गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो !

एक शख़्स जिस फैक्ट्री में काम करता वह अंदर आते जाते वक्त बाहर खड़े वॉचमैन को देख कर मुस्कुरा देता ...वॉचमैन को भी अच्छा लगता क्योंकि नज़रे तरेर कर उसे देखने वालों की भीड़ में एक शख्स को था जो उस के वजूद की कद्र करता था....यह कोई कोल्ड-स्टोर टाइप की फैक्ट्री थी जिस में बड़े बड़े डीप-फ्रीज़र लगे हुए थे...तो हुआ यूं, दोस्तो, कि एक दिन वह शख्स अपने काम के सिलसिले में एक ऐसे ही फ्रीजर में काम कर रहा था ..कमरों जैसे बड़े बड़े फ्रीजर ही थे वे ...तभी फैक्ट्री बंद होने का सायरन बजा और गलती से उस फ्रीज़र का दरवाजा बंद करने वाले ने उसे किया बंद और सारा स्टॉफ बाहर चला गया..

बाहर बैठा वॉचमैन सोचने लगा कि सारा स्टॉफ तो बाहर आ गया है लेकिन वह ख़ास बंदा तो आया नहीं ..दूसरा कोई होता तो उसे पता भी न चलता लेकिन यह बंदा ख़ास क्यों था वह तो मैं आप को बता ही चुका हूं। उसे यह भी अच्छे से याद था कि सुबह तो वह मुझे देख कर मुस्कुरा कर हाथ हिला कर अंदर गया था। लो जी, वॉचमैन से रहा न गया ....उस की बेचैनी ने उसे चाबी उठाने के लिए मजबूर कर दिया ...भाई, उसने चाभीयां उठाई और अंदर जा कर कमरे चैक करने लगा ......अरे यह क्या, एक कमरे में उसे वह शख्स दिख गया जो कि बस जमने की कगार पर ही था ...

उस बंदे के पास जाते ही वह उसे पहचान गया ....उसने फ़ौरन उसे बाहर निकाला ...साथ ही लकड़ियों को जलाने का प्रबंध किया ...कुछ वक्त के बाद वह सुध-बुध खोया हुआ बंदा हिलने ढुलने लगा ...सचेत हो गया...नेक वॉचमैन ने तब तक उस के लिए कॉफी का प्रबंध कर दिया....कॉफी पीते ही और उस अलाव की गर्मी मिलते ही उस बंदे ने सब से पहले चौकीदार से यही पूछा कि यार, तुमने मुझे ढूंढ कैसे लिया....चौकीदार ने कहा कि साब, इतनी बड़ी फैक्ट्री में सिर्फ़ ही हैं जो सुबह शाम मेरी तरफ़ देख कर आते जाते हैं...इसलिए मुझे याद था कि आप आज सुबह अंदर तो गये हैं लेकिन बाहर नहीं आए....बस, साब, इसी शक ने मुझे आप तक पहुंचा दिया...फैक्ट्री में काम करने वाला इस से आगे उस के कुछ कह ही न सका.....क्योंकि उस की आंखें ढबढबाई हुई थीं और गला रूंधा हुआ था ...वैसे भी कुछ बातें आंखें ज़्यादा अच्छे से ब्यां कर जाती हैं....ज़रूरी नहीं कि एहसान का इज़हार अल्फ़ाज़ के हार पहना कर ही किया जाए.....

दोस्तो, जब भी अलाव की बात छिड़ती है न तो मुझे गोपाल दास नीरज जी की कही यह बात याद आ जाती है...गोपाल दास नीरज को नहीं जानते?.... तुम लोग भी न आज के जवान लोग ....उस गीत को तो जानते होंगे ...शोखियों में घोला जाए..., देख भाई ज़रा देख के चलो. .....बस, इस तरह के अनेकों फिल्मी गीत लिखने वाले गोपाल दास नीरज... बहरहाल, उन की कही बात जो मैंने किसी ज़माने में अपनी डॉयरी में लिख ली थी, वह पेशेख़िदमत है ...पढ़िए...इत्मीनान से पढ़िए, कोई जल्दी नहीं, वैसे भी वोटों का मौसम है ....इसलिए सब के लिए ज़रूरी है इन बातों को समझ पर पल्ले बांध लेना ...

लखनऊ की मेरी खुशनुमा यादों में एक यह भी है कि मैं गीतों के दरवेश नीरज जी को पास से देख पाया ..उन से मिल पाया...🙏

दोस्तो, वॉटसएप इतना बुरा भी नहीं है ..लेकिन हर वक्त इस से साथ चिपके रहने की आदत ने इसे बुरा बना दिया है ...यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि कईं बार कुछ किस्से इस में पढ़ लेते हैं तो वे ताउम्र हमारे साथ रहते हैं....यह जो किस्सा या सच्ची घटना, जो भी है, दिल को छूती है ...यह मैंने कईं साल पहले वाट्सएप पर ही पढ़ी थी ...मेरी आंखें एक बार तो भर आई थीं इसे पढ़ कर ...

इस का ख्याल मुझे दो दिन पहले सुबह सुबह अखबार पढ़ते आया जब मैंने पढ़ा कि मुंबई के बांद्रा इलाके में एक 83 साल की बुज़ुर्ग अपनी रसोई में गिरने के बाद सुबह 9 बजे से शाम चार बजे तक वहीं गिरी पड़ी रही. तो हुआ यह दोस्तो कि यह 83 साल की बुज़ुर्ग अकली फ्लैट में रहती हैं ...परिवार वाले बाहर रहते हैं...विलायत में रह रहे हों या चिंचपोकली में, क्या फर्क पड़ता है ...चलिए, आगे की बात सुनिए ...यह बेचारी चाय बनाने के लिए उठी...किचन के नीचे कुछ गिरा हुआ था और यह ड्.रम  से नीचे...शारीरिक कमज़ोरी इतनी थी बेचारी में वह गिर कर उठ भी न पा रही थी और आसपास किसी पड़ोसी को भी बुलाए तो बुलाए कैसे। 

पड़ी रही बेचारी ऐसे ही ...दोपहर बीत गई ...तभी उस बिल्डिंग के चौकीदार ने देखा कि उस बुज़ुर्ग महिला का दोपहर का जो टिफिन आता है वह अभी भी बाहर ही पड़ा है ...उस का माथा ठनका...उसने बिल्डींग में दूसरे लोगों को इत्लिा दी ...कुछ लोग आगे आए...फ्लैट का दरवाज़ा खुलवाया गया ...उस महिला को यूं रसोई घर में अंदर दर्द से कराहते हुए पड़ा देखा तो उसे फ़ौरन पास ही के होली फैमिली अस्पताल तक पहुंचाया गया...वहां सब जांच हुई ...उस की टांग टूट गई थी ...खैर, इलाज तो शुरू हो गया है, ख़तरे से बाहर है .......वही बात हो गई ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए...

इस मुल्क में बड़े बुज़ुर्गों की सच में बड़ी आफत है ...बहुत से लोगों को अकेले रहना पड़ता है ...कुछ के बच्चे बाहर नौकरी करते हैं, कुछ ने पुराने पुश्तैनी मकान को संभालना होता है और कुछ का दकियानूसी ख्याल कि बेटा नहीं है, बेटी के पास नहीं रहेंगे ...ऐसे माहौल में जिन बेटियों के पास - उन के बुज़ुर्ग मां-बाप रहते हैं उन के जज़्बे की मैं कद्र करता हूं ...उन के ही नहीं, उन के परिवार के जज़्बे की भी ...अब यार किसी के बेटा नहीं है तो उस में उन का तो कोई कसूर नहीं न.....कि है, या बेटा किसी भी कारण से उन का हाथ थामने के लिए आगे नहीं आ पा रहा तो ऐसे में कहां छोड़ दें उन दिन-ब-दिन कमज़ोर हो रहे मां-बाप को ...

पता नहीं कभी कभी कुछ लोग खुदबखुद कैमरे में आ जाते हैं ....अगर किसी की प्राईव्हेसी में जा घुसा होऊं तो उस के लिए माज़रत चाहता हूं ...लेकिन कुछ तस्वीरें हमारे समाज का आईना भी होती हैं कि किस तरह से रेलगाड़ी के दो पहियों के साथ चलने से ही गाड़ी पटरीयों पर दौड़ पाती है ...शुभकामनाएं इन दोनों के लिए शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए....🙏

खैर, यह फिलासफी झाड़ने का वक्त नहीं है ...बात पूरी करनी है और मुझे जल्दी से ड़्यूटी पर जाने के लिए तैयार होना है ...अखबार में एक फोटो थी जिस में होली फैमली अस्पताल में भर्ती महिला के बेड पर पुलिस का कोई सब-इंस्पेक्टर केक-काटने पहुंच गया क्योंकि जब अस्पताल में पुलिस बुलाई गई और वह सारी लिखा-पढ़ी कर रही थी तो पता चला कि दादी का तो कल जम्म दिन है ...बस, अगले दिन सब-इंस्पेक्टर पहुंच गया केक लेकर दादी के पास ...फोटो देख कर मुझे भी अच्छा लगा ....लेकिन फिर भी इसे इस ब्लॉग पोस्ट में चस्पा नहीं कर रहा हूं क्योंकि मेरे ख्याल में फोटो उस चौकीदार का भी होना ज़रूरी था जो इस असहाय औरत के लिए एक फरिश्ता साबित हुआ ...वरना, यहां बंबई में किसे फुर्सत है कि कोई देखे कि किस का अखबार शाम तक बाहर क्यों टंगा है, दूध क्यों अभी तक किसी ने उठाया नहीं ...लेकिन कुछ फरिश्ते होते हैं जिन्हें खुदा ऐन मौके पर भेज देता है ...अपने दूत बना कर ...सच में 😎

आए दिन ऐसे घटनाएं होती रहती हैं बुज़ुर्ग के साथ, कभी अपने घर के अंदर ही खत्म हो गए या कोई मार के चला गया..किसी को तब तक कोई खबर नहीं जब तक उन के घर के अंदर से बास बाहर नहीं पहुंचती ....ये जो नेबरहुक वॉच है या सिटिजन वॉच नाम के प्रोग्राम हैं कि बुज़ुर्गों की सलामती की खबरसार लेते रहें , खास कर के जो अकेले रहते हों. अखबारों में ही पढ़ते हैं कि कहीं कहीं पुलिस यह काम करती है ...और कहीं कहीं किसी एरिया में रहने वालों ने ही ऐसी व्यवस्था कर रखी होती है ..चलिए, अब कह रहे हैं तो कुछ तो होगा ही, मान लेते हैं ...नाम ही के लिए ही सही ...लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर ज़िंदगी की सांझ में अपने ही न अपने न रहें तो दूसरों से क्या कोई गिला करे ......अपने तो अपने होते हैं, अब क्या यह भी फिल्मी नगमों में ही सुनने को मिलेगा!

फिल्मी नगमों से मुझे याद आया ...आज के मौज़ू से मेल खाता एक गीत ..वह गीत मुझे बहुत पसंद है ....2011 की बात है, फरवरी का ही महीना था, बहुत ठंडी थी अंबाला छावनी में ...मैं अंबाला छावनी के सदर बाज़ार में एक चाय के खोखे पर बढि़या अदरक वाली चाय का लुत्फ़ उठा रहा था तो पास ही की दुकान में अचानक देखता हूं कि एक बुज़ुर्ग महिला जो शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर सी दिख रही थी अपने जवान बेटे के साथ, यही कोई 30-35 साल का होगा वह बेटा, जिसे कुछ भी दिख नहीं रहा था .....वे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे हुए इत्मीनान से चलते चलते उस पास की ऊन की दुकान पर पहुंचे ...बेटा खड़ा रहा मैं के पास ...मां ने अच्छे से देख भाल कर, ऊन के गोले और लच्छियां ऊपर नीचे कर के कुछ ऊन खरीदी और वे दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे निकल गए...मैं वही अपनी बढ़िया चाय के साथ बेसन के लड्डू खाने में लगा रहा ...और उस वक्त उस दुकान के एफएम पर जो गीत बज रहा था वह वैसे भी मुझे बेहद पसंद है ....बहुत ज़्यादा ....इस के बोल, म्यूज़िक, इस का फिल्मांकन, और अपने अशोक कुमार ....सब कछ बढि़या है इस गीत का .....वह गीत बज रहा था उस वक्त रेडियो पर ...एक तरफ़ मैं उस लाचार मां और बेटे को जाते देख रहा था सहजता से चले जा रहे थे ...उस वक्त मुझे यही लग रहा था कि यह गीत उस जोड़ी के लिए ही बज रहा है ...जिस में शारीरिक बल तो बेटे का काम कर रहा है और आंखों की बिनाई मां की काम आ रही है और इसी से उन दोनों के जीवन की गाड़ी चल रही है ....बस, उस दिन से वह गीत मेरे साथ पक्के तौर पर हो लिया ...मैं इसे हज़ारों नहीं तो सैंकडो़ं बार ज़रूर देख और सुन चुका हूं ...और आज भी दस-बीस बार तो सुनने-देखने ही से चैन पडे़ेगा ..कितने फिल्मी हैं गुज़रे दौर के हम जैसे लोग भी ...अब जो है सो है ..क्या करें !!😉

बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

आखिर धरा क्या है इन किताबों में !


मुझे भी नहीं पता कि क्या धरा है किताबों में ....कुछ धरा भी है कि नहीं...लेकिन मुझे किताबें बहुत अच्छी लगती हैं ...सब तरह की किताबें ...इन्हें पढ़ना भी भाता है क्योंकि छुटपन से ही नंदन, चंदामामा, लोटपोट...धर्मयुग..और भी पता नहीं क्या क्या पढ़ते आ रहे हैं..अच्छा लगता था, और कोई दिललगी का ज़रिया नहीं था...घर में सब लोग कुछ न कुछ पढ़ते ही दिखते थे ...मां रोज़ाना दुर्गा का पाठ करती दिखती या रामायण पढ़ती ..और फिर उसे बड़े सम्मानपूर्वक किसी केसरी कपड़े में लपेट कर एक लकड़ी के स्टैंड पर रख देती...

घर में वह लकड़ी का स्टैंड अभी भी धरा-पड़ा होगा ..लेकिन अब घर में धार्मिक किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं है ...क्योंकि हम ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लिख जो गए ...इसलिए जब मैंने दो दिन पहले अपनी रूटीन चहलकदमी के दौरान एक दुकान पर वैसा ही एक लकड़ी का स्टैंड देखा तो मैंने उसे खरीद लिया .. और किताबें खरीदने के अपने बेहद शौक के चलते किसी शख़्स द्वारा व्याख्या की हुई गीता भी इस के साथ ही खरीद ली ...पहले ही से बहुत सारी गीताएं जमा कर रखी हैं ...कभी ढूंढूंगा उन सब को ...बहरहाल, मुंबई के भारतीय विद्या भवन, गिरगांव चौपाटी में गीता ज्ञान के एक कोर्स भी कईं बरस पहले अपना नाम लिखवा दिया ..हर इतवार के दिन सुबह क्लास लगती थी ..संस्कृत से आसान हिंदी में इसे हमें पढ़ाया जाता था ....लेकिन चंचल मन का क्या करूं..कुछ महीने गया बड़े शौक से ...लेकिन कुछ भी पल्ले ही न पड़ रहा था ..फिर जाना बंद कर दिया...और गीता के ज्ञान से वंचित रह गया...मेरी बकट-लिस्ट में गीता को बांचना है तो लेकिन पता नहीं कब वह वक्त मिलेगा ...वैसे भी इन साठ सालों में फिल्मी गीतों का इतना ज्ञान इतना अंदर भरा जा चुका है कि उस में शायद और कुछ ठूंसने की जगह ही नहीं बची....हां, बालीवुड की मसाला फिल्मों में जो गीता का ज्ञान बांटा जाता है, वह अच्छे से समझ में आ जाता है .

मां अपने जीवनकाल के आखिरी तीन चार महीने बेहद दर्द में थी ..पेनक्रियाटिक कैंसर की वजह से ...बेचारी ने गर्म पानी की सिंकाई कर कर के अपने पेट झुलसा लिया - बिल्कुल काली पड़ गई थी वह जगह जहां पर हॉट-वॉटर बाटल रखे रखती थी ...लेकिन चुपचाप दर्द सहती थीं ..पढ़ना लिखना इस दुनिया से कूच कर जाने से दो दिन पहले तक भी जारी ...पता नहीं जाने से एक सप्ताह पहले मां को क्या विरक्ति हुई ..बेड के पास ही धरी पड़ी कुछ धार्मिक किताबों को ओर इशारा कर के कहने लगीं...बिल्ले, हटा इन को ...और मुझे मुंशी प्रेम चंद की कहानियों की किताबें दे ...मेरे पास पूरा सेट था...वह बड़े चाव से वह दो-तीन दिन पड़ती रहीं ...

किताबों का भी क्या है, किसी के लिखे कोट्स भी क्या है ...मुझे तो ऐसे लगता है कि सब कुछ मेरे मूड पर निर्भर करता है ..कभी कभी मुझे लगता है कि आखिर है क्या इन किताबों में ...ठीक है, उन लोगों के अपने तजुर्बे होंगे ...वहां तक तो चलिए ठीक है ...तजुर्बे बांटने के लिए होते हैं ..लेकिन कोई दूसरे के तजुर्बों से फायदा तो कम ही ले पाता है ...लेकिन कुछ किताबों के लिखने वाले जीने की कला सिखाने लगते हैं ...वह भी लिखने वाले के ऊपर है ...कईं बार तो लगता है कि कमबख्त यह तो ढोंगी है, यह क्या सिखाएगा ...फिर उस किताब को दूर रख देता हूं ...

और कभी कभी लगता है कि किताबें हमारा सच्चा दोस्त हैं ...सच में दोस्त तो हैं ही...मैंने न्यूयार्क की लाइब्रेरी के फुटपाथ के बाहर धातु की कुछ पट्टियां फिक्स हुई देखीं ...मुझे वे सब पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ...उस में एक फट्टी पर लिखा था कि किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के लोगों के साथ मिलने जैसा है ..कितनी बड़ी बात है ...सच में बात सही तो है ...मैंने भी अपनी पसंद की किताबें जमा तो कर रखी हैं लेकिन पता नहीं इन के बारे में चिढ़ा रहता हूं ...शायद इसलिए कि मुझे इन को पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता ...नहीं नहीं, मैं टीवी नहीं देखता, हमारे यहां टीवी कोई भी नहीं देखता, और ऐसा भी नहीं है कि मोबाइल ही में हर वक्त घुसे रहते है ं...बस, ड्यूटी कर के घर आओ तो थक जाता हूं ...आराम फरमाने लगता हूं ...कोई किताब जैसे ही हाथ में लेता हूं नींद घेर लेती है ...और वह पन्ना वहीं का वहीं रह जाता है ..


मुझे यह लकड़ी का स्टैंड देख कर यही लगने लगा कि हम लोग भी कितना ज़्यादा बेकार की रूढ़ियों मे जकड़े पड़े हैं ...बहुत अच्छी बात है कि हम धार्मिक किताबों की इज़्ज़त करते हैं, उन्हें बड़े कायदे से रखने के लिए, पढ़ने के लिए हम इस तरह के स्टैंड का इस्तेमाल करते हैं ...बहुत अच्छी बात है ...लेकिन कभी हम इस तरह के स्टैंड पर रख कर दूसरी किताबें रख कर पढ़ने की क्यों नहीं सोचते! - और भी बहुत सी किताबें हैं जिन का बहुत ज़्यादा सम्मान करते हैं ...वे भी हमें रास्ता दिखाती हैं, मन को बहलाती हैं ...दिमाग की बत्ती जलाती हैं ...मैं समझता हूं कि ग़नीमत है कि हम इस तरह के लकड़ी के स्टैंड (हम लोग इसे गुटका कहते रहे हैं...) पर गैर-धार्मिक किताब रखने को कोई पाप करने की श्रेणी में तो नहीं रखते ...लेकिन फिर भी इन पर दूसरी किताबें रखते भी तो नहीं...लेकिन मैं आज से रखा करूंगा ...आज भी मैंने इस पर रीडर-डाइजेस्ट की एक किताब रखी जिसे में कभी कभी उठा लेता हूं ...पचास साल पुरानी है ..लेकिन उस मेंं  लिखी बहुत सी बातें आज भी उतनी ही मौज़ू हैं जितनी उस दौर में रही होंगी ...अच्छा लगता है ... एक पन्ना भी पढ़ लेते हैं तो मन कुछ तो ठहर जाता है, वरना यह बंदर यूं ही बिना वजह उछल कूद मचाए रखता है....

कुछ नहीं है इस पोस्ट में ...क्योंकि यह भी एक डॉयरी लिखने जैसा ही है ..किसी को कोई नसीहत देना, अच्छे-बुरे की तरफ़ इशारा करना इस का कतई मक़सद है भी नहीं ...हर बंदे की अपनी अपनी यात्रा है ....उस ने अपने सबक सीखने हैं जो वक्त ने उसे सिखाने हैं ...उसे अपने ढंग से अपने सवालों के जवाब ढू़ंढने हैं ..लेकिन मज़ाक में कहते हैं न ..बहुत सही बात है कि जब मैंने ज़िंदगी के कुछ सवालों के जवाब ढूंढ लिए तो ज़िंदगी ने फ़ौरन सवाल ही बदल दिए ....

तू भी भाई कोई किताब ही उठा लेता ...

यही होता है हम सब के साथ, यही है ज़िंदगी ....इसे ज़िंदादिली से जी कर छुट्टी करनी चाहिए, ज़्यादा कोई हिसाब किताब का फायदा है नहीं...जैसे इस गीत में धर्मेन्द्र ज्ञान बांट रहे हैं ...वैसे यह गीत जिस महान बंदे ने लिखा है उस का नाम है आनंद बख्शी ....और उन के बेटे राकेश बक्शी हमें बताते हैं कि उन के डैड को गीता पर, वेदों पर अगाध श्रद्धा थी ...यह उन के गीतों से झलकता भी है ....तो फिर फिक्र की बात ही क्या है, हमें गीताज्ञान एक रास्ते से समझ में नहीं आया तो दूसरे रास्ते से समझ में आ गया ...समझ भी ऐसा आया कि ये गीत रट गए.....शायद कहीं न कहीं आत्मसात हो कर, डीएनए में ही रच बस गए....😎

रविवार, 30 जनवरी 2022

आज की सुबह प्रियदर्शिनी पार्क के नाम ...

 कुछ दिन पहले हम प्रियदर्शिनी पार्क (पी डी पी, इस नाम से भी यह जाना जाता है...) गए थे ...शाम की बेला थी...सात-साढ़े सात का वक्त था, आठ बजे रात में यह बंद हो जाता है ...कुछ कुदरती नज़ारे दिख भी नहीं रहे थे ...वैसे भी यह पार्क कोई गार्डन जैसा नहीं है, इसे तो एक कुदरती स्पॉट के तौर पर बरकरार रखा गया है ... उस दिन अच्छे से देख नहीं पाए ...इसलिए आज सुबह 6 बजे ही निकल पड़े पी.डी.पी के लिए ...

हमारी यादें इस पीडीपी से इस तरह से जुड़ी हुई हैं कि आज से 22 साल पहले जब हमने बंबई छोड़ने का बेवकूफ़ाना फैसला लिया तो हम जाने से पहले कुछ जगह हो कर आए..उस में यह प्रियदर्शिनी पार्क भी था ...उस वक्त इस को बनाने की शुरुआत ही हुई थी ...समंदर के किनारे पर खूब मिट्टी विट्टी डाली जा रही थी ..खुला खुला एरिया था, अच्छा लगा था...

आज सुबह जाकर भी वहां अच्छा ही लगा ...कौन होगा वैसे जिसे कुदरत के इतना पास जाकर अच्छा न लगता होगा...वैसे सुबह ठंड थी, रज़ाई से निकलने की इच्छा न हो रही थी ....लेकिन वही बात है कि एक बार तो रज़ाई के मोहपाश से आज़ाद होना ही पड़ता है ..

पार्क के गेट के बाहर यह डाक-पेटी लगी हुई थी ..एक छोटी सी बच्ची ने अपने डैड से पूछा - डैड, यह क्या है?..डैड ने उस के सवाल को अनसुना कर के उसे कहा .."लुक, आई टोल्ड यू नॉ!" अब हमें नहीं पता क्या टोल्ड और क्या अन-टोल्ड, लेकिन उस मासूम के सवाल का तो फिलहाल कत्ल हो गया...

पार्क की साफ़ सफ़ाई और उम्दा रख-रखाव आने वालों को अपनी तरफ़ खींचता है 

और इसे तो बस फोटो-सैशन का एक मौका चाहिए होता है ...साथ जाने वालों की आफ़त हो जाती है सच में 

पार्क काफी बड़े एरिया में फैला हुआ है ...और अच्छी हरियाली से मन तरोताज़ा हो जाता है ..

पीडीपी अभी तो है ..कुछ एरिया शायद कोस्टल-रोड़ के चक्कर में लपेट लिया गया है या लपेटा जा रहा है, टाइम्स में आता रहता है, मुझे इस की कुछ खास समझ है नहीं ...

बड़ी बड़ी भारी भरकम मशीनरी ब्यां तो यही कर रही थी कि विकास कार्य तेजी से चल तो रहा है ...😄

इतने बढ़िया मिट्टी के वॉकिंग-ट्रैक देख कर मज़ा आ गया ...

पता नहीं यह बतखें हैं या कोई और जानवर हैं, लेकिन वे भी पूरा मज़ा कर रहे थे 

पार्क में बैठने के लिए पर्याप्त बैंच हैं ..कोई उस की याद में, कोई इस की याद में ...चलो, पब्लिक के लिए तो अच्छा ही है, दानवीरों का ईश्वर भला करे ...

बच्चों के लिए भी एक बहुत अच्छा पार्क है उस के अंदर ...रख-रखाव भी बहुत बढ़िया 


दिल तो बच्चा है जी ...उछल कर एक शाख पर बैठने की इच्छा तो हुई मेरी भी..लेकिन फिर दिल की सदा सुन ली कि अपने घुटनों का और इम्तिहान न ले, उन पर तरस खा....अभी चल रहे हैं न जैसे तैसे, बस, काम चला...ज़्यादा उड़ने की कोशिश न कर ...फिर कईं कईं दिन घुटने का दर्द लेकर बैठा रहता है ...

पार्क में ओपन-एयर जिम भी है ...और बहुत से लोग कसरत करते दिखे ..


वातावरण ऐसा कि कोई भी वहां बैठ कर कवि बन जाए ...

इन सीनियर सिटिजनों को चलते चलते क्लीन-इंडिया की वोटिंग की चिंता सताए जा रही थी, यार ...हंसी मज़ाक करो ...क्या इतने गंभीर मु्द्दे के साथ सुबह सुबह उलझ रहे हो ...

फुर्सत के पल भी ऐसे कि वहां से उठने की इच्छा ही नहीं होती ..

बड़े बड़े पौधे देख कर मन खिल जाता है ...

हम से का भूल हुई...जो यह सज़ा हम का मिली...😕



कुछ वक्त बिताने के बाद जैसे ही वापिस लौटने लगे तो देखा कि अब वहां के कुदरती नज़ारे की छटा अलग दिख रही है...सूरज देवता प्रकट हो रहे है ं...दो दिन पहले रेडियो पर सुनी बात याद आ गई कि किसी भी कुदरती नज़ारों को देखने जाओ तो वहां पर सिर्फ हाथ लगाने न जाओ...वहां पर वक्त बिताओ...दिन में हर पहर के साथ वहां की छटा अलग होती है ...जिसे यादों की पिटारी में सहेज कर रखने से बड़ा सुकून मिलता है ...

मिट्टी के रास्ते के साथ साथ इस तरह के पक्के रास्ते भी हैं ...फिसलने का कोई चांस ही नहीं ...

सुबह होते ही लड़के अपना जाल लेकर वहां पहुंच चुके थे ..

पेट्स का मेल-जोल देख कर अच्छा लगा..

पार्क के बारे में यह बात बढ़िया लगी ...और यह बिल्कुल सच भी लगा...

इतना कुछ होता है इस पार्क में ....बस, मुझे हमेशा लाफ्टर क्लब वाली बात हज़म नहीं होती ...हंसने के लिए भी यार कोई क्लब....हंसना तो बिल्कुल हमारी सांसों की तरह होना चाहिए ..बिल्कुल बिंदास, स्वतः ही हो जाने वाला और आसपास के माहौल को भी सहज कर देने वाला ...

इस तरह के कुदरती नज़ारे बरकरार रखने के लिए भी कितने लोग आगे आते हैं, इस पोस्टर से पता चला ...क्योकि वहां पर कोई टिकट नहीं है ...
अच्छा, एक बात और ...यह सुबह 10 बजे तक खुला रहता है, शायद 5-6 बजे खुलता है ...शाम में चार से आठ बजे तक खुलता है .हो कर आया करिए जब भी वक्त मिले ..पार्किंग की भी कोई ज़्यादा सिरदर्दी है नहीं ...लोग आसपास की सड़कों के किनारे लगा ही लेते हैं वाहन ...यह कोई ज़्यादा दूर भी नहीं है ...महालक्ष्मी मंदिर से यही पांच सात मिनट की  ड्राइव होगी ....नेप्यिनसी रोड़ जो आगे जाकर मालाबार हिल की तरफ़ निकल जाती है ..,

अभी भूख लग रही है ..उठता हूं नाश्ता कर लूं ...चलिए, इतनी तस्वीरें लगाने के बाद आज नाश्ते की प्लेट की तस्वीरें भी लगा देते हैं...




जितना आज की जेनरेशन को पिज़्जा, रोल, बर्गर, और भी पता नहीं क्या क्या ....पसंद है, उस से कहीं ज़्यादा हमें सर्दी में रोज़ यह खाना पसंद है, जब से होश संभाला है, मक्की की रोटी गुड़ या गुड़ की शक्कर के साथ सर्दी में लगभग रोज़ ही खाते रहे हैं...अकसर आखिरी रोटी यही होती थी ...अब इसे आप स्वीट-डिश कहिए या सप्लीमेंट या कोई टॉनिक ही कहिए ...हां, जवान थे तो दो-तीन भी एक साथ खा लेते थे....

जाते जाते ....इतनी तस्वीरें खींचते-खिंचवाते साथी से एक नसीहत भी मिल गई कि उसने कहीं वाट्सएप पर एक सुंदर संदेश देखा था ...Leave the Camera, Live the Moment! बात तो बढ़िया है, लेकिन अगली बार ख़्याल रखेंगे ....😃

आज पार्क की बात हुई ....फूलों की बात हुई, इसलिए गीत भी वैसा ही कोई सुन कर इस सुस्त सी ऐतवार की सुबह में कुछ तो नया जोश भरते हैं ...