज़र लिपटे पड़े हैं ..
कुछ जगहों पर इस तरह के गेट लगे हैं..
ऊपर वाले गेट के अंदर ऐसे दिख रहा था ..बाहर गार्ड बैठा था, उसने बताया कि यहां पर सफारी करने जाते हैं...मेरे पूछने पर उसने बताया कि शेर रात में यहां तक आ जाते हैं..
रास्ते में यह पिकनिक स्पाट है ...जहां पर लोग ताज़े फल-सब्जियों का लुत्फ उठाते दिखे ...
चाउमीन, बर्गर, पिज़ा, मोमोज़, डोनट्स पर पल रही जेनरेशन के इस खौफ़नाक दौर में साईक्लिंग कर रहे इन स्कूल-कालेज के बच्चों को फलो-सब्जियों-जूस के स्टालों पर खडे़ देख कर ही मेरी तो थकावट ही जाती रही ...
पार्क के बीचों बीच जो लोग रहते हैं वे भी कुदरती तरीके से ही रहते दिखे...जैसे उन्होंने जंगल के पौधों एवं जीवों के साथ शाँतिपूर्ण सहअस्तित्व का एक करार कर रखा हो......
थोड़ा है, थोडे की ज़रूरत है ...जिंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है ..
मुुझे याद नहीं कब पिछली बार मैंने बच्चों को इस तरह के खेल खेलते देखा होगा ...बरसों बरस पहले शायद कभी ...हां, बचपन में मैं कंचे का चेम्पियन ज़रूर हुआ करता था और डालड़े वाले डिब्बे में उन्हें सहेज कर रखता था...अकसर शाम के वक्त उन्हें धो भी ेलेता....बचपन के दिन भुला न देना... हा हा हा हा हा ...
कईं बोर्ड तो मेरी समझ में ही नहीं आए.....चलिए, यह ज़रूरी भी तो नहीं...थोड़ा बहुत नादानी भी तो रहनी चाहिए.. ज़मीन पर टिके रहने के लिए यह भी ज़ूरूरी है ..
यहां पहुंचते पहुंचते मेरे घुटनों ने तो कह दिया कि अपने पर नहीं भी तो हम पर तो तरस कर ...वरना तुम्हें भी पता है अगर हम अपनी पर आ गए तो क्या कर सकते हैं...तुझे कईं बार ये सबक सिखा तो चुके हैं ..हा हा हा ..मुझे लगा कि कन्हेली गुफाएं आ ही गई होंगी...गार्ड से पूछा तो उसने बताया कि यहां से अभी 4 किलोमीटर है ...आप किसी बस को हाथ दीजिए..वह रूक जाएगी..मैंने वहां से वापिस लौटना ही बेहतर समझा..
वापसी के वक्त भी इन्हें बेपरवाही से अपने खेल में मग्न देखा ...
ज़रूरी नहीं कि कुदरत की हर रमज़ को समझने की कोशिश की जाए....Many times at many places, just Being is the recipe of life! Just being a silent spectator!
Passion is a passion....lucky ones pursue their's!
माहौल, आबोहवा ऐसी कि उदास, ग़मग़ीन चेहरों पर भी फिर से जीने की तमन्ना लौट आए....
O Foolish self, don't hold on! Don't forget that beautiful message outside your neighbourhood church - When you let go, you grow !
Everything and everybody seemed to be at peace with itself!
पार्क के बीचों बीच जंगल में यह स्टेशन ...
बच्चों के लिए ट्रेन की सवारी का भी जुगाड़ ......शायद आजकल यह बंद है .
हर वह कुदरती जगह जिस के पास रह कर अपनी ख़ाकसारी का एहसास होता रहे, वह जगह मुकद्दस है ..
मुझे इन पेड़ों को देख कर मनाली की अपनी ट्रिप याद आ गई ....
यह बोर्ड मुझे भी थोड़ा कंफ्यूज़िंग ही लगा ...एक जगह लिखा था कि वाहन नहीं जा सकते ....पैदल जाने वालों के लिए कोई स्प्ष्ट हिदायत न दिखी.....इन लोगों का भी इसी मुद्दे पर मंथन चल रहा है कि आगे जाएं या नहीं...
बस, आज के लिए इतना ही ...क्योंकि यह तस्वीर लेते ही मेरे मोबाइल की बेटरी खत्म हो गई...मैं पावर-बैंक साथ लेकर गया तो था लेकिन मोबाइल चार्जिंग की वॉयर घर पर ही भूल गया था ... इसलिए वापिस लौटना ही मुनासिब था ..वैसे भी घर लौटते लौटते दोपहर बारह बज ही गए..
जाते जाते यह है मेरा आज का ख्याल.... आज जब मैं सुबह उठा तो उस देवी की आवाज़ में विविध भारती रेडियो पर उस देवी के भजन लगे हुए थे जिसे हमें लता मंगेश्कर कहते हैं...यह भजन चल रहा था ... गजानन जननी तेरी जय हो, तेरी जय हो जी जय हो .. ....(सुनने के लिए लिंक पर क्लिक करिए) ...सुबह सुबह इस कोयल की आवाज़ सुनने को मिली ......कल रात सोते वक्त सोशल मीडिया पर इस देवी के अस्पताल के प्रवास के दौरान किसी ने जो वीडियो बनाई होगी उसे देखा....बहुत बुरा लगा ...पहले तो उस बेवकूफ पर जिस ने इस देवी का वीडियो बनाया और वह भी इतनी बीमारी की हालत में ...और फिर उसे आगे शेयर भी किया ....ऐसे लगा कि हमारी मां की बीमारी का ही वीडियो किसी सिरफिरे ने सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया हो...और जिस देवी को हम सब ने 90 साल की उम्र पार होने पर भी एक अच्छे से बेहद सलीके से कपड़े-गहने पहने देखा...और मुंह से फूल झरते हुए देखे ...सच में वह देवी ही थी ..
ऐसे फिल्मी गीत भी मेरे लिए भजन ही हैं, जिन्हें बार बार सुनना मुझे बेहद सुकून देता है ...
लंबे अरसे से हसरत थी कि बोरिवली के नेशनल पार्क हो कर आया जाए...20-25 साल पहले एक दो बार गए तो थे लेकिन उसे जाना नहीं कहते...उसे बस नाम के लिए जाना कहा जा सकता है कि दूसरों को कह सकें कि हम ने भी वह पार्क देखा हुआ है ..
हां तो बरसों पहले जब गए थे वहां तो पार्क के गेट ही से जो बस मिलती थी पार्क के अंदर कन्हेली गुफाओं तक जाने के लिए..बस उस में बैठे ..वहां गुफाओं तक पहुंच गए...उन गुफाओं को घंटा आधा घंटा निहारा...तब तक अंधेरा होने को हुआ..सब लोगों के साथ ही बाहर निकलना पड़ा ...हो गया जी बोरिवली नेशनल पार्क वाला चेप्टर भी खत्म।
लेकिन बरसों से मैं इस पार्क के बारे में पढ़ता रहा हूं ...अच्छा, एक बात का कल मुझे ख्याल आ रहा था कि जब हम बच्चे खेलते हैं तो कोई खेल खेल में हमारा गला दाबने लगता तो हम क्या करते ?- हम उस लौंडे पर बहुत ज़्यादा गुस्सा हो जाते, बहुत कोसते उसे ..क्योंकि उस खेल खेल में ही सही लेकिन हमारा दम तो घुटने का हो गया...मैं समझ रहा हूं कि यही बात बोरिवली नेशनल पार्क की है ...बेशक यह मुंबई वासियों के फेफड़े है...इसलिए जब कोई भी इस के अंदर बाहर कोई भी पंगा लेना चाहता तो मुंबई वासियों ने उस की अच्छी खबर ली है...क्योंकि उन्हें गवारा नहीें कि कोई उन के फेफड़े को लालची निगाहों से देखने की ज़ुर्रत भी करे...
मैंने बहुत से बोटैनिकल गार्डन देखे हैं...लखनऊ का मशहूर वनस्पति उद्यान, वाशिंगटन का बोटैनिकल गार्डन भी देखा ...लेकिन कल बोरिवली नेशनल पार्क में कुछ वक्त बिताने के बाद मैं कह सकता हूं कि मैेंने ऐसा पार्क आज तक नहीं देखा...लिखने को तो इस पर मै एक किताब लिख दूं ..लेेकिन अभी उस की इच्छा है नहीं...
जहां भी जाता हूं उस के बारे में लिख देता हूं ..क्यों भला? ... कोई मकसद नहीं बिल्कुल, अगर कुछ होता तो मैं वह भी लिख देता बिना किसी संकोच के ..बस, एक मकसद यही होता है कि जिस जगह को, जिस चीज़ को देख कर मैं इतना लुत्फअंदोज़ हुआ, और भी लोगों तक यह बात पहुंचे ताकि वे भी वहां जाकर उस जगह का आनंद ले सकें....
मेरे कुछ पुराने ब्लॉगर दोस्त ट्रेवल ब्लॉग लिखते हैं ..देश के कोने कोने में दुर्गम जगहों पर जाते हैं...और सब कुछ बढ़िया लिख देते हैं...लेकिन मैं अकसर हमारे पास की जगहों के बारे में ही लिखता हूं जहां ट्रेन या किसी पब्लिक टांसपोर्ट की मदद से पहुंचा जा सके...मैं उन सब स्थानीय जगहों के बारे में लिखना चाहता हूं जहां पहुंचने के लिए किसी को तरसना न पडे, बस, अपने जूते पहने और निकल गए...शाम तक वापिस लौट आने के लिए...मैं आज सोच रहा था कि अगर मेरे पास भी कोई ऐसा लेख-आलेख पहुंच जाता तो शायद मेरी भी इस पार्क से दोस्ती पहले ही हो गई होती...
इस पार्क के बारे में लिखने को तो बहुत कुछ है ..लेकिन आज नहीं हो पाएगा...कुछ बातें लिखूंगा..बाकी की बाद में कभी लिखूंगा...वैसे भी इसे आप जा कर देखिए..वहां कईं घंटे रुकिए, टहलिए ..जितना भी हो पाए...न हो पाए, तो कुदरत की गोद में सुस्ता ही लीजिेए..बहुत हो गई भागम-भाग.......चैन से पंक्षियों की चहचहाहट का आनंद लीजिए...बहुत ही कुछ है वहां पर सब के लिए ...छोटे छोटे बच्चों से लेकर बड़े से बड़े बुज़र्गों तक ..सब के लिए...
एक बुज़ुर्ग को तो फेफड़ों में इतनी शिद्दत से सांस भरते देखा कि मैं ही डर गया...मुझे एक बार लगा कि रामदेव का इस से मुकाबला करवा दें तो शायद यह जीत जाए...मैं उन के इस जौहर की वीडियो बनाने लगा तो मुझे यही लगा कि बेटा, इन के चक्कर में तूने अपनी बैटरी और मेमोरी दोनों खत्म कर लेनी है ...चल, अब तू आगे चल...ये तो कोई योगी ही जान पड़ते हैं....पार्क का पूरा फायदा उठाए बिना रुकेंगे नहीं- न रूकेंगे, न थकेंगे...😎
बहुत से लोग अंदर साईकिल चला रहे थे ... उस के बारे में ज़रूर लिखूंगा विस्तार से ...लेकिन एक बात याद रह गई कि सुनसान सड़कोंं पर युवक एक युवती को साईकिल सिखाने के लिए श्रमदान भी करता दिखा ....जैसे हम युवकों को अकसर बाहर स्कूटर सिखाने की ड्यूटी निभाते देख लेते हैं यदा-कदा..। और हां एक दंपति को देखा ..मेरे जैसे भारी भरकम..लेकिन उस बंदे ने उस खातून को साईकिल के अगले डंडे पर बिठाने का जोखिम उठा रखा था...। उस युगल को देख कर भी एक खामखां किस्म का विचार तो आया कि उन्हें आवाज़ दे कर इतना तो कह दिया जाए... सही रास्ता पकड़े हो, मंज़िल की ऐसी की तैसी, वह भी मिल जाएगी ..हौले..हौले!!
इस पार्क के बारे में और भी लिखूंगा...पहुंचना कैसे है? --कोई झंझट नहीं है वहां पहुंचने में..बोरीवली लोकल के स्टेशन के पूर्व में आ जाइए...आप मेरी तरह से किसी से पूछेंगे कि पार्क कहां है ..तो वह उस सड़क की तरफ़ इशारा कर देगा जो आप को पैदल पांच मिनट में हाइवे पर ले जाएगी.....बस, सामने ही है नेशनल पार्क .....जब भी फुर्सत हो, हो कर आइए, फुर्सत नहीं भी है तो भी हो कर आइए....वरना एक दिन की छुट्टी लीजिए..हां, ख्याल रखिए, यह सोमवार बंद रहता है ..सुबह आठ बजे खुलता है, शाम को 5.30 बजे बंद...और हां, वहां पर जा कर अंदर साईकिल किराए पर भी मिलते हैं....कार, स्कूटर पर जा रहे हैं तो जाइए...पार्किंग की कोई दिक्कत नहीं है, सब कुछ है वहां.......बस, आप की वहां जाने की तमन्ना होनी चाहिए...और घूम कर आएं तो सब के साथ अपनी खुशियां शेयर करने में संकोच या कंजूसी न करिए..खुशियां बांटने से और बढ़ जाती हैं.. है कि नहीं ?
मुझे दो तीन पहले अचानक ख्याल आया कि नवीं-दसवीं कक्षा की बात है ...नौमाही इम्तिहान (थर्ड-क्वॉरटली) चल रहे थे...1977-78 की बात है..नवीं-दसवीं जमात के दिन ...दिसंबर का ही महीना होगा शायद..हम लोगों का हिंदी का पर्चा था...हम पेपर शुरु होने से पहले ऐसे ही स्कूल की ग्राउंड में हंसी-ठठ्ठा कर रहे थे कि हो न हो निबंध तो मोरार जी देसाई के ऊपर ही लिखना होगा...क्योंकि मोरार जी भाई कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री बने थे .. लो जी, अंदर जा कर बैठे, पर्चा मिला ..मिलते ही हम सब के हाथों के तोते उड़ से गये...क्योंकि वर्तमान प्रधानमंत्री देसाई पर ही निबंध लिखना था...
लिखने की कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन लिखने के कुछ तो मसाला चाहिए...कुछ पता भी नहीं था उन के बारे में ...शायद जो एक दो दिन से हिंदी की अखबारों में आ रहा था, उसमें ही कुछ कुछ याद रह गया...एक तो उन की उम्र बार बार रेडियो पर बता रहे थे कि वे 82 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बने हैं...हमें भी इस बात को उस बालावस्था में बहुत कौतूहल था कि यार, इतनी उम्र में प्रधानमंत्री ..लेकिन फिर उन की सेहत का राज़ भी एक दो दिन पहले अखबार में पढ़ लिया था कि वे गौमूत्र का नियमित इस्तेमाल करते हैं...यही कुछ पता था, ज़्यादा कुछ पता था ही नहीं उन के बारे में....कोई इंटरनेट नहीं था, कोई खबरिया चैनल भी तो न था जो रातों रात उन के गांव में जा कर उन के पुरखों की चौपडियां भी खंगाल लेता ... खैर, बहुत मुश्किल हुई उस दिन ...रोज़ अखबार पढ़ने या देख भऱ लेने का सबक उस दिन भी मिल गया...मेरे जैसा बंदे को भी जो लिखने में गप्पबाजी अच्छी कर लेता था...बस, एक पैराग्राफ से कैसे एक पन्ना बड़ी सफाई से भर देना है, यह हुनर थोड़ा बहुत मुझे आता था...लेकिन उस दिन मुझे भी मसाले की कमी नहीं, बहुत कमी लगी थी ..
मोरारजी भाई की याद कैसे आ गई मुझे इतने बरसों बाद ..उन के गुज़रने के बाद.....उस का कारण यह है कि मैं आजकल वह किताब पढ़ रहा हूं जो उन्होंने 76 साल की उम्र में लिखी थी ...स्टोरी ऑफ मॉय लाइफ... क्या गजब किताब है ..अच्छा, उस दौर में यह अपनी कहानी कहने का बड़ा शौक और ज़ौक हुआ करता था बडे लोगों को ...इतनी सादगी से लिखी गई है ..कि मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं है, उस की तारीफ करने के लिए...मैं उस के चेप्टर बीच बीच में पढ़ रहा हूं लेकिन एक बार जब कोई चेप्टर शुरू करता हूं तो फिर जितनी भी नींद सिरहाने पर खड़ी हुई हो, उसे पढ़ कर ही बत्ती बुझाता हूं...उन्हें पढ़ते हुए ऐसे लगता है कि जैसे किसी से कोई किस्सा सुन रहा हूं..चलिए आप को किताब के दर्शन तो करवा दें...मैं अकसर किताब को पढ़ते पढ़ते यही सोच रहा था कि लिख तो उन्होंने इसे तब दिया था जब मैं श्रेणी चार में था, लेकिन मेरे तक या हमारी लाइब्रेरी तक पहुंचती तब तो न बात बनती ....
मोरार जी भाई यहीं अपने यहां थाणे के डी सी भी रह चुके थे प्रधानमंत्री बनने से 55-60 साल पहले
सच में जो कहते हैं कि गुज़रे दौर के लेखकों को पढ़ना उन से मुलाकात करने के बराबर ही है ...लेकिन हां, मैं तो इन के लिखने की सादगी का कायल हो गया हूं...यह भी किसी उस दौर का ब्लॉग जैसा ही लगा ...इतनी सादगी, इतनी ईमानदारी से लिखी गई किताब।
एक और किताब याद आ रही है डा राजेन्द्र प्रसाद की जो हमारे राष्ट्रपति रह चुके हैं ...जब मैं उर्दू पढ़ना सीख रहा था तो कहीं से मुझे उन की लिखी जीवनी मिल गई - खुद उन की ही लिखी हुई ...लेकिन उर्दू में ...एक तरफ़ तो मैं उर्दू में फिल्मी गीतों की किताबें पढ़ रहा था ...दूसरी तरफ़ मैंने इस महान शख्स की उर्दू में लिखी स्वै-जीवनी पढ़नी शुरू कर दी ...भाषा की इतनी सादगी देखी कि आराम से मैं उन की लिखी सभी बातें पढ़ कर समझ पा रहा था...
कभी भी नज़र दौडाइए लेखकों पर ..वही लेखक कामयाब हुए अपने जीवनकाल में, नहीं तो बीसियों बरसों बाद जिन की भाषा में सादगी थी, कोई लाग-लपटे न था, जैसा सोचा वैसा लिख दिया...जैसा अहसास हुआ, कागज़ पर टिका दिया...रूह से निकली इबारत देखी प्रेमचंद के लेखन में ...और भी बीसियों लेखकों के लेखन में...बीस साल में बहुत से हिंदी-इंगलिश के लेखकों को पढ़ चुका हूं ...किस किस का नाम गिनाऊं ...लेकिन कामयाब वही हुए जिन्होंने सादगी का दामन न छोड़ा ...मिर्जा गालिब साहब पहले बड़ी मुश्किल ज़ुबान मे ंलिखते थे, लोग समझ ही. न पाते थे ..फिर किसी ने उन पर तंज कसा किसी मुशायरे में कि अपनी कही बात को अगर खुद ही समझे तो क्या समझे...ऐसी ही कोई बात हुई...उस के बाद उन्होंने आम ज़ुबान में लिखना शुरु किया और आज भी देखिए उन के चर्चे दुनिया भर में हैं ...
फिल्में देखिए...फिल्मों के नगमे देखिए, डॉयलाग देखिए...जो बरसों से हमारी ज़ुबान पर चढ़े हैं ..वे सब के सब आम बोल चाल की भाषा में ही रचे गए...चूंकि सब कुछ अपने ही परिवेश से लिया हुआ था, वे कब हमारे दिलोदिमाग पर छा से गए पता ही नहीं चला, यही इन लेखकों का जादू रहा है...
कहीं भी नज़र दौडाएं ...लिखने की सादगी, बोलने की सादगी, पहनने की सादगी ही कामयाबी की सीढ़ी है... दफ्तरों में देखते हैं तो दुख यह होता है कि इंगलिश का ज्ञान उतना है नहीं जितना होना चाहिए..लेकिन लिखनी इंगलिश ही है, हिंदी मे लिखते नहीं ...ऐसे बात कैसे बनेगी....अच्छा, हिंदी की बात से याद आया कि सरकारी संस्थाओं में लोग हिंदी क्यों उतनी अच्छी से अपना नहीं पाए जितना पैसा इस काम के लिए खर्च हो रहा है क्योंकि वहां भी भारी-भरकम शब्दों को ही तरजीह दी जाती है ...बीच बीच में कुछ नौकरशाह आए जिन्होंने लिखने में भी बोलचाल की भाषा को ही इस्तेमाल करने की नेक सलाह दी ..लेकिन नहीं...हम कहां मानते हैं किसी अच्छी बात को ...हमें तो चीज़ें जटिल करना ही भाता है ......एक बात पर और गौर करिएगा...यह जो अनुवाद है वह भी इतनी सादगी से होना चाहिए कि पढ़ने वाले को इस का पता ही नहीं लगना चाहिए...आप किसी भी दस्तावेज़ का हुबहू अनुवाद शब्द-दर-शब्द कर ही नहीं सकते ...ऐसे अनुवाद से क्या फायदा जिस से कि कहने को तो अनुवाद हो जाए ...लेकिन उस की रूह ही दब कर मर जाए कहीं ...दो दिन पहले मुझे अंंग्रेज़ी में लिखे तीन पन्नों का अनुवाद करना था....उन तीन पन्नों को हिंदी में अनुवाद करने के लिए मुझे तीन दिन लग गए ...मुझे अकसर ऐसे मौकों पर अहसास होता है कि यह अनुवाद करना भी खासा मुश्किल काम है ...लेकिन वही बात है ..कुछ भी हो, हर काम में सादगी बरकरार रहनी चाहिए...लिखते वक्त यह ध्यान में ऱखना ज़रूरी होता है कि पढ़ने वाले को किसी किस्म की दिकक्त न होने पाए...वह बस एक फ्लो में पढ़ पाए, और समझ ले हमारे लिखे को ..जैसे हम किसी से खतोकिताबत कर रहे हैं...
लिखने के दो ही मकसद हो सकते हैं ...एक तो यह कि अपनी बात को दूसरों तक अच्छे से पहुंचा देना और दूसरा यह कि अपनी ज़ुबान का, अपने भाषा-विज्ञान का सिक्का मनवाने लग जाना ...लेकिन यह दूसरी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ती ...इसी चक्कर में टाइम्स आफ इंडिया में इंगलिश के बड़े बड़े लेखकों के मज़मून मेरे पल्ले अच्छे से पड़ते नहीं ...इतना मुश्किल लिखते हैं ये सब कि मैं दो चार शब्दों का तो अंदाज़ा लगा लेता हूं ..लेकिन फिर एक दो पैराग्राफ पढ़ते पढ़ते मुझे लगता है कि ये हाई-फाई बात तो भई अपने पल्ले पड़ नही रही, मैं उसे बीच मे ही छोड़ देता हूं ...लेकिन बहुत से पुराने ..पुराने ही क्यों, ऩए लेखकों की सादी लेखन-शैली भी काबिले-तारीफ़ तो है ही ...ऐसा लगता है कि सार लेख को एक ढीक लगा कर पी जाएं .😎..(लस्सी का गिलास जैसे मुंह में लगा कर उसे तभी हम होठों से अलग करते थे जब एक ही सांस में पी लेते थे सारी लस्सी..बिना सांस लिए...इसे कहते हैं एक ही ढीक लगा कर पीना....हां, वह मलाई वलाई तो होठों से बाद में साफ होती रहेगी...), उसी तरह कोई एक दो अल्फ़ाज़ जो मु्श्किल जान पड़े हों उन्हें डिक्शनरी में देख लेते हैं...
अच्छा तो अब बोलचाल की जुबान को देखिए... जितनी हम उसे सादी रखते हैं उतनी ही दूसरे तक वह बिना लाग-लपेट के पहुंच जाती है ...बोलचाल को कामयाब बनाने का एक ही तरीका है कि जिस बंदे से बात कर रहे हैं उस के स्तर तक उतर कर अपनी बात को उस तक पहुंचाना और यह सुनिश्चित भी करना कि वह हमारी कुछ बात समझ पाया भी कि नहीं ...यह जो लोग नाटक करते हैं ना कि उसे तो केवल मराठी आती है, गुजराती आती है, पंजाबी आती है ...मुझे ऐसे लोगों से भी शिकायत है ..एक 60 साल की औरत गांव से आप के पास आ गई दवाई लेने ..अब अगर उसे अपनी भी भाषा आती है तो उस में उस का क्या दोष, क्यों हम उसे यह पूछ कर अपराध बोध करवाते हैं कि हिंदी नहीं आती, ज़रा भी नहीं आती क्या....ये सब फिज़ूल की बातें है ं...ये पूछने की बजाए वह भाषा ही सीख लेनी चाहिए ..नहीं, तो थोड़ी उस के मुंह से निकली बात समझिए ..आ जाती है सब समझ अगर समझने की कोशिश करते हैं तो ...जो नहीं आती, वह उस की आंखें ब्यां कर देती है ं....लेकिन कभी देखिए ऐसे लोगों की बातों में एक बहुत ही खुशनुमा सादगी होती है ..आप को नहीं लगता कि वे बस बोलते ही रहें.......मुझे तो लगता है ज़रूर, इसीलिए मैं उन की बात कभी भी बीच में नहीं काटता, क्योंकि उन्हें सुनना कानों को अच्छा लगता है ....
मैं अकसर अपने जूनियर डाक्टरों से यह शेयर करता हूं कि हमारे पास आने वाले लोगों को इस बात से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कि हम कितनी बड़ी तोपे हैं, हमने कितनी किताबें पढ़ लीं..मोरारजी भाई को पढ़ा या कुलदीय नैयर को या नहीं पढ़ा ..उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ा हमारी विद्वता से ...बस हमारी कही बात उन के पल्ले पड़नी चाहिए...अच्छे से, सादगी से ... इत्मीनान से ..वैसे सोचा जाए तो हमारे पास आने की यह छोटी सी मासूम मांग कोई इतनी बड़ी भी नही है कि हम उसे पूरा ही न कर पाएं....वह किसी बात को मानेगा तभी न जब वह उस को समझ पाएगा...वरना, जैसे काले अक्षर भैंस बराबर होते है, मुंह से निकले बोल जिन्हें कोई समझ ही न पाए...वे भी बेकार में की गई मेहनत ही है ...
मेरे ख्याल में आज के लिए इतना ही काफी है ...काफी फिलासफी झाड़ दी है ... बात यहीं खत्म करते हैं ..टीना मुनीम की बात सुनते हुए ..